अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अरूण कुमार, काले धन पर लिखने वाले सबसे अधिक उद्घ्रित लेखकों में से एक हैं. उन्होंने ‘ द ब्लैक इकॉनॉमी इन इंडिया'(पेंग्विन, 1999) तथा ‘इंडियन इकॉनॉमी सिन्स इंडिपेंडेंस: परसिस्टिंग कोलोनियल डिसरप्शन ‘ (विज़न बुक्स, 2013) पुस्तकें लिखी हैं. India Legal’s के Editor-in-Chief, इन्द्रजीत बाधवार और Associate Editor मेहा माथुर को दिए गए साक्षात्कार में प्रो कुमार बताते हैं कि कैसे जल्दीबाज़ी में उठाया गया ये क़दम माँग, रोज़गार और निवेश को बिपरीत ढंग से प्रभावित करेंगे.
साक्षात्कार के अंश –
प्रश्न – कब और किन परिस्थितियों में विमुद्रीकरण एक अर्थशास्त्रीय उपकरण की तरह उपयोग किया जाता है और वैश्विक स्तर पर इसका प्रयोग कितना सामान्य है ?
उतर — आर्थिक बदलाव के एक उपकरण के रूप में इसका प्रयोग कई जगहों पर हुआ है, पर उस तरह नहीं जैसे कि भारत में हुआ है. ऐसा उन जगहों पर बडे तादाद में किया गया जहां मुद्रा अपना मूल्य पूरी तरह खो चुकी थी, जैसे सोवियत संघ या वाइमर गणराज्य, जहां आपको रोजमर्रा की जरूरतों के लिए बोराभर पैसे ले जाने पडते. वहां मुद्रा को समाप्त कर दिया और नयी मुद्रा सुजित की गयी. मगर भारत ऐसी परिस्थिति में नहीं है.
प्रश्न – क्या भारतीय अर्थव्यवस्था ऐसे संकट का सामना कर रही थी कि इस तरह के तीव्र और भारी भरकम ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की आवश्यकता पडी?
उत्तर — ऐसा नहीं है. वास्तव में हमारे मैक्रो-इकॉनॉमिक सूचक काफी अच्छे थे. पर असल मुद्दा है, इससे हासिल क्या हुआ? प्रधानमंत्री के अनुसार, यहां दो उद्देश्य हैं. पहला है आतंकियों के वित्तपोषण और नकली नोटों पर अंकुश लगाना और दूसरा यह कि काले धन की अर्थव्यवस्था, जो बहुत बडी हो चुकी है, गरीबी और सारी समस्याओं की जड है, उससे छुटकारा पाना. सवाल है – क्या विमुद्रीकरण इन दोनों समस्याओं से निजात दिलाता है? जहां तक नकली नोटों की बात है, वो दस लाख में केवल 400 हैं, जो नगण्य हैं. रिजर्व बैंक के अनुसार 400 करोड रूपये के नकली नोट ही बाजार में हैं. बाजार में कूल मुद्रा है साढे सत्रह लाख करोड रूपये. य़े ऊंट के मूंह में जीरा के समान है, नगण्य है. आतंकियों को पैसे की जरूरत होती है जिसके लिए वो नकली नोट छापते हैं और इसे फैलाते हैं. पर एक बार उन्होंने पैसा किसी और को दे दिया तो ये अर्थव्यवस्था में घूमता रहता है. इस वजह से उन्हें ज्यादा से ज्यादा नकली नोट छापने होते हैं. इसे रोकने की जरूरत है. आप इसे कैसे रोकेंगे? नोटबंदी से नहीं, क्योंकि नकली नोटों को बनाने में अन्य देशों की सरकारें भी संलिप्त हैं. वे नए किस्म के नोट की भी नकल कर सकते हैं.
प्रश्न – विगत वर्षों में भारत की विकास दर, व्यापार, सकल घरेलू उत्पाद और विदेशी मुद्रा भंडार अमूमन अच्छे रहे हैं. फिर इस फलदायी व्यवस्था में छेडछाड क्यों?
