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Posts Tagged ‘गांधीजी’

कौन भूल सकता है कानपुर के उस भीषण नर-संहारकारी हिन्दू मुस्लिम दंगे को? बीसीयों मंदिर और मस्जिदें तोड़ी और जलाई गईं, हजारों मकान और दुकानें लुटीं और भस्मीभूत हुईं। लगभग 75 लाख की सम्पत्ति स्वाहा हो गई, करीब 500 से भी ऊपर आदमी मरे और हजारों घायल हुए। कितनी माताओं के लाल, काल के गाल में समा गए, कितनी युवतियों की माँग का सिन्दूर धुल गया, हाथ की चूड़ियाँ फूट गईं, कितने फूल से कोमल और गुलाब से आकर्षक नवजात शिशु और बच्चे मूली-गाजर की तरह काट डाले गये और कितने मातृ-पितृहीन होकर निराश्रित और निःसहाय बन गए। कितने लखपति, भिखारी बन गये। ऐसा भंयकर, ऐसा सर्वनाशकारी, ऐसा आतंकपूर्ण था कानपुर का वह दंगा! परंतु यह सब होते हुए भी इसका नाम चिरस्थायी न होता, यदि गणेशशंकर विद्यार्थी आत्माहुति देकर, हिन्दू-मुसलमानों के लिए एक महान और सर्वथा अनुकरणीय आदर्श उपस्थित न कर जाते।

      चार दिन तक कानपुर में कोई व्यवस्था, कोई कानून न था, अंग्रेजी राज्य, चार दिन के लिए मानों खत्म हो गया था। कोई किसी को पूछने वाला न था। हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे। दोनों अपनी मानवता भूलकर राक्षसीपन पर उतर पड़े थे। धर्म और मज़हब के नाम पर परमात्मा और खुदा का नाम लजाया जा रहा था। क्या बच्चा, क्या वृद्ध, क्या पुरूष और क्या स्त्री, किसी का भी जीवन सुरक्षित न था। हिन्दू मोहल्लों में मुसलमान और मुसलमान मोहल्लों में हिन्दू लूटे-मारे, जलाए और कत्ल किये जा रहे थे। ऐसे कठिन समय में बड़े-बड़े मर्दाने वीर भी आगे बढ़ने से हिचक रहे थे। पर उस वीर से न रहा गया, वह आग में कूद पड़ा और अपने को हिन्दू-मुस्लिम एकता की वेदी पर, परोपकारिता के उच्च आदर्श पर, सैकड़ों स्त्री-पुरूषों की प्राणरक्षा करने की लगन पर, मनुष्यता पर और सबसे अधिक अपने जीवन की अन्याय तथा अत्याचार विरोधी उत्कृष्ट भावना पर निछावर हो गया! वह वीर था गणेशशंकर विद्यार्थी।

       24 मार्च मंगलवार 1931 को कानपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा शुरू हुआ। विद्यार्थी  जी निकले और झगड़े के स्थानों में पहुँचकर लोगों को शान्त करने, उनकी प्राण-रक्षा करने और उनके मकानों और दुकानों को जलने एवं लूटे जाने से बचाने की कोशिश करने लगे। शाम तक वह इसी धुन में मारे-मारे फिरते रहे। लोगों को बचाते वक्त उनके पैरों में कुछ चोटें र्भी आईं। उस दिन पुलिस का जो रवैया उन्होंने देखा, उससे वे समझ गए कि पुलिस घोर पक्षपात और उपेक्षा से काम ले रही है। ऐसी दशा में लोगों के जान-माल की रक्षा के लिए पुलिस के पास जाना बिलकुल व्यर्थ है।

        उस रात और अगले दिन सुबह, दंगे का रूप और भी भीषण हो गया और चारों तरफ से लोगों के मरने, घायल होने, मकानों के जलाए और दुकानों के लूटे जाने की खबरें आने लगीं। इन लोमहर्षक समचारों को सुनकर विद्यार्थी जी का दयापूर्ण और परोपकारी हृदय पिघल उठा और वे नौ बजे सुबह सिर्फ थोड़ा-सा दूध पीकर लोगों को बचाने के लिए चल पड़े। उनकी धर्मपत्नी ने जाते समय कहा- “कहाँ इस भयंकर दंगे में जाते हो?“ उन्होंने जवाब दिया-“तुम व्यर्थ घबराती हो। जब मैंने किसी का बुरा नहीं की तब मेरा कोई क्या बिगाड़ेगा? ईश्वर मेरे साथ है।“

       शुरू में उनको पटकापुर वाले ले गए और वहाँ के करीब 50 आदमियों को उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर भेजा। वहाँ से वे बंगाली मोहल्ला और फिर इटावा-बाजार पहुँचे। लगभग 3 बजे वे इन दोनों मोहल्लों के मुसलमानों को धधकते और गिरते हुए मकानों से निकाल-निकलाकर उनके इच्छित स्थानों को भेजते रहे। इस प्रकार करीब 150 मुसलमान स्त्री, पुरूष और बच्चों को उन्होंने वहाँ से बचाया। कितने ही मुसलमानों को तो उन्होंने और कोई सुरक्षित जगह न देखकर, अपने विश्वासी हिन्दू मित्रों के यहाँ रखकर उनकी जान बचाई।

       उस समय जिन्होंने उन्हें देखा यही देखा कि विद्यार्थी जी अपना डेढ़ पसली का दुबला-पतला शरीर लिए नंगे पाँव, नंगे सिर, सिर्फ एक कुर्ता पहने, बिना कुछ खाए-पिए, बड़ी मुस्तैदी और लगन के साथ घायलों और निःसहायों को बचाने में व्यस्त थे। किसी को कन्धे पर उठाये हुए हैं और तो किसी को गोदी में लिए अपनी धोती से उसका खून पोंछ रहे हैं।

       इसी बीच उनसे लोगों ने मुसलमानी मोहल्लों में हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों का हाल कहा। यह जानते हुए भी कि जहाँ की बात कही जा रही है, वहाँ मुसलमान रहते हैं और वे इस समय बिलकुल धर्मान्ध होकर पशुता का ताण्डव-नृत्य कर रहे हैं, विद्यार्थी जी निर्भीकता के साथ उधर चल पडे़। रास्ते से उन्होंने मिश्री बाजार और मछली बाजार के कुछ हिन्दुओं को बचाया और वहाँ से चौबे-गोला गए। वहाँ पर विपत्ति में फँसे हुए बहुत से हिन्दुओं को उन्होंने निकलवाकर सुरक्षित स्थानों में भेजा और औरों के विषय में पूछ ही रहे थे कि मुसलमानों ने उन पर और उनके साथ के स्वयंसेवकों पर हमला करना चाहा। इस समय उनके साथ दो हिन्दू और एक मुसलमान स्वयंसेवक थे। मुसलमान स्वयंसेवक संघ के यह कहने पर कि “पण्डित जी को क्यों मारते हो, इन्होंने तो सैकड़ों मुसलमानों को बचाया है,“ भीड़ ने उन्हें छोड़ दिया। इसके थोड़ी ही देर बाद मुसलमानों के एक दूसरे गिरोह का एक आदमी आगे बढ़ा। मुसलमान स्वयंसेवक ने उसे भी समझाया कि “पण्डितजी ने सैकड़ों मुसलमान भाईयों को बचाया है, इन पर वार न करो“, पर उसने इस पर विश्वास न किया और भीड़ को विद्यार्थी जी को मारने का इशारा कर दिया। इसी समय कोई एक सज्जन विद्यार्थी जी को बचाने की गरज से उन्हे गली की ओर खींचने लगे। इस पर विद्यार्थी जी ने उनसे कहा- “क्यों घसीटते हो मुझे? मैं भागकर जान नहीं बचाऊँगा। एक दिन मरना तो है ही। अगर मेरे मरने से ही इन लोगों के हृदय की प्यास बुझती हो, तो अच्छा है कि मैं यहीं अपना कर्तव्य पालन करते हुए आत्मसमर्पण कर दूँ।“ विद्यार्थी जी यह कह ही रहे थे कि चारों ओर से उन पर और स्वयंसेवकों पर मुसलमान लोग टूट पड़े। लाठियाँ भी चलीं, छुरे भी चले और न जाने किन-किन अस्त्रों के वार हुए। मुसलमान स्वयंसेवक को थोड़ी मार के बाद मुसलमान होने की वजह से छोड़ दिया गया। दोनों हिन्दू स्वयंसेवक बुरी तरह घायल हुए। इनमें श्री ज्वालादत्त नामक एक स्वयंसेवक तो वहीं स्वर्गवासी हुए, पर दूसरे की जान बच गई।

