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Posts Tagged ‘खादी’

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‘खादी का मतलब है देश के सभी लोगों की आर्थिक स्वतंत्रता और समानता का आरंभ। लेकिन कोई चीज कैसी है , यह तो उसको बरतने से जाना जा सकता है – पेड की पहचान उसके फल से होती है। इसलिए मैं जो कुछ कहता हूं उसमें कितनी सचाई है, यह हर एक स्त्री-पुरुष खुद अमल करके जान ले। साथ ही खादी में जो चीजें समाई हुई हैं,उन सबके साथ खादी को अपनाना चाहिए। खादी का एक मतलब यह है कि हम में से हर एक को संपूर्ण स्वदेशी की भावना बढ़ानी चाहिए और टिकानी चाहिए;यानी हमें इस बात का दृढ़ संकल्प करना चाहिए कि हम अपने जीवन की सभी जरूरतों को हिन्दुस्तान की बनी चीजों से,और उनमें भी हमारे गांव में रहने वाली आम जनता की मेहनत और अक्ल से बनी चीजों के जरिए पूरा करेंगे।इस बारें में आज कल हमारा जो रवैया है,उसे बिल्कुल बदल डालने की यह बात है।मतलब यह कि आज हिन्दुस्तान के सात लाख गांवों को चूस कर और बरबाद कर के हिंदुस्तान और ग्रेट ब्रिटेन के जो दस-पांच शहर मालामाल हो रहे हैं,उनके बदले हमारे सात लाख गांव स्वावलंबी और स्वयंपूर्ण बने,और अपनी राजी खुशी से हिंदुस्तान के शहरों और बाहर की दुनिया के लिए इस तरह उपयोगी बनें कि दोनों पक्षों को फायदा पहुंचे।‘ महात्मा गांधी ने खादी के अपने बुनियादी दर्शन को इन शब्दों में अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका ‘रचनात्मक कार्यक्रमः उसका रहस्य और स्थान’ में प्रस्तुत किया है। अब हमें गांधीजी के ‘पेड के फल की पहचान’ करनी है। यह रचनात्मक कार्यक्रम सत्याग्रह के लिए आवश्यक अहिंसक शक्ति के निर्माण हेतु बनाये गये थे।इन कार्यक्रमों का प्रतीक था-चरखा।लोहिया ने कई बरस बाद कहा कि हम रचनात्मक कार्यक्रम का प्रतीक ‘फावडा’ को भी चुन सकते हैं।

दावोस में शुरु हो रहे विश्व आर्थिक सम्मेलन के मौके पर इंग्लैण्ड की एक स्वयंसेवी संस्था ने एक रपट जारी की है जिसके मुताबिक भारत के सबसे दौलतमन्द एक फीसदी लोग देश की कुल दौलत के अट्ठावन फीसदी के मालिक हैं।यह आंकड़ा देश में भीषण आर्थिक विषमता का द्योतक है। यानी गांधीजी ने खादी के जिस कार्यक्रम को 1946 में ‘आर्थिक समानता का आरंभ’ माना था उसकी यात्रा उलटी दिशा में हुई है। इस देश में खेती के बाद सबसे बडा रोजगार हथकरघे से मिलता था ।उन हथकरघों तथा उन पर बैठने वाले बुनकरों की तथा खादी के उत्पादन के लिए आवश्यक ‘हाथ-कते सूत’ और उसे कांतने वाली कत्तिनों की हालत की पड़ताल जरूरी है। इसके साथ जुड़ा है ग्रामोद्योग तथा कुटीर व लघु उद्योग का संकट।

हाथ से कते सूत को हथकरघे पर बुनने से गांधी-विनोबा की खादी बनती है। दुनिया के प्रारंभिक बड़े अर्थशास्त्री मार्शल के छात्र और गांधीजी के सहकर्मी अर्थशास्त्री जे.सी. कुमारप्पा के अनुसार ,’दूध का वास्तविक मूल्य उससे मिलने वाला पोषक तत्व है।‘ इस लिहाज से खादी का वास्तविक मूल्य वह है जो कत्तिनों ,बुनकरों और पहनने वालों को मिलता है।खादी के अर्थशास्त्र में गांधीजी के समय नियम था कि उसकी कीमत में से व्यवस्था पर 6.15 फीसदी से अधिक खर्च नहीं किया जाना चाहिए ताकि कत्तिनों और बुनकरों की आमदनी में कटौती न हो।कीमत निर्धारण की तिकड़मों के अलावा अब ‘व्यवस्था खर्च’ पर 25 फीसदी तक की इजाजत है। मुंबई के हुतात्मा चौक के निकट स्थित खादी भण्डार में ‘जया भादुड़ी कलेक्शन’ और दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित खादी भंडार में विख्यात डिजाइनरों के डिजाइन किए गए वस्त्र जिस कीमत पर बिकते हैं उसका कितना हिस्सा कत्तिनों और बुनकरों के पास पहुंचता है इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इसके अलावा खादी उत्पादन करने वाली संस्थाओं को फैशन-शो जैसे आयोजनों के लिए खादी कमीशन से अधिक आर्थिक मदद मिलती है किन्तु कताई केन्द्रों में अम्बर चरखों के रख-रखाव के लिए आर्थिक मदद नहीं मिलती। सूती-मिलों के बने सूत को हथकरघे पर बुने कपडे तथा पावरलूम पर बने कपड़ों के अलावा मोटर से चलने वाले अम्बर-चरखों पर काते गये सूत के कपडों को खादी भण्डारों से बेचने के लिए अनिवार्य प्रमाणपत्र खादी कमीशन द्वारा दिया जा रहा है। इन्हें ‘लोक वस्त्र’ कह कर खादी भंडार में बेचा जा रहा है।पूर्वोत्तर भारत के हथकरघों पर मिलों के धागे से बुने गये कपडों को भी खादी में सम्मिलित करने की नीति वर्तमान सरकार ने बनाई है। ताने में मिल का सूत और बाने में हाथ-कता सूत भी खादी भंडारों से अधिकृत रूप से बेचा जा रहा है।

