‘’ शिक्षा का बाजार एक विकृति है । किसी भी आधुनिक समाज में शिक्षा के बाजार का मतलब क्या है ? हमारे शिक्षण संस्थानों को पहले हम शिक्षा का मंदिर कहते थे । अब वे शिक्षा की दुकानें बन गई हैं । वहां मुनाफाखोरी चल रही है , घोटाले हो रहे हैं । इसमें यही होगा। भोपाल में व्यापमं (व्यावसायिक परीक्षा मंडल , मध्य प्रदेश ) घोटाला हुआ। मेडिकल की सीटों के लिए आज दस से बीस लाख रुपए लिए जा रहे हैं , चारों तरफ यह हो रहा है । होशंगाबाद में ५ – ६ बी.एड. कॉलेज खुल गए हैं और वहां चालीस हजार फीस है और एक लाख दे दीजिए तो बिना एटैण्डेंस (उपस्थिति) आपको सब मिल जाएगा और आप पास भी हो जाएंगे । यह शिक्षा के बाजार का परिणाम है । बाजार में उसी के लिए जगह है जिसके पास पैसा है । बाज़ार जो टुकड़े व जूठन फेंकेगा , आप उसे उठा सकते हैं ।‘’
‘’ बाजारीकरण क्यों बढ़ रहा है ? निजीकरण की मांग जनता की ओर से नहीं आई । यह विश्व बैंक द्वारा भारत की शिक्षा नीति और व्यवस्था को प्रभावित करके शिक्षा का बाजारीकरण किया गया है । इसमें नेताओं के अपने स्वार्थ हैं । वे सब शिक्षा के इस धंधे में कूद पड़े हैं । जितने भी स्कूल – कॉलेज – मेडिकल ,इंजीनियरिंग , बी.एड हैं – सब नेताओं ने खोल लिए हैं। यह आज उनका निहित स्वार्थ बन गया है। सभी सरकारें शिक्षा के निजीकरण को अंधाधुंध तरीके से बढ़ावा दे रही हैं। इस देश में शिक्षा का धंधा सबसे ज्यादा मुनाफेवाला , सबसे ज्यादा अनियंत्रित और सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ने वाला धंधा बन गया है। बड़े – बड़े नेताओं से लेकर छुटभैया नेताओं तक सब इसमें टूट पड़े हैं । इसमें अनाप – शनाप लूट और शोषण है और देश का नुकसान है ।‘’
‘’……… निजी स्कूल का मतलब ही भेदभाव है । जिसके पास पैसा है , उसका बच्चा ऊंचे स्कूल में पढ़ेगा । जिसके पास और पैसा है , उसका बच्चा विदेश में पढ़ने जाएगा । जिसके पास पैसा नहीं है और जो सबसे ज्यादा उपेक्षित , गरीब व मजदूर का बच्चा है , वह सरकारी स्कूल में जाएगा। शिक्षा में भेदभाव, स्वास्थ्य में भेदभाव। बच्चे तो भगवान की देन हैं फिर आप उन बच्चों में भेदभाव क्यों कर रहे हैं ? आपकी समान अवसर की बात सिर्फ एक ढकोसला है । शिक्षा में भेदभाव नहीं होना चाहिए।…‘’
( लोकसभा चुनाव , २०१४ के दौरान राजनीतिक दलों के साथ शिक्षा नीति पर ०७ अप्रैल २०१४ को भोपाल में आयोजित संवाद में सुनील ,राष्ट्रीय महामंत्री ,समाजवादी जनपरिषद के विडियो रेकार्डिंग से लिप्यांतरित ।)
– ‘भारत शिक्षित कैसे बने?’,ले. सुनील,प्रकाशक – किशोर भारती ,अप्रैल २०१४, पृ. ४६ – ४७ से उद्धरित ।
Archive for the ‘common school system’ Category
शिक्षा की दुकानदारी : सुनील
Posted in common school system, tagged व्यवसायीकरण, शिक्षा का बाजारी करण, सुनील, common school system on नवम्बर 15, 2014| 1 Comment »
लाड़ले और सौतेले बच्चे (मॉडल स्कूल या शिक्षा का दोषपूर्ण मॉडल) – सुनील –
Posted in common school system, education bill, tagged नवोदय, मॉडल स्कूल, elitism, model school, navodaya on अप्रैल 28, 2010| 2 Comments »
खबर है कि भारत सरकार ने देश में नए 1000 मॉडल स्कूल खोलने का फैसला किया है। शैक्षिक रुप से पिछडे़ इलाकों में एक प्रखण्ड में एक मॉडल स्कूल खोला जाएगा। इसके पहले नवंबर 2008 में 2500 मॉडल स्कूलों की स्वीकृति दी गई थी। कुल मिलाकर देश में 6000 मॉडल स्कूल खोलने की योजना है, जिसे 11वीं पंचवर्षीय योजना में शामिल किया गया है। इसके बाद देश के हर प्रखण्ड में एक माॅडल स्कूल हो जाएगा। इन मॉडल स्कूलों पर सरकार काफी खर्च कर रही है। पिछले तीन सालों से केन्द्र सरकार के हर बजट में इनके लिए अलग राशि का प्रावधान किया जा रहा है। एक मॉडल स्कूल की स्थापना पर करीब साढ़े तीन से लेकर चार करोड़ रुपया खर्च किया जा रहा है। संचालन का व्यय अलग होगा। इस खर्च में केन्द्र सरकार का योगदान 75 प्रतिशत और राज्य सरकार का 25 प्रतिशत होगा, किन्तु कुछ खास राज्यों में केन्द्र सरकार 90 प्रतिशत खर्च उठाएगी। सरकार का कहना है कि इन मॉडल स्कूलों का मानदण्ड और स्तर केन्द्रीय विद्यालयों से कम नहीं होगा। पहली नजर में सरकार का यह कदम सराहनीय लगता है। आखिरकार सरकार को ग्रामीण और पिछड़े इलाकों की सुध आई। सरकार विज्ञप्ति में कहा गया है कि इस योजना से ग्रामीण प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को उम्दा शिक्षा के अवसर मिलेंगें। इनकी देखादेखी एवं प्रतिस्पर्धा में और भी अच्छे स्कूल वहां पर खुलेंगे, ऐसी उम्मीद सरकार को है। मॉडल स्कूल की यह अवधारणा नई नहीं है। इसके पहले राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में जवाहर नवोदय विद्यालय शुरु किए गए थे। देश के हर जिले में एक नवोदय विद्यालय खोला गया, जिनमें 75 प्रतिशत बच्चे गांवों से लिए जाते हैं। नवोदय विद्यालय के सारे विद्यार्थी छात्रावासों में ही रहते हैं, और उनका पूरा खर्च सरकार उठाती है। आवास, भोजन, पोशाक, कॉपी-किताबें, साबुन-तेल-मंजन सब कुछ सरकार की ओर से मुफ्त मिलता है। नवोदय विद्यालय का काफी बड़ा परिसर रहता है, और उसमें बढ़िया शाला भवन के साथ शिक्षक आवास, छात्रावास, भोजनालय, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, खेल मैदान, बाग-बगीचा सब कुछ रहता है। कह सकते हैं कि मॉडल स्कूल एक तरह से नवोदय विद्यालय का प्रखण्ड स्तरीय संस्करण होगा। पहले योजना थी कि नवोदय विद्यालय की तरह मॉडल स्कूल भी कक्षा 6से 12 तक होंगे। किन्तु अब केन्द्र सरकार ने इसे घटाते हुए राज्य सरकारों को विकल्प दिया है कि वे इसे चाहें तो कक्षा 6 से 10 तक या चाहें तो कक्षा 9 से 12 तक रख सकती है। शिक्षा के माध्यम और बोर्ड से संबद्धता का फैसला भी राज्य सरकारें करेगी। यानी सरकार विशिष्ट स्कूलों की संख्या बढ़ाते हुए भी उनका दायरा घटा रही है। जहां केन्द्रीय विद्यालय कक्षा 1 से 12 तक रहते हैं, नवोदय विद्यालय कक्षा 6 से 12 तक हैं, वहीं इन मॉडल स्कूलों की विशिष्ट पढ़ाई का लाभ बच्चों को महज चार या पांच कक्षाओं तक ही मिल सकेगा। इसका मतलब साफ है यदि पालकों को मॉडल स्कूल के पहले या बाद की कक्षाओं में अपने बच्चों को ‘उम्दा’ शिक्षा देना है, तो निजी स्कूलों की शरण में ही जाना पड़ेगा। यों भी मॉडल स्कूल शिक्षा के निजीकरण की दिशा मे एक और कदम है। यदि 5 फरवरी 2008 को भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा राज्य सरकारों को इस योजना के बारे में भेजे परिपत्र पर गौर करें, तो समझ में आता है कि छः हजार में से ढाई हजार (यानी बाकी) मॉडल स्कूल ‘निजी-सरकारी भागीदारी’ के तहत खोलें जाएंगे। इन स्कूलों को निजी फर्में खोलेंगी और चलाएगी। राज्य सरकारें जमीन दे सकती हैं। स्कूल की निर्माण लागत को केन्द्र व राज्य सरकारें दस वर्ष के अंदर चुका देगी, किन्तु फिर भी 30 वर्ष के बाद पूरी संपत्ति निजी स्कूल मालिक की हो जाएगी। दो-तिहाई सीटें राज्य सरकार के निर्देशों के तहत भरी जाएगी, जिनकी फीस वह देगी। बाकी एक तिहाई सीटें निजी संस्था अपने मनमुताबिक तरीके से भर सकेगी, जिसमें कोई आरक्षण नहीं होगा एवं मनमानी फीस होगी। शिक्षक-नियुक्ति और स्कूल संचालन में भी निजी मालिक को पूरी आजादी होगी। जाहिर है कि जनता के खर्च पर निजी क्षेत्र की मुनाफाखोरी को बढ़ावा देने की सरकार की नयी नीति का यह एक और प्रयोग है। नवोदय विद्यालय और मॉडल स्कूल में यह एक और फर्क है। हो सकता है कि सरकार धीरे-धीरे नवोदय विद्यालयों को भी इसी तर्ज पर ‘निजी-सरकारी भागीदारी’ के नाम पर निजी हाथों को सौंप दे। नवोदय विद्यालयों में कुछ वर्षों से गरीबी रेखा से ऊपर के विद्यार्थियों से फीस लेने की शुरुआत हो चुकी है। नवोदय विद्यालय और मॉडल स्कूल की ही तरह केन्द्र सरकार ने कस्तूरबा कन्या विद्यालयों की योजना भी चलाई है, जिसमें लड़कियों के लिए विशिष्ट विद्यालय बनाए गए हैं। इसी तरह कई राज्य सरकारों ने भी चुनकर कुछ स्कूलों और कॉलेजों को ‘उत्कृष्ट विद्यालय’ या ‘उत्कृष्ट महाविद्यालय’ का दर्जा दिया है, जिन्हें ज्यादा सुविधाएं, बजट, स्टाफ एवं ज्यादा ध्यान मिलता है। किन्तु इन्हीं के साथ बाकी विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की उपेक्षा और बदहाली बढ़ती गई है। वहां सुविधाओं की कमी, शिक्षकों की कमी, पढ़ाई के स्तर में गिरावट एवं परीक्षा परिणाम में गिरावट लगातार देखी जा रही है। सवाल यह उठता है कि देश के हर स्कूल को मॉडल स्कूल क्यों न बनाया जाए ? कुछ चुनिंदा बच्चों को ही प्रतिभाशाली क्यों माना जाए और बाकी बच्चों को नालायक घोषित करके न्यूनतम गुणवत्ता की शिक्षा से भी वंचित क्यों किया जाए ? हर बच्चे में किसी न किसी तरह की प्रतिभा छुपी होती हैं। यह हमारी शिक्षा-व्यवस्था की कमी है कि वह उन प्रतिभाओं को पहचान कर खिलने का मौका नहीं दे पाती है। जब हम ‘सर्वशिक्षा अभियान’ चला रहे हैं और बच्चों के शिक्षा के अधिकार का कानून बना रहे हैं, तो फिर बच्चों मे यह भेदभाव क्यों ? मॉडल स्कूल 4 करोड़ में बनेगा और दूसरे स्कूलों पर 20 लाख भी खर्च नहीं होगा। ऐसा क्यों ? दरअसल कुछ को विशिष्ट मानकर विशेष सुविधाएं देने में ही बाकी जनसाधारण की उपेक्षा व दुर्गति के बीज छिपे हैं। विशिष्ट स्कूल बनाकर कुछ तेज बच्चों एवं प्रभावशाली परिवारों के बच्चों की तो अच्छी व्यवस्था हो जाती है, बाकी बच्चों की विशाल संख्या के प्रति सरकार अपनी जिम्मेदारी भूल जाती है। प्रखंड स्तर पर मॉडल स्कूल खुल जाने से वहां के जागरुक अभिभावक अपने बच्चों को उसमें भेजने की उधेड़बुन में लग जाएंगे। सामान्य स्कूलों की हालत सुधारने के लिए जो थोड़ा-बहुत दबाव बन सकता है, और जो आवाज उठ सकती है, वह भी खतम हो जाएगी। इसीलिए कोठारी आयोग और कई अन्य शिक्षाशास्त्री ने ‘समान स्कूल प्रणाली’ की वकालत की है, जिसमें एक जगह रहने वाले अमीर-गरीब सभी तरह के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ें। दुनिया के जिन विकसित देशों ने अपनी पूरी आबादी को शिक्षित करने में सफलता पाई है, वहां कमोबेश किसी न किसी रुप में इसी तरह की व्यवस्था रही है। किन्तु भारत में शिक्षा के बढ़ते निजीकरण और खुद सरकार द्वारा कई श्रेणियों के स्कूल खोलने से हम बिलकुल उल्टी दिशा में जा रहे हैं। शिक्षा में जितना भेदभाव और श्रेणीकरण बढ़ता जाएगा, नीचे की आबादी की शिक्षा का काम उतना ही उपेक्षित होता जाएगा। उसी मात्रा में देश की तरक्की अवरुद्ध होती रहेगी। इसीलिए हाल ही में लागू ‘शिक्षा अधिकार कानून’ एक ढकोसला बन गया है। इसमें देश के सारे स्कूलों के लिए न्यूनतम मानदण्ड तो तय किए हैं, किन्तु उन्हें इतना कम रखा गया है कि साधारण सरकारी स्कूलों में एवं सस्ते निजी स्कूलों में कभी पूरे शिक्षक नहीं होंगे, बाकी सुविधाएं भी पूरी नहीं मिलेगी। दूसरी तरफ शिक्षा में भेदभाव को इसमें वैधानिकता प्रदान कर दी गई है। इस कानून में प्रारंभ में परिभाषाओं के अनुच्छेद में ‘स्कूल’ की परिभाषा में ही इस भेदभाव की बुनियाद रख दी गई है। स्कूल की चार श्रेणियां बताई गई हैं – सरकारी, सहायता प्राप्त निजी, गैरसहायता प्राप्त निजी और विशिष्ट श्रेणी के स्कूल। इस अंतिम श्रेणी में ही केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, कस्तूरबा विद्यालय और मॉडल स्कूल आते हैं। भारत के शासक वर्ग ने तय कर लिया है कि देश के कुछ बच्चे ही विशिष्ट होंगे। उन्हें पूरा ध्यान, लाड़-दुलार व जरुरी सुविधाएं मिलेंगे। बाकी बच्चे पिछले साठ साल की तरह उपेक्षित, वंचित, घटिया, अधकचरी शिक्षा पाने के लिए अभिशप्त रहेंगे। जिस देश के करोड़ो बच्चों के साथ सौतेला बरताव होगा और वे कुंठित, हीनताग्रस्त, तिरस्कृत होते रहेंगे, उसके भविष्य को अंदाज लगाया जा सकता है।
– सुनील
लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।
ग्राम – केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.)
