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Archive for the ‘water’ Category

” दुनिया के पैमाने पर हर आठवें आदमी को पीने का पानी नहीं मिलता । हर रोज महिलाओं द्वारा २० करोड़ घण्टे पानी इकट्ठा कर अपने घर लाने में लगाये जाते हैं । दुनिया की आबादी का ४० फीसदी ( २.६ अरब लोग ) पानी के अभाव में सफ़ाई-सुविधाओं से वंचित हैं । ’ डायरिया : अब भी बच्चे क्यों मर रहे हैं तथा हम क्या कर सकते हैं ’ नामक विश्व स्वास्थ्य संगठन और युनिसेफ की रपट ’ के अनुसार , ’ हर रोज विकासशील दे्शों के २४,००० बच्चे डायरिया जैसी दूषित पानी से हुई बीमारियों से मरते हैं । मौत की इन सामान्य वजहों से बचा जा सकता है। इस आंकड़े के माएने हुए कि हर साढ़े तीन सेकेण्ड में एक बच्चा मर जाता है। आपके ’एक-दो-तीन’ बोलते ही। कुछ करने का वक्त आ गया है।’

संयुक्त राष्ट्र  महासभा में ’स्वच्छ पानी हासिल करने का बुनियादी हक़ ’हासिल करने के लिए  प्रस्ताव रखने वाले बोलिविया के प्रतिनिधि पाब्लो सोलोन ने ऊपर्युक्त बाते कही हैं। दस साल पहले बोलिविया में कोचाबाम्बा शहर के लोगों ने अपनी पानी की व्यवस्था बहुराष्ट्रीय कम्पनी बेकटेल को सौंपे जाने के खिलाफ़ सफल अहिंसक आन्दोलन किया था। इस आन्दोलन के नेता एक जूता कम्पनी के मशीनिस्ट ऑस्कर ऑलिवेरा फोरोन्डा थे । ऑलिवेरा कहते हैं – ’पानी सबके लिए है – सभी जीवों , पौधों , पशुओं व मानव – जाति की प्राकृतिक धोरोहर !’ आंदोलन की सफलता के बाद उन्होंने जीत का अर्थिक पक्ष बताया था – बढ़े रेट खारिज किए जाने तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनी के निष्कासन के फलस्वरूप कोचाबाम्बा से तीस लाख डॉलर बाहर जाने से बच जाएंगे । हमारे देश की न्यूनतम आमदनी ६० डॉलर मासिक है तथा प्रत्येक परिवार पानी पर खर्च के मद में ३० से ८० डॉलर की बचत कर लेगा ।’

यह बहुप्रतीक्षित प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित न हो सका । यह जरूर है कि प्रस्ताव के विरोध में किसी देश ने वोट देने की हिम्मत नहीं की परन्तु ४१ देश मतदान से विरत रहे । विरत रहने वाले देशों में प्रमुख अमेरिका , इंग्लैण्ड,कैनेडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड आदि थे । यह गौरतलब है कि यह सभी देश अंग्रेजी भाषी हैं । जर्मनी, फ्रांस, इटली, रूस, चीन जैसे गैर अंग्रेजी-भाषी विकसित राष्ट्रों ने भी प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया। इंग्लैण्ड के एक राजनयिक ने इस अधिकार के विरुद्ध स्पष्ट तौर पर कहा था ,’ हम अफ़्रीका में संडास बनाने के लिए क्यों खर्च करें ? ’ इस बहस में अमेरिकी प्रतिनिधि ने प्रस्तावकर्ता बोलिविया के प्रतिनिधि को अपमानजनक शब्दों में धमकाने वाला भाषण दिया। अमेरिका द्वारा पिछले कुछ वर्षों से संयुक्त राष्ट्र में अधिकारों का विरोध करने की नीति जारी की गई है । इस मामले में बुश और ओबामा में अन्तर नहीं है । इस अधिकार के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जन जागृति फैलाने वाली प्रमुख नेता मॉड बार्लो का कहना है कि इस फैसले से कुदरत के प्रति हमारा रवैया तथा अन्य इंसानों के प्रति हमारा रवैया बदलेगा ।जिन देशों ने प्रस्ताव से विरत रहना उचित समझा वहां की जनता द्वारा इस ’कायरता’ की आलोचना हो रही है । इससे लगता है कि पूरी दुनिया की जनता के बीच तो पूर्ण सहमति है ।

साफ़ पानी के अधिकार के असाधारण महत्व को समझने के लिए हमे कुछ तथ्यों पर गौर करना होगा ।

स्कूल में हमें पढाया जाता है कि पृथ्वी का जल-चक्र एक बन्द प्रणाली है । अर्थात वर्षा और वाष्पीकरण द्वारा सतत रूप बदलता पानी पृथ्वी के वातावरण में जस का तस बना हुआ है। न सिर्फ़ पृथ्वी के निर्माण के समय हमारे ग्रह पर जितना पानी था वह बरकरार है अपितु यह पानी वह ही है। जब कभी आप बरसात में टहल रहे हों तब कुछ रुककर कल्पना कीजिए – बूंदें जो आप पर गिर रही हैं कभी डाइनोसॉर के खून के साथ बहती होंगी अथवा हजारों बरस पहले के बच्चों के आंसुओं में शामिल रही होंगी।

पानी की कुल मात्रा बरकरार रहेगी फिर भी यह मुमकिन है कि इन्सान उसे भविष्य में अपने और पृथ्वी के उपयोग के लायक न छोडे.पीने के पानी के संकट की कई वजह हैं। पानी की खपत हर बीसवें साल में प्रति व्यक्ति दुगुनी हो जा रही है तथा आबादी बढने की तेज रफ़्तार से भी यह दुगुनी है। अमीर औद्योगिक देशों की तकनीकी तथा आधुनिक स्वच्छता प्रणाली ने जरूरत से कहीं ज्यादा पानी के उपयोग को बढावा दिया है। व्यक्तिगत स्तर पर पानी के उपयोग की इस बढोतरी के बावजूद घर – गृहस्थी तथा नगरपालिकाओं में मात्र दस फ़ीसदी पानी की खपत होती है।

दुनिया के कुल ताजे पानी की आपूर्ति का २० से २५ प्रतिशत उद्योगों द्वारा इस्तेमाल होता है। उद्योगों की मांग भी लगातार बढ रही है। सर्वाधिक तेजी से बढ रहे कई उद्योग पानी की सघन खपत करते हैं। मसलन सिर्फ़ अमरीकी कम्प्यूटर उद्योग द्वारा सालाना ३९६ अरब लीटर पानी का उपयोग किया जाएगा।

सर्वाधिक पानी की खपत सिंचाई में होती है.मानव द्वारा प्रयुक्त कुल पानी का ६५ से ७० फ़ीसदी हिस्सा सिंचाई का है। औद्योगिक खेती (कम्पनियों द्वारा खेती) में निरन्तर अधिकाधिक पानी की खपत के तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं। कम्पनियों द्वारा सघन सिंचाई वाली खेती के लिए सरकारों तथा करदाताओं द्वारा भारी अनुदान भी दिया जाता है । अनुदान आदि मिलने के कारण ही कम सिंचाई के तौर-तरीके के प्रति इन कम्पनियों को कोई आकर्षण नही होता।

जनसंख्या वृद्धि तथा पानी की प्रति व्यक्ति खपत में वृद्धि के साथ – साथ भूतल जल-प्रणालियों के भीषण प्रदूषण के कारण शेष बचे स्वच्छ और ताजे पानी की आपूर्ति पर भारी दबाव बढ़ जाता है। दुनिया भर में जंगलोंका विनाश , कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों से प्रदूषण तथा ग्लोबल वार्मिंग के सम्मिलित प्रभाव से पृथ्वी की नाजुक जल प्रणाली पर हमला हो रहा है।

दुनिया में ताजे पानी की कमी हो गयी है। वर्ष २०२५ में विश्व की आबादी आज से से २.६ अरब अधिक हो जाएगी। इस आबादी के दो-तिहाई लोगों के समक्ष पानी का गंभीर संकट होगा तथा एक तिहाई के समक्ष पूर्ण अभाव की स्थिति होगी।

दिनोंदिन बढती मांग और संकुचित हो रही आपूर्ति के कारण बडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की रुचि इस क्षेत्र में जागृत हुई है जो  पानी से मुनाफ़ा कमाना चाहती हैं। विश्व-बैंक द्वारा पानी-उद्योग को एक खरब डॊलर के उद्योग के रूप में माना जा रहा है तथा बढावा दिया जा रहा है। विश्व बैंक द्वारा सरकारों पर दबाव है कि वे जल-आपूर्ति की सार्वजनिक व्यवस्था निजी हाथों में सौंप दें। पानी इक्कीसवीं सदी का ‘नीला सोना’ बन गया है।

