पसंद आए तो साझा भी कीजिए।बातचीत के आखीर में राजेंद्र राजन की कविता का अफ़लातून ने पाठ किया है।
Posted in bio-terror, chikitsa, Covid19 Pandemic, tagged Corona, Covid 19, epidemic, minimum support price, return migration on जून 18, 2020| Leave a Comment »
पसंद आए तो साझा भी कीजिए।बातचीत के आखीर में राजेंद्र राजन की कविता का अफ़लातून ने पाठ किया है।
Posted in bio-terror, chernobyl, environment, globalisation, industralisation, rajendra rajan, tagged कविता, नोवल करोना, बुरा वक्त, राजेन्द्र राजन on अप्रैल 25, 2020| Leave a Comment »
Posted in bio-terror, Genetically modified food, tagged बीटी बैंगन, बीटी बैगन, बेगुन, बेगुन बैगन, बैगन, bt brinjal, genetically modified food on अगस्त 22, 2010| 4 Comments »
[ नीला हार्डीकर अवकाश प्राप्त शिक्षिका हैं और मध्य प्रदेश के मुरेना में महिलाओं और दलितों के साथ काम करती हैं । नर्मदा बचाओ आन्दोलन और मध्य प्रदेश में चलने वाले आदिवासियों , स्त्रियों , विस्थापितों के जन आन्दोलनों के साथ वे सक्रीयता से जुड़ी हैं । उनके तथा प्रतिष्ठित पत्रिका ’गांधी – मार्ग ’ के प्रति आभार के साथ यह लेख प्रकाशित करते हुए मुझे खुशी हो रही है । मेरे चिट्ठों के पाठक नीला हार्डीकर से पूर्व परिचित हैं – इन दो पोस्टों के माध्यम से ।]
अब बीटी बैंगन कभी भी बाजार में आ सकता है ।
क्या है यह बीटी बैंगन ? दिखने में तो यह साधारण बैंगन जैसा ही होगा । फर्क इसकी बुनियादी बनावट में है । इस बैंगन की , उसके पौधे की , हर कोशिका में एक खास तरह का जहर पैदा करने वाला जीन होगा, जिसे बीटी यानि बेसिलस थिरुंजेनेसिस नामक एक बैक्टीरिया से निकालकर बैंगन की कोशिका में प्रवेश करा दिया गया है । इस जीन को , तत्व को पूरे पौधे में प्रवेश करा देने की सारी प्रक्रिया बहुत ही पेचीदी और बेहद महंगी है । इसे प्रौद्योगिकी को जेनेटिक इंजीनियरिंग का नाम दिया गया है ।
हमारे देश में बैंगन का ऐसा क्या अकाल पड़ा है जो इतनी महंगी तकनीकी से बने बीजों के लिए यहां ऐसे विचित्र प्रयोग चलते रहे ? पहले इसका इतिहास देख लें । मध्य प्रदेश के जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय के खेतों में बीटी बैंगन की प्रयोगात्मक फसलें ली गई थीं । इस बात की जांच की गई कि इसे खाने से कितने कीड़े मरते हैं । जांच से पता चला कि बैंगन में प्राय: लग सकने वाले ७० प्रतिशत तक कीट इस बैंगन में मरते हैं । इसे ही सकारात्मक नतीजा माना गया । अब बस इतना ही पता करना शेष था कि इस बीटी बैंगन को खाने से मनुष्य पर क्या असर पड़ेगा ? प्राणियों पर भी इसके प्रभाव का अधकचरा अध्ययन हुआ है । ऐसे तथ्य सामने आए हैं कि बीटी बैंगन खाने वाले चूहों के फेफड़ों में सूजन , अमाशय में रक्तस्राव , संतानों की मृत्युदर में वृद्धि जैसे बुरे प्रभाव दिखे हैं ।
इसलिए यह बात समझ से परे है कि जब चूहों पर भी बीटी बैंगन के प्रभाव का पूरा अध्ययन नहीं हुआ है तो उसे खेत और बाजार में उतारने की स्वीकृति देने की जल्दी क्या थी । वह भी तब जब इस विषय को देख रही समिति के भीतर ही मतभेद थे । सर्वोच्च न्यायलय द्वारा इस समिति में रखे गये स्वतंत्र विशेषज्ञ माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉ. पुष्प भार्गव का कहना है कि स्वीकृति से पूर्व आवश्यक माने गये जैव सुरक्षा परीक्षणों में से अधिकांश को तो छोड़े ही दिया गया है । शायद अमेरिका की तरह हमारी सरकार की भी नीति है कि नियमन पर ज्यादा जोर न दिया जाए । वरना विज्ञान और तकनीक का विकास रुक जाएगा । यह मंत्र बीज कंपनी मोनसेंतों ने दो दशक पूर्व तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश सीनियर को दिया था और उन्होंने उसे मान भी लिया था। तभी से उनकी नियामक संस्था एप्फ़.