उत्तर — ये पूरी तरह एक गलत आकलन है कि आप इस उपाय से काले धन की अर्थव्यवस्था से निजात पा लेंगे. इसका मतलब समझिए. आप कमाते हैं जिसमें से आप बचाते हैं और संपत्ति अर्जित करते हैं. आपकी आय जितनी भी हो आप उसका एक हिस्सा खर्च करते हैं और कुछ बचा लेते हैं और वो बचत आप कई तरह की संपत्तियों में निवेश करते हैं. इससे आपका धन बनता है. धन को कई तरह से रखा जाता है. आप इसे मकान, जमीन, सोना, शेयर बाजार या नकदी में रख सकते हैं. नकदी तो आपके धन का एक हिस्सा होता है – संभवत: आपके पूरे धन का मात्र एक प्रतिशत. काले धन की अर्थव्यवस्था मेरे हिसाब से जीडीपी का 62% है. फिलहाल 150 लाख करोड की जीडीपी में हम हर साल 93 लाख करोड की काली कमाई पैदा कर देते हैं. काला धन इसका तीन गुना, लगभग 300 लाख करोड हो सकता है जिसमें से 3 लाख करोड रूपये नकदी के रूप में है जिसे हम काला पैसा कहते हैं.
प्रश्न – तो क्या काला धन और काली कमाई में फर्क है?
उत्तर – हां, काली कमाई, काली मुद्रा और काला धन, तीनों ही अलग हैं. अक्सर लोग भूल कर बैठते हैं. उन्हें लगता है तीनों एक ही हैं. काली मुद्रा देश में काले धन की मात्र एक प्रतिशत है. मान लेते हैं आप तीन लाख करोड रूपये अलग करने में पूरी तरह सफल हो जाते हैं तो भी आप केवल 1% ही अलग कर रहे हैं.
अगला मुद्दा है क्या आप तीन लाख करोड रूपये अलग कर पाएंगे? लोगों ने इसे सफेद करने के तरीके खोज लिए हैं. जिस दिन ये घोषणा हुई, खबर आई कि तीन बजे रात तक ज्वेलरी की दूकानें खुली थीं. वे पुरानी तारीखों की रसीदें देकर सोने की बिक्री दिखा रहे थे. एक व्यापारी ने कहा, उसके पास 20 करोड रूपये थे और उसने अपने कर्मचारियों के चार महिनों की पगार पहले ही दे दी. वे इसे बैंक में जमा करेंगे. इस तरह उनकी काली मुद्रा का उपयोग हो गया. इसके बाद ग्रामीण इलाकों में जनधन योजना के बैंक खातों में बडे पैमाने पर काली मुद्रा जमा की जा रही है. एक जमींदार 100 लोगों को 20,000 लेकर बैंक में जमा करने को कह सकता है तो आप यहां तक कि तीन लाख करोड का भी विमुद्रीकरण नहीं कर पाएंगे. ज्यादा से ज्यादा 50,000 से 70,000 करोड रूपये ही चलन से निकाल सकते हैं. इस तरह दोनों ही उद्देश्य, जिनका प्रधानमंत्री ने उल्लेख किया है, पूरे नहीं होंगे.
और तो और, आप मूश्किल से एक साल के लिए तीन लाख करोड रूपये की मुद्रा पर चोट कर सकते हैं पर काली कमाई पहले की तरह ही जारी रहेगी जैसे नकली दवा बनाकर, नशीली चीजें बेचकर, कैपिटेशन फीस वसूलकर, खरीद-बिक्री के गलत रसीद दिखाकर इत्यादि. इस तरह नकदी यहां फिर से पैदा हो जाएगी. और आप दो हजार के नोट ला रहे हैं जिससे काली मुद्रा को रखना और आसान होगा. ऐसे तो आप अपने ही तर्क को कमजोर कर रहे हैं कि बडे नोट काले धन को जमा करने में सुविधाजनक होते हैं इसलिए इन्हें हटाने की जरूरत है.
