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Archive for the ‘politics’ Category

ज्ञानवापी एक बौद्ध विहार था।वापी यानी कुंड या तालाब ।चौक की तरफ से ज्ञानवापी आने पर वापी तक पहुंचने की सीढ़ियां थीं,जैसे कुंड में होती हैं।तथागत बुद्ध के बाद जब आदि शंकराचार्य हुए तब यह बुद्ध विहार न रहा,आदि विशेश्वर मंदिर हुआ।
आदि विशेश्वर मंदिर के स्थान पर बनारस की जुमा मस्जिद है।
महारानी अहिल्याबाई ने काशी के मंदिर-मस्जिद विवाद का दोनों पक्षों के बीच समाधान कराया – काशी की विद्वत परिषद तथा मस्जिद इंतजामिया समिति के बीच।इस समाधान के तहत विश्वनाथ मंदिर बना जो करोडों लोगों का निर्वाद आस्था,पूजा ,अर्चना का केंद्र।
महाराजा रणजीत सिंह ने इस मंदिर को स्वर्ण मंडित करने के लिए साढ़े बाइस मन सोना दान दिया।कहा जाता है कि हरमंदर साहब को स्वर्ण मंडित करने के बाद यह सोना शेष था।
इस विश्वनाथ मंदिर के नौबतखाने में बाबा की शान में बिस्मिल्लाह खां साहब के पुरखे शहनाई बजाते थे।अवध के नवाब राजा बनारस के जरिए इन शहनाइनवाजों को धन देते थे।बाद के वर्षों में नौबतखाने से ही विदेशी पर्यटकों को दर्शन कराया जाता था।काशी के हिन्दू और मुसलमानों के बीच अहिल्याबाई होलकर के समय स्पष्ट सहमति बन गई थी कि मंदिर में दर्शनार्थी किधर से जाएंगे और मस्जिद में नमाज अता करने के लिए किधर से जाएंगे।इस समाधान का सम्मान तब से अब तक किया गया है । मुष्टिमेय लोग साल में एक दिन ‘श्रुगारगौरी’ की पूजा के नाम पर गिरफ्तारी देते हैं।क्या काशी की जनता अशांति,विवाद में फंसना चाहती है?इसका साफ उत्तर है,नहीं।
राष्ट्रतोडक राष्ट्रवादी मानते हैं कि करोड़ों लोगों की आस्था,पूजा के केंद्र की जगह वहां हो जाए जहां मंदिर-मस्जिद हैं।अशोक सिंघल ने विहिप की पत्रिका वंदेमातरम में कहा कि इससे ‘बाबा का प्रताप बढ़ जाएगा’।
इस प्रकार ‘तीन नहीं अब तीस हजार,बचे न एक कब्र मजार’ का सूत्र प्रचारित करने वालों की सोच महारानी अहिल्याबाई तथा महाराजा रणजीत सिंह का विलोम है।
विश्वनाथ मंदिर की बाबत ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ का मामला मंदिर में दलित प्रवेश के वक्त भी उठा था।लोकबंधु राजनारायण ने इसके लिए सफल सत्याग्रह की किया था और पंडों की लाठियों से सिर फुडवाया था।दलित प्रवेश को आम जनता ने स्वीकार किया लेकिन ‘धर्म सम्राट’ करपात्रीजी तथा काशी नरेश ने इसके बाद मंदिर जाना बंद कर दिया।
कल श्री नरेन्द्र मोदी ‘विश्वनाथ धाम’ का लोकार्पण करेंगे।हर बार जब वे काशी आते थे तब भाजपा के झंडे लगाए जाते थे आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के झंडे सरकारी ठेकेदारों के जरिए लगाए गए हैं।
अफ़लातून,
राष्ट्रीय महामंत्री,
समाजवादी जन परिषद

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राजनाथ सिंह संसद में बोल चुके हैं कि गांधीजी ने संघ की प्रशंसा की थी।संघ के जिस कार्यक्रम का राजनाथ सिंह ने दिया था उसका तफसील से ब्यौरा गांधीजी के सचिव प्यारेलाल ने ‘पूर्णाहुति’ में दिया है।पूर्णाहुति के प्रकाशन और प्यारेलाल की मृत्यु के बीच दशकों का अंतराल था।इस अंतराल में संघियों की तरफ से कुछ नहीं आया।लेख नीचे पढ़िए।
गांधी अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ते रहे किंतु अपने माफीनामे के अनुरूप सावरकर ने अंडमान से लौट कर कुछ नहीं कहा।नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जब सावरकर से सहयोग मांगा तब सावरकर ने सहयोग से इनकार करते हुए कहा कि मैं इस वक्त हिंदुओं को ब्रिटिश फौज में भर्ती करा कर शस्त्र प्रशिक्षण कराने में लगा हूँ।नेताजी द्वारा खुद लिखी किताब The Indian Struggle में इस प्रसंग का वर्णन दिया हुआ है।
सावरकर 1966 में मरे जनसंघ की 1951 में स्थापना हो चुकी थी।15 साल जनसंघियों ने उपेक्षा की?
गांधी हत्या के बाद जब संघ प्रतिबंधित था और सावरकर गांधी हत्या के आरोप में बंद थे तब संघ ने उनसे दूरी बताते हुए हिन्दू महासभा में सावरकर खेमे को हत्या का जिम्मेदार बताया था।
गांधीजी की सावरकर से पहली भेंट और बहस इंग्लैंड में हो चुकी थी। हिन्द स्वराज में हिंसा और अराजकता में यकीन मानने वाली गिरोह से चर्चा का हवाला उन्होंने दिया है।
बहरहाल सावरकर और गांधी पर हांकने वाले राजनाथ सिंह का धोती-जामा फाड़ने के इतिहास का मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ।फाड़ने वाले मनोज सिन्हा के समर्थक थे।
राजनाथ सिंह प्यारेलाल , नेताजी और बतौर गृह मंत्री सरदार पटेल से ज्यादा भरोसेमंद हैं?

