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Posts Tagged ‘संघमित्रा’

जापान के सेन्दाइ प्रांत में आई सुनामी से हुई तबाही को हम ठीक से स्वीकार भी नहीं कर पाए थे कि परमाणु बिजली-केन्द्रों के धराशायी होने की अकल्पनीय खबर आनी शुरु हो गई है. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उत्तर-पूर्वी जापान के तीन अणु ऊर्जा केन्द्रों – फ़ुकुशिमा, ओनागावा और तोकाई में कुल छह अणु-भट्ठियों में गम्भीर हादसों की खबर आ चुकी है. इनमें सबसे ज़्यादा तबाही फ़ुकुशिमा में हुई है जहाँ कुल दस रिएक्टर स्थित हैं. इनमें से कम-से-कम दो रिएक्टरों (दाई-इचि, युनिट १ और ३), में विस्फ़ोट हो चुका है परमाणु ईंधन को क्षति पहुंची है जिससे भारी मात्रा में रेडियोधर्मी तत्व सीज़ियम-१३७ और आयोडीन-१३१ का रिसाव हुआ है. युनिट एक और दो के साथ साथ युनिट तीन में भी अत्यधिक तापमान बना हुआ है. इन तीनों रिएक्टरों में उपयोग किये जाने वाले आपातकालीन शीतक-यन्त्र शुरु में ही सुनामी द्वारा नाकाम कर दिये गए और बैटरी-चालित शीतन ने भी जल्दी ही साथ छोड़ दिया. फिर रिएक्टर की चिमनी से रेडियोधर्मिता-मिश्रित भाप बाहर निकाली गई लेकिन अणु-भट्ठी का ताप इससे कम नहीं हुआ. ऐसी स्थिति की कभी कल्पना नहीं की गई थी और तब टोक्यो बिजली उत्पादन कम्पनी (TEPCO) ने इन अणु-भट्ठियों में समुद्र का पानी भरने की बात सोची, जो बिल्कुल ही लाचार कदम था. समुद्र का पानी भारी मात्रा में और तेज गति से रिएक्टर के केन्द्रक (core) में डाला जाना था जो अफ़रातफ़री के माहौल में ठीक से नहीं हो पाया. अपेक्षाकृत कम मात्रा में रिएक्टर के अन्दर गये पानी ने भाप बनकर अणु-भट्ठी के बाहरी कंक्रीट-आवरण को उड़ा दिया है. इस विस्फ़ोट में अणु-भट्ठी के अन्दर ईंधन पिघलने की और रेडियोधर्मिता फैलने की खबर तो आ ही रही है साथ ही अमेरिकी डिजाइन से बने इन रिएक्टरों में बचा ईंधन भी, जो ऊपरी हिस्से में रखा जाता है और अत्यधिक रेडियोधर्मी होता है, के भी बाहरी वातावरण के सम्पर्क में आने की गंभीर आशंका व्यक्त की जा रही है.

फ़ुकुशिमा दाइ-इचि युनिट-दो की अणु-भट्ठी प्लूटोनियम-मिश्रित ईंधन पर चलती है और वहाँ हुए विस्फोट से और भी बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी जहर फैलने वाला है. इन विस्फोटों से कम-से-कम आठ कामगारों की मौके पर ही मृत्यु हो गई है. ओनागावा और तोकाई स्थित परमाणु-केंद्रों में भी तापमान विनाशकारी स्थिति तक बढ़ गया है और इस पर काबू पाने की कोशिश की जा रही है. अमेरिकी चैनल सीबीएस ने तो जापानी अधिकारियों के हाअले से खबर दी है कि जापान के सात रिएक्टर पिघलने की आशंका से जूझ रहे हैं.

जापान के प्रधानमंत्री नाओतो कान ने इसे राष्ट्र के समक्ष दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ी चुनौती करार दिया है और परमाणु आपातकाल की स्थिति की घोषणा कर दी है. दो लाख से अधिक लोगों को इन परमाणु-दुर्घटना त्रस्त इलाकों से निकाला जा रहा है लेकिन सुनामी से तबाह यातायात और राहत व्यवस्था से इसमें मुश्किल आ रही है. पूरे इलाके में सामान्य स्थिति की तुलना में हज़ारों गुना ज़्यादा रेडियेशन पाया जा रहा है. तीन दिनों के अंदर ही जापान के नागरिक समूहों और पर्यावरणविदों ने मापा है कि रेडियेशन छह सौ किलोमीटर दूर तक फैल चुका है जबकि सरकार इससे अभी तक इनकार कर रही है. जापानी सरकार और एजेंसियाँ इस पूरे घटनाक्रम की नियंत्रित खबरें ही दे रही हैं. वैसे परमाणु दुर्घटनाओं के मामले में बाकी सरकारों की तरह जापान भी अपनी जनता से झूठ बोलता रहा है. लीपापोती के ऐसे ही एक मामले में २००२ में TEPCO  के अध्यक्ष को इस्तीफ़ा देना पड़ा था. रविवार शाम को जापानी नागरिकों के एक समूह CNIC की प्रेसवार्ता में फ़ुकुशिमा के इंजीनियर रह चुके मसाशी गोतो ने बताया कि रिएक्टर में मौजूद गैस के दबाव की मात्रा की निर्माण के वक्त कल्पना भी नहीं की गई थी.

अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी द्वारा आयोडीन की गोलियाँ बँटवाने और आबादी खाली करने के क्षेत्र को तीन से दस फिए बीस किलोमीटर तक बढा़ने से ही पता चलता है कि रेडियेशन का खतरा बहुत गम्भीर है. इन रेडियोधर्मी किरणो की चपेट में आने से कैंसर के अलावा ल्यूकीमिया और थायरायड जैसे घातक रोग बड़े पैमाने पर होते हैं और जन्मजात अपंगता, बांझपन इत्यादि पीढियों तक दिखने वाले दुष्प्रभाव होते हैं. रेडियेशन का असर प्रभावित इलाकों में सैकडों हज़ारों साल तक रहता है. जापान में तो सुनामी से पैदा हुई बाढ ने स्थिति और बिगाड़ दी है, साथ ही विशेषग्यों की आशंका है कि आने वाले दिनों में हवाओं के रुख और प्रशान्त महासागर की लहरों के हिसाब से रेडियेशन चीन, कोरिया, हवाई, फिलीपीन्स, और आस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक दूर-दूर के देशों में पहुंच सकता है.

हर तरफ़ इस दुर्घटना से हड़कम्प मचा हुआ है और चेर्नोबिल तथा थ्री-माइल आइलैंड सरीखी तबाहियों की याद सबको आ रही है. जर्मनी में रविवार को स्वतःस्फ़ूर्त हज़ारों लोगों ने परमाणु-विरोधी प्रदर्शन किया और दुनिया भर के जनांदोलनों, पर्यावरणविदों और विशेषग्यों ने परमाणु ऊर्जा पर पुनर्विचार करने की मांग की है. लेकिन मुनाफ़े के लालच में अंधी कम्पनियां एवं केन्द्रीकृत ऊर्जा-उत्पादन के मायाजाल से ग्रस्त सरकारें शायद ही इससे कुछ सीखें. इस दुर्घटना के बाद भारत के परमाणु-अधिष्ठान भरोसा दिलाया है कि हमारे देश के रिएक्टर में ऐसे हादसे नहीं होंगे. परमाणु ऊर्जा उद्योग से जुड़ा अन्तर्राष्ट्रीय प्रचार तंत्र  भी यही समझाने में जुटा है कि जापान सुनामी अप्रत्याशित रूप से भयावह थी वहाँ के रिएक्टर पुराने डिजाइन के थे, जबकि हाल तक जापानी अणु-ऊर्जा उद्योग को पूरी तरह सुरक्षित और उच्च तकनीक से लैस बताया जाता था. सोमवार सुबह जब जापान में दूसरे विस्फोट की खबर आई तब भारतीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोडकर महाराष्ट्र की विधानसभा में जैतापुर अणु-ऊर्जा प्रकल्प को ज़रूरी ठहरा रहे थे. इस योजना के खिलाफ़ रत्नागिरि जिले के किसान, मछुआरे और आमजन पिछ्ले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं और सरकार ने भारी दमन इस्तेमाल किया है. दर्जनों लोगों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं. जिले से बाहर के आन्दोलनकारियों को बाहरी, देशविरोधी-विकासविरोधी और भड़काऊ बताकर घुसने नहीं दिया जा रहा जबकि उस इलाके के आन्दोलनकारियों को जिलाबदर कर दिया गया है – सरकार के लिए एकमात्र देशभक्त फ्रान्सीसी परमाणु कम्पनी अरेवा है जो लोगों को विस्थापित कर रही है और पूरे इलाके के पर्यावरण और जानमाल को खतरे में डाल रही है. जैतापुर का प्रकल्प फ़ुकुशिमा से कई गुना बड़ा होगा और यह भी दुर्घटना-सम्भावित समुद्र तट पर बनाया जा रहा है. देश में पहले ही कलपक्कम, कूडन्कुलम, तारापुर और नरोरा जैसे अणु-ऊर्जा केंद्र हैं जो भूकम्प और दुर्घटना सम्भावित इलाकों में बने हैं और कभी भी भयाअह हादसों को जन्म दे सकते हैं.