उदारीकरण ,निजीकरण,विनिवेश आदि दुनिया के आर्थिक दर्शन पर हावी हैं। यह नीतियां ‘वाशिंगटन सहमति’ के नाम से जानी जाती हैं। पानी का निजीकरण इन नीतियों से मेल खाता है। यह दर्शन सरकारों को सामाजिक कार्यक्रमों की जिम्मेदारी तथा संसाधनों के प्रबन्धन से मुंह मोड लेने की सलाह देता है ताकि निजी क्षेत्र उनका स्थान ले लें। इस मामले में यह ‘सबके लिए पानी’ की प्राचीन सोच पर सीधा हमला है।

सर्वाधिक पानी की खपत सिंचाई में होती है। मानव द्वारा प्रयुक्त कुल पानी का ६५ से ७० फ़ीसदी हिस्सा सिंचाई का है। औद्योगिक खेती (कम्पनियों द्वारा खेती) में निरन्तर अधिकाधिक पानी की खपत के तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं। कंपनियों द्वारा सघन सिंचाई वाली खेती के लिए सरकारों तथा करदाताओं द्वारा भारी अनुदान भी दिया जाता है । अनुदान आदि मिलने के कारण ही कम सिंचाई के तौर-तरीके के प्रति इन कंपनियों को कोई आकर्षण नही नही होता।

जनसंख्या वृद्धि तथा पानी की प्रति व्यक्ति खपत में वृद्धि के साथ – साथ भूतल जल-प्रणालियों के भीषण प्रदूषण के कारण शेष बचे स्वच्छ और ताजे पानी की आपूर्ति पर भारी दबाव बढ जाता है। दुनिया भर में जंगलोंका विनाश , कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों से प्रदूषण तथा ग्लोबल वार्मिंग के सम्मिलित प्रभाव से पृथ्वी की नाजुक जल प्रणाली पर हमला हो रहा है।  पानी के जरिए मुनाफ़ा कमाने की कंपनियों की कोशिशों का गरीब मुल्कों में तीव्र विरोध हुआ है। इसलिए अब वे अमेरिका , इंग्लैण्ड ,ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में पैर पसार रही हैं ।

पानी की कुल मात्रा बरकरार रहेगी फिर भी यह मुमकिन है कि इन्सान उसे भविष्य में अपने और पृथ्वी के उपयोग के लायक न छोडे। पीने के पानी के संकट की कई वजह हैं।  अमीर औद्योगिक देशों की तकनीकी तथा आधुनिक स्वच्छता प्रणाली ने जरूरत से कहीं ज्यादा पानी के उपयोग को बढावा दिया है। व्यक्तिगत स्तर पर पानी के उपयोग की इस बढोतरी के बावजूद घर – गृहस्थी तथा नगरपालिकाओं में मात्र दस फ़ीसदी पानी की खपत होती है। दुनिया के कुल ताजे पानी की आपूर्ति का २० से २५ प्रतिशत उद्योगों द्वारा इस्तेमाल होता है।उद्योगों की मांग भी लगातार बढ रही है। सर्वाधिक तेजी से बढ रहे कई उद्योग पानी की सघन खपत करते हैं। मसलन सिर्फ़ अमरीकी कम्प्यूटर उद्योग द्वारा सालाना ३९६ अरब लीटर पानी का उपयोग किया जाएगा।

सर्वाधिक पानी की खपत सिंचाई में होती है। मानव द्वारा प्रयुक्त कुल पानी का ६५ से ७० फ़ीसदी हिस्सा सिंचाई का है। औद्योगिक खेती (कम्पनियों द्वारा खेती) में निरन्तर अधिकाधिक पानी की खपत के तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं। कम्पनियों द्वारा सघन सिंचाई वाली खेती के लिए सरकारों तथा करदाताओं द्वारा भारी अनुदान भी दिया जाता है । अनुदान आदि मिलने के कारण ही कम सिंचाई के तौर-तरीके के प्रति इन कम्पनियों को कोई आकर्षण नही नही होता।

जनसंख्या वृद्धि तथा पानी की प्रति व्यक्ति खपत में वृद्धि के साथ – साथ भूतल जल-प्रणालियों के भीषण प्रदूषण के कारण शेष बचे स्वच्छ और ताजे पानी की आपूर्ति पर भारी दबाव बढ जाता है। दुनिया भर में जंगलोंका विनाश, कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों से प्रदूषण तथा पृथ्वी के बढ़ते तापमान के सम्मिलित प्रभाव से पृथ्वी की नाजुक जल प्रणाली पर हमला हो रहा है।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा साफ़ पानी और सफ़ाई को बुनियादी अधिकार माने जाने से पानी से मुनाफ़ा कमाने और स्थानीय आबादी को पानी से वंचित किए जाने के विरुद्ध चल रहे जन आन्दोलन इस कदम से उत्साहित हैं। जीने के लिए पानी जरूरी है। सभी लोगों को समानरूप से पानी मिलना चाहिए उसकी कीमत चुकाने की औकात से नहीं – इस बुनियादी दर्शन की दिशा में लड़ने वालों को संयुक्त राष्ट्र के कदम से बल मिलेगा ।


Aflatoon   अफ़लातून ,
समाजवादी जनपरिषद ,

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कन्नूर में : साभार ’मातृभूमि’