केन्द्र सरकार की वर्तमान खादी-नीति की समीक्षा करते वक्त हमें यह तथ्य भी नजरअन्दाज नहीं करना चाहिए कि आठ घन्टे खादी का कपड़ा बुनने वाले को 100 रुपये तथा आठ घन्टे सूत कांतने वाली कत्तिन को मात्र 25 रुपए मजदूरी मिलती है।यह सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से बहुत कम है। आजादी के पहले खादी और ग्रामोद्योग की गतिविधियां चलाने वाली संस्था अखिल भारत चरखा संघ की सालाना रपट से कुछ आंकड़ों पर ध्यान दीजिए,इन्हें गांधीजी ने उद्धृत किया है- ‘सन 1940 में 13,451 से भी अधिक गांवों में फैले हुए 2,75,146 देहातियों को कताई ,पिंजाई,बुनाई वगैरा मिला कर कुल 34,85,609 रुपये बतौर मजदूरी के मिले थे। इनमें 19,645 हरिजन और 57,378 मुसलमान थे ,और कातनेवालों में ज्यादा तादाद औरतों की थी।’ जब आंकडे खादी की बाबत हों तब उसके मापदन्ड ऐसे होते हैं। चरखा संघ किस्म के रोजगार और आमदनी वाले आंकडे खादी कमीशन ने देने बन्द कर दिए हैं। खादी का मौलिक विचार त्याग देने के कारण अब ऐसे आंकड़ों की आवश्यकता नहीं रह गयी है।

विकेंद्रीकरण से कम पूंजी लगा कर अधिक लोगों को रोजगार मिलेगा, इस सिद्धांत को अमली रूप देने वाले कानून को दस अप्रैल को पूरी तरह लाचार बना दिया गया है। सिर्फ लघु उद्योगों द्वारा उत्पादन की नीति के तहत बीस वस्तुएं आरक्षित रह गई थीं। जो वस्तुएं लघु और कुटीर उद्योग में बनाई जा सकती हैं उन्हें बड़े उद्योगों द्वारा उत्पादित न करने देने की स्पष्ट नीति के तहत 1977 की जनता पार्टी की सरकार ने 807 वस्तुओं को लघु और कुटीर उद्योगों के लिए संरक्षित किया था। 1991 के बाद लगातार यह सूची संकुचित की जाती रही। 1 अप्रैल, 2000 को संरक्षित सूची से 643 वस्तुएं हटा दी गर्इं। 10 दस अप्रैल 2015 को उन बीस वस्तुओं को हटा कर संरक्षण के लिए बनाई गई सूची को पूरी तरह खत्म कर दिया गया। विकेन्द्रीकृत छोटे तथा कुटीर उद्योगों के उत्पादों के बजाए देश के कुछ खादी भण्डारों में एक ऐसी उभरती हुई दानवाकार कम्पनी के उत्पाद बेचे जा रहे हैं।इस कम्पनी के 97 फीसदी पूंजी के मालिक की मिल्कीयत फोर्ब्स पत्रिका ने ढाई अरब डॉलर आंकी है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का वास्तविक स्वदेशी विकल्प लघु एवं कुटीर उद्योग होने चाहिए कोई दानवाकार कम्पनी नहीं।

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खादी ग्रामोद्योग आयोग के इस वर्ष के कैलेण्डर और डायरी पर गांधीजी के स्थान पर प्रधान मंत्री का चरखा जैसी आकृति के यंत्र के साथ चित्र प्रकाशित होने के बाद देश में जो बहस चली है उसे मौजूदा सरकार की खादी,हथकरघा और कुटीर उद्योग संबंधी नीति के आलोक में देखने का प्रयास इस लेख में किया गया है।प्रधान मंत्री ने स्वयं उस नीति की बाबत एक नारा दिया है-‘आजादी से पहले थी खादी ‘नेशन’ के लिए,आजादी के बाद हो खादी ‘फैशन’ के लिए’।खादी संस्थाएं विनोबा के सुझाव के अनुरूप खादी कमीशन की जगह ‘खादी मिशन’ बनाएंगी तब वह ‘अ-सरकारी खादी’ ही असरकारी खादी होगी।