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मानव समाज में खेती का स्थान तीन कारणों से महत्वपूर्ण रहा है,रहेगा। (1)पहला कारण वह है जो अधिकांशतः चर्चा में आता है ।तमाम औद्योगिकरण और विकास के बावजूद आज भी मानव जाति का अधिकांश हिस्सा गांवों में रहता है और अपनी जीविका के लिए खेती,पशुपालन आदि पर आश्रित है। भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में आज भी रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत खेती व पशुपालन ही है।किंतु खेती का महत्व महज इस सांख्यिकीय कारण से ही नहीं है। दो और ज्यादा महत्वपूर्ण और बुनियादी कारण हैं। (2) दूसरा कारण यह है कि खेती से ही मनुष्य की सबसे बुनियादी जरूरत भोजन की पूर्ति होती है। अभी तक खाद्यानों का कोई औद्योगिक या गैर खेती विकल्प आधुनिक टेक्नोलॉजी नहीं ढूढ पायी है और भविष्य में इसकी संभावना भी नहीं है। इसलिए जब स्वाभिमानी और जागरूक समाज या राष्ट्र खाद्य स्वालंबन की रणनीति बनाते हैं या अंतरष्ट्रीय कूटनीति में खाद्य आपूर्ति को एक औजार बनाया जाता है, तो खेती का महत्व अपने आप स्पष्ट हो जाता है। (3) खेती के साथ एक तीसरी विशेषता यह है कि मनुष्य समाज की आर्थिक गतिविधियों में यहीं ऐसी गतिविधि है, जिसमें वास्तव में उत्पादन और नया सृजन होता है। प्रकृति की मदद से किसान बीज के एक दाने से बीस से तीस दाने तक पैदा कर लेता है।उधोगों, सेवाओं आदि अन्य आर्थिक गतिविधियों में प्रायः कोई नया उत्पादन नहीं होता है,पहले से उत्पादित पदार्थों(जिसे कच्चा माल कहा जाता है)का रूप परिवर्तन होता है।उर्जा या कैलोरी की दृष्टि से भी देखें ,तो जहाँ अन्य आर्थिक गतिविधियों में ऊर्जा की खपत होती है,खेती और पशुपालन में उर्जा(या कैलोरी )का सृजन होता है।खेती में वानिकी और खनन को भी जोड़ा जा सकता है,वे भी प्रकृति से जुड़े हैं, हलाकि एक सीमा से ज्यादा से ज्यादा खनन विनाशकारी हो सकता है। इसमें मार्के की बात प्रकृति का योगदान है।खेती में प्रकृति मानव श्रम के साथ मिलकर वास्तव में सृजन करती है।
इन तीन विशेषताओं के कारण मानव-समाज में खेती आदि का महत्व बना रहेगा।किन्तु आधुनिक सभ्यता और पूँजीवादी समाज में इन तीनों विशेषताओं को नकारने और पलटने की कोशिश हो रही है।ग्लोबीकरण ने इस प्रवृत्ति को और तेज किया है,जिससे नए संकट खड़े हो रहे हैं।खेती की जनई टेक्नोलॉजी इतनी आक्रामक है कि वह प्रकृति से जुड़ी इस गतिविधि को प्रकृति के विरुद्ध खड़ी कर रही,जिससे जल भंडार खाली हो रहें हैं, भूमि का कटाव, बंजरिकरण या दलदलीकरण हो रहा है,अधिकाधिक ऊर्जा की खपत हो रही है, वातावरण में विष घुलते जा रहे हैं और जैविकविविधता का तेजी से ह्रास हो रहा है।खेती में कीटों व रोगों का प्रकोप बढ़ा है,जोखिम बढ़ी है और पैदवार में ठहराव आ गया है। उतनी ही पैदवार के लिए किसान को निरन्तर बढ़ती हुई मात्रा में रसायनिक खाद ,कीटनाशक दवाईयों तथा पानी का इस्तेमाल करना पड़ रहा है।किसान के संकट का एक स्रोत आधुनिक टेक्नोलॉजी है।इसी प्रकार खाद्य आपूर्ति एवं खाद स्वावलम्बन के स्रोतों के बजाय अब खेती को तेजी से पूँजीवादी बाज़ार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की न मिटने वाली भूख की रणनीति का एक पुर्जा बनाया जा रहा है।भारत जैसे तमाम देशों को यह सिखाया जा रहा है कि उन्हें अपनी जरूरत के अनाज,दालें व खाद्य तेल पैदा करने की जरूरत नहीं है, दुनिया मे जहाँ सस्ता मिलत है वहाँ से ले लें।इसी करण पिछले तीन चार सालों में ही यह हालत आ गई है कि जिस भारत के गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं होती थी, उसे इस वर्ष भारी मात्रा में गेहूं आयात करना पड़ रहा है।खाद्य तेल का आयात तो पहले ही कुल खपत के आधे स्तर पर पहुँच गया है।अफ्रीका के लोग भी पहले अपनी जरूरत का अनाज स्वयं पैदा कर लेते थे।लेकिन यूरोप के गुलामी के दौर में वहाँ की खेती को इस प्रकार बदला व नष्ट किया गया कि अब वहां बारंबार भीषण अकाल पड़ते हैं।
भारत में हरित क्रान्ति की खुशहाली कुछ क्षेत्रों, कुछ वर्गों और कुछ फसलों तक सीमित रही।लेकिन इस सीमित खुशहाली के दिन भी अब लद गए।जिस विश्व बैंक ने अपने पहले नई टेक्नोलॉजी के प्रचार प्रसार के लिए सभी आवश्यक उपादान(उन्नत बीज, रसायनिक खाद, कीटनाशक दवाइयां, सिचाई, बिजली, डीजल, आधुनिक कृषि यंत्र) सरकार द्वारा सस्ते व अनुदानयुक्त देने की सिफारिश की थी, उसी ने रंग बदल दिया।वर्ष 1991 के बाद विश्व बैंक और अंतरष्ट्रीय कोष के निर्देश में भारत सरकार ने अनुदानों को कम करते हुए क्रमशः इन सारे उपक्रमों को महंगा करने के रणनीति अपनाई । दूसरी ओर विश्व व्यापार संगठन के स्थापना के साथ ही खुले आयात की नीति के चलते कृषि उपज के सस्ते आयात ने भारतीय किसानों की कमर तोड़ दी।बढ़ती लागत और कृषि उपज के घटते (या पर्याप्त न बढ़ते) दामों के दोमों के दोनों पाटो के बीच भारतीय किसान बुरी तरह पिसने लगे। खेती घाटे का धंधा पहले से था,लेकिन अब यह घाटा तेजी से बढ़ने लगा और किसान कर्ज में डूबने लगे।संकट इतना गहरा हो गया कि किसान देश के कई हिस्से में और कोई चारा न देख बड़ी संख्या में आत्म हत्या करने लगे पिछले छ सात वर्षों से किसानों की आत्म हत्या का दौर लगातार जारी है।यह एक अभूतपूर्व स्थिति है जो जबरदस्त संकट का घोतक है।किन्तु इससे अप्रभावित भारत की सरकारें ग्लोबीकरण प्रणीत सुधारों की राह पर आगे बढ़ती जा रही हैं।भारत के छोटे और मध्यम किसान या तो आत्म हत्या कर लें या उनकी जमीने नीलाम हो जाय या वे स्वंय जमीन बेचने को मजबूर हो जाय, यह सुधारों का एक अघोषित एजेंडा है,क्यों कि जमीन कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हो जाय, जमीन की जोट बढ़ जाय और कम्पनियों के सीधे या अप्रत्यक्ष नियंत्रण में आ जाय-यह कथित सुधरों का एक लक्ष्य है। इन्हीं सुधारों के अंतर्गत जमीन की हदबन्दी के कानून शिथिल किया जा रहा है,नए बीज कानून और पेटेंट कानून बनाए जा रहे हैं,जमीन की खरीद फरोख्त से लेकर बीज आपूर्ति,कंट्रैक्ट खेती, विपणन आदि खेती की सभी गतिविधियों में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुली छूट दी जा रही है और सारी चिंताओ और चेतावनियों को ताख पर रखकर जीन समिश्रन खेती की अनुमति दी जा रही है।इस प्रकार खेती को कम्पनीयों के हाथ में सौपने तथा खेती से जुड़ी आबादी को भी कम करने का एक बर्बर अमानवीय अभियान चल रहा है।किंतु एक अहम सवाल इस अंधी दौड़ में भुला दिया जा रहा है।यूरोप-अमेरिका में जब खेती से आबादी को विस्थापित किया गया तो वह औद्योगिक क्रांति और गोरे लोगों द्वारा दुनिया के विशाल भूभाग पर कब्जे की प्रक्रिया में खप गई।लेकिन भारत जैसे देश में खेती में लगी आबादी कहाँ जायगी ?क्या भारत के उधोगों में और शहरों में उनके खपाने की क्षमता है?क्या देश में बेरोजगारी पहले से चरम सीमा पर पहुँच नहीं गई है?
संक्षेप में,भारतीय खेती के संकट के तीन आयाम हैं: (1) आधुनिक पूंजीवादी विकास में खेती को एक आंतरिक उपनिवेश के रूप में पूँजी निर्माण का स्रोत बनाना (2) हरित क्रांति के भ्रामक नाम से एक अनुपयुक्त,साम्रज्यवादी ,किसान विरोधी व प्रकृतिक-विरोधी टेक्नोलॉजी थोपना और (3) ग्लोबीकरण के तहत किसानों पर हमले तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कब्जे की प्रक्रिया को और तेज करना।कहने की जरूरत नहीं है कि ये तीनों आयाम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक बड़ी प्रक्रिया के हिस्से हैं।
भारतीय खेती पर बढ़ते इस संकट ने पिछले तीन दशकों में अनेक सशक्त किसान आंदोलनों को जन्म दिया। तमिलनाडु, कर्नाटक ,महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों में लाखों की संख्या में किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर निकले।बाद में उड़ीसा,राजस्थान आदि प्रान्तों में भी किसानों के शसक्त आंदोलन उभरे।ये आंदोलन ज्यादातर मुख्य धारा के राजनीति दलों के बाहर, अलग एवं स्वतंत्र रहे।किसान आंदोलन ही नहीं ,इस अवधि के सभी जनांदोलन प्रमुख राजनीतिक दलों के दायरे से बाहर रहे,जिससे जाहिर होता है कि ये दल आम जनता से कटते गए और उनकी समस्याओं के संदर्भ में अप्रसांगिक बन गए। कहने को ज्यादातर मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों के किसान प्रकोष्ठ या मंत्र हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी पार्टी तंत्र से बाहर आकर किसान हित मे आंदोलन नहीं किया।
किशन पटनायक इस काल के भारत के प्रमुख समाजवादी चिन्तक और कर्मी रहे हैं। भारतीय राजनीति में जनांदोलनों की बढ़ती भूमिका को उन्होंने बहुत पहले पहचाना ,समझा, उनसे एक रिश्ता बनाया और उन्हें एक वैचारिक दिशा देने की कोशिश की।किसान आंदोलन के वे प्रबल समर्थक रहे।व्यवस्था परिवर्तन की किसी भी प्रक्रिया में वे किसान और किसान आंदोलनों की महत्वपूर्ण भूमिका मानते थे।वे किसान आंदोलन के इस पूरे दौर के भगीदार ,गवाह, नजदीक के पर्वेक्षक तथा हस्तक्षेप करने के इक्छुक रहे।इस प्रक्रिया में उन्होंने समय-समय पर लेख लिखे, भाषण दिए और टिप्पणियां कीं। उनमें प्रमुख लेखों एवं भाषणों का संकलन इस पुस्तक में किया गया है। इनसे हमें भारत के किसान आंदोलन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां, अंतरदृष्टि और समझ मिलती है। पुस्तक के पहले खण्ड में भारत का किसान आंदोलन के क्रम में महत्वपूर्ण घटनाओं की एक झांकी मिलती है।दक्षिण के किसान आंदोलन पर तो हिंदी में जानकारी दुर्लभ है। वोट क्लब की ऐतिहासिक रैली में टिकैत-शरद जोशी का झगड़ा भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था। इस प्रसंग पर भी किशन पटनायक का एक महत्वपूर्ण लेख है, जिसमें किसान आंदोलन की प्रमुख कमजोरियों को भी इंगित किया गया है। दूसरे खण्ड के लिखों से किसान आंदोलन की वैचारिक दृष्टि ,रणनीति और राजनीति के बारे में सम्यक विश्लेषक मिलता है, जो भावी किसान आंदोलन के लिये भी काफी मददगार हो सकता है,वैसे भी, भारत के किसान आंदोलन पर अच्छी पुस्तकें नहीं के बराबर हैं।डॉ ईश्वरी प्रसाद द्वारा संपादित एक पुस्तक ‘भारत के किसान ‘दस वर्ष पहले प्रकाशित हुई थी,वह भी अप्राप्य है।यानी किशन पटनायक की यह शिकायत सही है कि भारत के बौद्धिक वर्ग ने किसान आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया है। इस दृष्टि से भी किशन पटनायक की यह पुस्कट एक महत्वपूर्ण अभाव को पूरा करती है।
अस्सी और नब्बे के दशक में भारत में बड़े-बड़े किसान आंदोलन हुए।किसानों के बड़े-बड़े धरने और रैलियां ह
हुईं, जिनमें लाखों किसानों ने भाग लिया। किसानों का शोषण, कृषि उपज का उचित दाम न मिलना,किसानों पर बढ़ता कर्ज, किसानों पर बढ़ते हुए शुल्क, बिजली के बढ़ते बिल आदि उनके प्रमुख मुद्दे थे।लेकिन इतने सख्त आन्दोलनों के बावजूद आजाद भारत के किसान की क्या स्थिति है?किसान आन्दोलनों की जो प्रमुख मांगे थीं, वे पूरी होना तो दूर हालत उल्टी होती गई,किसान की दुर्गती बढ़ती गई।ग्लोबिकरण कि नीतियों ने उसे बड़ी संख्या में आत्म हत्याओं के कगार पर पहुँचा दिया। किसान आंदोलनों की तीव्रता भी धीरे-धीरे कम होती गई। वे ठंठे हो गये,कमजोर हो गए या बिखरते चले गए।ऐसा क्यों हुआ, इसके तटस्थ मूल्यांकन का समय आ गया है।
आम तौर पर किसी आंदोलन की असफलता के लिए इसके नेतृत्व तथा कुछ व्यक्तियों को दोषी ठहरा दिया जाता है लेकिन यह सरलीकरण और सतही विश्लेषण ही होता है गहराई से देखें तो इसके दो प्रमुख कारण थे। एक तो, किसान आंदोलनों में आम तौर पर व्यापक वैचारिक परिप्रेक्ष्य, दिशा और समझ का अभाव रहा।वे अपनी तत्तकालीन संकीर्ण मांगों में ही उलझे रहे।किसानों की स्थिति और किसानों के शोषण की ऐतिहासिक रूप से पड़ताल करते हुए गहराई से विशलेषण करने की जरूरत उन्होंने नहीं समझी।ऐसा विश्लेषण उन्हें इस अनिवार्य नतीजे पर पहुचाता की पूरी व्यवस्था को बदले वगैर किसानों की मुक्ति सम्भव नहीं है।इससे किसान आंदोलनों का चरित्र ज्यादा क्रांतिकारी बनता, दूसरा किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए सरकारी नीतियों को बदलने और सत्ता को प्रभावित करने की संयुक्त रणनीति तथा योजना उन्होंने नहीं बनाई। यदि वे ऐसा करते, एक तो उन्हें देश के समस्त किसान आन्दोलनों को एकजूट करने की जरूरत का ज्यादा तीव्रता से अहसास होता। दूसरे, देश के अन्य शोषित और वंचित तबकों के आन्दोलनों के साथ एकता बनाने की जरूरत महसूस होती। साथ ही,किसानों की और शोषितों की एक अलग राजनीति खड़ी करने की दिशा में वे कदम बढ़ाते। यदि सरकारें बार-बार किसान विरोधी नीतियां अपना रही हैं, तथा दल परिवर्तन से सरकार की नीतियों में कोई फर्क नहीं आ रहा है,तो वे स्वयं किसान पक्षी राजनीतिक ताकत खड़ी करने के बराबर में गंभीरता से सोचते।किशन पटनायक ने इन दोनों आवश्यकताओं को अपने लेखन एवं भाषणों में बार-बार,अलग-अलग तरीकों से,अलग अलग रूपों में,प्रतिपादित किया है।
