24 जुलाई 2013 को जारी इस नीति के मसविदे में बातें तो बहुत अच्छी है, लेकिन ज्यादातर कोई नई बात नहीं है। इस तरह की बातों के बयान पहले भी सरकारी नीतियों और कानूनों में आए हैं, लेकिन उनका अमल नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि इन बातों और मौजूदा विकास नीति, अर्थनीति, सामाजिक – आर्थिक ढांचे व सत्ता के चरित्र में टकराव है। उस टकराव को दूर करने की कोई ठोस रणनीति नहीं दिखाई देती।
सीलिंग –
इस दस्तावेज में एक नई बात भूमि हदबंदी की सीमा (सीलिंग) को कम करने का प्रस्ताव है। सिंचित भूमि की हद 10 एकड़ (चार हेक्टेयर) और असिंचित भूमि 15 एकड़ (6 हेक्टेयर) तक नीचे लाने का सुझाव है। सीलिंग कम करने का सुझाव अच्छा है। जमीन के दाम तेजी से बढे़ हैं। इस महंगे संसाधन को बांटा जा सकता है। लेकिन इसमें तीन बातें नोट करना जरूरी है।
1. पिछले बरसो में भूमि की जोत (होल्डिंग) का औसत आकार पारिवारिक बंटवारे होते – होते कम हो गया है। अब बडी जोतें बहुत कम रह गई है। इसलिए सीलिंग कम करने में बहुत जमीन बंटवारे के लिए उपलब्ध नहीं हो सकती।
2. हम गांव में कृषि भूमि की सीलिंग तो कम करेंगे, लेकिन शहरी संपत्ति पर कोई सीलिंग ही नहीं है। शहरी भूमि पर सीलिंग भी उदारीकरण के तहत लगभग खतम कर दी गई है। ऐसी हालत में पक्षपात का आरोप लगता है और ऐसे कदम गांव-विरोधी, किसान-विरोधी, कृषि-विरोधी माने जाते है।
3. प्लांटेशन के नाम पर और अन्य कारणों से कंपनियों को सीलिंग से ज्यादा कृषि भूमि रखने का अधिकार है। सबसे पहले इसको खतम करना होगा। यदि बड़े प्लांटेशन के लिए बड़ी भूमि जरूरी है, तो वे सामूहिक, सहकारी या सरकारी स्वामित्व में होना चाहिए।
जमीन किरायेदारी (टेनेन्सी) –
यह मसविदा कहता है कि ‘‘जोतने वाले को जमीन’’ (लैंड टू द टिलर) का नारा अव्यवहारिक है और संभव नहीं है। हो सकता है, किन्तु जमीन बटाई या किराये पर लेने वालो को वैधानिक सुरक्षा और हक तो प्रदान किए जा सकते हैं (पश्चिम बंगाल और केरल की तरह)। इसके बजाय यह मसविदा जमीन के ‘‘लीज मार्केट’’ की बात करता है और कहता है कि सरकार को जमीन मालिकों के खिलाफ और बटाईदारों के पक्ष में दखल नहीं देना चाहिए। सरकार को जमीन किराया भी तय नहीं करना चाहिए और यह बाजार से तय होना चाहिए। क्योंकि इस दखलंदाजी से जमीन मालिकों को जमीन किराये पर देने का आकर्षण (इनसेंटिव) नहंीं होगा।
इस अर्थ में यह मसविदा बाजारवादी विचारधारा से प्रेरित है। बाजार को आगे बढाने का मतलब छोटे व गरीब लोगों के हित प्रभावित होंगे।
अनुपस्थित जमींदारी –
भूमि सुधार में एक महत्वपूर्ण जरूरी और व्यवहारिक कदम हो सकता है, जिसके बारे में यह मसविदा पूरी तरह मौन है। वह यह कि जो गांव में (या पडोस के गांव में) नहीं रहता है, उसे कृषि भूमि रखने के अधिकार से वंचित कर दिया जाये। एक परिवार में भी जो भाई शहर में बस चुका है और गैर-कृषि धंधा करता है, उसे कृषि भूमि रखने का अधिकार नहीं होगा (वह चाहे तो दूसरे भाई को अपना हिस्सा दे सकता है)। कोई गांव में निवास करता है या नहीं, इसका फैसला मतदाता सूची से