प्रश्न – हम सभी जानते हैं कि भारत में विशाल और निरंतर बढती एक समानांतर अर्थव्यवस्था है. बहुत चालाकी के साथ, यह समानांतर अर्थव्यवस्था पूरी तरह नकदी पर चलती रहती है. यह रोजगार, उपभोक्ता मांग, ग्रामीण कर्ज़, अनौपचारिक बैंकिंग और मुद्रा प्रवाह को सफलता से चलाते रही है. विमुद्रीकरण इन क्रियाकलापों पर कैसे चोट करेगा? इसे रॉबिनहुड की तरह के उपाय के रूप में पेश किया जा रहा है – अमीरों से लूटकर गरीबों को देना. इस तरह का राजनीतिक संदेश दिया जा रहा है. क्या यह एक गरीब-हितैषी-प्रयास है?
उत्तर — नहीं. मूल रूप से ये समानांतर अर्थव्यवस्था नहीं है. भारत में काले धन की अर्थव्यवस्था और सफेद धन की अर्थव्यवस्था, दोनों ही बडे पैमाने पर एक दूसरे के साथ गुंथे हुए हैं. इसलिए जब आप अपनी जमीन या मकान बेचते हैं तो आप एक ही साथ काली और सफेद कमाई करते हैं. जब आप चीनी का उत्पादन करते हैं, तब आप उत्पादन का 90% ही दिखाते हैं और 10% नहीं दिखाते. इस वजह से जब अवैध धन की अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है तब वैध धन की अर्थव्यवस्था भी साथ ही प्रभावित होती है. यह प्रयास जो अवैध की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने के लिए लाया गया है, वह सफेद धन की अर्थव्यवस्था को भयंकर रूप से प्रभावित कर रहा है. मांग घटती चली जा रही है. जैसा कि किसी ने अच्छा दृष्टांत दिया है, अगर आप किसी के शरीर में से 85% खून ले लें फिर 5% डाल दें, तो उस व्यक्ति के शरीर का क्या होगा? वो मर जाएगा. इसी तरह से, जब आप 85% मुद्रा अर्थव्यवस्था से निकाल लेते हैं और इसके बदले धीरे धीरे 5% डालते हैं तब मुद्रा प्रवाह कम हो जाता है. दूकानों में ग्राहक घट गए हैं. मोबाइलों की रिजार्जिंग घट गई हैं. गुब्बारे वाला के गुब्बारे नहीं बिक रहे. छोटे व्यापारी अपने माल नहीं बेच पा रहे. यहां तक कि बडे व्यापारी भी अपने माल नहीं बेच पा रहे क्योंकि मनमाफिक खर्च कम हो गया है. उदाहरण के लिए, एक कमीज़ खरीदने को मैं अगले महिने तक टाल देता हूं तो आय की कमी मांग को घटा रही है. जब मांग कम पड जाती है, उत्पादन घट जाता है. रोजगार कम हो जाते हैं और निवेश गिर जाता है. तो इसके दीर्घगामी दुष्प्रभाव होते हैं. अगर ऐसा एक या दो महिने जारी रहता है तो निवेश गिर जाएगा और साल भर से ज्यादा का वक्त तक इसका असर बना रहेगा. नकद की किल्लत को तुरंत दूर नहीं किया जा सकता. इससे मांग 50 दिनों से ज्यादा वक्त तक प्रभावित होगी.
आपको 14.5 लाख करोड रूपये के 500 और 1000 के नोट बदलने हैं जिसे आपने 15 सालों या उससे भी ज्यादा वक्त में छापा था. पर आपको बदलना है तुरंत. ये संभव नहीं है क्योंकि आपको कागज और स्याही की जरूरत है जो ज्यादातर आयात किये जाते हैं. और स्याही की आपूर्ति का अभाव है, जिसके चलते उन्होंने कुछ दिनों पहले निविदा जारी की. बिजनेस स्टैंडर्ड के अनुसार, कागज और स्याही की कमी ना भी होने पर नोट छापने में 108 दिन लगेंगे और अगर आप 100 का नोट छाप रहे हैं तो 1000 के नोट की अपेक्षा 10 गुना ज्यादा वक्त की आपको जरूरत है और इसे होने में बहुत लंबा वक्त लगेगा.