इस अर्थ में किसान आंदोलन एवं किसान संगठन राजीनीति से परे या अराजनीतिक नहीं रह सकते वे मौजूदा भ्रष्ट ,अवसरवादी,यथास्थितिवादी, निहित स्वार्थों वाले राजनीतिक दलों से अलग रहें, यह तो ठीक है।लेकिन उन्हें अपनी राजनीति बनानी पड़ेगी,नहीं तो ये ही दल उनका इस्तेमाल चुनाव में तथा अन्ययत्र अपनी ओछी व टुच्ची राजनीति के लिए करते रहेंगे। चुकी किसानों के स्वार्थ इस व्यवस्था के दूसरे समूहों के स्वार्थ से टकराते हैं, इसलिए किसान आंदोलन को अपनी राजनीति व रणनीति गढ़ना होगा।
किसान आंदोलन संकीर्ण भी नहीं हो सकता।वह एक ट्रैड यूनियन की तरह नहीं चलाया जा सकता, इस बात को भी किशन पटनायक ने रेखांकित किया है।।संगठित मजदूरों का आंदोलन संकीर्ण हो सकता है! एक फ़ैक्टरी के मजदूरों का वेतन मौजूदा व्यवस्था के अन्दर बढ़ सकता है ;व्यवस्था परिवर्तन के वगैर वह सम्भव है।लेकिन किसानों की आमदनी मौजूदा व्यवस्था में नहीं बढ़ सकती।इसका कारण न केवल यह है कि किसानों का तादाद बहुत ज्याद है और वे देश के आबादी का खास एवं सबसे बड़ा हिस्सा हैं। बल्कि यह भी है कि किसानों और गांव खेती के शोषण पर यह पूरी व्यवस्था टिकी है।इसलिए किसान आंदोलन को अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए परिवर्तनवादी और क्रांतिकारी बनना ही पड़ेगा।
वैसे तो, मानव इतिहास की सारी नगरी सभ्यताएं व बड़े-बड़े साम्रज्य किसानों के शोषण पर ही आधारित थे बड़े-बड़े मंदिर, राजाओं और सामंतों के महल, उनकी ऐयासी, सेनाएं ,युद्ध सबका बोझा अंततः किसान ही उठाते थे।ज्यादा लगान व अत्याचार जब बर्दाश्त से बाहर हो जाते थे, तो कभी-कभी किसान विद्रोह भी होते, किन्तु ये विद्रोह तत्कालीन और स्थानीय होते थे। वे या तो दबा दिए जाते या कुछ राहत मिलने पर शांत हो जाते थे। औद्योगिक पूंजीवाद के साथ ही किसानों के शोषण ने पहली बार सार्वदेशिक तथा विकराल रूप धारण किया है।
18 वीं शताब्दि से यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ जिस पूंजीवाद का विकास हुआ है,उसमें औपनिवेशिक शोषण अंतर निहित और अनिवार्य पूंजीनिर्माण के लिए अतिरिक्त मूल्य का स्रोत सिर्फ फैक्ट्री मजदूरों का शोषण नहीं है, बल्कि दुनिया के उपनिवेशों के किसानों और मजदूरों का शोषण है, इसे रोजा लग्जमबर्ग और राममनोहर लोहिया ने अच्छी तरह समझाया है।उपनिवेशों के आजाद होने के बाद यह शोषण नव औपनिवेशिक तरीकों से जारी रहा है।देश के बाहर के उपनिवेशों या नव उपनिवेशों के शोषण मौक़ा नहीं मिलने पर पूंजीवाद देश के अंदर उपनिवेश खोजता है। सचिदानंद सिन्हा तथा किशन पटनायक ने इसे ‘आंतरिक उपनिवेश ‘ का नाम दिया है।पिछड़े और आदिवासी इलाके भी आंतरिक उपनिवेश हो सकते हैं लेकिन गांव और खेती भी एक प्रकार के आंतरिक उपनिवेश हैं।गांव और खेती में पैदा होने वाली चीजों के दाम कम रखकर, गांव के उधोग खत्म करके उन्हें कारखनिया माल का बाजार बनाकर गांव में विशाल बेरोजगारी एव कंगाली पैदा करके उधोग के लिये सस्ता श्रम जुटाकर ,तथा गांव और खेती को तमाम तरह की सुविधाओं व विकास से वंचित रखकर ही औद्योगिकरण तथा पूँजीवादी विकास संभव होता है और हुआ है। इसलिए आधुनिक पूँजीवादी औद्योगिक विकास में गांव खेती का शोषण अनिवार्य है।किसान मुक्ति के किसी भी आंदोलन को अंततः इस’ विकास ‘ और इस पर आधारित आधुनिक सभ्यता पर सवाल खड़े करने होंगे तथा इसके खिलाफ बगावत करनी होगी।इस वैचारिक परिप्रेक्ष्य के अभाव में किसान आंदोलन आगे नहीं बढ़ पाएंगे, दिशाहीन होकर ठहराव के शिकार हो जायेगें।
भारत का ही उदाहरण ले। जवाहरलाल नेहरु के प्रधानमंत्री रहते अर्थशास्त्री एवं संख्यकीविद प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने दूसरी पंचवर्षीय योजना से देश में भारी उधोगों के विकास की जो योजना बनाई।वह खेती गांवो को शोषित वंचित रखने की रणनीति पर ही आधारित थी। सरकारी और निजी क्षेत्र ,दोनों में औद्योगिकरण को बल देने के लिये सस्ता कच्चा माल और सस्ता श्रम मिले, मजदूरों को अधिक मजदूरी न देनी पड़े इसके लिए खाद्यानों के दाम भी कम रखे जाये–यह महालनोबिस मॉडल में अंतरनिहित था।नतीजा यह हुआ की भारत के जिन किसानों ने आजादी के आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया तथा जो इस आंदोलन के मुख्य आधार थे,वे शोषित वंचित बने रहे तथा कंगाली और बदहाली से आजाद नहीं हो पाए।ऐसे ही धोखा सोवियत क्रांति के बाद वहाँ के किसानों के साथ हुआ।जब स्तालिन के नेतृत्व में सामूहिक फार्म बनाने के लिए किसानों से जबर्दस्ती जमीन छीन ली गई और विरोध करने वाले असंख्य किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया।गांव और किसान को वंचित रखके ही भारी औधोगीकरण, सेना एवं शस्त्र निर्माण तथा अन्तरीक्ष अभियान का कार्यक्रम सोवियत संघ में चलता रहा। चीनी क्रांति तो मुख्यतः किसानों की ही क्रांति थी। इसने चीन में साम्यवाद को एक नया और खाटी देशी रूप दिया।लेकिन औद्योगिक विकास का वही पूँजीवादी विचार ही हावी होने के कारण अंततः चीन भी तेजी से पूँजीवादी ग्लोबीकरण की राह पर जा रहा है।वहाँ भी बहुत तेजी से एवं बहुत बड़े पैमाने पर किसानों और गांवों को कंगाली, बेरोजगारी, बदहाली और विस्थापन का शिकार होना पड़ रहा है।
कुल मिलाकर,किसानों की मुक्ति के लिए आधुनिक औद्योगिक सभ्यता से मुक्ति होगा और एक गांव केंद्रित, विकेन्द्रित, नई सभ्यता की तलाश करना होगा।किशन पटनायक की विशेषता यह है कि वे सिर्फ किसान संगठन के विविध आयामों की ही पड़ताल नहीं करते और मौजूदा व्यवस्था की महज आलोचना ही नहीं करते, विकल्प व समाधान भी खोजते चलते हैं। किसान विद्रोह का घोषणा पत्र और किसान राजनीति के सूत्र नामक लेखों में वे किसानों की दृष्टि से भावी समाज की रचना के कुछ सूत्र भी पेश करते हैं।तारतम्य में वे पूंजीवाद के एक गैर मार्क्सवादी विकल्प की तलाश का आह्वान करते हैं ,क्योंकि मार्क्सवाद उस उत्पादन प्रणाली से बहुत ज्यादा जुड़ा है, जिसमें कृषि व किसानों का शोषण निहित है।
विचारों के स्तर पर पुरानी मान्यताओं व पुराने ढांचे को खंडित करने और नए विकल्पों की तलाश करने का काम किसान आंदोलन के नेतृत्व को करना होगा और जागरूक बुद्धजीवियों को करना होगा।इस मामले में भारत के बुद्धिजीवियों और शास्त्रों की कमियां तथा असफलता किशन पटनायक को काफी कचोटती हैं।उनकी विसंगतियों और अपनी पीड़ा को किशन पटनायक ने ‘कृषक क्रांति’ और शास्त्रों का अधूरापन नामक लेख में व्यक्त किया है।
जब हम ‘किसान’ की बात करते हैं, तो उससे क्या आशय है?किसान की परिभाषा में खेत में काम करने वाला मजदूर शामिल है या नहीं है ? भूमि के मालिक किसान और भूमिहीन मजदूर के हित भिन्न एवं परस्पर विरोधी हैं या उनमें कोई एकता हो सकती है? ये प्रश्न किसान आंदोलन के संदर्भ में बार-बार सामने आते हैं।किशन पटनायक का मानना है कि किसान और खेतिहर मजदूर द्वन्द तो है,लेकिन यह बुनियादी द्वंद नहीं है।जो किसान आंदोलन नव औपनिवेशिक शोषण और आंतरिक उपनिवेश के वैचारिक परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखेगा, वह उससे संघर्ष के लिए खेतिहर मजदूरों को अपने साथ लेने का प्रयास करेगा।यदि किसान और खेतिहर मजदूर एक हो गए ,तो बड़ी ताकत पैदा होगी,जो पूंजीवाद, साम्रज्यवाद, ग्लोबीकरण और साम्प्रदायिकता का मुकाबला कर सकेगी।पुस्तक के अंतिम दो लेखों में किशन पटनायक ने इस प्रश्न को सुंदर तरीके से संबोधित किया है।
अस्सी के दशक के अंत में भारत में किसान आंदोलन अपने शिखर पर था।कर्नाटक में प्रो. एम. डी. नंजुदास्वामी के नेतृत्व में, महाराष्ट्र के शरद जोशी के नेतृत्व में और पश्चिमी उत्तर प्रदेश ,हरियाणा, पंजाब में महेंद्र सिंह टिकैट के नेतृत्व में किसान आंदोलन की एक जबरदस्त लहर चल रही थी।इन आंदोलनों की एकता और समन्वित कार्यवाही देश इतिहास को एक नया मोड़ दे सकती थी।लेकिन यह ऐतिहासिक मौका हाथ से चला गया। 2 अक्टूबर 1989 को दिल्ली की वोट क्लब की विशाल रैली में मंच पर हुए विवाद की घटना मानो एक संकेत थी। इसके बाद से किसान आंदोलनों का ज्वार उतरने लगा।ऐसा क्यों हुआ ,इसको जानने के लिए जिज्ञासु अध्येताओं को इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि ,उनके सामाजिक आधार ,नेतृत्व, विचारधारा ,घटनाओं और परिस्थितियों का विस्तार से अध्ययन करना पड़ेगा। उन्हें किशन पटनायक के इस पुस्तक से मद्दद और महत्वपूर्ण संकेत मिलेंगे।
इस संदर्भ में एक प्रसंग का जिक्र करना मौजू होगा।संभवत वोट क्लब रैली के पिछले वर्ष की बात होगी,जब किसान संगठनों की अंतरराज्यीय समन्वय समिति का गठन हो गया था।इस समिति की बैठक नागपुर में हुई, जिसमें महाराष्ट्र, कर्नाटक ,गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा, मध्यप्रदेश आदि के प्रतिधिनि मौजूद थे, किन्तु बैठक नागपुर में होने के कारण महाराष्ट्र के प्रतिनिधि ज्यादा थे।इस बैठकर में कुछ प्रतिनिधियों के द्वारा शेतकरी संघटना द्वारा अनाज व कपास की खेती छोड़कर किसानों को यूकेलिप्टस की खेती करने का आह्वान पर सवाल उठाए गए।किशन पटनायक भी इस बैठक में मौजूद थे। उन्होंने कहा कि किसान चुकी देश का सबसे बड़ा तबका है, उसका स्वार्थ देश से अलग नहीं हो सकता।उसे देश के स्वार्थ के बारे में भी सोचना पड़ेगा।किशन पटनायक ने यह भी कहा कि किसानों के बेहतरी के लिए सिर्फ कृषि उपज के ज्यादा दाम मांगने से बात नहीं बनेगी।औधोगिक दामों पर नियंत्रण की मांग करनी पड़ेगी।इसका मतलब है कि पूरी व्यवस्था को बदलने की बात सोचनी पड़ेगी। एक समग्र नीति बनानी पड़ेगी। किसानों के नजरीय से विकास नीति कैसी हो ,उधोग नीति कैसी हो, शिक्षा नीति कैसी हो, प्रशासन व्यवस्था कैसी हो-सबकी रूप रेखा बनानी पड़ेगी और सबके बारे में सोचना पड़ेगा।किन्तु शरद जोशी और उनके जिंसधारी सिपहसलारों ने किशन पटनायक की बात बिलकुल नहीं चलनी दी।उनका कहना था कि कृषि उपज का दाम ही सब कुछ है।किसानों का सही दाम मिलने लगे, तो सब ठीक हो जाएगा। किशन पटनायक के विचारों पर आगे चर्चा व बहस भी बैठक में नहीं होने दी गई।काश ! यदि किशन पटनायक की बात पर किसान आंदोलनों के नेताओं ने गौर किया होता और अपने आन्दोलनों को उस दिशा में ढाला होता तो, न केवल किसान आंदोलनों का,बल्कि देश का इतिहास भी कुछ दूसरा हो सकता था। किन्तु आगे की प्रवृत्तियों के लक्षण यहीं दिखने लगे थे।शरद जोशी के बाद ग्लोबीकरण, उदारीकरण और बाजारवाद के पक्के समर्थक साबित हुए।इसलिए शायद वे उस बैठक में बहस से बचना चाहते थे।शरद जोशी ने किसानों को सब्जबाग दिखाए की मुक्त व्यापार नीतियों से उनके उपज का निर्यात बढ़ेगा और उन्हें आकर्षक दाम मिलेंगे।लेकिन हुआ ठीक उल्टा।कृषि उपज का आयात बढ़ा तथा घरेलू मंडियों में भी दाम गिर गए। शरद जोशी तो उन्नति करते हुए राज्य सभा सदस्य बन गए और ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ के अध्यक्ष बन गए, किन्तु महाराष्ट्र के किसान आत्महत्याओं की कगार पर पहुँच गए। अंतरराष्ट्रीय बाजार आखिरकार शरद जोशी की सदिच्छाओं से काम नहीं करता, ताकतवर पश्चिमी देशों, उनके विशाल अनुदानों और उनकी विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के स्वार्थो के मुताबिक काम करता है।किसान आन्दोलनों के लिए यह एक महत्वपूर्ण सबक है।
किशन पटनायक आज हमारे बीच में नहीं हैं। किन्तु उनके विचारों और विश्लेषण से किसान आंदोलन को एक नई दिशा मिल सकेगी, साथ ही परिवर्तन चाहने वाले सभी व्यक्तियों व समूहों की समझ भी समृद्ध होगी, इसी आशा और विश्वास के साथ यह छोटी-सी पुस्तक पाठकों की सेवा में पेश है।

