बहुत पुराने समय से जमीन झगड़ों और संघर्षों का केन्द्र रही है। महाभारत का युद्ध इसी को लेकर लड़ा गया था। औद्योगीकरण और आधुनिक विकास के साथ खेती व जमीन का महत्व कम होता जाएगा, ऐसा माना गया था। किन्तु इक्कीसवीं सदी के भारत में अचानक जमीन को लेकर नए तरह के संघर्ष खड़ें हो गए हैं। इस बार ये संघर्ष भाई-भाई या पड़ोसियों के बीच न होकर किसानों, कंपनियों और सरकारों के बीच छिड़ें है।
महज नौ महीनों के अंदर यमुना एक्सप्रेस-वे परियोजना दूसरी बार किसानों और पुलिस जवानों के खून से सरोबार हुर्द है। सरकार और मीडिया इसे ‘विकास परियोजना’ कह रहे हैं। लेकिन यह सवाल कम ही उठाया जाता है कि यह कैसा विकास है और किसका विकास है ?
एक्सप्रेस-वे की जरुरत किस लिए पड़ी ? इसलिए कि सड़कों पर अचानक गाडि़यों की तादाद बहुत बढ़ गई है। इन गाडि़यों में सबसे ज्यादा संख्या निजी कारों की है। निजी कारों के ये मालिक टैफिक जाम में नहीं फंसना चाहते हैं और हवा में बाते करते हुए जल्दी अपने गंतव्य पर पहुंचना चाहते हैं। इसके लिए टोल-शुल्क के रुप में अतिरिक्त पैसा देने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। तो इन्हीं अमीरजादों के ऐशो-आराम के लिए किसानों की जमीन छीनी जा रही है और गोलियां चलाई जा रही है।
किन्तु इस परियोजना को महज सड़क बनाने की योजना समझना गलत होगा। यह जितनी सड़क परियोजना है, उतनी ही जायदाद-कालोनी-टाउनशिप योजना भी है। इस परियोजना की ठेकेदार-मालिक जे पी कंपनी को इसके किनारे कई कालोनियां, मॉल, व्यवसायिक कॉम्प्लेक्स आदि बनाने के लिए भी बड़ी मात्रा में जमीन दी जा रही है। इसीलिए जमीन अधिग्रहण की मात्रा काफी बढ़ गई है। जेपी समूह ने ‘जेपी ग्रीन्स केसिले’ ‘जेपी ग्रीन्स स्पोर्ट सिटी’ आदि के पूरे-पूरे पृष्ठ के विज्ञापन निकालना शुरु कर दिया है। उसकी असली और विशाल कमाई इसी में है। जब कंपनियों के मुनाफे का मेल संवेदनशून्य प्रशासन तथा दिवालिया राजनीति से हो जाता है, जो जनता पर जुल्म बेइंतहा हो जाते हैं – इसकी एक मिसाल यहां देखने को मिल रही है।
भट्टा परसौल की खूनी वारदात के बाद ज्यादातर राजनैतिक दलों ने भूमि अधिग्रहण कानून की समीक्षा और इसके संशोधन की मांग की है। निश्चित ही यह कानून अंग्रेजी राज द्वारा साम्राज्य के हितों व जरुरतों के लिए बनाया गया था और कई अन्य कानूनों की तरह इसे भी आजाद भारत में जारी रखा गया है, क्यांेकि आजाद भारत का राज भी उसी तर्ज पर चल रहा है। किन्तु मसला महज एक कानूनी संशोधन से हल नहीं होने वाला है जब तक हम इस बात पर गौर नहीं करते कि इतने बड़े पैमाने पर भूमि के अधिग्रहण की जरुरत क्यों पड़ रही है ?