पिन कोड: 461 111
मोबाईल 09425040452
माँग रहा है हिन्दुस्तान ,सबको शिक्षा एक समान
Posted in common school system, corporatisation, education bill, tagged युवजन, विद्यार्थी, शिक्षा बिल, सबको शिक्षा, समान शिक्षा on फ़रवरी 26, 2010| 2 Comments »
अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच की ओर से 24 फरवरी 2010 को दिल्ली में रामलीला मैदान से संसद मार्ग तक कूच किया गया जो संसद मार्ग पर एक विशाल जनसभा में तब्दील हो गया। इस रैली में 16 राज्यों के लगभग 35 शिक्षक व विधार्थी संगठन,शिक्षा अधिकार समूह एवम् विभिन्न बस्तियों के संगठन शामिल हुए। इस संसद मार्च का मकसद यू.पी.ए. सरकार द्वारा राज्य/केन्द्र शासित क्षेत्रों की सरकारों के साथ मिलकर बढ़ाये जा रहे नव-उदारवादी शैक्षिक एजेण्डे का पर्दाफाश करना था। यह एक लम्बे संघर्ष की शुरूआत है जिसके जरिए भारतीय शिक्षा को कॉरपोरेट पूंजी व वैश्विक बाजार के हमले का प्रतिरोध किया जाएगा और देश के सामने शिक्षा व्यवस्था व नीति में व्यवस्थामूलक बदलाव का एक वैकल्पिक, राजनीतिक एजेण्डा पेश किया जाएगा।
अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच जिस तरह यू.पी.ए. सरकार द्वारा शिक्षा के निजीकरण एवम् बाजारीकरण और साथ में बेलगाम मुनाफाखोरी की रफ्तार तेज की जा रही है, उस ओर जनता का ध्यान आकर्षित करेगा। एक और सरकार बाजार की ताकतों को शिक्षा में व्यापार के लिए खुली छूट दे रही है, तो दूसरी और वह सार्वजनिक शैक्षिक संस्थानों एवम् योजनाओं को बढ़ते क्रम में कॉरपोरेट घरानों, धार्मिक संगठनों व एन.जी.ओ. को न केवल सौप रही है बल्कि आउटसोर्स भी कर रही है। अब शिक्षा का यह संकट सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पी.पी.पी.) के जरिये बढ़ाया जा रहा है जिसे भारतीय शिक्षा पर नव-उदारवादी आक्रमण के नवीनतम रूप में पहचाने की जरूरत है। संसद मार्च ने देश को उस गंभीर खतरे की ओर भी आगाह् किया जो यू.पी.ए. सरकार द्वारा विश्व व्यापार संगठन के तहत गैट्स (जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड़ एंड सर्विसेज़) के पटल पर उच्च शिक्षा रखने के चलते मंडरा रहा है। हमारा केन्द्रीय सरकार को कहना है कि वह शिक्षा व्यवस्था में और उसके जरिये सभी बच्चों एवम् युवाओं को समान अवसर देने की अपनी संवैधानिक जवाबदेही पल्ला झाड़ने की नीति को पलटकर वापस संविधान के खाके में लौटे। संविधान का यह नजरिया जो हमें आजादी की लड़ाई की विरासत के रूप में मिला वह तब तक हासिल नही किया जा सकता जबतक सरकार राष्ट्रीय प्राथमिकता बतौर शिक्षा में पर्याप्त सार्वजनिक धनराशि उपलब्ध कराने की अपनी जवाबदेही को फिर से स्वीकार नहीं कर लेती और साथ में शिक्षा में हर तरह के कारोबार पर पूरी पाबंदी नही लगा देती।
इसलिए 24 फरवरी 2010 को संसद मार्च केंद्रीय सरकार को कहा कि वह (राज्य सरकारों समेत),
* 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 की समीक्षा करे ताकि 18 साल की उम्र तक समतामूलक गुणवत्ता की मुफ़्त शिक्षा का मौलिक अधिकार मिल सके जिसमें हर हाल में 6 साल से कम उम्र के बच्चों को संतुलित पोषण, स्वास्थ्य सेवा एवं पूर्व-प्राथमिक शिक्षा का मौलिक अधिकार भी शामिल हो।
* तथाकथित शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 के ढोंग की जगह पूर्व-प्राथमिक स्तर से कक्षा 12 तक सार्वजनिक धन से संचालित ‘पड़ोसी स्कूल पर टिकी हुई समान स्कूल प्रणाली‘ के खाके में बनाया हुआ कानून लाया जाए; निजी स्कूलों समेत सभी स्कूलों में अधोसंरचना (शिक्षक से संबंधित भी), पाठ्यचर्या-संबंधी व शिक्षाशास्त्रीय मानदंड कम-से-कम केंद्रीय विद्यालयों के समकक्ष हों।
* नियमित औपचारिक स्कूलों को वे सभी सुविधाएं दी जाएं जो विकलांग बच्चों को उनमें शामिल करने के लिए जरूरी हैं।
* 1990 के दशक से अबतक स्कूलों में नियुक्त किए गए सभी पैरा-शिक्षकों के वेतनमानों को उन्नत करते हुए नियमित शिक्षकों के कैडर में शामिल किया जाए और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि उनकी सेवापूर्व प्राशिक्षण की सभी जरूरतों (लागत समेत) को पूरा करने की जिम्मेदारी सरकार की हो; किसी भी शिक्षक से किसी भी हाल में शिक्षण के अलावा कोई और काम न लिया जाए।
* मुफ़्त शिक्षा को इस प्रकार पुनर्परिभाषित किया जाए कि उसमें ट्यूशन शुल्क के साथ-साथ अन्य सभी प्रकार के शुल्क व प्रासंगिक खर्च शामिल हों और गरीब, वंचित व विकलांग बच्चों को पढ़ने का अवसर देने की लागत भी चुकाना एवम् अन्य सभी प्रकार की जरूरी सुविधाएं मुहैया करना मुफ़्त शिक्षा का अभिन्न हिस्सा हो।
* सरकार द्वारा सभी फीस लेने वाले निजी स्कूलों, कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों का अधिग्रहण करके उनको सरकारी संस्थाओं के समकक्ष रखते हुए लोकतांत्रिक, विकेंद्रित एवं सहभागी प्रबंधन के तहत चलाया जाए।
* सरकारी कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में चल रहे सभी स्व-वित्तपोषित पाठ्यक्रमों को पूरी तौर पर सार्वजनिक धन से संचालित पाठ्यक्रमों में तब्दील किया जाए।
* सभी प्रकार की सार्वजनिक-निजी ‘साझेदारी‘ (पी.पी.पी.) पर पाबंदी लगाई जाए जिसमें आयकर माफ़ी, मुफ़्त या रियायती दरों पर दी गई जमीनें एवं अन्य सभी सीधी या छिपी रियायतें, वाउचर स्कूल, सरकारी स्कूलों और उनके परिसरों की बिक्री, लीज़ या किराये पर चढ़ाना, सरकारी स्कूलों और स्कीमों की कॉरपोरेट घरानों व एन.जी.ओ. को आउटसोर्सिंग, फीस लेने वाले निजी स्कूलों तक मध्याह्न भोजन स्कीम का विस्तार करना आदि भी शामिल है।
(याद रहे कि मानव संसाधन विकास मत्री कपिल सिब्बल ने हाल ही में कहा है कि पी.पी.पी. के जरिए निजी संस्थानों को मनमानी फीस ऐंठकर मुनाफ़ाखोरी करने की पूरी छूट रहेगी जिसके चलते एकदम जरूरी हो गया है कि पी.पी.पी. पर सम्पूर्ण पाबंदी लगाई जाए।)
* सैम पित्रोदा के ज्ञान आयोग एवं उच्च शिक्षा की यशपाल समिति की रिपोर्टों को खारिज किया जाए चूंकि ये दोनों देश के मौजूदा कॉलेजों व विश्वविद्यालयों को बेहतर बनाने का एजेंडा पेश करने की जगह उच्च व तकनीकी शिक्षा को बिकाऊ माल बनाने, ‘सार्वजनिक-निजी साझेदारी‘ (पी.पी.पी.) और विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में स्थापित करने वाली नवउदारवादी नीति पर आधारित हैं।
* हरेक जिले में कम से कम एक विश्वविद्यालय स्थापित किया जाए जिसके अकादमिक एजेण्डे में आंचलिक सामाजिक, आर्थिक विकास का मकसद शामिल हो।
* विदेशी शिक्षा प्रदाता विधेयक और निजी विश्वविद्यालय विधेयक को संसद में पे्श करने के सभी प्रस्तावों को तुरंत खारिज किया जाए।
* सन 1986 से साल-दर-साल शिक्षा में किए जाने वाले पूंजी निवेश की कमी के चलते निवेश की जो चौड़ी खाई बन गई है उसको पहले पर्याप्त धनराशि देकर पाटा जाए और उसके बाद शिक्षा व्यवस्था में निरंतर गुणवत्ता बढ़ाने के लिए यथोचित धनराशि मुहैय्या की जाए। लेकिन इस धनराशि को पी.पी.पी. के जरिए कॉरपोरेट घरानों व एन.जी.ओ. को पहुंचाकर सरकारी खजाना लुटवाने पर पाबंदी रहे।
* विश्व व्यापार संगठन एवं गैट्स (जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड सर्विसेज़) के पटल पर उच्च एवं प्रोफ़ेशनल शिक्षा की पेश्कश को तुरंत वापस लिया जाए अन्यथा वह अपरिवर्तनीय प्रतिबद्धता बन जाएगी और फिर विदेशी संस्थानों को भारतीय संस्थानों के समकक्ष सभी सुविधाएं देना हमारी जबरन बाध्यता हो जाएगी।
संसद मार्च के जरिए सभी राजनीतिक दलों को आह्वान किया गया कि वे संसद और विधानसभाओं में उपरोक्त एजेण्डे को पूरजोर समर्थन दें और ऐसा राजनीतिक कार्यक्रम अपनायें जिसके चलते केन्द्रीय व राज्य सरकारों को शिक्षा के जरिये एक लोकतांत्रिक, समाजवादी, धर्म निरपेक्ष, समतामूलक व प्रबुद्ध समाज बनाने के संविधानिक नजरिये को पुनरस्थापित किया जा सके।
श्री कुलदीप नैयर
प्रो. रमाकान्त अग्निहोत्री
प्रो. अनिल सद्गोपाल
सुनील , राष्ट्रीय उपाध्यक्ष , समाजवादी जनपरिषद
श्री रमेश पटनायक
डॉ. वशिष्ट नारायण शर्मा
डॉ. शाहीन अंसारी
श्री टी. सुरजीत सिंह
अरमान अंसारी , राष्ट्रीय अध्यक्ष, विद्यार्थी युवजन सभा
व अन्य.