सुनील

7 जून 2006

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गत 5 अगस्त को केंद्र की भाजपा नीत एनडीए सरकार ने जम्मू-कश्मीर से संविधान के विशेष प्रावधान अनुच्छेद-370 के कई प्रमुख प्रावधानों को निष्प्रभावी बना दिया। इसके साथ ही केंद्र ने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य के दर्जे के साथ ही पूर्ण राज्य का दर्जा भी समाप्त कर उसे दो हिस्सों में केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में विभाजित कर दिया।

केंद्र ने संसद से तीन प्रस्ताव पारित कराए हैं। इनमें से एक में संविधान संशोधन कर कश्मीरी संविधान सभा के न रहने की स्थिति में उसका अधिकार राष्ट्रपति में निहित कर दिया गया है। असल में पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि अनुच्छेद 370 को हटाने का अधिकार कश्मीर की संविधान सभा को है। लेकिन 1957 में संविधान सभा के भंग हो जाने पर दूसरी बार संविधान सभा का गठन कर ही इस प्रावधान पर विचार किया जा सकता है। इस फैसले को पलटने के लिए भाजपा सरकार ने संविधान में ही संशोधन कर दिया है।

सरकार ने एक तरह से सांप्रदायिक पक्ष लेते हुए न केवल राज्य का दर्जा खत्म कर दिया है बल्कि उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित भी कर दिया है। इसके साथ ही पूरी घाटी में संचार सेवा को ठप कर करीब 50 हजार सुरक्षाबलों को तैनात कर दिया है। लोगों पर अघोषित कर्फ्यू लागू कर दिया गया है। ऐसा कर सरकार ने ऐतिहासिक भूल को सुधारने और आतंकवाद व अलगाववाद प्रभावित राज्य में शांति बहाली की उम्मीद का दावा किया है।

लेकिन जब हम संविधान, लोकतांत्रिक व्यवस्था, कानून का राज जैसे सिद्धांतों और भाजपा जैसी पार्टी की सोच और चरित्र के आधार पर आकलन करते हैं तो पता चलता है कि यह सब कार्रवाई केंद्र की भाजपा- एनडीए सरकार ने संविधान का उल्लंघन करने, लोकतंत्र का गला घोंटने, संघवाद, बहुलवाद को नजरंदाज कर अपना एकत्ववादी, सांप्रदायिक हिन्दूवादी एजेंडा लागू करने के लिए ऐसा किया है। यह इस बात से भी पुष्ट होता है कि‍ भाजपा सरकार ने यह सब राज्य की जनता को विश्वास में लिए बिना किया है, जिसका वादा जम्मू कश्मीर के विलय के वक्त किया गया था। अपनी अलोकतांत्रिक और धूर्ततापूर्ण कार्रवाई के समर्थन मे गृहमंत्री ने दिवंगत समाजवादी नेता डॉ- राम मनोहर लोहिया का नाम बिना किसी संदर्भ के लेने की धृष्टता की है कि‍ लोहिया अनुच्छेद 370 के खिलाफ थे। इसका कांगेस के एक प्रमुख नेता ने भी समर्थन किया। हम इस अभद्रतापूर्ण बयान की निंदा करते हैं। डा लोहिया ने हमेशा भारत-पाकिस्‍तान महासंघ बनाने की बात की जिसमें सीमाओं को मुक्‍त आवागमन के लिए खुला छोड़ा जा सके।

सजप मानती है कि जम्मू-कश्मीर में पूरे देश की तरह ही जन भावना को कुचलने का काम केंद्र की सरकारें करती रही है। चाहे कांग्रेस सरकार की 1953 का कश्मीर संविधान को नजरंदाज कर भारी बहुमत से चुने गए जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुतल्ला को अपदस्थ करना और अगले बीस साल के लिए जेल में डालना रहा हो, बाद के दिनों में धांधली कर चुनाव जीतना रहा हो या भाजपा की अब की कार्रवाई हो, सरकारें राज्य में सांप्रदायिक सौहार्द से छेड़छाड़ कर ही कार्रवाई करती रही है। कहना न होगा कि भाजपा सरकार की कार्रवाई की कांग्रेस महासचि‍व समेत कई नेताओं ने समर्थन किया हे और कांग्रेस नेतृत्व ने मौन साध रखा है।

सजप मानती है कि केंद्र की सरकारों की तरह ही राज्य की नेशनल कांफ्रेंस- पीडीपी- भाजपा सरकार की भी इस समस्या के समाधान की कोई इच्छाशक्ति नहीं रही है। यद्यपि नेशनल कांफ्रेंस भारत विभाजन के खिलाफ रहा और उसने राज्य के सांप्रदायिक माहौल को संतुलित रखने में शुरू से ही भूमिका निभाई है लेकिन बाकी समस्याओं को दूर करने और लोगों की बेहतरी के लिए उसका भी नकारापन रहा है। नेकां और पीडीपी शुरू से जनकल्याण के काम में जुटी रहती तो आज राज्य की शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक, सामाजिक स्थिति बेहतर हुई रहती। लेकिन देश के बाकी दलों की तरह ही उनका व्यवहार भी गैर जिम्मेदाराना रहा है। इस स्थिति में देश भर में सांप्रदायिक उन्माद और वैमनस्य पैदा कर भाजपा-आरएसएस घटिया लाभ लेने की फिराक में है। सजप केंद्र सरकार की इस धोखेबाजी, असंवैधानिक, गैर जिम्मेदाराना और धूर्तता से भरी इस प्रवृत्ति की कड़ी निंदा करती है।

जम्मू-कश्मीर या किसी राज्य की स्वायतत्ता और संघात्मक ढांचे पर बात करते समय सजप का यह भी मानना है कि प्राकृतिक संसाधनों पर मूल वासियों और “लम्बे समय के वासियों” का व्यक्तिगत और सामुदायिक अपरिवर्तनीय (unquestionable) अधिकार सजप की आधार भूत मान्यताओं में है। सजप मानती रही है कि सरकार द्वारा प्रायोजित सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए भी ज़मीन, जंगल, खनिज और जल का अधिग्रहण वहाँ की स्थानीय लोकतांत्रिक सरकारों (ग्राम सभा, पंचायत, ज़िला परिषद वग़ैरह) की सहमति से ही हो सकती है।

जिस तौर तरीके को कश्मीर में अपनाया गया उससे यह अंदेशा बनता है कि वर्तमान की कार्रवाई को केंद्र एक लिटमस टेस्‍ट के तौर पर ले सकता है और इसमें सफल होने के बाद वह आदिवासी इलाके, अन्य राज्यों के विशेषाधिकार और यहां तक कि विरोधी दल शासित राज्य सरकारों को कुचलने के लिए वहां भी ऐसी कार्रवाई कर सकता हैं और वहां के संवैधानिक अधिकारों को समाप्त कर सकता है और तानाशाही कायम की जा सकती है। भंग या निलंबित विधानसभा के अधिकार राज्यपाल के माध्यम से राष्ट्रपति को दे देना अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक है। कश्मीर की संविधान सभा, विधानसभा की शक्ति राज्यपाल, राष्ट्रपति में निहित मान लेना तानाशाही का द्योतक है।

