भारतीय बुद्धिजीवियों का विदेश-प्रेम [ पिछले भाग से आगे ] : इसके अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं ।साठ के दशक में डॉ. रिछारिया जैसे प्रखर कृषि वैज्ञानिक की चेतावनी को नजरंदाज करके हमने रासायनिक खेती वाली हरित क्रांति को अपनाया , जिसके दुष्परिणाम आज हम भोग रहे हैं और वापस जैविक खेती की बात करने लगे हैं।
इस दोषपूर्ण तकनालाजी को अपनाने में भारत के कृषि वैज्ञानिकों व नीति निर्माताओं पर विश्व बैंक , अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान , फोर्ड फाउन्डेशन , रॉकफेलर फाउन्डेशन जैसी संस्थाओं के प्रभाव एवं शिकंजे का बड़ा योगदान था । हमारे वैज्ञानिक और हमारी सरकार देश की उर्जा जरूरतों के लिए कोयला , पेट्रोल , पनबिजली , व परमाणु बिजली पर ही पूरी तरह निर्भरता बढ़ाते रहे हैं । उर्जा के पारंपरिक एवं नवीनीकरण योग्य स्रोतों के संरक्षण एवं विकास पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया , इसके पीछे भी पश्चिमी अमीर देशों की नकल की प्रवृत्ति ही रही है । अमरीका – यूरोप ठण्डे मुल्क हैं , जहाँ वर्ष के ज्यादातर दिनों में सूरज की गरमी कम ही पहुंचती है । लेकिन सूरज की भरपूर रोशनी व गरमी पाने वाले भारत ने सौर- उर्जा की उपेक्षा क्यों की , इस सवाल का जवाब भी इस प्रवृत्ति में मिलेगा ।
नब्बे के दशक में वैश्वीकरण , उदारीकरण , निजीकरण , विनियंत्रण व मुक्त व्यापार की आत्मघाती नीतियों को भी जब भारत ने अपनाया , तो उनके समर्थन में अर्थशास्त्रियों व अफसरों की एक फौज को पहले ही इसी तरीके से तैयार किया जा चुका था । विश्व बैंक , अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ,एशियाई विकास बैंक , पश्चिमी विश्वविद्यालय और अंतरराष्ट्रीय दानदाता संस्थाओं ने भारत के अनेक अर्थशास्त्रियों , प्रोफेसरों , अफसरों आदि को लगातार अपने यहाँ ऊँचे वेतन पर नौकरी देकर , प्रोजेक्ट देकर , गोष्ठियों – सम्मेलनों में बुलाकर अपने वश में कर लिया था और उनके दिल – दिमाग को अपने अधीन कर लिया था । अब स्वयं अमरीका – यूरोप में भीषण मंदी के बाद इन नीतियों पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं , तो ये लोग बगले झाँक रहे हैं ।
इस वैचारिक गुलामी और नकल की प्रवृत्ति में बड़ी भूमिका अंग्रेजी भाषा की भी है । अंग्रेजी का वर्चस्व महज भाषा का मामला नहीं है। यह उच्च वर्ग के वर्चस्व और विशेषकाधिकारों को बनाए रखने का माध्यम तो है ही । लेकिन सबसे बड़ा नुकसान तो यह हुआ है कि हमारा शास्त्र , शिक्षण , अनुसंधान , बौद्धिक विमर्श सबमें विदेशी विचार ही हावी होते रहे हैं और मौलिक चिंतन – अनुसंधान नहीं के बराबर हो रहा है । भारत के अनेक पढ़े – लिखे लोग अंधविश्वास की हद तक अंग्रेजी के भक्त हैं । बहुत लोग यह मानते हैं कि वैज्ञानिक प्रगति , अनुसंधान ,अंतरराष्ट्रीय संवाद , अंतरराष्ट्रीय व्यापार आदि अंग्रेजी और सिर्फ अंग्रेजी में ही हो सकता है । जापान के इस वैज्ञानिक के बारे में कोई उन्हें बताएगा क्या ? क्या कोई उन्हें यह भी बताएगा कि जो देश अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं या जहाँ अंग्रेज बड़ी संख्या में बसे हैं , उन्हें छोड़कर कहीं भी अंग्रेजी में शिक्षण , प्रशासन , अनुसंधान एवं विमर्श नहीं होता है? दुनिया का कोई भी देश विदेशी भाषा को पनाकर – लादकर प्रगति नहीं कर पाया है ।
कहने का मतलब यह नहीं है कि भारत को अपने दरवाजे बंद कर लेना चाहिए या वैचारिक – वैज्ञानिक विनिमय नहीं करना चाहिए । लेकिन यह लेनदेन एकतरफ़ा , गैरबराबर और असंतुलित नहीं होना चाहिए । इससे हम क्या हासिल कर रहे हैं , यह भी देखना होगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि कहीं हम वैचारिक – सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के शिकार तो नहीं बन रहे हैं ? हमारे बुद्धिजीवियों के ये पासपोर्ट कहीं बौद्धिक गुलामी और वैचारिक दिवालियापन के माध्यम तो नहीं बने हुए हैं ?
– सुनील ( लेखक समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। उनका ई-पता sjpsunil@gmail.com है )
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