Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Archive for the ‘fdi’ Category

‘‘हमने ‘गार’ के भूत का दफना दिया है। अब पूंजी निवेशकों को डरने की जरुरत नहीं है। हमने खुदरा व्यापार मंे विदेशी पूंजी को इजाजत देने और ईंधन कीमतों मंे बढ़ोत्तरी के फैसले लिए हैं, जिनसे हमारी रेटिंग घटने का खतरा नहीं रहा। इन कदमों से अब निवेशक भारत में फिर से दिलचस्पी ले रहे हैं।’’
– वित्तमंत्री पी. चिदंबरम, 22 जनवरी 2013, हांगकांग

भारत के वित्तमंत्री का यह बयान कई मायनों मंे महत्वपूर्ण हैे और बहुत कुछ कहता है। हांगकांग में सिटी बैंक और बीएनपी नामक दो बहुराष्ट्रीय बैंकों द्वारा ‘निवेश के लिए भारत सम्मेलन’ का आयोजन किया गया था जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के 200 प्रतिनिधि शामिल हुए। इस मौके पर चिदंबरम के मुंह से यह उद्गार निकले। अगले दिन वे सिंगापुर मंे इसी मिशन पर गए। उसके बाद यूरोप में इसी तरह अंतरराष्ट्रीय पूंजीपतियों की चिरौरी करने गए। इसी समय 23 से 27 जनवरी तक स्विट्जरलैण्ड के दावोस नगर मंे विश्व आर्थिक मंच की सालाना बैठक मंे भारत के वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा और शहरी विकास मंत्री कमलनाथ निवेशकों को लुभाने गए। उसके बाद विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने यूरोप के दो देशों की यात्रा की तो उनके एजेण्डे मंे भी भारत-यूरोप आर्थिक सहयोग प्रमुख रुप से शामिल था।
यह साफ है कि इसके पहले भारत सरकार ने जो कई बड़े-बड़े फैसले लिए, उनका मकसद विदेशी निवेशकों को खुश करना था। ये अंतरराष्ट्रीय पूंजीपति निवेश का फैसला करने के लिए अंतरराष्ट्रीय साख निर्धारण (रेटिंग) एजेंसियों की तरफ देखते हैं। स्टेण्डर्ड एण्ड पुअर, मूडीज, फिच जैसी ये एजेंसियां पूरी तरह नवउदारवादी-पूंजीवादी सोच पर चलती है और उनका एकमात्र मकसद बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को बढ़ावा देना है। जिस फार्मूले से वे रेटिंग तय करती हैं, वह ब्याज दरों, शेयर बाजार, भुगतान संतुलन के ंचालू खाते के घाटे, सरकारी खर्च, विदेशी निवेशकों को रियायतों आदि पर आधारित होता है। अर्थव्यवस्थाओं के बारे मंे इनके अनुमान कई बार गलत निकले हैं। लेकिन भारत सरकार के लिए वही रेटिंग, शेयर सूचकांक, राष्ट्रीय आय वृद्धि दर जैसे ही मानक सर्वोपरि हो गए हैं।
यह ‘गार’ का भूत क्या है ? भारत सरकार की आमदनी और घाटे से चिंतित पिछले वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने पिछले साल के बजट मंे ‘गार’ का प्रावधान किया था। यह अंगरेजी के ‘जनरल एन्टी अवाॅयडेन्स रुल्स’ का संक्षेप है जिसका मतलब है कर-वंचन रोकने के सामान्य नियम। आय कर कानून के तहत बनाए जा रहे इन नियमों का मकसद देशी-विदेशी कंपनियों द्वारा करों की चोरी या कर से बचने की कोशिशों पर लगाम लगाना था। यह भी प्रावधान किया जा रहा था कि यदि कोई कंपनी कोई भी कर नहीं दे रही है तो उस पर एक न्यूनतम कर लगेगा। इसी बीच नीदरलैण्ड की वोडाफोन कंपनी ने भारत में टेलीफोन व्यवसाय के अधिग्रहण का देश के बाहर सौदा करके टैक्स से बचने की कोशिश की थी। उसको रोकने के लिए प्रणव मुखर्जी ने ऐसे सौदों को भी कर-जाल के दायरे मंे लाने और उसे पिछली अवधि से लागू करने की घोषण की थी। वोडाफोन कंपनी पर करीब 11,218 करोड़ रु. के टैक्स का दावा बनता था।
लेकिन प्रणव मुखर्जी का इन मंशाओं के जाहिर होते ही विदेशी कंपनियों मंेे खलबली मच गई। उन्होंने हल्ला मचाना शुरु कर दिया और भारत से अपनी पूंजी वापस ले जाने की धमकियां देनी शुरु कर दी। मनमोहन सिंह दुविधा मंे फंस गए। इस बीच भारत के राष्ट्रपति के चुनाव का एक अच्छा मौका मनमोहन सिंह के हाथ मंे आया। प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति बनाकर राह का रोड़ा हटाया गया। वित्तमंत्री का प्रभार लेते ही मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि ‘गार’ की समीक्षा की जाएगी। फिर मंत्रालय में चिदंबरम को लाया गया जिसकी कंपनी-भक्ति में कोई संदेह नहीं था। रंगराजन, कौशिक बसु, रघुराम राजन जैसे आर्थिक सलाहकार भी एक स्वर में अनुदानों को कम करने के साथ-साथ निवेशकों की आशंकाएं दूर करने का राग अलापने लगे। ऐसे ही एक अर्थशास्त्री पार्थसारथी शोम की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई। उसने फटाफट अपनी रपट पेश कर दी। 14 जनवरी को सरकार ने घोषणा कर दी कि गार नियमों को तीन साल के लिए स्थगित किया जाता है और 1 अप्रैल 2016 से उन्हें लागू किया जाएगा। इस बीच वित्तमंत्री यह भी घोषणा कर चुके थे कि किसी भी कंपनी को पिछली तारीख से कर के दायरे मंे नहीं लाया जाएगा। इससे वोडाफोन कंपनी को एक खरब रुपए से ज्यादा का फायदा हो गया।
गार स्थगन की घोषणा के साथ ही विदेशी पंूजीपतियों मंे खुशी की लहर दौड़ गई और दो दिन मंे ही सेन्सेक्स 20,000 के ऊपर पहुंच गया, जो कि दो साल का सबसे ऊंचा स्तर था। इसी समय भारत सरकार ने डीजल की कीमतें क्रमिक रुप से बढ़ाने, बड़े उपभोक्ताओं को बाजार दर पर डीजल देने, धीरे-धीरे डीजल कीमतों को पूरी तरह नियंत्रणमुक्त करने और डीजल पर अनुदान समाप्त करने का फैसला कर दिया। इससे भारतीय जनता पर चाहे बोझ पड़ा हो और महंगाई का नया दौर शुरु होने की संभावना बनी हो, लेकिन रिलायन्स तथा एस्सार कंपनियों को काफी फायदा पहुंचने वाला है। इन कंपनियों के पास तेलशोधन की क्षमता है, लेकिन डीजल-पेट्रोल सस्ता होने के कारण वे अपने पेट्रोल पम्प नहीं चला पा रही थी। अब बाजार दरें लागू होने पर उनका धंधा चल निकलेगा। इसी तरह दुनिया की सबसे बड़ी और बदनाम तेल कंपनी शेल ने भी भारत मंे पेट्रोल पम्पों के लाइसेन्स ले रखे हैं। उसकी भी कमाई के दरवाजे खुल जाएंगे। खुदरा व्यापार के दरवाजे भी प्रबल विरोध के बावजूद वालमार्ट जैसी विशाल कंपनियों के लिए खोले गए हैं। पिछले कुछ सालों मंे दरअसल सरकार के ज्यादातर फैसले कंपनियों को खुश करने और फायदा पहुंचाने के लिए ही किए गए हैं।
यह एक विचित्र बात है कि जो सरकार बजट घाटे का रोना रोती रहती है और खर्च कम करने के लिए आम जनता को मिलने वाले अनुदानों व मदद को कम करने पर तुली हुई है, वही सरकार दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों से करों को वसूलने और कर-चोरी रोकने के उपायों को आसानी से छोड़ देती है। मारीशस मार्ग जैसी कर-चोरी को उसने पूरी तरह इजाजत दे रखी है। कंपनियों को दी जाने वाली कर-रियायतें तथा उनको अनुदान हर बजट मंे विशाल मात्रा में बढ़ते जा रहे हैं। कारण यही है कि सरकार मंे बैठे लोग किसी भी किसी भी कीमत पर विदेशी पूंजी को रिझाने, लुभाने, खुश करने और बुलाने के लिए बैचेन है। इसके लिए वे देशहित, जनहित, सरकारहित, नैतिकता, संप्रभुता सबको तिलांजलि देने के लिए तैयार है। विदेशी पंूजी की यह गुलामी अभूतपूर्व है। आधुनिक भारत के इतिहास का यह एक शर्मनाक अध्याय है।
दरअसल भूत ‘गार’ का नहीं है, विदेशी पूंजी का महाभूत है जो भारत सरकार पर पूरी तरह सवार हो गया है। सरकार होश खो बैठी है और यह भूत उसको चाहे जैसा नचा रहा है। लातों के भूत बातों से नहीं मानते। इस भूत को उतारने के लिए एक बड़ा जन-विद्रोह करने करने का वक्त आ गया है।