वैसे तो सजप की स्थायी मांग है कि कश्मीर समस्या के हर पहलुओं की संवेदनशीलता और अंतरराष्ट्रीय गंभीरता के साथ जांच-परख कर कूटनयिक पहल की जानी चाहिए और पूरे भारतीय समाज को इसमें संलग्न कर ऐसे समाधान की दिशा में बढ़ना चाहिए, जिससे कश्मीर और पाकिस्तान, बांग्लादेश समेत समूचे दक्षिण एशिया में शांति-सौहार्द कायम हो सके। तभी हम उम्मीद कर सकते हैं कि कश्मीर समस्या का समाधान भी आकार ले पाएगा।

लेकिन वर्तमान परिस्थिति में सजप मानती है कि जिस तरह से बन्दूक के साये में यह सब किया गया हमें उसका खुलकर विरोध किया जाए। देश के संविधान प्रदत्त संघीय ढांचे पर केंद्र सरकार ने सोच समझ कर आघात किया है। कश्मीर के अलगाववादी तत्वों को भारत सरकार के कदम से बल मिलेगा। किसी भी समुदाय से बात किए बिना उनके बारे में फैसला एकदम अलोकतांत्रिक और तानाशाही भरा है।

जहां तक कश्‍मीर पर अवैध कब्‍जे की बात है तो पीओके के अलावा चीन ने भी अक्‍साई चिन के बड़़े भूभाग यानी लगभग 33,000 वर्ग किलोमीटर जमीन कब्‍जा रखी है। इस पर सरकार ने अब तक कोई बयान भी जारी नहीं किया है। लद्दाख को केंद्र शासित बनाने पर चीन के विरोध में दिए गए बयान का भी भारत सरकार ने कोई प्रतिकार नहीं किया है। जो तत्‍काल किया जाना चाहिए था।

सजप मांग करती है कि

तत्‍कालकि तौर पर

– कश्मीर की वास्तविक स्थिति यानी तत्काल 5 अगस्त से पूर्व की स्थिति बहाल की जाए।

– वहां तत्काल विधानसभा का चुनाव कराकर लोकप्रिय सरकार गठित की जाए।

– दो पूर्व मुख्यमंत्रि‍यों व अन्य नेताओ की गिरफ्तारी निंदनीय है। उनकी तुरंत रिहाई हो।

– सरकार की वर्तमान कार्रवाई पर उच्चस्तरीय और संवैधानिक जांच बैठाई जाए।

– अनुच्छेद 370 पर निर्णय राज्य की जनता को विश्वास में लेकर व़हां संविधान सभा गठित कर हो।

– दीर्घकालिक तौर पर

-पाकिस्तान से बातचीत शुरू कर समस्या का स्थायी समाधान खोजें।

– भारत-पाकिस्‍तान-बांग्‍लादेश का महासंघ बनाने की दिशा में स्थिति को अनुकूल करने पर काम हो।

– चीन द्वारा कब्‍जा किए अक्‍साई चिन इलाके को वापस लेने के प्रयास किए जाएं।

– किसी राज्य से राज्य का दर्जा खत्म करने का संवैधानिक प्रावधान को रद्द किया जाए।

– केंद्र- राज्‍य संबंधों को संघीय दृष्टि से पुनर्परिभाषित करने के लिए दूसरे ‘केंद-राज्‍य संबंध आयोग’ का गठन किया जाए।

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प्रथम विश्वयुद्ध में इंग्लैंड सफल हुआ था उसके बावजूद युद्ध के दिनों में मानवाधिकारों जो पाबंदिया थी उन्हें जारी रखने की बात शासकों के दिमाग में थी।विश्वयुद्ध में अंग्रेज फौज में पंजाब से काफी सैनिकों की बहाली हुई थी।अंग्रेज अधिकारी,पुलिस के सिपाहियों को लेकर देहातों में पहुंच जाते और गांवों में से युवकों को जबरदस्ती अंग्रेज फौज में भर्ती कराने ले आते।जहां एक ओर,सैनिक भरती किए गए वहीं दूसरी ओर भारत से जंग के लिए दस करोड पाउंड का जंगी कर्ज भी उठाया गया।आयात निर्यात पर असर पडने से कीमतेंं बहुत बढ़ गईं।
दिसंबर 1917 में अंग्रेजों ने एक ‘राजद्रोह समिति’ गठित की जिसे रॉलेट समिति के नाम से जाना जाता है।जुलाई 1918 में इसकी रपट छप कर आई। इस रिपोर्ट में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को गुंडों का आंदोलन कहा गया था,जो लूटपाट और हत्याएं करते हैं।इसमें यह दिखाने की कोशिश की गई थी थी कि भारत के देशभक्त अराजकतावादी हैं,लूटपाट,आगजनी और मारकाट में विश्वास करते हैं,कि उनसे समाज को बहुत बड़ा खतरा है और भारत में शांति भंग होने का डर है।
उस रिपोर्ट में कहा गया था कि ऐसे अपराधी तत्वों को दबाकर रखने में मुश्किल पेश आ रही है इसलिए नए कानून बनाने की जरूरत है।इन कानूनों के तहत जंग के दौरान नागरिकों के हकों पर लगी पाबंदियां जंग के बाद भी जारी रहने वाली थीं।कमिटी की रिपोर्त में दो नये कानून प्रस्तावित किए गए-
1.प्रेस पर कड़ा नियंत्रण रखे जाने का प्रावधान
2.गिरफ्तार किए गए लोगों को बिना कोर्ट में पेश किए दो वर्ष तक बिना कोर्ट में पेश किए जेल में रखा जा सकता था।
यही वह वक्त था जब भारत के राजनीतिक क्षितिज पर गांधीजी का प्रवेश हुआ।यदि उस समय गांधीजी देश की आजादी की लड़ाई में नहीं उतरे होते और उसकी बागडोर उनके हाथों में नहीं आई होती तो हमारे संघर्ष की दिशा और स्वरूप कुछ और होता।यह अपने में अलग लेख का विषय है।
रॉलेट समिति की सिफारिश के अनुरूप एक कानून बना दिया गया।
अब इस कानून केे प्रतिकार में हो रही सभा के दौरान हुए नरसंहार के विवरण में न जाकर वर्तमान में आने की गुजारिश है।
आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकार निलंबित रहते हैं।यानि अभिव्यक्ति,घूमने फिरने,आस्था,जिंदा रहने के अधिकार स्थगित!
दो किस्म के आपातकाल का प्रावधान है-1अंतरिक संकट से उत्पन्न ,2. बाह्य संकट से उत्पन्न यानी युद्ध की घोषणा के बाद।
पहले किस्म का आपातकाल इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को लगाया था।दूसरे किस्म का आपातकाल हर युद्ध के समय लागू होता है।
तानाशाही बनाम लोकतंत्र के मुद्दे पर लडे गए 1977 के आम चुनाव में लोकतंत्र की जीत हुई तो आंतरिक आपातकाल लागू करने का तरीका अत्यंत कठिन हो गया।संसद में दो तिहाई मतों के अलावा दो तिहाई राज्यों में दो तिहाई बहुमत की शर्त जोड़ दी गई।
अब मौलिक अधिकारों को स्थगित रखने के लिए बाह्य खतरे और युद्ध की परिस्थिति सरल है।
फिर रॉलैट कानून जैसे प्रावधान का मतलब होगा युद्ध के बाद भी मौलिक अधिकारों को निलंबित रखना! यानी तानाशाही।
संवैधानिक प्रावधानों से आंतरिक आपातकाल अब कठिन है।युद्ध वाला सहज है।
इसलिए13 अप्रैल 1919 के सौ साल पूरे होने पर हमें यह याद रखना है कि घोषित – अघोषित आपातकाल फिर न हो यह सुनिश्चित किया जाए।

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पी. लंकेश कन्नड़ के लेखक ,पत्रकार और आंदोलनकारी।एक ऐसी जमात के प्रमुख स्तंभ जो लोहिया के मुरीद होने के कारण अम्बेडकर की समाज नीति और गांधी की अर्थ नीति के हामी थे।देवनूर महादेव,यू आर अनंतमूर्ति और किशन पटनायक के मित्र और साथी।
उनकी लोकप्रिय पत्रिका थी ‘लंकेश पत्रिके’।लंकेश के गुजर जाने के बाद उनकी इंकलाबी बेटी गौरी इस पत्रिका को निकालती थी।आज से ठीक साल भर पहले गौरी लंकेश की ‘सनातन संस्था’ से जुड़े कायरों ने हत्या की।समाजवादी युवजन सभा से अपना सामाजिक जीवन शुरू करने वाले महाराष्ट्र के अंध श्रद्धा निर्मूलन कार्यकर्ता डॉ नरेंद्र दाभोलकर की हत्या भी सनातन संस्था से जुड़े दरिंदों ने की थी यह सी बी आई जांचकर्ता कह रहे हैं।सनातन संस्था के लोगों के पास से भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद हुए तथा आतंक फैलाने की व्यापक साजिश का पर्दाफ़ाश हुआ है।यह पर्दाफाश भी राज्य की एजेंसी ने किया है।
महाराष्ट्र में व्यापक दलित आंदोलन को हिंसक मोड़ देने में RSS के पूर्व प्रचारक की भूमिका प्रमाणित है।ऐसे व्यक्ति के गैर नामजद FIR के आधार पर देश भर में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं की निराधार गिरफ्तारियों से स्पष्ट है कि आरएसएस और सनातन संस्था की राष्ट्रविरोधी कार्रवाइयों के उजागर हो जाने के कारण राजनाथ सिंह-मोदी का यह मूर्खतापूर्ण ‘बचाव’ है।
रिजर्व बैंक की अधिकृत रपट में नोटबंदी की विफलता मान ली गई है।प्रधान मंत्री ने 50 दिनों की जो मोहलत मांगी थी उसकी मियाद पूरी हुए साल भर हो गई है। ’50 दिन बाद चौराहे पर न्याय देना’ यह स्वयं प्रधान मंत्री ने कहा था इसलिए उनके असुरक्षित होने की वजह वे खुद घोषित कर चुके हैं।
एक मात्र सत्ताधारी पार्टी चुनाव में पार्टियों द्वारा चुनाव खर्च पर सीमा की विरोधी है।इस पार्टी ने अज्ञात दानदाताओं द्वारा असीमित चंदा लेने को वैधानिकता प्रदान कर राजनीति में काले धन को औपचारिकता प्रदान की है।
समाजवादी जन परिषद इस अलोकतांत्रिक सरकार को चुनाव के माध्यम से उखाड़ फेंकने का आवाहन करती हैं।
अफ़लातून,
महामंत्री,
समाजवादी जन परिषद।

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जारी है….

