गनीमत है कि द्वारिका मोदी के गुजरात में है, मथुरा या बृन्दावन नहीं . मोदी का राज यदि मथुरा-वृन्दावन में होता तब राधा-कृष्ण का क्या हाल होता ? वह भी भारतीय संस्कृति के कथित रक्षकों के हाथों . विडम्बना है कि ‘रक्षकों’ में कुछ गोपियां भी पीछे नही हैं .
काश इन ‘संस्कृति रक्षकों’ का भीम और हिडिम्बा जैसे युगल से कभी सामना हो जाता ,तब समझ में आता.
हमें इन सब चीज़ों को ब्लैक या व्हाइट के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। राधा, कृष्ण, भीम, हिडिंबा, यह तो सब कहानियाँ हैं — इन को सच मानकर न तो इन की समसामयिक विषयों से तुलना की जा सकती है, न इन्हें आदर्श आचरण की परिधि में रखा जा सकता हैं। यदि आप के बच्चे युवा हों – विशेषकर पुत्रियाँ – तो आप भी शायद उन को रासलीलाओं से दूर ही रखने चाहेंगे। विहिप वालों का पुलिसिया व्यवहार पचता तो नहीं है, पर यदि यही काम सिटिज़न वेलफेयर कमेटी के नाम से कोई NGO करती तो शायद आप को आपत्ति नहीं होती। पुलिस से तो उम्मीद है नहीं, वे या तो किसी को पकडेगी नहीं, पकडेगी तो केवल पैसा लेने के लिए। इसलिए किसी हद तक सिटिज़न ऐकशन ठीक भी है, पर यहाँ जिस नाम के अन्तर्गत किया गया वह कुछ लोगों को अपाच्य है। यदि मज़दूर इकट्ठा हो कर किसी कंपनी का काम बन्द कराएँ या उसे लूटें या अवैध हड़ताल करें तो वह ठीक है।
फिर यह भी मुद्दा है कि रासलीला या प्रेमी युगलों का मिलन किस हद तक सार्वजनिक स्थानों में होना चाहिए और कितना पर्दे में? कितना इस में पारस्परिक इच्छा से होता है, और कितना छेड़छाड़ के दायरे में आता है? जहाँ हम पेप्सी-कोक या अन्य अमरीकी चीज़ों का विरोध करते हैं, वहीं कुछ लोग सार्वजनिक जगहों पर चुम्माचाटी का विरोध भी करें तो क्या बुरा है?
यह टिप्पणी इस से संबन्धित पोस्ट (मंतव्य) पर भी की गई है।
कुछ नही……..
[…] राधा – कृष्णों की फजीहत […]
[…] राधा – कृष्णों की फजीहत […]