Read Full Post »

ईसा मसीह स्वयं  पैदाइशी तौर पर यहूदी थे । वैसे ही नया दल बनाने की घोषणा करने वाले  केजरीवाल का कार्यक्रम लाजमी तौर पर  ‘इन्डिया अगेंस्ट करप्शन’ द्वारा बुलाया गया था – नए दल द्वारा नहीं  । नए दल का नाम ,संविधान और शायद पदाधिकारियों की सूची नवम्बर 26 को घोषित  किए जाएंगे – यह उस मंच से  परसों घोषित किया गया । कल के ‘दी हिन्दू ‘ मे  यह पहले पेज की मुख्य खबर में था  । खबर के अनुसार दल के नाम ,संविधान और पदाधिकारियों केके नाम आदि की घोषणा ”नवम्बर 26 ,अम्बेडकर जयन्ती ” के दिन होंगी । क्या यह सामान्य सी चूक थी ? दल का नाम आदि कब घोषित होगा यह भली प्रकार सोचा गया होगा । उसकी तिथि भी अच्छी तरह सोच-विचार कर तय की गई होगी । राजनीति में कदम रख रहे रहे हैं तो ‘राजनैतिक रूप से सही’ कदम के तौर पर बाबासाहब से जोड़ना भी लगा होगा। तब ? क्या पता ‘दी हिन्दू’ वालों ने यह गलती की हो?

केजरीवाल की अब तक की एक-सूत्री मांग लोकपाल  के  42 साल पहले जब जयप्रकाश लोकपाल की मांग करते थे तब भी वे योरप में कुछ स्थानों पर लागू ओमबड्समन की चर्चा करते थे। प्रशासन के अलावा संस्थाएं भी ओमबड्समन रखती हैं। भारतीय मीडिया जगत में ‘दी हिन्दू’ एक मात्र संस्था है-जहां लोकपाल,लोकायुक्त,ओमबड्समन से मिलता जुलता एक निष्पक्ष अधिकारी बतौर ‘रीडर्स एडिटर ‘ नियुक्त है । अभी तीन दिन पहले ही श्री पनीरसेल्वन इस पद पर नियुक्त हुए हैं । तो हमने उनसे तत्काल पूछा की कल अक्टूबर 3 ,2012 के अखबार में पहले पन्ने के मुख्य समाचार में यह जो कहा गया है – कि ”अम्बेडकर जयन्ती नवम्बर 26” को है यह यह उस जलसे वालों की गलती है या अखबार की ? हमने यह भी गुजारिश की मेहरबानी कर इस मसले  की हकीकत का  सार्वजनिक तौर पर ऐलान करें चूंकि की यह देश के एक बड़े  नेता के प्रति कथित ‘नई  राजनीति’ के दावेदारों की अक्षम्य उपेक्षा को दरसाता है । हमने यह इ-पत्र  लिखा :

To,
Readers’ Editor,
The Hindu.
Dear Sir ,
I want to draw your attention to the main news on page 1, Delhi edition,dated October 3,2012 with the heading ‘Kejriwal launches party,vo
ws to defeat ‘VIP system’. The news declares November 26 as ‘Ambedkar Jayanti’ which is factually wrong and shows ignorance about one of our national leaders . It should be made clear by you to the readers in general and the public in general whether this mistake is committed by the proposed new party or by The Hindu.
With regards,
Sincerely yours,
Aflatoon,
Member,National Executive,
Samajwadi Janaparishad.

आज अक्टूबर 4 ,2012 के अखबार (छपे संस्करण में) मेरे ख़त का जवाब आ गया है। ‘नवम्बर 26 को को अम्बेडकर जयन्ती बताने का का सन्दर्भ गलत है।विशेष संवाददाता का की सफाई  : यह (नवम्बर 26 को अम्बेडकर जयन्ती बताना ‘इंडिया  अगेंस्ट करप्शन ‘ के जलसे  के मंच से हुआ था।

>> In “Kejriwal launches party , vows to defeat ‘VIP system’ (page1,Oct 3,2012), the reference to November 26 as Ambedkar Jayanti is incorrect. The Special Correspondent’s clarification : It (November 26 as Ambedkar Jayanti remark ) was made from the dais during the India Against Corruption function.

 

तो भाई ‘द हिन्दू ‘ के लोकपाल जिन्हें  रीडर्स एडिटर कहा जाता है, ने यह साफ़ कर दिया कि अम्बेडकर जयन्ती की बाबत गलत सूचना इस नए दल वालों की थी।  अरविंद केजरीवाल एक समूह का प्रमुख विचारक माना जाता रहा है, उसके द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में उस समूह के मकसद के अनुरूप भाषण करता रहा है । यह समूह है – आरक्षण का विरोध करने के लिए बना समूह – यूथ फॉर इक्वालिटी  – मकसद है गैर-बराबरी कायम रखना और और नाम धरा है ‘बराबरी’ ! अन्ना के साथ जब पहली बार जंतर-मंतर पर जब केजरीवाल पहली बार धरना दे रहे थे तब इसी समूह से जुडे लड़के ‘ आरक्षण संवैधानिक भ्रष्टाचार है’ के नारे पहने हुए थे । नए दल के नजरिए में आरक्षण के समर्थन में वचन हैं । दूसरे के नजरिए को पचाने में वक्त लग सकता है? उस बीच के वक्त में ऐसी चूक हो सकती है? अगर महात्मा फुले की पुण्य तिथि  नवम्बर 28 से कन्फ्यूजिया रहे हों ? वह भी 26 नहीं 28 है।