वैश्वीकरण के इस दौर में जैसे-जैसे भारत की राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर का ग्राफ बढ़ा है, वैसे-वैसे जमीन अधिग्रहण और जमीन संघर्षों की बाढ़ आ गई है। दोनों का सीधा संबंध है । औद्योगिक परियोजनाओं, विशेष आर्थिक क्षेत्रों यानी सेज, बड़े बांधों, खदानों, राजमार्गों व एक्सप्रेस मार्गों, शहरी विस्तार तथा टाउनशिप परियोजनाओं के लिए बड़ी मात्रा में जमीन ली जाने लगी है। सरदार सरोवर, नन्दीग्राम, सिंगूर, कलिंगनगर, काशीपुर, पोस्को, नियमगिरी, दादरी, पेन, जैतापुर, टिहरी, श्रीककुलम जैसे लगातार सुर्खियों में रहने वाले विवादों और संघर्षों के केन्द्र में जमीन ही है। बस्तर और दंतेवाड़ा के माओवादी उभार के पीछे भी कुछ हद तक टाटा व एस्सार की खनन-औद्योगिक परियोजनाओं तथा इन्द्रावती बोधघाट बांध परियोजना में जाने वाली जमीन का सवाल है। हाल ही में झारखण्ड मंे सरकारी जमीन अतिक्रमण को हटाने को लेकर रांची, बोकारो और धनबाद में बड़े टकराव हुए हैं तथा लोगों की जान गई है। गरीबों को उजाड़ना तथा कंपनियों व अमीरों को जमीन आबंटन, नए जमाने का यह नियम बन गया है। देश में आजादी के बाद जमींदारी प्रथा खतम हुई तो अब जेपी, रिलायन्स, डीएलएफ, टाटा जैसे नए जमींदार बन गए हैं।
सीधे सरकार तंत्र के दम पर ली जा रही जमीन के अलावा बाजार के जरिये भी बड़े पैमाने पर जमीन का हस्तांतरण हो रहा है, आम तौर पर जिसकी चर्चा नहंी होती है। खेती के लगातार घाटे का धंधा बने रहने के कारण कई जगह स्वयं स्वेच्छा से या मजबूरी में किसान जमीन बेच रहे हैं। अमीरों के दो नंबरी धन को छिपाने और निवेश करने के लिए भी जमीन और फ्लेट अच्छा माध्यम है। खेती पर आयकर न लगने के कारण जमीन खरीदकर दूसरी आय को खेती की बताकर आयकर बचाने का भी यह अच्छा जरिया है। जमीन की एक कृत्रिम मांग पैदा हो गई है। इसीलिए यह विरोधाभासी हालत पैदा हो गई है, कि खेती में घाटा होने तथा किसानों की बड़ी संख्या में खुदकुशी के बावजूद जमीन के दाम तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। उधर ‘रियल्टी सेक्टर’ बढ़ता जा रहा है और राष्ट्रीय आय की वृद्धि में योगदान दे रहा है।
दरअसल, हमारे नेता, योजनाकार व कर्णधार एक सीधा-सरल सत्य भूल गए हैं। वह यह कि जमीन की आपूर्ति सीमित है। जमीन को बढ़ाया नहीं जा सकता (जब तक कि हम किसी नए ग्रह को बसने लायक न पा लें), जमीन का उत्पादन किसी कारखानें में नहीं हो सकता। हम यह भी भूल गए कि यदि इतने बड़े पैमाने पर जमीन खेती से निकल जाएगी, तो हमारी बढ़ती हुई आबादी का पेट कैसे भरेगा ? विज्ञान व तकनालाजी की चमत्कारिक प्रगति के बावजूद अभी तक ऐसा कोई तरीका इजाद नहीं हुआ है, जिससे बिना खेती के खाद्यानों का उत्पादन कारखानों मंे होने लगे। भारत में 1990-91 और 2007-08 के बीच खेती के रकबे में 21.4 लाख हेक्टेयर की कमी हुई है।
हमारे विकासवादी कर्णधारों ने यह भी सोचने की जरुरत नहीं समझी कि खेती से बेदखल होकर यह विशाल आबादी कहां जाएगी, क्या करेगी ? क्या महानगरों की झुग्गियों-झोपड़पट्टियों की संख्या नहीं बढ़ाएगी ? जमीन के मुआवजे से बस या जीप खरीदकर या दुकान खोलकर कितने लोगों की जीविका चल पाएगी ? नौकरियां अब कहां मिलती हैं ? मशीनों व हाईटेक पर आधारित आधुनिक विकास तो वैसे भी ‘रोजगारहीन विकास’ है।
