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Archive for the ‘nationalism’ Category

राजनाथ सिंह संसद में बोल चुके हैं कि गांधीजी ने संघ की प्रशंसा की थी।संघ के जिस कार्यक्रम का राजनाथ सिंह ने दिया था उसका तफसील से ब्यौरा गांधीजी के सचिव प्यारेलाल ने ‘पूर्णाहुति’ में दिया है।पूर्णाहुति के प्रकाशन और प्यारेलाल की मृत्यु के बीच दशकों का अंतराल था।इस अंतराल में संघियों की तरफ से कुछ नहीं आया।लेख नीचे पढ़िए।
गांधी अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ते रहे किंतु अपने माफीनामे के अनुरूप सावरकर ने अंडमान से लौट कर कुछ नहीं कहा।नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जब सावरकर से सहयोग मांगा तब सावरकर ने सहयोग से इनकार करते हुए कहा कि मैं इस वक्त हिंदुओं को ब्रिटिश फौज में भर्ती करा कर शस्त्र प्रशिक्षण कराने में लगा हूँ।नेताजी द्वारा खुद लिखी किताब The Indian Struggle में इस प्रसंग का वर्णन दिया हुआ है।
सावरकर 1966 में मरे जनसंघ की 1951 में स्थापना हो चुकी थी।15 साल जनसंघियों ने उपेक्षा की?
गांधी हत्या के बाद जब संघ प्रतिबंधित था और सावरकर गांधी हत्या के आरोप में बंद थे तब संघ ने उनसे दूरी बताते हुए हिन्दू महासभा में सावरकर खेमे को हत्या का जिम्मेदार बताया था।
गांधीजी की सावरकर से पहली भेंट और बहस इंग्लैंड में हो चुकी थी। हिन्द स्वराज में हिंसा और अराजकता में यकीन मानने वाली गिरोह से चर्चा का हवाला उन्होंने दिया है।
बहरहाल सावरकर और गांधी पर हांकने वाले राजनाथ सिंह का धोती-जामा फाड़ने के इतिहास का मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ।फाड़ने वाले मनोज सिन्हा के समर्थक थे।
राजनाथ सिंह प्यारेलाल , नेताजी और बतौर गृह मंत्री सरदार पटेल से ज्यादा भरोसेमंद हैं?

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गत 5 अगस्त को केंद्र की भाजपा नीत एनडीए सरकार ने जम्मू-कश्मीर से संविधान के विशेष प्रावधान अनुच्छेद-370 के कई प्रमुख प्रावधानों को निष्प्रभावी बना दिया। इसके साथ ही केंद्र ने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य के दर्जे के साथ ही पूर्ण राज्य का दर्जा भी समाप्त कर उसे दो हिस्सों में केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में विभाजित कर दिया।

केंद्र ने संसद से तीन प्रस्ताव पारित कराए हैं। इनमें से एक में संविधान संशोधन कर कश्मीरी संविधान सभा के न रहने की स्थिति में उसका अधिकार राष्ट्रपति में निहित कर दिया गया है। असल में पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि अनुच्छेद 370 को हटाने का अधिकार कश्मीर की संविधान सभा को है। लेकिन 1957 में संविधान सभा के भंग हो जाने पर दूसरी बार संविधान सभा का गठन कर ही इस प्रावधान पर विचार किया जा सकता है। इस फैसले को पलटने के लिए भाजपा सरकार ने संविधान में ही संशोधन कर दिया है।

सरकार ने एक तरह से सांप्रदायिक पक्ष लेते हुए न केवल राज्य का दर्जा खत्म कर दिया है बल्कि उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित भी कर दिया है। इसके साथ ही पूरी घाटी में संचार सेवा को ठप कर करीब 50 हजार सुरक्षाबलों को तैनात कर दिया है। लोगों पर अघोषित कर्फ्यू लागू कर दिया गया है। ऐसा कर सरकार ने ऐतिहासिक भूल को सुधारने और आतंकवाद व अलगाववाद प्रभावित राज्य में शांति बहाली की उम्मीद का दावा किया है।

लेकिन जब हम संविधान, लोकतांत्रिक व्यवस्था, कानून का राज जैसे सिद्धांतों और भाजपा जैसी पार्टी की सोच और चरित्र के आधार पर आकलन करते हैं तो पता चलता है कि यह सब कार्रवाई केंद्र की भाजपा- एनडीए सरकार ने संविधान का उल्लंघन करने, लोकतंत्र का गला घोंटने, संघवाद, बहुलवाद को नजरंदाज कर अपना एकत्ववादी, सांप्रदायिक हिन्दूवादी एजेंडा लागू करने के लिए ऐसा किया है। यह इस बात से भी पुष्ट होता है कि‍ भाजपा सरकार ने यह सब राज्य की जनता को विश्वास में लिए बिना किया है, जिसका वादा जम्मू कश्मीर के विलय के वक्त किया गया था। अपनी अलोकतांत्रिक और धूर्ततापूर्ण कार्रवाई के समर्थन मे गृहमंत्री ने दिवंगत समाजवादी नेता डॉ- राम मनोहर लोहिया का नाम बिना किसी संदर्भ के लेने की धृष्टता की है कि‍ लोहिया अनुच्छेद 370 के खिलाफ थे। इसका कांगेस के एक प्रमुख नेता ने भी समर्थन किया। हम इस अभद्रतापूर्ण बयान की निंदा करते हैं। डा लोहिया ने हमेशा भारत-पाकिस्‍तान महासंघ बनाने की बात की जिसमें सीमाओं को मुक्‍त आवागमन के लिए खुला छोड़ा जा सके।

सजप मानती है कि जम्मू-कश्मीर में पूरे देश की तरह ही जन भावना को कुचलने का काम केंद्र की सरकारें करती रही है। चाहे कांग्रेस सरकार की 1953 का कश्मीर संविधान को नजरंदाज कर भारी बहुमत से चुने गए जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुतल्ला को अपदस्थ करना और अगले बीस साल के लिए जेल में डालना रहा हो, बाद के दिनों में धांधली कर चुनाव जीतना रहा हो या भाजपा की अब की कार्रवाई हो, सरकारें राज्य में सांप्रदायिक सौहार्द से छेड़छाड़ कर ही कार्रवाई करती रही है। कहना न होगा कि भाजपा सरकार की कार्रवाई की कांग्रेस महासचि‍व समेत कई नेताओं ने समर्थन किया हे और कांग्रेस नेतृत्व ने मौन साध रखा है।

सजप मानती है कि केंद्र की सरकारों की तरह ही राज्य की नेशनल कांफ्रेंस- पीडीपी- भाजपा सरकार की भी इस समस्या के समाधान की कोई इच्छाशक्ति नहीं रही है। यद्यपि नेशनल कांफ्रेंस भारत विभाजन के खिलाफ रहा और उसने राज्य के सांप्रदायिक माहौल को संतुलित रखने में शुरू से ही भूमिका निभाई है लेकिन बाकी समस्याओं को दूर करने और लोगों की बेहतरी के लिए उसका भी नकारापन रहा है। नेकां और पीडीपी शुरू से जनकल्याण के काम में जुटी रहती तो आज राज्य की शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक, सामाजिक स्थिति बेहतर हुई रहती। लेकिन देश के बाकी दलों की तरह ही उनका व्यवहार भी गैर जिम्मेदाराना रहा है। इस स्थिति में देश भर में सांप्रदायिक उन्माद और वैमनस्य पैदा कर भाजपा-आरएसएस घटिया लाभ लेने की फिराक में है। सजप केंद्र सरकार की इस धोखेबाजी, असंवैधानिक, गैर जिम्मेदाराना और धूर्तता से भरी इस प्रवृत्ति की कड़ी निंदा करती है।

जम्मू-कश्मीर या किसी राज्य की स्वायतत्ता और संघात्मक ढांचे पर बात करते समय सजप का यह भी मानना है कि प्राकृतिक संसाधनों पर मूल वासियों और “लम्बे समय के वासियों” का व्यक्तिगत और सामुदायिक अपरिवर्तनीय (unquestionable) अधिकार सजप की आधार भूत मान्यताओं में है। सजप मानती रही है कि सरकार द्वारा प्रायोजित सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए भी ज़मीन, जंगल, खनिज और जल का अधिग्रहण वहाँ की स्थानीय लोकतांत्रिक सरकारों (ग्राम सभा, पंचायत, ज़िला परिषद वग़ैरह) की सहमति से ही हो सकती है।