       विद्यार्थी जी को कितनी चोटें लगीं, उनकी मृत्यु कितनी देर बाद हुई और वहाँ से उनकी लाश कब कौन, कहाँ ले गया, इसका कुछ भी ठीक-ठीक पता आज तक नहीं चला।

       दूसरे दिन दो-चार व्यक्तियों के कथन से भी विद्यार्थी जी के चौबे-के-गला नामक स्थान पर जाने और वहाँ मुसलमानों की भीड़ से घिरने की बात का पता लगता है और इसी निश्चय पर पहुंचना पड़ता है कि वहीं पर उन धर्मान्ध मुसलमानों के उन पर वार हुए और वहीं उनके प्राण पखेरू उड़ गए। मरने के बाद मुसलमानों ने उन्हें शीघ्र ही वहाँ से हटाकर किसी मकान में छिपा दिया और दो-तीन दिन बाद, जबकि लाश फूलकर बहुत बदसूरत हो गई और पहचाने जाने लायक नहीं रही, तब उन्होंने उसे किसी प्रकार और लाशों के साथ मिलाकर अस्पताल में भेज दिया।

       27 मार्च को एकाएक पता चला कि अस्पताल में जो बहुत-सी लाशें पड़ी हुई हैं उनमें एक के विद्यार्थी जी की लाश होने का सन्देह है। तुरंत प. शिवनारायण मिश्र और डॉ. जवाहरलाल वहाँ पहुँचे और यद्यपि लाश फूलकर काली पड़ गई थी, बहुत कुरूप हो गयी थी, फिर भी उन्होंने उनके खद्दर के कपड़े, उनके अपने ढंग के निराले बाल और हाथ में खुदे हुए ‘गजेन्द्र’ नाम आदि देखकर पहचान लिया कि दरअसल वह विद्यार्थी जी ही की लाश थी। उनका कुर्ता अभी तक उनके शरीर पर था और उनकी जेब से तीन पत्र भी निकले, जो लोगों ने विद्यार्थी जी को लिखे थे।

       इस प्रकार विद्यार्थी जी ने अत्यन्त गौरवमय मृत्यु-जो हममें से शायद ही किसी को कभी नसीब हो-प्राप्त की । न जाने कितनों को वह अनाथ करके, निराश्रित बनाकर, रूलाकर, चले गए। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी के शब्दों में वास्तव में-“आज उस दीनबन्धु के लिए किसान रो रहे हैं। कौन उनकी उदर-ज्वाला को शान्त करने के लिए स्वयं आग में कूद पड़ेगा? मजदूर पछता रहे हैं। कौन उन पीड़ितों का संगठन करेगा? मवेशीखानों से भी बदतर देशी राज्यों के निवासी आज अश्रुपात कर रहे हैं। कौन उन मूक पशुओं को वाणी प्रदान करेगा? ग्रामीण अध्यापक रूदन कर रहे है। कौन उन्हें आश्रय देकर स्वयं आफत में फँसेगा, उनके कन्धे से कन्धा मिलाकर स्वातंत्रय-संग्राम में आगे बढे़गा? और एक कोने में पडे़ हुए उनके कुछ पत्रकार बन्धु भी अपने  को निराश्रित पाकर चुपचाप आँसू बहा रहे हैं आपातकाल में कौन उन्हें सहारा देगा? किससे वे दिल खोलकर बाते कहेगे; किसे वे अपना बड़ा भाई समझेंगे और कौन अपने छोटे भाईयों का इतना ख्याल रखेगा?“

विद्यार्थी जी के निधन का समाचार मालूम होने पर 27 मार्च को कराँची कांग्रेस की विषय-निर्धारिणी समिति में इसका उल्लेख करते हुए महात्मा गाँधी ने बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों मे इस प्रकार कहा थाः

       ‘श्री गणेशशंकर विद्यार्थी एक मूर्तिमान संस्था थे। ऐसे मौके पर उनकी मृत्यु का होना एक बड़ी दुःखद बात है; वे हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे का सिर तोड़ने से बचाते हुए मरे। अब समय आ गया है कि हिन्दू और मुसलमान इस प्रश्न की महत्ता को महसूस करें और ऐसे दंगे के मूल कारण का अन्त करने की कोशिश करें।’

       यंग इण्डिया में महात्मा जी ने विद्यार्थी जी के बलिदान के बाद निम्नलिखित टिप्पणी लिखी थी।

       “गणेशशंकर विद्यार्थी को ऐसी मृत्यु मिली जिस पर हम सबको स्पर्द्धा हो। उनका खून अन्त में दोनों मज़हबों को आपस में जोड़ने के लिए सीमेण्ट का काम करेगा। कोई समझौता हमारे हृदयों को आपस में नहीं जोड़ सकता। पर गणेशशंकर विद्यार्थी ने जिस वीरता का परिचय दिया है, वह अन्त में पत्थर से पत्थर हृदय को भी पिघला देगी; और पिघला कर मिला देगी।“

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राजनाथ सिंह संसद में बोल चुके हैं कि गांधीजी ने संघ की प्रशंसा की थी।संघ के जिस कार्यक्रम का राजनाथ सिंह ने दिया था उसका तफसील से ब्यौरा गांधीजी के सचिव प्यारेलाल ने ‘पूर्णाहुति’ में दिया है।पूर्णाहुति के प्रकाशन और प्यारेलाल की मृत्यु के बीच दशकों का अंतराल था।इस अंतराल में संघियों की तरफ से कुछ नहीं आया।लेख नीचे पढ़िए।
गांधी अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ते रहे किंतु अपने माफीनामे के अनुरूप सावरकर ने अंडमान से लौट कर कुछ नहीं कहा।नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जब सावरकर से सहयोग मांगा तब सावरकर ने सहयोग से इनकार करते हुए कहा कि मैं इस वक्त हिंदुओं को ब्रिटिश फौज में भर्ती करा कर शस्त्र प्रशिक्षण कराने में लगा हूँ।नेताजी द्वारा खुद लिखी किताब The Indian Struggle में इस प्रसंग का वर्णन दिया हुआ है।
सावरकर 1966 में मरे जनसंघ की 1951 में स्थापना हो चुकी थी।15 साल जनसंघियों ने उपेक्षा की?
गांधी हत्या के बाद जब संघ प्रतिबंधित था और सावरकर गांधी हत्या के आरोप में बंद थे तब संघ ने उनसे दूरी बताते हुए हिन्दू महासभा में सावरकर खेमे को हत्या का जिम्मेदार बताया था।
गांधीजी की सावरकर से पहली भेंट और बहस इंग्लैंड में हो चुकी थी। हिन्द स्वराज में हिंसा और अराजकता में यकीन मानने वाली गिरोह से चर्चा का हवाला उन्होंने दिया है।
बहरहाल सावरकर और गांधी पर हांकने वाले राजनाथ सिंह का धोती-जामा फाड़ने के इतिहास का मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ।फाड़ने वाले मनोज सिन्हा के समर्थक थे।
राजनाथ सिंह प्यारेलाल , नेताजी और बतौर गृह मंत्री सरदार पटेल से ज्यादा भरोसेमंद हैं?