गाँधी : क्या आप मुझे यह साबित कर सकते हैं कि आपको उन्हें सड़क का इस्तेमाल करने से रोकने का हक है ? मुझे यह बात पक्की तौर पर लगती है कि इन दलित वर्गों के लोगों को सड़क के इस्तेमाल का आप जितना ही हक है ।
नम्बूदरी प्रतिनिधि : महात्माजी , आप इन तबकों के लिए ’ दलित’ शब्द का प्रयोग क्यों करते हैं ? क्या आप जानते हैं कि वे क्यों दलित हैं ?
गाँधी : हाँ , बिल्कुल । जिस वजह से जलियाँवाला बाग में डायर ने बेकसूरों का नरसंहार किया था उसी वजह से वे दलित हैं ।
नम्बूदरी प्रतिनिधि :इसका मतलब इस रिवाज को शुरु करने वाले डायर थे ? क्या आप शंकराचार्य को एक डायर कहेंगे ?
गाँधी : मैं किसी आचार्य को डायर नहीं कह रहा । परन्तु आपके इस क्रियाकलाप को मैं डायरपने की संज्ञा अवश्य देता हूँ तथा सचमुच यदि कोई आचार्य इस रिवाज की शुरुआत के लिए जिम्मेदार हो तब उसकी इस सदोष अज्ञानता को जनरल डायर की राक्षसी अज्ञानता जैसा मानना होगा ।
गाँधीजी ने जाति-विभेद की तुलना किसी ब्रिटिश अफ़सर द्वारा किए गए क्रूरतम हत्या-काण्ड से की यह दलित-शोषण के प्रति उनकी संवेदना को दरशाता है । यह केरल के वाइकोम स्थित महादेव मन्दिर से सट कर गुजरने वाली सड़क से अवर्णों के गुजरने पर लगी रोक को हटाने की बाबत चले सत्याग्रह के दौरान मन्दिर संचालकों के साथ हुई बातचीत का हिस्सा है । यह गौरतलब है कि मन्दिर-प्रवेश का मसला इसके बाद उठा और सलटा । १९२४ से १९३६ तक चले इस सत्याग्रह अभियान के बाद त्रावणकोर राज्य के ४-५ हजार मन्दिर अवर्णों के लिए खुले ।  १२ साल चले इस आन्दोलन तथा इस दौरान कई बार हुई गांधीजी की केरल यात्राओं का विस्तृत विवरण महादेव देसाई की किताब द एपिक ऑफ़ ट्रैवन्कोर में है। श्रीमती सरोजिनी नायडू ने इसे महागाथा अथवा एपिक की उपमा दी ।
विदेशी आधिपत्य और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध संघर्ष साथ-साथ चला । सत्याग्रह के लिए आवश्यक अहिंसक शक्ति का निर्माण रचनात्मक कार्यों से होता है। प्रत्येक सत्याग्रही दिन में हजार गज सूत कातते थे ।
आन्दोलन का एक अहम उसूल था- ’जिसकी लड़ाई , उसका नेतृत्व’ । गांधीजी द्वारा ’यंग इंडिया’ का सम्पादन शुरु करने के पहले उसका सम्पादन ज्यॉर्ज जोसेफ़ करते थे । ज्यॉर्ज जोसेफ़ साहब मोतीलाल नेहरू के इलाहाबाद से निकलने वाले अखबार इंडीपेन्डेन्ट के भी सम्पादक थे । इनके बाद महादेव देसाई इंडीपेन्डेन्ट के सम्पादक बने तथा अंग्रेजों द्वारा छापे खाने पर रोक लगाने के बाद उन्होंने हस्तलिखित प्रतियाँ निकालनी शुरु की । दोनों को साल भर की सजा हुई । आगरा जेल में यह दोनों छ: महीने साथ थे।
बहरहाल, ज्यॉर्ज जोसेफ़ वाईकोम सत्याग्रह के शुरुआती नेताओं में एक थे । मन्दिर के निकट से गुजरने वाले मुद्दे पर श्री टी.के. माधवन एवं श्री के.पी. केशव मेनन के जेल जाने के बाद उन्होंने गांधीजी से उपवास करने की इजाजत मांगी । इसी प्रकार सिखों ने सत्याग्रह स्थल पर लंगर चलाने की इच्छा प्रकट की । गांधी यह मानते थे कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म की व्याधि है इसलिए इसके समाधान का नेतृत्व वे ही करेंगे- लिहाजा दोनों इजाजत नहीं मिलीं । ठीक इसी प्रकार प्लाचीमाड़ा में चले दानवाकार बहुदेशीय कम्पनी कोका-कोला विरोधी संघर्ष को दुनिया-भर से समर्थन मिला- फ़्रान्स के गांधी-प्रभावित वैश्वीकरण विरोधी किसान नेता जोशे बोव्हे , कैनेडा के ’ब्लू गोल्ड’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक के लेखक द्वय मॉड बार्लो तथा टोनी क्लार्क , नर्मदा बचाओ आन्दोलन की मेधा पाटकर एवं समाजवादी नेता वीरेन्द्रकुमार ने इस आन्दोलन को समर्थन दिया लेकि उसकी रहनुमा उस गाँव की आदिवासी महिला मायलम्मा ही रहीं । इसी कम्पनी ने जब बनारस के मेंहदीगंज आन्दोलन के दौरान कथित राष्ट्रीय समाचार-समूह को करोड़ों रुपये के विज्ञापन दिए तब मातृभूमि के वीरेन्द्रकुमार जैसे सम्पादक ने प्रथम-पेज सम्पादकीय लिख कर कोक-पेप्सी के विज्ञापन न लेने की घोषणा की तथा उसका पालन किया ।
प्लाचीमाड़ा के आन्दोलन को इस बात का गर्व भी होना चाहिए कि जब साहित्य के क्षेत्र में उपभोक्तावाद का प्रवेश बदनाम बहुराष्ट्रीय कम्पनी के पैसे से साहित्य अकादमी के पुरस्कार प्रायोजित कर हो रहा हो तब देश के वरिष्टतम साहित्यकारों में से एम.टी वासुदेवन नायर , एम.एन विजयन और सारा जोसेफ़ जैसे मलयाली साहित्यकारों ने कोका-कोला विरोधी समर समिति को खुला समर्थन दिया ।
यह तथ्य अत्यन्त रोचक व उल्लेखनीय है कि १२ साल चले केरल के सामाजिक सत्याग्रह के ठीक बीचोबीच बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर तथा गांधीजी की यरवडा जेल में ऐतिहासिक बात-चीत हुई । इतिहासकार बाबासाहब को दलितों में स्वाभिमान का जनक तथा गांधीजी को सवर्णों में आत्म-शुद्धि का प्रेरक मानते हैं । इनकी ऐतिहासिक बातचीत की शुरुआत में बाबासाहब दलित वर्गों के शैक्षणिक-आर्थिक उत्थान पर जोर दे रहे थे तथा गांधी इस समस्या के मूल में धार्मिक वजह मान रहे थे । बातचीत के बाद गांधी ने शैक्षणिक-आर्थिक उत्थान के लिए ’हरिजन सेवक संघ’ बनाया तथा बाबासाहब ’धर्म-चिकित्सा’ एवं धर्मान्तरण तक गये । केरल के सत्याग्रह में हम आत्म-शुद्धि और आत्मसम्मान दोनों का संयोग देख सकते हैं ।
कन्नूर भी मेरे शहर बनारस की तरह हथकरघे के लिए मशहूर है । खेती के बाद हथकरघा ही सबसे बड़ा रोजगार मुहैया कराता था । अगूँठा-काट वस्त्र नीति ने यह परिदृश्य पूरी तरह बदल दिया है । इस नीति का तिहरा प्रभाव पड़ा है : गरीब तबके पोलियस्टर पहनने के लिए मजबूर हो गये हैम चूँकि यह सरकारी नीति और सब्सिडी के कारण अब सते हो गये हैं  , सरकार की इस नीति के कारण एक अज्ञात परिवार देश का सबसे बड़ा औद्योगिक घराना बन गया है तथा हथकरघा बुनकर अस्तित्व रक्षा के लिए सम्घर्ष कर रहे हैं ।
’मातृभूमि’ पत्र की साल भर चलने वाली यह मुहिम बुनकरों की रक्षा के लिए उपायों पर भी विचार करेगी , यह मैं आशा करता हूँ ।
स्वतंत्रता-संग्राम सेनानियों को मेरे हाथों सम्मानित कराने से एक नैतिक बोझ मेरे सिर पर आ पड़ा है। आजादी की लड़ाई के मूल्य : रचना-संघर्ष साथ-साथ ,जिसकी लड़ाई उसका नेतृत्व जैसे मूल्यों के साथ लड़ाई जारी रखने के लिए उनका आशीर्वाद मेरे जैसों को मिले यह प्रार्थना है ।
अफ़लातून , सदस्य राष्ट्रीय कार्यकारिणी , समाजवादी जनपरिषद .
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    भारत के मध्यम वर्ग को आकर्षित करने वाला ,  फाँय – फाँय अंग्रेजी बोलने वाला और अँग्रेजी में सोचने वाला शशि थरूर । पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र के महासचिव पद की होड़ में भी शरीक होने पर एक भारतीय मूल का व्यक्ति होने के नाते ज्यादातर भारतीयों की सहानुभूति बटोरने वाला !

    संयुक्त राष्ट्र , विश्व बैंक जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में ३ से ५ साल नौकरी कर लेने के बाद आजीवन डॉलर में पेंशन पाने वाली छोती-सी जमात का सदस्य । आज कल यह पेंशन लाखों रुपये प्रति माह में होती है । पिछले साल राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति के वेतन बढ़ाने के बाद भी इस पेंशन से कम है।

    ऐसे थोबड़ों को ही कोका कोला जैसी कम्पनियाँ कोका कोला इण्डिया फाउन्डेशन की सलाहकार समिति में रखती हैं और केरल के ही प्लाचीमाड़ा में चले कोका कोला कम्पनी द्वारा अकूत जल दोहन और प्रदूषण के खिलाफ़ आदिवासियों के आन्दोलन के खिलाफ़ बयान दिलवाने का काम करती है । जावेद अख़्तर और मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे एस वर्मा भी उक्त सलाहकार समिति की शोभा बढ़ाने वाले शक्स हैं ।

    पेप्सी कोला और कोका कोला की करतूतों के बारे में इस चिट्ठे पर चर्चा होती रही है । चाहे इन कम्पनियों द्वारा अकूत जल दोहन हो , बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ हो , मजदूरों के साथ रंगभेद हो , मजदूर नेताओं की हत्या हो , किसानों के साथ धोखाधड़ी हो अथवा उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देना हो । पाठक इनके बारे में यहाँ पढ़ सकते हैं ।

   फिलहाल कांग्रेस के टिकट पर केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम शशि थरूर चुनाव लड़ रहे हैं । अमेरिकी चुनाव में दोनों प्रमुख दलों को विशाल चन्दा देने वाली यह दोनों शीतल पेय कम्पनियाँ भारत में अपने प्रवक्ताओं को सीधे चुनाव लड़ा रही हैं । जन आन्दोलनों ने शशि थरूर को हराने के लिए अभियान चलाने का फैसला किया है । यह गौर तलब है कि संयुक्त संसदीय समिति द्वारा इन पेयों में कीटनाशक अवशेष पाये जाने की पुष्टि के बावजूद अब तक इस बाबत सरकार ने मानदण्ड तैयार नहीं किए हैं । कांग्रेस और भाजपा के प्रमुख वकील सांसद (कपिल सिब्बल और अरुण जेटली सरीखे)  इनके हक में न्यायालय में इनकी पैरवी करते हैं।

      शशि थरूर हराओ अभियान के प्रति आपके सहयोग और समर्थन की अपील कर रहा हूँ ।

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[लेखक परिचय : मॉड बार्लो – कैनेडा के सबसे बडे जनसंगठन ‘काउन्सिल ऑफ़ कैनेडियन्स’ की अध्यक्षा.वैनकूवर ,टोरेन्टो तथा हेलिफैक्स शहरों में पानी के निजीकरण के विरुद्ध यह संगठन सक्रिय है.पानी के निगमीकरण पर टोनी क्लार्क के साथ लिखी गयी चर्चित पुस्तक ‘ब्लू गोल्ड’ की लेखिका.

टोनी क्लार्क – लोकतांत्रिक समाज परिवर्तन के संघर्ष हेतु जन आन्दोलनों को प्रशिक्षित करने वाली संस्था पोलारिस इन्स्टीट्यूट के निदेशक.वैश्वीकरण विरोधी आन्दोलन के नेता. ]

  स्कूल में हमें पढाया जाता है कि पृथ्वी का जल-चक्र एक बन्द प्रणाली है . अर्थात वर्षा और वाष्पीकरण द्वारा सतत रूप बदलता पानी पृथ्वी के वातावरण में जस का तस बना हुआ है. न सिर्फ़ पृथ्वी के निर्माण के समय हमारे ग्रह पर जितना पानी था वह बरकरार है अपितु यह यह पानी वह ही है. जब कभी आप बरसात में टहल रहे हों तब कुछ रुककर कल्पना कीजिए – बूंदें जो आप पर गिर रही हैं कभी डिनासार के खून के साथ बहती होंगी अथवा हजारों बरस पहले के बच्चों के आंसुओं में शामिल रही होंगी.