परसों शाम मुझे योगेन्द्र यादव का इमेल मिला।केजरीवाल की प्रस्तावित पार्टी का दस्तावेज उसके साथ संलग्न था। सुनते  हैं  कि यह ड्राफ्ट भी योगेन्द्र का लिखा  । ऐसा होने पर  वे इस नई  प्रक्रिया के मात्र  प्रेक्षक नहीं रह जायेंगे ।   योगेन्द्र यादव ने केजरीवाल के मंच से बताया की वे समाजवादी जनपरिषद के सदस्य हैं । समाजवादी जनपरिषद के सक्रीय सदस्यों की भी एक आचार संहिता है। कथित नए दल की प्रस्तावित हल्की-फुल्की और त्रुटि -पूर्ण आचार संहिता की भांति  नहीं है समाजवादी जनपरिषद की आचार-संहिता। बिहार आन्दोलन के वरिष्ट साथी बिपेंद्र कुमार ने बताया की’वी आई पी संस्कृति’ के निषेध के लिए इस नए समूह की घोषणा कितनी हास्यास्पद है।दरअसल जड़ से कटा होने के कारण ऐसा होता है- ”हमारे विधायक और सांसद लाल बत्ती नहीं लगायेंगे” जोश में कह दिया । कहीं भी विधायक-सांसद यदि उन पर मंत्री जैसी जिम्मेदारी न हो तो बत्ती नहीं लगाते। शेषन , खैरनार,अनादी  साहू जैसे नौकराशाहों से इस पूर्व नौकरशाह और एन जी ओ संचालक की स्थिति मिलती जुलती हो यह बहुत मुमकिन है। स्वयंसेवी सन्स्थाओं  की पृष्टभूमि वाले राजनैतिक कर्मियों और उनसे अलग सच्चे अर्थों में राजनैतिक कर्मियों के बारे में किशन पटनायक ने हमें साफ़ समझ दी है :

‘वही एन जी ओ कार्यकर्ताओं को पाल पोस सकते हैं जो विदेशी दाता सम्स्थाओँ से पैसा प्राप्त करते हैं ।धनी देशों के एनजीओ के बारे हम कम जानते हैं। अधिकाँश दाताओं का उद्देश्य रहता है की उनके पैसे से जो सार्वजनिक कार्य होता है वह नवउदारवाद  और पूंजीवाद का समर्थक हो ।जो सचमुच लोकतंत्र  का कार्यकर्ता है उसके राजनैतिक खर्च के लिए या न्यूनतम पारिवारिक खर्च के लिए इन देशों में पैसे का कोई स्थायी या सुरक्षित बंदोबस्त नहीं होता है। देश में हजारों ऐसे कार्यकर्ता हैं जो पूंजीवाद विरोधी राजनीति में जहां एक ओर  पूंजीवाद और राज्य-शक्ति के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर अपने मामूली खर्च के लिए इमानदारी से स्खलित न होने का संघर्ष  जीवन भर कर रहे हैं ।उनमें से एक-एक का जीवन एक संवेदनापूर्ण किस्सा है , गाथा है , जो अभी तक न विद्वानों के शास्त्र का विषय बना है , न साहित्यिकों की कहानियों का विषय।हमारे लिए हैं वे हैं लोकतंत्र के आलोक-स्तम्भ ।”

इस बुनियादी समझ के साथ समाजवादी जनपरिषद ने सक्रीय सदस्यों  के लिए बनी अपनी आचार-संहिता में :

दल के संविधान की 3.1.(2) के अनुसार सक्रिय सदस्य दल द्वारा स्वीकृत आचरण संहिता का पालन करेगा। दल की आचरण संहिता पर हमे फक्र है तथा नई राजनैतिक संस्कृति की स्थापना के लिए इसे हम अनिवार्य मानते हैं। इसे यहाँ पूरा दे रहा हूँ :

समाजवादी जनपरिषद के प्रत्येक सक्रिय सदस्य के लिए यह अनिवार्य होगा कि वह-

1.1 जनेऊ जैसे जातिश्रेष्ठता के चिह्न धारण नहीं करेगा।

1.2 छुआछूत का किसी भी रूप में पालन नहीं करेगा।

1.3 जाति आधारित गालियों का प्रयोग नहीं करेगा ।

1.4 दबी हुई जातियों को छोड़कर किसी भी अन्य जाति विशेष संगठन की सदस्यता स्वीकार नहीं करेगा।

2.1 दहेज नहीं लेगा ।

2.2 औरत की पिटाई नहीं करेगा और औरत(नारी) विरोधी गालियों का व्यवहार नहीं करेगा।

2.3 एक पत्नी या पति के रहते दूसरी शादी नहीम करेगा और न ही उस स्थिति में बिना शादी के किसी अन्य महिला/पुरुष के साथ घर बसाएगा ।

3 धार्मिक या सांप्रदायिक द्वेष फैलाने वाली किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होगा ।

4 समाजवादी जनपरिषद के प्रत्येक सदस्य के लिए यह अनिवार्य होगा कि वह ऐसे किसी गैरसरकारी स्वैच्छिक संस्था (  NGO ), जो मुख्यत: विदेशी धन पर निर्भर हो,

(क) का संचालन नहीं करेगा ।

(ख) की सर्वोच्च निर्णय लेने वाली समिति का सदस्य नहीं होगा।

(ग) से आजीविका नहीं कमाएगा ।

5.1 सदस्यता-ग्रहण/नवीनीकरण के समय अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति व आय की घोषणा करेगा ।

5.2 अपनी व्यक्तिगत आय का कम से कम एक प्रतिशत नियमित रूप से समाजवादी जनपरिषद को देगा।

5.3 विधायक या सांसद  चुने जाने पर अपनी सुविधाओं का उतना अंश दल को देगा जो राष्ट्रीय  कार्यकारिणी द्वारा तय किया जायेगा।

बहरहाल योगेन्द्र यादव पर समाजवादी जनपरिषद के सक्रीय सदस्यों के लिए बनी ऊपर दी गयी आचार संहिता लागू नहीं है । इसकी धारा 4 से भी मुक्त हैं ,वे। सिर्फ सक्रीय सदस्य ही दल की जिम्मेदारियां लेता है ।किसी प्रस्तावित दल  के दस्तावेज का ड्राफ्ट बना कर  प्रेक्षक की सीमा का उल्लंघन किया अथवा नहीं यह दिल्ली की इकाई तय करेगी । दल का सदस्य जिस स्तर  का होता है उस स्तर  की समिति उससे जुड़े अनुशासन को देखती है ।

 

Read Full Post »

आजादी बचाओ आन्दोलन के संस्थापक प्रोफेसर बनवारीलाल शर्मा का आज सुबह चंडीगढ़ में देहान्त हो गया । वैश्वीकरण की गुलाम बनाने वाली नीतियों के विरुद्ध जन आन्दोलनों के वे प्रमुख नेता थे। विनोबा भावे से प्रेरित अध्यापकों के आन्दोलन ‘आचार्यकुल’ के वे प्रमुख स्तम्भ थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय अध्यापक संघ के वे तीन बार निर्विरोध अध्यक्ष चुने गये थे। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मकड़जाल से देश को सावधान करने के लिए आपने ‘साथियों के नाम’ बुलेटिन,नई आजादी का उद्घोष नामक पत्रिका शुरु की,सतत चलाते रहे तथा कई पुस्तकें लिखीं और अनुवाद भी किया। गणित का विद्यार्थी होने के कारण आपने फ्रेंच भाषा पर भी अधिकार कायम किया था। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उनकी निष्ठा,तड़प और सक्रियता कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत रहेगी।

प्रो. बनवारीलाल शर्मा , संस्थापक 'आजादी बचाओ आन्दोलन'

प्रो. बनवारीलाल शर्मा , संस्थापक ‘आजादी बचाओ आन्दोलन’

समाजवादी जनपरिषद अपने वरिष्ट सहमना साथी की स्मृति को प्रणाम करती है तथा उनके जीवन से प्रेरणा लेती रहेगी। ‘साथी तेरे सपनों को,मंजिल तक पहुंचायेंगे।’

Read Full Post »