डी.ए. अपने भीतर के वैज्ञानिकों की सलाह के विपरीत अमेरिका में इस विवाद भरी तकनीक से बने मक्का ,सोया आदि बीजों को स्वीकृति देती जा रही है और इन बीजों को खेत में बोया जा चुका है । अब अमेरिका के लोग इसकी कीमत चुकाने जा रहे हैं । अमेरिकन एकेडमी ऑफ़ एनवायर्नमेंटल मेडिसिन (एइएम) का कहना है कि जीएम खाद्य स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा है। विषाक्तता , एलर्जी और प्रतिरक्षण , प्रजनन,स्वास्थ्य, चय-अपचय , पचाने की क्रियाओं पर तथा शरीर और आनुवंशिक मामलों में इन बीजों से उगी फसलें , उनसे बनी खाने-पीने की चीजें भयानक ही होंगी ।
हमारे देश में इस विचित्र तकनीक से बने कपास के बीज बोए जा चुके हैं । ऐसे खेतों में काम करने वालों में एलर्जी होना आम बात है । यदि पशु ऐसे खेतों में चरते हैं तो उनके मरने की आशंका बढ़ती है। भैंसे बीटी बिनौले की चरी खाकर बीमार पड़ी हैं । उनकी चमड़ी खराब हो जाती है व दूध कम हो जाता है। भैंस बीटी बिनौले की खली नहीं खाना चाहती । यूरोप और अमेरिका से खबरें हैं कि मुर्गियों, चूहे , सुअर , बकरीगाय व कई अन्य पशु जीएम मक्का और अन्य जीएम पदार्थ खाना ही नहीं चाहते । पर हम इन्सानों की दुर्गत तो देखिए जरा ।
हमें बताया जा रहा है कि यदि विकास चाहिए तो किसान को बीटी बैंगन के बीज खरीदने के लिए तैयार होना होगा । और इसी तरह हम ग्राहकों को भी , उपभोक्ताओं को भी बीटी बैंगन खरीदकर पकाने, खाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए ! उनका कहना है कि इससे कोई नुकसान होने की , एलर्जी होने की बातभी तक सिद्ध नहीं हुई है । होगी तो हम हैं न । नियंत्रण कर लेंगे । अरे भाई, आखिर दवा उद्योग का भी तो विकास होना चाहिए । इन पौधों से जमीन , खेत , जल जहरीला होता है , तितली , केंचुए कम होते हैं तो उन समस्याओं से निबटने के लिए कृषि विज्ञान का और विकास होगा , बायोटेक्नालॉजी में सीधा विदेशी निवेश और बढ़ेगा । हम इसी तरह तो होते जाएंगे !
[ अगली प्रविष्टी में समाप्य ]
Posted in bio-terror, industralisation, intellectual imperialism, madhya pradesh, poem, rajendra rajan, tagged bhopal, gas tragedy, hindi poem, poem, rajendra rajan, supreme court judgement on जून 12, 2010| 8 Comments »
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए भोपाल गैस कांड संबंधी फैसले से हर देश प्रेमी आहत हुआ है | पचीस साल पहले राजेन्द्र राजन ने इस मसले पर कवितायें लिखी थीं , इस निर्णय के बाद यह कविता लिखी है |
भोपाल-तीन
हर चीज में घुल गया था जहर
हवा में पानी में
मिट्टी में खून में
यहां तक कि
देश के कानून में
न्याय की जड़ों में
इसीलिए जब फैसला आया
तो वह एक जहरीला फल था।
Posted in bio-terror, tagged प्रदूषण, प्लास्टिक on जून 1, 2010| 6 Comments »
प्लास्टिक और पॉलीथिन आधुनिक विज्ञान और तकनालाजी की एक चमत्कारिक देन है। इसने पैकिंग और पैकेजिंग में एक क्रांति ला दी है और उसे काफी सुविधाजनक बना दिया है। कागज, लकड़ी, बांस, बेंत, घास, जूट, सूत, लोहा, टीन, पीतल, कांच, मिट्टी आदि की बनी वस्तुओं की जगह प्लास्टिक ने ले ली है। किन्तु इन दिनों प्लास्टिक और पॉलीथिन की चर्चा एक समस्या के रुप में ही होती है। इसका कचरा एक सिरदर्द बन गया है। हमारे नगरों, महानगरों, तीर्थों, पर्यटन-स्थलों, नदियों, रेल पटरियों – सब जगहों पर यह कचरा नजर आता है। नाले व नालियां इसके कारण अवरुद्ध हो जाते हैं। जहां दूसरा कचरा सड़ जाता है और मिट्टी बन जाता है, यह सड़कर मिट्टी का हिस्सा नहीं बनता है। पॉलीथिन में फेंके गए खाद्य पदार्थों को कई बार गायें खा लेती हैं और मर जाती हैं। यह अचरज की बात है कि गोरक्षा का आंदोलन चलाने वाले गौभक्तों ने अभी तक प्लास्टिक के खिलाफ कोई जोरदार आंदोलन नहीं चलाया है।