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इस रचनात्मक कार्यक्रम में सभी बातों का समावेश नहीं हुआ है।स्वराज की इमारत एक जबरदस्त चीज है,जिसे बनाने में अस्सी करोड़ हाथों को काम करना है।इन बनाने वालों में किसानों की यानी खेती करनेवालों की तादाद सबसे बड़ी है।सच तो यह है कि स्वराज की इमारत बनाने वालों में ज्यादातर ( करीब 80 फीसदी) वही लोग हैं,इसलिए असल में किसान ही कांग्रेस है ऐसी हालत पैदा होनी चाहिए।आज ऐसी बात नहीं है।लेकिन जब किसान को अपनी अहिंसक ताकत का खयाल हो जायगा,तो दुनिया की कोई हुकूमत उनके सामने टिक नहीं सकेगी।

जो किसानों या खेतीहरों को संगठित करने का मेरा तरीका जानना चाहते हैं,उन्हें चंपारन के सत्याग्रह की लड़ाई का अध्ययन करने से लाभ होगा।हिंदुस्तान में सत्याग्रह का पहला प्रयोग चंपारन में हुआ था। उसका नतीजा कितना अच्छा निकला,यह सारा हिंदुस्तान भलीभांति जानता है। चंपारन का आंदोलन आम जनता का आंदोलन बन गया था और वह बिल्कुल शुरु से लेकर अखीर तक पूरी तरह अहिंसक रहा था। उसमें कुल मिलाकर कोई बीस लाख से भी ज्यादा किसानों का संबंध था।सौ साल पुरानी एक खास तकलीफ को मिटाने के लिए यह लड़ाई छेड़ी गई थी।इसी शिकायत को दूर करने के लिए पहले कई खूनी बगावतें हो चुकी थीं।किसान बिल्कुल द्सबास दिए गए थे।मगर अहिंसक उपाय वहां छह महीनों के अंदर पूरी तरह सफल हुआ।किसी तरह का सीधा राजनीतिक आंदोलन या राजनीति के प्रत्यक्ष प्रचार की मेहनत किए बिना ही चंपारन के किसानों में राजनीतिक जागृति पैदा हो गई।

……… इनके सिवा,खेड़ा,बारडोली और बोरसद में किसानों ने जो लड़ाइयां लड़ीं,उनके अध्ययन से भी पाठकों को लाभ होगा।किसान -संगठन की सफलता का रहस्य इस बात में है कि किसानों की अपनी जो तकलीफें हैं,जिन्हें वे समझते और बुरी तरह महसूस करते हैं,उन्हें दूर कराने के सिवा दूसरे किसी भी राजनीतिक हेतु से उनके संगठन का दुरुपयोग न किया जाए।किसी एक निश्चित अन्याय या शिकायत के कारण को दूर करने के लिए संगठित होने की बात वे झट समझ लेते हैं।उनको अहिंसा का उपदेश करना नहीं पडता।अपनी तकलीफों के एक कारगर इलाज के रूप में वे अहिंसा को समझकर उसे आजमा लें और फिर उनसे कहा जाए कि उन्होंने जिसे आजमाया है वही अहिंसक पद्धति,तो वे फौरन ही अहिंसा को पहचान लेते हैं और उसके रहस्य को समझ जाते हैं।

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अफलातून

जनसत्ता 15 अगस्त, 2014 : गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने राज्यसभा में कहा, ‘मत भूलिए कि महात्मा गांधी, जिनको हम आज भी अपना पूज्य मानते हैं, जिन्हें हम राष्ट्रपिता मानते हैं,

उन्होंने भी आरएसएस के कैंप में जाकर ‘संघ’ की सराहना की थी।’

1974 में ‘संघ’ वालों ने जयप्रकाशजी को बताया था कि गांधीजी अब उनके ‘प्रात: स्मरणीयों’ में एक हैं। संघ के काशी प्रांत की शाखा पुस्तिका क्रमांक-2, सितंबर-अक्तूबर, 2003 में अन्य बातों के अलावा गांधीजी के बारे में पृष्ठ 9 पर लिखा गया है: ‘‘देश विभाजन न रोक पाने और उसके परिणामस्वरूप लाखों हिंदुओं की पंजाब और बंगाल में नृशंस हत्या और करोड़ों की संख्या में अपने पूर्वजों की भूमि से पलायन, साथ ही पाकिस्तान को मुआवजे के रूप में करोड़ों रुपए दिलाने के कारण हिंदू समाज में इनकी प्रतिष्ठा गिरी।’’ संघ के कार्यक्रमों के दौरान बिकने वाले साहित्य में ‘गांधी वध क्यों?’ नामक किताब भी होती है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और समाचार-पत्रों द्वारा दंगों की रिपोर्टिंग की बाबत खुद गांधीजी का ध्यान खींचा जाता रहा और उन्होंने इन विषयों पर साफगोई से अपनी राय रखी। विभाजन के बाद संघ के कैंप में गांधीजी के जाने का विवरण उनके सचिव प्यारेलाल ने अपनी पुस्तक ‘पूर्णाहुति’ में दिया है। इसके पहले, 1942 से ही संघ की गतिविधियों को लेकर गांधीजी का ध्यान उनके साथी खींचते रहते थे। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन अध्यक्ष आसफ अली ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों के बारे में प्राप्त एक शिकायत गांधीजी को भेजी और लिखा था कि वे शिकायतकर्ता को नजदीक से जानते हैं, वे सच्चे और निष्पक्ष राष्ट्रीय कार्यकर्ता हैं।

9 अगस्त, 1942 को हरिजन (पृष्ठ: 261) में गांधीजी ने लिखा: ‘‘शिकायती पत्र उर्दू में है। उसका सार यह है कि आसफ अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) उसके तीन हजार सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैं, कवायद के बाद नारा लगाते हैं- हिंदुस्तान हिंदुओं का है और किसी का नहीं। इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैं, जिनमें वक्ता कहते हैं- ‘पहले अंगरेजों को निकाल बाहर करो उसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे, अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हें मार डालेंगे।’ बात जिस ढंग से कही गई है, उसे वैसे ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषय-वस्तु तो और भी बुरी है।

‘‘नारा गलत और बेमानी है, क्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा।

‘‘धर्म एक निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गई है, उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गए हैं। जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी, तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे। अगर अंगरेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होने वाली हो तो अंगरेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता। वह स्वराज्य नहीं होगा।’’

गांधीजी विभाजन के बाद हुए व्यापक सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ ‘करो या मरो’ की भावना से दिल्ली में डेरा डाले हुए थे। 21 सितंबर ’47 को प्रार्थना-प्रवचन में ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ के संदर्भ में उन्होंने टिप्पणी की: ‘‘एक अखबार ने बड़ी गंभीरता से यह सुझाव रखा है कि अगर मौजूदा सरकार में शक्ति नहीं है, यानी अगर जनता सरकार को उचित काम न करने दे, तो वह सरकार उन लोगों के लिए अपनी जगह खाली कर दे, जो सारे मुसलमानों को मार डालने या उन्हें देश निकाला देने का पागलपन भरा काम कर सके। यह ऐसी सलाह है कि जिस पर चल कर देश खुदकुशी कर सकता है और हिंदू धर्म जड़ से बरबाद हो सकता है। मुझे लगता है, ऐसे अखबार तो आजाद हिंदुस्तान में रहने लायक ही नहीं हैं। प्रेस की आजादी का यह मतलब नहीं कि वह जनता के मन में जहरीले विचार पैदा करे। जो लोग ऐसी नीति पर चलना चाहते हैं, वे अपनी सरकार से इस्तीफा देने के लिए भले कहें, मगर जो दुनिया शांति के लिए अभी तक हिंदुस्तान की तरफ ताकती रही है, वह आगे से ऐसा करना बंद कर देगी। हर हालत में जब तक मेरी सांस चलती है, मैं ऐसे निरे पागलपन के खिलाफ अपनी सलाह देना जारी रखूंगा।’’

प्यारेलाल ने ‘पूर्णाहुति’ में सितंबर, 1947 में संघ के अधिनायक गोलवलकर से गांधीजी की मुलाकात, विभाजन के बाद हुए दंगों और गांधी-हत्या का विस्तार से वर्णन किया है। प्यारेलालजी की मृत्यु 1982 में हुई। तब तक संघ द्वारा इस विवरण का खंडन नहीं हुआ था।