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए।

आजादी की लड़ाई का एक साफ मकसद था , गुलामी के जुए को उतार फेकना। जब उद्देश्य ऊंचा और साफ-साफ होता है तब समाज का हर तबका उस  राजनीति से जुड़ जाता है । मौजूदा विधान सभा चुनाव एक ऐसे दौर में हो रहा है जब देश के हर नागरिक के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ तीव्र भावना है । लेकिन राजनीति की मुख्यधारा के अधिकांश’ दलों के पांव भ्रष्टाचार के कीचड से सने हैं। इसी वजह से आम जनता का इन चुनावों में उत्साह कम दिख रहा है। देश में बड़े बड़े घोटालों की आई बाढ़ की जड़ से १९९२ से चलाई गई आर्थिक नीतियों का सीधा सम्बन्ध है। इन नीतियों को केन्द्र और राज्य में रही हर दल की सरकार ने अपना लिया है। इसीलिए ये तमाम पारटियां इस चुनाव में इन मसलों से मुंह चुरा रही हैं । 

शिक्षित नौजवानों को छोटी-सी नौकरी भी बिना रिश्वत नहीं मिल रही। नई आर्थिक नीतियों से रोजगार के अवसर संकुचित हुए हैं। आबादी के मुट्ठी-भर लोगों के लिए रोजगार,स्वास्थ्य,शिक्षा की सुविधाओं को बढ़ावा देने का सीधा मतलब है कि आम लोगों को इन सुविधाओं से दूर किया जाना। जब आम जनता की जरूरतों को पूरा करना उद्देश्य होगा तब ही रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और वे रोजगार सुरक्षित रहेंगे। एक प्रभावशाली जन लोकपाल कानून की धज्जियां उड़ाने में सभी बड़े दलों ने कोई कसर नहीं छोड़ी ।  भ्रष्टाचार का सफाया करने के लिए जन लोकपाल के अलावा भी अन्य पहल भी करनी होंगी।

बुनकरीजरदोजी तथा अन्य रोजगार , स्वास्थ्य , शिक्षा – इन सभी क्षेत्रों में जनता की दुशवारियां बढ़ गई हैं। आम बुनकर और दस्तकार को ध्यान में रखकर कपड़ा नीति और दस्तकार नीति अब तक नहीं बनी है । सभी बड़ी पार्टियां इसके लिए जिम्मेदार हैं । बुनकरों की सहकारी समिति के नाम पर फर्जीवाड़े के मामले भी सामने आए हैं । जरदोजी और दस्तकारी से जुड़े लोगों को बुनकरों के समान सुविधायें मिलनी चाहिए। बुनकर और दस्तकार इस देश के लिए बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अर्जित करते हैं लेकिन उनकी तरक्की की हमेशा अनदेखी की जाती है।
खेती और दस्तकारी के बाद हमारे देश में सबसे बड़ा रोजगार खुदरा-व्यापार है जिस पर हमले की रणनीति बन चुकी है। केन्द्र सरकार की पार्टी के राजकुंवर की समझदारी के अनुसार दानवाकार विदेशी कम्पनियों को देश का खुदरा-व्यापार सौंप कर वे किसानों का भला करने जा रहे हैं । देश के सबसे बड़े घराने के द्वारा जिन सूबों में सब्जी का खुदरा-व्यवसाय हो रहा है क्या वहां के किसानों ने खुदकुशी से मुक्ति पा ली है ?
प्रदेश की सरकार द्वारा भ्रष्टाचार को नया संस्थागत रूप दे दिया गया है। किसानों की जमीनें लेकर जो बिल्डर नये नगर और एक्सप्रेस-वे बनाने की जुगत में है, उनके खर्च पर प्रदेश सरकार पुलिस थाने ( चुनार ) का निर्माण करवाया है। कई पुलिस चौकियां अपराधियों के पैसों से बनवाई गई हैं। समाजवादी जनपरिषद नई राजनैतिक संस्कृति की स्थापना के लिए बना है। जिन इलाकों में दल ने संघर्ष किया है और मजबूत जमीन बना ली है सिर्फ वहीं चुनाव में शिरकत करता है।  मजबूत राजनैतिक विकल्प बनाने का काम व्यापक जन-आन्दोलन द्वारा ही संभव है । इसलिए भ्रष्ट राजनीति के दाएरे से बाहर चलने वाले आन्दोलनों और संगठनों के मोर्चे का वह हिस्सा है। राष्ट्रीय-स्तर पर लोक राजनीति मंच’ तथा जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय ऐसी बड़ी पहल हैं तथा स्थानीय स्तर पर साझा संस्कृति मंच , जो सामाजिक सरोकारों का साझा मंच है ।
वाराणसी के हमारे प्रत्याशी की राजनैतिक यात्रा इसी शहर में भ्रष्टाचार विरोधी जयप्रकाश आन्दोलन के किशोर कार्यकर्ता के रूप में  शुरु हुई| छात्र-राजनीति को जाति-पैसे-गुंडागर्दी से मुक्त कराने की दिशा में समता युवजन सभा से वे जुड़े और एक नयी राजनीति की सफलता के शुरुआती प्रतीक बने। लोकतांत्रिक अधिकार और विकेन्द्रीकरण , सामाजिक न्याय ,पर्यावरण तथा आर्थिक नीति के दुष्परिणामों के विरुद्ध संगठनकर्ता बने तथा इन्हीं संघर्षों के लिए समाज-विरोधी ताकतों के लाठी-डंडे खाये और थोपे गए फर्जी मुकदमों में कई बार जेल गये। फिरकावाराना ताकतों का मुकाबला करने के लिए नगर में गठित ‘सद्भाव अभियान’ से वे सक्रियता से जुड़े । साम्प्रदायिक दंगों के दौरान थोपे गये फर्जी मुकदमों को हटाने के पक्ष में तथा हिंसा में शरीक लोगों पर लगे मुकदमों को सरकार द्वारा हटाने के विरुद्ध अफलातून ने कामयाब कोशिश की। पुलिस उत्पीड़न के खिलाफ हमारे समूह ने रचनात्मक संघर्ष का सहारा लिया है तथा मानवाधिकार आयोग द्वारा सार्थक हस्तक्षेप के लिए पहल की है ।
वाराणसी के स्त्री सरोकारों के साझा मंच – समन्वय के माध्यम से शहर में ही नहीं समूचे राज्य में हुए नारी-उत्पीड़न के विरुद्ध कारगर आवाज उठाई गई है ।
रोज-ब-रोज की नागरिक समस्याओं का समाधान नगर निगम और उसके सभासदों के स्तर पर होना चाहिए । विधायक-नीधि का दुरुपयोग ज्यादा होगा यदि कोई ठेकेदार ही विधायक बन जाए।
इसलिए वाराणसी कैन्ट क्षेत्र में भ्रष्ट राजनीति से जुड़े दलों का विकल्प खोजने की आप कोशिश करेंगे तो आपकी निराशा दूर हो सकती है । बड़े दलों से जनता की निराशा के कारण फिर अस्पष्ट बहुमत का दौर शुरु होगा ऐसा प्रतीत हो रहा है।इसलिए समाजवादी जनपरिषद के उम्मीदवार विधान सभा में विपक्ष में रहने और जन आकांक्षाओं की आवाज को बुलन्द करने का संकल्प लेते हैं। हमें जनता के विवेक पर भरोसा है। यह सिर्फ अफवाह ही हो सकती है कि सुबह होगी ही नहीं । सुबह होगी क्योंकि मत, बल,समर्थन आपके हाथ में है। भ्रष्ट राजनीति से जुड़े दलो से छुटकारा पाने की आपकी कोशिश सफल होगी यह हमे यकीन है। विधान सभा में आपकी आवाज बुलन्द हो इसलिए हम आप से अपील करते हैं कि अपना अमूल्य वोट देकर वाराणसी कैन्ट से समाजवादी जनपरिषद के साफ-सुथरे और जुझारु उम्मीदवार अफ़लातून को भारी मतों से विजयी बनाएं ।निवेदक,
समाजवादी जनपरिषद , उत्तर प्रदेश
लोक राजनैतिक मंच                                     साझा संस्कृति मंच

Read Full Post »