Note ban: Not only in Bihar, BJP went land shopping in Odisha as well

2000 के नोट की चिप से आतंकियो को ट्रेस कर मार गिराया :- तिहाड़ी चौधरी( छी न्यूज)

 

Pramod Singh

..दूसरी बात. महाधन का यह महाप्रताप है, या दूरगामी सांगठनिक सोच की विकट लीला, सभी सोशल वेबसाइट्स पर, और उससे बाहर की दुनिया में भी, भाजपाई तत्व भयानक रुप से सक्रिय हैं. इतनी गहराई तक उनका फैलाव हो गया है कि हो सकता है जो चादर ओढ़कर आप बैठे हो, उसके पैताने भाजपाई तत्व लटका हुआ हो. 2014 के ठीक पहले और उसके बाद से यह महापरिवर्तन कैसे घटित हुआ है, समाज वैज्ञानिकों और कार्यकर्ताओं के लिए गंभीर विवेचना का विषय है. लेकिन यह महाक्रांतिकारी कृत्य जो घटित हुआ है, एक बड़ी वास्तविकता है और इस तोड़ और फोड़ का फ़ायदा बड़े ढंग से पूरा भाजपा और लगभग वैसे ही स्वार्थों पर फल, पोषित हो रहा बिरादर समाज, आर्थिक क्षेत्र से जुड़ी सभी संस्थाएं काट रहे हैं. यह आन्हर सेना सिर्फ़ आपकी बात का विरोध करने को हाज़िर हुई हो, ऐसा नहीं है. प्रकट गंदा फूहड़ विरोध करने के साथ-साथ, वह किसी भी सार्थक बातचीत को भटकाने, बेमतलब करने और कंफ्यूज़न फैलाने का नंगा नाच नाचने लगती है. यही इस पूरे महाकांड का मुख्य उद्देश्य भी है, कि इनके जघन्य कृत्य होते रहें, और उसकी प्रतिक्रिया में कोई भी बात, विरोध बड़े पैमाने पर फलित हो ना सके. अगर हो तो उसे कहनेऔर सुनने, सभी वालों को, हलकान करो, कंफ्यूज़ करो और पूरी प्रक्रिया को हास्यास्पद बना दो. इससे कैसे लड़ा जाए, बड़ा विकट संकट है. इस पर सोचिए, लगातार सोचिए, इसकी अब हमेशा ज़रूरत पड़ती रहेगी. आप भाजपा के सीधे विरोधी ना भी हों तो भी उनके तरीके और दुनिया वह ऐसी बना रहे हैं कि आपको बात नहीं करने देंगे और जो भी बात होगी भाजपाई फ़ायदों की बात होगी, और माथे पर ढोल बजा-बजा कर बताया जाएगा कि वही समाज और देश का भी फ़ायदा है.

Aflatoon Afloo shared Himanshu Kumar‘s post.

 

Himanshu Kumar

मोदी जी आपका तो रोम-रोम कारपोरेट के यहां गिरवी है

आगरा की रैली में पीएम मोदी ने कहा कि वो बिकाऊ नहीं हैं। यह बात उतनी ही असत्य है जितना यह कहना कि सूरज पश्चिम से निकलता है। जो व्यक्ति बाजार की पैदाइश है और जिसकी कारपोरेट ने खुलेआम बोली लगाई हो। उसके मुंह से यह बात अच्छी नहीं लगती है। शायद मोदी जी आप उस वाकये को भूल गए जब कारपोरेट घरानों के नुमाइंदों का लोकसभा चुनाव से पहले अहमदाबाद में जमावड़ा हुआ था। इसमें अंबानी से लेकर टाटा और बजाज से लेकर अडानी तक सारे लोग मौजूद थे। पूंजीपतियों के इस मेले में आप अकेले घोड़े थे। जिसके बारे में इन धनकुबेरों को विचार करना था। फिर वहीं पर आप के ऊपर दांव लगाने का फैसला हुआ था। उसके बाद से कारपोरेट ने अपनी पूरी तिजोरियां खोल दीं। निजी टीवी चैनलों से लेकर अखबारों और सोशल मीडिया से लेकर अपने निजी तंत्र को आपके हवाले कर दिया। लोकसभा चुनाव के दौरान पांच से लेकर सात चार्टर्ड विमान आपकी सेवा में लगा दिए गए। हेलीकाप्टरों की तो कोई गिनती ही नहीं थी। एक विदेशी एजेंसी के अनुमान के मुताबिक 24 हजार करोड़ रुपये आपने पानी की तरह बहाया। क्या ये पैसा बीजेपी के पास जमा था। या फिर संघ ने उसे मुहैया कराया था। या आपके घर-परिवार वालों ने दिया था। जनता के चंदे से तो पार्टी कार्यकर्ताओं का खाना भी नहीं चल पाता। ऐसे में यह मत कहिएगा कि जनता के बल पर चुनाव लड़े।

दरअसल कारपोरेट घरानों ने आपको गोद ले लिया था। क्योंकि उसे लग गया था कि यही वो शख्स है जो उसके लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद साबित होगा। अनायास नहीं अपनी पुरानी चहेती पार्टी कांग्रेस की नाव को छोड़कर यह हिस्सा रातों रात आपकी गाड़ी में सवार हो गया। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस उनका कोई अनभल कर रही थी। सच यह है कि इस देश को वैश्वीकरण के रास्ते से जोड़ने वाला शख्स ही उसका प्रधानमंत्री था। लिहाजा उस पर भरोसा न करने का कोई कारण नहीं था। लेकिन कारपोरेट जितनी तेजी से देश के संसाधनों को लूटना चाहता था। या उस पर काबिज होना चाहता था। कांग्रेस उसके लिए तैयार नहीं थी। क्योंकि उसने मानवीय चेहरे के साथ उदारीकरण के रास्ते पर बढ़ने का फैसला लिया था। जिसके चलते उसे तमाम कल्याणकारी योजनाओं को भी चलाना पड़ रहा था। कारपोरेट जिसके धुर खिलाफ था। क्योंकि बाजार में उसके फलने-फूलने की राह में यही सबसे बड़ी बाधा थी। इसलिए कारपोरेट ने सामूहिक तौर पर आपके साथ जाने का फैसला लिया। क्योंकि उसे पता था कि आप देश के संसाधनों से लेकर पूरे बाजार को उसके हवाले कर देंगे। नीतियां कारपोरेट की होंगी, लागू सरकार करेगी। अनायास नहीं सभी सरकारी संस्थाओं को पंगु बना दिया गया है। बारी-बारी से कल्याणकारी योजनाओं को वापस लिया जा रहा है।

इसलिए मोदी जी बिकाऊ की बात तो दूर आपका तो रोम-रोम कारपोरेट के यहां गिरवी है। और अब आप बारी-बारी से उसी कर्जे को उतार रहे हैं। अदानी को पूरे कच्छ जिले की जमीन 1 रुपये प्रति एकड़ की लीज पर देना उसी का हिस्सा है। देश का पूरा सोलर प्रोजेक्ट अडानी के हाथ में है। कोई हफ्ता शायद ही बीतता हो जब बाबा रामदेव के लिए किसी तोहफे की घोषणा न होती हो। अंबानी का तो पहले साउथ ब्लाक तक ही रिश्ता था। वह भी दलालों के जरिये। लेकिन अब उनकी सीधे पीएमओ में दखल हो गई है। नोटबंदी का फैसला इसी कारपोरेट को सीधे लाभ पहुंचाने के लिए किया गया है। आप ने आगरा की रैली में खुश होकर कहा कि 5 लाख करोड़ रुपये आ गए हैं। और अब जनता और जरूरतमंद को लोन दिया जाएगा। लेकिन सच यही है कि उससे जनता नहीं बल्कि कारपोरेट की झोली भरी जाएगी। और जनता के बीच से जो लोग लोन लेंगे वो भविष्य में आत्महत्या करेंगे। लेकिन कारपोरेट का लोन माफ कर दिया जाएगा।

आपने कालाधन धारियों को गिरफ्तार कर सजा देने की बात कही है। कुछ जगहों पर छापे की खबरें भी आ रही हैं। ये कितनी अफवाह हैं और कितनी नौटंकी। इसका कुछ समय बाद ही पता चलेगा। लेकिन सच यही है कि निशाने पर अभी भी छोटी मछलियां ही हैं। अगर आप इस पूरी कवायद को लेकर गंभीर होते। तो अडानी के तकरीबन 5400 करोड़ रुपये के बाहर भेजे जाने वाले मामले में एसआईटी की जांच में बांधा नहीं डालते। लेकिन सच यही है कि आपको बड़े कारपोरेट घरानों के काले धन से कुछ नहीं लेना देना। और न ही विदेशों में जमा धन आपकी चिंता का विषय है। आप का मुख्य मकसद जनता के पैसे को बैंकों में लेकर उसे कारपोरेट के हवाले करना है।

मोदी जी जुमलों की एक सीमा होती है। यह भ्रम भी बहुत दिनों तक नहीं रहने वाला। क्योंकि इसका असर सीधे जनता पर पड़ेगा। जनता को जुमला और कारपोरेट को थैली का पर्दाफाश होकर रहेगा। वैसे भी झूठ की उम्र बहुत छोटी होती है।

ध्यान रहे कि 30 दिसंबर तक जितने मूल्य के 500 ,1000 के नोट रिजर्व बैंक में वापस जमा होंगे उस राशि को रिजर्व बैंक द्वारा जारी इन नोटों के कुल मूल्य से घटाने पर एक अन्दाज लगेगा, 500 और हजार के नोटों के रूप में काले धन का।
कुल काले धन का यह बहुत छोटा हिस्सा होगा। अर्थशास्त्री राष्ट्रीय आय का 40 फीसदी काला धन होने का अनुमान बताते हैं।

Aflatoon Afloo

उपचुनावों में जो जहां सत्ता में था जीत गया।भाजपा म प्र में ,तृणमूल बंगाल में,माकपा त्रिपुरा में,अन्नाद्रमुक तमिलनाडु में

Aflatoon Afloo

गुजरात में घूस की रकम 2000 रुपये के नोटों में पकड़ाई,दो आतंकियों के पास 2000 रु के नोट मिले और अब 2000 के नकली नोट भी मिल गये। क्या बचा?
बची है बडे उद्योगपतियों की सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में देनदारी।तो वह आम जनता के खून पसीने की कमाई निचोड कर जमा कर लेने के बाद सलट जाएगी।

Rs. 4 Lakh In Fake 2,000 Rupee Notes Seized In Odisha, 1 Arrested

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Sanjay Jothe

गाँव वाले ‘ऑनलाइन’ का अर्थ समझ रहे हैं – ‘लाइन में लगना ही ऑनलाइन होना है’ … JIO डिजिटल इंडिया

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Aparna Krishnan

Please never go cashless even if it may reduce corruption.

Life and livlihoods come first. Small people survive on cash – flower vendors, small shopkeepers, small farmers. Fighting corruption comes second, only after survival is taken care of.

BUSINESS
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Raj Kishore

नोटबंदी से अमीर लोगों की शामत आई होती, तो अ. बच्चन जैसे अमीर इसका समर्थन क्यों कर रहे होते? क्या मोदी अचानक वामपंथी हो गए हैं? समझदार जवाब को कोई इनाम नहीं।

दिनेशराय द्विवेदी‘s post.

दिनेशराय द्विवेदी

शादी के लिए 2,50,000/- रुपए की नकदी नहीं मिलेगी किसी को

वाह! मोदी सरकार!
वाह! रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया!

यदिआप को किसी को नकदी देनी ही नहीं है तो क्यूँ इस बात की वाह वाही लूटी जा रही है कि शादी वालों को ढाई लाख नकदी दे दी जाएगी?