राष्ट्रमण्डल खेल बनाम शिक्षा का अधिकार
Posted in common school system, commonwealth games, corporatisation, education bill, madhya pradesh, tagged anil sadgopal, अनिल सद्गोपाल, ज्योत्सना मिलन, राष्ट्रमण्डल खेल, समान शिक्षा, सुनील, common school system, commonwealth games, jyotsana milan, sunil on जनवरी 31, 2010| 4 Comments »
शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल के तत्वाधान में 24 जनवरी 2010 को मॉडल शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय परिसर में ’’राष्ट्रमंडल खेल-2010 बनाम शिक्षा का अधिकार’’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में प्रख्यात समाजवादी नेता श्री सुनील द्वारा लिखित एवं समाजवादी जनपरिषद और विद्यार्थी युवजन सभा द्वारा प्रकाशित पुस्तक ’’ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेल-2010; गुलामी और बरबादी का तमाशा’’ पुस्तक का लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता ’अनुसूया’ की सम्पादक श्रीमती ज्योत्सना मिलन ने की इसके पूर्व संगोष्ठी को संबोधित करते हुए ’’अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच’’ के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य एवं प्रख्यात शिक्षाविद् डॉ. अनिल सद्गोपाल ने कहा कि यह शर्मनाक बात है कि शिक्षा, स्वास्थ, पेयजल, कृषि आदि प्राथमिक विषयों की उपेक्षा करते हुए राष्ट्रमंडल खेलों की आड़ में राजधानी क्षेत्र नई दिल्ली एवं आसपास के क्षेत्रों में विकास के नाम पर अरबों रुपये खर्च किए जा रहे है। उन्होने बताया की सरकार की ऐसी जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध आगामी 24 फरवरी 2010 को ’’अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच’’ संसद मार्च करेंगा जिसमें देश के विभिन्न संगठन हिस्सा लेंगे। इस रैली का मुख्य उद्देश्य देश की जनता को देश में हो रहे नवउदारवादी एजेण्डे के तहत नई तरह की गुलामी को थोपने वाली नीतियों से अवगत कराना होगा। जिसका एक हिस्सा ’शिक्षा अधिकार कानून 2009’ भी है। इस रैली के जरिए आम जनमानस का आह्वान किया जाएगा कि वह संगठित होकर इस दलाल चरित्र वाली सरकार को देश के हित में कार्य करने को मजबूर करें।
पुस्तक के लेखक एवं विचारक श्री सुनील ने कहा कि देश बाजारवाद एवं नई खेल संस्कृति विकसित करने की आड़ में गुलामी की ओर बढ़ रहा है, दिल्ली में 200 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का प्राथमिक आकलन किया गया था, जिसे बढाकर 1.5 लाख करोड़ कर दिया गया है। दिल्ली में कई ऐसे स्थानों पर निर्माण कार्य किए जा रहे हैं।
संगोष्ठी में सर्व श्री दामोदर जैन, गोविंद सिंह आसिवाल, प्रो. एस. जेड. हैदर, प्रिंस अभिशेख अज्ञानी, अरुण पांडे और राजू ने अपने विचार व्यक्त करते हुए ’समान स्कूल प्रणाली’ विषयक संगठन के उद्देश्य के प्रति सहमति व्यक्त की। अंत में मंच की ओर से श्री कैलाश श्रीवास्तव ने आभार व्यक्त किया।
संकट में है शिक्षक, शिक्षक नामक जंतु व शिक्षक प्रजाति बचेगी या नहीं ? – सुनील –
Posted in common school system, education bill, teachers, tagged शिक्षक दिवस, शिक्षकों की हालत, शिक्षा, crisis of the teachers, teachers' day on सितम्बर 4, 2009| 7 Comments »
शिक्षक दिवस, 5 सितंबर के अवसर पर
भारतीय संस्कृति में गुरु को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा गया है, उसे ‘गोविन्द’ से भी ऊँचा स्थान दिया गया है। हाल में ही मध्यप्रदेश सरकार ने उन्हें ‘‘राष्ट्रऋषि’’ की उपाधि देने का फैसला किया है। आधुनिक काल में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, जाकिर हुसैन, साने गुरुजी, सावित्रीबाई फुले और गिजुभाई जैसे महान शिक्षक हमारे देश में हुए हैं। राधाकृष्णनजी की जन्मतिथि 5 सितंबर को प्रतिवर्ष शिक्षक दिवस मनाने की परंपरा बन गई है। इस दिन हर जगह कई कार्यक्रमों का आयोजन होता है जिनमें शिक्षकों का सम्मान किया जाता है।
लेकिन जिस तरह की हालात बन रही हैं, उसमें शिक्षकों का दर्जा तेजी से नीचे जा रहा है और अब मजबूरी में बेरोजगारी दूर करने के लिए ही, लोग शिक्षक बनते हैं। सरकारों ने चालाकी से कंजूस बनिये की तरह शिक्षकों की कई श्रेणियां बना दी हैं और एक ही काम के लिए अलग-अलग वेतन दिया जा रहा है। शिक्षाकर्मी, शिक्षा मित्र, संविदा शिक्षक, अतिथि शिक्षक, अतिथि विद्वान जैसे कई नए पदों का अविष्कार कर लिया गया है, जिनकी मुख्य बात है कम वेतन, अस्थायी नौकरी, पेन्शन की कोई गारंटी नहीं। नए शिक्षकों का वेतन अब पुराने चपरासी से आधा है। तेजी से उपभोक्तावादी और बाजारवादी बनते हुए समाज में आज हर चीज को पैसे से तोला जाने लगा है। ऐसे समाज में ऐसे शिक्षक की इज्जत कैसे होगी ? शिक्षक भी अपना गुजारा चलाने के लिए अब आमदनी के दूसरे स्त्रोत या ज्यादा कमाई एवं स्थायित्व वाला दूसरा रोजगार ढूंढता रहता है। ऐसी हालत में शिक्षक मन लगाकर बच्चों को पढ़ाने पर कैसे ध्यान केन्द्रित कर सकेगा ?
सरकार के लिए शिक्षक सबसे फालतू बैल है, जिसे चाहे जिस काम में जोत दिया जाता है। सभी तरह के चुनाव, जनगणना, पशुगणना, गरीबी रेखा का सर्वेक्षण, अन्य सर्वेक्षण, पल्स पोलियो, मध्यान्ह भोजन, निर्माण का्र्य , दफ्तरी काम – सब काम वह करता है, बच्चों को पढ़ाने का मूल काम छोड़कर। कई प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षक ही हैं, जिनसे अपेक्षा की जाती है कि वे पांच कक्षाओं को एक साथ पढ़ाने का चमत्कार करके दिखाएंगे। स्कूलों व कालेजों में हजारों शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। इसके बाद शिक्षा का स्तर गिरता है या बच्चों की पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाती है तो उसका ठीकरा भी शिक्षक के सिर पर ही फोड़ा जाता है। अफसोस यह है कि बहुप्रचारित ‘‘ बच्चों की मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून’’ से भी ये हालात ज्यादा बदलने वाले नहीं है।
इस कानून में शिक्षकों के लिए न्यूनतम योग्यता और वेतनमान की बात तो है, लेकिन वह कितना होगा, इसका निर्धारण सरकार पर छोड़ दिया है। यह भी हो सकता है कि सरकार पैरा-शिक्षकों के मौजूदा वेतन को ही न्यूनतम घोषित कर दे। इस बात की संभावना कम है कि पैरा-शिक्षकों की श्रेणियों का अंत इस कानून से होगा। कानून में शिक्षकों द्वारा ट्यूशन पर पाबंदी लगाई गई है, लेकिन शिक्षकों को सम्मानजनक वेतन नहीं मिलेगा, तो वे ट्यूशन के रास्ते खोजने पर मजबूर होंगे ही।
इस कानून में शिक्षकों से गैर शिक्षणीय कार्य लिए जाने पर रोक लगाई है, किन्तु उसमें भी चुनाव, जनगणना और आपदा-राहत को अपवाद बना दिया है। यानी शिक्षकों को इन कार्यों में लगाया जाता रहेगा। इस कानून में जो न्यूनतम शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात तय किए गए हैं, उन से भी जाहिर है कि कई प्राथमिक शालाएं दो, तीन या चार शिक्षकों के साथ चलती रहेगी तथा कई माध्यमिक शालाओं में प्रत्येक विषय का एक शिक्षक भी नहीं होगा। अर्थात् आज की दुर्व्यवस्था जारी रहेगी और शिक्षक बदनाम होते रहेंगें।
शिक्षा का तेजी से निजीकरण हो रहा है। लेकिन निजी स्कूलों में भी शिक्षक भारी शोषण का शिकार है। उसे चाहे जब प्रबंधकों द्वारा निकाला भी जा सकता है। कुल मिलाकर, शिक्षक नाम की प्रजाति का अस्तित्व ही संकट में पड़ता जा रहा है। अब शिक्षक की जगह नौकर, ठेका मजदूर और दिहाड़ी मजदूर रह जाएंगे।
नये मानव संसाधन मंत्री श्री कपिल सिब्बल शिक्षा पद्धति में सुधार की अनेक घोषणाएं कर रहे हैं। किन्तु इन सुधारों को क्रियान्वित करने वाला तो शिक्षक है जिसे कमजोर किया जा रहा है।
शिक्षक शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ है। शिक्षक कमजोर एवं बदहाल होगा तो शिक्षा में गिरावट आएगी ही। सरकार को इसकी परवाह नहीं है, ऐसा लगता है। विश्व बैंक के सहयोग से ‘सर्व शिक्षा अभियान’ चलाने वाली और हर बच्चे को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देने का कानून बनाने वाली सरकार उन बच्चों को स्थायी, प्रशिक्षति, पूरे वेतन वाले शिक्षक भी पूरी संख्या में देना नहीं चाहती। इससे सरकार की मंशा पर शंका होती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मुक्त बाजार को प्रतिबद्ध सरकार शिक्षा का बाजार विकसित करने के लिए जानबूझकर सरकारी शिक्षा को बिगाड़ रही है व नष्ट कर रही है ?
गलती शिक्षकों की भी है। शिक्षा की चहुमुंखी गिरावट और सरकारी उपेक्षा का प्रतिरोध करने के बजाय कई शिक्षक भी उसी धारा में बहने लगे। शिक्षकों के बारे में कर्तव्य में लापरवाही और कामचोरी की शिकायतें आम हो चली हैं। शिक्षक संगठनों को तो शिक्षा की इस प्रायोजित क्रमिक मौत के खिलाफ आवाज उठाना था, लेकिन वे पांचवे-छठवें वेतन आयोग के लालीपॉप के चक्कर में ही उलझे रहे। अभी वक्त है। शिक्षा और शिक्षक के इस क्षय के बारे में स्वयं शिक्षक कुछ नहीं करेगें, तो कौन करेगा ?