गोलवलकर से गांधीजी के वार्तालाप के बीच में गांधी मंडली के एक सदस्य बोल उठे- ‘संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है। उन्होंने अनुशासन, साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है।’ गांधीजी ने उत्तर दिया- ‘पर यह न भूलिए कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था।’ उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया। (पूर्णाहुति, चतुर्थ खंड, पृष्ठ: 17)

अपने एक सम्मेलन (शाखा) में गांधीजी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता

गोलवलकर ने उन्हें ‘हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ बताया। उत्तर में गांधीजी बोले- ‘‘मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य है। पर मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी। हिंदू धर्म की विशिष्टता जैसा मैंने समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है। यदि हिंदू यह मानते हों कि भारत में अहिंदुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दरजे से संतोष करना होगा- तो इसका परिणाम यह होगा कि हिंदू धर्म श्रीहीन हो जाएगा… मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा।’’

इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उन२में गांधीजी से पूछा गया- ‘क्या हिंदू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता? यदि नहीं देता, तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है, उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है?’

गांधीजी ने कहा- ‘‘पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है। मारने का प्रश्न खड़ा होने से पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आतताई कौन है? दूसरे शब्दों में, हमें ऐसा अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जाएं। एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने या फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है? रही बात दूसरे प्रश्न की। यह मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है, तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भलीभांति कर सकती है। अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद दोनों एक साथ बन जाएं, तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जाएंगे- उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए, कानून को अपने हाथों में लेकर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए।’’

तीस नवंबर ’47 के प्रार्थना प्रवचन में गांधीजी ने कहा: ‘‘हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार है कि हिंदुत्व की रक्षा का एकमात्र तरीका उनका ही है। हिंदू धर्म को बचाने का यह तरीका नहीं है कि बुराई का बदला बुराई से। हिंदू महासभा और संघ दोनों हिंदू संस्थाएं हैं। उनमें पढ़े-लिखे लोग भी हैं। मैं उन्हें अदब से कहूंगा कि किसी को सता कर धर्म नहीं बचाया जा सकता।’’

अखिल भारतीय कांग्रेस समिति को अपने अंतिम संबोधन (18 नवंबर ’47) में उन्होंने कहा, ‘‘मुझे पता चला है कि कुछ कांग्रेसी भी यह मानते हैं कि मुसलमान यहां न रहें। वे मानते हैं कि ऐसा होने पर ही हिंदू धर्म की उन्नति होगी। परंतु वे नहीं जानते कि इससे हिंदू धर्म का लगातार नाश हो रहा है। इन लोगों द्वारा यह रवैया न छोड़ना खतरनाक होगा… मुझे स्पष्ट यह दिखाई दे रहा है कि अगर हम इस पागलपन का इलाज नहीं करेंगे, तो जो आजादी हमने हासिल की है उसे हम खो बैठेंगे।… मैं जानता हूं कि कुछ लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस ने अपनी आत्मा को मुसलमानों के चरणों में रख दिया है, गांधी? वह जैसा चाहे बकता रहे! यह तो गया बीता हो गया है। जवाहरलाल भी कोई अच्छा नहीं है।

‘‘रही बात सरदार पटेल की, सो उसमें कुछ है। वह कुछ अंश में सच्चा हिंदू है। परंतु आखिर तो वह भी कांग्रेसी ही है! ऐसी बातों से हमारा कोई फायदा नहीं होगा, हिंसक गुंडागिरी से न तो हिंदू धर्म की रक्षा होगी, न सिख धर्म की। गुरु ग्रंथ साहब में ऐसी शिक्षा नहीं दी गई है। ईसाई धर्म भी ये बातें नहीं सिखाता। इस्लाम की रक्षा तलवार से नहीं हुई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में मैं बहुत-सी बातें सुनता रहता हूं। मैंने यह सुना है कि इस सारी शरारत की जड़ में संघ है। हिंदू धर्म की रक्षा ऐसे हत्याकांडों से नहीं हो सकती। आपको अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी। वह रक्षा आप तभी कर सकते हैं जब आप दयावान और वीर बनें और सदा जागरूक रहेंगे, अन्यथा एक दिन ऐसा आएगा जब आपको इस मूर्खता का पछतावा होगा, जिसके कारण यह सुंदर और बहुमूल्य फल आपके हाथ से निकल जाएगा। मैं आशा करता हूं कि वैसा दिन कभी नहीं आएगा। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि लोकमत की शक्ति तलवारों से अधिक होती है।’’

इन सब बातों को याद करना उस भयंकर त्रासदाई और शर्मनाक दौर को याद करना नहीं है, बल्कि जिस दौर की धमक सुनाई दे रही है उसे समझना है। गांधीजी उस वक्त भले एक व्यक्ति हों, आज तो उनकी बातें कालपुरुष के उद्गार-सी लगती और हमारे विवेक को कोंचती हैं। उस आवाज को तब न सुन कर हमने उसका गला घोंट दिया था। अब आज? आज तो आवाज भी अपनी है और गला भी! इस बार हमें पहले से भी बड़ी कीमत अदा करनी होगी।

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२ अक्टूबर ,१९५०,इंदौर,अपनी मृत्यु से तीन माह पूर्व सरदार पटेलने कहा – ‘हमारे नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू हैं। बापूने अपने जीवन-कालमें उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और उसकी घोषणा कर दी। बापूके तमाम सिपाहियोंका धर्म है कि वे बापूके आदेशका पालन करें।जो उस आदेशको हृदयपूर्वक उसी भावनासे स्वीकार नहीं करता , वह ईश्वरके सामने पापी सिद्ध होगा। मैं बेवफा सिपाही नहीं हूं। मैं जिस स्थान पर हूं उसका मुझे कोई ख्याल नहीं है। मैं इतना ही जानता हूं कि जहां बापूने मुझे रखा था वहीं अब भी मैं हूं ।”
(पूर्णाहुति,चतुर्थ खण्ड,पृष्ट४६५,ले. प्यारेलाल,नवजीवन प्रकाशन,अहमदाबाद)

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अपनी आवाज अपना गला ( दुनिया मेरे आगे )

Monday, 26 December 2011 06:10

अफलातून जनसत्ता 26 दिसंबर, 2011: हरे राम, हरे कृष्ण’ संप्रदाय द्वारा रूसी में अनूदित गीता पर रूस में आक्षेप लगाए गए हैं और उस पर प्रतिबंध लगाने की बात की गई है। विदेश मंत्री ने संसद और देश को आश्वस्त किया है कि वे रूस सरकार से इस मामले पर बात करेंगे। मामला पर-राष्ट्र का है। क्या भारत में ही इस पुस्तक को लेकर परस्पर विपरीत समझदारी नहीं है? यह मतभेद और संघर्ष सहिष्णु बनाम कट्टरपंथी का है। लोहिया ने इसे ‘हिंदू बनाम हिंदू’ कहा। उन्होंने गांधी-हत्या (हत्यारों की शब्दावली में ‘गांधी-वध’) को भी हिंदू बनाम हिंदू संघर्ष के रूप में देखा। देश के विभाजन के बाद एक बार गांधीजी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर में निमंत्रित किया गया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गीता के प्रति समझदारी भी उसी प्रसंग में गांधीजी के समक्ष प्रकट हुई थी। सरसंघचालक गोलवलकर ने गांधीजी का स्वागत करते हुए उन्हें ‘हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ बताया। उत्तर में गांधीजी बोले- ‘मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य है, लेकिन मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी हैं। हिंदू धर्म की विशिष्टता, जैसा मैंने उसे समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है। अगर हिंदू यह मानते हों कि भारत में अ-हिंदुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दर्जे से संतोष करना होगा तो इसका परिणाम यह होगा कि हिंदू धर्म श्रीहीन हो जाएगा। मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही है कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा।’
गोलवलकर से गांधीजी के वार्तालाप के बीच में गांधी-मंडली के एक सदस्य बोल उठे- ‘संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है। उन्होंने अनुशासन, साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है।’ गांधीजी ने उत्तर दिया- ‘लेकिन यह न भूलिए कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था।’ उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया।