जिस तौर तरीके को कश्मीर में अपनाया गया उससे यह अंदेशा बनता है कि वर्तमान की कार्रवाई को केंद्र एक लिटमस टेस्‍ट के तौर पर ले सकता है और इसमें सफल होने के बाद वह आदिवासी इलाके, अन्य राज्यों के विशेषाधिकार और यहां तक कि विरोधी दल शासित राज्य सरकारों को कुचलने के लिए वहां भी ऐसी कार्रवाई कर सकता हैं और वहां के संवैधानिक अधिकारों को समाप्त कर सकता है और तानाशाही कायम की जा सकती है। भंग या निलंबित विधानसभा के अधिकार राज्यपाल के माध्यम से राष्ट्रपति को दे देना अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक है। कश्मीर की संविधान सभा, विधानसभा की शक्ति राज्यपाल, राष्ट्रपति में निहित मान लेना तानाशाही का द्योतक है।

वैसे तो सजप की स्थायी मांग है कि कश्मीर समस्या के हर पहलुओं की संवेदनशीलता और अंतरराष्ट्रीय गंभीरता के साथ जांच-परख कर कूटनयिक पहल की जानी चाहिए और पूरे भारतीय समाज को इसमें संलग्न कर ऐसे समाधान की दिशा में बढ़ना चाहिए, जिससे कश्मीर और पाकिस्तान, बांग्लादेश समेत समूचे दक्षिण एशिया में शांति-सौहार्द कायम हो सके। तभी हम उम्मीद कर सकते हैं कि कश्मीर समस्या का समाधान भी आकार ले पाएगा।

लेकिन वर्तमान परिस्थिति में सजप मानती है कि जिस तरह से बन्दूक के साये में यह सब किया गया हमें उसका खुलकर विरोध किया जाए। देश के संविधान प्रदत्त संघीय ढांचे पर केंद्र सरकार ने सोच समझ कर आघात किया है। कश्मीर के अलगाववादी तत्वों को भारत सरकार के कदम से बल मिलेगा। किसी भी समुदाय से बात किए बिना उनके बारे में फैसला एकदम अलोकतांत्रिक और तानाशाही भरा है।

जहां तक कश्‍मीर पर अवैध कब्‍जे की बात है तो पीओके के अलावा चीन ने भी अक्‍साई चिन के बड़़े भूभाग यानी लगभग 33,000 वर्ग किलोमीटर जमीन कब्‍जा रखी है। इस पर सरकार ने अब तक कोई बयान भी जारी नहीं किया है। लद्दाख को केंद्र शासित बनाने पर चीन के विरोध में दिए गए बयान का भी भारत सरकार ने कोई प्रतिकार नहीं किया है। जो तत्‍काल किया जाना चाहिए था।

सजप मांग करती है कि

तत्‍कालकि तौर पर

– कश्मीर की वास्तविक स्थिति यानी तत्काल 5 अगस्त से पूर्व की स्थिति बहाल की जाए।

– वहां तत्काल विधानसभा का चुनाव कराकर लोकप्रिय सरकार गठित की जाए।

– दो पूर्व मुख्यमंत्रि‍यों व अन्य नेताओ की गिरफ्तारी निंदनीय है। उनकी तुरंत रिहाई हो।

– सरकार की वर्तमान कार्रवाई पर उच्चस्तरीय और संवैधानिक जांच बैठाई जाए।

– अनुच्छेद 370 पर निर्णय राज्य की जनता को विश्वास में लेकर व़हां संविधान सभा गठित कर हो।

– दीर्घकालिक तौर पर

-पाकिस्तान से बातचीत शुरू कर समस्या का स्थायी समाधान खोजें।

– भारत-पाकिस्‍तान-बांग्‍लादेश का महासंघ बनाने की दिशा में स्थिति को अनुकूल करने पर काम हो।

– चीन द्वारा कब्‍जा किए अक्‍साई चिन इलाके को वापस लेने के प्रयास किए जाएं।

– किसी राज्य से राज्य का दर्जा खत्म करने का संवैधानिक प्रावधान को रद्द किया जाए।

– केंद्र- राज्‍य संबंधों को संघीय दृष्टि से पुनर्परिभाषित करने के लिए दूसरे ‘केंद-राज्‍य संबंध आयोग’ का गठन किया जाए।

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प्रथम विश्वयुद्ध में इंग्लैंड सफल हुआ था उसके बावजूद युद्ध के दिनों में मानवाधिकारों जो पाबंदिया थी उन्हें जारी रखने की बात शासकों के दिमाग में थी।विश्वयुद्ध में अंग्रेज फौज में पंजाब से काफी सैनिकों की बहाली हुई थी।अंग्रेज अधिकारी,पुलिस के सिपाहियों को लेकर देहातों में पहुंच जाते और गांवों में से युवकों को जबरदस्ती अंग्रेज फौज में भर्ती कराने ले आते।जहां एक ओर,सैनिक भरती किए गए वहीं दूसरी ओर भारत से जंग के लिए दस करोड पाउंड का जंगी कर्ज भी उठाया गया।आयात निर्यात पर असर पडने से कीमतेंं बहुत बढ़ गईं।
दिसंबर 1917 में अंग्रेजों ने एक ‘राजद्रोह समिति’ गठित की जिसे रॉलेट समिति के नाम से जाना जाता है।जुलाई 1918 में इसकी रपट छप कर आई। इस रिपोर्ट में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को गुंडों का आंदोलन कहा गया था,जो लूटपाट और हत्याएं करते हैं।इसमें यह दिखाने की कोशिश की गई थी थी कि भारत के देशभक्त अराजकतावादी हैं,लूटपाट,आगजनी और मारकाट में विश्वास करते हैं,कि उनसे समाज को बहुत बड़ा खतरा है और भारत में शांति भंग होने का डर है।
उस रिपोर्ट में कहा गया था कि ऐसे अपराधी तत्वों को दबाकर रखने में मुश्किल पेश आ रही है इसलिए नए कानून बनाने की जरूरत है।इन कानूनों के तहत जंग के दौरान नागरिकों के हकों पर लगी पाबंदियां जंग के बाद भी जारी रहने वाली थीं।कमिटी की रिपोर्त में दो नये कानून प्रस्तावित किए गए-
1.प्रेस पर कड़ा नियंत्रण रखे जाने का प्रावधान
2.गिरफ्तार किए गए लोगों को बिना कोर्ट में पेश किए दो वर्ष तक बिना कोर्ट में पेश किए जेल में रखा जा सकता था।
यही वह वक्त था जब भारत के राजनीतिक क्षितिज पर गांधीजी का प्रवेश हुआ।यदि उस समय गांधीजी देश की आजादी की लड़ाई में नहीं उतरे होते और उसकी बागडोर उनके हाथों में नहीं आई होती तो हमारे संघर्ष की दिशा और स्वरूप कुछ और होता।यह अपने में अलग लेख का विषय है।
रॉलेट समिति की सिफारिश के अनुरूप एक कानून बना दिया गया।
अब इस कानून केे प्रतिकार में हो रही सभा के दौरान हुए नरसंहार के विवरण में न जाकर वर्तमान में आने की गुजारिश है।
आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकार निलंबित रहते हैं।यानि अभिव्यक्ति,घूमने फिरने,आस्था,जिंदा रहने के अधिकार स्थगित!
दो किस्म के आपातकाल का प्रावधान है-1अंतरिक संकट से उत्पन्न ,2. बाह्य संकट से उत्पन्न यानी युद्ध की घोषणा के बाद।
पहले किस्म का आपातकाल इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को लगाया था।दूसरे किस्म का आपातकाल हर युद्ध के समय लागू होता है।
तानाशाही बनाम लोकतंत्र के मुद्दे पर लडे गए 1977 के आम चुनाव में लोकतंत्र की जीत हुई तो आंतरिक आपातकाल लागू करने का तरीका अत्यंत कठिन हो गया।संसद में दो तिहाई मतों के अलावा दो तिहाई राज्यों में दो तिहाई बहुमत की शर्त जोड़ दी गई।
अब मौलिक अधिकारों को स्थगित रखने के लिए बाह्य खतरे और युद्ध की परिस्थिति सरल है।
फिर रॉलैट कानून जैसे प्रावधान का मतलब होगा युद्ध के बाद भी मौलिक अधिकारों को निलंबित रखना! यानी तानाशाही।
संवैधानिक प्रावधानों से आंतरिक आपातकाल अब कठिन है।युद्ध वाला सहज है।
इसलिए13 अप्रैल 1919 के सौ साल पूरे होने पर हमें यह याद रखना है कि घोषित – अघोषित आपातकाल फिर न हो यह सुनिश्चित किया जाए।