यदि भारत को एक आधुनिक सभ्य प्रगतिशील देश बनना है तो इन सवालों पर गंभीरता से विचार करना होगा। नहीं तो शिक्षक दिवस पर शिक्षकों का सम्मान एवं चरणस्पर्श की कवायद तेजी से एक रस्म-अदायगी व पाखंड में बदलती जाएगी।
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(लेखक समाजवादी जन परिषद् का राष्ट्रीय अध्यक्ष है।)
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शिक्षा अधिकार विधेयक एक छलावा है, शिक्षा का बाजारीकरण एक विकृति है,
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देश के सारे बच्चों को मुफ्त, समतापूर्ण, गुणवत्तापू्र्ण शिक्षा के संघर्ष के लिए आगे आएं
लोकसभा चुनाव में दुबारा जीतकर आने के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के नए मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने कई घोषणाएं की हैं। अपने मंत्रालय का 100 दिन का कार्यक्रम जारी करते हुए उन्होंने शिक्षा व्यवस्था में अनेक प्रकार के सुधारों व बदलावों की मंशा जाहिर की है। उनकी घोषणाओं में प्रमुख हैं :-
शिक्षा में निजी-सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ावा देना, देश में विदेशी विश्वविद्यालयों को इजाजत देना, कक्षा 10वीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त करना, अंकों के स्थान पर ग्रेड देना, देश भर के कॉलेजों में दाखिला के लिए एक अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा लेना, व्यावसायिक शिक्षा के लिए बैंक ऋण में गरीब छात्रों को ब्याज अनुदान देना आदि। यशपाल समिति की सिफारिश को भी स्वीकार किया जा सकता है, जिसमें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, भारतीय चिकित्सा परिषद् आदि को समाप्त कर चुनाव आयोग की तर्ज पर ‘राष्ट्रीय उच्च शिक्षा एवं शोध आयोग’ बनाने का सुझाव दिया गया है। अचरज की बात है कि शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है, किन्तु श्री सिब्बल ने इन घोषणाओं के पहले राज्य सरकारों से परामर्श की जरुरत भी नहीं समझी।

शिक्षा अधिकार सम्मेलन , भोपाल
इनमें से कुछ प्रावधान अच्छे हो सकते हैं, किन्तु कई कदम खतरनाक हैं और उन पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस की जरुरत है। इन घोषणाओं से प्रतीत होता है कि भारत सरकार और श्री कपिल सिब्बल भारत की शिक्षा की दुरावस्था से चिंतित हैं और उसको सुधारना चाहते हैं। लेकिन वास्तव में वे शिक्षा का निजीकरण एवं व्यवसायीकरण, शिक्षा में मुनाफाखोरी के नए अवसर खोलने, विदेशी शिक्षण संस्थाओं की घुसपैठ कराने, सरकारी शिक्षा व्यवस्था को और ज्यादा बिगाड़ने, साधारण बच्चों को शिक्षा से वंचित करने और देश के सारे बच्चों को शिक्षति करने की सरकार की जिम्मेदारी से भागने की तैयारी कर रहे हैं। इन कदमों का पूरी ताकत से विरोध होना चाहिए। साथ ही अब समय आ गया है कि देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए सरकारी संसाधनों से समान स्कूल प्रणाली पर आधारित मुफ्त, अनिवार्य व समतापू्र्ण शिक्षा के लिए सघर्ष को तेज किया जाए।
शिक्षा अधिकार विधेयक का पाखंड
‘बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिकार विधेयक’ संसद में काफी समय से लंबित है और इसका काफी विरोध हुआ है। वर्तमान स्वरुप में यह देश के बच्चों को शिक्षा का
अधिकार देने के बजाय छीनने का काम करता है। इस विधेयक में शिक्षा के बढ़ते निजीकरण, व्यवसायीकरण और बाजारीकरण पर रोक लगाने की कोई बात नहीं है। आज देश में शिक्षा की कई परतें बन गई हैं। जिसकी जैसी आर्थिक हैसियत है, उसके हिसाब से वह अपने बच्चों को उस स्तर के स्कूलों मे पढ़ा रहा है। सरकारी स्कूलों की हालत जानबूझकर इतनी खराब बना दी गई है कि उनमें सबसे गरीब साधनहीन परिवारों के बच्चे ही जा रहे हैं। ऐसी हालत में उनकी उपेक्षा और बदहाली और ज्यादा बढ़ गई है। इस दुष्चक्र और भेदभाव को तोड़ने के बजाय यह विधेयक और मजबूत करता है।
विश्वबैंक के निर्देशों के तहत, शिक्षा के बाजार को बढ़ावा देने के मकसद से, पिछले कुछ वर्षों से केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों ने जानबूझकर सरकारी शिक्षा व्यवस्था बिगाड़ने का काम किया है। पहले तो देश के सारे बच्चों को स्कूली शिक्षा प्रदान करने के संवैधानिक निर्देश को पूरा करने के बजाय साक्षरता अभियान, औपचारिकेतर शिक्षा व शिक्षा गारंटी शालाओं के नाम पर सरकार ने अपनी जिम्मेदारी टालने की कोशिश की। फिर स्कूलों व कॉलेजों में स्थायी-प्रशिक्षति शिक्षकों के स्थान पर पैरा-शिक्षकों की नियुक्तियां शुरु कर दी,जो अस्थायी व अप्रशिक्षति होते हैं और जिन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है। इसी के साथ प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षकों की कामचलाऊ नियुक्ति को भी वैधानिक स्वीकृति दे दी गई, जिसका मतलब है कि एक शिक्षक दो, तीन, चार या पांच कक्षाएं एक साथ पढ़ाएगा। देश के साधारण गरीब बच्चों को इस लायक भी सरकार ने नहीं समझा कि एक कक्षा के लिए कम से कम एक शिक्षक मुहैया कराया जाए। सरकारी शिक्षकों को तमाम तरह के गैर-शैक्षणिक कामों में लगाने पर भी रोक इस विधेयक में नहीं लगाई गई है, जिसका मतलब है सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का और ज्यादा अभाव एवं ज्यादा गैरहाजिरी। चूंकि निजी स्कूलों के शिक्षकों को इस तरह की कोई ड्यूटी नहीं करनी पड़ती है, सरकारी स्कूलों में जाने वाले साधारण गरीब बच्चों के प्रति भेदभाव इससे और मजबूत होता है। निजी स्कूलों के साधन-संपन्न बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा में इससे वे और कमजोर पड़ते जाते हैं।

भोपाल सम्मेलन
निजी स्कूल कभी भी देश के सारे बच्चों को शिक्षा देने का काम नहीं कर सकते हैं,क्योंकि उनकी फीस चुकाने की क्षमता सारे लोगों में नहीं होती है। शिक्षा का निजीकरण देश में पहले से मौजूद अमीर-गरीब की खाई को और ज्यादा मजबूत करेगा तथा करोड़ों बच्चों को शिक्षा से वंचित करने का काम करेगा। देश के सारे बच्चों को शिक्षति करने के लिए सरकार को ही आगे आना पड़ेगा व जिम्मेदारी लेनी होगी। लेकिन सरकार ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को इस चुनौती के अनुरुप फैलाने, मजबूत करने और बेहतर बनाने के बजाय लगातार उल्टे बिगाड़ा है व उपेक्षति-वंचित किया है। सरकारी स्कूलों की संख्या में जरुर वृद्धि हुई है, स्कूलों में नाम दर्ज बच्चों की संख्या भी 90-95 प्रतिशत तक पहुंचने का दावा किया जा रहा है, किन्तु इस कुव्यवस्था, घटिया शिक्षा, अनुपयुक्त व अरुचिपूर्ण शिक्षा पद्धति, खराब व्यवहार एवं गरीबी की परिस्थितियों के कारण आधे से भी कम बच्चे 8 वीं कक्षा तक पहुंच पाते हैं। इसलिए शिक्षा के अधिकार की कोई भी बात करने के पहले देश की सरकारी शिक्षा व्यवस्था को सार्थक, संपू्र्ण, सुव्यवस्थित व सर्वसुविधायुक्त बनाना जरुरी है। जो सरकार उल्टी दिशा में काम कर रही है, और जानबूझकर सरकारी स्कूल व्यवस्था को नष्ट करने का काम कर रही हैं, उसके द्वारा शिक्षा अधिकार विधेयक संसद में पास कराने की बात करना एक पाखंड है और आंखों में धूल झोंकने के समान है।
समान स्कूल प्रणाली एकमात्र विकल्प
देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, इसके लिए यह भी जरुरी है कि देश में कानून बनाकर पड़ोसी स्कूल पर आधारित समान स्कूल प्रणाली लागू की जाए। इसका मतलब यह है कि एक गांव या एक मोहल्ले के सारे बच्चे (अमीर या गरीब, लड़के या लड़की, किसी भी जाति या धर्म के) एक ही स्कूल में पढ़ेंगे। इस स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाएगी और सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएगी। यह जिम्मेदारी सरकार की होगी और शिक्षा के सारे खर्च सरकार द्वारा वहन किए जाएंगे। सामान्यत: स्कूल सरकारी होगें, किन्तु फीस न लेने वाले परोपकारी उद्देश्य से (न कि मुनाफा कमाने के उद्देश्य से) चलने वाले कुछ निजी स्कूल भी इसका हिस्सा हो सकते हैं। जब बिना भेदभाव के बड़े-छोटे, अमीर-गरीब परिवारों के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ेगें तो अपने आप उन स्कूलों की उपेक्षा दूर होगी, उन पर सबका ध्यान होगा और उनका स्तर ऊपर उठेगा। भारत के सारे बच्चों को शिक्षति करने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। दुनिया के मौजूदा विकसित देशों में कमोबेश इसी तरह की स्कूल व्यवस्था रही है और इसी तरह से वे सबको शिक्षति बनाने का लक्ष्य हासिल कर पाए हैं। समान स्कूल प्रणाली का प्रावधान किए बगैर शिक्षा अधिकार विधेयक महज एक छलावा है।
इस विधेयक में और कई कमियां हैं। यह सिर्फ 6 से 14 वर्ष की उम्र तक (कक्षा 1 से 8 तक) की शिक्षा का अधिकार देने की बात करता है। इसका मतलब है कि बहुसंख्यक बच्चे कक्षा 8 के बाद शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। कक्षा 1 से पहले पू्र्व प्राथमिक शिक्षा भी महत्वपू्र्ण है। उसे
अधिकार के दायरे से बाहर रखने का मतलब है सिर्फ साधन संपन्न बच्चों को ही केजी-1, केजी-2 आदि की शिक्षा पाने का अधिकार रहेगा। शुरुआत से ही भेदभाव की नींव इस विधेयक द्वारा डाली जा रही है।
शिक्षा अधिकार विधेयक में निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों का आरक्षण गरीब बच्चों के लिए करने का प्रावधान किया गया है और उनकी ट्यूशन फीस का भुगतान सरकार करेगी। किन्तु महंगे निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा कई तरह के अन्य शुल्क लिए जाते हैं, क्या उनका भुगतान गरीब परिवार कर सकेगें ? क्या ड्रेस, कापी-किताबों आदि का भारी खर्च वे उठा पाएंगे ? क्या यह एक ढकोसला नहीं होगा ? फिर क्या इस प्रावधान से गरीब बच्चों की शिक्षा का सवाल हल हो जाएगा ? वर्तमान में देश में स्कूल आयु वर्ग के 19 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से लगभग 4 करोड़ निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। मान लिया जाए कि इस विधेयक के पास होने के बाद निजी स्कूलों में और 25 प्रतिशत यानि 1 करोड़ गरीब बच्चों का दाखिला हो जाएगा, तो भी बाकी 14 करोड़ बच्चों का क्या होगा ? इसी प्रकार जब सरकार गरीब प्रतिभाशाली बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय, कस्तूरबा कन्या विद्यालय, उत्कृष्ट विद्यालय और अब प्रस्तावित मॉडल स्कूल खोलती है, तो बाकी विशाल संख्या में बच्चे और ज्यादा उपेक्षति हो जाते है। ऐसी हालत में, देश के हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार देने की बात महज एक लफ्फाजी बनकर रह जाती है।
शिक्षा का मुक्त बाजार ?
वास्तव में नवउदारवादी रास्ते पर चल रही भारत सरकार देश में शिक्षा का मुक्त बाजार बनाने को प्रतिबद्ध है और उसी दिशा में आगे बढ़ रही है। शिक्षा में सरकारी-निजी भागीदारी का मतलब व्यवहार में यह होगा कि या तो नगरों व महानगरों की पुरानी सरकारी शिक्षण संस्थाओं के पास उपलब्ध कीमती जमीन निजी हाथों के कब्जे में चली जाएगी या फिर प्रस्तावित मॉडल स्कूलों में पैसा सरकार का होगा, मुनाफा निजी हाथों में जाएगा। निजीकरण के इस माहौल में छात्रों और अभिभावकों का शोषण बढ़ता जा रहा है। बहुत सारी घटिया, गैरमान्यताप्राप्त और फर्जी शिक्षण संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। दो-तीन कमरों में चलने वाले कई निजी विश्वविद्यालय आ गए हैं और कई निजी संस्थानों को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया है। कोचिंग और ट्यूशन का भी बहुत बड़ा बाजार बन गया है। बड़े कोचिंग संस्थान तो करोड़ों की कमाई कर रहे है। अभिभावकों के लिए अपने बच्चों को पढ़ाना व प्रतिस्पर्धा में उतारना दिन-प्रतिदिन महंगा व मुश्किल होता जा रहा है। गरीब और साधारण हैसियत के बच्चों के लिए दरवाजे बंद हो रहे है।
यदि कपिल सिब्बल की चलेगी तो अब कॉलेज में दाखिले के लिए भी अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा होगी। इससे कोचिंग का बाजार और बढ़ेगा तथा साधारण हैसियत के युवाओं के लिए कॉलेज शिक्षा के दरवाजे भी बंद होने लगेगें। आत्महत्याओं व कुंठा में और बढ़ोत्तरी होगी। विडंबना यह है कि बच्चों का परीक्षा का तनाव कम करने की बात करने वाले सिब्बल साहब को गलाकाट प्रतिस्पर्धाओं और कोचिंग कारोबार के दोष नहीं दिखाई देते। महंगी निजी शिक्षा के लिए उनका फार्मूला है शिक्षा ऋण तथा गरीब विद्यार्थियों के लिए इस ऋण में ब्याज अनुदान। लेकिन बहुसंख्यक युवाओं की कुंठा, वंचना और हताशा बढ़ती जाएगी।
यदि देश के दरवाजे विदेशी शिक्षण संस्थाओं और विदेशी विश्वविद्यालय के लिए खोल दिए गए, तो बाजार की यह लूट व धोखाधड़ी और बढ़ जाएगी। यह उम्मीद करना बहुत गलत एवं भ्रामक है कि दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय भारत में आने को तत्पर है और इससे देशमें शिक्षा का स्तर बढ़ेगा। वास्तव में घटिया, चालू और मुनाफे व कमाई की खोज में बैचेन विश्वविद्यालय व शिक्षण संस्थान ही आएंगे। देश के जनजीवन के लगभग हर क्षेत्र को विदेशी कंपनियों के मुनाफे के लिए खोलने के बाद अब शिक्षा, स्वास्थ्य, मीडिया आदि के बाकी क्षेत्रों को भी विदेशी कंपनियों के लूट व मुनाफाखोरी के हवाले करने की यह साजिश है। यह सिर्फ आर्थिक लूट ही नहीं होगी। इससे देश के ज्ञान-विज्ञान, शोध, चिन्तन, मूल्यों और संस्कृति पर भी गहरा विपरीत असर पड़ेगा। इसका पूरी ताकत से प्रतिरोध करना जरुरी है।
स्वतंत्र आयोग या निजीकरण का वैधानीकरण ?