हो सकता है। शहर में रहने वालों की कृषि भूमि को जब्त न करके उन्हें अपनी जमीन बेचने का मौका दिया जा सकता है। छच् यदि ऐसा कानून बनाया गया, तो गांव में बहुत जमीन उपलब्ध हो जाएगी। जो वास्तव में गांव में रहते हैं और खेती करते हैं, उनके पास भूमि आ जाएगी। शहरी अमीरों द्वारा आयकर बचाने, फार्म हाऊस बनाने या जमीन में सट्टात्मक निवेश (सस्ती खरीदकर उसके बढ़ते मूल्य का फायदा उठाना) पर भी रोक लगेगी। इससे जमीन के दामों में कृत्रिम तेजी (जिसके कारण वास्तव में खेती करने के इच्छुक किसानों के लिए जमीन खरीदना मुश्किल हो जाता है) पर भी रोक लगेगी।
कंपनियों की जमींदारी और भूमि अधिग्रहण –
बदलती परिस्थितियों में देश की भूमि समस्या में एक नया आयाम यह जुड़ा है कि बड़े पैमाने पर भूमि कंपनियों के हाथ में जा रही है। यह भूमि-हस्तांतरण स्वयं सरकार द्वारा या उसकी निगरानी में और उसकी ताकत की मदद से होता है। इस पर रोक लगना चाहिए। इस पहलू का जिक्र मसविदे में है, लेकिन कोई ठोस प्रावधान नहीं है। इस विषय में निम्न फैसले होना चाहिए –
1. खेती के लिए कृषि भूमि के स्वामित्व का अधिकार कंपनियों को न हो।
2. जो एक बार विस्थापित हो चुके हंै, दूसरी बार वहां भूमि अधिग्रहण न किया जाए।
3. जमीन के बदले जमीन दी जाए और यह संभव न हो तो भूमि अधिग्रहण न किया जाए।
4. परियोजना के बारे में अंतिम फैसला करने का अधिकार स्थानीय ग्रामसभा/ग्रामसभाओं को हो या फैसला स्थानीय गांववासियों के जनमत-संग्रह से हो। यह सुनिश्चित किया जाए कि ग्रामसभा या जनमत-संग्रह स्वतंत्र, निष्पक्ष तरीके से हो और बिना लालच या दबाव के लोग अपना मत दे सके।
5. अंत में, उस विकास नीति और औधोगीकरण नीति को बदला जाए, जिसमें इतने बडे पैमाने पर लोगों को जंगल-जमीन से वंचित करना पडता है।
6. आदिवासी (अनुसूचित) इलाकों में और अन्य इलाकों में आदिवासियों की भूमि किसी भी तरह निजी कंपनियों के हाथ में न जाए और सर्वोच्च न्यायालय के ‘‘समता’’ फैसले का सम्मान किया जाए।
बंजर और खाली जमीन –
मसविदे में बार – बार कहा गया है कि देश में 4.1 करोड़ हेक्टेयर (पृ.3) या 6.385 करोड़ हेक्टेयर (पृ.6) बंजर और खाली जमीन (वेस्टलैंड) उपलब्ध है जिसमें काफी जमीन भूमिहीनों में बांटी जा सकती है। इसमें से ज्यादातर भूमि खेती लायक नहीं होगी। लेकिन फलदार वृक्ष और बांस आदि लगाकर इसे आमदनी का जरिया बनाया जा सकता है। सिंचाई या भू-संरक्षण के जरिये भी इसे उपयोगी बनाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए काफी पूंजी निवेश और लंबे समय तक इंतजार की जरूरत होगी, जो गरीबों के लिए संभव नहीं है। इसलिए सरकारी मदद और सस्ते दीर्घकालीन करजों की जरूरत होगी। मसविदे में मनरेगा, वाटरशेड डेवलेपमेंट जैसी योजनाओं का उपयोग इसके लिए करने का जिक्र है। लेकिन कुछ जमीनी सच्चाईयां ध्यान में रखना जरूरी है –
1. इनमें से ज्यादातर जमीन पूरी तरह बेकार नही है, बल्कि किसी न किसी तरह के सामुदायिक उपयोग (जैसे चराई या जलाऊ लकडी का स्त्रोत) में होती है। दूसरे शब्दों में यह उस सामुदायिक संसाधन (ब्च्त्) का हिस्सा होती है, जिसका जिक्र इस मसविदे में भी है। इस जमीन के निजी पट्टे बांटने से बाकी समुदाय को समस्या होगी और नए टकराव पैदा होंगे।