(अफलातून)

राष्ट्रीय संगठन सचिव ,समाजवादी जनपरिषद।

816 रुद्र टावर्स,सुन्दरपुर,वाराणसी-221005.

aflatoon@gmail.com

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[ ‘ खादी की राखी ’ पर मेरी एक पोस्ट पर नीला हार्डीकर ने एक गंभीर टिप्पणी डाक से भेजी थी । इसे मैंने अलग पोस्ट के रूप में प्रकाशित किया था । इसके साथ ही नीलाजी ने ’सिंथेटिक वस्त्रों’ पर एक सुन्दर नोट भी भेजा था। इसे आज प्रकाशित किया जा रहा है । कपड़ा नीति के बारे में इन तीन पोस्टों से जो चर्चा शुरु हुई है उनकी बाबत यदि कोई पाठक अपने विचार भेजना चाहे तो उनका स्वागत है ।

नीला हार्डीकर अवकाश प्राप्त शिक्षिका हैं और मध्य प्रदेश के मुरेना में महिलाओं और दलितों के साथ काम करती हैं । नर्मदा बचाओ आन्दोलन और मध्य प्रदेश में चलने वाले आदिवासियों , स्त्रियों , विस्थापितों के जन आन्दोलनों के साथ वे सक्रीयता से जुड़ी हैं । उनके प्रति आभार के साथ यह नोट प्रकाशित करते हुए मुझे खुशी हो रही है । ]

सिंथेटिक वस्त्र

गर्मी के के दिनों में मध्यप्रदेश में ४० डिग्री से ५० डिग्री तापमान आम बात है । ऐसे में , बस अड्डों पर, हाट – बाजारों में धूलधक्कड़-भरी दोपहरी में गरीब और मध्यम वर्गीय महिलायें सिंथेटिक साड़ियों में बैठी हमेशा ही मिलती हैं । इनमें वृद्धाएं , गर्भवती और बीमार महिलाएं भी होती हैं । पहले कभी ऐसे ताप में सूती वस्त्र शरीर को कुछ आराम पहुंचाते थे । अब , उस आराम की गरीब जन कल्पना भी नहीं करतीं , शायद कभी अनुभव भी नहीं किया है , क्योंकि , दो दशक से गांव , कस्बों की दुकानों से और गरीब घरों से सूती साड़ियां और अन्य वस्त्र गायब ही हो गये हैं । नवजात शिशुओं को भी सिंथेटिक वस्त्र पहनाए जाते हैं ।

रसोई घरों में मसालों की कपड़छान या भीगी दालों को बांधने के लिए सूती कपड़ा अब मुश्किल से मिलता है । चूल्हे से बर्तन उतारने के लिए सूती कपड़ा अब खरीदना पड़ता है ; घरों में चादरें भी सिंथेटिक होती हैं ।

कोक - पेप्सी विरोधी सभा , मुर्दहा

कोक - पेप्सी विरोधी सभा , मुर्दहा

सिंथेटिक का खतरा : सिंथेटिक वस्त्रों के उपयोग में सावधानियां लोगों को न उद्योग ने सिखाई , न स्कूलों ने । एक लड़की (जबलपुर जिले की घटना है ) स्टोव जला रही थी कि उसके दुपट्टे ने आग पकड़ ली । कुर्ता भी सिंथेटिक , सो आग जल्दी भड़की । इतना ही नहीं , जैसे ही लड़की की मां को पता चला , उसने आग बुझाने की नीयत से गुदड़ी निकाली और उसे लड़की के ऊपर डाला । किंतु हाय! वह गुदड़ी सिंथेटिक साड़ियों की बनी थी !! किस्सा ख़तम ।

महाराष्ट्र की महिलायें नौ गज की धोती पहनती हैं , जो शरीर से खूब चिपकी रहती है । २५ डिग्री से अधिक ताप में इस धोती का स्पर्श सतत अनचाहा होता है ।

ब्लाउज , कुर्ते , सलवार , शर्ट , पुरुषो और बच्चों के अन्य कपड़े – गरीबों के लिए सिर्फ सिंथेटिक ही उपलब्ध हैं ।

ये कपड़े सस्ते होने का लाभ किसको मिलता है ? क्या निम्न आय वर्ग इन्हें खरीदकर खुश है ? पता करना चाहिए । ज्ञात तथ्य यह है कि गांव , कस्बों , छोटे शहरों के बाजार में सूती वस्त्र मिलता ही नहीं । १९८० के दशक के मध्य तक कॉपरेटिव सोसायटियों में सूती धोतियां रियायती दर पर मिलती थीं । इनका वितरण बन्द कर दिया गया । यानी गरीबों और ग्रामीणों को मजबूर किया गया सिंथेटिक वस्त्र खरीदने और पहनने के लिए ।

सिंथेटिक वस्त्रों का उत्पादन सस्ता रखने में सरकारी हस्तक्षेप की कितनी भूमिका है ? इसके अलावा उसकी पर्यावरणीय कीमत क्या है ? इन वस्त्रों के उपयोग के अन्त में कचरा किस चीज को कितना प्रदूषित करता है ? इस सब का आंकलन लगाना चाहिए ।

