हिन्दुस्तान लौटने के बाद खिलाफ़त आन्दोलन में साथ दे कर गांधीजी ने राष्ट्रीय स्तर पर कौमी एकता स्थापित करने का प्रथम प्रयास किया था । खुद को आदर्शोन्मुख व्यवहारवादी गिनवाने वाले गांधीजी ने राष्ट्रीय स्तर पर यथासंभव व्यावहारिक बनने का प्रयास किया था । ऐसा करने में उन्होंने स्तुति व निन्दा , लोकप्रियता व अप्रियता दोनों ग्रहण किए थे । इस आन्दोलन के कारण ही कुछ लोग उनके जीवनभर के दोस्त बने तथा अन्य कुछ लोगों ने उन्हें दुश्मन माना था।
खिलाफ़त आन्दोलन गांधी ने शुरु नहीं किया था । इस आन्दोलन का प्रमुख कारण अन्तर्राष्ट्रीय था । प्रथम महायुद्ध शुरु हुआ तब हिन्द के मुसलमानों को न छेड़ने और युद्ध-प्रयासों में उनकी मदद की अपेक्षा से ब्रिटिश सरकार ने अपनी मुसलिम प्रजा को सम्बोधित एक गंभीर घोषणा की थी , जिसमें कहा गया था कि : युद्ध तो उसकी इच्छा न होने के बावजूद ऑटॉमन सरकार(तुर्की) ने उस पर लादा है। घोषणा में आगे कहा गया था कि अरबिस्तान तथा मेसोपोटामिया के मुस्लिम धार्मिक स्थलों और जेद्दाह के बंदरगाह पर हरगिज़ आक्रमण नहीं किया जाएगा । हज करने वाले यात्रियों को कोई दिक्कत आने न दी जाएगी । ब्रिटिश प्रधान मन्त्री लॉयड जॉर्ज ने कहा था कि साथी देश तुर्की को एशिया माइनर की उसकी भूमि से उसे वंचित नहीं करेगे । अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी इस घोषणा को समर्थन दिया था । इससे हिन्दुस्तान के मुसलमानों को भरोसा था कि तुर्की की आज़ादी बची रहेगी । युद्ध के बाद की संधि में विजेता राष्ट्रों ने तुर्की के इलाकों की बन्दर बाँट की तथा सुल्तान के अधिकारों को सीमित करते हुए साथी देशों द्वारा नामित हाई कमिशनरों के मार्गदर्शन के तहत रखा गया ।
खुले वचन भंग की इस संधि से हिन्द के मुसलमानों को जबरदस्त निराशा हुई ,जो स्वाभाविक थी । इसके अलावा खिलाफ़त आन्दोलन शुरु करने के पीछे हिन्द के मुसलिम नेतृत्व के मन में एक और महत्वपूर्ण कारण था – वे चाहते थे कि हिन्द के मुसलमानों में राष्ट्रीय अस्मिता का भाव जागृत हो । हिन्द के तमाम मुसलिम किसी एक अखंडित विचार या संस्कार के नहीं थे । उनमें कई मतभेद तथा खास कर नेताओं की स्पर्धा के कारण पैदा किए गए भेद थे । उनकी ज्यादातर संस्थायें धार्मिक थी । पश्चिमी शिक्षा प्राप्त तथा उलेमाओं से मदरसों में तालीम प्राप्त लोगों में खूब फरक था । ज्यादातर धार्मिक संस्था सरकार के प्रति नरम थी लेकिन देवबन्द के दारुल उलूम सरकार विरोधी रुझान वाली थी। पढे लिखों में अलीगढ़ मुसलिम युनिवर्सिटी के पढ़े तरुण , उनके प्राध्यापक और प्रशासक पश्चिमी रुझान वाले थे। पश्चिमी तालीमयाफ़्ता ज्यादातर शहरों में थे और सरकारी नौकरियों में भी। मुसलमानों का विशाल समुदाय तो किसान , कारीगर तथा छोटे व्यापारी थे ।
भारतीय मुसलमानों के सबसे महान समाज सुधारक सर सैय्यद ने अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्थापना की । अलीगढ विश्वविद्यालय ही नहीं ‘ अलीगढ़ तहरीक ‘ मानी जाती थी । खिलाफ़त आन्दोलन शुरु होने के पूर्व तीन साप्ताहिकों ने हिन्द के मुसलमानों पर जबरदस्त असर डालअना शुरु किया था । मोहम्मद अली कलकत्ते से कॉमरेड ,कलकत्ते से ही मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अलहिलाल तथा लाहौर से जफ़र अली खां जमींदार निकालते थे ।