दूसरी बात है, लोग नोटों को जमा कर रहे हैं क्योंकि वे आश्वस्त नहीं है कि कब आपूर्ति सामान्य होगी. इसकी वजह से, नोटों की मांग ड्योढी हो जाएगी. जो लोग सबसे ज्यादा दिक्कतों का सामना करेंगे, वे असंगठित क्षेत्र के हैं, जिनके पास ना तो क्रेडिट कार्ड, ना डेबिट कार्ड और ना कार्ड रीडर है. ये वही लोग हैं जिन्हें नोटो की सबसे ज्यादा जरूरत है. पूरी कृषि असंगठित क्षेत्र है. ये क्षेत्र कारखाना उत्पादन और सेवा का भी महत्वपूर्ण सप्लायर और ग्राहक है.
प्रश्न – क्या ऐसा कोई खतरा है कि लोगों का एक बडा हिस्सा आर्थिक रूप से अशक्त हो जाएगा?
उत्तर – यही तो हो रहा है. जिससे गुब्बारे वाले की आय तेजी से गिर गयी है. एक भिखारन ने बताया कि लोग अब भीख नहीं दे रहे और उसके चार छोटे छोटे बच्चे थे, जिनमे से एक खाने की कमी से मर गया. जिन लोगों का 500-1000 के नोटों से कोई वास्ता नहीं था, वे भी प्रभावित हो रहे हैं. ग्रामीण इलाकों में किसान बीज और खाद खरीदने में सक्षम नहीं हैं. अढतिया के पास कर्ज देने को पैसे नहीं हैं. इसके चलते अगले साल की बुआई भी प्रभावित हो सकती है. आप पैसा तो नहीं खाते. पैसे से आप खाना, कपडा और सेवा खरीद सकते हैं. इसलिए पैसा प्रवाह में हो. ये शरीर में रक्त के प्रवाह की तरह है, जिसके वजह से सब कुछ चलता है. अगर इसकी कमी होती है, तो समस्या होगी.
प्रश्न – इस समय हमें असुविधा हो रही है. वास्तविक दिक्कतें कब शुरू होंगी? आप क्या सोचते हैं?
उत्तर – वास्तविक तकलीफ तो गरीबों के लिए जारी है ही. मध्य वर्ग के लिए वास्तविक तकलीफ कम है क्योंकि हम क्रेडिट कार्ड का उपयोग करते हैं. ये शुरू तब होगी जब हमारी आय प्रभावित होगी. जब उत्पादन कम होगा तब मध्य वर्ग छंटनी का सामना करेगा. ट्रकवाले हडताल पर चले जाएंगे, जो कि एक संभावना है. अगर सरकार ने ठीक से तैयारियां की होती और नोटों के प्रवाह के प्रबंध किए होते तो संभवत: ये तकलीफ कम हो गयी होती.
प्रश्न – क्या नकद की पुरानी व्यवस्था को चलने देना एक विकल्प था?