विदेशी कंपनियों को खुदरा व्यापार में इजाजत देने के बारे में उठे विवाद पर सफाई में प्रधानमंत्री ने कहा है कि यह फैसला बहुत सोच-समझकर किया गया है। प्रधानमंत्री की इस बात में सचाई है। इसकी तैयारी बहुत दिनों से चल रही थी। कैबिनेट सचिवों की समिति ने दो महीने पहले ही इसकी सिफारिश कर दी थी। महंगाई पर जब हल्ला हो रहा था, तभी मोंटेक सिंह अहलूवालिया, रंगराजन और कौशिक बसु ने कह दिया था कि इसका इलाज खुदरा व्यापार में बड़ी कंपनियों को बढ़ावा देने में ही निहित है। भारत के प्रधानमंत्री और वाणिज्य मंत्री काफी पहले से दावोस, न्यूयॉर्क और वाशिंगटन में वायदा करते आ रहे थे कि वॉलमार्ट के लिए भारत के दरवाजे खोले जाएंगे। जिस दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों की बात वे करते आए हैं, यह उसका एक प्रमुख हिस्सा है।

वैश्वीकरण-उदारीकरण-कंपनीकरण के जिस रास्ते पर हमारी सरकारें चल रही हैं, यह उसका अगला पड़ाव है। इसलिए इस बारे में विपक्ष का विरोध अधूरा एवं खोखला है। जहां और जब वे सत्ता में रहे, उन्होंने भी विदेशी पूंजी को दावत दी। हर मुख्यमंत्री उन्हें न्योता देने विदेश यात्राओं पर गया। नीतीश कुमार जब देश के कृषि मंत्री थे, तो उन्होंने राष्ट्रीय कृषि नीति की घोषणा की, जिसमें खुलकर खेती में विदेशी कंपनियों को आगे बढ़ाने का नुसखा पेश किया गया। इसके खिलाफ हुंकार भरने वाले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने देशी-विदेशी कंपनियों की मिजाजपुर्सी करने के लिए छह-सात ग्लोबल इंवेस्टर्स मीट आयोजित की। जीवन के दूसरे क्षेत्रों में विदेशी कंपनियां प्यारी और खुदरा व्यापार में बुरी, खुदरा व्यापार में भी रिलायंस-भारती-आईटीसी अच्छी और वॉलमार्ट बुरी-ऐसा मानने वालों के अंतर्विरोधों से ही उनका विरोध कमजोर हो जाता है।

भारतीय बाजारों में विदेशी घुसपैठ की शुरुआत तभी हो गई थी, जब भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना और कुछ वर्षों बाद एक झटके में 1,423 वस्तुओं का बाजार विदेशी वस्तुओं के लिए खोला गया। भारत के थोक व्यापार, एक ब्रांड के व्यापार और कृषि व्यापार को विदेशी कंपनियों के लिए खोला गया था, तभी स्पष्ट हो गया था कि अगला नंबर खुदरा व्यापार का है। विडंबना यह है कि इस अवधि में गैर-कांग्रेसी सरकारें भी रहीं।

दृष्टिदोष से ग्रस्त हमारे शासकों एवं विशेषज्ञों को इतना भी दिखाई नहीं देता कि पश्चिमी देशों और भारत की परिस्थितियों में भारी फर्क है। वहां भी वॉलमार्ट ने छोटे दुकानदारों को बेदखल किया, किंतु उनकी संख्या बहुत कम थी और वे खप गए। भारत में तो विशाल श्रमशक्ति है। खेती और उद्योग के बाद व्यापार ही इस देश में सबसे ज्यादा रोजगार प्रदान करता है। एक तरह से घोर बेरोजगारी के इस युग में जब कहीं नौकरी नहीं मिलती, तो एक किराना दुकान, चाय या पान की दुकान ही रोजी-रोटी का जरिया बनती है। अब इसी पर हमला हो रहा है।

अमेरिका का अनुभव है कि वॉलमार्ट का एक मॉल खुलता है, तो उसकी 84 फीसदी आय स्थानीय छोटे व्यापारियों का धंधा हड़पकर ही होती है। यह भी तय है कि बाजार के वॉलमार्टीकरण से स्थानीय छोटे-छोटे उत्पादकों का धंधा मारा जाएगा। सरकार ने महज इतनी ही शर्त लगाई है कि 30 प्रतिशत आपूर्ति छोटे उद्योगों से ली जाएगी, किंतु ये छोटे उद्योग देश या दुनिया में कहीं के भी हो सकते हैं। अब यह भी साफ हो रहा है कि पूरे देश में अतिक्रमण हटाने या नगरों को सुंदर बनाने के नाम पर फुटपाथ विक्रेताओं, गुमटी-हाथठेला विक्रेताओं आदि को हटाने की जो मुहिम चलती रही है, वह शायद मॉलों के लिए ही रास्ता साफ करने की कार्रवाई थी।

प्रधानमंत्री का दूसरा झूठा दावा किसानों को फायदा पहुंचाने का है। खुदरा व्यापार में रिलायंस फ्रेश, चौपालसागर, हरियाली आदि के रूप में बड़ी देशी कंपनियों की शृंखला तो पहले ही काम कर रही है। क्या इससे भारत के किसानों को बेहतर दाम मिले? क्या खेती का संकट दूर हुआ? यदि कुछ बेहतर दाम मिलें भी, तो लागतें भी बढ़ जाती हैं और कांट्रेक्ट खेती के जरिये किसान कंपनियों पर बुरी तरह निर्भर हो जाता है। इस बात की भी पूरी आशंका है कि किसानों की उपज खरीदने के लिए कंपनियां आ चुकी हैं, यह बहाना बनाकर सरकार समर्थन-मूल्य पर कृषि उपज की खरीद बंद कर दे। इसके लिए इन विदेशी कंपनियों का दबाव भी होगा। भारतीय खेती के ताबूत पर यह आखिरी कील होगी।

प्रधानमंत्री का तीसरा झूठ यह है कि इससे व्यापार में बिचौलिये खत्म होंगे और महंगाई कम होगी। यह जरूर है कि छोटे-छोटे लाखों बिचौलियों की जगह चंद बहुराष्ट्रीय बिचौलिये ले लेंगे, जिनकी बाजार को नियंत्रित करने व उस पर कब्जा करने की अपार ताकत होगी। क्या अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को अर्थशास्त्र के इस सामान्य नियम को याद दिलाना होगा कि एकाधिकारी प्रवृत्तियां बढ़ने से कीमतें बढ़ती हैं, कम नहीं होतीं? सच तो यह है कि ये बड़े बहुराष्ट्रीय व्यापारी किसानों, उत्पादकों, उपभोक्ताओं सबका शोषण करेंगे तथा लूट का मुनाफा अपने देश में ले जाएंगे।

यह घोर पतन का युग है। यह ज्यादा खतरनाक भ्रष्टाचार है। इसके खिलाफ कोई जेपी आंदोलन, कोई अरब वसंत या कोई वॉलस्ट्रीट कब्जा आंदोलन चलाने का वक्त आ गया है। किंतु ऐसे किसी भी आंदोलन को नवउदारवाद और विकास के मॉडल पर भी प्रहार करना होगा, तभी उसकी विश्वसनीयता और गहराई बन पाएगी।

Read Full Post »

लेखक समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा अर्थशास्त्री हैं |डा. राममनोहर लोहिया की प्रसिद्ध पुस्तक Marx , Gandhi and Socialism का एक अध्याय है-Economics after Marx |प्रस्तुत आलेख उसके आगे का कथन है | ]

अर्थशास्त्र :मार्क्स और लोहिया से आगे : ले. सुनील

पृष्ट २ , लोहिया से आगे

पृष्ट ३ लोहिया से आगे
[ शेष अगली किश्त में ] चित्र पत्र खटका मार कर सेव कर लें , तब पढ़ें ।

मुद्रित रूप में यह लेख उपलब्ध है :  १.