(पूर्णाहुति, चतुर्थ खंड, पृष्ठ- 17) इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उसमें गांधीजी से पूछा गया- ‘क्या हिंदू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता? अगर नहीं देता तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है, उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है?’ गांधीजी ने कहा- ‘पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है। मारने का प्रश्न खड़ा होने के पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है? दूसरे शब्दों में- हमें ऐसा अधिकार मिल सकता है, जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जाएं। एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने या फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है? रही बात दूसरे प्रश्न की, तो यह मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है, तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भली-भांति कर सकती है। अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद, दोनों एक साथ बन जाएं तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जाएंगे। उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए। कानून को अपने हाथों में लेकर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए।’ (संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड: 89)
आध्यात्मिक सत्य को समझाने के लिए कई बार भौतिक दृष्टांत की आवश्यकता पड़ती है। यह भाइयों के बीच लड़े गए युद्ध का वर्णन नहीं है, बल्कि हमारे स्वभाव में मौजूद ‘भले’ और ‘बुरे’ के बीच की लड़ाई का वर्णन है। मैं दुर्योधन और उसके दल को मनुष्य के भीतर की बुरी अंत:प्रेरणा और अर्जुन और उसके दल को उच्च अंत:प्रेरणा मानता हूं। हमारी अपनी काया ही युद्ध-भूमि है। इन दोनों खेमों के बीच आंतरिक लड़ाई चल रही है और ऋषि-कवि उसका वर्णन कर रहे हैं। अंतर्यामी कृष्ण, एक निर्मल हृदय में फुसफुसा रहे हैं। गांधीजी तब भले ही एक व्यक्ति हों, आज तो उनकी बातें कालपुरुष के उद्गार-सी लगती हैं और हमारे विवेक को कोंचती हैं। उस आवाज को तब न सुन कर हमने उसका ही गला घोंट दिया था। अब आज? आज तो आवाज भी अपनी है और गला भी अपना!

गांधी जी और संघ

जनसत्ता 29 दिसंबर, 2011: अपनी आवाज अपना गला’ (दुनिया मेरे आगे, 26 दिसंबर) में अफलातून जी ने कुछ तथ्यों को सही संदर्भों के साथ प्रस्तुत नहीं किया है। इसमें संघ-द्वेष से आपूरित पूर्वग्रह की झलक मिलती है। देश विभाजन के बाद गांधीजी किसी संघ शिविर में नहीं गए थे। दिल्ली में भंगी बस्ती की शाखा में उन्हें 16 सितंबर, 1947 को आमंत्रित किया गया था। आमंत्रित करने वाले व्यक्ति सरसंघचालक गोलवलकर नहीं, बल्कि दिल्ली के तत्कालीन प्रांत प्रचारक वसंत राव ओक थे। गांधीजी सदैव खुद को गौरवशाली सनातनी हिंदू कहते थे। वसंत राव ओक ने शाखा पर गांधीजी का परिचय ‘हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ कह कर करवाया। गांधीजी ने इस परिचय पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
गोलवलकर से गांधीजी की बातचीत का वर्णन अफलातून जी ने ‘पूर्णाहुति’ का संदर्भ देकर किया है। इस मुलाकात का गांधी संपूर्ण वांग्मय में दो बार जिक्र है। पहला, 21 सितंबर, 1947 को प्रार्थना-प्रवचन में- ‘अंत में गांधीजी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुरु (गोलवलकर) से अपनी और डॉ दिनशा मेहता की बातचीत का जिक्र करते हुए कहा कि मैंने सुना था कि इस संस्था के हाथ भी खून से सने हुए हैं। गुरुजी ने मुझे आश्वासन दिलाया कि यह बात झूठ है। उनकी संस्था किसी की दुश्मन नहीं है। उसका उद्देश्य मुसलमानों की हत्या करना नहींं है। वह तो सिर्फ अपनी सामर्थ्य भर हिंदुस्तान की रक्षा करना चाहती है। उसका उद्देश्य शांति बनाए रखना है। उन्होंने (गुरुजी ने) मुझसे कहा कि मैं उनके विचारों को प्रकाशित कर दूं।’
इसका जिक्र गांधीजी ने भंगी बस्ती की शाखा पर अपने भाषण में किया- ‘कुछ दिन पहले ही आपके गुरुजी से मेरी मुलाकात हुई थी। मैंने उन्हें बताया था कि कलकत्ता और दिल्ली में संघ के बारे में क्या-क्या शिकायतें मेरे पास आई थीं। गुरुजी ने मुझे आश्वासन दिया कि हालांकि संघ के प्रत्येक सदस्य के उचित आचरण की जिम्मेदारी नहीं ले सकते, फिर भी संघ की नीति हिंदुओं और हिंदू धर्म की सेवा करना मात्र है और वह भी किसी दूसरे को नुकसान पहुंचा कर नहीं। संघ आक्रमण में विश्वास

नहीं रखता। अहिंसा में उसका विश्वास नहीं है। वह आत्मरक्षा का कौशल सिखाता है। प्रतिशोध लेना उसने कभी नहीं सिखाया।’
इस मुलाकात का जैसा वर्णन अफलातून जी ने किया है और अंत में लिखा है कि ‘उन्होंने (गांधीजी ने) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया।’ ये विचार प्यारेलाल जी के हो सकते हैं, गांधीजी के नहीं। गांधीजी ने अपने भाषण में जो संघ के विषय में कहा, वह इस प्रकार है- ‘संघ एक सुसंगठित और अनुशासित संस्था है। उसकी शक्ति भारत के हित में या उसके खिलाफ प्रयोग की जा सकती है। संघ के खिलाफ जो आरोप लगाए जाते हैं, उनमें कोई सच्चाई है या नहीं, यह संघ का काम है कि वह अपने सुसंगत कामों से इन आरोपों को झूठा साबित कर दे।’
अफलातून जी ने लिखा है- ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गीता के प्रति समझदारी भी उसी प्रसंग में गांधीजी के समक्ष प्रकट हुई।’ इसका भी वर्णन संपूर्ण वांग्मय में है। किसी संघ अधिकारी ने गीता के संदर्भ में वहां कुछ भी नहीं कहा था। एक स्वयंसेवक ने गांधीजी द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के संदर्भ में गीता का हवाला देते हुए यह पूछा था- ‘गीता के दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण कौरवों का नाश करने के लिए जो उपदेश देते हैं, उसकी आप किस तरह व्याख्या करेंगे?’ गांधीजी ने स्वयंसेवक की समझदारी पर कोई सवाल नहीं उठाया, संजीदगी से जवाब दिया- ‘… पापी को सजा देने के अधिकार की जो बात गीता में कही गई है, उसका प्रयोग तो केवल सही तरीके से गठित सरकार ही कर सकती है।’ बाद में गांधीजी ने आग्रह किया कि कानून को अपने हाथ में लेकर सरकारी प्रयत्नों में बाधा न डालें।
लेख के अंत में गीता के अर्थ का जो आध्यात्मिक आयाम अफलातून जी ने प्रस्तुत किया है, उस पर किसी को आपत्ति नहीं होगी। अनावश्यक रूप से संघ को बदनाम करने और घृणा फैलाने के प्रयासों को जब इन आयामों में मिश्रित किया जाता है, तब हम समाज की सेवा नहीं, बल्कि उसका नुकसान कर रहे होते हैं।
’महेश चंद्र शर्मा, (पूर्व सांसद), द्वारका, नई दिल्ली