जमीन में प्लास्टिक-पॉलीथिन का कचरा जाने से केंचुए व अन्य जीव अपना कार्य नहीं कर पाते हैं और भूजल भी प्रदूषित होता है। यदि इन्हें जलाया जाए तो वातावरण में जहरीली गैसें जाती है। इनके पुनः इस्तेमाल (रिसायकलिंग) से भी समस्याएं हल नहीं होती।
कचरे में फिंकाने के पहले भी इनके उपयोग में समस्याएं हैं। खास तौर पर, इनमें खाद्य पदार्थों की पैकिंग से वे प्रदूषित होते हैं। कई बार पॉलीथिन का रंग खाने में आ जाता है। इन दिनों पूरे देश में पतले प्लास्टिक कप में चाय बेचने – पिलाने का रिवाज हो चला है, वह तो काफी नुकसानदायक है। अब कई जगह अभियान चलया जा रहा है कि पाॅलीथिन-प्लास्टिक की थैलियों व कप के स्थान पर कागज व कपड़े का इस्तेमाल हो।
पिछले दिनों संसद में प्लास्टिक-पॉलीथिन पर पाबंदी लगाने की मांग उठी, तो सरकार ने इंकार कर दिया। वन-पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि इससे लोगों को रोजगार भी मिलता है। प्रतिबंध लगाने के बजाय इसे कुछ महंगा बनाया जा सकता है। इस विषय में सुझाव देने के लिए सरकार ने एक समिति गठित की है। मंत्री महोदय ने यह भी कहा कि 20 साल पहले पेड़ों को बचाने के लिए कागज के स्थान पर पॉलीथिन के इस्तेमाल का फैसला किया गया था। (28 अप्रैल,2010)
पर्यावरण मंत्री का यह बयान महत्वपूर्ण है। इससे विकास एवं पर्यावरण की हमारी घुमावदार समझ का एक चक्र पूरा होता है। बीस साल पहले हम समझ रहे थे कि कागज व लकड़ी की जगह प्लास्टिक के उपयोग से पर्यावरण की रक्षा होगी। आज हम पर्यावरण को बचाने के लिए प्लास्टिक-पॉलीथिन से वापस कागज-कपडे़ की ओर जाने की बात कर रहे हैं। सवाल है कि यह बात हम पहले क्यों नहीं समझ पाए ? बीस साल पहले भी यूरोप-अमरीका के शहरों में पॉलीथिन के उपयोग से पैदा हुई समस्याएं सामने आ चुकी थी। तब हमने उनके अनुभव की कोई समीक्षा करने की जरुरत क्यों नहीं समझी ? जरुर हमारी समझ व सोच के तरीके में कोई बुनियादी गड़बड़ी है।
दूसरा उदाहरण लें। चार-पांच दशक पहले हमने अपनी खेती की पद्धति में बड़ा बदलाव किया और पूरी सरकारी ताकत उसमें लगा दी। पारंपरिक देशी बीजों के स्थान पर विदेशों से आई संकर प्रजातियों के बीजों की खेती रासायनिक खाद, कीटनाशक, सिंचाई एवं मशीनों के भारी उपयोग के साथ होने लगी। इसे हरित क्रांति का नाम दिया गया। गेहूं-चावल जैसी कुछ फसलों की पैदावार काफी बढ़ी। लेकिन अब उसमें भी ठहराव आ गया है। हरित क्रांति के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। जमीन बंजर हो रही है, कीटों में प्रतिरोध शक्ति विकसित होकर वे दुर्दम्य बन गए हैं, जमीन में पानी काफी नीचे चला गया है। इन कारणों से खेती की लागत भी बढ़ रही है,किसान भारी करजे में डूब रहे हैं और आत्महत्या कर रहे हैं। इन समस्याओं के
समाधान के रुप में जैविक या प्राकृतिक खेती को पेश किया जा रहा है और सरकार भी उनके प्रचार का कार्यक्रम चला रही है। किन्तु सवाल यह उठता है कि चार दशक पहले हमारी खेती तो जैविक खेती ही थी, तब उसे रासायनिक खेती मंे क्यों बदला गया ? बार-बार हम घूमफिर कर शून्य पर क्यों पहुंच जाते हैं ? बल्कि हम शून्य से भी पीछे ऋण में पहुंच जाते हैं, यानी तब तक काफी नुकसान हो चुका होता है।
यह तर्क दिया जा सकता है कि उस समय देश में अनाज की काफी कमी थी और पहली जरुरत किसी भी तरह पैदावार बढ़ाने की थी। किन्तु देश का अनाज उत्पादन बढ़ाने के हमारे अपने तरीके भी तो हो सकते थे। क्या हमने उनकी तलाश की, उनको आजमाया ? बल्कि कृषि वैज्ञानिक डॉ० रिछारिया जैसे प्रसंगों से जाहिर होता है कि न केवल विदेश से आने वाली हानिकारक प्रजातियों के बारे में उनकी चेतावनियों को नजरअंदाज किया गया, बल्कि देशी बीजों से उत्पादन बढ़ाने की हमारे वैज्ञानिकों की कोशिशों को भी दबा दिया गया। ऐसा क्यों हुआ ?