जमीन के इस संकट के पीछे आधुनिक सभ्यता की एक बुनियादी गलतफहमी है। वह यह कि आधुनिक विकास अंतहीन, असीम हो सकता है और इसके लिए महज पूंजी व तकनालाजी की जरुरत है। यदि देश के अंदर ये दोनों उपलब्ध नहीं होंगे तो विश्व बैंक की मदद से, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न्यौता देकर, उन्हें हासिल कर लिया जाएगा। लेकिन इस विकास के लिए जल-जंगल-जमीन-खनिज की भी बड़े पैमाने पर जरुरत होगी, उनकी भी बलि चढ़ानी होगी और विकास के रास्ते में उनका स्पीडब्रेकर आ जाएगा या बड़ी दीवार आ जाएगी, यह अहसास धीरे-धीरे अब दर्दीले एवं खूनी तरीके से हो रहा है। जमीन की ही तरह पानी को लेकर भी कई जगह द्वन्द्व पैदा हो गए हैं। हर नदी और हर जलाशय का पानी किसानों को मिले, आबादी को पीने का पानी मिले या कंपनियों व कारखानों को मिले, यह झगड़ा हर जगह पैदा हो रहा है। यहीं टकराव जंगलों के बारे मंे भी है। जंगलों के विनाश के कारण आदिवासी या स्थानीय आबादी नहीं, आधुनिक विकास है, जो उन्हें लीलता जा रहा है।
ऐसा भी नहीं है कि आधुनिक पूंजीवादी औद्योगिक विकास में यह द्वन्द्व नया पैदा हुआा हो। सोलहवीं से अठारहवीं सदी तक औद्योगिक क्रांति की तैयारी में इंग्लैण्ड में भी बड़े पैमाने पर किसानों को बेदखल किया गया था। मार्क्स ने इसे ‘पूंजी का आदिम संचय’ नाम दिया था। किन्तु यह आदिम संचय अभी तक लगातार किसी न किसी रूपमें चल रहा है और पूंजीवादी विकास का एक अनिवार्य हिस्सा बन गया है। बीच में यह ओझल इसलिए हो गया, क्योंकि यूरोपीय लोगों को पूरी दुनिया को अपना उपनिवेश बनाकर लूटने का मौका मिल गया। वे पूरी दुनिया में फैल गए और उनकी रोजगार की समस्या का हल इसी तरह हुआ। उत्तरी व दक्षिणी अमरीका, आस्ट्रेलिया, एशिया व अफ्रीका में वहां के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने, नष्ट करने तथा वहां के लोगों को बेदखल करेन की लगातार प्रक्रिया के दम पर ही यूरोप-सं.रा.अमरीका-कनाडा-जापान का पूंजीवादी विकास संभव हो पाया। अब भारत व चीन जैसे देश उसी रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे हैं, तो देश के अंदर उसी साम्राज्यवादी-औपनिवेशिक प्रक्रिया को चला रहे हैं। किन्तु इसमें भी एक बड़ा ऐतिहासिक फर्क है। आज इन देशों में आबादी का घनत्व काफी है। इसलिए जमीन का थोड़ा भी फेरबदल यहां लोगों की जिंदगियों में बड़ा व्यवधान और संकट पैदा करता है।
आधुनिक पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता श्रम और प्राकृतिक संसाधनों दोनों के शोषण व विनाश पर आधारित है। प्रकृति से जुड़े समुदायों की बेदखली तथा बरबादी इसमें अंतर्नीहित है, अवश्यंभावी है। यही भट्टा परसौल जैसी घटनाओं का सच है। यदि इसे नहीं समझेंगे और आधुनिक विकास के विकल्प की तलाश करने के बजाय इसी की मृगतृष्णा में उलझे रहेंगे, तो ऐसी त्रासदियां बार-बार दुहराई जाती रहेंगी।
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(लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं आर्थिक-राजनीतिक विषयों पर टिप्पणीकार है।)
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