प्रार्थना-प्रवचन , दिल्ली, चित्र में एम.एस. सुब्बलक्ष्मी भी

प्रार्थना-प्रवचन , दिल्ली, चित्र में एम.एस. सुब्बलक्ष्मी भी

खुले मन की जरूरत

जनसत्ता 30 दिसंबर, 2011: जिस तरह महेश चंद्र शर्मा जी ने ‘संघ’ के बचाव में गांधीजी के निकट के साथी, सचिव और जीवनीकार प्यारेलाल जी पर लांछन लगाया है, वह ‘संघ’ के गोयबल्सवादी तौर-तरीके से मेल खाता है। संपूर्ण गांधी वांग्मय में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के दौरान छेड़छाड़ की गई थी, उस पर यूपीए-एक सरकार ने वरिष्ठ सर्वोदयकर्मी नारायण देसाई की अध्यक्षता में जांच समिति गठित की थी। जांच समिति ने शोधकर्मियों द्वारा लगाए गए छेड़छाड़ के सभी आरोप सही पाए थे और उक्त संस्करण की पुस्तकों और सीडी की बिक्री पर तत्काल रोक लगाने और असंशोधित मूल रूप की ही बिक्री करने की संस्तुति की थी। बहरहाल, जितनी तफसील में इस विषय पर लिखा जा सकता है, उसका मोह न कर मैं इतिहास-क्रम में उलटा जाते हुए सिर्फ ठोस प्रसंगों को रखूंगा।
गांधी को ‘संघ’ के प्रात:-स्मरणीयों में शरीक करने की चर्चा हम महेश जी, प्रबाल जी, अशोक भगत जी, रामबहादुर जी जैसे स्वयंसेवकों से जेपी आंदोलन के दौर (1974-75) से सुनते आ रहे थे। सितंबर और अक्टूबर 2003 में प्रकाशित संघ के काशी प्रांत की शाखा पुस्तिका मेरे हाथ लग गई। स्मरणीय दिवसों में गांधी जयंती के विवरण में ‘देश विभाजन न रोक पाने और उसके परिणामस्वरूप लाखों हिंदुओं की पंजाब और बंगाल में नृशंस हत्या और करोड़ों की संख्या में अपने पूर्वजों की भूमि से पलायन, साथ ही पाकिस्तान को मुआवजे के रूप में करोड़ों रुपए दिलाने के कारण हिंदू समाज में इनकी प्रतिष्ठा गिरी।’ संघ के साहित्य-बिक्री पटलों पर ‘गांधी-वध क्यों’ नामक पुस्तक में ‘वध’ के ये कारण ही बताए गए हैं।
संघ की शाखा में गांधीजी के जाने की तारीख के उल्लेख में अपनी चूक मैं स्वीकार करता हूं। प्यारेलाल जी द्वारा लिखी जीवनी ‘महात्मा गांधी दी लास्ट फेस’ पर महेश जी ने पूर्वाग्रह का आरोप लगाया है। इसलिए दिल्ली डायरी, प्रार्थना प्रवचन और गांधी द्वारा संपादित पत्रों से ही उद्धरण पेश हैं।
गीता की बाबत दिया गया उद्धरण संपूर्ण गांधी वांग्मय (खंड 89) में मौजूद है।
‘अगस्त क्रांति-दिवस’ (9 अगस्त, 1942) को प्रकाशित ‘हरिजन’

(पृष्ठ 261) में गांधीजी ने लिखा- ‘शिकायती पत्र उर्दू में है। उसका सार यह है कि आसफ अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) उसके 3,000 सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैं, कवायद के बाद नारा लगाते हैं- हिंदुस्तान हिंदुओं का है और किसी का नहीं। इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैं, जिनमें वक्ता कहते हैं- ‘पहले अंग्रेजों को निकाल बाहर करो, उसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे। अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हें मार डालेंगे।’ बात जिस ढंग से कही गई है, उसे वैसी ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषय-वस्तु तो और भी बुरी है।
नारा गलत और बेमानी है, क्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा, और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा।
धर्म एक निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गई है, उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गए हैं। जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे। अगर अंग्रेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होने वाली हो तो अंग्रेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता। वह स्वराज्य नहीं होगा।’
महेश जी खुले दिमाग से तथ्यों को आत्मसात करें और ‘प्रात: स्मरणीय’ के पक्ष से परेशान न हों।
’अफलातून, काहिवि, वाराणसी

अप्रासंगिक विषय

चौपाल’ (30 दिसंबर) में अफलातून का जवाब पढ़ा।  उन्होंने अप्रासंगिक विषयों को अपने पत्र में उठाया है, जैसे गांधी संपूर्ण वांग्मय से राजग सरकार ने छेड़छाड़ की और संघ ने महात्मा गांधी का नाम कैसे ‘प्रात: स्मरण’ में जोड़ा। इन मुद्दों का न तो मेरे पत्र में उल्लेख था, न ही अफलातून के मूल लेख में। इस संदर्भ में केवल इतना  कहना है कि मैं संपूर्ण वांग्मय के जिन खंडों को उद्धृत कर रहा हूं, वे राजग सरकार के समय छपे हुए नहीं, बल्कि मई 1983 में नवजीवन ट्रस्ट, अमदाबाद द्वारा प्रकाशित हैं। जो उद्धरण मैंने दिए हैं वे किसी छेड़छाड़ के नहीं, उसी अधिकृत संपूर्ण वांग्मय के हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शिविरों में भारत के महान पुरुषों के नामों का स्मरण ‘प्रात: स्मरण’ में करता है। अफलातून इससे क्यों नाराज हैं! मैंने प्यारेलाल जी पर कोई लांछन अपने पत्र में नहीं लगाया, कृपया पत्र को पुन: ध्यान से पढ़ें। मैंने अफलातून को ‘पूर्वाग्रह-ग्रस्त’ अवश्य कहा है। यदि अफलातून को संघ विषयक कोई ‘पूर्वाग्रह’ नहीं है, तो निश्चय ही यह खुशी की बात है।
अफलातून ने पुन: गांधीजी को सही प्रकार से उद्धृत नहीं किया। जिस तथाकथित नारे और भाषण की शिकायत दिल्ली प्रांत कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष ने गांधीजी से की थी, उसके संदर्भ में गांधीजी ने जो कुछ ‘हरिजन’ में लिखा उसके वे अंश जो अफलातून ने उद्धृत नहीं किए उन्हें उद्धृत करने से पूरी वास्तविकता ही बदल जाती है।
गांधीजी ने कहा है ‘‘मैं तो यही उम्मीद कर सकता हूं यह नारा अनधिकृत है, और जिस वक्ता के बारे में यह कहा गया है कि उसने ऊपर के विचार व्यक्त किए हैं, वह कोई जिम्मेदार आदमी नहीं है।’’ एक अनधिकृत, गैर-जिम्मेदार नारे और वक्तव्य को लेकर अफलातून क्या सिद्ध करना चाहते हैं, जिसके लेखक के बारे में किसी को कुछ पता नहीं। ऐसे वाहियात नारों और वक्तव्यों के आधार पर आप संघ का आकलन करना चाहते हैं और चाहते हैं कि कोई आपको पूर्वाग्रही भी न कहे! संघ को थोड़ा भी जानने वाला व्यक्ति जानता है कि शाखाओं में कभी नारेबाजी नहीं होती।
उस वाहियात भाषण का भी गांधीजी जवाब देते हैं, यह उनकी संजीदगी है।
अफलातून से केवल इतना निवेदन है कि उन्हें संघ से जो शिकायत हो, वे स्वयं अपने तर्कों से उसे प्रस्तुत करें, किसी महापुरुष की आड़ लेकर उन्हें प्रहार करने की जरूरत क्यों पड़ रही है। पता नहीं काशी प्रांत की कौन-सी शाखा पुस्तिका उनके हाथ लग गई। देश विभाजन को न रोक पाने के कारण महात्मा जी बहुत दुखी थे, वे 15 अगस्त 1947 के उत्सव में भी शामिल नहीं हुए और द्वि-राष्ट्रवादी पृथकतावादियों के आक्रमण से परेशान हिंदुओं ने गांधीजी के सामने अपनी पीड़ाओं और आक्रोश को व्यक्त किया था। इसका उल्लेख करने में अफलातून को उस पुस्तिका से क्या शिकायत है?
’महेश चंद्र शर्मा, नई दिल्ली