पिछली हरित क्रांति से कोई सबक लेने के बजाय सरकार दूसरी हरित क्रांति की बात कर रही है। वह जीन-इंजीनियरिंग की तकनालाजी से तैयार जीन-मिश्रित बीजों को अनुमति एवं बढ़ावा दे रही है, जो पर्यावरण के लिए बिल्कुल नई चीज हैं और इनके प्रभावों की समुचित पड़ताल भी अभी तक नहीं हो पाई है। भारत मंे करीब एक दशक पहले बीटी-कपास के बीजों की अनुमति दी गई। यह बताया गया कि इस बीज में विषैले बैक्टीरिया का जीन मिला होने से कपास में लगने वाले डोडाकृमि या बाॅलवाॅर्म नामक कीड़े की समस्या खतम हो जाएगी। इसे ‘बॉलगार्ड’ नाम दिया गया। यह बताया गया है कि इससे रासायनिक कीटनाशकों की जरुरत कम हो जाएगी, जिससे पर्यावरण व किसान दोनों का फायदा होगा। लेकिन ताजा खबर है कि गुजरात से लेकर चीन तक कई जगहों पर इस कीड़े मंे बीटी के विष की प्रतिरोधक शक्ति विकसित होने लगी है और बीटी कपास मंे भी इसका प्रकोप हो रहा है। यानी फिर वही कहानी दोहराई जा रही है। प्रकृति पर विजय पाने और उसे चाहे जैसा रोंदने का के घमंड मंे चूर मनुष्य को अंततः पटखनी मिल रही है। प्रकृति अपना बदला भी ले रही है।
चैथा उदाहरण लें। कुछ साल पहले जैवर्-इंधन और जैव डीजल के अविष्कार को चमत्कारिक बताते हुए माना गया था कि इससे ऊर्जा संकट और प्रदूषण दोनों का हल निकल जाएगा। वर्ष 1987 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी एक रपट में टिकाऊ विकास के लिए जैव-ईंधन के इस्तेमाल की सिफारिश की थी। फिर रियो-डी-जेनेरो में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित सम्मेलन में भी जलवायु परिवर्तन व धरती को गर्माने से रोकने के एक प्रमुख औजार के रुप में इसकी भूमिका को स्वीकार किया गया था। पिछले कुछ सालों में जैव-ईंधन को बहुत बढ़ावा मिला।
किन्तु पिछले तीन वर्षों में दुनिया के स्तर पर जबरदस्त खाद्य संकट पैदा हुआ और खाद्य कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई। इसकी पड़ताल हुई, तो एक खलनायक जैव ईंधन निकला। दरअसल भूमि और कृषि उपज दोनों का एक हिस्सा जैव ईंधन में जाने लगा है। संयुक्त राज्य अमरीका में पैदा होने वाली एक तिहाई मक्का से जैव ईंधन बन रहा है। यूरोपीय संघ ने 2010 तक अपने यातायात-ईंधन की 5.75 प्रतिशत आपूर्ति जैव ईंधन से हासिल करने का फैसला किया है जिसके लिए 1.7 करोड़ हैक्टेयर भूमि की विशाल जरुरत है। चूंकि यूरोप में इतनी जमीन नहीं है, इसलिए बाहर के देशों में यह खेती करवाई जा रही है। ब्राजील, मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, जैसे देश बड़ी मात्रा में जैव ईंधन के निर्यात में लग गये हैं। वहां इस हेतु सोयाबीन, गन्ना, पाम आदि की खेती के विस्तार के लिए जंगलों को साफ करने की गति भी बढ़ गई है। भारत में भी हजारों हैक्टेयर भूमि रतनजोत लगाने के लिए कंपनियों को दी जा रही है।
इस तरह, अमीरों की कारों में ईंधन डालने के लिए दुनिया के गरीबों के मुंह का कौर छीना जा रहा है और जंगल भी नष्ट किए जा रहे हैं। ऊर्जा व प्रदूषण के संकट को हल करने के नाम पर एक नया गंभीर संकट पैदा कर दिया गया है।
बात ऊर्जा व प्रदूषण की चली है तो एक और मिसाल सामने आती है। पिछले कुछ समय से अणु-बिजली को ‘स्वच्छ ऊर्जा’ के रुप में प्रचारित किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इससे न तो कोयला बिजलीघरों की तरह धुंआ व राख निकलेगी और न बड़े बांधों की तरह जंगल व गांवों को डुबाना होगा। इससे ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। किन्तु यह बात छुपा ली जाती है कि अणुबिजली कारखानों से जो जबरदस्त रेडियोधर्मी प्रदूषण होता है और जो हजारों साल तक जहरीला विकिरण छोड़ता रहता है, उसका कोई उपाय नहीं है। एक अणुबिजली कारखाने की हर चीज धीरे-धीरे इतनी जहरीली हो जाती है कि 25-30 साल बाद कारखाने को बंद करना पड़ता है। इस जहरीले कचरे को सुरक्षित रुप से ठिकाने लगाने का कोई उपाय वैज्ञानिक अभी तक खोज नहीं पाए हैं। दिल्ली में मायापुरी के कबाड़ बाजार में हुई दुर्घटना में प्रयोगशाला की एक छोटी सी कोबाल्ट मशीन ही थी किन्तु दुनिया में अणुबिजली कारखानों का ऐसा लाखों टन का कबाड़ तैयार हो गया है जिसे कहां डाला-फेंका जाए, इस समस्या का कोई हल नहीं है। गहरे समुद्र में या भूमि के अंदर गहरा गड्ढा करके, मोटे इस्पात बक्सों में बंद करके भी उनको गाड़ा जाए, तो भी कुछ सौ सालों में इस्पात सड़ जाएगा और समुद्र का पानी या भूजल प्रदूषित होकर अंततः मनुष्य की खाद्य श्रृंखला में जहर पहुंच जाएगा। यहां भी हम स्वच्छ ऊर्जा के नाम पर ऐसा भस्मासुर तैयार कर रहे हैं, जो पूरी मानवता को और भावी पीढ़ियों को आतंकित-प्रभावित कर सकता है। इसीलिए इसका काफी विरोध हो रहा है और कई देशों मंे नए अणु बिजली कारखाने डालने पर रोक लग गई है। किन्तु भारत सरकार उल्टे इसके विस्तार का बड़ा कार्यक्रम चला रही है।
