Archive for the ‘environment’ Category
इस बुरे वक्त में / राजेन्द्र राजन
Posted in bio-terror, chernobyl, environment, globalisation, industralisation, rajendra rajan, tagged कविता, नोवल करोना, बुरा वक्त, राजेन्द्र राजन on अप्रैल 25, 2020| Leave a Comment »
परमाणु ऊर्जा, जन व पर्यावरण का विनाश और मोदी सरकार/कुमार सुन्दरम /सामयिक वार्ता
Posted in climate change, energy, environment, nuclear power, Uncategorized, tagged कुमार सुन्दरम, जापान, नरेन्द्र मोदी, फ्रान्स, सामयिक वार्ता, kumar sundaram, narendra modi on फ़रवरी 4, 2016| Leave a Comment »
यूपीए सरकार के दौरान अमेरिका से परमाणु डील और परमाणु दायित्व क़ानून के प्रावधानों को देसी-विदेशी निवेशकों के हित में मोड़ने का भले ही भाजपा विपक्ष में रहने के दौरान दस सालों तक विरोध करती रही हो, मोदी सरकार ने इस मुद्दे पर अपनी पारी ठीक वहीं से शुरू की जहां मनमोहन सिंह ने छोड़ी थी. सत्तासीन होने के कुछ ही हफ़्तों बाद मोदी सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के अतिरिक्त प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किया और फिर जल्दी ही देश के परमाणु-विरोधी समूहों और कार्यकर्ताओं को देशद्रोही बताने वाली आईबी रिपोर्ट जारी की गयी, जिसमें अणुमुक्ति समूह से लेकर सीएनडीपी सहित तमाम समूह शामिल थे. इसके साथ ही प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ जिसमें लगभग हर देश के साथ परमाणु संधि किसी तमगे की तरह शामिल रहती है.
फुकुशिमा दुर्घटना के बाद जहां पूरी दुनिया में विभिन्न देशों ने परमाणु ऊर्जा से तौबा कर ली है, भारत ने अंतर्राष्ट्रीय लॉबियों के दबाव में अँधेरे कुएं में छलांग लगाने की नीति अपनाई है. नए साल में, एक बार फिर 26 जनवरी को जो कि देश की संप्रभुता का उत्सव होता है, फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांदे मुख्य अतिथि होंगे और फ्रांस से परमाणु डील आगे बढ़ाई जाएगी. दिसम्बर में जब नरेंद्र मोदी रूस गए तो वहाँ भी उन्होंने राष्ट्रपति पुतिन के साथ परमाणु डील की जिसके तहत कूडनकुलम में अणु बिजलीघरों की संख्या बढ़ाई जाएगी. 2015 में इस रास्ते में निर्णायक मोड़ आए. साल की शुरूआत में 26 जनवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की यात्रा के दौरान मोदी सरकार ने उनको यह आश्वासन दिया कि किसी दुर्घटना की स्थिति में अमेरिकी कंपनियों को जवाबदेह ठहराने और उनसे मुआवजा माँगने के बजाय भारत सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनियों के माध्यम से उनका मुआवजा भारतीय जनता के पैसों से चुकाएगी. और साल के अंत में जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे की यात्रा के दौरान भारत-जापान परमाणु समझौते के लिए एक एमओयू पर हस्ताक्षर किया गया जिसका भारत भर में किसानों-मछुआरों और नागरिक समूहों ने विरोध किया, उनके समर्थन में जापान में लोग सडकों पर उतरे तथा दुनिया के कई दूसरे देशों में अणुविरोधी कार्यकर्ताओं ने जापानी दूतावास के दौरान प्रदर्शन किया.
भारत और जापान के बीच यह समझौता इसी वजह से काफी महत्वपूर्ण है कि यह दरअसल 2005 में हुए भारत-अमेरिका परमाणु समझौते का बचा हुआ टुकड़ा है. उस समझौते के दस साल बाद भी अमेरिकी कंपनियों – वेस्टिंगहाउस तथा जेनेरल इलेक्ट्रिक(जीई), और फ्रांसीसी कंपनी अरेवा के अणुबिजली प्रोजेक्ट भारत की ज़मीन पर अटके पड़े हैं तो इसका एक बड़ा कारण भारत और जापान के बीच अब तक परमाणु समझौता न होना है. दोनों बड़ी अमेरिकी परमाणु कंपनियों में इस बीच जापानी शेयर बढ़े हैं और वेस्टिंगहाउस का नाम अब वेस्टिंगहाउस-तोशिबा है और जीई अब जीई हिताची है. बाज़ार में हुए इस बड़े बदलाव ने भारत और अमेरिका की राजनीतिक संधि के सामने समस्या खडी कर दी है. फ्रेंच कंपनी अरेवा के डिज़ाइन में एक बिलकुल ही ज़रूरी पुर्जा – रिएक्टर का प्रेशर वेसल – सिर्फ जापानी कम्पनियां बनाती हैं और उसके लिए भी जापान से भारत का कानूनी करार ज़रूरी है.
लेकिन इस डील को लेकर जापान पर अमेरिका और फ्रांस का दबाव बना हुआ है इसलिए इसको परवान चढाने की कोशिश तो जारी रहेगी. साथ ही, अपने व्यापक प्रभावों के कारण इस डील का बड़े पैमाने पर विरोध भी बना रहेगा. शिंजो आबे की भारत यात्रा के ठीक एक दिन पहले हिरोशिमा और नागासाकी के दोनों मेयर एक साथ आए और प्रेस कांफ्रेंस कर के इस डील का विरोध किया. जापानी राजनीतिक सिस्टम के लिए यह एक असाधारण घटना थी. इसके अलावा, परमाणु दुर्घटना की विभीषिका झेल रहे फुकुशिमा के मेयर कात्सुताका इदोगावा ने भी परमाणु समझौते का मुखर विरोध किया. जापान की कम्यूनिस्ट पार्टी और अन्य विपक्षी दलों ने भी इस समझौते का विरोध किया.
शिंजो आबे जिस हफ्ते भारत आए उसी सप्ताह में फुकुशिमा से यह खबर आई की दुर्घटना के चार साल 9 महीने बाद बीस किलोमीटर के दायरे में खतरनाक रेडियोधर्मी कचरे के कुल नब्बे लाख बड़े-बड़े थैले पसरे हुए हैं, जिसको निपटाने के लिए न कोई जगह है न तकनीक क्योंकि परमाणु विकिरण हज़ारों सालों तक रहता है. फुकुशिमा प्लांट अभी भी नियंत्रण से बाहर है और अत्यधिक तापमान को ठंडा रखने के लिए पिछले पांच सालों से प्रतिदिन सौ टन से अधिक पानी काफी दूर से डाला जा रहा है, जो अति-विषाक्त होकर वापस आता है और जापानी सरकार और टेप्को कंपनी के लिए सरदर्द बना हुआ है. इन पांच सालों में हज़ारों टन ऐसा पानी विशालकाय टैंकों में जमा हो रहा है क्योंकि इसे समुद्र में सीधा छोड़ना पूरे प्रशांत महासागर को विषैला बना देगा. फिर भी, बरसात के मौसम में चुपके से कंपनी द्वारा काफी विकिरण-युक्त जहरीला पानी समुद्र में छोड़ने का खुलासा हुआ है.
एक तरफ फुकुशिमा के दुर्घटनाग्रस्त संयंत्र पर काबू नहीं पाया जा सका है तो दूसरी तरफ कम से कम दो लाख लोग जापान जैसे सीमित भूभाग वाले इलाके में बेघर हैं, जिनको सहयोग और मुआवजा देने से सरकार और कंपनी दोनों मुंह मोड़ चुके हैं. इस हालत में, जापान का भारत को परमाणु तकनीक बेचना पूरी तरह अनैतिक है और दरअसल अपने उन परमाणु कारपोरेटों को ज़िंदा रखने की कोशिश का नतीजा है जिनके सारे संयंत्र फुकुशिमा के बाद से पूरे जापान में जन-दबाव में बंद हैं और वे अपना घाटा नहीं पूरा कर पा रहे हैं.
दूसरी तरफ, भारत में परमाणु बिजलीघरों के बेतहाशा निर्माण से लाखों किसानों और मछुआरों की ज़िंदगी तबाह हो रही है और यह परमाणु डील उनके लिए बेहद बुरी खबर है. किसानों की प्राथमिक चिंता तो ज़मीन छीने जाने को लेकर है लेकिन जिन गाँवों की ज़मीन नहीं भी जा रही उनको भी परमाणु बिजलीघरों से बिना दुर्घटना के भी सामान्यतः निकालने वाले विकिरण-युक्त गैस और अन्य अपशिष्टों से बीमारियों का खतरा है, जैसा दुनिया के सभी मौजूदा परमाणु कारखानों के मामले में दर्ज किया गया है. जैतापुर के नजदीक घनी आबादी वाले मछुआरों के गाँव हैं और परमाणु बिजली घर से निकालने वाला गरम पानी आस-पास के समुद्र का तापमान 5 से 7 डिग्री बढ़ा देगा जिससे उनको मिलने वाली मछलियाँ उस इलाके से लुप्त हो जाएँगी. इसके साथ ही भारत में परमाणु खतरे की आशंका भी निर्मूल नहीं है. परमाणु सेक्टर के पूरी तरह गोपनीय और गैर-जवाबदेह होने और आम तौर पर दुर्घटनाओं से निपटने में सरकारी तंत्र की नाकामी के कारण पहले से ही खतरनाक परमाणु संयंत्र भारत आने पर और ज़्यादा खतरनाक हो जाते हैं. परमाणु उत्तरदायित्व मामले पर सरकार और आपूर्तिकर्ता कारपोरेटों के रुख से तो यही पता चलता है कि उनको अपने ही बनाए उत्पादों की सुरक्षा का भरोसा नहीं है और पूरी मीडिया का इस्तेमाल कर के वे जिन संयंत्रों की सुरक्षा का दावा कर रहे हैं और साधारण लोगों को अपनी सुरक्षा दांव पर लगाने को कह रहे हैं, खुद अपना पैसा तक मुआवजे की राशि के बतौर दांव पर रखने को तैयार नहीं हैं.
