जब बुनियादी सवालों पर प्रमुख दलों में वैचारिक अन्तर न रह गया हो तब हार – जीत के नकली कारण प्रकट होने लगते हैं । उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की आशा से अधिक सफलता से प्रफुल्लित मनमोहन सिंह से लगायत छुटभैय्ये कांग्रेसी और उनकी मस्केबाजी करने वाले टेवि चर्चाकार बेशर्मी से क्या-क्या कह रहे हैं ?
१. इसका श्रेय राहुल गांधी के प्रचार अभियान को जाता है ।
२. किसानों की कर्ज माफी का लाभ हमें मिला ।
कांग्रेस ने राहुल गांधी को प्रधान मन्त्री का उम्मीदवार न बना कर यह चुनाव लड़ा इसलिए वंशवाद के जायज आरोप से बची रही ।
चौधरी देवीलाल द्वारा १० हजार रुपये तक के किसानों के कर्ज जब माफ किए गए थे तब अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने उस कदम को गलत ठहराया था और कहा था कि इससे अर्थव्यवस्था का नुकसान हुआ है ।
मौजूदा चुनाव का सबसे बड़ा सबक होगा कि जब प्रमुख दलों में मुख्य नीतियों में फरक न रह जाए तब एक संघर्षशील प्रतिपक्ष को खड़ा करने के लिए सक्रिय हुआ जाए ।
कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है
मई 16, 2009 अफ़लातून अफलू द्वारा
संघर्षशील प्रतिपक्ष? किसकी बात कर रहे हैं आप? लालू-मुलायम या वामपंथी? हम भाजपा की हार से दुखी हैं खुले दिल से स्वीकार करते हैं, लेकिन एकमात्र खुशी इस चुनाव रिजल्ट की यही है कि इन तीनों से पीछा छूटा… अब जनता को यदि महंगाई और आतंकवाद कोई मुद्दे ही नहीं लगते तो हमें क्या? लेकिन फ़िल्हाल 5 साल तक सरकार को बेजा ब्लैकमेल करने वाले तो बाहर हुए, यही संतोष है…
जब प्रमुख दलों में मुख्य नीतियों में फरक न रह जाए तब एक संघर्षशील प्रतिपक्ष को खड़ा करने के लिए सक्रिय हुआ जाए ।
आप की इस बात से पूर्ण सहमति है। सब से पहले तो बनने वाली सरकार से उस के वायदे पूरे करने के लिए ही लड़ाई शुरू करनी पड़ेगी।
कुछ दलों को छोड़ कर सभी दल बड़े उद्योगपतियों, विदेशी पूँजी और जमींदारों के प्रतिनिधि हैं। उन में असमंनता तो जनता से वोट प्राप्त करने के तरीकों में ही है।
आपके दल ने कैसा प्रदर्शन किया ?
प्रिय मनीष,
आपने हमारे दल के प्रत्याशियों के परिणाम जानने चाहे ,हृदय से शुक्रिया। विस्तृत परिणाम इस महीने२२-२५ संगमनेर (नासिक रोड के पास) में राष्ट्रीय कार्यकारिणी में चर्चा में आयेंगे। बंगाल के अलीपुरद्वार से साथी बिलकन बारा को ९,८७५ वोट मिले। ओडिशा के बरगढ़ विधान सभा सीट पर लिंगराज को ८,५०० वोट मिले। लिंगराज को पिछली बार २०,००० वोट मिले थे। मुख्यधारा के दलों के बीच तीव्र ध्रुवीकरण के बावजूद ,यह जानते हुए कि प्रत्याशी जीतेगा नहीं हमें ये वोट मिलते हैं।
अन्य सीटों के विस्तृत परिणाम मिलते ही लिखूंगा। अभी नेट पर नहीं आए हैं।
सप्रेम,
अफ़लातून
@ सुरेश चिपलूणकर , देश को चलाने वाली प्रमुख महत्वपूर्ण नीतियों की बाबत भाजपा,कांग्रेस,माकपा,सपा,बसपा,राजद में फर्क हमारी तरह जनता भी नहीं करती है – मंहगाई , आतंकवाद की बाबत भी नहीं । इसलिए ’संघर्षशील प्रतिपक्ष’ तो खड़ा करना होगा । यह दल भाजपा-कांग्रेस की आर्थिक नीतियों को ही अपनाते रहे तो अप्रासंगिक होते जाएंगे ।