यशपाल समिति की पूरी रिपोर्ट का ब्यौरा सामने नहीं आया है। उच्च शिक्षा की बिगड़ती दशा के बारे में उसकी चिंता जायज है। डीम्ड विश्वविद्यालयों की बाढ़ के बारे में भी उसने सही चेतावनी दी है। किन्तु यू.जी.सी., अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, भारतीय चिकित्सा परिषद् आदि समाप्त करके उनके स्थान पर चुनाव आयोग जैसा स्वतंत्र एवं स्वायत्त ‘उच्च शिक्षा एवं शोध आयोग’ बनाने के सुझाव पर सावधानी की जरुरत है। पिछले कुछ समय में, विश्व बैंक के सुझाव पर अनेक प्रांतो में विद्युत नियामक आयोग एवं जल नियामक आयोग बनाए गए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर दूरसंचार व बीमा के लिए भी इस तरह के आयोग बने हैं। दरअसल ये सारे आयोग निजीकरण के साथ आए हैं। जब तक सब कुछ सरकार के हाथ में था, आयोग की जरुरत नहीं थी। यह कहा जाता है कि ये आयोग सरकार से स्वतंत्र एवं स्वायत्त होते हैं और राजनीतिक प्रभाव से मुक्त होते हैं। लेकिन विश्वबैंक और देशी-विदेशी कंपनियों का प्रभाव उन पर काम करता रहता है। कम से कम बिजली और पानी के बारे में इन आयोगों की भूमिका निजीकरण की राह प्रशस्त करना, उसे वैधता देने और बिजली-पानी की दरों को बढ़ाने की रही है। उन्हें राजनीति से अलग रखने के पीछे मंशा यह भी है कि जन असंतोष और जनमत का दबाब उन पर न पड़ जाए। उच्च शिक्षा और स्कूली शिक्षा के बारे में इस तरह के आयोगों की भूमिका भी निजीकरण को वैधता प्रदान करने की हो सकती है, जबकि जरुरत शिक्षा के निजीकरण को रोकने व समाप्त करने की है। अफसोस की बात है कि यशपाल समिति ने उच्च शिक्षा के निजीकरण और विदेशी संस्थानों के घुसपैठ का स्पष्ट विरोध नहीं किया है।
आइए, आठ सूत्री देशव्यापी मुहिम छेड़ें
शिक्षा का बाजार एक विकृति है। बच्चों में शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण में भेदभाव करना
आधुनिक सभ्य समाज पर कलंक के समान है। देश के सारे बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना हमारा संवैधानिक दायित्व है। भारतीय संविधान में इस काम को 10 वर्ष में पूरा करने के निर्देश दिए गए थे। लेकिन छ: दशक में भी इसे पूरा न करके भारत की सरकारों ने भारत की जनता, देश और संविधान के प्रति अक्षम्य अपराध किया है। अब सरकार जो कदम उठा रही हैं,उससे यह लक्ष्य और दूर हो जाएगा। समय आ गया है कि इस मामले में देश भर में मुहिम चलाकर भारत सरकार पर दबाब बनाया जाए कि –
1. शिक्षा के निजीकरण, व्यवसायीकरण और मुनाफाखोरी को तत्काल रोका जाए और इस दिशा में उठाए गए सारे कदम वापस लिए जाएं।
2. शिक्षा में विदेशी शिक्षण संस्थानों के प्रवेश पर रोक लगे।
3. शिक्षा में सभी तरह के भेदभाव और गैरबराबरी खतम की जाए। समान स्कूल प्रणाली पर आधारित मुफ्त, अनिवार्य एवं समतामूलक शिक्षा की व्यवस्था देश के सारे बच्चों के लिए अविलंब की जाए।
4. सरकारी स्कूलों में पर्याप्त संख्या में स्थायी व प्रशिक्षति शिक्षक नियुक्त किए जाएं और उन्हें सम्मानजनक वेतन दिए जाएं। स्कूलों में भवन, पाठ्य-पुस्तकों, पाठ्य सामग्री, खेल सामग्री, खेल मैदान, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शिल्प-शिक्षण, छात्रवृत्तियों, छात्रावास आदि की पर्याप्त एवं समुचित व्यवस्था हो। सुविधाओं व स्तर की दृष्टि से प्रत्येक स्कूल को केन्द्रीय विद्यालय या नवोदय विद्यालय के समकक्ष लाया जाए।
5. ‘शिक्षा का अधिकार विधेयक’ के मौजूदा प्रारुप को तत्काल वापस लेकर उक्त शर्तों को पूरा करने वाला नया विधेयक लाया जाए। विधेयक के मसौदे पर पूरे देश में जनसुनवाई की जाए एवं चर्चा-बहस चलाई जाए।
6. शिक्षा की जिम्मेदारी से भागना बंद करके सरकार शिक्षा के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए। कोठारी आयोग एवं तपस सेनगुप्ता समिति की सिफारिश के मुताबिक कम से कम राष्ट्रीय आय के छ: प्रतिशत के बराबर व्यय सरकार द्वारा शिक्षा पर किया जाए।
7. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। शिक्षा, प्रशासन एवं सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का वर्चस्व गुलामी की विरासत है। इसे तत्काल समाप्त किया जाए।
8. मैकाले द्वारा बनाया शिक्षा का मौजूदा किताबी, तोतारटन्त, श्रम के तिरस्कार वाला, जीवन से कटा, विदेशी प्रभाव एवं अंग्रेजी के वर्चस्व वाला स्वरुप बदला जाए। इसे आम लोगों की जरुरतों के अनुसार ढाला जाए एवं संविधान के लक्ष्यों के मुताबिक समाजवादी,धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रकि एवं प्रगतिशील भारत के निर्माण के हिसाब से बनाया जाए। हर बच्चे के अंदर छुपी क्षमताओं व प्रतिभाओं के विकास का मौका इससे मिले।
लगभग इसी तरह के मुद्दों व मांगो को लेकर 21-22 जून को एक राष्ट्रीय सेमिनार में अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच का गठन हुआ है, जिसकी ओर से जुलाई में संसद पर प्रदर्शन की तैयारी की जा रही है। अखिल भारतीय समाजवादी अध्यापक सभा द्वारा भी काफी समय से इन मुद्दों पर मुहिम चलाई जा रही है जिसका समापन 25 अक्टूबर 2009 को दिल्ली मे राजघाट पर होगा।
कृपया आप भी अपने क्षेत्र मेंव अपनी इकाइयों में इन मुद्दों व मांगो पर तत्काल कार्यक्रम लें। आप गोष्ठी, धरने, प्रदर्शन, ज्ञापन, परचे वितरण, पोस्टर प्रदर्शनी आदि का आयोजन कर सकते हैं। स्थानीय स्तर पर शिक्षकों, अभिभावकों, विद्यार्थियों, जागरुक नागरिकों व अन्य जनसंगठनों के साथ मिलकर ‘शिक्षा अधिकार मंच’ का गठन भी कर सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि यह वर्ष प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्मशताब्दी वर्ष है। उनके नेतृत्व में पचास साल पहले ही समाजवादी आंदोलन ने मुफ्त और समान शिक्षा का आंदोलन छेड़ा था तथा अंग्रेजी के वर्चस्व का विरोध किया था। ‘चपरासी हो या अफसर की संतान, सबकी शिक्षा एक समान’ तथा ‘चले देश में देशी भाषा, गांधी-लोहिया की यह अभिलाषा’ के नारे देते हुए शिक्षा में भेदभाव समाप्त करने का आह्वान किया था। डॉ. लोहिया की जन्मशताब्दी पर उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी कि इस आवाज को हम फिर से पूरी ताकत से बुलंद करें।
सुनील
राष्ट्रीय अध्यक्ष
समाजवादी जन परिषद्
ग्राम- पोस्ट – केसला
जिला होशंगाबाद
फोन 09425040452
अमीरों की शिक्षा, गरीबों का झुनझुना :प्रस्तावित शिक्षा अधिकार विधेयक की एक समीक्षा / लेखक- सुनील
Posted in common school system, education bill, tagged common school, education bill, globalisation, sibbal, sunil on जुलाई 17, 2009| 9 Comments »
भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्वों में सरकार को यह निर्देश दिया गया था कि वह 14 वर्ष तक के सारे बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा देने की व्यवस्था 26 जनवरी 1960 तक करेगी। यदि इस तारीख के लगभग 50 वर्ष बीतने के बाद भी यह काम नहीं हो पाया है, तो उसके कारणों को खोजना होगा। क्या प्रस्तावित विधेयक उन कारणों को दूर करता है ? यही इस विधेयक को जांचने की मुख्य कसौटी होनी चाहिए।
इच्छाशक्ति की कमी –
सरकारों की ओर से अपने दायित्व-निर्वाह में इस चूक के लिए प्रमुख दलील दी जाती रही है कि भारत एक गरीब देश है और सरकार के पास संसाधनों की कमी रही है। किन्तु इस दलील को स्वीकार नहीं किया जा सकता। वे ही सरकारें फौज, हथियारों, हवाई अड्डों एवं हवाई जहाजों, फ्लाई-ओवरों, एशियाड और अब राष्ट्रमंडल खेलों पर विशाल खर्च कर रही है। दरअसल सवाल प्राथमिकता और राजनीतिक इच्छाशक्ति का है। देश के सारे बच्चों को शिक्षित करना कभी भी सरकार की प्राथमिकता में नही रहा है। यह भी माना जा सकता है कि भारत का शासक वर्ग नहीं चाहता था कि देश के सारे बच्चे भलीभांति शि्क्षित हों, क्योंकि वे शि्क्षित होकर बड़े लोगों के बच्चों से प्रतिस्पर्धा करने लगेगें और उनके एकाधिकार एवं विशेषाधिकारों को चुनौती मिलने लगेगी। अंग्रेजों के चले जाने के बाद अंग्रेजी का वर्चस्व भी इसीलिए बरकरार रखा गया।
देश के सारे बच्चों को शि्क्षित करने का काम कभी भी निजी स्कूलों के दम पर नहीं हो सकता। कारण साफ है। देश की जनता के एक हिस्से में निजी स्कूलों की फीस अदा करने की हैसियत नहीं है। भारत की सरकारों को ही इसकी जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को ही व्यापक, सुदृढ़ व सक्षम बनाना होगा। लेकिन पिछले दो दशकों में सरकारें ठीक उल्टी दिशा में चलती दिखाई देती है। यानि अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना, सरकारी शिक्षा व्यवस्था को जानबूझकर बिगाड़ना एवं वंचित करना तथा शिक्षा के निजीकरण एवं व्यवसायीकरण को बढ़ावा देना। इससे भी मालूम होता है कि सरकार की इच्छा इस दिशा में नहीं है।
यों पिछले कुछ वर्षों में देश में स्कूलों की संख्या काफी बढ़ी है। छोटे-छोटे गांवों एवं ढानों में भी स्कूल खुल गए हैं। स्कूल जाने लायक उम्र के बच्चों में 90 से 95 प्रतिशत के नाम स्कूलों में दर्ज हो गए हैं, यह दावा भी किया जा रहा है। किन्तु इस द्र्ज संख्या में एक हिस्सा तो फर्जी या दिखावटी है। फिर जिन बच्चों के नाम पहली कक्षा में लिख जाते हैं, उनमें कई बीच में स्कूल छोड़ देते हैं और आधे भी कक्षा 8 में नहीं पहुंच पाते हैं। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। इस वर्ष मध्यप्रदेश में कक्षा 10वीं में केवल 35 प्रतिशत बच्चों का पास होना इस शिक्षा-व्यवस्था की दुर्गति का एक सूचक है।
सरकारी शिक्षा की बदहाली –
पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने स्वयं कई कदम उठाए हैं, जिनसे सरकारी शिक्षा की हालत बिगड़ी है :-
(1) स्थायी, प्रशिक्षित शिक्षकों का कैडर समाप्त करके उनके स्थान पर पैरा-शिक्षकों (शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, अतिथि शिक्षक, शिक्षा सेवक, शिक्षा मित्र आदि) की नियुक्ति। पैरा-शिक्षक अप्रशिक्षित व अस्थायी होते हैं और उन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है।
(2) कई प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षक ही नियुक्त करना तथा यह मान लेना कि एक शिक्षक एक समय में दो या तीन कक्षाओं को एक साथ पढ़ा सकता है।
(3) माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक शालाओं में प्रत्येक विषय के शिक्षक न प्रदान करना। शिक्षकों के पद खाली रखना। प्रतिवर्ष पैरा-शिक्षकों की नियुक्ति के चक्कर में भी कई पद खाली रहते हैं।
(4) शिक्षकों को गैर-शिक्षणीय कामों में लगाना तथा ये काम बढ़ाते जाना।
(5) शालाओं के निरीक्षण की व्यवस्था को कमजोर या समाप्त करना।
(6) शालाओं में पर्याप्त भवन, एवं अन्य जरुरी सुविधाएं न प्रदान करना।
शिक्षा का बंटवारा और दुष्चक्र –
सरकारी स्कूलों की हालत बिगड़ने का एक और कारण यह रहा है कि जैसे-जैसे कई तरह के निजी स्कूल खुलते गए, बड़े लोगों, पैसे वालों और प्रभावशाली परिवारों के बच्चे उनमें जाने लगे। सरकारी स्कूलों में सिर्फ गरीब बच्चे रह गए। इससे उनकी तरफ समाज व सरकार का ध्यान भी कम हो गया। यह एक तरह का दुष्चक्र है, जिसमें सरकारी शिक्षा व्यवस्था गहरे फंसती जा रही है। देश में समान स्कूल प्रणाली लाए बगैर इस दुष्चक्र को नहीं तोड़ा जा सकता। शिक्षा में समानता और शिक्षा के सर्वव्यापीकरण का गहरा संबंध है।
अफसोस की बात है कि संसद में पेश ‘बच्चों के मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार
विधेयक’ में इस दुष्चक्र को तोड़ने, सरकारी शिक्षा की दुर्गति को रोकने तथा शिक्षा के निजीकरण एवं बाजारीकरण को रोकने के पर्याप्त उपाय मौजूद नहीं है। वैसे सरसरी तौर पर यह विधेयक प्रगतिशील और भले उद्देश्य वाला दिखाई देता है। इसमें कुछ अच्छी बातें भी है। किन्तु यदि लक्ष्य देश के सारे बच्चों को शिक्षित करने का है, तो यह विधेयक अपर्याप्त व भ्रामक है। यही नहीं, यह भारत में शिक्षा में बढ़ते हुए भेदभाव, गैरबराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण व मुनाफाखोरी पर वैधानिकता का ठप्पा लगाने का काम करता है, जबकि जरुरत उन पर तत्काल रोक लगाने की है।
शिक्षा का बढ़ता हुआ बाजार वास्तव में बहुसंख्यक बच्चों को अच्छी शिक्षा से वंचित करने का काम करता है, क्योंकि वे इस बाजार की कीमतों को चुकाने में समर्थ नहीं होते। उनके लिए जो ‘मुफ्त’ सरकारी शिक्षा रह जाती है, वह लगातार घटिया, उपेक्षित, अभावग्रस्त होती जाती है। बाजार में सबसे खराब, सड़ा और फेंके जाने वाला माल ही मुफ्त मिल सकता है। दरअसल बाजार और अधिकार दोनों एक साथ नहीं चल सकते। यह अचरज की बात है कि शिक्षा के बाजारीकरण एवं व्यवसायीकरण पर रोक नहीं लगाने वाले इस विधेयक को कैसे ‘शिक्षा अधिकार विधेयक’ का नाम दिया गया है ?