हिन्दू द्विराष्ट्रवादी

महात्मा गांधी का संपूर्ण वांग्मय हिंदी और अंग्रेजी (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी) में प्रकाशन विभाग, भारत सरकार ने छापा है, नवजीवन ट्रस्ट ने नहीं। उसका स्वत्वाधिकार जरूर 1983 से 2008 तक नवजीवन ट्रस्ट के पास रहा। ‘गांधीजीनो अक्षरदेह’ (गुजराती वांग्मय) जरूर नवजीवन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किया गया है। जिस उद्धरण का हवाला महेश जी ने दिया है, उसे मैंने ‘हरिजन’ (गांधीजी का अंग्रेजी मुखपत्र) के पृष्ठ 261 से लिया है। द्वि-राष्ट्रवादी केवल मुसलिम लीग के लोग नहीं थे, हिंदुओं के लिए हिंदू राष्ट्र को मानने वाले भी द्वि-राष्ट्रवादी हैं।
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि मुसलिम लीग से पहले सावरकर ने धर्म के आधार पर देश के बंटवारे

की बात शुरू कर दी थी। हिंदू-राष्ट्रवादी गांधी के समक्ष अपनी शिकायत कभी प्रार्थना सभा में बम फेंक कर कर रहे थे। अंतत: उन्हीं गांधी जी को गोली मार दी। महेश जी के शब्दों में यह उनकी पीड़ा और आक्रोश मात्र था, जिन्हें शाखा-पुस्तिका में असली हिंदू माना गया है। महेश जी ने शाखा-पुस्तिका के उद्धरण का खंडन नहीं किया है, भले ही उन्हें यह पता न हो कि मेरे हाथ कौन-सी पुस्तिका लग गई। शाखा में नारे नहीं उद्घोष होते हैं, पथ-संचलन भी मौन नहीं हुआ करते।
गांधी-हत्या को ‘गांधी-वध’ कहने वालों की किताबें भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय कार्यालय 11, अशोक मार्ग पर भी बिक रही थीं-

http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2011/09/post-195.html
’अफलातून, वाराणसी

 

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ब्लॉगिंग का एक मूल स्वरूप रोजनामचा लिखने का रहा है । वेब + लॉग में ’लॉग’ के लिए हिन्दी शब्द फादर कामिल बुल्के के अनुसार – रोजनामचा , यात्रा – दैनिकी , कार्य- पंजी भी है । इस हिन्दी सेवी ऋषि की जन्म-शताब्दी वर्ष पर उनके कोश का उपयोग करते हुए ,पुण्य स्मरण के साथ यह पोस्ट ।
तो, पिछले सत्तर से ज्यादा वर्षों से रोजनामचा या दैनिन्दनी लिखने वाले ब्लॉगिंग विरोधी एक सज्जन यह मानते रहे हैं कि इन्टरनेट पर लेखन और प्रकाशन फौरी-तुष्टीकरण ( instant gratification) मात्र का जरिया है । – ’फौरी तुष्टीकरण’ को ’तात्कालिक सन्तुष्टि’ कह देने पर मैं उनके आरोप को कबूलने के लिए तैयार था । उनका आगे कहना था कि ’कागज पर छपे का भविष्य के लिए महत्व है ’ (इन्टरनेट पर छपा हुआ मानो लम्बी अवधि तक नहीं देखा जाएगा) ।
सामाजिक जीवन-यात्रा में गुजराती , हिन्दी और अंग्रेजी में चार दर्जन से अधिक छोटी – बड़ी पुस्तकें लिख चुके इन महाशय को खादी पर लिखी मेरी पोस्ट का प्रिन्ट आउट मेरी भान्जी चारुस्मिता (दुआ) ने दिया । उन्होंने उसी दिन एक पोस्ट कार्ड उसकी बाबत मुझे लिख भेजा ।
यह कहने में मुझे लेशमात्र दुविधा नहीं है कि दिसम्बर , २००३ से अब तक हुई मेरी चिट्ठेकारी (शुरुआत अंग्रेजी से हुई थी । तब ब्लॉगर को गूगल ने नहीं खरीदा था।) पर की गई यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण टिप्पणियों में एक है ।
टिप्पणी प्रस्तुत करने के पहले टिप्पणीकार की बाबत कुछ जरूरी बातें । वे सेवाग्राम में गांधीजी द्वारा स्थापित ’खादी विद्यालय’ के शुरुआती विद्यार्थियों में थे । (चिट्ठेकार संजीत त्रिपाठी के पिता भी उस वक्त उनके सहपाठी थे ।)
४ – ५ साल की उम्र से चरखा चलाना सीखा तथा ११-१२ वर्ष की उम्र में इन्होंने टाइपिंग सीखी । महात्मा गांधी द्वारा हिटलर को भेजा गया एक ऐतिहासिक पत्र उन्होंने टाइप किया था, यह उन्हें स्मरण है । चरखा चलाने के पराक्रम में दो कातने वालों द्वारा दिन-रात लगातार चरखा चलाना उल्लेखनीय है। अपनी पुस्तक ’बापू की गोद में’ (ब्लॉग-किताब के रूप में उपलब्ध) में टिप्पणीकार अपने शैशव में चरखे और कातने के महत्व पर गौर कराने वाली यह बातें लिखते हैं :

…लेकिन इस तरह के धार्मिक और सामाजिक त्योहारों को भी पीछे छोड़ने वाली याद चरखा – जयन्ती ( रेटियो बारस ) की है । बापू के आश्रम में बापू का ही जन्मदिन? यह कैसा शिष्टाचार ? लेकिन इस जन्मदिन को बापू ने अपना जन्मदिन माना ही नहीं था ।यह तो चरखे का जन्मदिन था । इसलिए स्वयं बापू भी हमारे साथ उसी उत्साह से उसमें शरीक हो जाते थे । लोगों से बचने के लिए उस रोज उनको कहीं भाग जाना नहीं पड़ता था और न उस दिन के नाटक का उनको प्रमुख पात्र बनना पड़ता । उस दिन बापूजी एक सामान्य आश्रमवासी की तरह ही रहते थे । कभी हमारी दौड़ की स्पर्धा में समय नोट करने का काम करते , तो कभी – कभी हमसे बड़े लड़कों के कबड्डी के खेल में हिस्सा लेते । कभी – कभी हम लोगों के साथ साबरमती नदी में ( बाढ़ न हो तब ) तैरते भी थे । शाम को हमें भोजन परोसते और रात को अन्य आश्रमवासियों की तरह नाटक देखने के लिए प्रेक्षक के रूप में बैठ जाते । उस दिन का प्रमुख पात्र होता था चरखा । चरखा – द्वादशी का दिन गांधी – जयन्ती का भी दिन है , यह तो दो – चार चरखा – द्वादशियों को मनाने के बाद मालूम हुआ .