कोंकण क्षेत्र के चिपलूण के निकट एनरॉन के विरुद्ध आन्दोलन और बाद में उस दानवाकार उर्जा कम्पनी द्वारा खुद को दीवालिया घोषित करने की कहानी तो आपको अपने नाम से जुड़ी होने के कारण भी याद रखनी चाहिए । उक्त परियोजना की बाबत जनता के ’भ्रम दूर करने के लिए’ साठ करोड लेने(पवार) और उसे अरब सागर में फेंकने की चुनावी घोषणा करने तथा सत्ता में आने के बाद सौदेबाजी करने वालों(शिव सेना) में फर्क नहीं है।
आप इस पर लेख लिखिये कि बनारस और अन्य जगहों पर बाहुबली और उनके परिवारों के लोग चुनाव कैसे हारे? बनारस में मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण करके जिनके जीतने की आशा की जा रही थी वे हार गये और मुरली मनोहर जोशी जी जीत गये।
बाकी राहुलगांधी के बारे में जो चैनल वाले कह रहे हैं तो उनको कोई तो हीरो चाहिये ही तुरत-फ़ुरत प्रतिक्रिया करने के लिये। विस्तार से विष्लेषण कहां से करें बेचारे वे 🙂
अच्छी जानकारी दी आपने। मीडिया को अपनी टीआरपी की पड़ी है और ऐसे में राहुल को हीरो के रुप में पेश करना जरुरी था। यद्यपि कांग्रेस के अनेक नेताओं ने मेहनत की है लेकिन यहां अंत में सारा श्रेय कांग्रेस के असली वारिस को ही जाता है। किसी नेता की यह कहने की हिम्मत नहीं है कि मैने भी तो रात रात जागकर मेहनत की है। सब एक ही सुर में जय हो सोनिया जी की, जय हो राहुल जी की। हमारे नेता ये और हम इनके सेवक। बोलने वाला भी जानता है कि यहां बोला तो राजनीति पटल से गायब तो ही हो जाऊंगा, जिंदगी में मलाई के छोड़ छाछ के भी दर्शन नहीं होगे। माल कमाओं, नेता चाहे जो हो। अपनी कीमत वसूल करने की वजह से ही ये नेता चुप्प रहते हैं।
भाजपा, जिसके नेताओं के इस्त्री किए कपडों के खराब होने का डर हमेशा सताता है। जरा सी धूल न ल जाएं नहीं तो जनता क्या कहे्गी कि कितना गंदा नेता है। आप ऐसे बातूनी नेता कहीं नहीं पा सकते लेकिन काम करेगा कौन। सारे नेता है कार्यकर्ता कोई बचा ही नहीं। हाईटेक बनकर घूमते रहो लेकिन जब सारे ही नेता हो गए तो सेवक वहां कोई बचा ही नहीं।
वामपंथी, ये ऐसा जीव है जो बदलना ही नहीं चाहता। दूनिया भर में लाल सलाम का कलर बदल गया लेकिन ये वहीं पुरातन पंथी। भाईयों कुछ तो बदलो। देश में युवाओं की संख्या ज्यादा है, लोग विकास चाहते हैं, लोग रोजगार चाहते हैं, लोग शिक्षा, अस्पताल, पानी, बिजली जैसी आधारभूत सुविधाएं चाहते हैं और ये लोग है कि चीन की ओर देखकर ही सुबह शाम बीता रहे हैं। जबकि चीन भी अब वैसा नहीं रहा जैसा ये सोचते हैं। कार्ल मार्क्स ने यह थोड़े ही कहा था बदलना मत चाहे एक हजार साल हो जाए मुझे दुनिया से गए।
मायावती, लालू, मुलायम, पासवान ये सब वीपी सिंह के मंडल कमंडल से निकले भूत हैं जो सारे देश को जातिवाद और संप्रदाय के नरक में डाले हुए है। इस देश में रहते हुए कहते थे कि तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार। सो जनता ने कसकर मार दिए इनकों ही जूते।
औरों के और भी झंडू होने की हताशा में जनता ने कांग्रेस को चुना। ऐसा होगा खुद कांग्रेसी भी नहीं जानते थे वरना राहुल गांधी चौथे चरण में सारे प्रवासी पक्षियों को अपने फैमिली जू में बुलाने के लिए चुग्गा न डालते।
विपक्ष बनाना होगा, यही अकेला इस चुनाव का सबक है। सहमत।