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अफलातून

जनसत्ता 15 अगस्त, 2014 : गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने राज्यसभा में कहा, ‘मत भूलिए कि महात्मा गांधी, जिनको हम आज भी अपना पूज्य मानते हैं, जिन्हें हम राष्ट्रपिता मानते हैं,

उन्होंने भी आरएसएस के कैंप में जाकर ‘संघ’ की सराहना की थी।’

1974 में ‘संघ’ वालों ने जयप्रकाशजी को बताया था कि गांधीजी अब उनके ‘प्रात: स्मरणीयों’ में एक हैं। संघ के काशी प्रांत की शाखा पुस्तिका क्रमांक-2, सितंबर-अक्तूबर, 2003 में अन्य बातों के अलावा गांधीजी के बारे में पृष्ठ 9 पर लिखा गया है: ‘‘देश विभाजन न रोक पाने और उसके परिणामस्वरूप लाखों हिंदुओं की पंजाब और बंगाल में नृशंस हत्या और करोड़ों की संख्या में अपने पूर्वजों की भूमि से पलायन, साथ ही पाकिस्तान को मुआवजे के रूप में करोड़ों रुपए दिलाने के कारण हिंदू समाज में इनकी प्रतिष्ठा गिरी।’’ संघ के कार्यक्रमों के दौरान बिकने वाले साहित्य में ‘गांधी वध क्यों?’ नामक किताब भी होती है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और समाचार-पत्रों द्वारा दंगों की रिपोर्टिंग की बाबत खुद गांधीजी का ध्यान खींचा जाता रहा और उन्होंने इन विषयों पर साफगोई से अपनी राय रखी। विभाजन के बाद संघ के कैंप में गांधीजी के जाने का विवरण उनके सचिव प्यारेलाल ने अपनी पुस्तक ‘पूर्णाहुति’ में दिया है। इसके पहले, 1942 से ही संघ की गतिविधियों को लेकर गांधीजी का ध्यान उनके साथी खींचते रहते थे। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन अध्यक्ष आसफ अली ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों के बारे में प्राप्त एक शिकायत गांधीजी को भेजी और लिखा था कि वे शिकायतकर्ता को नजदीक से जानते हैं, वे सच्चे और निष्पक्ष राष्ट्रीय कार्यकर्ता हैं।

9 अगस्त, 1942 को हरिजन (पृष्ठ: 261) में गांधीजी ने लिखा: ‘‘शिकायती पत्र उर्दू में है। उसका सार यह है कि आसफ अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) उसके तीन हजार सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैं, कवायद के बाद नारा लगाते हैं- हिंदुस्तान हिंदुओं का है और किसी का नहीं। इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैं, जिनमें वक्ता कहते हैं- ‘पहले अंगरेजों को निकाल बाहर करो उसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे, अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हें मार डालेंगे।’ बात जिस ढंग से कही गई है, उसे वैसे ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषय-वस्तु तो और भी बुरी है।

‘‘नारा गलत और बेमानी है, क्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा।

‘‘धर्म एक निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गई है, उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गए हैं। जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी, तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे। अगर अंगरेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होने वाली हो तो अंगरेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता। वह स्वराज्य नहीं होगा।’’

गांधीजी विभाजन के बाद हुए व्यापक सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ ‘करो या मरो’ की भावना से दिल्ली में डेरा डाले हुए थे। 21 सितंबर ’47 को प्रार्थना-प्रवचन में ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ के संदर्भ में उन्होंने टिप्पणी की: ‘‘एक अखबार ने बड़ी गंभीरता से यह सुझाव रखा है कि अगर मौजूदा सरकार में शक्ति नहीं है, यानी अगर जनता सरकार को उचित काम न करने दे, तो वह सरकार उन लोगों के लिए अपनी जगह खाली कर दे, जो सारे मुसलमानों को मार डालने या उन्हें देश निकाला देने का पागलपन भरा काम कर सके। यह ऐसी सलाह है कि जिस पर चल कर देश खुदकुशी कर सकता है और हिंदू धर्म जड़ से बरबाद हो सकता है। मुझे लगता है, ऐसे अखबार तो आजाद हिंदुस्तान में रहने लायक ही नहीं हैं। प्रेस की आजादी का यह मतलब नहीं कि वह जनता के मन में जहरीले विचार पैदा करे। जो लोग ऐसी नीति पर चलना चाहते हैं, वे अपनी सरकार से इस्तीफा देने के लिए भले कहें, मगर जो दुनिया शांति के लिए अभी तक हिंदुस्तान की तरफ ताकती रही है, वह आगे से ऐसा करना बंद कर देगी। हर हालत में जब तक मेरी सांस चलती है, मैं ऐसे निरे पागलपन के खिलाफ अपनी सलाह देना जारी रखूंगा।’’

प्यारेलाल ने ‘पूर्णाहुति’ में सितंबर, 1947 में संघ के अधिनायक गोलवलकर से गांधीजी की मुलाकात, विभाजन के बाद हुए दंगों और गांधी-हत्या का विस्तार से वर्णन किया है। प्यारेलालजी की मृत्यु 1982 में हुई। तब तक संघ द्वारा इस विवरण का खंडन नहीं हुआ था।

गोलवलकर से गांधीजी के वार्तालाप के बीच में गांधी मंडली के एक सदस्य बोल उठे- ‘संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है। उन्होंने अनुशासन, साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है।’ गांधीजी ने उत्तर दिया- ‘पर यह न भूलिए कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था।’ उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया। (पूर्णाहुति, चतुर्थ खंड, पृष्ठ: 17)

अपने एक सम्मेलन (शाखा) में गांधीजी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता

गोलवलकर ने उन्हें ‘हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ बताया। उत्तर में गांधीजी बोले- ‘‘मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य है। पर मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी। हिंदू धर्म की विशिष्टता जैसा मैंने समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है। यदि हिंदू यह मानते हों कि भारत में अहिंदुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दरजे से संतोष करना होगा- तो इसका परिणाम यह होगा कि हिंदू धर्म श्रीहीन हो जाएगा… मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा।’’

इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उन२में गांधीजी से पूछा गया- ‘क्या हिंदू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता? यदि नहीं देता, तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है, उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है?’

गांधीजी ने कहा- ‘‘पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है। मारने का प्रश्न खड़ा होने से पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आतताई कौन है? दूसरे शब्दों में, हमें ऐसा अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जाएं। एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने या फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है? रही बात दूसरे प्रश्न की। यह मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है, तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भलीभांति कर सकती है। अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद दोनों एक साथ बन जाएं, तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जाएंगे- उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए, कानून को अपने हाथों में लेकर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए।’’

तीस नवंबर ’47 के प्रार्थना प्रवचन में गांधीजी ने कहा: ‘‘हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार है कि हिंदुत्व की रक्षा का एकमात्र तरीका उनका ही है। हिंदू धर्म को बचाने का यह तरीका नहीं है कि बुराई का बदला बुराई से। हिंदू महासभा और संघ दोनों हिंदू संस्थाएं हैं। उनमें पढ़े-लिखे लोग भी हैं। मैं उन्हें अदब से कहूंगा कि किसी को सता कर धर्म नहीं बचाया जा सकता।’’

अखिल भारतीय कांग्रेस समिति को अपने अंतिम संबोधन (18 नवंबर ’47) में उन्होंने कहा, ‘‘मुझे पता चला है कि कुछ कांग्रेसी भी यह मानते हैं कि मुसलमान यहां न रहें। वे मानते हैं कि ऐसा होने पर ही हिंदू धर्म की उन्नति होगी। परंतु वे नहीं जानते कि इससे हिंदू धर्म का लगातार नाश हो रहा है। इन लोगों द्वारा यह रवैया न छोड़ना खतरनाक होगा… मुझे स्पष्ट यह दिखाई दे रहा है कि अगर हम इस पागलपन का इलाज नहीं करेंगे, तो जो आजादी हमने हासिल की है उसे हम खो बैठेंगे।… मैं जानता हूं कि कुछ लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस ने अपनी आत्मा को मुसलमानों के चरणों में रख दिया है, गांधी? वह जैसा चाहे बकता रहे! यह तो गया बीता हो गया है। जवाहरलाल भी कोई अच्छा नहीं है।