विधेयक की प्रमुख कमियां –
इस विधेयक के बारे में निम्न बातें विशेष रुप से गौर करने लायक है –
स्कूलों में भेद
विधेयक के प्रारंभ में ही परिभाषाओं की धारा 2 (एन) में (स्कूल की परिभाषा में) मान लिया गया है कि चार तरह के स्कूल होगें – (1) सरकारी स्कूल (2) अनुदान प्राप्त निजी स्कूल (3) विशेष श्रेणी के स्कूल (केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय आदि) और (4) अनुदान न पाने वाले निजी स्कूल। विधेयक के कई प्रावधान श्रेणी (2), (3) या (4) पर लागू नहीं होती है। शिक्षा के भेदभाव को इस तरह से मान्य एवं पुष्ट किया गया है।
25 प्रतिशत सीटें गरीबों को : बाकी का क्या ?
धारा 8(ए) और धारा 12 से स्पष्ट है कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा सिर्फ सरकारी स्कूलों में ही मिल सकेगी। श्रेणी (2),(3) एवं (4) के स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें कमजोर तबके के बच्चों को मिलेगीं, जिसके लिए सरकार श्रेणी (4) के स्कूलों को खर्च का भुगतान करेगी। सवाल है कि ऐसा क्यों ? कुछ बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ने का मौका मिले, कुछ को विशेष श्रेणी के स्कूलों में और कुछ को उपेक्षित घटिया सरकारी स्कूलों में ? क्या इससे सारे बच्चों को सही व उम्दा शिक्षा मिल सकेगी ?वर्तमान में देश में स्कूल जाने वाली उम्र के 19 करोड़ बच्चे हैं। उनमें से 4 करोड़ बच्चे मान्यताप्राप्त निजी स्कूलों में जाते हैं। यदि उनमें 25 प्रतिशत या 1 करोड़ अतिरिक्त गरीब बच्चों की भरती भी हो गई तो बाकी 14 करोड़ बच्चों की शिक्षा का क्या होगा ?
फीस पर कोई नियंत्रण नहीं
विधेयक की धारा 13 में केपिटेशन फीस और बच्चों की छंटाई का निषेध किया गया है। धारा 2(बी) की परिभाषा के मुताबिक केपिटेशन फीस वह भुगतान है, जो स्कूल द्वारा अधिसूचित फीस के अतिरिक्त हो। इसका मतलब है कि अधिसूचित करके चाहे जितनी फीस लेने का अधिकार निजी स्कूलों को होगा तथा उस पर कोई रोक या नियंत्रण इस विधेयक में नहीं है। निजी स्कूलों की मनमानी एवं लूट बढ़ती जाएगी। बिना रसीद के या अन्य छुपे तरीकों से केपिटेशन फीस लेना भी जारी रहेगा, जिसको साबित करना मुश्किल होगा। इसके लिए सजा भी बहुत कम (केपिटेशन फीस का 10गुना जुर्माना) रखी गई है।
पैरा शिक्षक की व्यवस्था जारी रहेगी
इस विधेयक में शिक्षकों की न्यूनतम योग्यता और वेतन-भत्ते तय करने की बात तो है
(धारा 23), किन्तु वह कितना होगा, यह सरकार पर छोड़ दिया है। इस बात की आशंका है कि पैरा-शिक्षकों के मौजूदा कम वेतन को ही निर्धारित किया जा सकता है। शिक्षकों का स्थायी कैडर बनाने को भी अनिवार्य नहीं किया गया है। ठेके पर या दैनिक मजदूरी पर भी शिक्षक लगाए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, इस विधेयक में पैरा-शिक्षक वाली बीमारी का इलाज नहीं किया गया है और उसे जारी रखने की गुंजाइश छोड़ी गई है।
अपर्याप्त मानदण्ड : एक शिक्षक, कई कक्षाएं
विधेयक की धारा 8 एवं 9 में अनिवार्य शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि सरकार गांव-मुहल्ले में स्कूल खोलेगी जिसमें अनुसूची में दिए गए मानदण्डों के मुताबिक संरचना व सुविधाएं प्रदान करेगी। धारा 19 एवं 25 में भी सारे स्कूलों के लिए अनुसूची के मुताबिक शिक्षक-छात्र अनुपात तथा अन्य सुविधाएं प्रदान करना जरुरी बनाया गया है। तभी स्कूलों को मान्यता मिलेगी।किन्तु इस अनुसूची में शिक्षकों और भवन के जो मानदण्ड दिए गए हैं, वे काफी कम एवं अपर्याप्त है। प्राथमिक शालाओं में बच्चों तक 30 बच्चों पर एक शिक्षक तथा 200 से ऊपर होने पर 40 बच्चों पर एक शिक्षक का अनुपात रखा गया है। प्रधान अध्यापक तभी जरुरी होगा, जब 150 से ऊपर बच्चे हों। इसका मतलब है कि बहुत सारी छोटी प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षक ही होंगे। वे पांच कक्षाओं को कैसे पढांएगे ? शाला भवन के मामले में भी प्रति शिक्षक एक कमरे का मानदण्ड रखा गया है।
देश के सारे बच्चों को शिक्षा देने के लिए जरुरी है कि छोटे-छोटे गांवो और ढ़ानों में भी स्कूल खोले जाएं और वहां कम से कम एक कक्षा के लिए एक शिक्षक हो। इन मानदण्डों से देश में 37 फीसदी प्राथमिक शालाएं दो शिक्षक-दो कमरे वाली, 17 फीसदी तीन शिक्षक-तीन कमरे वाली और 12 फीसदी शालाएं चार शिक्षक-चार कमरे वाली रह जाएगी। एक शिक्षक एक साथ दो या तीन कक्षाएं पढ़ाता रहेगा। यह शिक्षा के नाम पर देश के गरीब बच्चों के साथ मजाक होगा।
चाहे अधिक शिक्षक देने पड़े, चाहे बहुत छोटे गांवों में कक्षा 3 तक ही स्कूल रखा जाए, यह जरुरी है कि कम से कम 1 कक्षा पर 1 शिक्षक हो। क्या देश के गरीब बच्चों को इतना भी हक नहीं है कि उनकी एक कक्षा पर एक शिक्षक और एक कमरा उनको मिले ? यह कैसा शिक्षा अधिकार विधेयक है ? यह अधिकार देता है या छीनता है ?
शिक्षकों के गैर-शिक्षण काम
धारा 27 में शिक्षकों को गैर-शिक्षण कामों में न लगाने की बात करते हुए भी जनगणना, आपदा राहत और सभी प्रकार के चुनावों में उनको लगाने की छूट दे दी गई है। चूंकि सिर्फ सरकारी शिक्षकों को ही इन कामों में लगाया जाता है, इससे सरकारी बच्चों की शिक्षा ही प्रभावित होती है। यह गरीब बच्चों के साथ एक और भेदभाव व अन्याय होता है।
कक्षा 8 के बाद क्या ?
विधेयक की धारा 2(सी), 2(एफ) और 3(1) के मुताबिक 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को कक्षा 1 से 8 तक की मुफ्त एवं अनि्वार्य शिक्षा देने की बात कही गई है। सवाल यह है कि कक्षा 8 के बाद क्या होगा ? कक्षा 12 तक का अधिकार क्यों नहीं दिया जा रहा है ? आज कक्षा 12 की शिक्षा पूरी किए बगैर किसी भी प्रकार का रोजगार या उच्च शिक्षा हासिल नहीं की जा सकती है। इसी तरह पूर्व प्राथमिक शिक्षा को भी अधिकार के दायरे से बाहर कर दिया है। धारा 11 में इसे सरकारों की इच्छा व क्षमता पर छोड़ दिया गया है।
फेल नहीं, किन्तु पढ़ाई का क्या ?
विधेयक की धारा 16 में प्रावधान है कि किसी बच्चे को किसी कक्षा में फेल नहीं किया जाएगा और स्कूल से निकाला नहीं जाएगा। धारा 30(1) में कहा गया है कि कक्षा 8 से पहले कोई बोर्ड परीक्षा नहीं होगी। इसके पीछे सिद्धांत तो अच्छा है कि कमजोर बच्चों को नालायक घोषित करके तिरस्कृत करने के बजाय स्कूल उन पर विशेष ध्यान दे तथा उनकी प्रगति की जिम्मेदारी ले। यह भी कि बच्चों को अपनी-अपनी गति से पढ़ाई करने का मौका दिया जाए। किन्तु इस सिद्धांत को लागू करने के लिए यह जरुरी है कि सरकारी स्कूलों की बदहाली को दूर किया जाए, वहां बच्चों पर ध्यान देने के लिए पूरे व पर्याप्त शिक्षक हों तथा पढ़ाई ठीक से हो। नहीं तो विधेयक के इस प्रावधान के चलते सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की हालत और बिगड़ती चली जाएगी। इस सिद्धांत को लागू करने के लिए यह भी जरुरी है कि उच्च शिक्षा और रोजगार के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा का माहौल बदला जाए। विधेयक इस दिशा में भी कुछ नहीं करता है।
अंग्रेजी माध्यम की गुंजाईश
धारा 29(2)-(एफ) में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा बनाने के प्रावधान में ‘जहां तक व्यावहारिक हो’ वाक्यांश जोड़ दिया गया है। इससे देश में महंगे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की गुंजाईश छोड़ दी गई है। यह देश में भेदभाव का बड़ा जरिया बना रहेगा।
ट्यूशन पर रोक कैसे ?
धारा 28 में शिक्षकों द्वारा प्राईवेट ट्यूशन करने पर पाबंदी लगाकर अच्छा काम किया गया है। लेकिन इसे कैसे रोका जाएगा, कौन कार्यवाही करेगा और क्या सजा होगी, इसका कोई जिक्र नहीं है। ट्यूशन की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए शिक्षकों को पर्याप्त वेतन दिया जाना तथा उनका शोषण रोकना जरुरी है, किन्तु विधेयक ने यह सुनिश्चित करने की जरुरत नहीं समझी है। देश में तेजी से बढ़ते कोचिंग उद्योग को रोकने के कोई उपाय भी विधेयक में नहीं है।
निजी स्कूलों की निरंकुशता
अनुदान न लेने वाले निजी स्कूलों को ‘स्कूल प्रबंध समिति’ के प्रावधान (धारा 21 एवं 22) से बाहर रखा गया है। उनके प्रबंधन में अभिभावकों, जनप्रतिनिधियों, स्थानीय शासन संस्थाओं, कमजोर तबकों आदि का कोई दखल या प्रतिनिधित्व नहीं होगा। वे पूरी मनमानी करेगें और निरंकुश रहेंगे।
बुनियादी बदलाव की जगह कानून का झुनझुना
इस विधेयक से यह दिखाई देता है कि देश के साधारण बच्चों को अच्छी एवं साधनयुक्त शिक्षा उपलब्ध कराने का कार्यक्रम युद्धस्तर पर चलाने और वैसी नीति बनाने के बजाय सरकार एक अधूरा कानून बनाकर अपनी जिम्मेदारी टालना चाहती है। पिछले कुछ समय में सरकार ने कई ऐसे कानून (रोजगार गारंटी कानून, वन अधिकार कानून, असंगठित क्षेत्र कानून, घरेलू हिंसा कानून, सूचना का अधिकार कानून, प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून) बनाए हैं या बना रही है, जिनमें मौजूदा व्यवस्था में बुनियादी बदलाव करने के बजाय कानूनों का झुनझुना आम जनता, एनजीओ आदि को पकड़ा दिया जाता है। क्या एक साधारण गरीब आदमी (जिसे शिक्षा के अधिकार की सबसे ज्यादा जरुरत है) अपने अधिकार को हासिल करने के लिए कचहरी-अदालत के चक्कर लगा सकता है ? इस कानून में तो उसे प्रांतीय स्तर पर राजधानियों में स्थित ‘बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ के पास जाना पडेगा। क्या यह उसके बूते की बात होगी ?
शिक्षा का मुक्त बाजार : महमोहन सिंह के नक्शे कदम पर
यह साफ है कि इस विधेयक से देश के साधारण बच्चों को उम्दा, साधनसंपन्न, संपूर्ण शिक्षा मिलने की कोई उम्मीद नहीं बनती है। सरकारी शिक्षा व्यवस्था का सुधार इससे नहीं होगा। देश में शिक्षा के बढ़ते निजीकरण, व्यवसायीकरण और बाजारीकरण पर रोक इससे नहीं लगेगी। नतीजतन शिक्षा में भेदभाव की जड़ें और मजबूत होगी। यदि हम पिछले दो दशकों में शिक्षा के बढ़ते बाजार को देखें तथा नए केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल की घोषणाओं को देखें (शिक्षा में निजी भागीदारी एवं पूंजी निवेश को बढ़ावा देना, निजी-सरकारी सहयोग, विदेशी शिक्षण संस्थाओं को प्रवेश देना, कॉलेज में प्रवेश के लिए अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा लेना आदि) तो मामला साफ हो जाता है। सरकार शिक्षा अधिकार कानून बनाने की रस्म-अदायगी करके देश में शिक्षा का मुक्त बाजार बनाना चाहती है। स्वयं श्री सिब्बल ने एक साक्षात्कार में कहा –
‘‘ डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 में अर्थव्यवस्था के लिए जो किया, मैं वह शिक्षा व्यवस्था के लिए करना चाहता हूं।’’ (द सण्डे इंडियन, 6-12 जुलाइZ 2009)
यह एक खतरनाक सोच व खतरनाक दिशा है। भारत के जनजीवन पर एक और हमला है। शिक्षा व स्वास्थ्य का बाजार एक विकृति है, मानव सभ्यता के नाम पर एक कलंक है। हमें समय रहते इसके प्रति सचेत होना पड़ेगा और इसका पूरी ताकत से विरोध करना होगा।
विकल्प क्या हो ?