  पानी की कुल मात्रा बरकरार रहेगी फिर भी यह मुमकिन है कि इन्सान उसे भविष्य में अपने और पृथ्वी के उपयोग के लायक न छोडे.पीने के पानी के संकट की कई वजह हैं.पानी की खपत हर बीसवें साल में प्रति व्यक्ति दुगुनी हो जा रही है तथा आबादी बढने की तेज रफ़्तार से यह दुगुनी है. अमीर औद्योगिक देशों की तकनीकी तथा आधुनिक स्वच्छता प्रणाली ने जरूरत से कहीं ज्यादा पानी के उपयोग को बढावा दिया है.व्यक्तिगत स्तर पर पानी के उपयोग की इस बढोतरी के बावजूद घर – गृहस्थी तथा नगरपालिकाओं में मात्र दस फ़ीसदी पानी की खपत होती है.

  दुनिया के कुल ताजे पानी की आपूर्ति का २० से २५ प्रतिशत उद्योगों द्वारा इस्तेमाल होता है.उद्योगों की मांग भी लगातार बढ रही है.सर्वाधिक तेजी से बढ रहे कई उद्योग पानी की सघन खपत करते हैं.मसलन सिर्फ़ अमरीकी कम्प्यूटर उद्योग द्वारा सालाना ३९६ अरब लीटर पानी का उपयोग किया जाएगा.

  सर्वाधिक पानी की खपत सिंचाई में होती है.मानव द्वारा प्रयुक्त कुल पानी का ६५ से ७० फ़ीसदी हिस्सा सिंचाई का है.औद्योगिक खेती (कम्पनियों द्वारा खेती) में निरन्तर अधिकाधिक पानी की खपत के तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं.कम्पनियों द्वारा सघन सिंचाई वाली खेती के लिए सरकारों तथा करदाताओं द्वारा भारी अनुदान भी दिया जाता है . अनुदान आदि मिलने के कारण ही कम सिंचाई के तौर-तरीके के प्रति इन कम्पनियों को कोई आकर्षण नही नही होता.

  जनसंख्या वृद्धि तथा पानी की प्रति व्यक्ति खपत में वृद्धि के साथ – साथ भूतल जल-प्रणालियों के भीषण प्रदूषण के कारण शेष बचे स्वच्छ और ताजे पानी की आपूर्ति पर भारी दबाव बढ जाता है.दुनिया भर में जंगलोंका विनाश , कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों से प्रदूषण तथा ग्लोबल वार्मिंग के सम्मिलित प्रभाव से पृथ्वी की नाजुक जल प्रणाली पर हमला हो रहा है.

  दुनिया में ताजे पानी की कमी हो गयी है.वर्ष २०२५ में विश्व की आबादी आज से से २.६ अरब अधिक हो जाएगी.इस आबादी के दो-तिहाई लोगों के समक्ष पानी का गंभीर संकट होगा तथा एक तिहाई के समक्ष पूर्ण अभाव की स्थिति होगी.तब पानी की उपलब्धता से ५६ फ़ीसदी ज्यादा की मांग होगी.

  दिनोंदिन बढती मांग और संकुचित हो रही आपूर्ति के कारण बडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की रुचि इस क्षेत्र में जागृत हुई है जो  पानी से मुनाफ़ा कमाना चाहती हैं.विश्व-बैंक द्वारा पानी-उद्योग को एक खरब डॊलर के उद्योग के रूप में माना जा रहा है तथा बढावा दिया जा रहा है.विश्व बैंक द्वारा सरकारों पर दबाव है कि वे जल-आपूर्ति की सार्वजनिक व्यवस्था निजी हाथों में सौंप दें.पानी इक्कीसवीं सदी का ‘नीला सोना’ बन गया है.

  उदारीकरण ,निजीकरण,विनिवेश आदि दुनिया के आर्थिक दर्शन पर हावी हैं.यह नीतियां ‘वाशिंगटन सहमति’ के नाम से जानी जाती हैं. पानी का निजीकरण इन नीतियों से मेल खाता है.यह दर्शन सरकारों को सामाजिक कार्यक्रमों की जिम्मेदारी तथा संसाधनों के प्रबन्धन से मुंह मोड लेने की सलाह देता है ताकि निजी क्षेत्र उनका स्थान ले लें.इस मामले में यह ‘सबके लिए पानी’ की प्राचीन सोच पर सीधा हमला है.

  पानी के व्यवसाय से जुडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथ में सबसे जरूरी औजार विश्व व्यापार समझौते मुहैय्या कराते हैं.विश्व व्यापार संगठन और नाफ्टा (उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापार सन्धि) जैसे बहुराष्ट्रीय प्रबन्ध निकाय पानी को व्यापार की वस्तु के रूप में परिभाषित करते हैं.नतीजन जो नियम पेट्रोल और प्राकृतिक गैस के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को संचालित करते हैं वे पानी पर भी लागू हो गये हैं.इन अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के तहत कोई भी देश पानी के निर्यात पर यदि प्रतिबन्ध लगाता है अथवा उसे सीमित करता है तो वह देश विश्वव्यापार संगठन की नाराजगी और निन्दा का भागी होगा . पानी के आयात से इन्कार किया जाना भी प्रतिबन्धित होगा.नाफ्टा सन्धि की एक धारा के तहत यदि कोई देश अपने प्राकृतिक संसाधनों का निर्यात शुरु करता है तो वह उस पर तब तक रोक नहीं लगा सकता जब तक वह संसाधन समाप्त न हो जाए.

   

विश्वव्यापार संगठन के सेवाओं के व्यापार से सम्बन्धित नियम भी जल आपूर्ति के निजीकरण को बढावा देंगे.इन नियमों के तहत सभी देशों पर न सिर्फ़ सार्वजनिक जल-प्रणालियों से सरकारी नियंत्रण हटाने और निजीकरण करने का दबाव होगा अपितु किसी शहर की जल वितरण प्रणाली यदि किसी विदेशी कम्पनी के हाथों चली जाती है तो उसे वापस जनता के नियंत्रण में लेना विश्वव्यापार संगठन द्वारा भारी जुर्माना न्योतना होगा.  पानी के निजीकरण की मुहिम की रहनुमाई यूरोप शित तीन विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कर रही हैं – विवेन्डी (फ़्रान्स ) , सुवेज (फ़्रान्स) , आर.डब्ल्यू.ई (जर्मनी).वर्ष २००१ में पानी से प्राप्त इनकी आमदनी क्रमश: ११.९० अरब , ८.८४ अरब तथा २.८ अरब डॊलर थी.इन तीनों कम्पनियों ने दुनिया भर के पानी व्यापार पर हावी होने के लिए छोटी – छोटी प्रतिद्वन्द्वी कम्पनियों को खरीद लिया है.शुरु में तीसरी दुनिया के पानी के संकट का तारनहार बनने की आस में तथा प्रयास में इन कम्पनियोंने सार्वजनिक जल वितरण व्यवस्था पर कब्जा जमाने की दूरगामी रणनीति बनाई.परन्तु तीसरी दुनिया के देशों में इनकी कोशिशों को मुंह के बल गिरना पडा और उनके इस अभियान की गाडी पटरी से उतर गयी.  ब्वेनॊस एरिस (अर्जेन्टीना की राजधानी) का प्रकरण विशेष रूप से सबक देने वाला था.तीसरी दुनिया में पानी के निजीकरण की यह महत्वपूर्ण योजना थी.सुवेज ने अपनी आनुषंगिक कम्पनी अगुआस अर्जेन्टीनास के द्वारा इस शहर की जल-आपूर्ति तथा सीवर व्यवस्था को अधिगृहीत किया.पुरानी पड चुकी वितरण व्यवस्था के नवीनीकरण हेतु सार्वजनिक क्षेत्र में धन का अभाव रहता है तथा निजी कम्पनियांकमी को पूरा कर सकती हैं-निजीकरण के पक्ष में यह तर्क आम तौर पर दिया जाता है.इस मामले में सुवेज कम्पनी के निजीकरण के प्रयोग हेतु आवश्यक एक अरब डोलर की ९७ फ़ीसदी पूंजी के हिस्से की पूर्ति विश्व बैक,अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष व अन्य छोटे बैंकों ने की.जल-आपूर्ति व सीवर व्यवस्था में मामूली बढोतरी के बावजूद  सुवेज कम्पनी दोनों कार्यों में निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नही कर सकी.यह गौरतलब है कि ९० के दशक के बीच के वर्षों में कम्पनी ने सालाना २५ फ़ीसदी मुनाफ़ा भी कमा लिया.हाल ही में सुवेज ने अर्जेन्टीना छोडने की घोषणा कर दी है.कम्पनी ने कहा है कि उस देश के मुद्रा संकट के कारण उसे कम मुनाफ़ा मिल रहा है.निजीकरण की योजनाएं जोहानस्बर्ग और मनीला में भी लडखडाई हैं.गंगा नदी से निकली गंग नहर से नई दिल्ली के सोनिया विहार में जल-आपूर्ति की योजना भी इसी सुवेज के हवाले है.सर्वाधिक प्रसिद्ध मामला दक्षिण अमेरिकी देश बोलिविया के एक बडे शहर कोचाबाम्बा का है.१९९९ में बेकटेल कम्पनी द्वारा इस शहर की जल -आपूर्ति की बागडोर संभालने के बाद पानी का रेट इतना बढ गया कि कई लोगों को अपनी आमदनी का बीस फ़ीसदी पानी के लिए खर्च करना पडा.नागरिकोख द्वारा इस फ़ैसले का तीव्र प्रतिकार हुआ.पुलिस दमन में छ; लोगों की मृत्यु हुई.अन्तत: सरकार ने बेकटेल कम्पनी से हुए करार को खारिज कर दिया और कहा कि यदि वह उस देश में टिकी रही तो उसकी सुरक्षा की गारण्टी लेने में सरकार असमर्थ होगी.