‘‘रही बात सरदार पटेल की, सो उसमें कुछ है। वह कुछ अंश में सच्चा हिंदू है। परंतु आखिर तो वह भी कांग्रेसी ही है! ऐसी बातों से हमारा कोई फायदा नहीं होगा, हिंसक गुंडागिरी से न तो हिंदू धर्म की रक्षा होगी, न सिख धर्म की। गुरु ग्रंथ साहब में ऐसी शिक्षा नहीं दी गई है। ईसाई धर्म भी ये बातें नहीं सिखाता। इस्लाम की रक्षा तलवार से नहीं हुई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में मैं बहुत-सी बातें सुनता रहता हूं। मैंने यह सुना है कि इस सारी शरारत की जड़ में संघ है। हिंदू धर्म की रक्षा ऐसे हत्याकांडों से नहीं हो सकती। आपको अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी। वह रक्षा आप तभी कर सकते हैं जब आप दयावान और वीर बनें और सदा जागरूक रहेंगे, अन्यथा एक दिन ऐसा आएगा जब आपको इस मूर्खता का पछतावा होगा, जिसके कारण यह सुंदर और बहुमूल्य फल आपके हाथ से निकल जाएगा। मैं आशा करता हूं कि वैसा दिन कभी नहीं आएगा। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि लोकमत की शक्ति तलवारों से अधिक होती है।’’

इन सब बातों को याद करना उस भयंकर त्रासदाई और शर्मनाक दौर को याद करना नहीं है, बल्कि जिस दौर की धमक सुनाई दे रही है उसे समझना है। गांधीजी उस वक्त भले एक व्यक्ति हों, आज तो उनकी बातें कालपुरुष के उद्गार-सी लगती और हमारे विवेक को कोंचती हैं। उस आवाज को तब न सुन कर हमने उसका गला घोंट दिया था। अब आज? आज तो आवाज भी अपनी है और गला भी! इस बार हमें पहले से भी बड़ी कीमत अदा करनी होगी।

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पी. लंकेश कन्नड़ के लेखक ,पत्रकार और आंदोलनकारी।एक ऐसी जमात के प्रमुख स्तंभ जो लोहिया के मुरीद होने के कारण अम्बेडकर की समाज नीति और गांधी की अर्थ नीति के हामी थे।देवनूर महादेव,यू आर अनंतमूर्ति और किशन पटनायक के मित्र और साथी।
उनकी लोकप्रिय पत्रिका थी ‘लंकेश पत्रिके’।लंकेश के गुजर जाने के बाद उनकी इंकलाबी बेटी गौरी इस पत्रिका को निकालती थी।आज से ठीक साल भर पहले गौरी लंकेश की ‘सनातन संस्था’ से जुड़े कायरों ने हत्या की।समाजवादी युवजन सभा से अपना सामाजिक जीवन शुरू करने वाले महाराष्ट्र के अंध श्रद्धा निर्मूलन कार्यकर्ता डॉ नरेंद्र दाभोलकर की हत्या भी सनातन संस्था से जुड़े दरिंदों ने की थी यह सी बी आई जांचकर्ता कह रहे हैं।सनातन संस्था के लोगों के पास से भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद हुए तथा आतंक फैलाने की व्यापक साजिश का पर्दाफ़ाश हुआ है।यह पर्दाफाश भी राज्य की एजेंसी ने किया है।
महाराष्ट्र में व्यापक दलित आंदोलन को हिंसक मोड़ देने में RSS के पूर्व प्रचारक की भूमिका प्रमाणित है।ऐसे व्यक्ति के गैर नामजद FIR के आधार पर देश भर में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं की निराधार गिरफ्तारियों से स्पष्ट है कि आरएसएस और सनातन संस्था की राष्ट्रविरोधी कार्रवाइयों के उजागर हो जाने के कारण राजनाथ सिंह-मोदी का यह मूर्खतापूर्ण ‘बचाव’ है।
रिजर्व बैंक की अधिकृत रपट में नोटबंदी की विफलता मान ली गई है।प्रधान मंत्री ने 50 दिनों की जो मोहलत मांगी थी उसकी मियाद पूरी हुए साल भर हो गई है। ’50 दिन बाद चौराहे पर न्याय देना’ यह स्वयं प्रधान मंत्री ने कहा था इसलिए उनके असुरक्षित होने की वजह वे खुद घोषित कर चुके हैं।
एक मात्र सत्ताधारी पार्टी चुनाव में पार्टियों द्वारा चुनाव खर्च पर सीमा की विरोधी है।इस पार्टी ने अज्ञात दानदाताओं द्वारा असीमित चंदा लेने को वैधानिकता प्रदान कर राजनीति में काले धन को औपचारिकता प्रदान की है।
समाजवादी जन परिषद इस अलोकतांत्रिक सरकार को चुनाव के माध्यम से उखाड़ फेंकने का आवाहन करती हैं।
अफ़लातून,
महामंत्री,
समाजवादी जन परिषद।

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आपातकाल के दौरान खबर के प्रकाशन के पहले और बाद दोनों सेन्सरशिप लागू थी। रामनाथ गोयन्का के एक्सप्रेस समूह,गुजराती के सर्वोदय आन्दोलन से जुड़े ‘भूमिपुत्र’,राजमोहन गांधी के ‘हिम्मत’ ,नारायण देसाई द्वारा संपादित ‘बुनियादी यकीन’आदि द्वारा दिखाई गई हिम्मत के अलावा जगह-जगह से ‘रणभेरी’,’चिंगारी’ जैसी स्टेन्सिल पर हस्तलिखित और साइक्लोस्टाईल्ड बुलेटिन ने इसका प्रतिवाद किया था। विलायत से स्वराज नामक बुलेटिन आती थी और बीबीसी हिन्दी भी खबरों के लिए ज्यादा सुनी जाती थी। उस दौर में संवैधानिक प्रावधान द्वारा समस्त मौलिक अधिकार निलम्बित कर दिए गए थे। ‘रणभेरी’ का संपादन-प्रकाशन इंकलाबी किस्म के समाजवादी युवा करते थे । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा इसके वितरण से इस टोली को आपत्ति नहीं थी। 1977 में आई जनता पार्टी की सरकार ने आंतरिक संकट की वजह से मौलिक अधिकार को निलंबित रखने के संवैधानिक प्रावधान को संवैधानिक संशोधन द्वारा दुरूह बना दिया। संसद के अलावा दो तिहाई राज्यों में दो-तिहाई बहुमत होने पर ही आन्तरिक संकट की वजह से आपातकाल लागू किया जा सकता है। जनता पार्टी लोकतंत्र बनाम तानाशाही के मुद्दे पर चुनी गई थी।आन्तरिक आपातकाल को दुरूह बनाने का संवैधानिक संशोधन इस सरकार का सर्वाधिक जरूरी काम था।उस सरकार को सिर्फ इस कदम के लिए भी इतिहास में याद किया जाएगा।

बहरहाल,1977 की जनता सरकार में सूचना प्रसारण मंत्रालय संघ से जुडे लालकृष्ण अडवाणी के जिम्मे था। उन्होंने आकाशवाणी और दूरदर्शन में जम कर ‘अपने’ लोगों को नौकरी दी। समय-समय पर वे अपनी जिम्मेदारी खूब निभाते हैं। कहा जाता है मंडल सिफारिशों को लगू करने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह जिस राष्ट्र के नाम प्रसारण में अपना इस्तीफा दे रहे थे उसे एक विशिष्ट शत्रु-कोण से खींच कर प्रसारित किया जा रहा था। निजी उपग्रह चैनल तब नहीं थे।