सीधे सीधे कह क्यों नहीं देते कि कमाओ और बैंक में जमा करो। इस्तेमाल तो तभी करना जब सरकार और आरबीआई करने दे।

ढाई लाख में क्या आता है? एक दिन की शादी के लिए कोई ढंग का मैरिज हॉल भी बुक नहीं होता।

सरकार इतनी दिवालिया हो चुकी है कि वह भी देना नहीं चाहती।

बैंक जब 2000 रुपये का विड्रॉल नहीं दे सकते तो ढाई लाख कहाँ से देंगे?

शादी के लिए बैंक कह रहे हैं कि अभी नोटिफिकेशन नहीं आया।

रिजर्व बैंक ने आज वह नोटिफिकेशन निकाला है। आप खुद पढ़ लीजिए। इस की शर्तें पढ़ कर आप को पता लग जाएगा कि सरकार का इरादा किसी को भी शादी के लिए ढाई लाख तो क्या एक रुपया भी देने का नहीं है।

क्यों थोथी घोषणाएँ कर कर के जनता को उल्लू बना रहे हैं?

Notifications

Withdrawal of Legal Tender Character of existing ₹ 500/- and ₹ 1000/- Specified Bank Notes (SBNs) – Cash withdrawal for purpose of celebration of wedding

RBI/2016-2017/145 DCM (Plg) No.1320/10.27.00/2016-17 November 21, 2016

The Chairman / Managing Director/Chief Executive Officer, Public Sector Banks / Private Sector Banks/ Private Sector Banks/ Foreign Banks Regional Rural Banks / Urban Co-operative Banks / State Co-operative Banks

Dear Sir,
Withdrawal of Legal Tender Character of existing ₹ 500/- and ₹ 1000/- Specified Bank Notes (SBNs) – Cash withdrawal for purpose of celebration of wedding
Please refer to our Circular No. DCM (Plg) No.1226/10.27.00/2016-17 dated November 08, 2016 on the captioned subject.
2. With a view to enable members of the public to perform and celebrate weddings of their wards it has been decided to allow higher limits of cash withdrawals from their bank deposit accounts to meet wedding related expenses. Yet, banks should encourage families to incur wedding expenses through non-cash means viz. cheques /drafts, credit/debit cards, prepaid cards, mobile transfers, internet banking channels, NEFT/RTGS, etc. Therefore, members of the public should be advised, while granting cash withdrawals, to use cash to meet expenses which have to be met only through cash mode. Cash withdrawals shall be subject to the following conditions:
i. A maximum of ₹ 250000/- is allowed to be withdrawn from the bank deposit accounts till December 30, 2016 out of the balances at credit in the account as at close of business on November 08, 2016.
ii. Withdrawals are permitted only from accounts which are fully KYC compliant.
iii. The amounts can be withdrawn only if the date of marriage is on or before December 30, 2016.
iv. Withdrawals can be made by either of the parents or the person getting married. (Only one of them will be permitted to withdraw).
v. Since the amount proposed to be withdrawn is meant to be used for cash disbursements, it has to be established that the persons for whom the payment is proposed to be made do not have a bank account.
vi. The application for withdrawal shall be accompanied by following documents:
(a) An application as per Annex
(b) Evidence of the wedding, including the invitation card, copies of receipts for advance payments already made, such as Marriage hall booking, advance payments to caterers, etc.
(c) A detailed list of persons to whom the cash withdrawn is proposed to be paid, together with a declaration from such persons that they do not have a bank account. The list should indicate the purpose for which the proposed payments are being made
3. Banks shall keep a proper record of the evidence and produce them for verification by the authorities in case of need. The scheme will be reviewed based on authenticity/ bona fide use thereof.
Yours faithfully,
(P Vijaya Kumar)
Chief General Manager

Encl: As above
Annex – Application Form
Name of the person making withdrawal:
Amount to be withdrawn:
PAN Number (photocopy to be retained):
Address:
Name of Bride and Groom:
Identity proof of Bride and Groom:
(Any valid identity proof, copy to be retained)
Address of Bride:
Address of Groom:
Date of marriage:
Declaration
I ——————-(Name) certify that no other person in the Groom’s/Bride’s (strike whatever is not applicable) family is withdrawing cash for the same wedding from your bank or any other bank. I hereby declare that the information provided herein and the enclosures is true and correct and I am aware that any false information makes me liable for action by the authorities.
Signature of the Applicant:
Name:
Date:
Verified by
(Name, signature and seal of the bank official not below the rank of a branch manager.

बहुत प्रिय मित्र Farid फ़रीद Khan ख़ाँ की जरूरी टिप्पणी। वे मुम्बई रहते हैं।
” नए नोट तो अभी तक नहीं मिले. सब्ज़ी भी बड़े मॉल से ख़रीदने पर मजबूर हैं क्योंकि कार्ड से पेमेंट हो सकता है वहाँ. और घूसखोरी तो दो हज़ार के नोट से भी शुरू हो चुकी है. देखा नहीं गुजरात में चार लाख सिर्फ़ दो हज़ार के नोटों में मिले हैं घूस लेते और देते हुए. सरकार घूस खोरों तक नियमित तरीके से नए नोट पहुँचा रही है लेकिन हम तक नहीं पहुँचा रही है. हम उसके किसी काम के नहीं हैं, ऊपर से विरोध भी करते हैं. उधर आतंकवाद भी शुरू हो गया है. जैसे घूस खोरों के पास पैसा आया वैसे आतंकवादियों के पास. सब चल रहा है वैसे ही.”

2016 से ही हजार के नोटों के जरिए धन बाहर जा रहा था।

Were Rs 1000 Notes Moving Towards Safe Haven Assets in Early 2016?

Via Bhaswati Ghosh :
…The effects of demonetization could last for years, driving the country into recession and pushing Indians to keep their wealth in more stable currencies, such as the euro or U.S. dollar.

“When you don’t trust a currency and you don’t trust a government you start using foreign currencies,” said Hanke. “That’s what this is going to do, I think: People will not trust the rupee.”

The Effects of India’s Currency Reform? ‘Chaos’ Say Analysts

एक पेंटर ने किसी धन पशु के यहां ₹ 4000 का काम किया। उसे सेठ ने 1 लाख के पुराने नोट दिए और वापस करने की शर्त भी नहीं रखी।ऐसे किस्से क्यों सुनने में नहीं आ रहे?

मकान की रजिस्ट्री शुल्क में पुराने नोट लिए जा रहे हैं ! काले का सफ़ेद चालू आहे।’अपने’ महाराष्ट्र में।

आज मेरी परचून की दुकान वाले 500 के नोट ले रहे थे। मिठाई वाले ने कहा बिक्री 60% कम हो गयी है। मिठाई वाले कर्मचारी को कहा गया था कि 500 की मिठाई लेने पर 500 का नोट ले लेना।बिना खाता वाले बैंकों मेँ फार्म भर कर 4000 तक के नोट बदलवाने के लिए लम्बी लाइन लगा रहे हैं।उस फार्म की भराई 10 रु. है।
सरकार के किसी जिम्मेदार से किसी ने सुना कि नये छोटे नोट भी छापे गये हैं? RBI के आंकडे के हिसाब से 80 फीसदी बडे वाले नोट चलन में थे।कुल 16 लाख करोड की मुद्रा में चलन थी।यानि 20 फीसदी ही छोटे वाले थे। 2000 ,1000 के नये नोट की बात आई है। 100,50,20,10 के पर्याप्त नये नोट नहीं आये तो छोटे व्यवसाय और खरीद -फरोख्त में हाहाकार छाया रहेगा।
1978 में 1000,5000 और 10,000 के नोटों का चलन बन्द किया गया था। ऐसे 165 करोड रुपये के नोट चलन में थे,रद्द किए जाने के बाद 135 करोड के नोट जमा हुए। काले धन पर कोई बडा प्रभाव नहीं पडा था।उसके बाद भी काले धन की व्यवस्था फलती फूलती रही। उस कदम का आम आदमी पर असर नहीं पडा था।नोट लौटाने के लिए ऐसी कतारें न थीं। लोग 10 और अधिक से अधिक 100 के नोट ले कर चलते थे इसलिए व्यापार पर असर नहीं पडा था।
यह ध्यान रहे कि हमारी अर्थव्यवस्था में चेक और प्लास्टिक मनी अभी खास प्रचलित नहीं है।हांलाकि वित्त मंत्री ने आज उसका प्रचार किया।
भारत में काला धन का शास्त्रीय अध्ययन करने वले अर्थशास्त्री (Author of `The Black Economy in India’, Penguin (India)) का अनुमान है कि 70 लाख करोड काला धन है और इसमें नगद का हिस्सा चन्द लाख करोड से अधिक नहीं है।
आम आदमी के अलावा छोटा व्यवसायी नोटबन्दी से प्रभावित हुआ है।प्रधान मन्त्री जन धन योजना के बन्द पडे खाली खाते में भी कुछ काला धन आ जाए तो अच्छा ही होगा,बशर्ते उन गरीबों को उससे कुछ लाभ हो। छोटे व्यवसाइयों पर जनसंघ के जमाने से संघ की पकड़ थी,उसमें कमी निश्चित आएगी।
– अफलातून.

‘मोदी साहब का कचरा हम लोग साफ़ कर रहे हैं।’ मेरी बैंक शाखा के साथी कैशियर ने कहा।

रिजर्व बैंक फटे,सड़े-गले नोट हर साल नष्ट करती है,नये नोट छापती है।रिजर्व बैंक का कहना है 500 और 1000 के नोट कुल मुद्रा का 86% थे।यह बैंक में जमा हो रहे हैं,सरकार के एक आदेश से।कमा कर की गई बचत नहीं है,यह।इसे धीरे-धीरे ही निकाला जा सकेगा। प्रधान मन्त्री जन धन योजना में थोक में खाते खुल गये थे,अधिकांश में लगातार जमा करने के लिए पैसे नहीं थे। सर्वोच्च न्यायालय जब अम्बानी जैसे बडे बडे बकायेदारों की सूची जारी करने को कहती है तो सरकार लजाती है। बैंकों का धन इन बकायेदारों ने खाली किया अब उनके हमदर्द साधारण जनता बैंक में धन जमा करा रहे हैं।बढ़ी हुई कुल जमा राशि के आधार पर बकायेदारों की वसूली रुक जाएगी।काला धन खुले आम सोने में और विदेशी मुद्रा (डॉलर,पाउन्ड,यूरो) में बदला जा रहा है। सचमुच उन्नति और उत्पादन होता और लोग बचत करने की स्थिति में होते तब आदर्श स्थिति होती। इससे विपरीत सरकार के निर्णय से बाध्य हो कर बैंकों में जमा राशि बचत नहीं है,बकायेदार पूंजीपतियों को इमदाद है।
रेल के उदाहरण को लें।रेल में आरक्षण कराने की मियाद बढ़ा देने की वजह से हमे उसके सूद से वंचित करते हुए रेलवे के पास हमारा पैसा तीन महीने रहता हैऔर मंत्री प्रभु उसमें से निजी बीमा कम्पनियों को दे रहे हैं।

‘सोने को छिपाना,गुपचुप ले जाना या इसका लेन-दे न करना आसान है।करोड़ों रुपये के नोट कहीं रखना आसान नहीं है किन्तु करोड़ों रुपये का सोना आसानी से बैंक के एक छोटे से लॉकर में छिपाकर रखा जा सकता है। सोने की मांग और हवस को घटाना,हतोत्साहित करना और नियंत्रित करना देश के हित में होगा।’ – सुनील