खिलाफ़त आन्दोलन के प्रमुख नेता अली बन्धु , डॉ. अंसारी ,मौलाना हसरत मोहानी और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद प्रमुख थे । गांधी की तरह ये सभी धार्मिक रुझान वाले थे , नेहरू और जिन्ना की तरह अधार्मिक सेक्युलर नहीं थे । मुस्लिम लीग उस समय मात्र अमीर और पढ़े लिखों की संस्था थी।हांलाकि खिलाफ़त आन्दोलन के समर्थन में उन्होंने भी प्रस्ताव पास किया था लेकिन उसकी शाखायें और समितियां इसमें सक्रिय नहीं थीं। खिलाफ़त की शुरुआत में माना गया था कि तीन मार्ग मुसलमानों के लिए खुले हैं (१) खून खराबा (२) पूरी कौम की हिजरत (३) असहयोग । पहले दो विकल्प न ग्रहण करने के पीछे गांधी का प्रमुख योगदान था । इस दौर में अली बन्धुओं की माता आबेद बानु बेगम ने स्त्री जागृति का महत्वपूर्ण काम किया ।वे खुद पर्दा नशीं थी लेकिन खिलाफ़त की मीटिंगों में पहुंच कर पर्दा निकाल देतीं और कहती,’तुम सब मेरे बेटों की तरह हो तुम्हारे सामने कैसा परदा?’ बाद में अली बन्धुओं की गिरफ़्तारी के बाद शौकत अली की पत्नी भी सक्रिय हुईं । ६ अप्रैल १९१९ के दिन रॉलेट कानून के खिलाफ़ जब देशव्यापी हड़ताल हुई तब मुम्बई की दो मस्जिदों में श्रीमती सरोजिनी नायडू को बुलाया गया ।
खिलाफ़त के माध्यम से गांधी गरीब मुसलमानों तक पहुंचे और उन्हें सक्रिय बनाया ।
कॉग्रेस और खिलाफ़त कमिटी की संयुक्त बैठक में एक तरफ़ श्रीमती एनी बेसेण्ट तथा महामना मालवीय तथा दूसरी तरफ़ शौकत अली थे । उन लोगों ने कहा कि अभी विचार करने के लिए वक्त दीजिए , इन लोगों ने कहा कि कब तक इन्तेज़ार किया जाएगा । हसरत मोहानी ने यह कह कर धमाका कर दिया कि अफ़गानिस्तान के अमीर यदि ब्रिटिश सरकार पर हमला करते हैम तो मैं उनका साथ दूंगा । गांधी ने मुसलिम नेताओं से अहिंसक असहयोग की शपथ ली थी और कहा था कि इसका उल्लंघन हुआ तो मैं अलग हट जाऊंगा । इस आधार पर उन्होंने खिलाफ़त आन्दोलन के मुसलमानों का समर्थन किया । यह सच्चाई कहीं दबाई नहीं गई है ,उस दौर की बाबत लिखी तमाम इतिहास की किताबों में मिलती हैं । (मिनोल्ट गेईल की The Khilafat Movement , पृष्ट ९९,उक्त पुस्तक में गृह विभाग के दस्तावेज से लिया गया,राष्ट्रीय अभिलेखागार,नई दिल्ली से) । खिलाफ़त के मुसलिम नेताओं पर आरोप तब भी लगते थे जिनकी बाबत गांधी ने कहा था , ‘ वे द्वेष मुक्त हैं यह मैं नहीं कहता ,परन्तु उनके द्वेषभाव के साथ मेरा प्रेम भाव मिलाने पर द्वेष भाव का वेग मैं कम कर दे रहा हूं यह मुझे यकीन है।’ ( गांधी शिक्षण -भाग १०,पृ ८)
” मैं मुसलमान पहले हूं फिर हिन्दुस्तानी हूँ(मोहम्मद अली) इसका मैं बचाव करता हूँ।क्योंकि मैं भी तो यह कहने वाला हूँ कि पहले हिन्दू हूं इसीलिए सच्चा हिन्दुस्तानी हूं ।”(महादेव भाईनी डायरी ,भाग ६,पृ- ४३६-४३७)
[ इस विषय पर यदि पाठक रुचि लेंगे तो नारायण देसाई की ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी पुरस्कार प्राप्त किताब ‘मारूं जीवन एज मारी वाणी’ के सम्बन्धित अध्याय का पूरा अनुवाद कर पेश किया जाएगा। खिलाफ़त आन्दोलन के नेताओं के बारे में विस्तार से चर्चा की जा सकती है ]
[ बिना दोहराये पोस्ट कर रहा हूं ]
न केवल निश्चिन्तता मिली, धुंध भी छंटी।
‘मारूं जीवन एज मारी वाणी’ का एक अध्याय ही नहीं (जानता हूं कि मेरी बात केवल कहने में आसान है, क्रियान्वयन तो कल्पनातीत है फिर भी), अलग लेबल से पूरी पुस्तक ही उपलब्ध कराई जा सकती हो तो तदनुसार विचार करने का उपकार करें।
बहुत अच्छी जानकारी जुटाई है।आभार।
बेहतरीन जानकारी देने के लिए आपका शुक्रिया !
खिलाफत आंदोलन के बारे में काफी कुछ जानने को मिला, शुक्रिया।