नियमगिरी आन्दोलन की महिला आन्दोलनकारी

नियमगिरी आन्दोलन की महिला आन्दोलनकारी

मौजूदा दौर 1992 में शुरु हुई वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बाद का दौर है। जीवन के हर क्षेत्र को नकारात्मक दिशा में ले जाने वाली प्रतिक्रांति के रूप में वैश्वीकरण को समझा जा सकता है। लाजमी तौर पर सूचना-प्रसारण का क्षेत्र भी इस प्रतिक्रांति से अछूता नहीं रहा। निजी उपग्रह चैनल भी नन्हे-मुन्ने ही सही सत्ता-केन्द्र बन गए हैं। इनसे भी सवाल पूछना होगा।नरेन्द्र मोदी की सरकार ने NDTV-इंडिया को छांट कर ,सजा देने की नियत से एक असंवैधानिक आदेश दे दिया है। सभी लोकतांत्रिक नागरिकों, समूहों और दलों को इसका तीव्रतम प्रतिवाद करना चाहिए । नागरिकों के हाथ में अब एक नया औजार इंटरनेट भी है जिस पर रोक लगाना कठिन है। आपातकाल के बाद के दौर में भी बिहार प्रेस विधेयक जैसे प्रावधानों से जब अभिव्यक्ति को बाधित करने की चेष्टा हुई थी तब उसके राष्ट्रव्यापी प्रतिकार ने उसे विफल कर दिया था।

अभिव्यक्ति के बाधित होने में नागरिक का निष्पक्ष सूचना पाने का अधिकार भी बाधित हो जाता है। मौजूदा दौर में NDTV इंडिया के लिए जारी फरमान के जरिए हर नागरिक का निष्पक्ष सूचना पाने का अधिकार बाधित हुआ है। निष्पक्ष सूचनाएं अन्य वजहों से भी बाधित होती आई हैं। उन वजहों के खिलाफ इस दौर में प्रतिकार बहुत कमजोर है। इन आन्तरिक वजहों पर भी इस मौके पर गौर करना हमें जरूरी लगता है।

हमारे देश में अमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का भंडार है जिनकी वजह से भारतीय अर्थशास्त्र के पहले पाठ में पढाया जाता था-‘भारत एक समृद्ध देश है जिसमें गरीब बसते हैं’।संसाधनों पर हक उस दौर की राजनीति तय करती है। यह दौर उन संसाधनों को अडाणी-अम्बानी जैसे देशी और अनिल अग्रवाल और मित्तल जैसे विदेशी पूंजीपतियों को सौंपने का दौर है। मुख्यमंत्री और केंद्र में बैठे मंत्री वंदनवार सजा कर इनका स्वागत करते हैं। संसाधनों पर कब्जा जमाने के लिए कंपनियां घिनौनी करतूतें अपनाती हैं। स्थानीय समूहों द्वारा इस प्रकार के दोहन का प्रतिकार किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर स्थानीय आबादी के बीच जनमत संग्रह कराया गया कि वेदांत कंपनी द्वारा नियामगिरी पर्वत से बॉक्साइट खोदा जाए अथवा नहीं। एक भी वोट इंग्लैण्ड स्टॉक एक्सचेंज में पंजीकृत वेदांत कंपनी के पक्ष में नहीं पड़ा। इसी प्रकार कोका कोला-पेप्सी कोला जैसी कंपनियों द्वारा भूगर्भ जल के दोहन से इन संयंत्रों के आस पास जल स्तर बहुत नीचे चला गया है। इंसान और पर्यावरण के विनाश द्वारा मुनाफ़ा कमाने वाली वेदान्त,कोक-पेप्सी जैसी कंपनियां  निजी मीडिया प्रतिष्ठानों को भारी पैसा दे कर कार्यक्रम प्रायोजित करती हैं। इस परिस्थिति में मीडिया समूह सत्य से परे होने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
NDTV और उसके नव उदारवादी संस्थापक प्रणोय रॉय ने अपने चैनल के साथ वेदांत और कोका कोला कंपनी से गठबंधन किए हैं।लाजमी तौर पर इन कंपनियों की करतूतों पर पर्दा डालने में NDTV के यह कार्यक्रम सहायक बन जाते हैं। वेदान्त के साथ NDTV महिलाओं पर केन्द्रित कार्यक्रम चला रहा था तथा कोका कोला के साथ स्कूलों के बारे में कार्यक्रम चला रहा था। इस प्रकार के गठबंधनों से दर्शक देश बचाने के महत्वपूर्ण आन्दोलनों की खबरों से वंचित हो जाते हैं तथा ये घिनौनी कम्पनियां अपनी करतूतों पर परदा डालने में सफल हो जाती हैं।

वेदान्त का अनिल अग्रवाल मोदी और प्रणोय रॉय के बीच पंचायत कराने की स्थिति में है अथवा नहीं,पता नहीं।

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अपनी आवाज अपना गला ( दुनिया मेरे आगे )

Monday, 26 December 2011 06:10

अफलातून जनसत्ता 26 दिसंबर, 2011: हरे राम, हरे कृष्ण’ संप्रदाय द्वारा रूसी में अनूदित गीता पर रूस में आक्षेप लगाए गए हैं और उस पर प्रतिबंध लगाने की बात की गई है। विदेश मंत्री ने संसद और देश को आश्वस्त किया है कि वे रूस सरकार से इस मामले पर बात करेंगे। मामला पर-राष्ट्र का है। क्या भारत में ही इस पुस्तक को लेकर परस्पर विपरीत समझदारी नहीं है? यह मतभेद और संघर्ष सहिष्णु बनाम कट्टरपंथी का है। लोहिया ने इसे ‘हिंदू बनाम हिंदू’ कहा। उन्होंने गांधी-हत्या (हत्यारों की शब्दावली में ‘गांधी-वध’) को भी हिंदू बनाम हिंदू संघर्ष के रूप में देखा। देश के विभाजन के बाद एक बार गांधीजी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर में निमंत्रित किया गया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गीता के प्रति समझदारी भी उसी प्रसंग में गांधीजी के समक्ष प्रकट हुई थी। सरसंघचालक गोलवलकर ने गांधीजी का स्वागत करते हुए उन्हें ‘हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ बताया। उत्तर में गांधीजी बोले- ‘मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य है, लेकिन मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी हैं। हिंदू धर्म की विशिष्टता, जैसा मैंने उसे समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है। अगर हिंदू यह मानते हों कि भारत में अ-हिंदुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दर्जे से संतोष करना होगा तो इसका परिणाम यह होगा कि हिंदू धर्म श्रीहीन हो जाएगा। मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही है कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा।’
गोलवलकर से गांधीजी के वार्तालाप के बीच में गांधी-मंडली के एक सदस्य बोल उठे- ‘संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है। उन्होंने अनुशासन, साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है।’ गांधीजी ने उत्तर दिया- ‘लेकिन यह न भूलिए कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था।’ उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया।

(पूर्णाहुति, चतुर्थ खंड, पृष्ठ- 17) इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उसमें गांधीजी से पूछा गया- ‘क्या हिंदू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता? अगर नहीं देता तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है, उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है?’ गांधीजी ने कहा- ‘पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है। मारने का प्रश्न खड़ा होने के पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है? दूसरे शब्दों में- हमें ऐसा अधिकार मिल सकता है, जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जाएं। एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने या फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है? रही बात दूसरे प्रश्न की, तो यह मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है, तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भली-भांति कर सकती है। अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद, दोनों एक साथ बन जाएं तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जाएंगे। उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए। कानून को अपने हाथों में लेकर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए।’ (संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड: 89)
आध्यात्मिक सत्य को समझाने के लिए कई बार भौतिक दृष्टांत की आवश्यकता पड़ती है। यह भाइयों के बीच लड़े गए युद्ध का वर्णन नहीं है, बल्कि हमारे स्वभाव में मौजूद ‘भले’ और ‘बुरे’ के बीच की लड़ाई का वर्णन है। मैं दुर्योधन और उसके दल को मनुष्य के भीतर की बुरी अंत:प्रेरणा और अर्जुन और उसके दल को उच्च अंत:प्रेरणा मानता हूं। हमारी अपनी काया ही युद्ध-भूमि है। इन दोनों खेमों के बीच आंतरिक लड़ाई चल रही है और ऋषि-कवि उसका वर्णन कर रहे हैं। अंतर्यामी कृष्ण, एक निर्मल हृदय में फुसफुसा रहे हैं। गांधीजी तब भले ही एक व्यक्ति हों, आज तो उनकी बातें कालपुरुष के उद्गार-सी लगती हैं और हमारे विवेक को कोंचती हैं। उस आवाज को तब न सुन कर हमने उसका ही गला घोंट दिया था। अब आज? आज तो आवाज भी अपनी है और गला भी अपना!