   

तीसरी दुनिया के देशों में पानी के निजीकरण की कोशिशों को जनता के तीव्र प्रतिरोध का सामना करना पड रहा है.इन तीन बडी कम्पनियों ने आपस में तालमेल बनाया है तथा निजीकरण की पक्षधर नीति के निर्धारण हेतु विश्व बैंक और अमीर देशों की आर्थिक  मदद से इन कम्पनियों ने कई गठबंधन बना रखे हैं.हर तीन साल पर आयोजित होने वाले विश्व जल मंच (वर्ल्ड वॊटर फोरम) के आयोजन में इन संगठनों की मुख्य भूमिका होती है . व्यापार जगत और सरकारों के नीति निर्धारकों के इस जमावडे में भी आन्दोलनकारियों ने विरोध की आवाजें बुलन्द की हैं.पिछले साल मार्च महीने में जापान के क्योटो शहर में दुनिया भर के जन-आन्दोलनों के प्रतिनिधियों ने माइक कब्जे में ले कर निजीकरण के दुष्परिणामों की दास्तान सुनाई.मेक्सिको के कान्कुन शहर का एक आन्दोलनकारी अपने हाथ में काला और बदबूदार पानी से भरा गिलास ले कर मंच पर चढ गया.उसने बताया कि यह पानी वह अपने घर की टोटी से भर कर लाया है और उस नगर निगम का की जल – आपूर्ति सुवेज कम्पनी द्वारा होती है.उसने आयोजकों से निवेदन किया कि सुवेज के मुख्य कार्यपालक अधिकारी को मंच पर निमंत्रित कर वह गन्दा व बदबूदार पानी पीने को कहा जाए.  पानी व्यवसाय की यह बडी कम्पनियां अब रणनीति बदल रही हैं तथा उत्तरी अमेरिका व यूरोप के ज्यादा सुरक्षित बाजार में निवेश कर रही हैं.संयुक्त राज्य अमेरिका की जल आपूर्ति की सेवा का पचासी प्रतिशत अभी भी सार्वजनिक क्षेत्र में है. इन तीन बडी कम्पनियों ने आगामी दस सालों में अमरीका की सत्तर फ़ीसदी जल-आपूर्ति-सेवा पर कब्जा करने का लक्ष्य रखा है.अमरीका के छोटे कस्बों और समुदायों के बीच जल आपूर्ति करने वाली कई कम्पनियों को इन तीन बडी कम्पनियों ने खरीद लिया है.  छोटी-छोटी कम्पनियों के विलय से बनी विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनी जब नगर निगमों की जल -आपूर्ति अपने हाथों में लेती है तब ऐसा लगता है कि यह सिर्फ़ स्थानीय समस्या है.परन्तु इन्हीं कार्पोरेट खिलाडियों द्वारा दुनिया भर में लोगों के साथ करतूतें की जा रही है उसके मद्दे नजर जनता को भी आपस में सम्पर्क बढाना चाहिए तथा समन्वय बनाना चाहिए ताकि हम एक-दूसरे के अनुभवों से सीख ले सकें तथा सीधे हमले की शुरुआत कर सकें.

  हमारी स्थानीय कार्रवाइयां तीन जागतिक उसूलों से संचालित होनी चाहिए.पहला उसूल है कि जल संरक्षण की आवश्यकता व पानी की कमी को हल्के में नहीं लिया जा सकता . पानी कहीं प्रचुर है तो कहीं इसका घोर अभाव है इसलिए जल संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी.पानी एक मौलिक मानवाधिकार है ,यह दूसरा उसूल है.जीने के लिए पानी जरूरी है.सभी लोगों को समानरूप से पानी मिलना चाहिए उसकी कीमत चुकाने की औकात से नहीं . तीसरा सिद्धान्त जल- लोकतंत्र का है.अपने सबसे मूल्यवान संसाधन की जिम्मेदारी हम सरकार में बैठे नौकरशाहों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले कत्तई नहीं सौंप सकते हैं . इन लोगों की नीयत भले ही अच्छी हो अथवा बुरी. हमें इस बुनियादी उसूल को बचाना होगा,उसके लिए संघर्ष करना होगा तथा अपनी उचित भूमिका निभाते हुए जल-लोकतंत्र की मांग करनी होगी. (स्रोत : कोक-पेप्सी की लूट और पानी की जंग : सम्पादक- अफ़लातून )

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इन दोनों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा गरीब देशों की इकाइयों में मजदूरों के साथ अत्यन्त अमानवीय कृत्य किए जाते हैं . दक्षिण अमेरिकी देश कोलोम्बिया में कोका – कोला कम्पनी द्वारा अपने मजदूरों पर दमन और अत्याचार सर्वाधिक चर्चित है . कोलोम्बिया की राष्ट्रीय खाद्य – पेय कामगार यूनियन – सिनालट्राइनाल ( SINALTRAINAL ) के अनुसार कोका – कोला की दक्षिणपन्थी सशस्त्र अर्धसैनिक गुंडा वाहिनी से सांठ – गांठ है तथा मजदूर नेताओं की हत्याओं का लम्बा सिलसिला , अपहरण , यूनियन गतिविधियों को कुचलने के लिए षडयंत्र ही कम्पनी की मुख्य रणनीति है . इन गिरोहों में कुछ पेशेवर सैनिक होते हैं और कुछ स्थानीय गुंडे . कोलोम्बिया में अमीर जमींदारों और नशीले पदार्थों के अवैध व्यवसाइयों ने ८० के दशक में वामपंथी विद्रोहियों का मुकाबला करने के लिए इनका गठन किया था . कोलोम्बिया के कई कोका – कोला संयंत्रों में इन्होंने अपने अड्डे या चौकियां बना ली हैं . इन संयंत्रों को वैश्वीकरण का प्रतीक मान कर वामपंथी विद्रोही इन पर हमला कर सकते हैं – यह बहाना देते हुए उनकी  ‘रक्षा ’ हेतु वे अपनी मौजूदगी को उचित बताते हैं . १९८९ से अब तक कोलोम्बिया के कोका – कोला संयंत्रों में कार्यरत आठ मजदूर नेताओं की हत्या इन गिरोहों द्वारा की जा चुकी है .

   वैसे,कोलोम्बिया में यूनियन नेताओं पर हिंसा एक व्यापक और आम घटना है . यह कहा जा सकता है कि कोलोम्बिया में श्रमिक संगठन बनाना दुनिया के अधिकतर मुल्कों से कहीं ज्यादा दुरूह काम है . एक अनुमान के अनुसार , १९८६ से अब तक वहां ३,८०० ट्रेड यूनियन नेताओं की हत्या हो चुकी है . श्रमिकों के अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के अनुमान के अनुसार , दुनिया भर में होने वाली हर पांच ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं की हत्याओं में से तीन कोलोम्बिया में होती हैं .