सिंथेटिक धोती के लाभ एक महिला ने गिनाए : ” धोती चमकदार होती है और टिकती ज्यादा है । “

– नीला हार्डीकर

(सम्पर्क – hneelaATyahooDOTcom)

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ब्लॉगिंग का एक मूल स्वरूप रोजनामचा लिखने का रहा है । वेब + लॉग में ’लॉग’ के लिए हिन्दी शब्द फादर कामिल बुल्के के अनुसार – रोजनामचा , यात्रा – दैनिकी , कार्य- पंजी भी है । इस हिन्दी सेवी ऋषि की जन्म-शताब्दी वर्ष पर उनके कोश का उपयोग करते हुए ,पुण्य स्मरण के साथ यह पोस्ट ।
तो, पिछले सत्तर से ज्यादा वर्षों से रोजनामचा या दैनिन्दनी लिखने वाले ब्लॉगिंग विरोधी एक सज्जन यह मानते रहे हैं कि इन्टरनेट पर लेखन और प्रकाशन फौरी-तुष्टीकरण ( instant gratification) मात्र का जरिया है । – ’फौरी तुष्टीकरण’ को ’तात्कालिक सन्तुष्टि’ कह देने पर मैं उनके आरोप को कबूलने के लिए तैयार था । उनका आगे कहना था कि ’कागज पर छपे का भविष्य के लिए महत्व है ’ (इन्टरनेट पर छपा हुआ मानो लम्बी अवधि तक नहीं देखा जाएगा) ।
सामाजिक जीवन-यात्रा में गुजराती , हिन्दी और अंग्रेजी में चार दर्जन से अधिक छोटी – बड़ी पुस्तकें लिख चुके इन महाशय को खादी पर लिखी मेरी पोस्ट का प्रिन्ट आउट मेरी भान्जी चारुस्मिता (दुआ) ने दिया । उन्होंने उसी दिन एक पोस्ट कार्ड उसकी बाबत मुझे लिख भेजा ।
यह कहने में मुझे लेशमात्र दुविधा नहीं है कि दिसम्बर , २००३ से अब तक हुई मेरी चिट्ठेकारी (शुरुआत अंग्रेजी से हुई थी । तब ब्लॉगर को गूगल ने नहीं खरीदा था।) पर की गई यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण टिप्पणियों में एक है ।
टिप्पणी प्रस्तुत करने के पहले टिप्पणीकार की बाबत कुछ जरूरी बातें । वे सेवाग्राम में गांधीजी द्वारा स्थापित ’खादी विद्यालय’ के शुरुआती विद्यार्थियों में थे । (चिट्ठेकार संजीत त्रिपाठी के पिता भी उस वक्त उनके सहपाठी थे ।)
४ – ५ साल की उम्र से चरखा चलाना सीखा तथा ११-१२ वर्ष की उम्र में इन्होंने टाइपिंग सीखी । महात्मा गांधी द्वारा हिटलर को भेजा गया एक ऐतिहासिक पत्र उन्होंने टाइप किया था, यह उन्हें स्मरण है । चरखा चलाने के पराक्रम में दो कातने वालों द्वारा दिन-रात लगातार चरखा चलाना उल्लेखनीय है। अपनी पुस्तक ’बापू की गोद में’ (ब्लॉग-किताब के रूप में उपलब्ध) में टिप्पणीकार अपने शैशव में चरखे और कातने के महत्व पर गौर कराने वाली यह बातें लिखते हैं :

…लेकिन इस तरह के धार्मिक और सामाजिक त्योहारों को भी पीछे छोड़ने वाली याद चरखा – जयन्ती ( रेटियो बारस ) की है । बापू के आश्रम में बापू का ही जन्मदिन? यह कैसा शिष्टाचार ? लेकिन इस जन्मदिन को बापू ने अपना जन्मदिन माना ही नहीं था ।यह तो चरखे का जन्मदिन था । इसलिए स्वयं बापू भी हमारे साथ उसी उत्साह से उसमें शरीक हो जाते थे । लोगों से बचने के लिए उस रोज उनको कहीं भाग जाना नहीं पड़ता था और न उस दिन के नाटक का उनको प्रमुख पात्र बनना पड़ता । उस दिन बापूजी एक सामान्य आश्रमवासी की तरह ही रहते थे । कभी हमारी दौड़ की स्पर्धा में समय नोट करने का काम करते , तो कभी – कभी हमसे बड़े लड़कों के कबड्डी के खेल में हिस्सा लेते । कभी – कभी हम लोगों के साथ साबरमती नदी में ( बाढ़ न हो तब ) तैरते भी थे । शाम को हमें भोजन परोसते और रात को अन्य आश्रमवासियों की तरह नाटक देखने के लिए प्रेक्षक के रूप में बैठ जाते । उस दिन का प्रमुख पात्र होता था चरखा । चरखा – द्वादशी का दिन गांधी – जयन्ती का भी दिन है , यह तो दो – चार चरखा – द्वादशियों को मनाने के बाद मालूम हुआ .