आजकल चरखा – द्वादशी के दिन बापू की झोपड़ी या बापू के मन्दिर खड़े किये जाते हैं । उनके फोटो की तरह – तरह से पूजाएँ की जाती हैं और सूत की की अपेक्षा टूटन का ही अधिक प्रदर्शन दिखाई देता है । लेकिन उन दिनों का जो दृश्य मेरी आँखों के सामने आता है , उसमें बापू का फोटो कहीं भी नहीं देखता हूँ । अखण्ड सूत्रयज्ञ उस समय भी चलते थे । विविध प्रकार के विक्रम ( रेकार्ड ) तोड़ने में हम बच्चों को अपूर्व आनन्द और उत्साह रहता था। कोई सतत आठ घण्टे कात रहा है तो दो साथी एक के बाद एक करके २४ घण्टे अखण्ड चरखा चालू रखते हैं । दिनभर काते हुए सूत के तारों की संख्या नोट कराने में एक – दूसरे की स्पर्धा चलती ।

(सन्दर्भ)

नारायण देसाई उर्फ़ बाबूभाई

नारायण देसाई उर्फ़ बाबूभाई

अपने पिता महादेव देसाई की जीवनी ’अग्नि कुंडमा खिलेलू गुलाब’ के लिए उन्हें केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था तथा महात्मा गांधी की वृहत जीवनी ’मारू जीवन ए ज मारी वाणी’ के लिए ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी पुरस्कार । लाजमी तौर पर ’गांधी और खादी’ जीने के प्रयास के अलावा उनके ग्रन्थों के लिए किए गए शोध के भी विषय रहे हैं ।
पोस्ट कार्ड नादे

पोस्ट कार्ड नादे

(चित्र : संजय पटेल,इंदौर के सौजन्य से। सभी चित्रों को बड़े आकार में देखने के लिए उन पर खटका मारें)
हांलाकि इनकी लिखावट पाठकों के लिए ’हिंसक’ नहीं है फिर भी पत्र का मजमून टाइप कर दे रहा हूँ :
१५.१०.२००९(त्रृटि) (१८.९. की मुहर)
संपूर्ण क्रांति विद्यालय
प्यारे आफ़लू ,
आज खादी संबंधी तुम्हारे लेख (?) का प्रिन्ट आउट दुआने दिया। सुना कि तुमने सूत की गुण्डी के नाप संबंधी हिसाबमें तो तुमने दुरुस्ती कर ली है : (एक) गुण्डी = १००० मीटर ।
need – greed वाला उद्धरण गांधी का नहीं है । हालाँकि प्यारेलालजी ने लास्टफेजमें पार्ट II पृ. ५५२ पर इसका उपयोग गांधीजी के नाम से किया है । जान पड़ता है यह चमात्कारिक उद्धरण गांधीजी ने भी किया होगा । Oxford Dictionary of Quotations (ने) इसके लेखक का नाम Frank Buchman बताया जो उनकी Legacy of Frank Buchman में Legacy Chapter 15 में छपा है ।
यह जानकारी तुम कहाँ से लाये कि “जब आचार्यजी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव थे तब जवाहरलाल नेहरू चवन्निया सदस्य भी नहीं थे?” आचार्य कई वर्षों तक कांग्रेस महासचिव जरूर थे । उसमें से कुछ वर्ष जवाहरलालजी अध्यक्ष थे ।
खादी का बुनियादी नियम यह था कि खादी के दाम पर व्यवस्था खर्च अमुक प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ना चाहिए । इसलिए खादी कमीशन की वर्तमान नीति पर तुम्हारी आलोचना सटीक है ।
प्यार,
बाबूभाई.

सूत की गुण्डी सम्बन्धी सूचना में किसी अन्य पाठक द्वारा मेरी भूल को सुधार दिया जाएगा , मैं इस खुशफ़हमी में था । अतएव, साल भर के लिए जरूरी कपड़े के लिए एक व्यक्ति द्वारा १००० किलोमीटर सूत कातने की आवश्यकता होती है ।
आचार्यजी का कथन मैंने गांधी विद्या संस्थान,वाराणसी के अतिथि भवन में जेपी आन्दोलन के दौर में उनके मुख से सुना था तथा स्मृति के आधार पर उद्धृत किया था । अब लगता है कि मुमकिन है यह बात उन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी के बारे में कही हो। इस बाबत और जानकारी जुटाने की जरूरत है ।
टिप्पणी के अंतिम वाक्य द्वारा इन्टरनेट सम्बन्धी टिप्पणीकर्ता की धारणा (’हृदय’ नहीं कह रहा) में कोई तब्दीली आई होगी , क्या यह माना जा सकता है ?
—x—x—x—
जनसत्ता के समांतर स्तंभ में मेरे ब्लॉग से ली गई इसी प्रविष्टी को पढ़कर सुश्री नीला हार्डीकर ने मुझे एक पत्र लिखा है। मेरे साथियों से फोन नम्बर मालूम कर उन्होंने यह बताया कि वे नेट पर हिन्दी टाइपिंग नहीं जानती इसलिए हाथ से लिखा ख़त भेज रही हैं । नीला हार्डीकर अवकाशप्राप्त शिक्षिका हैं तथा मध्य प्रदेश के जन आन्दोलनों से कई दशकों से जुड़ी रही हैं । उन्होंने ’सिंथेटिक वस्त्र’ पर अपनी स्वतंत्र टिप्पणी भी भेजी है जिसे अलग से प्रकाशित किया जाएगा । फिलहाल , ’खादी की राखी’ पर उनकी मूल्यवान टिप्पणी का चित्र तथा टाइप किया हुआ पाठ :

नीला हार्डीकर का पत्र

नीला हार्डीकर का पत्र


मुरेना (म.प्र.)
२८ सितम्बर,२००९
प्रिय अफलातून ,
२४.९.०९ के जनसत्ता में ’खादी की राखी’ पढ़ा । मुद्दे महत्वपूर्ण उठाए हैं आपने , जैसे वस्त्र का बाजार धीरूभाई को उपलब्ध कराना । मैं इतने साल से सोच रही हूँ – राजीव गांधी को क्या रिश्वत मिली होगी इसके लिए । अब अगली स्टेप है ए डी बी की मदद से खादी बेचना ।
मुझे लगता (है) सरकार के उस छोटे फैसले के जो बड़े नतीजे निकले उनका अच्छी तरह अध्ययन होना चाहिए । एक ग्रूप हो जो यह काम करे । कई आयामों पर एक साथ तथ्य संकलन , विश्लेषण करना होगा । उदाहरण के लिए
१. सिन्थेटिक कपड़ों के लाभ नुकसान.
२. गांव , कस्बों के बाजार से और गरीब घरों से सूती वस्त्र गायब होना.
३. बुनकरों की दुर्गति .
४. रंगों की फैक्टरियां खत्म , रंगरेजों का भट्टा बैठना .
५. डिटर्जण्ट्स आदि का जमीन तथा जलस्रोतों पर प्रभाव .
६. सिन्थेटिक धागा non bio-degradable होना.
७. ——-
छानबीन इस सवाल की भी होनी चाहिए कि ADB के लिए महौल बना कैसे ? शायद इस तरह :
अ) कि , खादी अब गरीब का वस्त्र बचा नहीं .
ब) कि , खादी = सादगी से शुरु करके खादी = सत्ता के रास्ते हम खादी = पाखण्ड तक पहुंच चुके हैं .
स) कि, गांधी के चरखे से अब बी.टी. कॉटन का सूत कतता है ।
जब स्वालंबन का बीज ’ मोन्सेण्टो’ के हाथों गिरवी है , तब स्वाव्लंबन के सूत्र संभालना काफी है ? संभव है ?
ये सारे ( और भी कई ) पहलुओं का एकसाथ अध्ययन करके , स्थिति का qualitative के साथ quantitative आकलन करके क्या हम विकल्प का रास्ता ढूंढ़ सकते हैं ?
मैं उपरोक्त बिन्दुओं में से कुछेक पर अपने निरीक्षण लिख रही हूँ । इनमें बहुतों को बहुत कुछ जोड़ना होगा । किसी सामूहिक अध्ययन की कोशिश संभव हो तो बताएं ।
मेरा परिचय स्वाति थोड़ा बहुत देंगी । रिटायर्ड शिक्षिका हूँ । सुनील , स्मिता से मिलती रहती हूँ ।
शुभेच्छाओं सहित,
नीला
९४२५१ २८८३६ , hneelaATyahooDOTcom
नीलाजी ने विषय को जरूरी एवं गंभीर विस्तार दिया है । मुझे उम्मीद है कि उनका ख़त और ’सिंथेटिक वस्त्र ’ विषयक टिप्पणी ( अगली पोस्ट में प्रकाश्य ) एक पहल की शुरुआत होंगे। दोनों टिप्पणीकर्ताओं का अत्यंत आभारी हूँ । नीलाजी को नेट पर हिन्दी टाइप करने , मेल करने आदि की बाबत लिख रहा हूँ ।

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