  कोलोम्बिया के कोरेपो स्थित कोका – कोला संयंत्र के यूनियन की कार्यकारिणी के सदस्य इसिडरो गिल की हत्या का मामला अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ है . घटनाक्रम इस प्रकार है . ५ दिसम्बर १९९६ , की सुबह एक अर्धसैनिक गिरोह से जुडे दो लोग मोटरसाइकिल से कोरेपो संयंत्र के भीतर पहुंचे . इन लोगों ने यूनियन नेता इसिडरो गिल पर दस गोलियां चलाईं जिससे उनकी मौत हो गयी . इसिडरो के सहकर्मी लुई कार्डोना ने बताया कि मैं काम पर था जब मैंने गोलियों की आवाज सुनी और इसिडरो के गिरते हुए देखा . मैं उसके पास दौड कर पहुंचा लेकिन तब तक उसकी मृत्यु हो चुकी थी . उसी रात यूनियन के दफ़्तर पर हमला हुआ . सभी दस्तावेज लूट लिए गये तथा दफ़्तर को जला दिया गया . कुछ घण्टों तक इस अर्धसैनिक गिरोह के अधिकारियों ने कार्डोना को रोक कर रखा . यहां से भाग निकलने में वह सफल रहा और स्थानीय पुलिस थाने में उसे शरण मिली . एक सप्ताह बाद इस अर्धसैनिक गिरोह के लोग फिर इस संयंत्र पर पहुंचे . इसिदरो गिल से जुडे सभी ६० मजदूरों को एक लाइन में खडा कर दिया गया और पहले से तैयार इस्तीफ़ों पर दस्तख़त करने का आदेश दिया गया . सभी ने दस्तख़त कर दिए . दो महीने बाद सभी कर्मचारियों ( जो सभी यूनियन से नहीं जुडे रहे ) को बर्खास्त कर दिया गया . २७ वर्षीय इसिडरो गिल इस संयंत्र में आठ वर्षों से कार्यरत था . उसकी विधवा एलसिरा गिल ने अपने पति की हत्या का विरोध किया तथा कोका – कोला से मुआवजे की मांग की . सन २०० में एलसिरा की भी इसी गिरोह ने हत्या कर दी . मृत दम्पति की दो अनाथ बेटियां रिश्तेदारों के पास छुप कर रहती हैं . कुछ समय बाद कोलोम्बिया की एक अदालत ने इसिडरो की हत्या के आरोपी लोगों को बरी कर दिया  इसिडरो

   जुलाई २००१ में अमेरिका की एक संघीय जिला अदालत में ‘विदेशी व्यक्ति क्षतिपूर्ति कानून ‘ के तहत मुकदमा कायम कर दिया गया . इसिडरो के परिजन व सिनालट्राइनाल के प्रताडित पांच यूनियन नेताओं की तरफ़ से वाशिंग्टन स्थित  ‘अन्तर्राष्ट्रीय श्रम – अधिकार संगठन ‘ तथा अमेरिकी इस्पात कर्मचारी संयुक्त यूनियन ने यह मुकदमा किया है . मुद्दई पक्षों ने आरोप लगाया कि कोका – कोला बोतलबन्द करने वाली कम्पनी ने अर्धसैनिक सुरक्षा बलों से सांठ- गांठ की है. इसके तहत चरम हिन्सा , हत्या , यातना तथा गैर कानूनी तरीके से निरुद्ध रखकर यूनियन नेताओं को ख़ामोश कर दिया जाता है . इसके अलावा यह मांग की गयी है कि कोका – कोला अपनी आनुषंगिक बोतलबन्द करने वाली कम्पनी की इन कारगुजारियों की जिम्मेदारी ले तथा इन अपराधों का हर्जाना भरे . इस मुकदमे में कोका -कोला के अलावा उसकी दो बोतलबन्द करने वाली आनुषंगिक कम्पनियों बेबीदास तथा पैनामको को प्रतिवादी बनाया गया है .

  इस मामले में ३१ मार्च , २००३ को अदालत ने फैसला दिया कि बोतलबन्द करने वाली दोनों कम्पनियों के खिलाफ़ अमेरिकी अदालत में मामला चलने योग्य है तथा ‘ यातना पीडित संरक्षण कानून ‘ के तहत भी मुद्दईगण दावा कर सकते हैं . इस निर्णय में कोका – कोला कम्पनी तथा कोका – कोला – कोलोम्बिया को इस आधार पर अलग रखा गया कि बोतलबन्द करने की बाबत हुए समझौते के अन्तर्गत श्रम-सम्बन्ध नहीं आते हैं . बहरहाल , मुकदमा करने वाली यूनियन व मजदूर नेता फैसले के इस हिस्से से सहमत नही हैं चूंकि कोका – कोला ने २००३ में बोतलबन्द करने वाली पैनामको का अधिग्रहण कर लिया था . मजदूर नेताओं का मानना है कि कोका – कोला के एक इशारे से यह आतंकी अभियान रुक सकता है .फिलहाल २१ अप्रैल २००४ को कोका -कोला को मुकदमे में पक्ष माने जाने की प्रार्थना के साथ संशोधित मुकदमा कायम कर दिया गया है .

  यह गौरतलब है कि बड़ी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के परिसंघ द्वारा यह मांग उठाई जाती रही है कि निगमों को इसके कानून के दाएरे से अलग करने के लिए कानून में संशोधन किया जाना चाहिए . बहरहाल, अमेरिकी उच्चतम न्यायालय यह मांग अमान्य कर चुका है . यातना पीडित संरक्षण अधिनियम  के अन्तर्गत निगमों को ‘व्यक्ति’ न मानने का तर्क भी अदालत ने अस्वीकृत कर दिया है . यह गौरतलब है की इसी अमेरिकी कानून के अन्तर्गत भोपाल गैस पीडित महिला उद्योग संगठन की साथियों ने हत्यारी बहुराष्ट्रीय कम्पनी यूनियन कार्बाइड एवं उसके तत्कालीन अध्यक्ष एन्डर्सन के खिलाफ़ मुकदमा ठोका है .

[अगली प्रविष्टि : कोला कम्पनियों द्वारा दोषसिद्ध रंगभेद ]

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paani.jpg साभार : –  

 http://www.bbcchindi.com

संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी ने चेतावनी दी है कि अगले बीस वर्षों में दुनिया की दो तिहाई आबादी को पानी की किल्लत का सामना करना पड़ेगा.

संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन का कहना है कि दुनिया की आबादी जिस गति से बढ़ रही है, उससे दोगुनी दर से पानी की खपत बढ़ रही है.

यह चेतावनी संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन में जलस्रोत विकास और प्रबंधन विभाग की ज़िम्मेदारी संभाल रहे विशेषज्ञों की रिपोर्ट के आधार पर जारी की गई है.

विभाग के प्रमुख पास्कल स्टेदुटो ने जलस्रोतों के संरक्षण के लिए स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करने की अपील की है.

अभी दुनिया में एक अरब से अधिक आबादी को रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त स्वच्छ पानी नहीं मिल पा रहा है.

साथ ही ढ़ाई अरब से अधिक लोगों को पर्याप्त साफ सफाई की सुविधा नहीं मिल रही है.

तालाबों, नदियों और भूमिगत जलस्रोतों से मिल रहे स्वच्छ पानी का दो तिहाई से अधिक हिस्सा खेती में ही इस्तेमाल हो रहा है.

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि दुनिया के कई हिस्सों में किसान उत्पादन बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे ज़्यादा से ज़्यादा पानी हथियाने की मुहिम भी शुरू हो गई है.

किसानों को सलाह दी गई है कि वे बारिश के पानी का इकठ्ठा रखने पर ज़ोर दें और सिंचाई के दौरान पानी की बर्बादी रोकें.

सन्दर्भ कड़ी : http://www.bbc.co.uk/hindi/science/story/2007/02/070215_water_un.shtml

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mailammamemorium.jpg” पृथ्वी से अच्छा बरताव करो ।पृथ्वी तुम्हें माँ-बाप ने नहीं दी है,आगे आने वाली पीढियों ने उसे तुम्हे कर्ज के रूप में दिया है ।हमें अपने बच्चों से उधार में मिली है पृथ्वी ।”

    आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के प्रथम शिकार ‘रेड इन्डियन’ लोगों की यह प्रसिद्ध कहावत प्लाचीमाडा के कोका-कोला विरोधी आन्दोलन की जुझारू महिला नेता मायलम्मा की भावना से कितनी मेल खाती है ! मायलम्मा ने कोका-कोला कम्पनी द्वारा भूगर्भ-जल-दोहन के भविष्य के परिणाम के प्रति चेतावनी दे कर कहा था , ‘तीन वर्षों में इतनी बर्बादी हुई है तो दस-पन्द्रह वर्षों बाद क्या हालत होगी ? तब हमारे बच्चे हमें कोसते हुए इस बंजर भूमि पर रहने के लिए अभिशप्त होंगे ।’

    दो-सौ देशों में फैली बहुराष्ट्रीय कम्पनी के कारखाने के सामने घास-फूस के ‘समर-पंडाल’ के नीचे प्लाचीमाडा की आदिवासी महिलाओं का   अनवरत चला धरना अहिन्सक संघर्ष के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा ।

    प्राकृतिक संसाधनों पर हक किसका है ? एक दानवाकार कम्पनी का ?या स्थानीय समुदाय का ? हक़ की इस लड़ाई का नेता कौन होगा ? – इन प्रश्नों को दिमाग में लिए ‘मातृभूमि’ के सम्पादक और लोक-सभा सदस्य श्री एम.पी. वीरेन्द्रकुमार के निमंत्रण पर पहली बार २१,२२,२३ जनवरी,२००४ को प्लाचीमाडा में आयोजित ‘ विश्व जन-जल-सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला ।इस सम्मेलन में वैश्वीकरण विरोधी,गांधीजी से प्रभावित,फ़्रान्सीसी किसान नेता जोशे बोव्हे , पानी पर गिद्ध-दृष्टि गड़ाई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रति सचेत करने वाली किताब(द ब्ल्यू गोल्ड) की लेखिका मॊड बार्लो,यूरोपियन यूनियन के सांसद,मलयालम के वरिष्ठ साहित्यकार सुकुमार अझिकोड़,वासुदेवन नायर,सारा जोसेफ़ और केरल विधान-सभा में विपक्ष के नेता अच्युतानन्दन (मौजूदा मख्यमन्त्री ) ने भाग लिया था । इन सभी राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय दिग्गजों को पालघाट के इस गाँव की ओर आकर्षित करने वाला एक प्रमुख तत्व मायलम्मा का नेतृत्व था ।