अर्थशास्त्र : मार्क्स और लोहिया से आगे. लेखक सुनील

२.

अर्थशास्त्र – मार्क्स , लोहिया से आगे (२): आंतरिक उपनिवेश,ले. सुनील

३.

जारी है पूंजी का ‘आदिम संचय’ प्राकृतिक दोहन द्वारा:ले. सुनील (३)

Read Full Post »

Technorati tags: ,

    पश्चिम बंग सरकार की शासक पार्टी के छात्र सँगठन एस.एफ.आई. के एक कार्यक्रम मेँ मुख्यमन्त्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने घोषित किया है कि

    (१)नन्दीग्राम मेँ विशेष आर्थिक क्षेत्र नहीँ बनेगा |पश्चिम बंग में कहीं और इसे स्थानान्तरित करने की सम्भावना है |जुल्म और जुल्म का विरोध भी स्थानान्तरित होंगे,उम्मीद है |मुख्यमन्त्री ने अब यह कहा है कि नन्दीग्राम के लोग यदि सेज़ नहीँ चाहते तो यह और कहीँ बनेगा|

    (२) केन्द्र सरकार द्वारा सेज़ की बाबत विस्तृत पुनर्वास नीति न बनने तक पश्चिम बंग के सभी विशेष आर्थिक क्षेत्रोँ के बनने की प्रक्रिया स्थगित रहेगी |

    (३) नन्दीग्राम मेँ हुई पुलिस कार्रवाई की जिम्मेदारी भी बुद्धदेव खुद पर ले रहे हैं | इस स्वीकृति के बाद भी स्टालिनवादी पार्टी द्वारा उन पर कोई कार्रवाई हो , यह कत्तई जरूरी नहीँ है|

Read Full Post »

Technorati tags: , , ,

    विकास दर के आँकड़े कितने भ्रामक हो सकते हैं , विकास के दावे कितने खोखले हो सकते हैं , वैश्वीकरण की व्यवस्था कितनी विसंगतिपूर्ण हो सकती है , यह आज जितना स्पष्ट हो गया है , उतना शायद पहले कभी नहीं था । भारत सरकार बड़े गर्व से घोषणा कर रही है कि भारत की राष्ट्रीय आय अब ९ प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर हासिल कर चुकी है और निकट भविष्य में दो अंकों ( यानी दस प्रतिशत ) में पहुँच जाएगी ।

    भारत की सत्ता में बैठी सरकारें देश की खुशहाली के तीन लक्षण बता रही हैं और उनके आधार पर स्वयं को शाबाशी दे रही हैं : –

    ( १ )  राष्ट्रीय आय में ऊँची वृद्धि दर , ( २ ) विदेशी पूँजी निवेश में आयी तेजी और ( ३ ) शेयर बाजार की तेजी । लेकिन इन तीनों से भारत की करोड़ों साधारण जनता की जिन्दगी की असलियत की कोई झाँकी नहीं मिलती है , बल्कि शायद भारत की जनता के बढ़ते शोषण और बदहाली से ही इन तीनों में तेजी आयी है । जबरदस्त बेरोजगारी , किसानों की बदहाली और आत्महत्याएँ , मजदूरों व कारीगरों के बढ़े शोषण , बन्द होते  छोटे-बड़े उद्योग , बढ़ती मँहगाई , जीवन की बुनियादी सामुदायिक सुविधाओं ( शिक्षा , इलाज , पानी , बिजली , परिवहन आदि ) के बढ़ते बाजारीकरण , बढ़ते भ्रष्टाचार आदि ने भारत के आम लोगों के जीवन में एक जबरदस्त संकट पैदा कर दिया है । इस संकट को विकास दर , विदेशी मुद्रा कोष या शेयर बाजार की आँकड़ों से ढका या झुठलाया नहीं जा सकता । यहाँ तक कि मनमोहन , चिदम्बरम , मोन्टेक सिंह की तिकड़ी को भी स्वीकार करना पड़ रहा है कि यह ‘विकास’ रोजगाररहित है , लोगों को शामिल करने वाला नहीं है और इसमें खेती तथा गाँव पीछे छूटते जा रहे हैं । लेकिन उनकी ये चिन्ताएँ एक पाखण्ड हैं , क्योंकि यह कोई संयोग नहीं है , यह तो उनके द्वारा अपनायी गयी नीतियों का अनिवार्य अंग एवं परिणाम है ।

    पिछले कुछ वर्षों से भारत की विकास दर में जो तेजी आई है , उसमें सबसे प्रमुख योगदान सेवाओं का है , फिर उद्योगों का और कृषि क्षेत्र का योगदान नगण्य है । कुछ वर्षों में तो कृषि उत्पादन में गिरावट आयी है । लेकिन देश की आधे से ज्यादा आबादी खेती पर निर्भर है । इसलिए इस विकास का असंतुलन बहुत स्पष्ट है ।खेती और उद्योगों में ही किसी अर्थव्यवस्था का वास्तविक उत्पादन होता है । सेवाओं की भूमिका तो एक परजीवी की होती है । इसलिए सेवाओं का हिस्सा बहुत बढ़ने का मतलब शोषण में वृद्धि है । यह असंतुलित विकास बहुत दिन नहीं चल सकता है । कम्प्यूटर और सूचना टेकनालाजी उद्योग की प्रगति , कम्पनियों के विलय-अधिग्रहण , बढ़ते शॉपिंग मॉल , फ्लाइ-ओवर और कारों के नये-नये मॉडलों के पीछे देश की बढ़ती कंगाली , बेरोजगारी और विषमता की सच्चाई छुपी है । विकास दर के साथ वर्ग और क्षेत्रीय विषमता भी तेजी से बढ़ी है ।

    भारत के किसान लगातार कंगाली , ऋणग्रस्तता और बरबादी की ओर बढ़ रहे हैं । देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला नहीं रुक रहा है । १९९३ से अभी तक देश में एक लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं । पिछले वर्ष प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विदर्भ की यात्रा की , किसानों की विधवाओं से मुलाकात की और किसानों के हित में कुछ घोषणाएँ कीं । किन्तु प्रधानमंत्री की इन घोषणाओं के बाद आत्महत्याओं का सिलसिला थमा नहीं , बल्कि और बढ़ गया । इसकी वजह यह है कि किसानों के संकट का मूल कारण बैंकों से मिलने वाले करजों की कमी नहीं है , जो मनमोहन सिंह द्वारा किसानों को और ज्यादा करजे दिलाने की घोषणा से यह संकट दूर हो जाता और किसान आश्वस्त हो जाते । असली समस्या तो यह है कि आधुनिक विकास और वैश्वीकरण ने खेती को जबरदस्त घाटे का धन्धा बना दिया है । एक तरफ मुक्त व्यापार की नीतियों ने या तो कृषि उपज के दाम नहीं बढ़ने दिये हैं या गिरा दिए हैं तथा विश्व बैंक – मुद्रा कोष के निर्देशों से खेती की लागतें लगातार बढ़ रही हैं । ऐसी हालत में ज्यादा करजे का मतलब किसान की ज्यादा कर्जग्रस्तता और ज्यादा आत्महत्याएँ हैं ।