गांधी जी और संघ

जनसत्ता 29 दिसंबर, 2011: अपनी आवाज अपना गला’ (दुनिया मेरे आगे, 26 दिसंबर) में अफलातून जी ने कुछ तथ्यों को सही संदर्भों के साथ प्रस्तुत नहीं किया है। इसमें संघ-द्वेष से आपूरित पूर्वग्रह की झलक मिलती है। देश विभाजन के बाद गांधीजी किसी संघ शिविर में नहीं गए थे। दिल्ली में भंगी बस्ती की शाखा में उन्हें 16 सितंबर, 1947 को आमंत्रित किया गया था। आमंत्रित करने वाले व्यक्ति सरसंघचालक गोलवलकर नहीं, बल्कि दिल्ली के तत्कालीन प्रांत प्रचारक वसंत राव ओक थे। गांधीजी सदैव खुद को गौरवशाली सनातनी हिंदू कहते थे। वसंत राव ओक ने शाखा पर गांधीजी का परिचय ‘हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ कह कर करवाया। गांधीजी ने इस परिचय पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
गोलवलकर से गांधीजी की बातचीत का वर्णन अफलातून जी ने ‘पूर्णाहुति’ का संदर्भ देकर किया है। इस मुलाकात का गांधी संपूर्ण वांग्मय में दो बार जिक्र है। पहला, 21 सितंबर, 1947 को प्रार्थना-प्रवचन में- ‘अंत में गांधीजी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुरु (गोलवलकर) से अपनी और डॉ दिनशा मेहता की बातचीत का जिक्र करते हुए कहा कि मैंने सुना था कि इस संस्था के हाथ भी खून से सने हुए हैं। गुरुजी ने मुझे आश्वासन दिलाया कि यह बात झूठ है। उनकी संस्था किसी की दुश्मन नहीं है। उसका उद्देश्य मुसलमानों की हत्या करना नहींं है। वह तो सिर्फ अपनी सामर्थ्य भर हिंदुस्तान की रक्षा करना चाहती है। उसका उद्देश्य शांति बनाए रखना है। उन्होंने (गुरुजी ने) मुझसे कहा कि मैं उनके विचारों को प्रकाशित कर दूं।’
इसका जिक्र गांधीजी ने भंगी बस्ती की शाखा पर अपने भाषण में किया- ‘कुछ दिन पहले ही आपके गुरुजी से मेरी मुलाकात हुई थी। मैंने उन्हें बताया था कि कलकत्ता और दिल्ली में संघ के बारे में क्या-क्या शिकायतें मेरे पास आई थीं। गुरुजी ने मुझे आश्वासन दिया कि हालांकि संघ के प्रत्येक सदस्य के उचित आचरण की जिम्मेदारी नहीं ले सकते, फिर भी संघ की नीति हिंदुओं और हिंदू धर्म की सेवा करना मात्र है और वह भी किसी दूसरे को नुकसान पहुंचा कर नहीं। संघ आक्रमण में विश्वास

नहीं रखता। अहिंसा में उसका विश्वास नहीं है। वह आत्मरक्षा का कौशल सिखाता है। प्रतिशोध लेना उसने कभी नहीं सिखाया।’
इस मुलाकात का जैसा वर्णन अफलातून जी ने किया है और अंत में लिखा है कि ‘उन्होंने (गांधीजी ने) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया।’ ये विचार प्यारेलाल जी के हो सकते हैं, गांधीजी के नहीं। गांधीजी ने अपने भाषण में जो संघ के विषय में कहा, वह इस प्रकार है- ‘संघ एक सुसंगठित और अनुशासित संस्था है। उसकी शक्ति भारत के हित में या उसके खिलाफ प्रयोग की जा सकती है। संघ के खिलाफ जो आरोप लगाए जाते हैं, उनमें कोई सच्चाई है या नहीं, यह संघ का काम है कि वह अपने सुसंगत कामों से इन आरोपों को झूठा साबित कर दे।’
अफलातून जी ने लिखा है- ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गीता के प्रति समझदारी भी उसी प्रसंग में गांधीजी के समक्ष प्रकट हुई।’ इसका भी वर्णन संपूर्ण वांग्मय में है। किसी संघ अधिकारी ने गीता के संदर्भ में वहां कुछ भी नहीं कहा था। एक स्वयंसेवक ने गांधीजी द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के संदर्भ में गीता का हवाला देते हुए यह पूछा था- ‘गीता के दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण कौरवों का नाश करने के लिए जो उपदेश देते हैं, उसकी आप किस तरह व्याख्या करेंगे?’ गांधीजी ने स्वयंसेवक की समझदारी पर कोई सवाल नहीं उठाया, संजीदगी से जवाब दिया- ‘… पापी को सजा देने के अधिकार की जो बात गीता में कही गई है, उसका प्रयोग तो केवल सही तरीके से गठित सरकार ही कर सकती है।’ बाद में गांधीजी ने आग्रह किया कि कानून को अपने हाथ में लेकर सरकारी प्रयत्नों में बाधा न डालें।
लेख के अंत में गीता के अर्थ का जो आध्यात्मिक आयाम अफलातून जी ने प्रस्तुत किया है, उस पर किसी को आपत्ति नहीं होगी। अनावश्यक रूप से संघ को बदनाम करने और घृणा फैलाने के प्रयासों को जब इन आयामों में मिश्रित किया जाता है, तब हम समाज की सेवा नहीं, बल्कि उसका नुकसान कर रहे होते हैं।
’महेश चंद्र शर्मा, (पूर्व सांसद), द्वारका, नई दिल्ली

प्रार्थना-प्रवचन , दिल्ली, चित्र में एम.एस. सुब्बलक्ष्मी भी

प्रार्थना-प्रवचन , दिल्ली, चित्र में एम.एस. सुब्बलक्ष्मी भी

खुले मन की जरूरत

जनसत्ता 30 दिसंबर, 2011: जिस तरह महेश चंद्र शर्मा जी ने ‘संघ’ के बचाव में गांधीजी के निकट के साथी, सचिव और जीवनीकार प्यारेलाल जी पर लांछन लगाया है, वह ‘संघ’ के गोयबल्सवादी तौर-तरीके से मेल खाता है। संपूर्ण गांधी वांग्मय में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के दौरान छेड़छाड़ की गई थी, उस पर यूपीए-एक सरकार ने वरिष्ठ सर्वोदयकर्मी नारायण देसाई की अध्यक्षता में जांच समिति गठित की थी। जांच समिति ने शोधकर्मियों द्वारा लगाए गए छेड़छाड़ के सभी आरोप सही पाए थे और उक्त संस्करण की पुस्तकों और सीडी की बिक्री पर तत्काल रोक लगाने और असंशोधित मूल रूप की ही बिक्री करने की संस्तुति की थी। बहरहाल, जितनी तफसील में इस विषय पर लिखा जा सकता है, उसका मोह न कर मैं इतिहास-क्रम में उलटा जाते हुए सिर्फ ठोस प्रसंगों को रखूंगा।
गांधी को ‘संघ’ के प्रात:-स्मरणीयों में शरीक करने की चर्चा हम महेश जी, प्रबाल जी, अशोक भगत जी, रामबहादुर जी जैसे स्वयंसेवकों से जेपी आंदोलन के दौर (1974-75) से सुनते आ रहे थे। सितंबर और अक्टूबर 2003 में प्रकाशित संघ के काशी प्रांत की शाखा पुस्तिका मेरे हाथ लग गई। स्मरणीय दिवसों में गांधी जयंती के विवरण में ‘देश विभाजन न रोक पाने और उसके परिणामस्वरूप लाखों हिंदुओं की पंजाब और बंगाल में नृशंस हत्या और करोड़ों की संख्या में अपने पूर्वजों की भूमि से पलायन, साथ ही पाकिस्तान को मुआवजे के रूप में करोड़ों रुपए दिलाने के कारण हिंदू समाज में इनकी प्रतिष्ठा गिरी।’ संघ के साहित्य-बिक्री पटलों पर ‘गांधी-वध क्यों’ नामक पुस्तक में ‘वध’ के ये कारण ही बताए गए हैं।
संघ की शाखा में गांधीजी के जाने की तारीख के उल्लेख में अपनी चूक मैं स्वीकार करता हूं। प्यारेलाल जी द्वारा लिखी जीवनी ‘महात्मा गांधी दी लास्ट फेस’ पर महेश जी ने पूर्वाग्रह का आरोप लगाया है। इसलिए दिल्ली डायरी, प्रार्थना प्रवचन और गांधी द्वारा संपादित पत्रों से ही उद्धरण पेश हैं।
गीता की बाबत दिया गया उद्धरण संपूर्ण गांधी वांग्मय (खंड 89) में मौजूद है।
‘अगस्त क्रांति-दिवस’ (9 अगस्त, 1942) को प्रकाशित ‘हरिजन’