आजकल चरखा – द्वादशी के दिन बापू की झोपड़ी या बापू के मन्दिर खड़े किये जाते हैं । उनके फोटो की तरह – तरह से पूजाएँ की जाती हैं और सूत की की अपेक्षा टूटन का ही अधिक प्रदर्शन दिखाई देता है । लेकिन उन दिनों का जो दृश्य मेरी आँखों के सामने आता है , उसमें बापू का फोटो कहीं भी नहीं देखता हूँ । अखण्ड सूत्रयज्ञ उस समय भी चलते थे । विविध प्रकार के विक्रम ( रेकार्ड ) तोड़ने में हम बच्चों को अपूर्व आनन्द और उत्साह रहता था। कोई सतत आठ घण्टे कात रहा है तो दो साथी एक के बाद एक करके २४ घण्टे अखण्ड चरखा चालू रखते हैं । दिनभर काते हुए सूत के तारों की संख्या नोट कराने में एक – दूसरे की स्पर्धा चलती ।

(सन्दर्भ)

नारायण देसाई उर्फ़ बाबूभाई

नारायण देसाई उर्फ़ बाबूभाई

अपने पिता महादेव देसाई की जीवनी ’अग्नि कुंडमा खिलेलू गुलाब’ के लिए उन्हें केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था तथा महात्मा गांधी की वृहत जीवनी ’मारू जीवन ए ज मारी वाणी’ के लिए ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी पुरस्कार । लाजमी तौर पर ’गांधी और खादी’ जीने के प्रयास के अलावा उनके ग्रन्थों के लिए किए गए शोध के भी विषय रहे हैं ।
पोस्ट कार्ड नादे

पोस्ट कार्ड नादे

(चित्र : संजय पटेल,इंदौर के सौजन्य से। सभी चित्रों को बड़े आकार में देखने के लिए उन पर खटका मारें)
हांलाकि इनकी लिखावट पाठकों के लिए ’हिंसक’ नहीं है फिर भी पत्र का मजमून टाइप कर दे रहा हूँ :
१५.१०.२००९(त्रृटि) (१८.९. की मुहर)
संपूर्ण क्रांति विद्यालय
प्यारे आफ़लू ,
आज खादी संबंधी तुम्हारे लेख (?) का प्रिन्ट आउट दुआने दिया। सुना कि तुमने सूत की गुण्डी के नाप संबंधी हिसाबमें तो तुमने दुरुस्ती कर ली है : (एक) गुण्डी = १००० मीटर ।
need – greed वाला उद्धरण गांधी का नहीं है । हालाँकि प्यारेलालजी ने लास्टफेजमें पार्ट II पृ. ५५२ पर इसका उपयोग गांधीजी के नाम से किया है । जान पड़ता है यह चमात्कारिक उद्धरण गांधीजी ने भी किया होगा । Oxford Dictionary of Quotations (ने) इसके लेखक का नाम Frank Buchman बताया जो उनकी Legacy of Frank Buchman में Legacy Chapter 15 में छपा है ।
यह जानकारी तुम कहाँ से लाये कि “जब आचार्यजी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव थे तब जवाहरलाल नेहरू चवन्निया सदस्य भी नहीं थे?” आचार्य कई वर्षों तक कांग्रेस महासचिव जरूर थे । उसमें से कुछ वर्ष जवाहरलालजी अध्यक्ष थे ।
खादी का बुनियादी नियम यह था कि खादी के दाम पर व्यवस्था खर्च अमुक प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ना चाहिए । इसलिए खादी कमीशन की वर्तमान नीति पर तुम्हारी आलोचना सटीक है ।
प्यार,
बाबूभाई.

सूत की गुण्डी सम्बन्धी सूचना में किसी अन्य पाठक द्वारा मेरी भूल को सुधार दिया जाएगा , मैं इस खुशफ़हमी में था । अतएव, साल भर के लिए जरूरी कपड़े के लिए एक व्यक्ति द्वारा १००० किलोमीटर सूत कातने की आवश्यकता होती है ।
आचार्यजी का कथन मैंने गांधी विद्या संस्थान,वाराणसी के अतिथि भवन में जेपी आन्दोलन के दौर में उनके मुख से सुना था तथा स्मृति के आधार पर उद्धृत किया था । अब लगता है कि मुमकिन है यह बात उन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी के बारे में कही हो। इस बाबत और जानकारी जुटाने की जरूरत है ।
टिप्पणी के अंतिम वाक्य द्वारा इन्टरनेट सम्बन्धी टिप्पणीकर्ता की धारणा (’हृदय’ नहीं कह रहा) में कोई तब्दीली आई होगी , क्या यह माना जा सकता है ?
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जनसत्ता के समांतर स्तंभ में मेरे ब्लॉग से ली गई इसी प्रविष्टी को पढ़कर सुश्री नीला हार्डीकर ने मुझे एक पत्र लिखा है। मेरे साथियों से फोन नम्बर मालूम कर उन्होंने यह बताया कि वे नेट पर हिन्दी टाइपिंग नहीं जानती इसलिए हाथ से लिखा ख़त भेज रही हैं । नीला हार्डीकर अवकाशप्राप्त शिक्षिका हैं तथा मध्य प्रदेश के जन आन्दोलनों से कई दशकों से जुड़ी रही हैं । उन्होंने ’सिंथेटिक वस्त्र’ पर अपनी स्वतंत्र टिप्पणी भी भेजी है जिसे अलग से प्रकाशित किया जाएगा । फिलहाल , ’खादी की राखी’ पर उनकी मूल्यवान टिप्पणी का चित्र तथा टाइप किया हुआ पाठ :

