पिछले भाग से आगे :
भारत जैसे देश में जनतंत्र को चलाने के लिए हजारों ( शायद लाखों ) राजनैतिक कार्यकर्ता चाहिए । संसद , विधान सभा , जिला परिषद , ग्राम पंचायत आदि को मिला कर हजारों राजनैतिक पद हैं । प्रत्येक पद के लिए अगर दो या तीन उम्मीदवार होंगे , तब भी बहुत बड़ी संख्या हो जायेगी । इनमें से बहुत सारे कार्यकर्ता होंगे , जिन्हें पूर्णकालिक तौर पर सार्वजनिक काम में रहना होगा तो उनके परिवारों का खर्च कहाँ से आएगा ? भ्रष्टाचार की बात करनेवालों को इस प्रश्न का भी गंभीरतापूर्वक उत्तर ढूँढना पड़ेगा ।
पिछले ५० साल की राजनीति पर हम संवेदनशील हो कर गौर करें , तो इस बात से हम चमत्कृत हो सकते हैं कि हजारों आदर्शवादी नौजवान देश के भविष्य को संदर बनाने के लिए परिवर्तनवादी राजनीति में कूद पड़े थे । आज अगर उनके जीवन इतिहासों का विश्लेषण करेंगे , तो मालूम होगा कि उनमें से अधिकांश बाद के दिनों में , जब उनको परिवार का भी दायित्व वहन करना पड़ा , या तो राजनीति से हट गये या अपने आदर्शों के साथ समझौता करने लगे । निजी तथा सार्वजनिक जीवन की जरूरतों को पूरी करने के लिए शुरु में छोटे-छोटे ठेकेदारों से , भ्रष्ट प्रशासकों से या काले व्यापारियों से चंदा लेना पड़ा । बाद में जब लगातार खर्च बढ़ता गया और प्रतिष्ठा भी बढ़ती गई , तब बड़े व्यापारियों और पूँजीपतियों के साथ साँठगाँठ करनी पड़ी । अगर वे आज भी राजनीति में हैं , तो अब तक इतना समझौता कर चुके हैं कि भ्रष्टाचार या शोषण के विरुद्ध खड़े होने का नैतिक साहस नहीं है । पिछले ५० साल आदर्शवादी कार्यकर्ताओं के सार्वजनिक जीवन में पतन और निजी जीवन में हताशा का इतिहास है ।
अगर शुरु से ही समाज का कोई प्रावधान होता कि राजनीति में प्रवेश करनेवाले नौजवानों का प्रशिक्षण-प्रतिपालन हो सके , उनके लिए एक न्यूनतम आय की व्यवस्था हो सके , तो शायद वे टूटते नहीं , हटते नहीं , भ्रष्ट नहीं होते । कम से कम ५० फीसदी कार्यकर्ता और नेता स्वाधीन मिजाज के होकर रहते । अगर किसी जनतंत्र में १० फीसदी राजनेता बेईमान होंगे तो देश का कुछ बिगड़ेगा नहीं । अगर ५० फीसदी बेईमान हो जायें, तब भी देश चल सकता है । अब तो इस पर भी संदेह होता है कि सर्वोच्च नेताओं के ५ फीसदी भे देशभक्त और इमानदार हैं या नहीं ।
From Andolan_Tumkur_Hampi |
समाज के अभिभावकों का , देशभक्त कार्यकर्ताओं का संरक्षण समाज के द्वारा ही होना चाहिए । सारे राजनेताओं को हम पूँजीपतियों पर आश्रित होने के लिए छोड़ नहीं सकते । समाज खुद उनके प्रशिक्षण और प्रतिपालन का दायित्व ले । इस दायित्व को निभाने के लिए यदि बनी बनाई संस्थाएँ नहीं हैं , तो सांविधानिक तौर पर राज्य के अनुदान से संस्थायें खड़ी की जाएं । जिस प्रकार न्यायपालिका राज्य के अनुदान पर आधारित है , लेकिन स्वतंत्र है , उसी तरह राजनेताओं का प्रशिक्षण और प्रतिपालन करनेवाली संस्थायें भी स्वतंत्र होंगी। केवल चरित्र , निष्ठा और त्याग के आधार पर राजनैतिक संरक्षण मिलना चाहिए । जो आजीवन सामाजिक दायित्व वहन करने के लिए संकल्प करेगा . जो कभी धन संचय नहीं करेगा , जो संतान पैदा नहीं करेगा , उसीको सामाजिक संरक्षण मिलेगा । जो धन संचय करता है , तो संतान पैदा करता है , उसको भी राजनीति करने , चुनाव लड़ने का अधिकार होगा , लेकिन उसे सामाजिक संरक्षण नहें मिलेगा । जिसे सामाजिक संरक्षण मिलेगा उसके विचारों पर अनुदान देनेवालों का कोई नियंत्रण नहीं रहेगा । सिर्फ आचरण पर निगरानी होगी । निगरानी की पद्धति पूर्वनिर्धारित रहेगी।