यदि वास्तव में देश के सारे बच्चों को अच्छी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना है, तो सरकार को ऐसे कानून और ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिसमें निम्न बातें सुनिश्चित हों –
(1) देश में समान स्कूल प्रणाली लागू हो, जिसमें एक जगह के सारे बच्चे अनिवार्य रुप से एक ही स्कूल में पढ़ेंगे।
(2) शिक्षा के व्यवसायीकरण और शिक्षा में मुनाफाखोरी पर प्रतिबंध हो। जो निजी स्कूल फीस नहीं लेते हैं, परोपकार (न कि मुनाफे) के उद्देश्य से संचालित होते हैं, और समान स्कूल प्रणाली का हिस्सा बनने को तैयार हैं, उन्हें इजाजत दी जा सकती है।
(3) देश में विदेशी शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश पर रोक लगे। हम विदेशों से ज्ञान, शोध, शिक्षण पद्धतियों और शिक्षकों-विद्यार्थियों का आदान-प्रदान एवं परस्पर सहयोग कर सकते हैं,किन्तु अपनी जमीन पर खड़े होकर।
(4) शिक्षा में समस्त प्रकार के भेदभाव और गैरबराबरी समाप्त की जाए।
(5) पूर्व प्राथमिक से लेकर कक्षा 12 तक की शिक्षा का पूरा ख्रर्च सरकार उठाए। स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक, भवन, शौचालय, पेयजल, खेल मैदान, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शिक्षण सामग्री, खेल सामग्री, उपकरण, छात्रावास, छात्रवृत्तियों आदि की पूरी व्यवस्था के लिए सरकार जरुरी संसाधन उपलब्ध कराए।
(6) शिक्षकों को स्थायी नौकरी, पर्याप्त वेतन और प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाए। शिक्षकों से गैर-शिक्षणीय काम लेना बंद किया जाए। मध्यान्ह भोजन की जिम्मेदारी शिक्षकों को न देकर दूसरों को दी जाए। कर्तव्य-निर्वाह न करने वाले शिक्षकों पर कार्यवाही की जाए।¦
(7) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का वर्चस्व खतम किया जाए।
(8) स्कूलों का प्रबंध स्थानीय स्वशासन संस्थाओं द्वारा और जनभागीदारी से किया जाए।
(9) प्रतिस्पर्धा का गलाकाट एवं दमघोटूं माहौल समाप्त किया जाए। निजी कोचिंग संस्थाओं पर पाबंदी हो। प्रतिस्पर्धाओं के द्वारा विद्यार्थियों को छांटने के बजाय विभिन्न प्रकार की उच्च शिक्षा, प्रशिक्षण एवं रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराये जाएं।
(10) शिक्षा को मानवीय, आनंददायक, संपूर्ण, सर्वांगीण, बहुमुखी, समानतापूर्ण, एवं संवेदनशील बनाने के लिए शिक्षण पद्धति और पाठ्यचर्या में आवश्यक बदलाव किए जाएं। बस्ते का बोझ कम किया जाए। किताबी एवं तोतारटन्त शिक्षा को बदलकर उसे ज्यादा व्यवहारिक, श्रम एवं कौशल प्रधान, जीवन से जुड़ा बनाया जाए। बच्चों के भीतर जिज्ञासा, तर्कशक्ति, विश्लेषणशक्ति और ज्ञानपिपासा जगाने का काम शिक्षा करे। बच्चों के अंदर छुपी विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं व क्षमताओं को पहचानकर उनके विकास का काम शिक्षा का हो। शिक्षा की जड़ें स्थानीय समाज, संस्कृति, देशज परंपराओं और स्थानीय परिस्थितियों में हो। शिक्षा को हानिकारक विदेशी प्रभावों एवं सांप्रदायिक आग्रहों से मुक्त किया जाए। संविधान के लक्ष्यों के मुताबिक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रकि भारत के प्रबुद्ध एवं जागरुक नागरिक तथा एक अच्छे इंसान का निर्माण का काम शिक्षा से हो।
(लेखक सुनील राष्ट्रीय अध्यक्ष, समाजवादी जन परिषद् हैं)
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शिक्षा अधिकार विधेयक एक छलावा है
Posted in common school system, education bill, globalisation , privatisation, lohia, tagged शिक्षा का अधिकार, समान स्कूल प्रणाली, common school system, lohia, right to education, yashpal committee on जुलाई 1, 2009| 10 Comments »
एक आह्वान
शिक्षा अधिकार विधेयक एक छलावा है,
शिक्षा का बाजारीकरण एक विकृति है,
देश के सारे बच्चों को मुफ्त, समतापूर्ण, गुणवत्तापू्र्ण शिक्षा के संघर्ष
के लिए आगे आएं
लोकसभा चुनाव में दुबारा जीतकर आने के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के नए मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने कई घोषणाएं की हैं। अपने मंत्रालय का 100 दिन का कार्यक्रम जारी करते हुए उन्होंने शिक्षा व्यवस्था में अनेक प्रकार के सुधारों व बदलावों की मंशा जाहिर की है। उनकी घोषणाओं में प्रमुख हैं :-
शिक्षा में निजी-सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ावा देना, देश में विदेशी विश्वविद्यालयों को इजाजत देना, कक्षा 10वीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त करना, अंकों के स्थान पर ग्रेड देना, देश भर के कॉलेजों में दाखिला के लिए एक अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा लेना, व्यावसायिक शिक्षा के लिए बैंक ऋण में गरीब छात्रों को ब्याज अनुदान देना आदि। यशपाल समिति की सिफारिश को भी स्वीकार किया जा सकता है, जिसमें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, भारतीय चिकित्सा परिषद् आदि को समाप्त कर चुनाव आयोग की तर्ज पर ‘राष्ट्रीय उच्च शिक्षा एवं शोध आयोग’ बनाने का सुझाव दिया गया है। अचरज की बात है कि शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है, किन्तु श्री सिब्बल ने इन घोषणाओं के पहले राज्य सरकारों से परामर्श की जरुरत भी नहीं समझी।
इनमें से कुछ प्रावधान अच्छे हो सकते हैं, किन्तु कई कदम खतरनाक हैं और उन पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस की जरुरत है। इन घोषणाओं से प्रतीत होता है कि भारत सरकार और श्री कपिल सिब्बल भारत की शिक्षा की दुरावस्था से चिंतित हैं और उसको सुधारना चाहते हैं। लेकिन वास्तव में वे शिक्षा का निजीकरण एवं व्यवसायीकरण, शिक्षा में मुनाफाखोरी के नए अवसर खोलने, विदेशी शिक्षण संस्थाओं की घुसपैठ कराने, सरकारी शिक्षा व्यवस्था को और ज्यादा बिगाड़ने, साधारण बच्चों को शिक्षा से वंचित करने और देश के सारे बच्चों को शिक्षति करने की सरकार की जिम्मेदारी से भागने की तैयारी कर रहे हैं। इन कदमों का पूरी ताकत से विरोध होना चाहिए। साथ ही अब समय आ गया है कि देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए सरकारी संसाधनों से समान स्कूल प्रणाली पर आधारित मुफ्त, अनिवार्य व समता्पूर्ण शिक्षा के लिएश संघर्षको तेज किया जाए।
शिक्षा अधिकार विधेयक का पाखंड
‘बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिकार विधेयक’ संसद में काफी समय से लंबित है और इसका काफी विरोध हुआ है। वर्तमान स्वरुप में यह देश के बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने के बजाय छीनने का काम करता है। इस विधेयक में शिक्षा के बढ़ते निजीकरण, व्यवसायीकरण और बाजारीकरण पर रोक लगाने की कोई बात नहीं है। आज देश में शिक्षा की कई परतें बन गई हैं। जिसकी जैसी आर्थिक हैसियत है, उसके हिसाब से वह अपने बच्चों को उस स्तर के स्कूलों मे पढ़ा रहा है। सरकारी स्कूलों की हालत जानबूझकर इतनी खराब बना दी गई है कि उनमें सबसे गरीब साधनहीन परिवारों के बच्चे ही जा रहे हैं। ऐसी हालत में उनकी उपेक्षा और बदहाली और ज्यादा बढ़ गई है। इस दुष्चक्र और भेदभाव को तोड़ने के बजाय यह विधेयक और मजबूत करता है।
विश्वबैंक के निर्देशों के तहत, शिक्षा के बाजार को बढ़ावा देने के मकसद से, पिछले कुछ वर्षों से केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों ने जानबूझकर सरकारी शिक्षा व्यवस्था बिगाड़ने का काम किया है। पहले तो देश के सारे बच्चों को स्कूली शिक्षा प्रदान करने के संवैधानिक निर्देश को पूरा करने के बजाय साक्षरता अभियान, औपचारिकेतर शिक्षा व शिक्षा गारंटी शालाओं के नाम पर सरकार ने अपनी जिम्मेदारी टालने की कोशिश की। फिर स्कूलों व कॉलेजों में स्थायी-प्रशिक्षित शिक्षकों के स्थान पर पैरा-शिक्षकों की नियुक्तियां शुरु कर दी,जो अस्थायी व अप्रशिक्षित होते हैं और जिन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है। इसी के साथ प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षकों की कामचलाऊ नियुक्ति को भी वैधानिक स्वीकृति दे दी गई, जिसका मतलब है कि एक शिक्षक दो, तीन, चार या पांच कक्षाएं एक साथ पढ़ाएगा। देश के साधारण गरीब बच्चों को इस लायक भी सरकार ने नहीं समझा कि एक कक्षा के लिए कम से कम एक शिक्षक मुहैया कराया जाए। सरकारी शिक्षकों को तमाम तरह के गैर-शैक्षणिक कामों में लगाने पर भी रोक इस विधेयक में नहीं लगाई गई है, जिसका मतलब है सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का और ज्यादा अभाव एवं ज्यादा गैरहाजिरी। चूंकि निजी स्कूलों के शिक्षकों को इस तरह की कोई ड्यूटी नहीं करनी पड़ती है, सरकारी स्कूलों में जाने वाले साधारण गरीब बच्चों के प्रति भेदभाव इससे और मजबूत होता है। निजी स्कूलों के साधन-संपन्न बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा में इससे वे और कमजोर पड़ते जाते हैं।
निजी स्कूल कभी भी देश के सारे बच्चों को शिक्षा देने का काम नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उनकी फीस चुकाने की क्षमता सारे लोगों में नहीं होती है। शिक्षा का निजीकरण देश में पहले से मौजूद अमीर-गरीब की खाई को और ज्यादा मजबूत करेगा तथा करोड़ों बच्चों को शिक्षा से वंचित करने का काम करेगा। देश के सारे बच्चों को शिक्षति करने के लिए सरकार को ही आगे आना पड़ेगा व जिम्मेदारी लेनी होगी। लेकिन सरकार ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को इस चुनौती के अनुरुप फैलाने, मजबूत करने और बेहतर बनाने के बजाय लगातार उल्टे बिगाड़ा है व उपेक्षति-वंचित किया है। सरकारी स्कूलों की संख्या में जरुर वृद्धि हुई है, स्कूलों में नाम दर्ज बच्चों की संख्या भी 90-95 प्रतिशत तक पहुंचने का दावा किया जा रहा है, किन्तु इस कुव्यवस्था, घटिया शिक्षा, अनुपयुक्त व अरुचिपू्र्ण शिक्षा पद्धति, खराब व्यवहार एवं गरीबी की परिस्थितियों के कारण आधे से भी कम बच्चे 8 वीं कक्षा तक पहुंच पाते हैं। इसलिए शिक्षा के अधिकार की कोई भी बात करने के पहले देश की सरकारी शिक्षा व्यवस्था को सार्थक, संपूर्ण, सुव्यवस्थित व सर्वसुविधायुक्त बनाना जरुरी है। जो सरकार उल्टी दिशा में काम कर रही है, और जानबूझकर सरकारी स्कूल व्यवस्था को नष्ट करने का काम कर रही हैं, उसके द्वारा शिक्षा अधिकार विधेयक संसद में पास कराने की बात करना एक पाखंड है और आंखों में धूल झोंकने के समान है।
समान स्कूल प्रणाली एकमात्र विकल्प
देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, इसके लिए यह भी जरुरी है कि देश में कानून बनाकर पड़ोसी स्कूल पर आधारित समान स्कूल प्रणाली लागू की जाए। इसका मतलब यह है कि एक गांव या एक मोहल्ले के सारे बच्चे (अमीर या गरीब, लड़के या लड़की, किसी भी जाति या धर्म के) एक ही स्कूल में पढ़ेंगे। इस स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाएगी और सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएगी। यह जिम्मेदारी सरकार की होगी और शिक्षा के सारे खर्च सरकार द्वारा वहन किए जाएंगे। सामान्यत: स्कूल सरकारी होगें, किन्तु फीस न लेने वाले परोपकारी उद्देश्य से (न कि मुनाफा कमाने के उद्देश्य से) चलने वाले कुछ निजी स्कूल भी इसका हिस्सा हो सकते हैं। जब बिना भेदभाव के बड़े-छोटे, अमीर-गरीब परिवारों के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ेगें तो अपने आप उन स्कूलों की उपेक्षा दूर होगी, उन पर सबका ध्यान होगा और उनका स्तर ऊपर उठेगा। भारत के सारे बच्चों को शिक्षित करने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। दुनिया के मौजूदा विकसित देशों में कमोबेश इसी तरह की स्कूल व्यवस्था रही है और इसी तरह से वे सबको शिक्षति बनाने का लक्ष्य हासिल कर पाए हैं। समान स्कूल प्रणाली का प्रावधान किए बगैर शिक्षा अधिकार विधेयक महज एक छलावा है।
इस विधेयक में और कई कमियां हैं। यह सिर्फ 6 से 14 वर्ष की उम्र तक (कक्षा 1 से 8 तक) की शिक्षा का अधिकार देने की बात करता है। इसका मतलब है कि बहुसंख्यक बच्चे कक्षा 8 के बाद शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। कक्षा 1 से पहले पू्र्व प्राथमिक शिक्षा भी महत्वपू्र्ण है। उसे अधिकार के दायरे से बाहर रखने का मतलब है सिर्फ साधन संपन्न बच्चों को ही केजी-1, केजी-2 आदि की शिक्षा पाने का अधिकार रहेगा। शुरुआत से ही भेदभाव की नींव इस विधेयक द्वारा डाली जा रही है।
शिक्षा अधिकार विधेयक में निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों का आरक्षण गरीब बच्चों के लिए करने का प्रावधान किया गया है और उनकी ट्यूशन फीस का भुगतान सरकार करेगी। किन्तु महंगे निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा कई तरह के अन्य शुल्क लिए जाते हैं, क्या उनका भुगतान गरीब परिवार कर सकेगें ? क्या ड्रेस, कापी-किताबों आदि का भारी खर्च वे उठा पाएंगे ? क्या यह एक ढकोसला नहीं होगा ? फिर क्या इस प्रावधान से गरीब बच्चों की शिक्षा का सवाल हल हो जाएगा ? वर्तमान में देश में स्कूल आयु वर्ग के 19 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से लगभग 4 करोड़ निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। मान लिया जाए कि इस विधेयक के पास होने के बाद निजी स्कूलों में और 25 प्रतिशत यानि 1 करोड़ गरीब बच्चों का दाखिला हो जाएगा, तो भी बाकी 14 करोड़ बच्चों का क्या होगा ? इसी प्रकार जब सरकार गरीब प्रतिभाशाली बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय, कस्तूरबा कन्या विद्यालय, उत्कृष्ट विद्यालय और अब प्रस्तावित मॉडल स्कूल खोलती है, तो बाकी विशाल संख्या में बच्चे और ज्यादा उपेक्षति हो जाते है। ऐसी हालत में, देश के हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार देने की बात महज एक लफ्फाजी बनकर रह जाती है।
शिक्षा का मुक्त बाजार ?