    भारत सरकार की नीतियाँ किस तरह किसानों के खिलाफ और बड़े व्यापारियों व कम्पनियों के पक्ष में हैं , इसका ताजा उदाहरण कृषि उपज के आयात और निर्यात की घोषणाएँ हैं । जिस देश में कुछ साल पहले गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं थी , वहाँ दो वर्ष पहले अचानक अनाज का अभाव पैदा हो गया और बड़े पैमाने पर गेहूँ आयात करने का निर्णय लेना पड़ा । इसका प्रमुख कारण यह था कि भारत सरकार ने उत्पादन लागत बढ़ने के बावजूद कई सालों तक गेहूँ के समर्थन मूल्य में कोई विशेष वृद्धि नहीं की और उसे जबरदस्ती कम करके रखा ।जो सरका देश के किसानों को ६५० रु. से ज्यादा समर्थन मूल्य देने को तैयार नहीं थी , उसी ने १००० रु. के दामों पर विदेशों से गेहूँ आयात किया । बाजार में गेहूँ बहुत मँहगा हो गया और गरीबों के लिए अनाज खरीदकर खाना मुश्किल हो गया । यह भारत सरकार की कृषि नीति और खाद्यनीति की विफलता का खुला प्रमाण है । कैसे सरकार की नीति व निर्णय से वास्तविक उत्पादक और उपभोक्ता दोनों को नुकसान होता है , फायदा सिर्फ बिचौलियों व कम्पनियों को होता है , उसका भी यह एक और उदाहरण है । हाल ही में , भारत सरकार ने गेहूँ के निर्यात पर प्रतिबन्ध की घोषण भी तब की , जब उसकी फसल बाजार में आने वाली है । एक बार फिर किसानों को नुकसान होगा और कम्पनियों को फायदा होगा ।

    संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण तथा बजट में भारत सरकार ने मँहगाई के बारे में चिन्ता तो जाहिर की है , लेकिन अनाज , दालों व खाद्य तेलों का अभाव और दाम-वृद्धि पिछले काफी समय से चली आ रही सरकार की किसान-विरोधी एवं राष्ट्र-विरोधी नीतियों का ही परिणाम है । खाद्यान्नों एवं अन्य क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता को जानबूझकर नष्ट करने की आत्मघाती नीति पर हमारी सरकारे चल रही हैं ।

    बढ़ते दामों पर रोक लगाने के लिए सरकार ने पिछले दिनों पहले उड़द और अरहर और बाद में गेहूँ व चावल के वायदा कारोबार पर रोक लगायी है । इसका मतलब है कि सरकार को अब बहुत देर से समझ में आया है कि वायदा कारोबार का लाभ सटोरिये और जमाखोर उठा रहे हैं तथा देश की साधारण जनता को लूटा जा रहा है । सवाल यह है कि जनता की बुनियादी जरूरतों वाली वस्तुओं का वायदा कारोबार शुरु ही क्यों किया गया ? उदारीकरण की नीतियों के दुष्परिणामों और उदारीकरण के अर्थशास्त्र की बड़ी कीमत देश को चुकानी पड़ रही है ।

    ( समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय सम्मेलन में पारित ‘आर्थिक प्रस्ताव’ से । इस प्रस्ताव का शेष हिस्सा यहाँ देखें ।)

Read Full Post »

    डॊलर -रुपये की लूट

    अंतर्राष्ट्रीय विनिमय में अमरीका जैसे देश एक और तरीके से भारत जैसे देशों को लूट रहे हैं । वह है डॊलर और रुपए का विनिमय दर । बीस साल पहले एक डॊलर आठ-दस रुपये का था , आज वह ४८ रुपये का हो गया है। लेकिन क्रयशक्ति समता ( Purchasing Power Parity ) के हिसाब से देखें , अर्थात वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने की क्षमता से तुलना करें , तो एक डॊलर आज भी दस रुपये से ज्यादा का नहीं होना चाहिए । इस अत्यधिक गैरबराबर विनिमय दर का मतलब है कि हम अपने आयातों का पांच गुना ज्यादा भुगतान कर रहे हैं। यह जबरदस्त लूट और शोषण है ।

    अब बात साफ हो जानी चाहिए । इस जबरदस्त लूट और शोषण को सुविधाजनक बनाने और बढ़ाने के लिए ही अमरीका व दुनिया के अन्य अमीर देश मुक्त व्यापार की हिमायत करते हैं और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाने की वकालत करते हैं । विश्व व्यापार संगठन भी इसीलिए बनाया गया है तथा मुक्त व्यापार के क्षेत्रीय समझौते भी इसीलिए किए जा रहे हैं । दरअसल वैश्वीकरण की यह व्यवस्था नव-औपनिवेशिक शोषण और साम्राज्यवादी लूट का ही नया रूप है,नया औजार है । जैसे विदेशी पूंजी से भारत के विकास की बात वास्तविकता से परे एक अन्धविश्वास है , वैसे ही मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय ढांचे में निर्यातों से देश के विकास को गति मिलेगी,यह भी एक और अन्धविश्वास है ।

    इन्हीं आर्थिक अंधविश्वासों के चलते आज भारत की अर्थव्यवस्था एक गहरे संकट में फंस गयी है । भले ही ऊपर बैठे शासक और अर्थशास्त्री ८ प्रतिशत विकास दर की खुशियाँ मनाते रहें , लेकिन देश की विशाल आबादी जबरदस्त बेरोजगारी,कंगाली,कुपोषण और अभावों से जूझ रही है । किसान , बुनकर , कारीगर और छोटे व्यापारी हजारों की संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं । पिछले पन्द्रह वर्षों में देश के पांच लाख छोटे-बड़े उद्योग बंद हो चुके हैं । जिस तरह का औद्योगिक विनाश ( de-industrialisation) डेढ़ सौ वर्ष पहले अंग्रेजों के राज में भारत में हुआ था , उसी तरह का औद्योगिक विनाश बड़े पैमाने पर एक बार फिर आजाद भारत में हो रहा है । तब खेती पर निर्भर आबादी बढ़ गयी थी , अब तथाकथित ‘ सेवाओं’ का हिस्सा बढ़ रहा है । लेकिन खेती , पशुपालन , उद्योग , खदानें , आदि में ही वास्तविक उत्पादन एवं आय सृजन होता है । एक सीमा के बाद सेवा क्षेत्र की वृद्धि भी इन पर निर्भर रहती है ।यदि खेती-उद्योग का विनाश होता है तो मात्र ‘ सेवाओं ‘ के दम पर कोई भी अर्थव्यवस्था नहीं चल पाएगी । पूरा देश एक बार फिर बरबादी ,कंगाली और गुलामी की राह पर है ।

देश बचेगा , तो हम बचेंगे

    जैसे पुत्रमोह में धृतराष्ट्र अन्धे हो गए थे और सच्चाई व न्याय को नहीं देख पा रहे थे तथा न ही अवश्यंभावी कलह तथा विनाश को देख पाये , वैसे ही आज के शासक भी वैश्वीकरण की चकाचौंध में देश के ऊपर आसन्न संकट को देख नहीं पा रहे हैं। यदि इसे नहीं रोका गया, तो पौराणिक ‘महाभारत’ से ज्यादा बड़ी विनाशलीला होगी । ऐसे भारत का भविष्य अंधकारमय है । और यदि भारत का कोई भविष्य नहीं होगा,तो बी.एस.एन.एल का भी कोई भविष्य नहीं होगा। आज बी.एस.एन.एल. के ऊपर जो संकट आ रहा है, वह वैश्वीकरण की विनाशकारी प्रक्रिया का हिस्सा है । बी.एस.एन.एल. का भविष्य अनिवार्य रूप से देश के भविष्य से जुड़ा है ।

    ऐसी हालत में , हम सबको मिलकर देश को बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा । लेकिन यह लड़ाई बी.एस.एन.एल. के कर्मचारी अकेले नहीं लड़ पाएंगे। इसके लिए उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य कर्मचारियों , किसानों, मजदूरों , बुनकरों,मछुआरों , आदिवासियों ,दलितों आदि के साथ एकता बनाना पड़ेगा। मरा आपसे अनुरोध है कि पगार तथा बोनस की लड़ाई छोड़ें।वे तो छोटी बातें हैं। इस बड़ी लड़ाई के लिए तैयार हो जाएं । तभी देश बचेगा और तभी बी.एस.एन.एल भी बचेगा ।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