    ‘ जिस की लड़ाई उसीका नेतृत्व’ जन-आन्दोलनों की इस बुनियादी कसौटी पर प्लाचीमाडा-आन्दोलन मायलम्मा जैसी प्रखर महिला नेता के कारण खरा उतरा था ।

    मेंहदीगंज में कोका-कोला विरोधी आन्दोलन को प्लाचीमाडा से प्रेरणा मिली थी । साथी मायलम्मा हमें बता गयीं हैं कि :

    (१) प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय आबादी का प्राथमिक हक़ है।

    (२) इस अधिकार के लिए संघर्ष स्थानीय नेतृत्व द्वारा ही चलाया जाएगा ।

    संसाधनों पर अधिकार का निर्णय राजनीति द्वारा होता है और इस दौर की नई राजनीति में प्लाचीमाडा की मयलम्मा को याद किया जाएगा ।

          – अफ़लातून , अध्यक्ष , समाजवादी जनपरिषद , उत्तर प्रदेश।

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दोषसिद्ध रंगभेद

किन्हीं उपभोक्तावादी उत्पाद की निर्माता कम्पनी की मंशा यदि पूरी दुनिया के बाजार पर छा जाने की हो तब क्या वे रंगभेद का पालन कर सकती हैं ? सरसरी तौर पर सोचने पर लगेगा कि वे किसी भी समूह से भेद-भाव करने से बचने का प्रयास करेंगी . लेकिन ऐसा सोचना सच्चाई से परे है.

  कोका – कोला कम्पनी के अटलान्टा , अमेरिका स्थित मुख्यालय के काले कर्मचारियों ने १९९९ में कम्पनी के ख़िलाफ़ रंग भेद का मुकदमा दाखिल किया . अपने दावे को साबित करने के लिए इन कर्मचारियों ने दमदार आंकडे और किस्से प्रस्तुत किए . मसलन १९९८ में अफ़्रीकी – अमेरिकी कर्मचारियों की औसत तनख्वाह ४५,२१५ डॊलर थी जबकि गोरे कर्मचारियों की औसत तनख्वाह ७२,०४५ डॊलर थी . हांलाकि अफ़्रीकी-अमेरिकी कर्मचारी कुल संख्या का १५ फ़ीसदी हैं पर्न्तु सर्वोच्च वेतनमान में उनका प्रतिनिधित्व नगण्य है . कोका – कोला कम्पनी में पदोन्नति के लिए मूल्यांकन में व्यवस्थापकों के व्यक्तिपरक विवेक की अत्यधिक गुंजाइश की छूट है , जिसके फलस्वरूप मूल्यांकन में रंगभेद प्रकट होता है . इस मूल्यांकन पद्धति के कारण ही ऊपर के वेतनमानों में काले लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता है . कोका – कोला के अधिकारी कई महीनों तक इन आरोपों को नकारते रहे .

  अप्रैल , २००० में तीस मौजूदा व पूर्व कर्मचारियों ने अपने मुकदमे के प्रचार तथा विवाद के न्यायपूर्ण निपटारे की मांग के साथ कम्पनी के अटलांटा स्थित मुख्यालय से एक बस पर सवार हो कर ‘ न्याय – यात्रा ‘ निकाली .यात्रा विलिमिंग्टन तक की थी जहां कम्पनी के शेयरधारकों की वार्षिक बैठक होने वाली थी . कोका – कोला कम्पनी ने अन्तत: १९ करोड ३० लाख डॊलर पर समझौता कर लिया . अमेरिकी रंगभेद – मुकदमों के इतिहास में यह सबसे बडी समझौता राशि है . समझौते के तहत पीडित कर्मचारियों को ११ करोड ३० लाख डॊलर , काले कर्मचारियों के वेतन बढाने के लिए ४ करोड ३५ लाख डॊलर , कम्पनी के नियुक्ति एवं पदोन्नति कार्यक्रम के मूल्यांकन व नियंत्रण के मद में ३ करोड ६० लाख डॊलर तथा वादी के कानूनी खर्च के मद में दो करोड डॊलर देने पडे .

  दक्षिण अफ़्रीका में जब रंगभेद चरम पर था तथा उस पर दुनिया के सभी देशों ने ‘ व्यापारिक प्रतिबन्ध ‘ लगा दिए थे तब भी पेप्सीको व कोका – कोला द्वारा अपने पेय वहां भेजे जा रहे थे . बर्मा में लोकतंत्र बहाली आन्दोलन की नेता आंग सांग सू की द्वारा तानाशाही शासन का व्यावसायिक बहिष्कार करने की अपील  के तहत कुछ संगठनों ने अभियान चलाया था . पेप्सीको द्वारा लम्बे समय तक बर्मा में व्यवसाय जारी रखने को मुद्दा बना कर उसके उत्पादों के बहिष्कार का अभियान भी इन संगठनों ने चलाया था .  कम्पनी ने बदनामी से बचने के लिए अमेरिकी विदेश नीति का हवाला दे कर बर्मा से अन्ततोगत्वा कामकाज समेट लिया .

अन्तरराष्ट्रीय खाद्य मानकों में कचरा खाद्य खेमे की दख़ल : अगली प्रविष्टि

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इन दोनों बहुरष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा गरीब देशों की इकाइयों में मजदूरों के साथ अत्यन्त अमानवीय कृत्य किए जाते हैं . दक्षिण अमेरिकी देश कोलोम्बिया में कोका – कोला कम्पनी द्वारा अपने मजदूरों पर दमन और अत्याचार सर्वाधिक चर्चित है . कोलोम्बिया की राष्ट्रीय खाद्य – पेय कामगार यूनियन – सिनालट्राइनाल ( SINALTRAINAL ) के अनुसार कोका – कोला की दक्षिणपन्थी सशस्त्र अर्धसैनिक गुंडा वाहिनी से सांठ – गांठ है तथा मजदूर नेताओं की हत्याओं का लम्बा सिलसिला , अपहरण , यूनियन गतिविधियों को कुचलने के लिए षडयंत्र ही कम्पनी की मुख्य रणनीति है . इन गिरोहों में कुछ पेशेवर सैनिक होते हैं और कुछ स्थानीय गुंडे . कोलोम्बिया में अमीर जमींदारों और नशीले पदार्थों के अवैध व्यवसाइयों ने ८० के दशक में वामपंथी विद्रोहियों का मुकाबला करने के लिए इनका गठन किया था . कोलोम्बिया के कई कोका – कोला संयंत्रों में इन्होंने अपने अड्डे या चौकियां बना ली हैं . इन संयंत्रों को वैश्वीकरण का प्रतीक मान कर वामपंथी विद्रोही इन पर हमला कर सकते हैं – यह बहाना देते हुए उनकी  ‘रक्षा ‘ हेतु वे अपनी मौजूदगी को उचित बताते हैं . १९८९ से अब तक कोलोम्बिया के कोका – कोला संयंत्रों में कार्यरत आठ मजदूर नेताओं की हत्या इन गिरोहों द्वारा की जा चुकी है .

   वैसे,कोलोम्बिया में यूनियन नेताओं पर हिंसा एक व्यापक और आम घटना है . यह कहा जा सकता है कि कोलोम्बिया में श्रमिक संगठन बनाना दुनिया के अधिकतर मुल्कों से कहीं ज्यादा दुरूह काम है . एक अनुमान के अनुसार , १९८६ से अब तक वहां ३,८०० ट्रेड यूनियन नेताओं की हत्या हो चुकी है . श्रमिकों के अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के अनुमान के अनुसार , दुनिया भर में होने वाली हर पांच ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं की हत्याओं में से तीन कोलोम्बिया में होती हैं .