वास्तव में नवउदारवादी रास्ते पर चल रही भारत सरकार देश में शिक्षा का मुक्त बाजार बनाने को प्रतिबद्ध है और उसी दिशा में आगे बढ़ रही है। शिक्षा में सरकारी-निजी भागीदारी का मतलब व्यवहार में यह होगा कि या तो नगरों व महानगरों की पुरानी सरकारी शिक्षण संस्थाओं के पास उपलब्ध कीमती जमीन निजी हाथों के कब्जे में चली जाएगी या फिर प्रस्तावित मॉडल स्कूलों में पैसा सरकार का होगा, मुनाफा निजी हाथों में जाएगा। निजीकरण के इस माहौल में छात्रों और अभिभावकों का शोषण बढ़ता जा रहा है। बहुत सारी घटिया, गैरमान्यताप्राप्त और फर्जी शिक्षण संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। दो-तीन कमरों में चलने वाले कई निजी विश्वविद्यालय आ गए हैं और कई निजी संस्थानों को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया है। कोचिंग और ट्यूशन का भी बहुत बड़ा बाजार बन गया है। बड़े कोचिंग संस्थान तो करोड़ों की कमाई कर रहे है। अभिभावकों के लिए अपने बच्चों को पढ़ाना व प्रतिस्पर्धामें उतारना दिन-प्रतिदिन महंगा व मुश्किल होता जा रहा है। गरीब और साधारण हैसियत के बच्चों के लिए दरवाजे बंद हो रहे है।
यदि कपिल सिब्बल की चलेगी तो अब कॉलेज में दाखिले के लिए भी अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा होगी। इससे कोचिंग का बाजार और बढ़ेगा तथा साधारण हैसियत के युवाओं के लिए कॉलेज शिक्षा के दरवाजे भी बंद होने लगेगें। आत्महत्याओं व कुंठा में और बढ़ोत्तरी होगी। विडंबना यह है कि बच्चों का परीक्षा का तनाव कम करने की बात करने वाले सिब्बल साहब को गलाकाट प्रतिस्पर्धाओं और कोचिंग कारोबार के दोष नहीं दिखाई देते। महंगी निजी शिक्षा के लिए उनका फार्मूला है शिक्षा ऋण तथा गरीब विद्यार्थियों के लिए इस ऋणमें ब्याज अनुदान। लेकिन बहुसंख्यक युवाओं की कुंठा, वंचना और हताशा बढ़ती जाएगी।
यदि देश के दरवाजे विदेशी शिक्षण संस्थाओं और विदेशी विश्वविद्यालय के लिए खोल दिए गए, तो बाजार की यह लूट व धोखाधड़ी और बढ़ जाएगी। यह उम्मीद करना बहुत गलत एवं भ्रामक है कि दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय भारत में आने को तत्पर है और इससे देश में शिक्षा का स्तर बढ़ेगा। वास्तव में घटिया, चालू और मुनाफे व कमाई की खोज में बैचेन विश्वविद्यालय व शिक्षण संस्थान ही आएंगे। देश के जनजीवन के लगभग हर क्षेत्र को विदेशी कंपनियों के मुनाफे के लिए खोलने के बाद अब शिक्षा, स्वास्थ्य, मीडिया आदि के बाकी क्षेत्रों को भी विदेशी कंपनियों के लूट व मुनाफाखोरी के हवाले करने की यह साजिश है। यह सिर्फ आर्थिक लूट ही नहीं होगी। इससे देश के ज्ञान-विज्ञान, शोध, चिन्तन, मूल्यों और संस्कृति पर भी गहरा विपरीत असर पड़ेगा। इसका पूरी ताकत से प्रतिरोध करना जरुरी है।
स्वतंत्र आयोग या निजीकरण का वैधानीकरण ?
यशपाल समिति की पूरी रिपोर्ट का ब्यौरा सामने नहीं आया है। उच्च शिक्षा की बिगड़ती दशा के बारे में उसकी चिंता जायज है। डीम्ड विश्वविद्यालयों की बाढ़ के बारे में भी उसने सही चेतावनी दी है। किन्तु यू.जी.सी., अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, भारतीय चिकित्सा परिषद् आदि समाप्त करके उनके स्थान पर चुनाव आयोग जैसा स्वतंत्र एवं स्वायत्त ‘उच्च शिक्षा एवं शोध आयोग’ बनाने के सुझाव पर सावधानी की जरुरत है। पिछले कुछ समय में, विश्व बैंक के सुझाव पर अनेक प्रांतो में विद्युत नियामक आयोग एवं जल नियामक आयोग बनाए गए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर दूरसंचार व बीमा के लिए भी इस तरह के आयोग बने हैं। दरअसल ये सारे आयोग निजीकरण के साथ आए हैं। जब तक सब कुछ सरकार के हाथ में था, आयोग की जरुरत नहीं थी। यह कहा जाता है कि ये आयोग सरकार से स्वतंत्र एवं स्वायत्त होते हैं और राजनीतिक प्रभाव से मुक्त होते हैं। लेकिन विश्वबैंक और देशी-विदेशी कंपनियों का प्रभाव उन पर काम करता रहता है। कम से कम बिजली और पानी के बारे में इन आयोगों की भूमिका निजीकरण की राह प्रशस्त करना, उसे वैधता देने और बिजली-पानी की दरों को बढ़ाने की रही है। उन्हें राजनीति से अलग रखने के पीछे मंशा यह भी है कि जन असंतोष और जनमत का दबाब उन पर न पड़ जाए। उच्च शिक्षा और स्कूली शिक्षा के बारे में इस तरह के आयोगों की भूमिका भी निजीकरण को वैधता प्रदान करने की हो सकती है, जबकि जरुरत शिक्षा के निजीकरण को रोकने व समाप्त करने की है। अफसोस की बात है कि यशपाल समिति ने उच्च शिक्षा के निजीकरण और विदेशी संस्थानों के घुसपैठ का स्पष्ट विरोध नहीं किया है।
आइए, आठ सूत्री देशव्यापी मुहिम छेड़ें
शिक्षा का बाजार एक विकृति है। बच्चों में शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण में भेदभाव करना
आधुनिक सभ्य समाज पर कलंक के समान है। देश के सारे बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना हमारा संवैधानिक दायित्व है। भारतीय संविधान में इस काम को 10 वषZ में पूरा करने के निर्देश दिए गए थे। लेकिन छ: दशक में भी इसे पूरा न करके भारत की सरकारों ने भारत की जनता, देश और संविधान के प्रति अक्षम्य अपराध किया है। अब सरकार जो कदम उठा रही हैं,उससे यह लक्ष्य और दूर हो जाएगा। समय आ गया है कि इस मामले में देश भर में मुहिम चलाकर भारत सरकार पर दबाब बनाया जाए कि –
1. शिक्षा के निजीकरण, व्यवसायीकरण और मुनाफाखोरी को तत्काल रोका जाए और इस दिशा में उठाए गए सारे कदम वापस लिए जाएं।
2. शिक्षा में विदेशी शिक्षण संस्थानों के प्रवेश पर रोक लगे।
3. शिक्षा में सभी तरह के भेदभाव और गैरबराबरी खतम की जाए। समान स्कूल प्रणाली पर आधारित मुफ्त, अनिवार्य एवं समतामूलक शिक्षा की व्यवस्था देश के सारे बच्चों के लिए अविलंब की जाए।
4. सरकारी स्कूलों में पर्याप्त संख्या में स्थायी व प्रशिक्षति शिक्षक नियुक्त किए जाएं और उन्हें सम्मानजनक वेतन दिए जाएं। स्कूलों में भवन, पाठ्य-पुस्तकों, पाठ्य सामग्री, खेल सामग्री, खेल मैदान, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शिल्प-शिक्षण, छात्रवृत्तियों, छात्रावास आदि की पर्याप्त एवं समुचित व्यवस्था हो। सुविधाओं व स्तर की दृष्टि से प्रत्येक स्कूल को केन्द्रीय विद्यालय या नवोदय विद्यालय के समकक्ष लाया जाए।
5. ‘शिक्षा का अधिकार विधेयक’ के मौजूदा प्रारुप को तत्काल वापस लेकर उक्त शर्तोंको पूरा करने वाला नया विधेयक लाया जाए। विधेयक के मसौदे पर पूरे देश में जनसुनवाई की जाए एवं चर्चा-बहस चलाई जाए।
6. शिक्षा की जिम्मेदारी से भागना बंद करके सरकार शिक्षा के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए। कोठारी आयोग एवं तपस सेनगुप्ता समिति की सिफारिश के मुताबिक कम से कम राष्ट्रीय आय के छ: प्रतिशत के बराबर व्यय सरकार द्वारा शिक्षा पर किया जाए।
7. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। शिक्षा, प्रशासन एवं सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का वर्चस्व गुलामी की विरासत है। इसे तत्काल समाप्त किया जाए।
8. मैकाले द्वारा बनाया शिक्षा का मौजूदा किताबी, तोतारटन्त, श्रम के तिरस्कार वाला, जीवन से कटा, विदेशी प्रभाव एवं अंग्रेजी के वर्चस्व वाला स्वरुप बदला जाए। इसे आम लोगों की जरुरतों के अनुसार ढाला जाए एवं संविधान के लक्ष्यों के मुताबिक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रकि एवं प्रगतिशील भारत के निर्माण के हिसाब से बनाया जाए। हर बच्चे के अंदर छुपी क्षमताओं व प्रतिभाओं के विकास का मौका इससे मिले।
लगभग इसी तरह के मुद्दों व मांगो को लेकर 21-22 जून को एक राष्ट्रीय सेमिनार में अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच का गठन हुआ है, जिसकी ओर से जुलाई में संसद पर प्रदर्शन की तैयारी की जा रही है। अखिल भारतीय समाजवादी अध्यापक सभा द्वारा भी काफी समय से इन मुद्दों पर मुहिम चलाई जा रही है जिसका समापन 25 अक्टूबर 2009 को दिल्ली मे राजघाट पर होगा।
कृपया आप भी अपने क्षेत्र में व अपनी इकाइयों में इन मुद्दों व मांगो पर तत्काल कार्यक्रम लें। आप गोष्ठी, धरने, प्रदर्शन, ज्ञापन, परचे वितरण, पोस्टर प्रदर्शनी आदि का आयोजन कर सकते हैं। स्थानीय स्तर पर शिक्षकों, अभिभावकों, विद्या्र्थियों, जागरुक नागरिकों व अन्य जनसंगठनों के साथ मिलकर ‘शिक्षा अधिकार मंच’ का गठन भी कर सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि यह वर्ष प्रखर समाजवादी नेता डॉ० राममनोहर लोहिया का जन्मशताब्दी वर्ष है। उनके नेतृत्व में पचास साल पहले ही समाजवादी आंदोलन ने मुफ्त और समान शिक्षा का आंदोलन छेड़ा था तथा अंग्रेजी के वर्चस्व का विरोध किया था। ‘चपरासी हो या अफसर की संतान, सबकी शिक्षा एक समान’ तथा ‘चले देश में देशी भाषा, गांधी-लोहिया की यह अभिलाषा’ के नारे देते हुए शिक्षा में भेदभाव समाप्त करने का आह्वान किया था। डॉ. लोहिया की जन्मशताब्दी पर उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी कि इस आवाज को हम फिर से पूरी ताकत से बुलंद करें।
सुनील
राष्ट्रीय अध्यक्ष
समाजवादी जन परिषद्
ग्राम/पोस्ट – केसला
जिला होशंगाबाद
फोन 09425040452