यह कोई विचित्र या अभूतपूर्व प्रस्ताव नहीं है । कोई भी राज्य व्यवस्था हो , सार्वजनिक जीवन में चरित्र की जरूरत होगी । किसी भी समाज में समर्पित कार्यकर्ताओं का एक समूह चाहिए । आधुनिक युग के पहले संगठित धर्म ने कई देशों में सार्वजनिक जीवन का मार्गदर्शन किया । धार्मिक संस्थाओं ने भिक्षुओं, ब्राह्मणों ,बिशपों को प्रशिक्षण और संरक्षण दिया , ताकि वे सार्वजनिक जीवन का मानदंड बनाये रखें । ग्रीस में और चीन में प्लेटो और कन्फ्यूशियस ने राजनैतिक कार्य के लिए प्रशिक्षित और समर्पित समूहों के निर्माण पर जोर दिया । सिर्फ आधुनिक काल में सार्वजनिक जीवन के मानदंडों को ऊँचा रखने की कोई संस्थागत प्रक्रिया नहीं तय की गयी है । इसलिए सारी दुनिया का सार्वजनिक जीवन अस्त-व्यस्त है । सार्वजनिक जीवन का दायरा बढ़ गया है , लेकिन मूल्यों और आदर्शों को बनाये रखने की संस्थायें नहीं हैं ।
संविधान के तहत या राजकोष से राजनीति का खर्च वहन करना भी कोई नयी बात नहीं है । विपक्षी सांसदों और विधायकों का खर्च राजकोष से ही आता है । यह एक पुरानी मांग है कि चुनाव का खर्च भी क्यों नहीं ? राजनीति का खर्च भी क्यों नहीं ? कुछ प्रकार के राजनेताओं का जीवन बचाने के लिए केन्द्रीय बजट का प्रतिमाह ५१ करोड़ रुपये खर्च होता है । करोड़पति सांसदों को भी पेंशन भत्ता आदि मिलता है । इनमें से कई अनावश्यक खर्चों को काट कर देशभक्त राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक सामाजिक कोष का निर्माण शुरु हो सकता है ।
अगर विवेकशील लोग राजनीति में दखल नहीं देंगे तो भारत की राजनीति कुछ ही अरसे के अंदर अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के हाथों में चली जायेगी । जो लोग इसके बारे में चिंतित हो रहे हैं ,उन्हें एक मूल्य आधारित राजनैतिक खेमा खड़ा करना होगा ।इस खेमे के लिए एक बड़े पैमाने का कोष निर्माण करना होगा । आज की संसद या विधान सभा इसके लिए अनुदान नहीं देगी । सामाजिक और स्वैच्छिक ढंग से ही इस काम को शुरु करना होगा ।
अन्ना हजारे इस काम को शुरु करेंगे , तो अच्छा असर होगा । यह राजनैतिक काम नहीं है , जनतांत्रिक राजनीति को बचा कर रखने के लिए यह एक सामाजिक काम है । धर्मविहीन राज्य में चरित्र का मानदंड बना कर रखने का यह एक संस्थागत उपाय है । अंततोगत्वा इसे ( ऐसी संस्थाओं को ) समाज का स्थायी अंग बना देना होगा या सांविधानिक बनाना होगा ।
धर्म-नियंत्रित समाजों के पतन के बाद नैतिक मूल्यों पर आधारित एक मानव समाज के पुनर्निर्माण के बारे में कोई व्यापक बहस नहीं हो पायी है , यह बहस अनेक बिंदुओं से शुरु करनी होगी । यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है ।
(स्रोत : दूसरा शनिवार , सितंबर १९९७ )
[…] की गंभीर खामियां; जनहित अभियान जनतंत्र का भविष्य / भाग २ / किशन पटनायक / … […]
अन्ना हजारे तो खुद दो लाख के घपले में एक अदालत में फंसे हैं.वह तो पूंजीवाद बचने का अस्त्र मात्र हैं.
“पिछले ५० साल आदर्शवादी कार्यकर्ताओं के सार्वजनिक जीवन में पतन और निजी जीवन में हताशा का इतिहास है ।”
-बेहद महत्वपूर्ण वाक्य!
“जो आजीवन सामाजिक दायित्व वहन करने के लिए संकल्प करेगा . जो कभी धन संचय नहीं करेगा , जो संतान पैदा नहीं करेगा , उसीको सामाजिक संरक्षण मिलेगा । ”
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इच्छा तो अपनी यही है।
अन्ना की बात 1997 में की जा रही है। उस समय अन्ना को जानते कितने लोग थे?
मुझे याद है कि बाबा आढ़व से किशनजी की बात हुई थी ।हमारे दल की नासिक में हुई राष्ट्रीय कार्य समिति के दौरान। बाबा आढ़व महाराष्ट्र में हमाल पंचायत के संगठन के मुख्य प्रेरक थे/हैं । उस वक्त बाबा आढ़व अण्णा के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में थे । फिलहाल बाबा आढ़व अण्णा के अभियान से मतभेद के कारण साथ नहीं है । सामाजिक न्याय और साम्प्रदायिकता की बाबत उनके अण्णा से मतभेद हुए ।