उत्तर – ऐसा कदम काले धन की अर्थव्यवस्था को खत्म नहीं करता बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था के लिए समस्या खडी कर देता है. बात ये है कि काले धन की अर्थव्यवस्था कल से नहीं शुरू हुई, ये जारी है 70 सालों से. तो इस समस्या को रातोंरात ठीक भी नहीं किया जा सकता. कोई जादु की छडी नहीं है. आप जो कर सकते थे वो ये कि व्यवस्था में जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए लोकपाल की नियुक्ति करते, काले धन से निपटने के उपायों में, व्यापारियों, नेताओं, नौकरशाहों, पुलिस और न्यायपालिका जो जवाबदेह नहीं है, तो जवाबदेही लाएंगे कैसे? ये एक कुञ्जी है. अगर आप इन सबके बीच जवाबदेही ला सकते हैं तो आप काले धन की समस्या को हल कर सकते हैं. इसलिए राजनीतिक दलों का सूचना का अधिकार के तहत आना जरूरी है. पर वे इसके लिए तैयार नहीं हैं. भ्रष्टाचार उजागर करने वाले लोग (व्हिसलब्लोअर) बहुत महत्वपूर्ण हैं. क्योंकि यही वे लोग हैं जो व्यापमं या आदर्श जैसे घोटाले सामने लाते हैं. पर व्हिसलब्लोअर बिल को सशक्त करने के बदले इसे कमजोर किया जा रहा है. दूसरी बात, हम प्रत्यक्ष कर के सरलीकरण के लिए बहुत कुछ नहीं कर रहे. माल एवं सेवा कर (जीएसटी) है, पर ज्यादा महत्वपूर्ण प्रत्यक्ष कर नियमावली विधेयक है. आप को प्रत्यक्ष कर को सरलीकृत करना बाक़ी है. खुफिया एजेंसियां हवाला पहचानती हैं पर आप उसके ऊपर कुछ नहीं करते. तो ऐसी कई चीजें हैं जो आप तुरंत कर सकते हैं क्योंकि आपके पास नियम मौजूद हैं. इससे पता चलता है कि नीयत ठीक नहीं है. अगर आपने इन कानूनों का सहारा लिया होता, तो काली कमाई ना करने वाले उन 97% लोगों पर बिना प्रतिकूल प्रभाव डाले आप काले धन में लगे 3% लोगों पर निशाना साध सकते थे. वास्तव में, 97% लोग काले धन की अर्थव्यवस्था के कारण पहले से ही पीडित हैं और अब उन पर दूसरे बोझ भी लाद दिए गए हैं – बिना काले धन की समस्या का हल निकाले.
प्रश्न – उनके लिए आपने सुगम तरीका नहीं दिया है जो अनजाने में काले धन की अर्थव्यवस्था के अंग हो गए हैं?
उत्तर – नहीं. आय घोषणा योजना 30 सितंबर तक की थी जिसमें आप 15% जुर्माने के साथ काले धन की घोषणा कर सकते थे. वित्त मंत्री ने कहा,” कृपया साफ होकर आयें तभी आप चैन से सो पायेंगे” (प्लीज़ कम क्लीन देन यू कैन स्लीप इन पीस). पर जब आप कहते हैं कि हम भ्रष्ट व्यापारी के खिलाफ कदम नहीं उठायेंगे तब तक वे खुश हैं. तो जहां माफी दी गयी वहां फायदा नहीं हुआ. स्वैच्छिक घोषणा योजना (वी डी एस ) भारत में छ: बार लागू की गयी है. सरकार ने 1997 में उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दिया कि हम कभी इस तरह की योजना नहीं लाएंगे. कारण रहा कि ये ईमानदार लोगों के साथ अन्याय था. ईमानदार व्यापार की पूंजी धीरे धीरे बढ रही है क्योंकि वो पूरा कर दे रहा है. बेइमान व्यापारी की पूंजी तेजी से बढ रही है. इसलिए ईमानदार कहता है मुझे भी बेइमान होने दो. स्वैच्छिक घोषणा योजना पर 1997 में कैग ने दो चीजें बतायीं. लोग अभ्यस्त कर अपराधी हो गये हैं. जिन लोगों ने पिछली पांच योजनाओं में घोषित की, उन्होंने ही छठी योजना में भी घोषित की. उन्होंने सोचा कि दूसरी योजना आ जाएगी, थोडा और पैसा कमा लें. इस तरह 1997 के बाद उन्होंने स्वैच्छिक घोषणा की ही नहीं, जबकि 2016 की आय घोषणा योजना भी स्वैच्छिक घोषणा योजना की ही तरह थी. मॉरीशस का रास्ता भी स्वैच्छिक घोषणा योजना की तरह है. आप पैसा बाहर भेजते हैं, वापस घूमा कर ले आते हैं और इस तरह आप कर नहीं देते. हमारे पास अद्भूत कानून हैं पर हम उन्हें लागू नहीं करते. इन कानूनों को लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए.
दूसरी बात, नकद का अर्थ अनिवार्यत: काला पैसा नहीं होता. तो, 17.5 लाख करोड रूपये में से 14.5 लाख करोड रूपये 500-1000 के नोटों में है. इसमें से 50% व्यापार में लगा होगा. अगर आप पेट्रोल पम्प जाते हैं, तो दिन के अंत में कैशियर के पास नोटों का बंडल देखते हैं. रेलवे, एयरपोर्ट – हर जगह जरूरत है. कंपनियों के पास थोडा ही काला-नकद है. ज्यादातर नकद सफेद है. जिसे अर्थव्यवस्था को प्रवाह में बनाए रखने में उपयोग किया जाता है. घरेलू तौर पर, एक साधारण चपरासी की 10,000-20,000 की काली कमाई काले धन की अर्थव्यवस्था के सामने कुछ भी नहीं है. एक मधु कोडा की काली कमाई पूरे तृतीय और चतुर्थ वर्गीय कर्मचारियों की काली कमाई से ज्यादा है. ये भ्रांति है कि काला धन मतलब नकदी है. इसी जगह मोदी की समझ में कमी है. उन्होने सोचा कि अगर वो नकदी पर चोट करेंगे तो काले धन की अर्थव्यवस्था भरभरा जाएगी.
प्रश्न – ये तो स्वार्थ-निहित राजनीतिक आदर्श की तरह लगता है.
उत्तर – राजनीतिक स्वार्थ यह है की मैं गरीबों का नायक हो जाऊं. कि मैंने काले धन की अर्थव्यवस्था तोड दी, जो गरीबों को प्रभावित कर रही थी. अगर दो लाख करोड वापस आये तो वे
ये कहेंगे कि मैं दस करोड परिवारों को 20,000-20,000 रू दे रहा हूं. इन अमीर लोगों ने ये पैसा चुरा लिया था इसलिए मैंने उनसे वापस ले लिया है और गरीबों में बांट दिया है. पर इन कारणों से ये बेअसर रहेगा कि जब एकबार में गरीब 20,000 रू ले रहे होंगे, तो अगर इनकी नौकरी ही चली जाएगी तो ये आगे के सालों में काफी ज्यादा खो देंगे.
प्रश्न – तो आप कह रहे हैं कि ये बहुत ही आधारभूत संरचनात्मक सुधार है, जिसका मतलब क्रमिक सुधारवाद है? जैसे चंद्रशेखर को सोना गिरवी रखना पडा था, क्योंकि उस वक्त संकट की स्थिति थी? कुछ हद तक 1972 के संकट जैसा, जब इंदिरा गांधी ने गेंहूं पर नियंत्रण के आदेश जारी किए थे?
प्रश्न – पर बात ये है कि ये उपाय संकट के दौड़ में किए गए थे. इससे तो हरेक चीज पर असर हो रहा है.
प्रश्न – तो ये लाख टके की राजनीतिक भूल है ?
उत्तर — व्यापारी वर्ग उनका समर्थन छोड देगा क्योंकि व्यापारी बहुत परेशान है, किसान परेशान है, कर्मचारी परेशान है. वो ये करेंगे कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में नकद की आपूर्ति कर देंगे और राष्ट्रीय मीडिया कहेगी कि लाइनें कम हो रही हैं. पर गांवों में नकद कम रह जाएंगे. उन्हें बैंक में पैसे लेने के लिए लंबी दूरियां तय करनी होती है और कई बार खाली हाथ लौटना पडता है. टियर -2 और टियर-3 के शहरों में बहुत कम पैसे हैं.
प्रश्न – अब ये लॉकरों तक भी जा सकते हैं?
उत्तर – नहीं, इससे केवल मध्यम वर्ग ही प्रभावित होता है. गरीब लॉकरों का उपयोग नहीं करते.
प्रश्न – मगर राजनीतिक दलों को उन 3% से ही पैसा मिलता है.
उत्तर — पर अगर आपमें वो करने की राजनैतिक इच्छाशक्ति है तो ये करने की भी राजनीतिक इच्छाशक्ति होनी चाहिए. जैसे यूपी के एक नेता को चंदा देने वालों से कहते पाया गया कि पुराना नोट दे जाएं और नया नोट ले जाएं. तो राजनीतिक दल के चंदे नहीं रूकेंगे. अब 2000 के नोटों से और आसानी हो जाएगी. उन्हें कुछ नहीं होगा. आज मैं एक कमिश्नर से बात कर रहा था, जिन्होंने बताया कि हम उन मामलों को हाथ नहीं लगाते जिनके पीछे राजनैतिक ताकतें हों. वैसे आय कर विभाग के पास इतनी तहकीकात करने की शक्ति भी नहीं है.
प्रश्न – ये केवल एक आदमी के दिमाग की उपज है?
उत्तर –उन्होंने किसी से भी विमर्श नहीं किया. अपनी बातों में उन्होंने कहा कि सरकार के विभाग और बैंक इस बारे में पहली बार सुन रहे हैं.
प्रश्न – हमें संविधान की धारा 21 देखना चाहिए. संविधान संपत्ति का अधिकार देता है. आपकी जीविका एक मौलिक अधिकार है.
उत्तर — वे यह नहीं कर रहे. वे पुराने नोटों को नये नोटों से बदल रहे हैं. वो आपको आपकी संपत्ति से बेदखल नहीं कर रहे.
प्रश्न -पर वे जीने के साधन लूट रहे हैं.
उत्तर — ये इस कदम का परिणाम है. जहां तक संपत्ति की बात है, वो आपकी संपत्ति नहीं लूट रहे. “मैं भुगतान का वादा करता हूं” ( आई प्रॉमिस टू पे), ये कहना एक कानूनी निविदा है. सरकार समान मूल्यों के नये नोट छाप रही है. पर इससे मंदी आती है. यह एक मूर्खतापूर्ण कदम है. किसी भी नीति के गलत दिशा में जाने की संभावना होती है.
प्रश्न – क्या इस प्रक्रिया के लिए उच्चतम न्यायालय दोषवार भी ठहरा सकता है?
उत्तर — उच्चतम न्यायालय एक जिम्मेवार संस्था है. ये कोई भी बात मौखिक रूप से कह सकता है, डांट सकता है, पर जब फैसला आता है तो ये सतर्क हो जाते हैं. जनहित याचिकायें दायर भी की गई हैं, और सरकार इन्हें उच्चतम न्यायालय में इकट्ठा चाहती है. और न्यायालय ने अभी तक इससे इंकार किया है. पर अंतत: ये हो सकता है कि न्यायालय ये कहे कि ये तो नीतिगत मामला है. हम इसमें कुछ नहीं कर सकते.
प्रश्न – एक आदमी वो करने की कोशिश कर रहा है जो किया नहीं जा सकता, बिना किसी सलाह के?
उत्तर – इस तरह भारत जैसे जटिल देश को नहीं चलाया जाता. अगर मैं उस जगह पर होता तो मैं 100 लोगों से पूछता. वे अपनी कैबिनेट में किसी पर भरोसा नहीं करते और उनके मोबाइल रखवा लेते हैं. रात 8 बजे तक उन्हें एक हॉल में रखा जाता है. उर्जित पटेल ने सभी बैंकोंवालों को बुलाया और उन्हें एक महत्त्वपूर्ण घोषणा पर नज़र रखने को कह दिया. ये, भारत जैसे जटिल देश में इस तरह की जटिल नीति लाने का तरीका बिल्कूल नहीं है
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