2. इनमें से काफी जमीन वास्तव में खाली नहीं है, बल्कि उस पर अतिक्रमण हो सकता है। यदि यह अतिक्रमण बड़े लोगों का है, तो पहले उनका अतिक्रमण हटाकर यह गरीबों को आवंटित की जानी चाहिए। अन्यथा उनके हाथ में केवल कागज के टुकडे ही आएंगे। इस जमीन पर गरीबों का अतिक्रमण भी हो सकता है। ऐसी हालत में इस जमीन को दूसरों को आवंटित करने से गरीबों के बीच आपस में संघर्ष पैदा होगा। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में ‘‘दलित एजेंडा’’ के तहत भूमि वितरण में यही हुआ। बड़े लोगों ने अपने कब्जे नहीं छोडे। जो छोटे लोग काबिज थे, वे भी सरकार द्वारा निर्धारित ‘‘पात्रता’’ की परिभाषा में नहीं आते थे और उनके कब्जे की जमीन दूसरे छोटे लोगों को आवंटित कर दी गई।
भूमि रिकार्ड –
केवल कंप्यूटरीकरण से समस्याएं हल नहीं होगी। ज्यादातर ये रिकार्ड बहुत पुराने चल रहे हैं। कई जगह समस्या यह है कि लेागों की भूमि का नंबर कहीं और है तथा कब्जा कहीं और है। यानी जिस भूमि पर वे खेती कर रहे है, उस पर रिकार्ड में किसी और का नाम है और जहां उनका नाम है, वहां कोई और खेती कर रहा है। इसके कारण काफी उलझनें, मुकदमेबाजी और संघर्ष होते हैं। इसलिए नया भूमि-सर्वेक्षण होना चाहिए और इसे दुरूस्त किया जाना चाहिए। जो काफी बडा काम है। लेकिन उसके बगैर, गलत रिकार्ड को ही कंप्यूटर में फीड कर देने से, समस्या बनी रहती है।
आवास का अधिकार –
मसविदे में घर बनाने के लिए 10 सेंट जमीन के अधिकार की बात कही गई है। केवल कहने से काम नही चलेगा। देश के हर परिवार को रहने के लिए एक घर का बुनियादी अधिकार है। गांव के हर परिवार को रहने की जमीन और शहर के हर परिवार के पास एक फ्लेट जरूर हो, इसे सिद्धांत रूप में स्वीकार करते हुए कानूनी जामा पहनाया जाना चाहिए। लातीनी अमरीकी देश वेनेजुएला ने यह काम शुरू कर दिया है।
ग्रामीण औद्योगीकरण –
जमीन के सवाल को बाकी आर्थिक ढांचे से काटकर नहीं देखा जा सकता। भारत के गांवों में जमीन का सवाल इसलिए भी जटिल और गंभीर हुआ है, क्योंकि पिछली दो सदियों में धीरे-धीरे गांवों के सारे कुटीर उद्योग खतम हो गए। गांवों में खेती छोड़कर सारे धन्धे खतम हो गए और सब लोग खेती व जमीन पर ही आश्रित हो गए।
इसलिए यह जरूरी है कि गांवों में छोटे और कुटीर उद्योगांे का विकास हो तथा कम से कम आधी आबादी गैर-कृषि रोजगार में लगे। लेकिन यह तभी संभव होगा, जब बड़े उद्योगो पर रोक लगेगी या उनका आगे बढ़ाने की मौजूदा नीति को बदला जाएगा। दूसरे शब्दों में, जमीन समस्या का गहरा संबंध पूंजीवादी औद्योगीकरण की दिशा व चरित्र से भी है। इसे उलटना होगा।
– सुनील –
राष्ट्रीय महामंत्री, समाजवादी जन परिषद
राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति का मसविदा: टिप्पणी / सुनील
अगस्त 26, 2013 अफ़लातून अफलू द्वारा
जमीन समस्या का गहरा संबंध पूंजीवादी औद्योगीकरण की दिशा व चरित्र से भी है। इसे उलटना होगा।