इस सैद्धान्तिक अन्तर्विरोध का हल खोजने की कोशिश में हम एक नये सत्य पर पहुचते हैं । दरअसल पूंजीवाद का तीन – चार सौ सालों का पूरा इतिहास देखें, तो वह लगातार प्राकृतिक संसाधनों पर बलात कब्जा करने और उससे लोगों को बेदखल करने का इतिहास है । एशिया व अफ्रीका के देशों को उपनिवेश बनाने के पीछे वहाँ के श्रम के साथ साथ वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों की लूट का आकर्षण प्रमुख रहा है । दोनों अमरीकी महाद्वीपों और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के मूल निवासियों को नष्ट करके वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की लालसा ही यूरोपीय गोरे लोगों को वहाँ खींच लाई । जिसे मार्क्स ने ‘पूंजी का आदिम संचय’ कहा है वह दरअसल पूंजीवाद की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है । इसके बगैर भी पूंजीवाद चल नहीं सकता । मजदूरों के शोषण की तरह प्राकृतिक संसाधनों की लूट भी पूंजी के संचय का अनिवार्य हिस्सा है ।
पूंजीवादी औद्योगीकरण एवं विकास के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीके से कितने बड़े पैमाने पर जंगल नष्ट किया गया , कितने बड़े पैमाने पर जमीन की जरूरत है , कितने बड़े पैमाने पर पानी की जरूरत है , कितने बड़े पैमाने पर खनिज निकालना होगा , कितने बड़े पैमाने पर उर्जा चाहिए – ये बातें अब धीरे धीरे साफ़ हो रही हैं और उनका अहसास बढ़ रहा है । यदि यह पूंजीवाद की अनिवार्यता है तो पूंजीवाद के विश्लेषण में इन्हें शामिल करना होगा । जो मूल्य का श्रम सिद्धान्त मार्क्स ने अपनाया वह इसमें बाधक होता है । श्रम के शोशण को समझने और उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम के महत्व को बताने के लिए तो यह सिद्धान्त ठीक है , किन्तु प्राकृतिक संसाधनों का इसमें कोई स्थान नहीं है । ऐसा शायद इसलिए भी है कि प्राकृतिक संसाधनों को प्रकृति का मुफ्त उपहार मान लिया जाता है । लेकिन सच्चाई यह है कि प्रकृति को बड़े पैमाने पर लूटे बगैर तथा उस पर निर्भर समुदायों को उजाड़े-मिटाये बगैर पूंजीवादी व्यवस्था के मूल्य का सृजन हो ही नहीं सकता । ‘अतिरिक्त मूल्य’ का एक स्रोत श्रम के शोषण में है, तो एक प्रकृति की लूट में भी । जिसे पूंजीवादी मुनाफा कहा जाता है उसमें प्राकृतिक संसाधनों पर बलात कब्जे , एकाधिकार और लूट से उत्पन्न ‘लगान’ का भी बड़ा हिस्सा छिपा है ।
प्राकृतिक संसाधनों की यह लूट को नवौपनिवेशिक शोषण या आन्तरिक उपनिवेश की लूट से स्वतंत्र नहीं है , बल्कि उसीका हिसा है । शोषण व लूट के इस आयाम को पूंजीवाद के विश्लेषण के अंदर शामिल करना जरूरी हो गया है। मार्क्स और लोहिया के समय यह उभर कर नहीं आया था । इसलिए अब पूंजीवाद के समझने के अर्थशास्त्र को मार्क्स और लोहिया से आगे ले जाना होगा । गांधीजी जो शायद ज्यादा दूरदर्शी व युगदृश्टा थे इसमें हमारे मददगार हो सकते हैं ।
पूंजीवाद एक बार फिर गहरे संकट में है । वित्तीय संकट , विश्वव्यापी मन्दी और बेरोजगारी आदि इसका एक आयाम है । यह भी गरीब दुनिया के मेहनतकश लोगों के फल को हड़पने के लिए शेयर बाजार , सट्टा , बीमा , कर्ज का व्यापार जैसी चालों का नतीजा है जिसमें कृत्रिम समृद्धि का एक गुब्बारा फुलाया गया था । वह गुब्बारा फूट चुका है । लेकिन इस संकट का दूसरा महत्वपूर्ण आयाम पर्यावरण का संकट , भोजन का संकत और प्राकृतिक संसाधनों का संघर्ष है । दुनिया के अनेक संघर्ष जल, जंगल , जमीन , तेल और खनिजों को ले कर हो रहे हैं । इन संकटों से पूंजीवादी विकास की सीमाओं का पता चलता है । इन सीमाओं को समझकर , पूंजीवाद की प्रक्रियाओं का सम्यक विश्लेषण करके , उस पर निर्णायक प्रहार करने का यह सही मौका है । यदि हम ऐसा कर सकें तो जिसे ‘इतिहास का अंत’ बताया जा रहा है , वह एक नये इतिहास को गढ़ने की शुरुआत हो सकता है ।
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सुनील की अन्य लेखमाला : औद्योगीकरण का अन्धविश्वास : ले. सुनील