नीला हार्डीकर का पत्र

नीला हार्डीकर का पत्र


मुरेना (म.प्र.)
२८ सितम्बर,२००९
प्रिय अफलातून ,
२४.९.०९ के जनसत्ता में ’खादी की राखी’ पढ़ा । मुद्दे महत्वपूर्ण उठाए हैं आपने , जैसे वस्त्र का बाजार धीरूभाई को उपलब्ध कराना । मैं इतने साल से सोच रही हूँ – राजीव गांधी को क्या रिश्वत मिली होगी इसके लिए । अब अगली स्टेप है ए डी बी की मदद से खादी बेचना ।
मुझे लगता (है) सरकार के उस छोटे फैसले के जो बड़े नतीजे निकले उनका अच्छी तरह अध्ययन होना चाहिए । एक ग्रूप हो जो यह काम करे । कई आयामों पर एक साथ तथ्य संकलन , विश्लेषण करना होगा । उदाहरण के लिए
१. सिन्थेटिक कपड़ों के लाभ नुकसान.
२. गांव , कस्बों के बाजार से और गरीब घरों से सूती वस्त्र गायब होना.
३. बुनकरों की दुर्गति .
४. रंगों की फैक्टरियां खत्म , रंगरेजों का भट्टा बैठना .
५. डिटर्जण्ट्स आदि का जमीन तथा जलस्रोतों पर प्रभाव .
६. सिन्थेटिक धागा non bio-degradable होना.
७. ——-
छानबीन इस सवाल की भी होनी चाहिए कि ADB के लिए महौल बना कैसे ? शायद इस तरह :
अ) कि , खादी अब गरीब का वस्त्र बचा नहीं .
ब) कि , खादी = सादगी से शुरु करके खादी = सत्ता के रास्ते हम खादी = पाखण्ड तक पहुंच चुके हैं .
स) कि, गांधी के चरखे से अब बी.टी. कॉटन का सूत कतता है ।
जब स्वालंबन का बीज ’ मोन्सेण्टो’ के हाथों गिरवी है , तब स्वाव्लंबन के सूत्र संभालना काफी है ? संभव है ?
ये सारे ( और भी कई ) पहलुओं का एकसाथ अध्ययन करके , स्थिति का qualitative के साथ quantitative आकलन करके क्या हम विकल्प का रास्ता ढूंढ़ सकते हैं ?
मैं उपरोक्त बिन्दुओं में से कुछेक पर अपने निरीक्षण लिख रही हूँ । इनमें बहुतों को बहुत कुछ जोड़ना होगा । किसी सामूहिक अध्ययन की कोशिश संभव हो तो बताएं ।
मेरा परिचय स्वाति थोड़ा बहुत देंगी । रिटायर्ड शिक्षिका हूँ । सुनील , स्मिता से मिलती रहती हूँ ।
शुभेच्छाओं सहित,
नीला
९४२५१ २८८३६ , hneelaATyahooDOTcom
नीलाजी ने विषय को जरूरी एवं गंभीर विस्तार दिया है । मुझे उम्मीद है कि उनका ख़त और ’सिंथेटिक वस्त्र ’ विषयक टिप्पणी ( अगली पोस्ट में प्रकाश्य ) एक पहल की शुरुआत होंगे। दोनों टिप्पणीकर्ताओं का अत्यंत आभारी हूँ । नीलाजी को नेट पर हिन्दी टाइप करने , मेल करने आदि की बाबत लिख रहा हूँ ।

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खादी की राखी

खादी की राखी

प्यारे आफ़्लू,                                                                      वेड़छी/०१/०८/०९

रक्षाबन्धन के बहाने कम से कम एक पत्र लिख देती हूँ – मुझे ही आश्चर्य होता है । फोन, ईमेल , चैट का जमाना है । पिछले एक सप्ताह से बारिश के कारण ’मोडेम’ खराब हो गया है । फोन दो दिनों से कर्कश स्वर से नाम के वास्ते चालू हुआ है। कभी बंद , कभी चालू ऐसे ही बाहरी धूप-छाँव की तरह चल रहा है ।

इस वर्ष मेरे वस्त्रविद्या कार्यक्रम में एक नया मोड़ आया है । वार्षिक आवश्यकता का २५ मीटर कपड़ा ३० जनवरी २०१० तक बनाना है । १०० गुण्डी सूत लगेगा । ७५ गुण्डी हो चुका है। बारिश खतम होते अपने हाथों से कुछ सूत रंग कर दिसम्बर में बुनाई करना है । यरवड़ा चक्र से रोज के एक से देढ़ घण्टा कताई करने से हो जायेगा । बीच – बीच में प्रवास में रहती हूँ इसलिए आज कल रोज तीन घण्टा कताई करती हूँ । अंबर चरखा (दो तकुआ) से तो पूरे परिवार की कपड़ों की आवश्यकता पूरी की जा सकती है – एक घण्टा प्रति दिन समय देकर । मुझे अंबर रुचता नहीं है ।

बाबूभाई आजकल एक किताब लिखने में व्यस्त हैं । अभी तो पढ़ाई कर रहे हैं । विभाजन और गांधी । अगस्त की २२ तारीख तक घर पर ही हैं । अभी तो किताब हाथ में लिये बैठे बैठे सो रहे हैं !