इन सारे उदाहरणों व अनुभवों से एक ही निष्कर्ष निकलता है हम एक समस्या के समाधान के चक्कर में नई समस्या पैदा कर रहे हैं। एक संकट का हल खोजने में नए गंभीर संकटों को दावत दे रहे हैं। दरअसल हम रोग की गलत पहचान और गलत निदान कर रहे हैं। इसलिए ज्यों-ज्यों दवा कर रहे हैं, त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता जा रहा है। बल्कि नए मर्ज पैदा हो रहे हैं। अक्सर दवा ही मर्ज बन जाती है।
ये सारे समाधान तकनालाजी पर आधारित हैं। वे इस विश्वास पर आधारित हैं कि मानव समाज की गंभीर समस्याओं का हल किसी नई तकनालाजी से, किसी नए अविष्कार से हो सकता है। यह विश्वास बार-बार गलत साबित हो रहा है। इसका कारण यह है कि तकनालाजी का चुनाव एवं विकास बहुजनहिताय न होकर थोड़े से लोगों के निहित स्वार्थ से प्रेरित होता है। ये स्वार्थ अक्सर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और मुट्ठी भर अमीरों के होते हैं। प्लास्टिक-पॉलीथिन के प्रचलन और उससे संभव हुई पैकेजिंग क्रांति से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ग्रामीण बाजारों में एवं निर्धन परिवारों मेंभी छोटे पाऊच के रुप मंे अपनी बिक्री बढ़ाने का मौका मिला। हरित क्रांति में रासायनिक खाद, कीटनाशक व कृषि-मशीनें बेचने वाली कंपनियों का स्वार्थ छिपा था। जीन-मिश्रित बीजों के प्रचलन के पीछे अमरीकी कंपनी मोनसंेटो के विशाल मुनाफे हैं। जैव ईंधन के बोलबाले के पीछे वाहन उद्योग के स्वार्थ तो हैं ही, अमीरों की अपने उपभोग में कटौती करने की अनिच्छा भी है। अणुऊर्जा के विस्तार के पीछे अमरीका-यूरोप की कंपनियों के स्वार्थ हैं, जिनको अपने देशों में ऑर्डर मिलना बंद हो गए हैं। इसलिए तकनालाजी के बारे में यह भ्रम दूर होना चाहिए कि वह वस्तुनिष्ठ, मूल्य निरपेक्ष या स्वार्थ-निरपेक्ष होती है और उसकी उपयोगिता सार्वभौमिक है। उसका विकास शून्य में नहीं होता, बल्कि वह खास सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-भौगोलिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज होती है। इसलिए किसी भी तकनालाजी के अंधानुकरण के बजाय अपने लक्ष्यों, मूल्यों, हितों व अपनी परिस्थितियों के मुताबिक उसकी जांच-पड़ताल होनी चाहिए।
फिर, दुनिया में जो संकट पैदा हो रहे हैं, वह चाहे पर्यावरण का संकट हो, भोजन का संकट हो या मंदी का आर्थिक संकट हो, उनकी जड़ में आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता है। यह सभ्यता मुनाफे, लूट, शोषण, गैरबराबरी, साम्राज्यवाद, लालच और भोगवाद पर टिकी है। अपने अस्तित्व के लिए इसने अनंत आवश्यकताओं और अंतहीन उपभोग की ललक पैदा की है,जो इसकी खुराक है। प्रकृति के प्रति हिकारत, शत्रुभाव और उसे दास बनाने का एक झूठा अहंकार इस सभ्यता की एक खासियत है। इन संकटों का स्थायी हल चाहिए तो आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता का ही विकल्प खोजना होगा। सभ्यता के शीर्ष पर बैठे लोग इन सच्चाईयों, विसंगतियों और इसकी विडंबनाओं को देखना व स्वीकार करना नहीं चाहते हैं, क्योंकि इससे उनकी स्वयं की बुनियाद खिसक जाएगी और सत्ता दरक जाएगी। इसलिए वे नए-नए सतही, आंशिक व भ्रामक समाधान खोजते रहते हैं और नई तकनालाजी से संकटो का हल होने का भ्रम पैदा करते हैं। भारत सरकार भी इस भ्रमजाल का हिस्सा बनी रहती है, यह तो समझ मंे आता है। किन्तु भारत के आम पढ़े-लिखे लोग भी इस प्रचार व अंधानुकरण प्रवृत्ति के शिकार हो जाते हैं, यह एक शोचनीय स्थिति है। शायद हमारी दो सदियों की गुलामी की विरासत इसके लिए जिम्मेदार है कि हम स्वतंत्र रुप से सोच नहीं पाते, जांचते नहीं है और फैसले नहीं ले पाते हैं।
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लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।
– सुनील
ग्राम – केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.)
पिन कोड: 461 111
मोबाईल 09425040452
Posted in bio-terror, environment, industralisation, poem, rajendra rajan, samajwadi janparishad, tagged कवितायेँ, गैस काण्ड, भोपाल, राजेन्द्र राजन, bhopal, gas, poems, rajan, rajendra, tragedy on दिसम्बर 1, 2009| 11 Comments »
भोपाल गैस काण्ड के २५ वर्ष पूरे होने जा रहे हैं | दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी से जुड़े सवाल ज्यों के त्यों खड़े हैं | हाल ही में इस बाबत मनमोहन सिंह से जब प्रश्न किए गए तो उन्होंने इन सवालों को भूल जाने की हिदायत दी | राजेन्द्र राजन की ये कविताएं भी पिछले २५ वर्षों से आस्तीन के इन साँपों को बेनकाब करने की कोशिश में हैं |
१
मुनाफ़ा उनका है
श्मशान अपना है
जहर उनका है
जहरीला आसमान अपना है
अन्धे यमदूत उनके हैं
यमदूतों को नेत्रदान अपना है
हमारी आँखों में जिस विकास का अँधेरा है
उनकी आँखों में उसी विकास का सपना है
२
जितना जहर है मिथाइल आइसो साइनेट में
हाइड्रोजन साइनाइड में
फास्जीन में
उससे ज्यादा जहर है
सरकार की आस्तीन में
जिसमें हजार- हजार देशी
हजार – हजार विदेशी सांप पलते हैं ।
३
यह कैसा विकास है जहरीला आकाश है
सांप की फुफकार सी चल रही बतास है
आदमी की बात क्या पेड़ तक उदास है
आह सुन , कराह सुन , राह उनकी छोड़ तू
विकास की मत भीख ले
भोपाल से तू सीख ले
भोपाल एक सवाल है
सवाल का जवाब दो .