[…] By अफ़लातून चुनाव बाद दी गयी मेरी पहली त्वरित टिप्पणी पर अनूप शुक्ल ने कहा,” राहुलगांधी के […]
जनता ने कांग्रेस को इसलिये वोट नहीं दिया है कि कांग्रेस मस्त पार्टी है….दूसरे पार्टियों की चिरकुटई से त्रस्त होकर लोगों ने स्थिरता में अपनी आस्था व्यक्त की है। इस चुनाव में किसी का जादू नहीं चला है, और न ही कोई सुपर हीरो है। यदि कोई हीरो है तो वह जनता।…..मैच्योर वोटिंग हुई है……राहुल की राजनीतिक गतिविधियों के महत्व को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है……राजनीति एक प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया में राहुल की भागीदारी बढ़ती जा रही है…..और भारत आज भी वंशवाद के मनोविज्ञान से निकल नहीं पाया है…..नया जेनेरेशन पर बाजारवाद हावी है…..नई आबादी हाईअर एजुकेशन की ओर नहीं भाग रही है…..कोई चटपट कोर्स करके तुरंत कमाना चाहती है…..छोटो शहरों से लेकर बड़े महानगरों तक में इस आबादी की संख्या ठीक ठाक है, और सबसे बड़ी बात यह है कि वोट ठोकने में इन्हें मजा आता है….यह इनके लिये एक रोमांचकारी काम है….भारी भरकर सिद्धांत इनके समझ में नहीं आता है……भाजपा ने इस तबके पर खास ध्यान नहीं दिया।
जहां तक दूर दराज के गांवों की बात है तो स्थानीय देवी देविताओं की पूजा करते हुये राम राम भजने वाले लोगों के समूह का विश्वास पिछले चुनाव में इंडिया साइनिंग के हाईटेक नारा के साथ ही विखंडित हो गया था…जिसे बहाल करने की व्यवस्थित कोशिश कभी नहीं की गई। अरुण जेटली जैसे लोग ऊपर की राजनीति तो कर लेते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर उनकी पकड़ नहीं है। और एसे ही लोग भाजपा के नीति निर्धारण में सक्रिय रहे हैं।
वाकई में यह खुशी की बात है कि लालू, मायावती और रामविलास पासवान जैसे लोगों को यहां की जनता ने बौना कर दिया है। यह मतदान तोलमोल और सत्ता की दलाली के खिलाफ है…..वामपंथ भी सिकुड़ चुका है……अब रास्ता साफ है ,जरूरत है दिमाग को साफ करने की…….
अगर चुनाव मे एनडीए को सफ़लता मिलती तो यही चैनल वाले वरूण को हीरो और राहुल को ज़ीरो बताते नज़र आते। हां ये बात ज़रूर है प्रतिपक्ष संघर्षशील होना चाहिये मगर आज कोई भी राजनैतिक दल संघर्ष करना ही नही चाह्ता।वो तो जोड़-तोड़ कर कैसे भी हो सत्ता का स्वाद चखना चाह्ता है।
कुल मिलकर बात एक है की जनता जो भूल बार बार कर रही थी, उससे छुटकारा मिल गया.. उसने किसी एक पार्टी को चुना… अब सरकार खुल कर काम कर सकेगी…
एक जातिविहीन और धर्म या धर्मनिर्पेक्षता की बात न करने वाले केवल और केवल भारतीय विपक्ष की बहुत जबरदस्त आवश्यकता है।
घुघूती बासूती
जिस देश का प्रधानमंत्री स्वयं स्वीकार करे की देश की 70 प्रतिशत जनता 20 या 20 रूपए से कम पर गुज़ारा करती हैं वहां सुरेश चिपलूनकर का यह कहना की जनता को अपनी गरीबी या महंगाई जैसे मुद्दों से कोई वास्ता नहीं हैं, बात ज़रा गले से उतरी नहीं.
वैसे उन्होंने स्वयं स्वीकार कर लिया है कि वे भारतीय जनता पार्टी की हार से दुखी हैं, ऐसे में जनता जनार्दन को दोषी करार दे देना ! कहीं उन्हें यह भ्रम तो नहीं कि वे सर्वज्ञाता हैं और जनता बेवकूफ.
वैसे आज से 40-50 साल पहले देहाती विशेषकर किसान को बेवकूफ समझा जाता था, इसलिए नहीं कि वास्तव में किसान या देहाती बेवकूफ होते हैं. उस ज़माने में किसान, मजदूर और देहाती का चरित्र मेहनतकश का था और मेहनतकश परजीवी वर्गों को हमेशा बेवकूफ दीखते हैं चाहे वह किसान रहा हो जो बीज को शुष्क, या भिगोकर, गहरे में या धरती के ऊपर बिखेरकर और हर मौसम, हर प्रकार की भूमि में उसे उगाने का ज्ञान रखता था.
सामाजिक शास्त्र कभी जनता को दोषी नहीं ठहराता अलबता वह सोई हुई हो सकती है, सोना कोई बुरी बात नहीं, किसी को उसे उठाना नहीं आता और वह मनोगत तरीके से दोष जनता पर मढ़ दे ? अगर हम समझतें हैं कि जनता हमारी मनोगत इच्छाओं का ख्याल करे, तो हमारी ओर लाखों नहीं करोडों उँगलियाँ उठ जाएँगी लेकिन अपनी इस मनोगत बीमारी की वजह से हो सकता है हमें एक भी दिखाई न दे.
वैसे सुरेश जी महंगाई से अनुभववादी तरीके से परेशान हो जाते हैं, ये महंगाई, ज़रा खोलकर हमें भी बताएं कि महंगाई कम होगी तो उस मजदूर वर्ग की जिसे प्रधानमंत्री 20 रूपए से कम पर गुजारा करते बताते हैं मजदूरी कम क्यों नहीं होगी ? बात ज़रा सिद्धांत की है सिद्धांत के क्षेत्र में रहकर एक राजनितिक अर्थशास्त्री की नज़र से ज़बाब दीजिएगा.
और आतंकवाद पर वे चिंतित हैं मगर एकांगी तरीके से, समग्रता से नहीं, उन्हेँ हम दीपायन बोस का ‘आतंकवाद के बारे में : विभ्रम और यथार्थ
पढने की सलाह देंगे और इस पर एक विस्तृत टिपण्णी की अपेक्षा भी करेंगे.
अफलातून जी वास्तव में अफलातून हैं, उसी यूनानी परम्परा के जिसने जेल से भागने से इंकार कर दिया था कि इससे राज्य का पवित्र कानून टूटता है, उसी राज्य का जिसमें गुलाम और मालिक दो वर्ग थे और जहर का प्याला अपने लबों से लगा लिया मगर राज्य के तर्क पर आंच नहीं आने दी. ये बात करेंगे मगर शब्दों के हेरफेर के साथ. अब इन्होनें एक नया शब्द जोड़ बिठा दिया “संघर्षशील प्रतिपक्ष” ? इसे अगर परिभाषित कर लें तो हम भी कुछ आगे बढ़ें.
वैसे सुरेश जी की एक बात से “लेकिन एकमात्र खुशी इस चुनाव रिजल्ट की यही है कि इन तीनों से पीछा छूटा” हम भी सहमत हैं लेकिन इसके साथ हम ये भी जोड़ देना चाहते हैं कि वामपंथी, समाजवादी, कम्युनिस्ट, जनशक्ति, बहुज़न जैसे शब्दों का प्रयोग करने से आप और हम (अवसरवादी) वे नहीं हो जाते जो इन शब्दों के अर्थ हैं लेकिन आप जैसे विचारवादी या आदर्शवादी लोग जो विचार को प्रथम और पदार्थ को गौण मानते हैं मानेंगे थोड़े ही. कोई लाख सर पटक ले तब भी आप नहीं मानेगे कि मनुष्य को उसके भौतिक हालात ही किसी विचार का कायल बनाते हैं. हाँ अपवाद हो सकतें हैं लेकिन हम वर्ग की बात कर रहें हैं. यहाँ अटल जी, मनमोहन सिंह और बहुतेरे वामपंथी, (एक का ज़िक्र हमने भी किसी अख़बार में पढ़ा कि वे राजस्थान से विधायक हैं परंतु पीले कार्डधारी हैं, खजाने से तनख्वाह नहीं लेते और राशन की दुकान पर उन्हें लाईन में खड़े देखा जा सकता है ), साफ़ और स्वच्छ छवि के हैं.
आप मिलना चाहेंगे उनसे ? मगर क्या फायदा. असल सवाल तो उन दलों का है – उनके चरित्र का है और साथ ही क्या बुर्जुआओं को साफ़ और स्वच्छ छवि के सेवक नहीं चाहिएँ?
एक कन्फ्यूजन हो सकता है कि कहीं हमने कांग्रेस को उस 70 प्रतिशत का सच्चा प्रतिनिधि तो घोषित नहीं कर दिया. बिल्कुल नहीं. बस विकल्पहीनता.
कुछ भविष्यवाणी हो सकती है. 20 प्रतिशत लोगों का लोकतंत्र जिसे हम बुर्जुआ अधिनायकवाद कहते हैं (इसलिए नहीं कि ऐसा हम कहते हैं यह तो हर कोई बगैर सिद्धांत के अपने अनुभव से ही समझता है) और अधिक मज़बूत हुआ है और आने वाले समय में श्रम और पूँजी की झड़पें त्वरित होंगी. इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए.
मार्क्सवाद से तो तथाकथित मार्क्सवादी भी मुनकर हो गएँ हैं आप की तो बात छोड़िए. लेकिन लेनिन द्वारा गद्दार कायुत्सकी के लिए कहे गए शब्द कि बुर्जुआ लोकतंत्र जहाँ पूँजी का राज होता है वहां मजदूर वर्ग संसदीय ढंग से सत्ता हासिल कर लेगा यह कोई लुच्चा और शोहदा ही कह सकता है. और लेनिन के यह शब्द उनकी मृत्यु के बाद चिल्ली और इंडोनेशिया (केवल इंडोनेशिया में जहाँ कम्युनिस्ट संसदीय ढंग से मज़बूत हो रहे थे, 10 लाख लोगों को यह कहकर कत्ल कर दिया गया कि वे कम्युनिस्ट हैं) सही साबित हुए.
हाँ आप गलती न करें कि हम कोई भारतीय माओवाद या नकसलवाद का नया संस्करण हैं इसके लिए आप हमारा ‘नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती चार दशक’ देखें.
और अब दो टूक बात. बुर्जुआ दलों का तो ऐसा होता ही है लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट दलों का स्वरूप भी संघाधिपत्यवादी रहा है. आप दो लाईनों के बीच लम्बा और सतत संघर्ष चलाए बगैर किसी बोलेश्विक चरित्र की पार्टी के निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं कर सकते. यह गैर वैज्ञानिक है, गैर मार्क्सवादी है, विचारवादी और आदर्शवादी तरीका है जिसकी परणिति संशोधनवाद और दुस्साहसवाद ही होती है.
शहीद भगत सिंह विचार मंच उन बुद्धिजीवियों से यह स्पष्ट कर देना चाहता है कि भारत (और यहाँ तक की विश्व की 99 प्रतिशत कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी) अपने उल्ट में बदल चुकीं हैं. हमें इसका अफ़सोस नहीं करना चाहिए क्योंकि सिद्धांत कहता है कि चीजें देर-सवेर अपने विपरीत में बदल जाती हैं. आज बीते युग की तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियों को इकठ्ठा करके भानुमती का कुनबा जोड़ने से कुछ हासिल नहीं होने वाला. आज पार्टी गठन की अपेक्षा पार्टी निर्माण प्रमुख है.
हम उन बुद्धिजीवियों से जो श्रम को धन (यहाँ श्रीमान अफलातून द्वारा प्रस्तुत सुनील जी के उस लेख का जिक्र भी करना ज़रूरी समझेंगे जिसमें उन्होंने बिना पूँजी और मार्क्स पढ़े किसी नए सिद्धांत को लिखने की सलाह दे डाली थी, उसमें उन्होंने मार्क्स पर आरोप लगाया था कि वे श्रम की बिनाह पर धन के स्रोत में प्रकृति की भूमिका से मुनकर हैं जबकि पूंजी के प्रथम खंड के प्रथम अध्याय में मार्क्स ने उन अर्थशास्त्रियों को गलत ठहराया था जो श्रम को ही एकमात्र धन का स्रोत मानते थे) और ज्ञान का स्रोत मानते हैं, इस लम्बी और पीडादायक प्रक्रिया का हिस्सा बनने का आह्वान करते हैं ताकि वे अपने सर पर ज्ञान के इस क़र्ज़ का कुछ भुगतान करके सर्वहारा की अदालत में अपने कर्मों द्वारा कुछ तो सच्चे हों.
आमीन !