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५ या ६ को रक्षाबन्धन है । जब भी हो प्यार से बाँधना ।

खूब खूब प्यार –

उमादीदी .

बहन के हाथ – कते सूत से बनी यह राखी हाथ – लिखे इस ख़त के साथ ही मिल सकती थी , इन्टरनेट से नहीं । आज बात हुई तो पता चला ९३ गुण्डी सूत कात चुकी है ।  एक गुण्डी यानी १०० मीटर , १० गुण्डी = एक किलोमीटर और उसकी सालाना जरूरत की १०० गुण्डी मतलब १० किलोमीटर सूत । हाल ही में पढ़ी हबीब तनवीर की कविता याद आई – एक जरूरी हिसाब यह भी होता !

आज पिताजी से पूछा , ’आप बड़े या गांधी की खादी ?’ उन्होंने बताया कि खादी के प्रसार और विकास के लिए बना संगठन (अखिल भारत चरखा संघ ) उनके जन्म के कुछ माह बाद १९२५ में गठित हुआ था लेकिन १९२१ में मदुरै में काठियावाड़ी पग्गड़ छोड़ने के बाद गांधी ने खादी अपना ली थी । पारम्परिक चरखा एक बड़े चक्र और तकुए वाला था । उसे यात्रा में ले कर चलना कठिन था । यरवदा जेल से साबरमती आश्रम में मगनलाल गांधी और श्री आशर को गांधी चरखे में सुधार के बारे में लगातार ख़त लिखते – ’ एक की जगह दो चक्र लगाओ , एक बड़ा और एक छोटा । क्या दोनों चक्र एक बक्से (’पेटी’ शब्द मराठी – गुजराती में चलता है ) में अट सकते हैं ?’  गांधी की इन चिट्ठियों की मदद से साबरमती और बारडोली आश्रम के ’सरंजाम केन्द्रों’(वर्कशॉप) में पोर्टेबल पेटी चर्खा बना – यरवदा चक्र । मगनलाल गांधी ने एक डिबरी भी विकसित की थी – इसका मगन-दीप नाम पड़ा ।

यूँ तो हमारे बाप की पैदाईश के वक़्त भी उनका गू-मूत खादी के कपड़े से हुआ होगा । उसका महत्व नहीं है । बाप – दादा के कारण खादी अपनाने को अपनाना नहीं कहा जा सकता । ’ कातो ,समझ – बूझ कर कातो । जो काते से पहने , जो पहने सो काते ’ – इसे अपनाना असल बात है । वस्त्र स्वावलंबन का मर्म समझाने वाली इन काव्यमय पंक्तियों के रचयिता गांधी थे ।

We need production by masses not mass production.

अथवा The Earth has enough to fulfill everyone’s need but does not have enough to satisfy even a single person’s greed.

गांधी के मानवीय अर्थशास्त्र के उसूलों को इन काव्यमय सूक्तियों से आत्मसात करना कितना आनन्दकर है ।

पिछली सरकार द्वारा असंगठित क्षेत्र के अध्ययन के लिए बनी सेनगुप्ता कमिटी के अनुसार देश की ८७ फीसदी आबादी असंगठित क्षेत्र से जुड़ी है । बचपन से सुनते आए थे कि असंगठित क्षेत्र में रोजगार देने वाला सबसे बड़ा धन्धा हथकरघा है । हमारे पूर्वांचल में ही आजमगढ़ , मऊ , मोहम्मदाबाद, बस्ती , गोरखपुर, बस्ती , बहराईच, अकबरपुर , फैजाबाद में हथकरघे पर बेशकीमती साड़ियाँ ही नहीं आम आदमी की जरूरत को पूरा करने वाला सूती कपड़ा , चादर ,धोती,गमछा,शर्टिंग बनता था ।

राजीव गांधी सरकार की कपड़ा नीति ढाका की मलमल बनाने वाले कारीगरों के अंगूठे काटने वाली नीति के समान थी । इस नीति की बदौलत एक अन्जान व्यक्ति देश का सबसे अमीर बन गया और साथ – साथ रोजगार देने वाला सबसे बड़ा हथकरघा क्षेत्र अत्यन्त सिकुड़ गया । सिंथेटिक तागे और डिटर्जेन्ट बनाने में सरकारी रियायत और छूट की नीति के चलते गरीब आदमी के तन से सूती कपड़ा हटा , सिंथेटिक कपड़ा आ गया । किसानों की तरह बुनकर भी खुदकुशी करने को मजबूर होने लगे । सरकार के छोटे से फैसले से कैसे बना – बनाया बाजार , गारण्टीशुदा मुनाफ़ा- बिना खर्च मिल जाता है ! मानिए सरकार फैसला ले कि देश भर के पुलिस थाने में मारुति कम्पनी की जिप्सी रखी जाएगी तो इससे बिना विज्ञापन आदि के खर्च के हजारों जिप्सी बिक जाती हैं । ठीक इसी प्रकार अम्बानी समूह को छोटे छोटे फैसलों से करोड़ों – अरबों का मुनाफ़ा पहुंचाया गया ।