४
आलाकमान का ऐलान है
कि हमें पूरे देश को नए सिरे से बनाना है
और इसके लिए हमने जो योजनायें
विदेशों से मँगवाकर मैदानों में लागू की हैं
उन्हें हमें पहाड़ों पर भी लागू करना है
क्योंकि हमें मैदानों की तरह
पहाड़ों को भी ऊँचा उठाना है
५
अब मुल्क की हर दीवार पर लिखो
कोई बाजार नहीं है हमारा देश
कोई कारागार नहीं है हमारा देश
हमारे जवान दिलों की पुकार है हमारा देश
मुक्ति का ऊँचा गान है हमारा देश
जो गूँजता है जमीन से आसमान तक
सारे बन्धन तोड़ .
– राजेन्द्र राजन
Posted in bio-terror, globalisation , privatisation, tagged civilisation, industrial farming, mexico, swine flu on मई 9, 2009| 8 Comments »
पिछले हिस्से से आगे
ए. काकबर्न नामक विद्वान ने दुनिया के मांस-इतिहास पर एक पेपर लिखा है, जिसमें संयुक्त राज्य अमरीका के एक प्रमुख सूअर-मांस उत्पादक राज्य उत्तरी केरोलीना के बारे में बताया है-
“बदबूदार खाडियों के चारों और सूअरों के अंधेरे गोदाम बने हुए है, जिनमें उन्हें धातु के कटघरों में रखा जाता है जो उनके शरीर के ही आकार के होते हैं। उनकी पूंछें काट दी जाती है। उन्हे मक्का, सोयाबीन और रसायनो का आहार ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता है, ताकि वे छ: महीनो में 240 पॉन्ड (लगभग एक क्विंटल) के हो जाएं । तब उन्हें बूचड़खानों में कत्ल करने के लिए जहाजों से भेज दिया जाता है।”
मेक्सिको में मेक्सिको नगर के पास ला गोरिया नामक जिस कस्बे से मार्च महीने में सुअर-ज्वर का यह प्रकोप शुरु हुआ है, वहां स्मिथफील्ड फूड्स नामक कंपनी का काफी बड़ा सुअर फार्म है। यह सुअर मांस का व्यापार करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है। ला गोरिया में यह लगभग दस लाख सुअरों को प्रतिवर्ष बड़ा करती है। दुनिया के स्तर पर इसने 2006 में 2.6 करोड़ सुअरों का मांस बेचा था, इसकी कुल बिक्री 1140 करोड़ डॉलर की हुई और इसे 42.1 करोड़ डालर का मुनाफा हुआ। संयुक्त राज्य अमेरिका के सुअर मांस व्यापार का एक-चौथाई इसके नियंत्रण में है। इसके ऊपर पर्यावरण को दूषित करने के 5000 से ज्यादा प्रकरण वहां दर्ज हुए हैं।एक दशक पहले सं०रा० अमरीका सरकार की पर्यावरण संरक्षण एजेन्सी ने इस पर वर्जीनिया प्रांत की एक नदी को प्रदूषित करने के लिए 1260 लाख डॉलर का जुर्माना लगाया था, जो अमरीका का अभी तक का सबसे बड़ा पर्यावरण जुर्माना है।
सं०रा०अमरीका के रोग नियंत्रण केन्द्र की जांच के ताजा नतीजों से पता चला है कि इस सुअर-ज्वर का वायरस 90 के दशक के अंत में उत्तरी केरोलीना प्रांत की औद्योगिक सुअर इकाईयों में पाई गई वायरस प्रजाति से निकला है। यह अमरीका का सबसे बड़ा और सबसे घना सुअर-पालन वाला प्रांत है। फेलिसिटी लारेन्स नामक विद्वान ने सुअर-ज्वर से पैदा हुये इस वैश्विक संकट की तुलना दुनिया के मौजूदा वित्तीय संकट से की है। वित्तीय क्षेत्र की तरह ही इसमें भी कुछ बड़ी कंपनियों का वर्चस्व है, जिन्होंने अपने मुनाफों के लिए पूरी दुनिया को संकट में डाल दिया है। आधुनिक वित्तीय क्षेत्र की तरह आधुनिक खाद्य व्यवस्था भी काफी अस्थिर है। दोनों में बुलबुले की तरह काफी तेजी से विस्तार हुआ है।दोनों में अमरीका-यूरोप के अमीर उपभोक्ता आसानी से मिलने वाली भोग-सुविधाओं के नशे में डूबे रहे। उन्होंने यह जानने की जरुरत नहीं समझी कि आखिर यह उपभोग किस कीमत पर आ रहा है तथा कितने दिन चलेगा ? फेलेसिटी लारेन्स ने मानव जाति की इस नई बीमारी को आज के औद्योगिक पशुपालन का विषैला कर्ज निरुपित किया है।
सूअर-ज्वर, पक्षी-ज्वर या पागल गाय रोग दरअसल एक बड़ी गहरी बीमारी के ऊपरी लक्षण हैं। वह बीमारी है भोग, लालच व गैरबराबरी पर आधारित पूंजीवादी सभ्यता की, जिसमे शीर्ष पर बैठे थोड़े से लोगों ने अपने मुनाफों एवं विलास के लिए बाकी सब लोगों, बाकी प्राणियों तथा प्रकृति पर अत्याचार करने को अपना जन्म-सिद्ध अधिकार मान लिया है।