‘ आज समझ में आया की हमारे प्रधान मंत्री महोदय ने सभी के अकॉउंट क्यों खुलवाये थे।
50 दिन का समय है आपके पास नोट बदलाव सकते हो। मतलब जिसके पास बोरी भरी हुई है वो 100 लोगो को पकड़ेगा उनके अकॉउंट में थोड़े-थोड़े रूपये डलवायेगा। फिर निकाल लेगा।
वैसे समय मार्च 2017 तक है। हजारो रास्ते है चोरों के पास निकलने के लिए। क्योकि ये रास्ते छोड़े गए है चोरों के लिए।’ कहना है,मित्र Uday Che का।

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प्रिय सुनील,
आने की इच्छा थी लेकिन संभव नहीं हुआ। कारण देना व्यर्थ है।अबकी बार आप लोगों से ही नहीं जन-आंदोलन समन्वय समिति के सदस्यों से भी भेंट हो जाती।लिखने की जरूरत नहीं है कि किशनजी से मिलना एक बड़े संतोष का विषय है।समाजवादी आंदोलन से जुड़े जो जाने पहिचाने चेहरे हैं उनमें से शायद किशन पटनायक ही ऐसे हस्ताक्षर हैं जो नई पीढ़ी को प्रेरणा देने की योग्यता रखते हैं। लोहिया का नाम लेने वाले केवल मठ बना सकते हैं,यद्यपि वे इसे भी भी नहीं बना पाये हैं लेकिन जो लोग लोहिया को वर्त्तमान सन्दर्भों में परिभाषित कर रहे हैं या लोहिया के सोच के तरीके से वर्त्तमान को समझ रहे हैं वे ही समाजवादी विचारधारा को ज़िंदा रख रहे हैं।जाने पहिचाने लोगों में मेरी दृष्टि में ऐसे एक ही व्यक्ति हैं और वह हैं ,- किशन पटनायक।
आप लोग उनके सानिध्य में काम कर रहे हैं यह बड़ी अच्छी बात है।अलग अलग ग्रुपों को जोड़ने की आपकी कोशिश सफल हो ऐसी मेरी शुभ कामना है।
  आप यदि मेरी बात को उपदेश के रूप में न लें जोकि या तो बिना सोचे स्वीकार की जाती है या नजरअंदाज कर दी जाती है, तो मैं यह कहना चाहूंगा कि वर्तमान राजनैतिक दलों की निरर्थकता के कारण छोटे छोटे दायरों में काम करने वाले समूहों का महत्व और भी बढ़ गया है।केंद्रीकृत व्यवस्था का विकल्प देने के काम को ये समूह ही करेंगे।दलों का केंद्रीकृत ढांचा केंद्रीकृत व्यवस्था को कैसे तोड़ सकता है? हांलाकि लोकशक्ति तो खड़ी करनी होगी।विकेंद्रीकृत ढांचों में किस तरह लोकशक्ति प्रगट हो सके यह आज की बड़ी समस्या है।
  मेरे मन में उन लोगों के प्रति अपार श्रद्धा है जो सम्पूर्ण आदर्श लेकर काम कर रहे हैं चाहे उनका दायरा छोटा ही रह जाए लेकिन शक्ति के फैलाने की जरूरत है।देश बहुत बड़ा है। लोगों के अलग अलग अनुभव होते हैं और इस कारण लिखित या मौखिक शब्द अपर्याप्त हैं।शक्ति बनाना है तो सम्पूर्ण विचारधारा पर जोर कम और सामान कार्यक्रमों में अधिक से अधिक समूहों के साथ मिलकर काम करना श्रेयस्कर है- ऐसा मेरा विचार है।
   शुभ कामनाओं के साथ
ओमप्रकाश रावल
सितम्बर 15,’92
प्रति,श्री सुनील, c/o श्री किशन बल्दुआ, अध्यक्ष समता संगठन,अजंता टेलर्स,सीमेंट रोड,पिपरिया,
जि होशंगाबाद

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बेतूल से सजप उम्मीदवार फागराम

बेतूल से सजप उम्मीदवार फागराम


क्योंकि

भ्रष्ट नेता और अफसरों कि आँख कि किरकिरी बना- कई बार जेल गया; कई झूठे केसो का सामना किया!
· आदिवासी होकर नई राजनीति की बात करता है; भाजप, कांग्रेस, यहाँ तक आम-आदमी और जैसी स्थापित पार्टी से नहीं जुड़ा है!
· आदिवासी, दलित, मुस्लिमों और गरीबों को स्थापित पार्टी के बड़े नेताओं का पिठ्ठू बने बिना राजनीति में आने का हक़ नहीं है!
· असली आम-आदमी है: मजदूर; सातवी पास; कच्चे मकान में रहता है; दो एकड़ जमीन पर पेट पलने वाला!
· १९९५ में समय समाजवादी जन परिषद के साथ आम-आदमी कि बदलाव की राजनीति का सपना देखा; जिसे, कल-तक जनसंगठनो के अधिकांश कार्यकर्ता अछूत मानते थे!
· बिना किसी बड़े नेता के पिठ्ठू बने: १९९४ में २२ साल में अपने गाँव का पंच बना; उसके बाद जनपद सदस्य (ब्लाक) फिर अगले पांच साल में जनपद उपाध्यक्ष, और वर्तमान में होशंगाबाद जिला पंचायत सदस्य और जिला योजना समीति सदस्य बना !
· चार-बार सामान्य सीट से विधानसभा-सभा चुनाव लड़ १० हजार तक मत पा चुका है!

जिन्हें लगता है- फागराम का साथ देना है: वो प्रचार में आ सकते है; उसके और पार्टी के बारे में लिख सकते है; चंदा भेज सकते है, सजप रजिस्टर्ड पार्टी है, इसलिए चंदे में आयकर पर झूठ मिलेगी. बैतूल, म. प्र. में २४ अप्रैल को चुनाव है. सम्पर्क: फागराम- 7869717160 राजेन्द्र गढ़वाल- 9424471101, सुनील 9425040452, अनुराग 9425041624 Visit us at https://samatavadi.wordpress.com

समाजवादी जन परिषद, श्रमिक आदिवासी जनसंगठन, किसान आदिवासी जनसंगठन

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                               समाजवादी जनपरिषद
समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय पदाधिकारियों की दो दिवसीय बैठक की समाप्ति पर देश की राजनैतिक परिस्थिति यह वक्तव्य जारी किया गया है । वाराणसी के पाण्डे हवेली में सम्पन्न इस बैठक में दल के राष्ट्रीय महासचिव सुनील , उपाध्यक्ष कमल बनर्जी तथा लिंगराज प्रधान , सचिव अफलातून एवं रणजीत रॉय ने भाग लिया ।
बयान
वाराणसी , दिसम्बर 23
देश में वैकल्पिक तीसरी ताकत जरूरी है पिछले दिनों संपन्न हुए पांच विधानसभा चुनावों के नतीजों से एक बात साफ हुई है । कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से जनता त्रस्त हो गई है और इसे हटाना चाहती है । मंहगाई और रोजी-रोटी का संकट इस चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा था , भ्रष्टाचार दूसरे नम्बर का मुद्दा था । दोनों का गहरा संबंध मौजूदा विकास-नीति और वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की जन-विरोधी नीतियों से हैं जिन पर मनमोहन सरकार आंख मूंदकर चल रही है । इस मायने में यह इन नीतियों के खिलाफ एक वोट था । चूंकि किसी राजनैतिक दल ने चुनाव में इन नीतियों को मुद्दा नहीं बनाया ,खुले रूप में यह बात सामने नहीं आ पाई है । दिल्ली में आम आदमी पार्टी के रूप में एक नई पार्टी का उदय और उसे अच्छी चुनावी सफलता एक महत्वपूर्ण घतना है । समाजवादी जन परिषद ‘आआपा’ को और दिल्ली की जनता को इसके लिए बधाई देती है । इसने जाहिर किया कि जन-विरोधी कामों,भ्रष्टाचार,अवसरवाद और सिद्धान्तहीनता का पर्याय बन चुकी मौजूदा पार्टियों से जनता मुक्ति चाहती है और बदलाव चाहती है । यह भी भी जाहिर हुआ कि ईमानदारी , पारदर्शिता व सिद्धान्त के साथ रअजनीति की जा सकती है । देश में माफिया , भ्रष्टाचार , दो नंबरी पैसे और राजनीति का जो नापाक गठजोड़ बन चुका है जिसमें राजनीति कमाई का एक जरिया और धंधा बन चुकी है , उससे अलग जनता के चंदे से भी चुनाव लड़ा जा सकता है, यह जाहिर हुआ । वैकल्पिक राजनीति की नई संभावनायें पैदा हुई हैं । आगामी चुनाव नरेन्द्र मोदी और भाजपा की आसान जीत में एक रुकावट और तीसरी ताकत की संभावना भी बढ़ी है । लेकिन समाजवादी जन परिषद यह भी मानती है कि वैकल्पिक नीतियों और विचार के साथ जुड़ने से ही सही मायने में राजनैतिक विकल्प बन सकेगा और व्यवस्था में बदलाव आ सकेगा । बिना विचार के कोई क्रांति नहीं हो सकती । समाजवादी जन परिषद मानती है कि भारत की मौजूदा व्यवस्था में बुनियादी बदलाव के लिए तीन मुद्दे बहुत महत्वपूर्ण है :

1.वैकल्पिक विकास मॉडल और वैकल्पिक अर्थनीति
2.सामाजिक बराबरी (जिसमें स्त्री-पुरुष बराबरी , जाति आधारित भेदभाव से संघर्ष एवं आदिवासियों और अन्य वंचित समोदायों के प्रति न्याय न्याय ,शामिल है है ); और
3.कट्टरता ,संकीर्णता और सांप्रदायिकता की ताकतों से संघर्ष ।

समाजवादी जनपरिषद आह्वान करती है कि इन मुद्दों पर देश में संघर्ष और राजनीति की धारा को आगे बढ़ाया जाए । आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व वाले मोर्चों के खिलाफ एक तीसरी वैकल्पिक राजनैतिक ताकत का उभरना जरूरी है। नरेन्द्र मोदी के रूप में सांप्रदायिक , तानाशाही और कार्पोरेट ताकतों के नए गठजोड़ का जो खतरा सामने है , उसका मुकाबला भी करना जरूरी है । इस संदर्भ में व्यापक एकता बनाने के लिए ‘आआपा’,सोशलिस्ट पार्टी व अन्य दलों , जनांदोलनों आदि संवाद की पहल समाजवादी जन परिषद करेगी।वाराणसी , 23 / 12/ 2013 प्रेषक, अफलातून

— Aflatoon अफ़लातून ,राष्ट्रीय सचिव ,समाजवादी जनपरिषद ,५ , रीडर आवास ,जोधपुर कॉलॉनी,काशी विश्वविद्यालय , वाराणसी – २२१००५National Secretary,Samajwadi Janparishad,5,Readers Flats,Jodhpur Colony,Banaras Hindu University,Varanasi,Uttar Pradesh,INDIA 221005Phone फोन : +918004085923

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