  कोलोम्बिया के कोरेपो स्थित कोका – कोला संयंत्र के यूनियन की कार्यकारिणी के सदस्य इसिडरो गिल की हत्या का मामला अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ है . घटनाक्रम इस प्रकार है . ५ दिसम्बर १९९६ , की सुबह एक अर्धसैनिक गिरोह से जुडे दो लोग मोटरसाइकिल से कोरेपो संयंत्र के भीतर पहुंचे . इन लोगों ने यूनियन नेता इसिडरो गिल पर दस गोलियां चलाईं जिससे उनकी मौत हो गयी . इसिडरो के सहकर्मी लुई कार्डोना ने बताया कि मैं काम पर था जब मैंने गोलियों की आवाज सुनी और इसिडरो के गिरते हुए देखा . मैं उसके पास दौड कर पहुंचा लेकिन तब तक उसकी मृत्यु हो चुकी थी . उसी रात यूनियन के दफ़्तर पर हमला हुआ . सभी दस्तावेज लूट लिए गये तथा दफ़्तर को जला दिया गया . कुछ घण्टों तक इस अर्धसैनिक गिरोह के अधिकारियों ने कार्डोना को रोक कर रखा . यहां से भाग निकलने में वह सफल रहा और स्थानीय पुलिस थाने में उसे शरण मिली . एक सप्ताह बाद इस अर्धसैनिक गिरोह के लोग फिर इस संयंत्र पर पहुंचे . इसिदरो गिल से जुडे सभी ६० मजदूरों को एक लाइन में खडा कर दिया गया और पहले से तैयार इस्तीफ़ों पर दस्तख़त करने का आदेश दिया गया . सभी ने दस्तख़त कर दिए . दो महीने बाद सभी कर्मचारियों ( जो सभी यूनियन से नहीं जुडे रहे ) को बर्खास्त कर दिया गया . २७ वर्षीय इसिडरो गिल इस संयंत्र में आठ वर्षों से कार्यरत था . उसकी विधवा एलसिरा गिल ने अपने पति की हत्या का विरोध किया तथा कोका – कोला से मुआवजे की मांग की . सन २०० में एलसिरा की भी इसी गिरोह ने हत्या कर दी . मृत दम्पति की दो अनाथ बेटियां रिश्तेदारों के पास छुप कर रहती हैं . कुछ समय बाद कोलोम्बिया की एक अदालत ने इसिडरो की हत्या के आरोपी लोगों को बरी कर दिया .

   जुलाई २००१ में अमेरिका की एक संघीय जिला अदालत में ‘विदेशी व्यक्ति क्षतिपूर्ति कानून ‘ के तहत मुकदमा कायम कर दिया गया . इसिडरो के परिजन व सिनालट्राइनाल के प्रताडित पांच यूनियन नेताओं की तरफ़ से वाशिंग्टन स्थित  ‘अन्तर्राष्ट्रीय श्रम – अधिकार संगठन ‘ तथा अमेरिकी इस्पात कर्मचारी संयुक्त यूनियन ने यह मुकदमा किया है . मुद्दई पक्षों ने आरोप लगाया कि कोका – कोला बोतलबन्द करने वाली कम्पनी ने अर्धसैनिक सुरक्षा बलों से सांठ- गांठ की है. इसके तहत चरम हिन्सा , हत्या , यातना तथा गैर कानूनी तरीके से निरुद्ध रखकर यूनियन नेताओं को ख़ामोश कर दिया जाता है . इसके अलावा यह मांग की गयी है कि कोका – कोला अपनी आनुषंगिक बोतलबन्द करने वाली कम्पनी की इन कारगुजारियों की जिम्मेदारी ले तथा इन अपराधों का हर्जाना भरे . इस मुकदमे में कोका -कोला के अलावा उसकी दो बोतलबन्द करने वाली आनुषंगिक कम्पनियों बेबीदास तथा पैनामको को प्रतिवादी बनाया गया है .

  इस मामले में ३१ मार्च , २००३ को अदालत ने फैसला दिया कि बोतलबन्द करने वाली दोनों कम्पनियों के खिलाफ़ अमेरिकी अदालत में मामला चलने योग्य है तथा ‘ यातना पीडित संरक्षण कानून ‘ के तहत भी मुद्दईगण दावा कर सकते हैं .इस निर्णय में कोका – कोला कम्पनी तथा कोका – कोला – कोलोम्बिया को इस आधार पर अलग रखा गया कि बोतलबन्द करने की बाबत हुए समझौते के अन्तर्गत श्रम-सम्बन्ध नहीं आते हैं . बहरहाल , मुकदमा करने वाली यूनियन व मजदूर नेता फैसले के इस हिस्से से सहमत नही हैं चूंकि कोका – कोला ने २००३ में बोतलबन्द करने वाली पैनामको का अधिग्रहण कर लिया था . मजदूर नेताओं का मानना है कि कोका – कोला के एक इशारे से यह आतंकी अभियान रुक सकता है .फिलहाल २१ अप्रैल २००४ को कोका -कोला को मुकदमे में पक्ष माने जाने की प्रार्थना के साथ संशोधित मुकदमा कायम कर दिया गया है .

  यह गौरतलब है कि बडी बडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के परिसंघ द्वारा यह मांग उठाई जाती रही है कि निगमों को इसके कानून के दाएरे से अलग करने के लिए कानून में संशोधन किया जाना चाहिए . बहरहाल अमेरिकी उच्चतम न्यायालय यह मांग अमान्य कर चुका है . यातना पीडित संरक्षण अधिनियम  के अन्तर्गत निगमों को ‘व्यक्ति’ न मानने का तर्क भी अदालत ने अस्वीकृत कर दिया है . यह गौरतलब है की इसी अमेरिकी कानून के अन्तर्गत भोपाल गैस पीडित महिला उद्योग संगठन की साथियों ने हत्यारी बहुराष्ट्रीय कम्पनी यूनियन कार्बाइड एवं उसके तत्कालीन अध्यक्ष एन्डर्सन के खिलाफ़ मुकदमा ठोका है .

  [अगली प्रविष्टि : कोला कम्पनियों का दोषसिद्ध रंगभेद ]

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बच्चों के स्वास्थ्य पर शीतल पेयों के प्रभाव के सन्दर्भ में अमेरिकी बाल-रोग अकादमी का नीति वक्तव्य के प्रमुख अंश :

   ” अधिक मात्रा में शीतल पेय पीने से उत्पन्न स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए स्कूल बोर्डों को एहतियात के तौर पर इनकी बिक्री पर रोक लगानी चाहिए.बच्चों की रोजाना खुराक में ये पेय अतिरिक्त चीनी का मुक्य स्रोत हैं . इन पेयों के १२ आउन्स के एक टिन अथवा मशीन से परोसी गयी इतनी ही मात्रा में १० चम्मच चीनी का प्रभाव रहता है . ५६ से ८५ प्रतिशत स्कूली बच्चे हर रोज कम से कम एक बार यह पेय अवश्य पीते हैं . शीतल पेय पीने की मात्रा बढने के साथ – साथ दूध पीने की मात्रा घटती जाती है . इन चीनीयुक्त शीतल पेयों के पीने से मोटापा बढने का सीधा सम्बन्ध है.मोटापा आज-कल अमेरिकी बच्चों की प्रमुख समस्या है . अन्य बीमारियों में दांतों में गड्ढे पडना तथा दंत वल्क का क्षरण प्रमुख हैं . स्कूल स्थित दुकानों , कैन्टीनों व खेल – कूद आदि के मौकों पर यह उत्पाद सर्वव्यापी हो जाते हैं . स्कूलों की आय का पर्याप्त प्रमाण इन पेयों की बिक्री से आता है परन्तु इनके विकल्प के तौर पर पानी , फलों के रस तथा कम-वसा युक्त दूध बिक्री हेतु मुहैया कराया जा सकता है ताकि आमदनी भी होती रहे.”

  इस नीति में इस बात का संकल्प भी है कि बाल-रोग चिकित्सक स्कूलों से इन मीठे शीतल पेयों के खात्मे के लिए प्रयत्न करेंगे . इसके लिए यह जरूरी होगा कि वे स्कूल के प्रशासनिक अधिकारियों , अपने मरीजों व अभिवावकों को शीतल पेय पीने के दुष्परिणामों के बारे में शिक्षित करें .

  इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि स्कूली-बच्चों तथा किशोरों पर शीतल पेयों के दुष्प्रभावों की बाबत अपनी बिगडी छवि में सुधार के लिए इन कम्पनियों ने ‘अमेरिकी बाल दन्त चिकित्सा अकादमी ‘ नामक संगठन को १० लाख डॊलर का अनुदान दे दिया तथा ‘राष्ट्रीय शिक्षक अभिवावक सम्घ’ की भी अनुदान दाता बन गयीं . बाल सरोकारों वाले ऐसे सम्मानित समूहों के साथ तालमेल बैठाने के बावजूद स्कूलों में शीतल पेयों के विरुद्ध अभियान जो पकड रहा है . कैलीफोर्निया राज्य ने एक कानून बना कर स्कूलों में कचरा खाद्य और शीतल पेयों पर लगा दी है . बीस अन्य राज्यों द्वारा ऐसी रोक लगाने पर विचार विमर्श शुरु हो चुका है.फिलादेल्फिया के स्कूल डिस्ट्रिक्ट के तहत २,१४,०० विध्यार्थी आते हैं.यहां की बोर्ड ने फैसला किया है कि इन स्कूलों में १ जुलाई २००४ से इन पेयों की जगह अब फलों के रस , पानी तथा दूध की बिक्री होगी .

  [कोला कम्पनी द्वारा श्रमिकों की हत्या और उत्पीडन : अगली प्रविष्टि ]

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