आप यह भी कह सकते है कि ये नयी महामारियां उन निरीह प्राणियों या प्रकृति के प्रतिशोध का एक तरीका है। आखिर हर आतंकवाद लंबे, गहरे एवं व्यापक अन्याय व अत्याचार की प्रतिक्रिया में ही पैदा होता है। यह इस नए आतंकवाद के बारे मे भी सही है।
Posted in bio-terror, globalisation, tagged civilisation, industrial farming, swine flu on मई 9, 2009| 8 Comments »
दुनिया में अचानक एक नया आतंकवाद पैदा हो गया है। स्वाईन फ्लू या सुअर-ज्वर नामक एक नयी संक्रामक बीमारी से पूरा विश्व बुरी तरह आतंकित दिखाई दे रहा है। कई देशो में हाई-अलर्ट कर दिया गया है। हवाई अड्डो पर विशेष जांच की जा रही है। यह बीमारी मेक्सिको से शुरू हुई, जहां 200 के लगभग मौते हो चुकी है। वहां के रा’ट्रपति ने पूरे देश में 5 दिन के लिये आर्थिक बंद घोषित कर दिया है और लोगों को घर में रहने की सलाह दी है। स्कूल-कॉलेज, सिनेमाघर, नाईट क्लब बद कर दिए गए है और फुटबाल मैच रद्द कर दिए गए है। बगल में संयुक्त राज्य अमरीका में भी दहशत छाई है और ओबामा ने स्थिति से निपटने के लिए संसद से 150 करोड़ डालर मांगे है। स.रा. अमरीका के अलावा कनाडा, स्पेन, बि्रटेन, जर्मनी, न्यूजीलेण्ड, इजरायल, आिस्ट्रया, स्विटजरलैण्उ, नीदरलैण्ड आदि में भी इसका संक्रमण फैल चुका है। बाकी दुनिया में भी खलबली मची है। मिस्त्र ने तो सावधानी बतौर 3 लाख सूअरो को मारने के आदेश जारी कर दिए है। भारत के सारे हवाई-अड्डो पर बाहर से आने वाले यात्रियों की सघन जांच की जा रही है और उन पर निगरानी रखी जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि सुअर-ज्वर एक महामारी बन सकता है।
पहले यह बीमारी सिर्फ सूअरो में होती थी, अब इंसानो मे फैल रही है। सूअरों, पक्षियों व इंसानों को होने वाले फ्लू के रोगाणुओ को मिलकर एच 1 एन 1 नामक नया वायरस बन गया है, जिसकी प्रतिरोधक शक्ति इंसानो के शरीर मे नहीं है। इसलिए मौते हो रही है और घबराहट छाई है। मेक्सिको में इसके शुरूआती मामले सामने आने के तीन-चार हफ्तो में ही इंसानो की बडी संख्या में मौते होने लगी है। इसका कोई टीका भी नहीं है और टेमीफ्लू नाम की एक ही दवाई है।
पिछले कुछ दशको में पालतू पशुओं के जरिये इंसानो में बीमारी फैलने का यह चौथा-पांचवा मामला है। इसके पहले एन्थ्रेक्स, सार्स, बर्ड फ्लू, मेड काऊ डिजीज आदि से अफरा-तफरी मची थी। इंसान इन बीमारियो से इतना आतंकित है कि इनकी जरा- भी आशंका होने पर हजारों-लाखो मुर्गियों, गायो, सूअरों को मार दिया जाता है। बर्ड फ्लू या पक्षी-ज्वर के डर से भारत मे असम, बंगाल, महाराष्ट्र आदि में पिछले कुछ वर्षों में लाखे मुर्गियो को मौत के घाट उतारा गया है। मेड काऊ डिजीज या पागल गाय रोग के चक्कर में बि्रटेन व अन्य देशों में लाखो गायों-बछडो का कत्ल किया गया है। आखिर ऐसी हालाते पैदा कैसे हुई ?
दरअसल इनका सीधा संबंध आधुनिक ढंग के औद्योगिक पशुपालन से है, जिसमें बड़े-बड़े फार्मों में छोटे व संकरे दडबों या पिंजरों में हजारों-लाखों पशु-पक्षियों को एक जगह बडा किया जाता है। उनके घूमने-फिरने की कोई जगह नहीं होती है। अक्सर काफी गंदगी होती है। काफी रासायनयुक्त आहार ठूंस-ठूंस कर खिलाकर दवाईयां एवं हारमोन देकर, कम से कम समय मे उनका ज्यादा से ज्यादा बढाने की कोशिश होती है। इन्हे फार्म के बजाय फेक्टरी कहना ज्यादा उचित होगा, क्योंकि जमीन, खेती या कुदरत से इनका रिश्ता बहुत कम रह जाता है।
पालतू मुर्गियो व बतखों में बर्ड फ्लू की बीमारी काफी समय से चली आ रही हें किंतु नई हालातों में इसका रोगाणु एच 5 एन 1 नामक नए घातक रूप में बदल गया हे, जो प्रजाति की बाधा लांघकर इंसानो को प्रभावित करने में सक्षम हैं । विश्व खाद्य संगठन ने इसकी उत्पत्ति को चीन और दक्षिण पूर्वएशिया में मुर्गी पालन के तेजी से विस्तार, संकेन्द्रण और औद्योगीकरण से जोडा है। पिछले पन्द्रह वर्षों मे चीन में मुर्गी उत्पादन दुगना हो गया है। थाईलेण्ड, वियतनाम और इण्डोनेशिया मे मुर्गी उत्पादन अस्सी के दशक की तुलना मे तीन गुना हो गया है। वैज्ञानिक और चिकित्सक यह मानकर चल रहे है कि बर्ड फ्लू का नये रूप वाला यह रोगाणु आगे चलकर इंसान से इंसान को संक्रमित होने लगेगा। तब यह एक महामारी का रूप धारण कर सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि यह कभी भी हो सकता है और इससे निपटने की व्यापक एवं भारी तैयारी करना चाहिए।
