अंगरेजी पत्रकारिता और राजनैतिक चर्चा सदाचार को एक व्यक्तिगत गुण के रूप में समझती है । व्यक्ति का स्वभाव और संकल्प सार्वजनिक जीवन में सदाचार का एक स्रोत जरूर है , लेकिन राजनीतिक व्यक्तियों को सदाचार का प्रशिक्षण देकर या अच्छे स्वभाव के ’सज्जनों’ को राजनीति में लाकर सार्वजनिक जीवन में सदाचार की गारंटी नहीं दी जा सकती है । भारत की ही राजनीति में ऐसे सैकड़ों उदाहरण होंगे कि जो व्यक्ति सत्ता-राजनीति में प्रवेश के पहले बिलकुल सज्जन था , सत्ता प्राप्ति के बाद बेईमान या भ्रष्ट हो गया । सदाचार की एक संस्कृति और संरचना होती है । सदाचार का क्षेत्र समाज हो सकता है , राजनैतिक समुदाय हो सकता है ,या एक निर्दिष्ट राजनैतिक समूह यानी दल हो सकता है । प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार कितना होगा,किस प्रकार का होगा, यह उस क्षेत्र की भौतिक संरचना और संस्कृति के द्वारा निरूपित होता है ।
क्या इस वक्त भारत के राजनैतिक दलों में कोई दल ऐसा है जो अन्य दलों की तुलना में गुणात्मक रूप में कम भ्रष्ट है। और, यह अन्तर एक गुणात्मक अन्तर है । भारतीय कम्युनिस्टों को वैचारिक दिशाहीनता और संघर्ष न करने की निष्क्रियता तेजी से ग्रस रही है और वे पतनशील अवस्था में हैं । पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी नेताओं के भ्रष्टाचार के बारे में अभियोग बढ़ता जा रहा है । इसके बावजूद भ्रष्टाचार के मामले में उनमें और बाकी दलों में अभी गुणात्मक अन्तर है ।
राजनीतिक समूहों में सदाचार के तीन आधार होते हैं : १. आदर्शवादी लक्ष्यों से प्रेरित होकर समाज को बदलने – सुधारने के विचारों का सामूहिक रूप में अनुवर्ती होना ; २. समाज के शोषित-पीड़ित वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति की भावनाओं को वाणी और कर्म के स्तर पर एक संस्कृति के रूप में विकसित करना ; ३. समूह या दल के अन्दर समानता , भाईचारा और अनुशासन का होना । राजनीति में धन और सत्ता की प्रबलता होती है । इसीलिए संस्कृति-विहीन राजनीति में भ्रष्टाचार का तुरन्त प्रवेश हो जाता है । इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है , न इस कारण से राजनीति का तिरस्कार होना चाहिए । यह एक चुनौती है कि राजनीति को संस्कृतिनिष्ठ बनाकर सशक्त करें और धन तथा सत्ता का केन्द्रीकरण न होने दें । राजनीति अवश्यंभावी है ; उसको मानव-हित में लगाने के लिए आदर्शवादी विचारों , क्रांतिकारी भावनाओं और कठिन श्रम की संस्कृति के द्वारा उसे एक महान कर्म का दरजा प्रदान करें ।
अगर अंग्रेजी पत्रकार चाहता है कि राजनीति से क्रान्तिकारी विचारों की विदाई हो जाए , आदर्शवाद की खिल्ली उड़ाई जाए, धन का केन्द्रीकरण और भोग का प्रदर्शन बढ़ता जाए, राजनीति शोषितों के हित में नहीं बाजार के हित में संचालित हो और फिर भी वह उम्मीद करता है कि भ्रष्टाचार हटे तो उसकी सोच गम्भीर नहीं है ।
राजनैतिक दल तत्काल दो काम कर सकते हैं । मीडिया और जनमत का दबाव इस दिशा में बनना चाहिए ।आपराधिक रेकार्ड वाले व्यक्तियों को पार्टी का टिकट या पद देना सारे राजनैतिक दल बन्द कर दें । कम से कम विपक्षी दल अवश्य कर दें । जो तीसरा मंच बन रहा है वह इसके लिए तैयार हो जाए तब भी एक आचरण संहिता की शुरुआत हो सकती है ; एक राजनैतिक संस्कृति की शुरआत हो सकती है । उसी तरह से राजनेताओं और उनके दलोम के द्वारा जो धनसंग्रह होता है उसमें पारदर्शिता के नियम बनाये जा सकते हैं । यह काम विपक्षी राजनैतिक दल खुद अपने स्तर पर कर सकते हैं । अगर इतना भी करने के लिए वे तैयार नहीं हैं तो संसद कार्यवाही को ठपकर देने से क्या फायदा ? संसद को ठप करना एक उग्र कदम है और उसकी जरूरत होती है जब शासक दल जरूरी बहस को नहीं होने देता है । अगर उपर्युक्त आचरण संहिता पर बहस की माँग करते हुए विपक्षी दल संसद संसद में हल्ला करते तो शासक दल की नैतिक पराजय होती । अन्यथा एक दिन शासक दल ( भाजपा ) के नेता को घूस लेते हुए विडियो टेप में दिखाया जाएगा तो दूसरे दिन विपक्षी दल (कांग्रेसी ) के नेता को घूस लेते हुए दिखाया जाएगा । इस कुचक्र से देश की राजनीति का उद्धार करने का उपाय यह है कि एक राजनैतिक संस्कृति को विकसित करने की पहल कुछ प्रभावी लोग करें ।
केवल राजनीति को नहीं , समाज को भी सदाचार की जरूरत है । यह भावुकता का मुद्दा नहीं है ; यह मनुष्य के अस्तित्व का मुद्दा बनने जा रहा है ।
( सामयिक वार्ता , अप्रैल,२००१)
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