(पृष्ठ 261) में गांधीजी ने लिखा- ‘शिकायती पत्र उर्दू में है। उसका सार यह है कि आसफ अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) उसके 3,000 सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैं, कवायद के बाद नारा लगाते हैं- हिंदुस्तान हिंदुओं का है और किसी का नहीं। इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैं, जिनमें वक्ता कहते हैं- ‘पहले अंग्रेजों को निकाल बाहर करो, उसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे। अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हें मार डालेंगे।’ बात जिस ढंग से कही गई है, उसे वैसी ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषय-वस्तु तो और भी बुरी है।
नारा गलत और बेमानी है, क्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा, और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा।
धर्म एक निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गई है, उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गए हैं। जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे। अगर अंग्रेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होने वाली हो तो अंग्रेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता। वह स्वराज्य नहीं होगा।’
महेश जी खुले दिमाग से तथ्यों को आत्मसात करें और ‘प्रात: स्मरणीय’ के पक्ष से परेशान न हों।
’अफलातून, काहिवि, वाराणसी

अप्रासंगिक विषय

चौपाल’ (30 दिसंबर) में अफलातून का जवाब पढ़ा।  उन्होंने अप्रासंगिक विषयों को अपने पत्र में उठाया है, जैसे गांधी संपूर्ण वांग्मय से राजग सरकार ने छेड़छाड़ की और संघ ने महात्मा गांधी का नाम कैसे ‘प्रात: स्मरण’ में जोड़ा। इन मुद्दों का न तो मेरे पत्र में उल्लेख था, न ही अफलातून के मूल लेख में। इस संदर्भ में केवल इतना  कहना है कि मैं संपूर्ण वांग्मय के जिन खंडों को उद्धृत कर रहा हूं, वे राजग सरकार के समय छपे हुए नहीं, बल्कि मई 1983 में नवजीवन ट्रस्ट, अमदाबाद द्वारा प्रकाशित हैं। जो उद्धरण मैंने दिए हैं वे किसी छेड़छाड़ के नहीं, उसी अधिकृत संपूर्ण वांग्मय के हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शिविरों में भारत के महान पुरुषों के नामों का स्मरण ‘प्रात: स्मरण’ में करता है। अफलातून इससे क्यों नाराज हैं! मैंने प्यारेलाल जी पर कोई लांछन अपने पत्र में नहीं लगाया, कृपया पत्र को पुन: ध्यान से पढ़ें। मैंने अफलातून को ‘पूर्वाग्रह-ग्रस्त’ अवश्य कहा है। यदि अफलातून को संघ विषयक कोई ‘पूर्वाग्रह’ नहीं है, तो निश्चय ही यह खुशी की बात है।
अफलातून ने पुन: गांधीजी को सही प्रकार से उद्धृत नहीं किया। जिस तथाकथित नारे और भाषण की शिकायत दिल्ली प्रांत कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष ने गांधीजी से की थी, उसके संदर्भ में गांधीजी ने जो कुछ ‘हरिजन’ में लिखा उसके वे अंश जो अफलातून ने उद्धृत नहीं किए उन्हें उद्धृत करने से पूरी वास्तविकता ही बदल जाती है।
गांधीजी ने कहा है ‘‘मैं तो यही उम्मीद कर सकता हूं यह नारा अनधिकृत है, और जिस वक्ता के बारे में यह कहा गया है कि उसने ऊपर के विचार व्यक्त किए हैं, वह कोई जिम्मेदार आदमी नहीं है।’’ एक अनधिकृत, गैर-जिम्मेदार नारे और वक्तव्य को लेकर अफलातून क्या सिद्ध करना चाहते हैं, जिसके लेखक के बारे में किसी को कुछ पता नहीं। ऐसे वाहियात नारों और वक्तव्यों के आधार पर आप संघ का आकलन करना चाहते हैं और चाहते हैं कि कोई आपको पूर्वाग्रही भी न कहे! संघ को थोड़ा भी जानने वाला व्यक्ति जानता है कि शाखाओं में कभी नारेबाजी नहीं होती।
उस वाहियात भाषण का भी गांधीजी जवाब देते हैं, यह उनकी संजीदगी है।
अफलातून से केवल इतना निवेदन है कि उन्हें संघ से जो शिकायत हो, वे स्वयं अपने तर्कों से उसे प्रस्तुत करें, किसी महापुरुष की आड़ लेकर उन्हें प्रहार करने की जरूरत क्यों पड़ रही है। पता नहीं काशी प्रांत की कौन-सी शाखा पुस्तिका उनके हाथ लग गई। देश विभाजन को न रोक पाने के कारण महात्मा जी बहुत दुखी थे, वे 15 अगस्त 1947 के उत्सव में भी शामिल नहीं हुए और द्वि-राष्ट्रवादी पृथकतावादियों के आक्रमण से परेशान हिंदुओं ने गांधीजी के सामने अपनी पीड़ाओं और आक्रोश को व्यक्त किया था। इसका उल्लेख करने में अफलातून को उस पुस्तिका से क्या शिकायत है?
’महेश चंद्र शर्मा, नई दिल्ली

हिन्दू द्विराष्ट्रवादी

महात्मा गांधी का संपूर्ण वांग्मय हिंदी और अंग्रेजी (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी) में प्रकाशन विभाग, भारत सरकार ने छापा है, नवजीवन ट्रस्ट ने नहीं। उसका स्वत्वाधिकार जरूर 1983 से 2008 तक नवजीवन ट्रस्ट के पास रहा। ‘गांधीजीनो अक्षरदेह’ (गुजराती वांग्मय) जरूर नवजीवन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किया गया है। जिस उद्धरण का हवाला महेश जी ने दिया है, उसे मैंने ‘हरिजन’ (गांधीजी का अंग्रेजी मुखपत्र) के पृष्ठ 261 से लिया है। द्वि-राष्ट्रवादी केवल मुसलिम लीग के लोग नहीं थे, हिंदुओं के लिए हिंदू राष्ट्र को मानने वाले भी द्वि-राष्ट्रवादी हैं।
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि मुसलिम लीग से पहले सावरकर ने धर्म के आधार पर देश के बंटवारे

की बात शुरू कर दी थी। हिंदू-राष्ट्रवादी गांधी के समक्ष अपनी शिकायत कभी प्रार्थना सभा में बम फेंक कर कर रहे थे। अंतत: उन्हीं गांधी जी को गोली मार दी। महेश जी के शब्दों में यह उनकी पीड़ा और आक्रोश मात्र था, जिन्हें शाखा-पुस्तिका में असली हिंदू माना गया है। महेश जी ने शाखा-पुस्तिका के उद्धरण का खंडन नहीं किया है, भले ही उन्हें यह पता न हो कि मेरे हाथ कौन-सी पुस्तिका लग गई। शाखा में नारे नहीं उद्घोष होते हैं, पथ-संचलन भी मौन नहीं हुआ करते।
गांधी-हत्या को ‘गांधी-वध’ कहने वालों की किताबें भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय कार्यालय 11, अशोक मार्ग पर भी बिक रही थीं-

http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2011/09/post-195.html
’अफलातून, वाराणसी

 