मेड काऊ डिजीज का हिस्सा तो और भयानक है तथा आधुनिक मनुष्य के लालच की इन्तहा को बताता है। बी एस ई नामक गायों की इस बीमारी में मस्तिष्क को काफी क्षति पहुचती है, इसलिये इसे पागल गाय रोग कहा गया है । यह इसलिए फैल रहा है क्योकि शाकाहारी प्रजाति की गायो को उन्हीं की हडि्डयों, खून और अन्य अवयवों का बना हुआ आहार खिलाया जा रहा है। दरअसल पश्चिमी देशों के आधुनिक बूचड़खानों में गायों आदि को काटने के बाद मांस को तो पैक करके बेच दिया जाता है, किन्तु बडे पैमाने पर हडि्डयां, अंतड़ियां, खून आदि का कचरा निकलता है, जिसको ठिकाने लगाना एक समस्या होता है। इस समस्या से निपटने का एक तरीका यह निकाला गया कि इस कचरे को चूरा करके काफी ऊंचे तापमान पर इसका प्रसंस्करण किया जाता है। इसमें पौश्टिक तत्व भी होते है, अतएव इसे पुन: गायों के आहार में मिला दिया जाता है। मनुष्य की लाश को मनुष्य खाए, इसे अनैतिक, अकल्पनीय और अस्वीकार्य माना जाता है। लेकिन मुनाफों के लालच में मनुष्य द्वारा यह ’स्वजातिभक्षण’ गायों पर जबरदस्ती थोपा जा रहा है। ’पागल गाय रोग’ के व्यापक प्रकोप के बाद ब्रिटेन ने इस पर पाबंदी लगाई है। किन्तु उत्तरी अमरीका में और कुछ अन्य स्थानो पर यह प्रथा अभी भी चालू है।
इस तरह के रोग से ग्रसित गाय का मांस खाने वाले इंसानों को भी यह रोग हो सकता है। इसी तरह भोजन से फैलने वाले कुछ अन्य संक्रामक रोगो का भी संबंध आधुनिक फेक्टरीनुमा पशुपालन से जोड़ा जा रहा है।
मांसाहार शुरू से मनुष्य के भोजन का हिस्सा रहा है और भोजन के लिए पशुपालन कई हजार सालों से चला आ रहा है। किंतु आधुनिक औद्योगिक पशुपालन एक बिल्कुल ही अलग चीज है, जो काफी अप्राकृतिक, बरबादीयुक्त, प्रदूषणकारी और पूंजी प्रधान है तथा जिसने लालच व क्रूरता की सारी मर्यादाएं तोड दी है। अब इसमें खुले चरागाहों या खेतों मे पशुओं को नहीं चराया जाता और वे कुदरती भोजन भी नहीं करते है। ये परिवर्तन खास तौर पर पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए है। इस अवधि में दुनिया मे मांस का उत्पादन और अंतररा’ट्रीय व्यापार भी तेजी से बढा है। फेक्टरीनुमा पशुपालन सबसे पहले मुर्गियों का शुरू हुआ, उसके बाद सूअरों का नंबर आया। मिडकिफ नामक एक अमरीकी लेखक ने कंपनियांे के आधुनिक मांस कारखानों पर एक किताब लिखी है जिसमें इसे ’पीडा और गंदगी का निरंतर फैलता हुआ दायरा’’ कहा है। एम.जे. वाट्स ने इनकी तुलना ’उच्च तकनीकी यातना कक्षो’ से की है। वैश्विक खाद्य अर्थव्यवस्था पर अपनी ताजी पुस्तक मे टोनी वैस ने सूअरो के फेक्टरी फार्मों का वर्णन इस प्रकार किया है-
“इन फेक्टरी फार्मों मे जनने वाली मादा सूअर अपना पूरा जीवन धातु या कंकरीट के फर्श पर बने छोट-छोटे खांचों में गर्भ धारण करते हुए या शिशु सूअरों को पोसते हुए बिता देती है। ये खांचे 2 वर्ग मीटर से भी कम होते है, जिनमें वे मुड़ भी नहीं सकती हैं। सूअर शिशुओं को तीन-चार सप्ताह में मां से अलग कर मादा सूअरों को फिर से गर्भ धारण कराया जाता है तथा शिशुओं को अलग कोठरियो में रखकर अभूतपूर्व गति से मोटा किया जाता है। उन्हें एन्टी-बायोटिक दवाईयों और हारमोनों से युक्त जीन-परिवर्तित गरिष्ठ आहार दिया जाता है, जिससे जल्दी से जल्दी उनका वजन बढ़ता जाए। इस कैद के नतीजन होने वाले रोगों एवं अस्वभविक व्यवहारों को नियंत्रति करने के लिए काफी दवाईयां दी जाती है। उनकी पूंछें काट दी जाती है और इससे होने वाले गंदगी व दूषित कचरे को नदियों या समुद्री खाडियों में बहा दिया जाता है।”
( अगली किश्त में समाप्य )
(लेखक समाजवादी जन परषिद का राष्ट्रीय अध्यक्ष है)
सुनील, ग्राम@पोस्ट – केसला, वाया इटारसी, जिला- होशंगाबाद (म.प्र.) 46 ।।।
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