[…] गुज़ारा करती हैं वहां सुरेश चिपलूनकर [ कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है ] का यह कहना की जनता को अपनी गरीबी या […]
कमल शर्मा जी की टिप्पणी एकदम सही है, सौ प्रतिशत सहमत।
वाह भगत सिंह विचार मंच…
कुछ समझ में आया जनाबों…दरअसल तर्किक बहस शुरू होते ही हमारी कामचलाऊ समझ सुविधा का गोता मारने चली जाती है…
कुछ लिखने का मन था..पर अब जरूरत ही ना रही…
आपका पक्ष भी विचारणीय है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
[…] कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है […]
[…] कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है […]
[…] कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है […]
[…] कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है […]
जरा मैनहन में भी झाकिए
[…] कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है […]
[…] कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है […]
[…] कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है […]
[…] “मूल्य-सृजन का एकमात्र आधार श्रम”, यह बात तो सदियों पहले बुर्जुआ अर्थशास्त्री कह चुके थे. यह बात मार्क्स ने नहीं कही. मार्क्स कहते हैं कि अन्य पण्यों की भांति श्रम भी पण्य होती है, यानि उसका दोहरा स्वरूप होता है. वे लिखते हैं, ” पण्यों में निहित श्रम की इस दोहरी प्रकृति की ओर इशारा सबसे पहले मैंने किया था और उसका आलोचनात्मक अध्ययन भी सबसे पहले मैंने किया था”. किसी वस्तु (सही शब्द में पण्य) या ‘श्रम शक्ति’ का ‘मूल्य’ की दोहरी प्रकृति है, यानि वह “उपयोग मूल्य” के साथ विनिमय मूल्य भी है. सुनील के शब्द जो उन्होंने मार्क्स के नाम मढ़ दिए “मूल्य-सृजन का एकमात्र आधार श्रम” के विरुद्ध मार्क्स की पूंजी और मार्क्सवाद का जन्म हुआ है. अगर इस मूल्य की दोहरी प्रकृति को निकाल दे तो न मार्क्स की पूंजी बचती है न मार्क्सवाद. बात मामूली चूक की नहीं है बल्कि मार्क्सवाद को अवैज्ञानिक और अतार्किक सिद्ध कर ‘मार्क्सवाद मुर्दाबाद, गाँधी, लोहिया का समाजवाद जिंदाबाद करने की है. उस वक्त मैंने “सूडो नेम” (नाम में क्या रखा है, शेकस्पियर) दीपक के तले टिप्पणी की जिसे उपरोक्त दिए गये लिंक पर अफलातून के ब्लॉग पर देखा जा सकता है, “ मैंने मार्क्स की बहुत थोडी रचनाएँ पढ़ी हैं लेकिन जो कुछ पढ़ा और समझा है उस हिसाब से तो लगता है कि आपने मार्क्स के साथ थोडी नहीं बल्कि काफी ज्यादा बेइंसाफी की है. आप लिखते हैं कि, 1.’मानव इतिहास एक ही लाईन पर चलता है’ यह यांत्रिक तरीका है जबकि मार्क्स इसके विपरीत द्वंदात्मक भौतिकवाद के तरीके का प्रयोग करते थे. 2.’मूल्य के श्रम सिद्धान्त के अनुसार मूल्य-सृजन का एकमात्र आधार श्रम ही है’…..मार्क्स की रचना ‘गोथा प्रोग्राम की आलोचना’ में जब वे आलोचना शुरू करते हैं तो इसी वाक्य से जो आपने मार्क्स के नाम मढ़ दिया है, देखें …..Labor is not the source of all wealth. Nature is just as much the source of use values (and it is surely of such that material wealth consists!) as labor, which itself is only the manifestation of a force of nature, human labor power. the above phrase is to be found in all children’s primers and is correct insofar as it is implied that labor is performed with the appurtenant subjects and instruments. But a socialist program cannot allow such bourgeois phrases to pass over in silence the conditions अपनी द्वंदात्मक दृष्टि से वे जिन्स के दोहरे चरित्र का विश्लेषण कर पाए. उपयोग मूल्य ओर विनमय मूल्य में अन्तर साफ़ किया. क्या मार्क्स की नज़र में धूप, हवा, पानी का कोई मूल्य नहीं था ? उन्होंने साफ किया कि ये इसलिए मुफ्त में उपलब्ध हैं क्योंकि इन पर मानवीय श्रम नहीं लगता. पानी को ही लिजीये, जब इस पर श्रम लगने लगा तो यह भी बिकने लगा.” फिर मैंने उनके ही ब्लॉग पर उनके आलेख ‘कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है’ देखें लिंक https://samatavadi.wordpress.com/2009/05/16/congress_lies/ […]