मुझे बनारस में सुना चौधरी चरण सिंह का भाषण याद है जिसमें उन्होंने माचिस बनाने वाली एकमात्र विदेशी (और ऑटॉमैटिक संयंत्र वाली)  विमको को बन्द करने के फैसले के औचित्य को बखूबी समझाया था ।

वैसे ही आपातकाल के दौरान गांधी आश्रम के एक खादी भण्डार के उद्घाटन की याद आती है । अंग्रेजी राज में पूर्वी उत्तर प्रदेश में खादी उत्पादन की प्रमुख संस्था – गांधी आश्रम की स्थापना धीरेन्द्र मजुमदार और आचार्य जे. बी. कृपलानी जैसे नेताओं ने की थी । कमलापति त्रिपाठी इन लोगों द्वारा प्रशिक्षित हुए थे । आपातकाल के दरमियान बनारस के शास्त्री नगर के खादी भंदार के उद्घाटन कार्यक्रम में गुरु (आचार्य कृपलानी) – शिष्य (कमलापति ) दोनों मंच पर मौजूद थे । पंडितजी रेल मन्त्री थे । सभा में आचार्यजी ने पंडितकी को सलाह दी थी कि रेल महकमा चाहे तो खादी की कितनी खपत कर सकता है । यह गौरतलब है कि स्वतंत्रता-पूर्व जब आचार्यजी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव थे तब जवाहरलाल नेहरू चवन्निया सदस्य भी नहीं थे ।  वरिष्टता के कारण आपातकाल में गिरफ़्तार न किए जाने के शायद एक मात्र अपवाद भी वे ही थे । उस सभा में आचार्यजी द्वारा सरकार की आलोचना सुन कर लोकपति त्रिपाठी यह बड़बड़ाते हुए बहिर्गमन कर गए थे कि , ’ बाबू बैठे हैं नहीं तो इस बूढ़े को बन्द करवा देता ’ । राजीव गांधी और लोकपति की कांग्रेसी पीढ़ी खादी के मर्म को भूल चुकी थी।

बहन और पिताजी ने गांधीजी के वस्त्र स्वावलम्बन के सूत्र(कातो समझ-बूझ कर कातो,…..) को समझ – बूझ कर अपनाया है । आज खादी कमीशन की अध्यक्षा द्वारा युवा पीढ़ी के नाम पर खादी – सुधार (’फेसलिफ़्ट’) के लिए एशियाई विकास बैंक से कर्जा लेकर नये शो-रूम बनाने की बात एक साक्षात्कार में पढ़ी तो मुझे सदमा लगा और कोफ़्त हुई । बहन के विद्यार्थी-जीवन को याद किया । उसने कोलकाता के सियालदह स्थित नीलरतन सरकार मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी पढ़ी । कॉलेज की दीवारों पर तब माओ-त्से-तुंग की स्टेन्स्लि के साथ नारे लिखे होते थे , ’ चीनेर चेयरमैन – आमादेर चेयरमैन’ । फिर पूर्व पाकिस्तान से आए लाखों शरणार्थियों के बीच मेडिकल छात्र- छात्राओं की टीम बनाकर शरणार्थी शिबिरों में टीकाकरण आदि में लगी । तब इन तरुण – तरुणियों का नारा होता था – ’ओपार थेके आश्छे कारा ?-आमादेरी भाई बोनेरा ।’ कॉलेज यूनियन की वह महामन्त्री चुनी गयी थी ।

डॉ. संघमित्रा गाडेकर

डॉ. संघमित्रा गाडेकर

खादी का एक बुनियादी सिद्धान्त है कि शोरूम ,विक्रेता-वेतन ,प्रचार पर एक निश्चित प्रतिशत से ज्यादा खर्च नहीं किया जाना चाहिए ताकि कत्तिनों और बुनकरों के श्रम की कीमत इन फिजूल के खर्चों में न जाए तथा कत्तिनों और बुनकरों को ज्यादा लाभ दिया जा सके । दिक्कत यह है कि जो सरकार बुनकर और कत्तिन विरोधी कपड़ा नीति अपनाती है वह खादी का क्ल्याण करे यह कैसे मुमकिन है ? विदेशी वित्तीय एजेन्सी पर अवलम्बन स्वावलम्बन के अस्त्र का पराभव है ? लगता है खादी वालों को विनोबा के सूत्र के सहारे अब चलाना होगा – अ-सरकारी = असरकारी । खादी की मूल भावना के प्रचार से सरकार क्यों भाग रही है ?

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