डॉ. अनुराग एक गंभीर चिट्ठेकार हैं । ’ निरुपमा की मौत के बाद /स्त्री-पुरुष सम्बन्ध पर डॉ. लोहिया’ मेरी इस पोस्ट पर उन्होंने लम्बी और जरूरी टिप्पणी की है। इस टिप्पणी को अपने चिट्ठे पर एक पोस्ट के रूप में प्रकाशित करने की उन्होंने मुझे इजाजत दी है,जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ ।डॉ. अनुराग ने समाज के प्रभु वर्ग द्वारा जाति के आधार पर अखबारों में वैवाहिक विज्ञापन छपवाने का उदाहरण दिया है। इन इश्तहारों में कई बार ’कास्ट नो बार’ कहने के बावजूद इस चतुर वर्ग के लोग धीरे से और बेशर्मी से अपनी जाति का जिक्र कर देते हैं । विश्वविद्यालयों में सर्वाधिक तालीमयाफ़्ता तबका जाति का उपयोग स्वार्थ-सिद्धि के लिए करता है । डॉ. अनुराग ने एक मौलिक और बुनियादी सवाल किया है कि निरुपमा की जगह निरुपम होता तो क्या सामने वाले परिवार की प्रतिक्रिया ऐसी ही होती ? बहरहाल , पाठकों के समक्ष यह जरूरी टिप्पणी प्रस्तुत है। धर्म बड़ी फ्लेकसिबल चीज़ है …..अपनी मन मर्जी मुताबिक जिसने जो तजुर्मा करना चाहा कर दिया .ओर फेंक दिया सामने ….तजुर्मा करा किसने? …आदमी ने ….बरसो पहले बड़ी तरकीब से समाज विभाजन हुआ …मकसद ….. सत्ता ओर आर्थिक व्यवस्था एक पलड़े में रहे …बाकी बची औरत…..उसके वास्ते फिर नया तजुर्मा …शानदार तरकीबे ….शानदार मिसाले …..ओर मेंटल कंडिशनिंग …कमिया आदमी में थी …. .वक़्त बदल रहा है….दुनिया चाँद पे पहुच रही है ….करनाल ओर किसी खाप पंचायत के निर्णय पर नाक-मुंह सिकोड़ते लोग अंग्रेजी के अखबार में अपनी बेटी के लिए अपनी जाति के कोलम में वर ढूंढते है ……ओनर किलिंग को गंवारू ओर अनपढ़ तबके की सोच बताने वाले लोग …..बड़े गर्व से अपने ड्राइंग रूम में कहते है .हमारा बेटा तो जी समझदार है .लव मेरिज नहीं करेगा ….हमारी मर्जी से शादी करेगा …… किसी फरजाना के पति के दस साल बाद लौटने पे ….वर्तमान पति से उस ओर फ़ौरन धकेल दी गयी फरजाना पर चैनल बुद्धिजीवियों की जमात को बैठाकर लम्बी चौड़ी बहसे करता है ……..ओर आधे घंटे बाद ..उसी चैनल पर ..कोई ज्योतिषी आपके आज के तारो की दशा बतलाता है……पौन घंटे बाद फलां मंदिर से आरती का डायरेक्ट प्रसारण ……… पढ़े लिखे चार्टेड एकायुंटेंट ….मस्सो के इलाज़ के लिए पीर की मज़ार पे धागे बांधते है ….टीचर सुबह की रोटी खिलाने के लिए काला कुत्ता ढूंढती है ताकि उसके बेटे को नज़र न लगे……..पोस्ट ग्रेज्युट कोलेज में पढ़ने वाला प्रोफ़ेसर वोटिंग मशीन में उस आदमी को चुनता है ….चूँकि वो भी जाट है ….उसके साथ पैदल चलकर वोटिंग मशीन में आने वाला दूसरा प्रोफ़ेसर वोटिंग मशीन में गुज्जर प्रतिनिधि पर मोहर लगता है ……एक ही मोहल्ले में घर वापस आते वे हँसते बतियाते साथ आते है ……रात को सर्व धर्म सभा में खड़े वे अपना अपना भाषण पढ़ते है ….चतुर्वेदी जी को इस बात पे गुस्सा है के आई ए एस में दक्षिण की लोबी ज्यादा सक्रिय है …इसलिए उन्हें प्रमोशन जल्दी नहीं मिलता …..ओर बिश्वेषर इसलिए चतुर्वेदी से नाराज है .के उन्हें लगता है वे ब्राहमण केंडी डेट को इंटरव्यू में अधिक मार्क्स देते है …..दरअसल हम बहुत समझदार लोग है .कहानी को कहानी की तरह पढ़ते है ..ओर यथार्थ को यथार्थ की तरह …..हम जानते है कहाँ ताली बजानी है ….कहाँ समूह के पीछे खड़ा होना है …ओर .कहाँ आवाज ऊँची करनी है ……खराबी हम सब में है …..हम सब ही मिलकर समाज बनाते है …..अपनी बेटियों-बहनों के आगे हमारे चेहरे एक से हो जाते है .वहां कोई घाल मेल नहीं रहता ……धर्म ने तो कहा .था …ईमानदार बनो .किसी के लिए बुरा न करो….बुरा न सोचो….झूठ मत बोलो..जानवर ..प्रकृति पर दया रखो……कमाल है ना उसे कोई नहीं मानता …. ….कहने का मतलाब हमारे समाज का भीतरी चेहरा कुछ ओर है बाहरी कुछ ओर….हम इस वक़्त कोकटेल युग से गुजर रहे है …..जहाँ कुछ किलोमीटर पर सोच में तब्दीली आ जाती है ..यदि पुराना रजिस्टर टटोला जाए तो कितनी निरुपमाये अब तक दफ़न हो चुकी होगी…….गुमनाम…..अपने पेशे की वजह से शायद इस निरुपमा को न्याय मिल जाए ……जब तक हम इस हकीक़त को नहीं स्वीकारेगे के समाज बदल रहा है ….ओर इमोशन में भी अग्रेसिवनस आ रही है …..तब तक हम चीजों को नहीं बदल सकते …प्रोफेशनल कॉलेज में लोग बरसो से साथ रहते है .एक तरह से लिव इन की तरह ….९० प्रतिशत शादी कर लेते है .१० प्रतिशत दूसरे रिश्ते में आ जाते है .आप कह सकते है शायद वे विधार्थी थोड़ी परिपक्व सोच के होते है …कहने का मतलब है के हालात ….शहर …वक़्त के साथ आपकी सोच में तब्दीली लाते है ….इंटर नेट ओर सूचनाओं की बाढ़ के इस युग के गर फायदे है तो अपने नुकसान भी है ..जाहिर है अभिवावकों ओर बच्चो के बीच संतुलन की एक नयी थिन वो लाइन है .जिसकी रूप रेखा तय करनी है …….शायद धीरे धीरे वो भी तय होगी….यक़ीनन कुँवारी लडकिया का मां बनना एक बड़ी दुखद घटना है .मां बाप के लिए शर्मनाक भी…… …परन्तु उसका हल हत्या तो नहीं है ..मुद्दा ये नहीं है के निरुपमा इस समाज के कुछ नियमो को उलंघन कर के साहस की कोई मिसाल बनने जा रही थी …..मुद्दा ये है के उस घटना के बाद क्या उसके जीवन लेने का हक समाज को बनता है .?…मै एक ऐसे कपल को जानता हूँ जिसमे लड़का गरीब परिवार से था..परन्तु अच्छी जॉब में था … .जाति में नीचे भी ….लड़की अच्छे परिवार से थी ….लड़का बिहार से था .दो बहनों की जिम्मेवारी थी .लड़की से लम्बे रिश्ते .थे.जाहिर है लड़की में असुरक्षा भावना भी आ रही थी …लड़के में मन ये अपराध बोध भी हो रहा था के बहनों से पहले कैसे शादी करूँ….फिर पिता को राजी भी करना था .इस उठा पुठक में दो साल गुजर गए …..बहन बीच में आई ..शादी हुई .आज एक बच्चे .के साथ है …यानी मानवीय रिश्ते में इतनी जटिलताये है ..के हमकोई एक नियम नहीं बना सकते जो सब पर लागू हो…..शायद इन दोनों के बीच रिश्ते में कुछ ऐसे घटनाक्रम रहे हो .जिनसे हम अनजान हो……शायद उन दोनों को हालात सुधरने की उम्मीद हो इसलिए वो गर्भ गिरना नहीं चाहते हो…वैसे हिंदुस्तान टाइम्स को दिए गए इंटर व्यू के मुताबिक लड़के का कहना है उन्होंने शादी की देत तय कर ली थी ..निरुपमा को अपने माँ बाप के राजी होने की उम्मीद थी……हाँ बदलते वक़्त के साथ अपरिपक्व मस्तिष्क शायद जिंदगी के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लेने के काबिल न हो .बतोर एक अभिवावक जिसने अपना बचपन से उसे बढ़ा किया है उसे उसकी जिंदगी में कभी नरम कभी गरम होने का हक है….पर एक्सट्रीम स्टेप लेकर हत्या करने का नहीं…..इस समस्या के जड़ में क्या है ?जाति ?सोचिये अगर मां बाप पहले राजी हो जाते ओर शादी होती तो क्या इतना सब कुछ होता………सोचिये अगर वो गर्भवती न हुई होती तो….क्या इस समाज की सोच में अंतर होता ?मेरे मन में बस एक सवाल आता है ……गर इस प्रक्रिया में मां भाई ओर पिता के साथ है..तो…..ये मेंटल कंडिशनिंग कितनी स्ट्रोंग है … .यदि निरुपमा की जगह उसका नाम निरुपम होता ….ओर उससे किसी ओर जाती की लड़की गर्भवती हुई होती तो क्या तब भी उनके परिवार पिता..भाई …मां की यही प्रतिक्रिया होती ?क्यों कभी लड़के का परिवार गर्भवती करने के लिए अपने लड़के की ओनर किलिंग नहीं करता ? |
डॉ . अनुराग की जरूरी टिप्पणी पर गौर करें
मई 7, 2010 अफ़लातून अफलू द्वारा
100% agreed….TAALIYAAN…..
शायद इसी का फायदा उठाकर एक लड़की को प्रेग्नेंट करने में कोई हिचक नहीं हुई इन साहबजादे को… क्योंकि इनकी आनर किलिंग की सम्भावना नहीं थी.. निरूपमा की हत्या के अपराधियों के साथ प्रियभांशु भी बराबर का भागीदार है..
Very Good….
ये मात्र टिप्पणी नहीं पूरा लेख है….लोगों को जागरूक करने वाला….एक एक शब्द मन की गहराई तक पहुँचता हुआ….
एक एक शब्द सही ….इस विषय ने अच्छे अच्छों को झिंझोड़ दिया
अनुराग भाई ने बिलकुल मेरे मन की बात लिख दी।
”डॉ. अनुराग ” की बाते हमारे दिल की बाते हैं ..उन्होंने हर उस मुद्दे को उठाया है..जिससे त्रस्त हो कर प्रेमी प्रेमिका अपने संबंधो को जायज ठहराने के लिए …हमारे समझ से सही और समाज की समझ से उलटे सीधे हत्कंडे अपनाने को मजबूर हैं….
दरअसल हम वही देखते है जो हमें दिखाया जाता है.. कोई भी स्व विवेक से कोई निर्णय लेता.. भारत में इंडिविजुअल सोच की कमी ही है.. कि किसी की भी कही गयी बाते हम सच मान लेते है.. ऐसे में अनुराग जी की टिपण्णी बनी बनायीं मान्यताओ को तोड़ कर की गयी है.. अन्यथा कई लोग फ्लो के साथ रहते है.. किसी ने दिन कहा तो शाबाशी दे दी और रात कहा तो पीठ ठोंक दी.. व्यक्तिगत सोच रखने का अधिकार सबको है.. पर कहते हम वही है जो दुसरो को पसंद आये..
निरुपमा के केस को मिडिया ने जिस तरह से हमारे सामने रखा.. हमने ज्यो का त्यों उठा लिया.. खुद ही जज बनके फैसले ले लिए.. हम कौन होते है फैसला लेने वाले.. और किस बुनियाद पर हमने फैसला लिया.. ? दरअसल पढ़े लिखे लोग छुपे हुए जाहिल होते है.. हमारे आस पास रहने वाले लोग.. अन्दर से क्या सोच रखते है हम जान भी नहीं पाते.. सोच उजागर होने के बाद भी क्योंकि हमारे सम्बन्ध उनसे अच्छे है हम चुप रह जाते है.. दरअसल हम मृत लोग है और मरे हुए लोगो का एक समाज बना रहे है.. जिसमे आपकी लोकप्रियता आपके विचारो पर हावी हो जाती है.. ये वैसा ही है कि सलमान खान द्वारा फूटपाथ पर गाडी चढ़ाये जाने पर भी हम उन्हें गलत नहीं ठहराते.. संजय दत्त को माफ़ कर दिया जाना.. शाईनी आहूजा के लिए उनके दोस्तों के नरम बयान.. हमारी उंगलिया सिर्फ दूसरी तरफ उठने के लिए है.. खुद का तो सवाल ही नहीं पर जब अपने करीबी लोगो पर भी ऊँगली उठाने का वक़्त आये तो हमारे हाथ मिट्टी में धंस जाते है..
दुसरो के नंगे होने पर हंसने वाले लोगो को ख्याल रखना चाहिए.. कि इस हमाम में सब नंगे है.. !
Baat bilkul sahi kahi hai Anurag ji ne aur is ko tippani se post banakar sabke saamne laane ke liye aabhar..
par har jagah, har kisi ke man me koi na koi vikrati to hai hi chahe padhne wale hon ya likhne wale. achhoota to koi bhi nahin in kamiyon se.
सूक्षम विश्लेषण! ये विश्लेषण समाज की असली तस्वीर दिखा रहा है! और सतही तौर पर एक हद तक निराशा पैदा करता है की शायद परिवर्तनगामी साथी भी भटकाव के शिकार हैं! और उनमे जातीय संकीर्णता इस क़दर बैठी है तो दूसरी ओर जड़ जातीय व्यवस्था से लड़ने के लिए नयी योजनाओं और तरीको की खोज को प्रेरित करती है! डा अनुराग को सैलूट
बिलकुल सही प्रतिक्रिया है ।
agree
सुना था,
चेहरा देख तू दर्पण में ओ साथी, देख तू दर्पण में
पर यहाँ
हर समाज के अपने अपने दर्पण हैं, वही दिखाता है जो वह देखना चाहते हैं ।
awaiting moderation ?
but, I always have shortage of time,
no time to wait, Bye Forever !
१. अपने बात को वजन देने के लिए दूसरी टिप्पणी अंग्रेजी में देनी पड़ी !
२. मैं रात को जल्दी सो जाता हूँ ।
३. अल्विदा ! हमेशा के लिए नहीं कहना चाहूंगा ।
डाँ.अनुराग के साथ ही कुश की टिप्पणी से खास सहमति है .कहने को तो बहुत कुछ है पर फिलहाल सहमति ही….
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