इसी महीने पेरिस में हुए जलवायु परिवर्तन पर ग्लोबल बैठक (COP21) में भी भारत समेत अन्य सरकारों ने परमाणु ऊर्जा को कार्बन-विहीन और हरित बताकर समस्या की बजाय समाधान का हिस्सा बताने की कोशिश की है और दुनिया भर में परमाणु लौबी की कोशिश है कि इस बहाने विस्तार किया जाए. लेकिन यह तर्क कई स्तरों पर विरोधाभास से भरा हुआ है. एक तो जैतापुर में परामाणु प्लांट लगाने के लिए भारत की सबसे ख़ूबसूरत और पर्यावरणीय दृष्टी से नाज़ुक कोंकण इलाके के पूरे पारिस्थितिक और वनस्पति तंत्र को खुद परमाणु कारखाना बरबाद कर रहा है, और इसके लिए सरकार ने बिलकुल फर्जी तरीके से पर्यावरणीय मंजूरी हासिल की है. दूसरे, वैसे भी परमाणु कारखानों के निर्माण से लेकर युरेनियम ईंधन के खनन, परिवहन और सैंकड़ों साल तक परमाणु कचरे के निस्तारण में कार्बन-उत्सर्जी प्रक्रियाओं का इस्तेमाल होता है जिनको परमाणु लौबी अपने कार्बन छाप (footprint) में नहीं गिनती.
दिसंबर में जापानी परधानमंत्री जैसे नरेंद्र मोदी के लिए सांता क्लॉज़ बन के आए थे. बुलेट ट्रेन, लड़ाकू नौसेनिक विमान, औद्योगिक गलियारे के लिए निवेश और भारत-जापान परमाणु समझौता. भारतीय मीडिया को ज़्यादा तरजीह देने लायक मामले बुलेट ट्रेन और बनारस में शिंजो आबे की गंगा आरती ही लगे, लेकिन इसी बीच परमाणु समझौते को भी मुकम्मल घोषित कर दिया गया. हिन्दुस्तान टाइम्स के विज्ञान व अंतर्राष्ट्रीय मामलों के प्रभारी पत्रकार परमीत पाल चौधरी ने अपने सरकारी स्रोतों के हवाले से इस परमाणु डील को फाइनल करार दे दिया और यह भी खबर दी कि अमेरिकी कंपनी वेस्टिंगहाउस अब रास्ता साफ़ होने के बाद 1000 मेगावाट क्षमता के 6 परमाणु बिजली कारखाने बेचने का मसौदा लेकर तैयार है.
लेकिन भारत में मीडिया और सरकार के दावों के विपरीत, परमाणु समझौता अभी संपन्न नहीं हुआ है. भारत और जापान की साझा घोषणा में परमाणु मसले पर सैद्धांतिक सहमति का उल्लेख है और इसके लिए एक एमओयू पर हस्ताक्षर होने की सूचना है. यह एमओयू भारतीय सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया है लेकिन जापान में इसे साझा किया गया है. यह एमओयू दो लम्बे वाक्यों की घोषणा भर है जिसमें समझौता शब्द तीन बार आता है – हमने द्वीपक्षीय समझते के लिए समझौता कर लिया है ताकि निकट भविष्य में समझौता हो पाए. यह एमओयू परमाणु डील को दोनों तरफ के अधिकारियों के हवाले कर देता है, जिससे भारतीय मीडिया ने अपने हिसाब से यह अर्थ निकाला कि शीर्ष स्तर समझौता हो गया और बाकी ब्योरों पर काम होना भर बचा है. जबकि जापानी मीडिया और राजनीतिक गलियारों में स्थिति बिलकुल उलटी है. भारत के साथ परमाणु डील जापान की पारंपरिक अंतर्राष्ट्रीय नीति से मेल नहीं खाता क्योंकि जापान हिरोशिमा के बाद परमाणु निरस्त्रीकरण का पैरोकार रहा है और परमाणु अप्रसार संधि(एनपीटी) से बाहर के देशों से परमाणु तकनीक का लेन-देन नहीं करता. जापान के विदेश-मंत्रालय और नीति अधिष्ठान में पिछले दस सालों से इस बात को लेकर एक मजबूत अंदरूनी अस्वीकार्यता रही है और कयास यही लगाए जा रहे थे कि अगर डील हो पाती है तो विदेश मंत्रालय और इसके अधिकारियों को किनारे रखकर जापान के दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री शिंजो आबे के व्यक्तिगत दबाव में ही होगी. इस डील की जद्दोजहद को वापस मंत्रालय तक पहुँचने को जापान में एक कदम पीछे जाना समझा जा रहा है. लेकिन मोदी जी के भारत में अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धियों का ढोल पीटने से कौन रोक सकता है.
परमाणु ऊर्जा का सच
जैतापुर या कूडनकुलम का आंदोलन हो या भारत-जापान परमाणु समझौते के खिलाफ इस हफ्ते होने वाला देशव्यापी आंदोलन, इन सभी मौकों पर देश के शहरी मध्यवर्ग और उसके साथ-साथ मीडिया से लेकर अदालतों तक सबका रुख यही रहता है कि विस्थापन, पर्यावरण और सुरक्षा के सवाल तो अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन भारत को बिजली तो चाहिए।विकास तो चाहिए। देश के लिए विकास, विकास के लिए बेतहाशा बिजली और बिजली के लिए अणु-बिजलीघर, इन तीनों कनेक्शनों को बिना किसी बहस के सिद्ध मान लिया गया है और आप इस तर्क की किसी भी गाँठ को दूसरी सूचनाओं-परिप्रेक्ष्यों से खोलने की कोशिश करते हैं तो राष्ट्रद्रोही करार दे दिए जाते हैं.
2011 के मार्च में फुकुशिमा दुर्घटना हुई और जब बीबीसी ने साल के अंत में एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वे कराया तो यह पाया कि पूरी दुनिया में दुर्घटना के बाद अणुऊर्जा को लेकर आम धारणा बदली है और परमाणु ऊर्जा को लेकर जनसमर्थन न्यूनतम स्तर पर पहुँच गया है. फुकुशिमा में जो हुआ, और अब भी हो रहा है, वह पूरी दुनिया की आँखें खोलने वाला साबित हुआ है और पिछले पांच सालों में कई देशों ने अपनी ऊर्जा नीति में आमूलचूल बदलाव किए हैं. जर्मनी, ऑस्ट्रिया, स्वीडन और स्विट्ज़रलैंड जैसे देशों ने पूरी तरह परमाणु-मुक्त ऊर्जानीति बनाई है तो फ्रांस ने जिसकी 75% बिजली अणुऊर्जा से आती है, इसको तत्काल 50% तक लाने की घोषणा कर दी है और वहाँ क्रमशः इसे और कम किया जाएगा।लेकिन इसी दौरान भारत के सुदूर दक्षिणी छोर पर कूडनकुलम में स्थानीय लोगों का आंदोलन चल रहा था, और भारत की सरकार ने ग्रामीणों के सवालों को वाजिब मानकर उनसे बात करने की बजाय मनोवैज्ञानिक चिकित्सकों का एक दल देश के सबसे प्रसिद्ध मनोचिक्त्सा संस्थान से भेजा!
जब इन काउंसिलरों से बात नहीं बनी तो हज़ारों पुलिस और अर्द्धहसैनिक बल भेजे गए और जल्दी ही पूरे गाँव को घेर कर उसका खाना-पानी-यातायात सब हफ्ते भर काट दिया गया, लोगों को पुलिस ने घर में घुसकर पीटा और उनकी नावें तोड़ दीं, और मनमोहन सिंह सरकार ने उस उलाके के आठ हज़ार से अधिक लोगों के ऊपर देशद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया। बर्बर सरकारी दमन में चार लोग मारे गए और औरतों समेत सैंकड़ों स्थानीय लोग महीनों तक जेल में ठूंस दिए गए. मछुआरों की शांतिपूर्ण रैली को पुलिस ने खदेड़कर समुद्र में धकेल दिया जहां उनके ऊपर नौसेना के विमान मंडरा रहे थे. किसी सरकार ने अपने ही लोगों के खिलाफ ऐसा खुला युद्ध लड़ा हो, इसकी मिसालें कम ही मिलती हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी कूडनकुलम केस में उठाए गए आठ छोटे और ठोस सवालों – जिनका सम्बन्ध इस परियोजना में पर्यावरण और सुरक्षा नियमों की घातक अवहेलना से था – पर कुछ नहीं कहा और जजों ने 250 पन्नों के फैसले में बार-बार सिर्फ यही दुहराया कि देश को विकास और ऊर्जा की ज़रुरत है. और इस आधार पर अणुऊर्जा विभाग को सादा चेक दे दिया, जैसे परमाणु ऊर्जा अगर ज़रूरी हो तब खुद सरकारी सुरक्षा मानकों की खुली अवहेलना भी वाजिब हो जाए. कूडनकुलम केस में तो कोर्ट से याचिका में यह पूछा तक नहीं गया था कि वह बताए कि देश को परमाणु ऊर्जा चाहिए कि नहीं, और यह फैसला करना वैसे भी कोर्ट का क्षेत्राधिकार नहीं है.
आखिर फुकुशिमा के बाद भी भारत में परमाणु ऊर्जा को लेकर इतना तगड़ा सरकारी समर्थन क्यों है? फुकुशिमा के बाद की दुनिया में अणुऊर्जा के इतने बड़े विस्तार की योजना बना रहा देश भारत अकेला क्यों बचा है? अपने निर्णायक संकट के दौर से गुज़र रही अंतर्राष्ट्रीय परमाणु लॉबी की आशा भारत क्यों है जहां सरकार पर्यावरणीय कानूनों, सुरक्षा व उत्तरदायित्व के सवालों और स्थानीय जन-प्रतिरोधों सबको किनारे करते हुए उसका स्वागत करने को तैयार है?
क्यों है भारत में परमाणु ऊर्जा की लिए अंधी दौड़?
क्या सचमुच भारत को परमाणु की ज़रुरत है? यह पूछने से पहले सरकार और उसके कारिंदों से यह पूछना चाहिए कि आप इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचे कि भारत को परमाणु ऊर्जा की, और वह भी इतनी बड़ी मात्रा में, सचमुच ज़रुरत है? 2004 तक खुद अणु ऊर्जा विभाग के कागज़ों में कहीं इतने बड़े पैमाने पर परमाणु ऊर्जा के विस्तार का ज़िक्र नहीं था. लेकिन 2006 में घोषित समेकित ऊर्जा नीति में अचानक हमें बताया गया कि सन 2052 तक 250 गीगावाट यानी कुल बिजली का पचीस प्रतिशत परमाणु से आना चाहिए। मौजूदा उत्पादन ढाई प्रतिशत से भी कम है. 2004 और 2006 के बीच ऐसा क्या हुआ? क्या बिजली को लेकर कोई राष्ट्रीय बहस हुई? इसमें गैर-सरकारी विशेषज्ञ और ऊर्जा तथा विकास को ज़मीनी व वैकल्पिक नजरिए से देखने वाले नागरिक शामिल थे? नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ. बल्कि विदेशों से परमाणु बिजलीघरों के आयात और इतने बड़े पैमाने विस्तार की बात खुद अणुऊर्जा विभाग के लिए औचक खबर की तरह आई.
ऐसा इसलिए हुआ कि 2004 और 2006 बीच 2005का साल आया. इस साल भारत और अमेरिका बीच एक व्यापक परमाणु डील हुई. मनमोहन सिंह अमेरिका के दौरे पर थे और परमाणु डील की पेशकश अमेरिकी तरफ से आई थी.
क्या थी यह डील? यह डील भारत सारतः को अमेरिकी विदेश-नीति की आगोश में लेने की कवायद थी जिसके लिए भारत के परमाणु हथियारों को अंतर्राष्ट्रीय वैधता दिलाना इस डील का मकसद था.
भारत ने 1950 और 1960 के दशक में ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका आदि देशों से शांतिपूर्ण उपयोग के नाम पर जो परमाणु तकनीक और सामग्री हासिल की थी, उसी का इस्तेमाल कर के 1974 में पहला बम-विस्फोट किया था, जिसके बाद भारत पर पूरी दुनिया ने परमाणु के क्षेत्र में प्रतिबन्ध लगा दिया था. ये प्रतिबन्ध 1998 के परमाणु टेस्ट के बाद और कड़े किए गए थे. लेकिन 1974 और 1998 के बीच अंतर यह था कि भारत 1991 में अपना बाज़ार खोल चुका था और इतने बड़े उपभोक्ता समूह वाले देश पर आर्थिक प्रतिबन्ध से खुद अमेरिका और पश्चिमी देशों को ही नुकसान हो रहा था. साथ ही, उन्हें अंतर्राष्ट्रीय चौपालों पर भारत को अपने साथ बिठाना था और ईरान से लेकर चीन तक को लेकर बिछी शतरंज में भारत को अपने साथ रखना था. उस स्तर के एक पार्टनर की हैसियत के साथ भारत पर 35 सालों से चले आ रहे ये प्रतिबन्ध मेल नहीं खाते थे. इसलिए परमाणु डील दरअसल भारत के हथियारों को वैधता देकर उसे बदलती दुनिया में अपने साथ बिठाने की कवायद ज़रूरी थी.
लेकिन भारत पर दशकों से प्रतिबन्ध सिर्फ अमेरिका ने नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी(International Atomic Energy Agency- IAEA) और 46 देशों के परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह(Nuclear Suppliers Group-NSG) ने लगाए थे और इन मंचों से भारत को मान्यता दिलवाने में और भी समय व उपाय लगे. भारत ने NSG देशों को अपनी एंट्री के बदले में भारी मात्रा में परमाणु बिजलीघर व यूरेनियम खरीदने का वादा किया। इस सौदे में भी अमेरिका को बड़ा शेयर मिला क्योंकि उसी के समर्थन से इतना बड़ा बदलाव संभव हुआ. तो भारत का मानचित्र उठाकर अमेरिका को परमाणु ऊर्जा प्रकल्पों के लिए दो साइट और फ्रांस को एक बड़ी साइट, रूस को दो नई जगहें और अन्य देशों को इन नई अणु-भट्ठियों के लिए भारी मात्रा में ईंधन-खरीद का वादा किया गया.
ऐसा करते समय न तो इन जगहों पर रह रहे लोगों से पूछा गया, न इन इलाकों के पर्यावरण की बात सोची गयी, न ऊर्जा मंत्रालय से पूछा गया कि क्या सचमुच परमाणु ऊर्जा की इतनी बड़ी ज़रुरत है और न ही अब तक बम बनाने की संवेदनशीलता के कारण नियंत्रित स्तर पर काम कर रहे परमाणु ऊर्जा विभाग से यह पूछा गया कि उसके पास इन 35 नई परियोजनाओं के लिए इंजीनियर और अनुभव भी है.
भारत में परमाणु ऊर्जा वैसे ज़रूरी है या नहीं या उसके खतरों के मद्देनज़र क्या विकल्प हैं, यह मेरे लिए एक दूसरी बहस का सवाल है जो जनपथ के पाठकों से करने के लिए मैं तैयार हूँ, लेकिन सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि परमाणु ऊर्जा के महा-विस्तार की मौजूदा योजना का उन सवालों से कोई सीधा लेना-देना है ही नहीं। भारत में लग रहे परमाणु संयंत्र असल में वह कीमत है जो हम परमाणु बमों के लिए – असल में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर परमाणु बम-संपन्न देशों के क्लब में शामिल होने के लिए – चुका रहे हैं.
और यही वजह है कि इन नए बिजलीघरों से देश के पर्यावरण को हो रहे घातक नुकसान के सवाल, इनसे जितने लोगों को बिजली, विकास व रोजगार मिलेगा उससे कहीं बड़ी संख्या में लोग बेघर और आजीविका-विहीन होंगे यह सवाल, देश में परमाणु सुरक्षा के लिए स्वतंत्र व विश्वसनीय ढांचा न होने का सवाल, स्थानीय समुदाओं के लोकतांत्रिक हितों का सवाल, ऊर्जा तथा परमाणु मामलों के उन विशेषज्ञों के सवाल जिनमें से कई सरकार का हिस्सा रहे हैं और देश-विदेश में प्रतिष्ठित हैं – इन सारे का सरकार के लिए कोई मतलब नहीं क्योंकि उसके लिए परमाणु संयंत्रों का आयात विदेशनीति के लेन-देन से जुड़ा है. 2005 में अमेरिका और उसके बाद फ्रांस, रूस, कनाडा, ब्रिटेन, कज़ाख़िस्तान, मंगोलिया, आस्ट्रेलिया जैसे सभी देशों से हुई इन परमाणु डीलों से बंधे होने की वजह से दरअसल भारत ने वह संप्रभुता खो दी है, जिसका इस्तेमाल कर के दूसरे देश फुकुशिमा से सबक लेकर स्वतंत्र और वैकल्पिक ऊर्जा नीति बना रहे हैं.
एक आख़िरी बात यहां जोड़ना ज़रूरी है कि आम समझ या अपेक्षा के ठीक विपरीत, भारत के संसदीय वामपंथ ने अमेरिका के साथ हुए परमाणु डील की इसलिए आलोचना नहीं की थी कि इससे भारत की ज़मीन पर खतरनाक परमाणु संयंत्र आएँगे। सीपीएम की आलोचना का मुख्य स्वर यह था कि इस डील के बदले भारत का भविष्य में परमाणु टेस्ट करने का विकल्प चला जाएगा, इस डील में बाकी तकनीकें मिल रही हैं लेकिन परमाणु ईंधन के पुनर्संस्करण(reprocessing) की तकनीक नहीं मिल रही है, आयातित रिएक्टरों(अणु बिजलीघरों) पर अंतर्राष्ट्रीय निगरानी होगी, इत्यादि इत्यादि।
जैतापुर, मीठीविर्दी और कोवाडा जैसे जगहों के किसान और मछुआरे मध्यवर्ग के उस सपने की मार झेल रहे हैं जिसमें भारत को सुपर पावर बनना है. इतना सबकुछ कर के भी वह हैसियत मिलती दिख नहीं रही क्योंकि जार्ज बुश के दौर से दुनिया आगे बढ़ चुकी है. जिन परमाणु बमों से भारत की ताकत बढ़नी थी, उनके एवज में देश ने ये खतरनाक और महंगे बिजलीघर खरीदना मंजूर किया है और अब उनमें दुर्घटना की स्थिति में विदेशी कंपनियों को मुआवजा न देना पड़े इसकी जुगत में लगी है सरकार। हैसियत और ताकत बम बनाने से नहीं आती. एक तीसरी दुनिया का देश जब शार्टकट इस्तेमाल कर के पहली दुनिया में घुसना चाहता है जबकि आधी से अधिक आबादी दो सदी पीछे जी रही हो, तो यही गत होती है जो भारत की अब हो रही है. प्रधानमंत्री मेगा शो करने वाले फूहड़ नौटंकीबाज़ में तब्दील हो गया है.
परमाणु बम बनाने के बाद कोई शांति नसीब नहीं हुई बल्कि असुरक्षा का एक दुष्चक्र शुरू हुआ है और एटम बम बनाने के डेढ़ दशक बाद भारत दुनिया में सबसे अधिक हथियार खरीदने वाला देश बन बैठा है. परमाणु बमों को लेकर झूठे गर्व और भ्रम पर चर्चा किसी और लेख में.
फिलहाल यह कि जापान के साथ समझौता 2005 से बन रही उस तस्वीर का आख़िरी और निर्णायक टुकड़ा है क्योंकि जापानी पुर्ज़ों की आपूर्ति के बगैर भारत में अमेरिकी और फ्रांसीसी परियोजनाएं अटकी पड़ी हैं. देश के किसानों-मछुआरों जीविका और ज़िंदगी बचाने का यह आख़िरी मौक़ा है और बात सिर्फ उन्हीं की नहीं है क्योंकि परमाणु दुर्घटना में सिर्फ वे ही नहीं मरेंगे।
यह अटकी हुई डील जैतापुर, मीठी विरदी और कोवाडा के किसानों के लिए आख़िरी उम्मीद है क्योंकि उनकी अपनी सरकार उनको दगा दे चुकी है और बिजली और विकास के पीछे पागल देश का मध्यवर्ग उन्हें भूल चुका है. जैतापुर में 2006 से किसानों और मछुवारों का संघर्ष जारी है, जिसमें 2010 में एक शांतिपूर्ण जुलूस के दौरान पुलिस फायरिंग में एक युवक की जान तक जा चुकी है. पूरे इलाके की नाकेबंदी, स्थानीय आंदोलन के लीडरों को पकड़कर हफ़्तों जेल में डालना, धमकाना-फुसलाना, और आस-पास के जिलों से पहुंचने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को जिलाबदर घोषित करना कांग्रेस-एनसीपी की सरकार में भी हुआ और अब महाराष्ट्र की भाजपा सरकार में भी जारी है. परियोजना का विरोध करने वाले सभी लोग बाहरी और विदेशी-हित से संचालित घोषित कर दिए गए हैं और फ्रांसीसी कंपनी एकमात्र इनसाइडर और देशभक्त बची है. 2010 में देश के दूसरे इलाकों से समर्थन में पहुंचकर सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने एक यात्रा निकाली जिसमें पूर्व नौसेनाध्यक्ष एडमिरल रामदास और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस सावंत भी शामिल थे, लेकिन सबको हिरासत में ले लिया गया. जैतापुर में किसान ज़्यादातर हिन्दू हैं और मछुआरे मुस्लिम. जिन किसानों के नाम ज़मीन थी कम-से-कम उनको मुआवजा मिला लेकिन उन मछुआरों को कुछ नहीं मिला क्योंकि उनके पास समंदर का कोई कागज़ नहीं है. परमाणु प्लांट से जो गर्म अपशिष्ट पानी निकलेगा वह आस-पास के समुद्री तापमान को 5 से 7 डिग्री बढ़ा देगा जिससे मछलियों की खेप समाप्त हो जाएगी. इस संवेदनशील प्लांट के आस-पास समुद्र में जो 5 किमी तक जो सेक्यूरिटी तैनात होगी वह भी साखरी नाटे और कई दूसरे मछुआरे गाँवों की जीविका छीन लेगी क्योंकि उस दायरे में मछली पकड़ना बंद हो जाएगा. शिवसेना और भाजपा का उस इलाके में राजनीतिक प्रभुत्व है और इस मामले को हिन्दू-मुस्लिम बना देने की कोशिश भी वे कर ही रहे हैं.
स्रोतः सामयिक वार्ता
बैतूल लोकसभा उम्मीदवार फागराम का साथ देंगे?
Posted in नई राजनीति, विस्थापन, communalism, consumerism, corporatisation, corruption, criminalisation, displacement, election, environment, globalisation, globalisation , privatisation, kishan patanayak, madhya pradesh, politics, samajwadi janparishad, tribal on मार्च 13, 2014| Leave a Comment »
क्योंकि
भ्रष्ट नेता और अफसरों कि आँख कि किरकिरी बना- कई बार जेल गया; कई झूठे केसो का सामना किया!
· आदिवासी होकर नई राजनीति की बात करता है; भाजप, कांग्रेस, यहाँ तक आम-आदमी और जैसी स्थापित पार्टी से नहीं जुड़ा है!
· आदिवासी, दलित, मुस्लिमों और गरीबों को स्थापित पार्टी के बड़े नेताओं का पिठ्ठू बने बिना राजनीति में आने का हक़ नहीं है!
· असली आम-आदमी है: मजदूर; सातवी पास; कच्चे मकान में रहता है; दो एकड़ जमीन पर पेट पलने वाला!
· १९९५ में समय समाजवादी जन परिषद के साथ आम-आदमी कि बदलाव की राजनीति का सपना देखा; जिसे, कल-तक जनसंगठनो के अधिकांश कार्यकर्ता अछूत मानते थे!
· बिना किसी बड़े नेता के पिठ्ठू बने: १९९४ में २२ साल में अपने गाँव का पंच बना; उसके बाद जनपद सदस्य (ब्लाक) फिर अगले पांच साल में जनपद उपाध्यक्ष, और वर्तमान में होशंगाबाद जिला पंचायत सदस्य और जिला योजना समीति सदस्य बना !
· चार-बार सामान्य सीट से विधानसभा-सभा चुनाव लड़ १० हजार तक मत पा चुका है!
जिन्हें लगता है- फागराम का साथ देना है: वो प्रचार में आ सकते है; उसके और पार्टी के बारे में लिख सकते है; चंदा भेज सकते है, सजप रजिस्टर्ड पार्टी है, इसलिए चंदे में आयकर पर झूठ मिलेगी. बैतूल, म. प्र. में २४ अप्रैल को चुनाव है. सम्पर्क: फागराम- 7869717160 राजेन्द्र गढ़वाल- 9424471101, सुनील 9425040452, अनुराग 9425041624 Visit us at https://samatavadi.wordpress.com
समाजवादी जन परिषद, श्रमिक आदिवासी जनसंगठन, किसान आदिवासी जनसंगठन
रोजगार, राहुल और गांधी : सुनील
Posted in displacement, environment, globalisation, globalisation , privatisation, internal colonialism, tagged bihar, development, gandhi, internal colony, rahul gandhi, up on नवम्बर 25, 2011| 3 Comments »
जब राहुल गांधी ने पिछले हफ्ते उत्तरप्रदेश के नौजवानों को फटकारते हुए कहा कि यूपी वालों , कब तक महाराष्ट्र में भीख मांगोगे और पंजाब में मजदूरी करोगे, तो कई लोगों को यह नागवार गुजरा। इसकी भाषा शायद ठीक नहीं थी। आखिर भारत के अंदर रोजी-रोटी के लिए लोगों के एक जगह से दूसरी जगह जाने को भीख मांगना तो नहीं कहा जा सकता। वे अपनी मेहनत की रोटी खाते हैं, भीख या मुफ्तखोरी की नहीं।
किन्तु राहुल आधुनिक भारत की एक बड़ी समस्या की ओर भी इशारा कर रहे हैं। हमारा विकास कुछ इस तरह हुआ है कि रोजगार और समृद्धि देश के कुछ हिस्सों तथा महानगरों तक सीमित हो गई है। बाकी हिस्से पिछड़े, रोजगारहीन और श्रीहीन बने हुए हैं। देहातों में तो हालत और खराब है। वहां बेकारी और मुर्दानगी छायी हुई है और भारी पलायन हो रहा है। जो देहात में रहते हैं वे भी ज्यादातर मजबूरी में रह रहे हैं। दूसरी ओर नगरों व महानगरों में भीड़ बढ़ती जा रही है तथा वहां झोपड़पट्टियों की तादाद विस्फोटक तरीके से बढ़ रही है।
सिर्फ यूपी-बिहार ही नहीं, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बंगाल, उड़ीसा, उत्तराखंड, तेलगांना और विदर्भ से भी बड़ी संख्या में रोजगार की तलाष में नौजवान बाहर जाते हैं। मुंबई, सूरत, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई जहां भी काम मिले, वे निकल पड़ते हैं। कई बार उनके साथ धोखा होता है। पूरी मजदूरी नहीं मिलती, खुले आसमान के नीचे पड़े रहते हैं या गंदगी के बीच नरकतुल्य झुग्गियों में रहते हैं, पुलिस उन्हें तंग करती हैं, दुर्घटना में घायल होने पर ठेकेदार ठीक से इलाज नहीं कराता है। कई बार बेमौत मारे जाते हैं और घर वालों को खबर भी नहीं होती। पिछले दिनों आगरा के पास यमुना एक्सप्रेसवे के निर्माण में लगे इलाहाबाद के मजदूरों पर रात में सोते समय जेसीबी मशीन चढ़ जाने की मार्मिक खबर आई थी।
पिछले दो सौ सालों से चल रही भारतीय गांवों के कुटीर उद्योगों व धंधों के नष्ट होने की प्रक्रिया का नतीजा हुआ है कि खेती छोड़कर वहां कोई धंधा नहीं बचा है। खेती में भी गहरा संकट है और वह घाटे का धंधा बनी हुई है। यह आधुनिक पूंजीवादी विकास से उपजा बुनियादी संकट है जो मनरेगा जैसी योजनाओं से न हल हो सकता था और न हुआ।
गांव से पलायन इसलिए भी बढ़ रहा है कि वहां शिक्षा और इलाज की व्यवस्था या तो है नहीं, या है तो बुरी तरह चरमरा गई है। सरकारी स्कूलों की व्यवस्था तो सुधरने की बजाय बाजारीकरण और निजीकरण के हमले की भेंट चढ़ रही है। गांवों के बहुत लोग अब अपने बच्चों को अच्छी षिक्षा दिलाने के लिए कष्ट उठाकर भी शहरों में रहने लगे हैं।
कभी-कभी लोग भोलेपन से सोचते हैं कि हमारे इलाके में कोई कारखाना लग जाएगा तो हमारा विकास हो जाएगा और हमें यहीं पर रोजगार मिलने लगेगा। कारखाने को ही विकास का पर्याय मान लिया जाता है किन्तु हर जगह कुछ ठेकेदारों, व्यापारियों और दलालों को छोड़कर बाकी लोगों को इसमें निराशा ही हाथ लगती है।
मध्यप्रदेश में रीवा के पास जेपी सीमेन्ट कारखाने का अनुभव इस मामले में बड़ा मौजूं है। करीब 25 साल पहले इस कारखाने के लिए जमीन लेते समय गांववासियों को इसी तरह रोजगार, विकास और खुषहाली के सपने दिखाये गये थे। किन्तु दैनिक मजदूरी पर कुछ चैकीदारों को लगाने के अलावा उन्हें रोजगार नहीं मिला। कारखाना चलाने के लिए तकनीकी कौशल वाले कर्मचारी बाहर से आये। उल्टे कारखाने के प्रदूषण और चूना पत्थर खदानों के विस्फोटों से लोगों का जीना हराम हो गया। स्वास्थ्य, खेती, मकान सब प्रभावित होने लगे। ज्ञापन देते-देते थक गए तो सितंबर 2008 में रोजगार और प्रदूषण रोकथाम की मांग को लेकर उन्होंने आंदोलन किया। उन पर गोली चली। उसमें एक नौजवान मारा गया, 70-75 घायल हुए। जो नौजवान मारा गया, वह सूरत में काम करता था और छुट्टी में घर आया था। सवाल यह है कि जिस गांव की जमीन पर यह विशाल कारखाना बना, वहां के नौजवानों को काम की तलाष में एक हजार किलोमीटर दूर क्यों जाना पड़ रहा है ?
दरअसल आधुनिक कारखानों से रोजगार की समस्या कहीं भी हल नहीं होती। यह एक भ्रम है। उनसे रोजगार का सृजन कम होता है, पारंपरिक आजीविका स्त्रोतों का नाश ज्यादा होता है। यहां तक की औद्योगिक क्रांति के दौर में भी ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोप की रोजगार समस्या गोरे लोगों के अमरीका, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका और एशिया में फैल जाने तथा बस जाने से हल हुई, कारखानों से नहीं। अब जो नए कारखाने लग रहे हैं उनमें मशीनीकरण, स्वचालन तथा कम्प्यूटरीकरण के चलते तो रोजगार और भी कम मिलता है। मशीनीकरण के कारण खेती में भी रोजगार कम हो रहा है। हारवेस्टरों और ट्रैक्टरों की क्रांति ने भूमिहीन गरीबों और प्रवासी आदिवासी मजदूरों का रोजगार भी छीन लिया है। अब रोजगार की विकराल समस्या खड़ी होती जा रही है। इस समय रोजगार का संकट पूरी दुनिया पर छाया है। लंदन के दंगे हो, वाल स्ट्रीट कब्जे का आंदोलन या अरब देशों की जनक्रांतियाँ – सबके पीछे बेरोजगारी-गरीबी से उपजी कुंठा, अनिश्चितता व असंतोष है।
क्या कोई ऐसा तरीका नहीं हो सकता है, जिससे लोगों को अपने जिले में, अपने घर के पास या अपने गांव में ही अच्छा रोजगार मिलने लगे ? जरुर हो सकता है, किन्तु इसके लिए हमें राहुल गांधी नहीं, एक दूसरे गांधी की ओर देखना पड़ेगा जिसे हम 2 अक्टूबर तथा 30 जनवरी को रस्म अदायगी के अलावा भूल चुके हैं। हमें आधुनिक विकास की चकाचैंध से अपने को मुक्त करना होगा। शहर के बजाय गांव को, मशीन की जगह इंसान को और कंपनियों की जगह जनता को विकास के केन्द्र में रखना होगा। गांवों को पुनर्जीवित करना होगा। बड़े कारखानों की जगह छोटे उद्योगों व ग्रामोद्योगों को प्राथमिकता देनी होगी। भोग-विलास की जगह सादगीपूर्ण जीवन को आदर्श बनाना होगा। विकास और प्रगति की आधुनिक धारणाओं और मान्यताओं को भी समय तथा जमीनी अनुभवों की कसौटी पर कसना होगा।
यदि हम चाहते हैं कि यह दुनिया ऐसी बने, जिसमें सबको सम्मानजनक रोजगार घर के पास मिले, सबकी बुनियादी जरुरतें पूरी हों, कोई भूखा या कुपोषित न रहे, कोई अनपढ़ न रहे, इलाज के अभाव में कोई तिल-तिल कर न मरे, अमीर-गरीब की खाई चौड़ी होने के बजाय खतम हो, सब चैन से रहे तो हमें विकास की पूरी दिशा बदलना होगा। आधुनिक सभ्यता इस मामले में बुरी तरह असफल हुई है। इसका विकल्प ढूंढना होगा। अफसोस की बात है कि राहुल हो या नीतीश, मायावती हो या मुलायम, किसी के पास इसकी समझ या तैयारी नहीं दिखाई देती।
(ईमेल – sjpsunilATgmailDOTcom)
———————————-
(लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं आर्थिक-राजनीतिक विषयों पर टिप्पणीकार है।)
– सुनील
ग्राम – केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.)
पिन कोड: 461 111 मोबाईल 09425040452
संवाद से ही रुकेगा दमन / अफ़लातून
Posted in environment, mining, tagged ओडिशा, खनन, गंधमार्दन, जन आन्दोलन, नियमगिरी, बाल्को, वेदान्त, balco, gandhamardan, mining, niyamgiri, odisha, orissa, people's movement, vedanta on अक्टूबर 19, 2010| 3 Comments »
[ भारत भर में खनिज संपदा के दोहन के लिए सरकार अब दमन पर उतारू हो गई है। मध्यप्रदेश जैसे राज्य तो इस बात पर उतर आए हैं कि प्रदेश के ऐसे जिले जहां पर पूर्णतया शांतिपूर्ण आंदोलन चल रहे हैं उन्हें भी अनावश्यक रूप से नक्सल प्रभावित घोषित कर दिया जाए। प्रस्तुत आलेख सर्वोदय भावना की प्रासंगिकता को विश्लेषित कर रहा है। का.सं.,सप्रेस ]
ओडिशा के वरिष्ठ सर्वोदयी नेता मदनमोहन साहू रोज सुबह टहलते हुए गंधमार्दन पर्वत पर स्थित नृसिंहनाथ और हरिशंकर मन्दिर पर तैनात ओडिशा मिलिटरी पुलिस के जवानों से बतियाने पहुँच जाते थे और उनसे कहते ‘यदि बाल्को कम्पनी खनन करेगी तो उसका इस इलाके की खेती पर क्या प्रभाव पड़ेगा, जानते हो?‘, ‘इस पहाड़ से निकलने वाले 22 सदा सलिला स्त्रोतों के नष्ट हो जाने पर क्या होगा?‘ तुम्हें पता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर पाणिग्राही ने‘ भारत के ‘वानस्पतिक सर्वेक्षण के लिए किए गए अध्ययन में पाया था कि इस पहाड़ पर 200 से ज्यादा औषधि वनस्पतियाँ हैं?‘
मदन बाबू इसी पहाड़ के नीचे बने ‘निसर्ग-निवास‘ में अलेख पात्र जैसे गांधीजनों तथा स्वतंत्रता सेनानी के साथ रहते थे। गंधमार्दन बचाओ आन्दोलन के तहत मदन बाबू के प्रतिदिन के इस अहिंसक संवाद का यह असर पड़ा कि पहाड़ के पास से गुजरने वाले कम्पनी के वाहनों को जब महिलाएं और बच्चे रोकते थे तब भी इन जवानों ने दमनात्मक कार्रवाई नहीं की। 1987 में अपने दो बच्चों के साथ जामवती बीजरा नामक आदिवासी महिला जब कम्पनी की दर्जनों चक्कों वाली गाड़ी के सामने लेट गई तो यह आन्दोलन का चरम बिन्दु था।
इस इलाके के लोगों का मानना है कि हनुमान को इसी पहाड़ से घायल लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी ले जानी थी। पहाड़ पर नृसिंहनाथ और हरिशंकर के मन्दिर हैं जिनके दर्शनार्थ पश्चिम ओडिशा और छत्तीसगढ़ से भक्त पहुंचते हैं।
यह इलाका तत्कालीन सम्बलपुर जिले में था। सार्वजनिक क्षेत्र की बाल्को कम्पनी को गंधमार्दन पर्वत से बॉक्साईट खनन की अनुमति दी गई थी। राष्ट्रीय सेवा योजना के लड़के-लड़कियां इलाके के गांवों में घर-घर जाते और ग्रामीणों के मन में प्रस्तावित बॉक्साईट खनन को लेकर जो असंतोष और भय व्याप्त था उसे समझते थे। इस पृष्ठभूमि में अगस्त 1985 में ‘गंधमार्दन सुरक्षा युवा परिषद‘ का गठन हुआ जिसके द्वारा आन्दोलन का संचालन होता था। युवा परिषद में समता संगठन और छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी से जुडे़ तरुण थे।
देश की खनिज सम्पदा को बचाने के लिए चला यह पहला जनआन्दोलन था। गंधमार्दन पहाड़ के इलाकों में पर्यावरणीय संतुलन की सुरक्षा इसका प्राथमिक मुद्दा बना। आन्दोलन से जुडे़ समाजवादी चिन्तक किशन पटनायक ने खनन की बाबत कहा था, ‘युद्ध और आधुनिक शान-ओ-शौकत का जीवन यदि अपरिहार्य नहीं है तो बाॅक्साइट का खनन अपरिहार्य कैसे है? एल्युमिनियम के सालाना उत्पादन का कितना बड़ा हिस्सा शस्त्रास्त्रों, वायुयान और धनिकों की चका-चैंध को बढ़ाने में जाता है। यदि हम खनन को घटा कर सौंवे भाग तक ले आयेंगे तब शायद आधुनिक खनन से जुड़ी क्रूरता और चकाचैंध में कुछ कमी आ पायेगी। आदिवासी आधुनिक खनन का प्रतिकार कर रहे हैं तथा गंधमार्दन आन्दोलन में सफल भी हुए हैं। यदि वे घुटने टेक देंगे तो उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।‘
बॉक्साइट खनन और विपुल जल-स्त्रोतों का नालबद्ध नाता है। गंधमार्दन सुरक्षा हेतु गठित युवा परिषद के लिंगराज प्रधान को इलाके के एक आदिवासी किसान ने इस पहाड़ी से निकलने वाले 22 सदा सलिला स्त्रोतों के बारे में बताया था। इससे पहले उन्हें खनन से उसका सम्बन्ध पता नही था। गंधमार्दन और नियमगिरी में कई भौगोलिक समानताएं हैं। गंधमार्दन से अंग तथा सुखतेल नामक नदियां निकलती हैं जो आगे जाकर महानदी में मिल जाती हैं।
1992 में देश में उदारीकरण की नीतियों के आगाज के साथ-साथ निजी व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को देश की बहुमूल्य खनिज सम्पदा सौंपने के लिए कानूनों में परिवर्तन किए गए। गंधमार्दन में सार्वजनिक क्षेत्र की बाल्को कम्पनी को खनन करना था। इस कम्पनी को टाटा तथा कनाड़ा की अलकान तथा अलकोआ कम्पनियों ने खरीद लिया और ओडिशा के रायगढ़ जिले के काशीपुर इलाके में इन तीनों कम्पनियों के संघ ‘उत्कल एल्युमिना‘ ने खनन की ठानी। क्षेत्रीय जनता ने वर्षों तक कम्पनी को अपने इलाके में काम करने से रोके रखा। ओडिशा के बालेश्वर जिले के बालियापाल में मिसाइल टेस्टिंग रेन्ज तथा गंधमार्दन के आन्दोलनों की सफलता से संगठित होने पर सफल होने का आत्मविश्वास लोगों में पैदा हो सका।
1997 में वेदान्त कम्पनी के साथ नियमगिरी पहाड़ पर बॉक्साइट खनन के लिए समझौता हुआ। नियमगिरी पहाड़ की रक्षा के लिए समाजवादी जनपरिषद के युवा कार्यकर्ता लिंगराज आजाद, राजकिशोर और प्रेमलाल की पहल पर ‘नियमगिरी सुरक्षा समिति‘ का गठन हुआ। वेदान्त कम्पनी ने पहली बार आन्दोलन के दमन के लिए खुलकर निजी गुंडा-वाहिनी का गठन किया। समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लिंगराज प्रधान पर इन गुंड़ों ने दो बार हमला किया। लिंगराज आजाद और राजकिशोर पर भी गुंड़ों का हमला हुआ तथा वे तीन माह तक जेल में निरुद्ध भी रहे। नियमगिरी सुरक्षा समिति की पहल पर दस हजार लोगों ने एक बार मानव श्रृंखला बनाई थी। सरोज मोहंती जैसे कार्यकर्ता भी लम्बे समय तक जेल में रहे।
संघर्ष के इन प्रचलित तरीकों के अलावा दो अन्य मोर्चों पर नियमगिरी बचाने की लड़ाई लड़ी गई। गंधमार्दन बचाओ आन्दोलन के समय इन मोर्चो की आवश्यकता न थी। ये मोर्चे हैं न्यायपालिका तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अभियान।
केन्द्र सरकार नियमगिरी में इंग्लैंड की कम्पनी वेदान्त को खनन का निमंत्रण दे सकती है। समाजवादी जनपरिषद के नेता द्वय लिंगराज प्रधान और लिंगराज आजाद ने ऐसी किसी भी चुनौती को स्वीकार करते हुए ओड़िशा में कही भी वेदान्त द्वारा खनन न होने देने के संकल्प की घोषणा की है। महात्मा गांधी के निकट सहयोगी रहे जे.सी कुमारप्पा ने इस बात पर बल दिया था कि धातु-अयस्कों का निर्यात कतई नहीं होना चाहिए। इसका प्रतिकार भी गांधी के बताये तौर-तरीकों से ही करना होगा। (सर्वोदय प्रेस सर्विस )
एक नदी थी जहाँ अब हाइ-स्कूल ,खेल का मैदान और मछली बाजार हैं
Posted in blue gold, corporatisation, environment, tagged कक्काड नदी, कन्नूर, conservation, kakkad river, kannur on फ़रवरी 17, 2010| 16 Comments »
बीते गणतंत्र दिवस पर केरल के कन्नूर जिले के श्री पल्लिपरम प्रसन्नन कमर तक प्रदूषित पानी में तीन घण्टे तिरंगा ले कर खड़े रहे । उनके साथी दिन भर के उपवास पर थे । यह जगह कन्नूर नगरपालिका की सरहद से केवल चार किलोमीटर दूर स्थित पुज़ाथी पंचायत के अन्तर्गत है। कन्नूर जिले की ’जिला पर्यावरण संरक्षण समिति’ से जुड़े कभी बहते पानी का स्रोत रही कक्काड नदी को बचाने के लिए लड़ रहे हैं । जिला समिति के संयोजक मेरे दल समाजवादी जनपरिषद के विनोद पय्याडा हैं । समिति के कार्यकर्ताओं के साथ बैठक के बाद मुझे ’कक्काड पुज़ा संरक्षण समिति’ से जुड़े देवदास मौके पर ले गये । देवदास एल.एल.एम उत्तीर्ण युवा वकील हैं तथा मुख्यधारा के दलों के रवैय्ये के प्रति उन्हें काफ़ी रोष है ।
कक्काड नदी १९६६ तक वालापत्तनम नदी की एक उप-नदी के रूप में बहती थी । उत्तरी कन्नूर जिले के पहाड़ी इलाकों से कन्नूर शहर तक फेरी से आने-जाने का यह प्रमुख जरिया थी। वालापत्तनम नदी के ज्वार-भाँटा से जुड़ी़ ’काईपाड कृषि पद्धति’ से इस इलाके लोग साल में धान की एक फसल प्राप्त कर लेते थे । राज्य सरकार ने १९६६ में कट्टमपल्ली बाँध परियोजना शुरु की तथा दावा किया कि इलाके किसान एक की जगह तीन फसल प्राप्त कर सकेंगे । बाँध के नाम पर इस नदी के नाम पर इस नदी का पानी गेट बना कर रोक दिया गया । इसके फलस्वरूप पारम्परिक ’काईपाड खेती’ तो चौपट हो ही गई , मछलियां आना बन्द हो गईं तथा आठ पंचायत क्षेत्रों की करीब ५००० एकड़ खेती प्रभावित हो गई ।
मैंने नदी के पाट पर बने मां अमृतानन्दमयी की संस्था का हाई स्कूल , खेल का मैदान , प्लाईवुड कारखाना और मछली बाजार देखे । यह नदी एक गंदे पानी की तल्लैय्या बन चुकी है। पंचायत के बूचड़खानों का कचरा इसमें बहाया जा रहा है ।
हाल ही में जन सूचना अधिकार के तहत माँगी गई सूचना के तहत एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है । पुज़ाथी पंचायत ने इस नदी को गांव की एक प्लाईवुड कारखाने के मालिक को मात्र एक सौ रुपये में लीज़ पर दे दिया है ।
कुदरती संसाधनों पर स्थानीय आबादी के हक़ का नासमझी से भी इस्तेमाल किया जा सकता है यह बात इस प्रसंग में सामने आई है । क्या पंचायत का यह फैसला शहर से उसकी केवल चार किलोमीटर की दूरी के कारण तो नहीं है – शहरी मानस से प्रभावित ? उम्मीद की जाती है कि संरक्षण समिति बूचड़खानों के कचरे को नदी में बहाए जाने के बजाए उसके निस्तारण का कोई वैकल्पिक तरीका ढूँढ़ लेगी । ऐसा हो जाने पर समिति की ताकत भी बढ़ सकेगी ।
मध्यप्रदेश में नई राजनीति की शुरूआत : बाबा मायाराम
Posted in displacement, election, environment, madhya pradesh, news, politics, samajwadi janparishad, tribal, tagged किसान आदिवासी संगठन, पंचायत चुनाव, फागराम, मध्य प्रदेश, समाजवादी जनपरिषद, madhya pradesh, mayaram, panchayat elections, phagram, samajwadi janaparishad on जनवरी 7, 2010| 5 Comments »
आम के पेड़ के नीचे बैठक चल रही है। इसमें दूर-दूर के गांव के लोग आए हैं। बातचीत हो रही है। यह दृश्य मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के आदिवासी बहुल केसला विकासखंड स्थित किसान आदिवासी संगठन के कार्यालय का है। यहां 5 जनवरी को किसान आदिवासी संगठन की मासिक बैठक थी जिसमें कई गांव के स्त्री-पुरुष एकत्र हुए थे। जिसमें केसला, सोहागपुर और बोरी अभयारण्य के लोग भी शामिल थे। इस बार मुद्दा था- पंचायत के उम्मीदवार का चुनाव प्रचार कैसे किया जाए? यहां 21 जनवरी को वोट पडेंगे।
बैठक में फैसला लिया गया कि कोई भी उम्मीदवार चुनाव में घर से पैसा नहीं लगाएगा। इसके लिए गांव-गांव से चंदा इकट्ठा किया जाएगा। चुनाव में मुर्गा-मटन की पारटी नहीं दी जाएगी बल्कि संगठन के लोग इसका विरोध करेंगे। गांव-गांव में साइकिल यात्रा निकालकर प्रचार किया जाएगा। यहां किसान आदिवासी संगठन के समर्थन से एक जिला पंचायत सदस्य और चार जनपद सदस्य के उम्मीदवार खड़े किए गए हैं।
सतपुड़ा की घाटी में किसान आदिवासी संगठन पिछले 25 बरस से आदिवासियों और किसानों के हक और इज्जत की लड़ाई लड़ रहा है। यह इलाका एक तरह से उजड़े और भगाए गए लोगों का ही है। यहां के आदिवासियों को अलग-अलग परियोजनाओं से विस्थापन की पीड़ा से गुजरना पड़ा है। इस संगठन की शुरूआत करने वालों में इटारसी के समाजवादी युवक राजनारायण थे। बाद मे सुनील आए और यहीं के होकर रह गए। उनकी पत्नी स्मिता भी इस संघर्ष का हिस्सा बनीं। राजनारायण अब नहीं है उनकी एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है। लेकिन स्थानीय आदिवासी युवाओं की भागीदारी ने संगठन में नए तेवर दिए।
इन विस्थापितों की लड़ाई भी इसी संगठन के नेतृत्व में लड़ी गई जिसमें सफलता भी मिली। तवा जलाशय में आदिवासियों को मछली का अधिकार मिला जो वर्ष 1996 से वर्ष 2006 तक चला। आदिवासियों की मछुआ सहकारिता ने बहुत ही शानदार काम किया जिसकी सराहना भी हुई। लेकिन अब यह अधिकार उनसे छिन गया है। तवा जलाषय में अब मछली पकड़ने पर रोक है। हालांकि अवैध रूप से मछली की चोरी का नेटवर्क बन गया है।
लेकिन अब आदिवासी पंचायतों में अपने प्रतिनिधित्व के लिए खड़े हैं। इसमें पिछली बार उन्हें सफलता भी मिली थी। उनके के ही बीच के आदिवासी नेता फागराम जनपद उपाध्यक्ष भी बने। इस बार फागराम जिला पंचायत सदस्य के लिए उम्मीदवार हैं। फागराम की पहचान इलाके में तेजतर्रार, निडर और ईमानदार नेता के रूप में हैं। फागराम केसला के पास भुमकापुरा के रहने वाले हैं। वे पूर्व में विधानसभा का चुनाव में उम्मीदवार भी रह चुके हैं।
संगठन के पर्चे में जनता को याद दिलाया गया है कि उनके संघर्ष की लड़ाई को जिन प्रतिनिधियों ने लड़ा है, उसे मजबूत करने की जरूरत है। चाहे वन अधिकार की लड़ाई हो या मजदूरों की मजदूरी का भुगतान, चाहे बुजुर्गों को पेंशन का मामला हो या गरीबी रेखा में नाम जुड़वाना हो, सोसायटी में राषन की मांग हो या घूसखोरी का विरोध, यह सब किसने किया है?
जाहिर है किसान आदिवासी संगठन ही इसकी लड़ाई लड़ता है। किसान आदिवासी संगठन राष्ट्रीय स्तर पर समाजवादी जन परिषद से जुड़ा है। समाजवादी जन परिषद एक पंजीकृत राजनैतिक दल है जिसकी स्थापना 1995 में हुई थी। समाजवादी चिंतक किशन पटनायक इसके संस्थापकों में हैं। किशन जी स्वयं कई बार इस इलाके में आ चुके हैं और उन्होंने आदिवासियों की हक और इज्जत की लड़ाई को अपना समर्थन दिया है।
सतपुड़ा की जंगल पट्टी में मुख्य रूप से गोंड और कोरकू निवास करते हैं जबकि मैदानी क्षेत्र में गैर आदिवासी। नर्मदा भी यहां से गुजरती है जिसका कछार उपजाउ है। सतपुड़ा की रानी के नाम से प्रसिद्ध पचमढ़ी भी यहीं है।
होशंगाबाद जिला राजनैतिक रूप से भिन्न रहा है। यह जिला कभी समाजवादी आंदोलन का भी केन्द्र रहा है। हरिविष्णु कामथ को संसद में भेजने का काम इसी जिले ने किया है। कुछ समर्पित युवक-युवतियों ने 1970 के दशक में स्वयंसेवी संस्था किशोर भारती को खड़ा किया था जिसने कृषि के अलावा षिक्षा की नई पद्धति होषंगाबाद विज्ञान की शुरूआत भी यहीं से की , जो अन्तरराष्ट्रीय पटल भी चर्चित रही। अब नई राजनीति की धारा भी यहीं से बह रही है।
इस बैठक में मौजूद रावल सिंह कहता है उम्मीदवार ऐसा हो जो गरीबों के लिए लड़ सके, अड़ सके और बोल सके। रावल सिंह खुद की स्कूली शिक्षा नहीं के बराबर है। लेकिन उन्होंने संगठन के कार्यकर्ता के रूप में काम करते-करते पढ़ना-लिखना सीख लिया है।
समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री सुनील कहते है कि हम पंचायत चुनाव में झूठे वायदे नहीं करेंगे। जो लड़ाई संगठन ने लड़ी है, वह दूसरों ने नहीं लड़ी। प्रतिनिधि ऐसा हो जो गांव की सलाह में चले। पंचायतों में चुप रहने वाले दब्बू और स्वार्थी प्रतिनिधि नहीं चाहिए। वे कहते है कि यह सत्य, न्याय व जनता की लड़ाई है।
अगर ये प्रतिनिधि निर्वाचित होते हैं तो राजनीति में यह नई शुरूआत होगी। आज जब राजनीति में सभी दल और पार्टियां भले ही अलग-अलग बैनर और झंडे तले चुनाव लड़ें लेकिन व्यवहार में एक जैसे हो गए हैं। उनमें किसी भी तरह का फर्क जनता नहीं देख पाती हैं। जनता के दुख दर्द कम नहीं कर पाते। पांच साल तक जनता से दूर रहते हैं।
मध्यप्रदेश में जमीनी स्तर पर वंचितों, दलितों, आदिवासियों, किसानों और विस्थापितों के संघर्श करने वाले कई जन संगठन व जन आंदोलन हैं। यह मायने में मध्यप्रदेश जन संगठनों की राजधानी है। यह नई राजनैतिक संस्कृति की शुरूआत भी है। यह राजनीति में स्वागत योग्य कदम है।
कोपेनहैगन : राष्ट्राध्यक्ष इतिहास न बना सके लेकिन जनता ने बनाया
Posted in climate change, environment, tagged औद्योगीकरण, कोपेनहेगन, जन आन्दोलन, प्रतिकार, मौसम परिवर्तन, climate change, copenhagen, industralisation, people's protests on दिसम्बर 21, 2009| 5 Comments »
रात भर चली वार्ताओं में विश्व के राष्ट्राध्यक्ष कोपेनहेगन एक लचर सहमती पर पहुँचे जिसमें पृथ्वी के गरम होने की प्रक्रिया पर रोक लगाने के लिए उद्योगों के उत्सर्जन पर नकेल कसने के लिए कोई लक्ष्य तय नहीं किए गये हैं । यह समझौता फन्डिंग के मामले में मजबूत था परन्तु मौसम परिवर्तन की बाबत बाध्यकारी नहीं है तथा किसी वास्तविक मौसम सम्बन्धी समझौते पर पर पहुंचने के लिए इसमें किसी निश्चित तिथि की घोषणा भी नहीं की गई है । अमेरिका तथा चीन जैसे सबसे बड़े प्रदूषक मुल्क कमजओर समझौता ही चाहते थे तथा यूरोप , ब्राजील तथा दक्षिण अफ़्रीका जैसे भविष्य के प्रदू्षण चैम्पियन इन दोनों की मंशा को विफल करने के लिए कुछ खास नहीं किया ।
दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष इतिहास न बना सके लेकिन विश्व भर की जनता ने इतिहास बनाया । मुख्यधारा की मीडिया ने जानबूझकर इनकी ढंग से चर्चा नहीं की । ऐसे मौके कई बार आते हैं । बांग्लादेश को दुनिया के किसी देश ने मान्यता जब नहीं दी थी तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण की विश्व यात्रा में बांग्लादेश को मान्यता दिए जाने की मांग को हर जगह जनता का समर्थन मिला था । विश्व व्यापार संगठन की बैठकों का भी जगह जनता द्वारा विरोध हुआ था और वैश्वीकरण का यह प्रमुख औजार आज ठप-सा पड़ गया है । कोपेनहेगन के सम्मेलन के विरोध में जनता का पक्ष रखने के लिए दुनिया भर में हजारों रैलियाँ और प्रदर्शन हुए । समझौते पर टिप्पणी करते हुए एक अफ़्रीकी आन्दोलनकारी ने कहा , “किसी हाथी को चलवाने में बहुत बड़े प्रयास की जरूरत होती है लेकिन एक बार यदि आप सफल हो गये तो उसे रोकना आसान भी नहीं होता । हाथी डोलने लगा है । “
प्रदर्शनकारियों के समक्ष इंग्लैण्ड के प्रधान मन्त्री को कहना पड़ा , ’ आप लोगों ने दुनिया के लिए आदर्श स्थिति को प्रस्तुत किया है …..राष्ट्राध्यक्षों पर इसका जो असर हुआ है उसे कम कर न आँकिएगा । “
नोबेल पुरस्कार विजेता डेस्मन्ड टुटु ने आन्दोलनकारियों को कहा ,” इस बड़े मकसद की मशाल आप लोग जलाए रखिएगा । “
पृथ्वी को बचाने की मुहिम एक सम्मेलन से पूरी नहं होने वाली । जनता को मौजूदा औद्योगिक व्यवस्था के विकल्प तैयार करने होंगे ।
कोपेनहेगन सम्मेलन की विफलता के जश्न मिटाने वाले भी मौजूद थी- प्रदूषणकारी उद्योगों की लॉबी की पार्टियों में जश्न मना और शैम्पेन की बोतलें खुलीं । जिन लॉबियों ने दुनिया की जम्हूरी निजाम पर कब्जा जमा रखा है तथा हमारे नेताओं को खरीद रखा है उन्होंने अपनी जीत का जश्न मनाया । जश्न का जाम हाथों में लिए उन्हें भी थोड़ी चिन्ता जनता की ताकत के आधार पर खड़े हो रहे आन्दोलन की हुई होगी । जनता की इस आवाज को खामोश करने की कोशिश भी इस लॉबी के द्वारा शुरु हो चुकी है ।
पत्रकार / चिट्ठेकार बाबा मायाराम की पुस्तक का लोकार्पण
Posted in विस्थापन, displacement, environment, madhya pradesh, tiger, tribal, tagged आदिवासी, बाबा मायाराम, वनवासी, शेर, सतपुड़ा on दिसम्बर 21, 2009| 4 Comments »
बाबा मायाराम द्वारा लिखी गयीं सशक्त रिपोर्टों से चिट्ठा जगत परिचित है । ’सतपुड़ा के बाशिन्दे’ नामक उनकी किताब का लोकार्पण कल इटारसी में हुआ ।
इस अवसर पर प्रबुद्ध नागरिकों के अलावा उन क्षेत्रों के ग्रामीण भी शामिल थे, जिनके बारे में इस पुस्तक में विवरण है।
इटारसी स्थित पत्रकार भवन में पर्यावरण बचाओ, धरती बचाओ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में इस पुस्तक का लोकार्पण वरिष्ठ साहित्यकार और प्राचार्य श्री कश्मीर उप्पल और समाजवादी जन परिषद के उपाध्यक्ष श्री सुनील ने किया। इस संगोष्ठी में पर्यावरण के कई पहलुओं पर चर्चा की गई। वनों का विनाश, नदियों का सूखना, रासायनिक खेती के दुष्प्रभाव आदि ऐसे मानव जीवन से जुड़े कई मुद्दों पर विचार-विमर्श किया गया।
बाबा मायाराम ने पिछले एक शवर्ष में उन्हें प्रदत्त दो फैलोशिप के तहत हो्शंगाबाद जिले के वनांचलों में घूम-घूमकर यह पुस्तक तैयार की है जिसमें यहां रहने वाले आदिवासियों की जिंदगी में चल रही उथल-पुथल, आकांक्षाओं और विस्थापन की त्रासदियों का जीवंत चित्रण किया गया है। इस पुस्तक की प्रस्तावना देश के जाने-माने प्रसिद्ध पत्रकार भारत डोगरा ने लिखी है और संपादन डॉ. सुशील जोशीने किया है। उल्लेखनीय है कि बाबा मायाराम पिछले दो दशकों से पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। पूर्व में वे कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं से संबद्ध रह चुके हैं। विभिन्न मुद्दों पर उनके लेख, रिपोर्टस व टिप्पणियां देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में छपती रही हैं।
पुस्तक से कुछ विचारणीय मुद्दे :
- आजादी के बाद अब तक जितनी विकास परियोजनायें बनी हैं उनमें सबसे ज्यादा विस्थापन का शिकार आदिवासियों को होना पड़ा है । आंकड़ों में सिर्फ प्रत्यक्ष विस्थापन ही शामिल है । काफ़ी विस्थापन अप्रत्यक्ष होता है ।
- एक बार विस्थापित होने के बाद लोगों की जिन्दगी फिर व्यवस्थित नहीं हो पाती । उलटे लोगों की हालत बदतर हो जाती है । विस्थापन का समाधान पुनर्वास से नहीं होता ।
- वन्य प्राणी संरक्षण के सन्दर्भ में ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ है कि मानवविहीन करके ही वन तथा वन्य जीवों को बचाया जा सकता है । बल्कि बोरी अभ्यारण्य के अनुभव से तो लगता है कि वन , वन्य जीव तथा वनवासियों का सहअस्तित्व संभव है ।
- वन्य जीवों के संरक्षण से जुड़ा है वन संरक्षण । जंगली जानवर जंगल में ही रहते हैं । यह विडंबना ही है कि वन्य प्राणी संरक्षण योजना की शुरुआत वनों को काट कर की जाए ।
- वन्य संरक्षण की योजनायें व नीतियां विरोधाभासी हैं । एक तरफ़ तो शेरों को बसाने के लिए लोगों को उजाड़ा जा रहा है वहीं दूसरी तरफ़ पर्यटकों के लिए सैर सपाटे के इंजाम किए जा रहे हैं ।
- एक दलील यह दी जाती है कि जंगलों में बसे आदिवासियों का विकास नहीं हो रहा है । तथ्य यह है कि जो गाँव विस्थापित किए गए हैं उनमें हर दृष्टि से लोगों की जिन्दगी पहले से बदतर हुई है ।
प्रकाशक व उपलब्धि केन्द्र – किसान आदिवासी संगठन , ग्रा/पो केसला , जिला – होशंगाबाद , मध्य प्रदेश,४६११११
मूल्य – पच्चीस रुपये ।