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[ ‘ भारतमाता की जय ‘ का नारा लगा कर कुछ माह पहले ओड़िशा में एक नन का बलात्कार किया गया था । मंगलूर में भी यही नारा लगाने के बाद स्त्रियों के साथ अभद्र आचरण किया गया , उन्हें मारा – पीटा गया । ओड़िशा और मंगलूर से जुड़े सिपाहियों की बुजदिली का इतिहास है । राष्ट्रीय आन्दोलन के दरमियान लाखों लोग जब लाठी – गोली खाते थे , जेल जाते थे और ‘ भारत माता की जय’ का घोष करते थे तब यह बुजदिल वाइसरॉय की कार्यकारिणी में शामिल होते थे और जब देश के मजदूर-किसान-औरतें  ‘ अंग्रेजों भारत छोड़ो ‘ के लिए ‘करो या मरो’ के भाव से कुर्बानी दे रहे थे तब इनके द्वारा अंग्रेजों की सेना में भर्ती हो कर सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करने की अपील की जा रही थी ।

राष्ट्रीय आन्दोलन के एक प्रमुख नेता द्वारा  ‘भारतमाता की जय’ कैसे समझाया गया यह १६ सितम्बर , १९३६ को लिखे उनके इस लेख में दिया गया है । लेखक का अनुमान पाठक लगाएंगे ? ]

सभा और जुलूसों के मारे हम दिन भर परेशान रहे ।  अम्बाला से चलकर करनाल पहुंचे । वहां से पानीपत फिर सोनीपत और अन्त में रोहतक । खूब जोश और भीड़ – भाड़ रही और आखिरकार पंजाब का दौरा खत्म हुआ । एक शान्ति की भावना मेरे भीतर उठी । कितना बोझ सिर पर था और कितनी थकान थी ! अब तो ऐसे लम्बे आराम की जरूरत थी जिसमें जल्दी ही कोई विघ्न – बाधा आकर न पड़े ।

रात हो गयी थी । हम तेजी से रोहतक – दिल्ली रोड की ओर बढ़े ; क्योंकि उस रात को हमे दिल्ली पहुंचकर गाड़ी पकड़नी थी । नींद मुझे बुरी तरह घेर रही थी । यकायक हमें रुकना पड़ा ; क्योंकि बीच सड़क पर आदमी और औरतों की भीड़ बैठी थी । कुछेक के हाथों में मशालें थीं वे आगे बढ़कर हमारे पास आये और जब उन्हें संतोष हो गया कि हम कौन हैं ; तब उन्होंने बताया कि दोपहर से वे बैठे – बैठे इंतजार कर रहे हैं । वे सबहृष्ट – पुष्ट जाट थे । उनमें से ज्यादातर छोटे – मोटे जमींदार थे । उनसे बिना थोड़ी-बहुत बातचीत किए बिना आगे बढ़ना मुमकिन नहीं था । हम बाहर आये और रात के धुंधलेपन में हजारों या इससे भी ज्यादा जाट मर्दों और औरतों के बीच बैठ गये ।

उनमें से एक चिल्लाया , ‘ कौमी नारा’ ! और हजारों गलों से मिल कर जोश के साथ तीन बार चिल्लाकर कहा – ‘वन्देमातरम !’ और फिर उन्होंने  ‘ भारतमाता की जय ‘ के नारे लगाये।

” यह सब ‘वन्दे मातरम’ और ‘भारतमाता की जय’ किस लिए है ?” मैंने पूछा ।

कोई उत्तर नहीं । पहले उन्होंने मुझे घूरकर देखा और फिर एक दूसरे का मुँह ताकने लगे । दिखाई पड़ता था कि वे मेरे सवाल करने से कुछ परेशान हो उठे हैं । मैंने सवाल दोहराया – ” बोलिए , ये नारे लगाने से आपका क्या मतलब है ? ” फिर भी कोई जवाब नहीं मिला ।उस जगह के इंचार्ज कांग्रेस-कार्यकर्ता कुछ खिन्न-से हो रहे थे । उन्होंने हिम्मत करके सब बातें बतानी चाहीं ; लेकिन मैंने उन्हें प्रोत्साहन नहीं दिया ।

” यह ‘माता’ कौन है , जिसको आपने प्रणाम किया है और जिसकी जय के नारे लगाये हैं ? ” मैंने फिर सवाल किया । वे फिर चुप और परेशान-से हो रहे । ऐसे अजीब सवाल उनसे कभी नहीं किए गए थे । सहज भाव से उन्होंने सब बातों को मान लिया था । जब उनसे नारे लगाने के लिए कहा जाता था , वे नारे लगा देते थे । उन सब बातों के समझने की उन्होंने कभी कोशिश नहीं की । कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने नारे लगाने के लिए कहा तो वे उज्र कैसे कर सकते थे ? वे तो खूब जोर से पूरी ताकत लगाकर चिल्ला देते थे । बस , नारा अच्छा होना चाहिए । इससे उन्हें खुशी होती थी औरशायद इससे उनके प्रतिद्वन्द्वियों को कुछ डर भी होता था ।

अब भी मैंने सवाल करना बन्द नहीं किया । बेहद हिम्मत करके एक आदमी ने कहा कि ‘माता’ का मतलब ‘धरती’ से है । उस बेचारे किसान का दिमाग धरती की ओर ही गया , जो उसकी सच्ची माँ है , भला करने और भला चाहने वाली है ।

” कौन-सी ‘धरती’ ? ” मैंने फिर पूछा , ” क्या आपके गांव की ‘धरती’  या पंजाब की , या तमाम दुनिया की ?” इस पेचीदा सवाल से वे और परेशान हुए । तब बहुत-से लोगों ने चिल्लाकर कहा कि इस सबका मतलब आप ही समझाइए ? हम कुछ भी नहीं जानते और सारी बात समझना चाहते है ।

मैंने उन्हें बताया कि भारत क्या है । किस तरह वह उत्तर में काश्मीर और हिमालय से लेकर दक्षिण में लंका तक फैला हुआ है । उसमें पंजाब , बंगाल , बंबई , मदरास सब शामिल हैं । इस महाद्वीप में उनके जैसे करोड़ों किसान हैं जिनकी उन जैसी समस्याएं हैं , उन्हींकी-सी मुश्किलें और बोझ , वैसी ही कुचलने वाली गरीबी और आफतें । यही महादेश हिन्दुस्तान उन सबके लिए ‘भारतमाता’ है , जो उसमें रहते हैं  और जो उसके बच्चे हैं । भारतमाता कोई सुन्दर बेबस असहाय नारी नहीं है , जिसके धरती तक लटकने वाले लम्बे-लम्बे बाल हों , जैसा अक्सर कल्पित तस्वीरों में दिखलाया जाता है ।

भारतमाता की जय ! ‘यह जय बोलकर हमने किसकी जय बोली ? उस कल्पित स्त्री की नहीं जो कहीं भी नहीं है । तब क्या यह जय हिन्दुस्तान के पहाड़ों , नदियों , रेगिस्तानों , पेड़ों पत्थरों की बोली जाती है ?

“नहीं” । उन्होंने जवाब दिया । लेकिन कोई ठीक उत्तर वे मुझे न दे सके ।

” निश्चय ही हम जय उन लोगों की बोलते हैं जो भारत में रहते हैं – उन करोड़ों आदमियों की जो उसके गाँवों और नगरों में बसते हैं ।” मैंने उन्हें बताया । इस जवाब से उन्हें हार्दिक प्रसन्नता हुई और उन्होंने अनुभव किया कि जवाब ठीक भी है ।

” ये आदमी कौन हैं? निश्चय ही आप और आपके भाई । इसलिए जब आप , ‘भारतेमाता की जय बोलते हैं , तो वह अपने और हिन्दुस्तान भर के अपने भाई-बहनों की ही जय बोलते हैं । याद रखिए , ‘भारतमाता’ आप ही हैं और यह आप अपनी ही जय बोलते हैं ।”

ध्यान से उन्होंने सुना । प्रकाश की उज्जवल रेखा उनके भोले-भाले चेहरों पर उदय होती हुई दिखाई दी । यह ज्ञान उनके लिए विचित्र था कि कि वह नारा , जिसे वे इतने दिनों से लगा रहे हैं, उन्हीं के लिए था । तब आइए , एक बार फिर मिलकर पुकारें – ‘ भारतमाता की जय ‘ !”

इसके बाद हम अन्धकार में दिल्ली की ओर बढ़े । रेल मिली और उसके बाद खूब आराम भी ।

१६ सितम्बर , १९३६.  (स्रोत – हिन्दुस्तान की समस्याएं,सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन )

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