( नेशनल फेडरेशन ओफ़ टेलिकोम एम्प्लाईज़,बी.एस.एन.एल औरंगाबाद जिला शाखा,महाराष्ट्र द्वारा विदेशी पूंजी और बी.एस.एन.एल. का भविष्य पर आयोजित परिसंवाद में सुनील,राष्ट्रीय महामन्त्री,समाजवादी जनपरिषद का भाषण, दिनांक १० फरवरी २००६ )

Technorati tags: , ,

Read Full Post »

देश हित से ऊपर विदेशी पूंजी

    विदेशी पूंजी का मोह इतना ज्यादा है कि देश हित , जन स्वास्थ्य , पर्यावरण सबको धता बताई जा रही है । शीतल पेय की कोका कोला – पेप्सी कंपनी की बोतलें नुकसानदायक हैं , यह प्रमाणित हो चुका है । फिर भी उन्हें प्रतिबन्धित करने की हिम्मत भारत सरकार की नही है ।और बोतलबंद पानी का धन्धा तो इन कंपनियों की लूट का बढ़िया उदाहरण है। पाँच पैसे का पानी , पचास पैसे की पैकिंग और दाम दस रुपए !इससे ज्यादा मुनाफा और लूट का धन्धा और क्या होगा ?

    बीमा और बैंकिंग क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को प्रवेश देना भी देशहित के खिलाफ़ है । विदेशी बैंक और विदेशी बीमा कंपनियाँ शुरु में थोड़ी पूंजी विदेश से लाएंगे। लेकिन फिर जमा राशि और प्रीमियम राशि तो इस देश की जनता से ही इकट्ठा करेंगे और उससे अपना धन्धा करेंगे । बचत भारतीय जनता की , पूंजी इस देश की , और उससे कमाई विदेशियों की – यह तो लूट है। इसकी इजाजत हम क्यों दे रहे हैं ?

    विदेशी पूंजी और निर्यात के पागलपन में ही ‘पोस्को’ जैसे समझौते हो रहे हैं । यह गर्व से बताया जा रहा है कि दुनिया का सबसे बड़ा इस्पात कारखाना भारत में लगेगा और भारत में अब तक का सबसे बड़ा पूंजी निवेश होगा । किंतु कारखाने के लिए जितना लोहा लगेगा , उससे काफी ज्यादा कच्चा लोहा निर्यात करने की अनुमति इस विदेशी कंपनी को दे दी गयी है । यह कहाँ की बुद्धिमानी है ? कच्चा लोहा निर्यात करने के बजाय इस्पात निर्यात करते तो भारत के लोगों को रोजगार मिलता । फिर पोस्को जैसे दो-चार सौदे और हो गए, तो भारत का लौह खनिज भण्डार १०० साल चलने वाला था , वह ५० साल में ही खतम हो जाएगा । भारत की अपनी विकास की जरूरतों का कोई विचार नहीं किया गया ।

    विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों के पक्ष में एक और दलील है कि इनके आने से भारत का निर्यात बढ़ाने में मदद मिलेगी। पिछले कुछ समय से , चीन की नकल पर , भारत सरकार ने ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ (SEZ) बनाना शुरु कर दिए हैं और और उनके लिए एक कानून भी संसद मे पारित किया है । ये विशेष ज़ोन होंगे तो भारत की भूमि पर,किंतु उन पर भारत के कानून लागू नहीं होंगे । इन ज़ोनों में स्थित देशी-विदेशी कंपनियों पर आयकर,सीमाशुल्क आदि नहीं लगेंगे । जमीन मुफ़्त या रियायती दरों पर मिलेगी । भारत के श्रम-कानूनों से भी आगे चल कर इन्हें मुक्त कर दिया जाएगा । भारत के वाणिज्य मन्त्री का कहना है कि इससे विदेशी कंपनियाँ भारत की ओर आकर्षित होंगी तथा भारत के निर्यात काफ़ी बढ़ेंगे। लेकिन क्या ये ज़ोन भारत की सम्प्रभुता के खिलाफ़ नहीं हैं ?

    फिर,विदेशी पूंजी आने से भारत के निर्यात-आयात मोर्चे पर कोई फायदा नहीं दिखाई दे रहा है । भारत के निर्यात जरूर बढ़े हैं,लेकिन आयातों में उनसे ज्यादा बढोतरी हुई है।नतीजा यह है कि भारत के विदेश व्यापार में लगाता घाटा हो रहा है ।

निर्यात या शोषण का जरिया ?

    लेकिन इससे ज्यादा बुनियादी सवाल यह है कि निर्यात बढ़ाने पर इतना ज्यादा जोर उचित है क्या ? अपनी विशाल आबादी की जरूरतों की उपेक्षा करके विदेशियों के लिए उत्पादन करना क्या विवेक सम्मत है ? ‘निर्यातोन्मुखी विकास’ का विश्व बैंक का दिया हुआ सूत्र कहीं धोखा तो नहीं है ?

    विश्व बैंक और नव-उदारवादी अर्थशास्त्री दुनिया के सारे गरीब देशों को इसी ‘निर्यातोन्मुखी विकास’ का पाठ पढ़ा रहे हैं। लेकिन जिसे राह चलता अनपढ़ आदमी भी समझ सकता है , उस तथ्य को हमारे शासक और नीति-निर्माता नहीं समझ रहे हैं कि आखिर सारे देशों में के निर्यात एक साथ कैसे बढ़ सकते हैं? जब सारे गरीब देश एक साथ निर्यात बढाने की कोशिश करेंगे तो दुनिया के बाजार में गलाकाट प्रतिस्पर्धा जन्म लेगी और वे एक-दूसरे के बाजार पर कब्जा करने की कोशिश करेंगे तथा अपनी निर्यात-वस्तुओं की कीमतें गिरांएगे। दूसरे शब्दों में,व्यापार की शर्तें उनके प्रतिकूल होती जाएंगी। आज यही हो रहा है।

    जब बाजार में कीमतें कम होती हैं,तो उसका फायदा उसे मिलता है,जिसके पास खरीदने की ताकत हो,पैसा हो । अंतर्राष्ट्रीय बाजार के संदर्भ में कहें, तो जिसके पास डॊलर हो।गरीब देशों की निर्यात-प्रतिस्पर्धा का लाभ यूरोप-अमरीका को सस्ती चीजें मिलने में हो रहा है।चूंकि डॊलर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा है,अमरीका के लिए तो मौज हो गई है । बहुराष्ट्रीय पूंजी के जरिए पूरी दुनिया अमरीका की सेवा में लगी है। कहीं से उनके लिए पेट्रोल आ रहा है,कहीं से इस्पात-एल्यूमिनियम-तांबा ।कहीं से मांस,कहीं से केला,कहीं से कपड़ा,कहीं से जूता,कहीं से चाय-काफी,कहीं से शक्कर,कहीं से कालीन,कहीं से आभूषण,कहीं से डॊक्टर,कहीं से इन्जीनियर उनके लिए आ रहे हैं। अमरीकियों का जीवन-स्तर सबसे ऊपर इसी तरीके से बनाये रखा गया है ।यह तथ्य भी बहुत कम प्रचारित होता है संयुक्त राज्य अमरीका का विदेश व्यापार का घटा दुनिया में सबसे ज्यादा है ( अर्थात वह निर्यात कम करता है,आयात काफ़ी ज्यादा करता है) और उस पर विदेशी कर्ज भी दुनिया में सबसे ज्यादा है। भारत सहित गरीब देशों की सरकारों को उपदेश देने वाला अमरीका स्वयं जबरदस्त ढंग से ‘ ऋणम कृत्वा,घृतम पिबेत’ के दर्शन पर चल रहा है । ( जारी , अगली प्रविष्टी- डॊलर- रुपए की लूट )

 

 

Technorati tags: , ,

Read Full Post »

Older Posts »

%d bloggers like this: