भ्रष्टाचार की उत्पत्ति के अन्य बिन्दुओं पर सचमुच मूलभूत परिवर्तन यानी क्रान्तिकारी परिवर्तन की जरूरत होगी । आधुनिक समाज में आर्थिक गैर-बराबरी भ्रष्टाचार की जननी है । जैसे – जैसे गैर-बराबरियों के स्तर अधिक होने लगते हैं , उनके दबाव से निचले स्तरों के लोग वैध तरीकों से ही उच्च स्तर के जीवन तक पहुँचने की कोशिश कर पाते हैं । नई आर्थिक नीतियों के बाद आमदनियों की गैर-बरबरी बहुत बढ़ने लगी है । मध्य वर्ग में से एक ऐसा तबका तैयार हो रहा है,जिसका मासिक वेतन २० हजार रुपये से एक लाख रुपया होगा । इसका जो प्रभाव नीचे के स्तरों पर होगा , उससे जहाँ भ्रष्टाचार की गुंजाइश नहीं है , वहाँ अपराध की तीव्रता बढ़ेगी । यह एक विडंबना है कि भारत के उदारवादी बुद्धिजीवी और उदारवादी राजनेता एक तरफ़ नई आर्थिक नीति का समर्थन करते हैं और दूसरी ओर भ्रष्टाचार और अपराध की निन्दा भी करते हैं । ये सारे उदारवादी उन डॉक्टरों जैसे हैं जो बहुत उत्साह से बिमारों का इलाज करते हैं लेकिन अस्वस्थ परिवेश की मौजूदगी से परेशान नहीं होते ।
समाजवादी-साम्यवादी विचारों में आर्थिक बराबरी , लगभग सम्पूर्ण बराबरी का एक सपना था इसलिए दावा था कि समाजवादी समाज में भ्रष्टाचार नहीं होगा । आर्थिक बराबरी का सपना देखना भी इस वक्त सहज नहीं है । आज क्या हम एक ऐसे समाज की कल्पना कर सकते हैं , जिसमें निम्नतम और उच्चतम जीवन स्तर के बीच एक तर्कसंगत अनुपात , मसलन एक और बीस का अनुपात रहेगा ? अपने ही समाज के कमजोर और उदासीन लोगों की तुलना में हम बीस गुना गुना अधिक खर्च करें और आडम्बर में रहें , यह क्या योग्य लोगों के समूह के लिए यथेष्ट नहीं है जो वे इससे भी अधिक की मांग करें ? इससे अधिक की मांग करने पर विलासिता नाम की चीज समाज में प्रचलित होती है। विलासिता अत्यधिक गैर-बराबरी का लक्षण है और भ्रष्टाचार को बढ़ानेवाला तत्त्व है । विलासिता का अर्थ अनावश्यक सुख या हानिकारक सुख भी होता है । आधुनिक समाज ने विलासिता को अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए उपभोक्तावाद का रूप दिया है । उपभोक्तावाद विलासिता है भी और नहीं भी । अधिकांश देशों में , खासकर भारत जैसे देश में , यह इसलिए विलासिता है कि आधी या एक-तिहाई आबादी इसका उपभोग नहीं कर सकती । एक वृहत्तर अर्थ में विलासिता नहीं भी है, क्योंकि जितना खर्च उपभोक्तावादी जीवन पर होता है और उसे प्राप्त करने के लिए जितने तनाव से गुजरना पड़ता है , उस अनुपात में लौकिक सुख भी मिलता है या नहीं , यह कहना मुश्किल है , यह कहना मुश्किल है । विकासशील देशों में नई-नई गैरबराबरियों को पैदा करने वाला कारक उपभोक्तावाद ही है ।उसे प्राप्त करने या छूने की होड़ लगी हुई है । अगर उपभोक्तावाद का प्रसार ही आधुनिक विकास है , तो भ्रष्टाचार आधुनिक विकास की आवश्यक बुराई है- पालकीवाला ने खैरनार को दस हजार रुपये का एक पुरस्कार भेजा था) यह स्पष्ट करना पड़ेगा कि भारत में भ्रष्टाचार के कायिक विस्तार और प्रसार के साथ उपभोक्तावाद और विलासिता के बढ़ने और फैलने का सम्बन्ध है या नहीं ? क्या पालकीवाला जैसे लोगों का भ्रष्टाचार विरोध कोरा पाखंड नहीं है ? सम्भव है कि अगले दशकों का समाजशास्त्र यह कहने लगेगा कि उपभोक्तावाद का विरोध नहीं किया जा सकता , अगर उससे भ्रष्टाचार को बल मिल रहा है तो मिले ; भ्रष्टाचार के प्रकोप को कम करने का तरीका समाज स्वयं विकसित कर लेगा। यानी भ्रष्टाचार के उद्गम बिन्दु पर प्रहार करने की जरूरत नहीं है , उसके प्रभाव को कम नकारात्मक करने के उपाय ढूँढ़े जाएँ ।
( जारी )
आगे : रा्ष्ट्रीय चरित्र ,व्यक्ति आचरण , सांस्कृतिक आन्दोलन और भ्रष्टाचार
यह भी देखें : राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक
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