बीते गणतंत्र दिवस पर केरल के कन्नूर जिले के श्री पल्लिपरम प्रसन्नन कमर तक प्रदूषित पानी में तीन घण्टे तिरंगा ले कर खड़े रहे । उनके साथी दिन भर के उपवास पर थे । यह जगह कन्नूर नगरपालिका की सरहद से केवल चार किलोमीटर दूर स्थित पुज़ाथी पंचायत के अन्तर्गत है। कन्नूर जिले की ’जिला पर्यावरण संरक्षण समिति’ से जुड़े कभी बहते पानी का स्रोत रही कक्काड नदी को बचाने के लिए लड़ रहे हैं । जिला समिति के संयोजक मेरे दल समाजवादी जनपरिषद के विनोद पय्याडा हैं । समिति के कार्यकर्ताओं के साथ बैठक के बाद मुझे ’कक्काड पुज़ा संरक्षण समिति’ से जुड़े देवदास मौके पर ले गये । देवदास एल.एल.एम उत्तीर्ण युवा वकील हैं तथा मुख्यधारा के दलों के रवैय्ये के प्रति उन्हें काफ़ी रोष है ।
कक्काड नदी १९६६ तक वालापत्तनम नदी की एक उप-नदी के रूप में बहती थी । उत्तरी कन्नूर जिले के पहाड़ी इलाकों से कन्नूर शहर तक फेरी से आने-जाने का यह प्रमुख जरिया थी। वालापत्तनम नदी के ज्वार-भाँटा से जुड़ी़ ’काईपाड कृषि पद्धति’ से इस इलाके लोग साल में धान की एक फसल प्राप्त कर लेते थे । राज्य सरकार ने १९६६ में कट्टमपल्ली बाँध परियोजना शुरु की तथा दावा किया कि इलाके किसान एक की जगह तीन फसल प्राप्त कर सकेंगे । बाँध के नाम पर इस नदी के नाम पर इस नदी का पानी गेट बना कर रोक दिया गया । इसके फलस्वरूप पारम्परिक ’काईपाड खेती’ तो चौपट हो ही गई , मछलियां आना बन्द हो गईं तथा आठ पंचायत क्षेत्रों की करीब ५००० एकड़ खेती प्रभावित हो गई ।
मैंने नदी के पाट पर बने मां अमृतानन्दमयी की संस्था का हाई स्कूल , खेल का मैदान , प्लाईवुड कारखाना और मछली बाजार देखे । यह नदी एक गंदे पानी की तल्लैय्या बन चुकी है। पंचायत के बूचड़खानों का कचरा इसमें बहाया जा रहा है ।
हाल ही में जन सूचना अधिकार के तहत माँगी गई सूचना के तहत एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है । पुज़ाथी पंचायत ने इस नदी को गांव की एक प्लाईवुड कारखाने के मालिक को मात्र एक सौ रुपये में लीज़ पर दे दिया है ।
कुदरती संसाधनों पर स्थानीय आबादी के हक़ का नासमझी से भी इस्तेमाल किया जा सकता है यह बात इस प्रसंग में सामने आई है । क्या पंचायत का यह फैसला शहर से उसकी केवल चार किलोमीटर की दूरी के कारण तो नहीं है – शहरी मानस से प्रभावित ? उम्मीद की जाती है कि संरक्षण समिति बूचड़खानों के कचरे को नदी में बहाए जाने के बजाए उसके निस्तारण का कोई वैकल्पिक तरीका ढूँढ़ लेगी । ऐसा हो जाने पर समिति की ताकत भी बढ़ सकेगी ।
एक नदी थी जहाँ अब हाइ-स्कूल ,खेल का मैदान और मछली बाजार हैं
फ़रवरी 17, 2010 अफ़लातून अफलू द्वारा
उम्मीद के सिवा किया ही क्या जा सकता है, सर.
आप बने रहें.
nice
शहरी मानस से प्रभावित? बहुत खूब कहा
और उम्मीद तो संरक्षण समिति से कि ही जा सकती है |
नदी की हालत के बारे में जानकर दुख हुआ। देखा जाए तो यह मानव हत्या से भी अधिक बड़ा अपराध है। मानव तो नित पैदा होते हैं, नदियाँ नहीं। अपनी प्राकृतिक सम्पदा को स्वयं इस तरह से उजाड़ना अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारना है।
यदि कसाइयों का कचरा कुछ इस तरह से उपयोग किया जाए कि उन्हें आर्थिक लाभ मिले, जैसे खाद बनाना या जानवरों का आहार बनाना आदि तो वे शायद सहयोग करने को तैयार हो जाएँ। सभी पैसे की भाषा तो समझते हैं।
घुघूतीबासूती
नदी की हालत के बारे में जानकर दुख हुआ। सेखा जाए तो यह मानव हत्या से भी अधिक बड़ा अपराध है। मानव तो नित पैदा होते हैं, नदियाँ नहीं। अपनी प्राकृतिक सम्पदा को स्वयं इस तरह से उजाड़ना अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारना है।
यदि कसाइयों का कचरा कुछ इस तरह से उपयोग किया जाए कि उन्हें आर्थिक लाभ मिले, जैसे खाद बनाना या जानवरों का आहार बनाना आदि तो वे शायद सहयोग करने को तैयार हो जाएँ। सभी पैसे की भाषा तो समझते हैं।
घुघूतीबासूती
नदी की हालत के बारे में जानकर दुख हुआ। सेखा जाए तो यह मानव हत्या से भी अधिक बड़ा अपराध है। मानव तो नित पैदा होते हैं, नदियाँ नहीं। अपनी प्राकृतिक सम्पदा को स्वयं इस तरह से उजाड़ना अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारना है।
यदि कसाइयों का कचरा कुछ इस तरह से उपयोग किया जाए कि उन्हें आर्थिक लाभ मिले, जैसे खाद बनाना या जानवरों का आहार बनाना आदि तो वे शायद सहयोग करने को तैयार हो जाएँ। सभी पैसे की भाषा तो समझते हैं।
घुघूतीबासूती
भाई,
कन्नूर की कक्काड नदी की दारुण स्थिति के बारे में तथ्यात्मक जानकारी वृहत्तर समुदाय तक पहुंचाने और लोगों को संवेदनशील बनाने के प्रयास के लिए हार्दिक बधाई।
कक्काड़ के मौजूदा हालात के लिए विकास के प्रचलित मॉडल की विसंगितयों के कारण प्राकृतिक संसाधनों की प्रकृति में तात्कालिक लाभों के लिए परिवर्तन करने की कुचेष्टाएं तो जिम्मेदार हैं ही, प्राकृतिक संसाधनों के साथ मनमानी कर सकने की सरकारों की आत्मघोषित छूट और सीधे-सीधे तत्काल प्रभावित होने वाले समुदायों की अज्ञानता तथा इनके संरक्षण के प्रति उपेक्षा भाव भी कम जिम्मेदार नहीं है।
प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम दोहन के लालच से उपजने वाली स्थितियों के बारे में देश भर में कहीं भी किसी प्रकार के नियमित वैज्ञानिक अध्ययन के प्रयास नगण्य हैं। जहां ऐसे अध्ययनों से किसी प्रकार का निष्कर्ष सामने आता भी है वहां वांछित परिवर्तनों के लिए जरूरी राजनीतिक -सामाजिक इच्छाशक्ति का अभाव बना रहता है और देश भर में इस या उस कारण से नदियों, वनों और वन्य जीवों की विपदा – जो अन्ततः न केवल प्रत्यक्षतः प्रभावित क्षेत्र के मानव समुदाय वरन समूचे पर्यावरण और सृष्टिक्रम की विपदा में परिवर्तित हो जाती है – बेरोकटोक प्रतिदिन बढ़ती जाती है।
दक्षिण भारत की इस नदी जैसी ही दशा उत्तर भारत में गंगा-यमुना के दोआब में बहने वाली कई नदियों की हो चुकी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलंदशहर आदि जिलों से गुजरने वाली काली नदी का अस्तित्व इसके किनारे के लोगों के उपेक्षापूर्ण और अक्षानतापूर्ण रवैये के कारण समाप्त हो चुका है। अब से केवल ३०साल पहले शीशे जैसे पारदर्शी और बहुत सुस्वादु पानी वाली जलचरों से भरी यह नदी लगभग दो दशकों से कई कस्बों-शहरों और कारखानों का कचरा लाद कर बहने वाले जहरीले गंदे नाले में बदल चुकी है।
ऐसा ही हाल सिंधु घाटी सभ्यता काल में मानव बस्तियों को आश्रय देकर अपनी गोद में पुष्पित-पल्लवित करने वाली यमुना की सहायक नदियों में प्रमुख रही हिंडन का है। प्राक्वैदिक काल की सुपूजित नदियों में गण्य हिंडन अब केवल कचरा ढोने का गंदा नाला है जिसके मूल स्रोत से अब कोई प्रवाह नहीं रह गया है। कई कस्बों और मिलों के उत्प्रवाह से इस नदीमार्ग में आ रहे जहरीले पानी को सिंचाई के लिए सीधे खेतों में डालना तक खतरनाक है। गाजियाबाद में बने बंधे के पास इसके जल की स्थिति देखें तो लगता है जैसे किसी बड़े सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के पास खड़े हैं।
इन नदियों की हत्या के लिए जिम्मेदार रवैया ही देश की बड़ी नदियों को भी धीरे-धीरे लगभग मार चुका है और इनके संऱक्षण की चेतना आंदोलन के रूप में तेजी से नहीं फैली तो आने वाले दो दशकों से भी कम समय में गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, नर्मदा और सिंधु का भी यही हाल होने वाला है।
कन्नूर के लोगों को ही यह जवाब मांगना होगा कि कट्टमपल्ली बांध से इलाके के किसानों को एक के बजाय तीन धान की फसलें देने का दावा करने वाली सरकार और उस परियोजना का नियोजन करने वालों को पूरे इलाके को बंजर और संसाधनहीन बना देने के लिए अभियोजित क्यों न किया जाए? क्या अधकचरी जानकारियों और झूठे आश्वासनों के सहारे जनता को मूर्ख बनाते आ रहे तंत्र को रोकने और दण्डित करने के लिए जरूरी प्रयास शुरू नहीं होने चाहिए?
नदी के पाट पर स्कूल , खेल का मैदान , प्लाईवुड कारखाना और मछली बाजार बनाने वालों और बूचड़खानों का कचरा बहाने वालों को इस बात की समझ कब आएगी कि वे इस ग्रह पर समूचे जीवनतंत्र की हत्या के जिम्मेदार हैं।
कुदरती संसाधनों पर स्थानीय आबादी के हक़ के मामले में यह साफ समझा जाना चाहिए कि इस हक में केवल प्राकृतिक उपयोग का ही हक है किसी मानवसृजित अप्राकृतिक परिवर्तन का नहीं। केवल एक सौ रुपये में लीज देने का मामला किसी भी तरीके से नासमझी का नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे के पूंजीवादी षड्यंत्र और लालच का मामला है। इस मामले की भी गहराई से जांच कराई जाए तो इसे साबित किया जा सकता है। और जहां तक लालच और पूंजीवादी लिप्सा की बात है तो इसमें शहरी और ग्रामीण पृष्ठभूमि से बहुत फर्क नहीं पड़ता।
[…] Comments shrikant asthana on एक नदी थी जहाँ अब हाइ-स्कूल ,ख…ghughutibasuti on एक नदी थी जहाँ अब हाइ-स्कूल […]
पर्यावरण चेतना पर जातीय और धार्मिक चेतना का भारी पड़ना ही विनाश की वजह है.
Thanks a lot for writing about kakkad river, kattampally kaippad and dam.Kattampally wetland is an important bird area (IBA)in India.More than 40000 migratory birds of 57 species are visiting here every year.some of them are very rare in India.
regards
HariAsha
प्लाचीमाडा पर कुछ नहीं लिखा. क्यों?
@ संजय तिवारी , इस प्रवास में कन्नूर के मुख्य कार्यक्रम में प्लाचीमाड़ा का सन्दर्भ आया था । पहले लिखा है ,प्लाचीमाड़ा पर,मायलम्मा पर लिखा है।हिन्दी में सर्च करेंगे तो मिलेंगी पोस्टें ।
[…] एक नदी थी जहाँ अब हाइ-स्कूल ,खेल का मैदा […]
[…] एक नदी थी जहाँ अब हाइ-स्कूल ,खेल का मैदा […]
[…] एक नदी थी जहाँ अब हाइ-स्कूल ,खेल का मैदा […]
[…] एक नदी थी जहाँ अब हाइ-स्कूल ,खेल का मैदा… […]