परमाणु ऊर्जा बिजली का सबसे महंगा और खतरनाक स्रोत है. बिना भारी सरकारी मदद और सब्सिडी के यह उद्योग दुनिया में कहीं भी नहीं चल पा रहा है. आतंकवादी हमले, प्राकृतिक दुर्घटनाएँ, तकनीकी लापरवाही इस परमाणु-भट्ठियों को पल भर में जलजला बना सकते हैं. आजकल परमाणु ऊर्जा के समर्थन में जलवायु परिवर्तन का तर्क दिया जाता है और अणु-ऊर्जा को कार्बन मुक्त बताया जाता है. एक तो अणु-ऊर्जा के उत्पादन में युरेनियम खनन, उसके परिवहन से लेकर रिएक्टर के निर्माण तक काफी कार्बन खर्च होता है जिसकी गिनती नहीं की जाती, साथ ही फ़ुकुशिमा ने यह भी साबित कर दिया है कि जलवायु परिवर्तन का समाधान होने की बजाय अणु-ऊर्जा केन्द्र दरअसल बदलते जलवायु और भौगोलिक स्थितियों को झेल नहीं पाएंगे क्योंकि इन्हें बनाते समय वे सारी स्थितियां सोच पाना मुमकिन नहीं जो जलावायु-परिवर्तन भविष्य में अपने साथ लेकर आ सकता है. चालीस साल पहले फ़ुकुशिमा के निर्माण के समय जापान में इतनी तेज सुनामी की दूर-दूर तक सम्भावना नहीं थी, वैसे ही जैसे भारत में कलपक्कम अणु-ऊर्जा केंद्र को बनाते समय सुनामी के बारे में नहीं सोचा गया था. अधिकतम साठ साल तक काम करने वाले इन अणु-बिजलीघरों में उसके बाद भी हज़ारों सालों तक रेडियोधर्मिता और परमाणु-कचरा रहता है. ऐसे में, इतने लम्बे भविष्य की सभी भावी मुसीबतों का ध्यान रिएक्टर-डिजाइन में रखा गया है, यह दावा आधुनिकता और तकनीक के अंध-व्यामोह के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है.

अमेरिका से परमाणु सौदे के बाद सरकार देश में दर्जनों अणु-ऊर्जा केन्द्र बनाने की तैयारी कर रही है जिनमें से ज़्यादातर समुद्र तटों पर स्थित होंगे – पश्चिम बंगाल में हरिपुर, आंध्र में कोवाडा, गुजरात में मीठीविर्डी और महाराष्ट्र में जैतापुर. इन बिजलीघरों से बनने वाली बिजली काफ़ी कम, बहुत महंगी होगी और ज़्यादातर बड़े शहरों और औद्योगिक केंद्रों को बिजली दी जाएगी. ऊर्जा के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता और प्रचुरता हासिल करने के कई विकेंद्रीकृत उपाय जानकारों ने सुझाए हैं लेकिन इसके लिये ज़रूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति, ऊर्जा-कार्पोरेटों के खिलाफ़ जाने की हिम्मत और विकास की वैकल्पिक समझ हमारे सत्ता-तंत्र में नहीं है.

जापान की इस भयावह त्रासदी में जापानी नागरिकों के लिये दुआ और उनकी यथासम्भव मदद करने के साथ ही यह भी ज़रूरी है कि इस हादसे से हम सबक लें. हिरोशिमा में अणु बम की विभीषिका झेल चुके इस देश ने परमाणु के ’शांतिप्रिय’ उपयोगों से मुक्ति नहीं पाई. एक बडे़ अर्थ में सोचें तो द्वितीय विश्व-युद्ध, जो मूलतः पूंजीवादी लालच और होड़ का नतीजा था, में बर्बाद होकर भी इस देश ने केंद्रीकृत पूंजीवादी विकास को ही अपनाया, वस्तुतः बाकी दुनिया को इस रास्ते पर रिझाने को ही अपनी सफ़लता माना और परमाणु के शांतिपूर्ण अवतार को इस सबके केंद्र में रखा. पिछले कुछ सालों में पूंजीवाद की अनिवार्य बीमारी आर्थिक मंदी झेलता हुआ जापान आज जिस विनाश के मुहाने पर खड़ा है, इससे दरासल हिंसक आधुनिक सभ्यता के हर हिस्से पर गम्भीर सवाल खडे़ होते हैं – लगभग वही सवाल जो पिछली सदी की शुरुआत में गांधीजी ने हिंद स्वराज में हमारे सामने रखे थे.

साभार : जनसत्ता , १५ मार्च , २०११

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खादी की राखी

खादी की राखी

प्यारे आफ़्लू,                                                                      वेड़छी/०१/०८/०९

रक्षाबन्धन के बहाने कम से कम एक पत्र लिख देती हूँ – मुझे ही आश्चर्य होता है । फोन, ईमेल , चैट का जमाना है । पिछले एक सप्ताह से बारिश के कारण ’मोडेम’ खराब हो गया है । फोन दो दिनों से कर्कश स्वर से नाम के वास्ते चालू हुआ है। कभी बंद , कभी चालू ऐसे ही बाहरी धूप-छाँव की तरह चल रहा है ।

इस वर्ष मेरे वस्त्रविद्या कार्यक्रम में एक नया मोड़ आया है । वार्षिक आवश्यकता का २५ मीटर कपड़ा ३० जनवरी २०१० तक बनाना है । १०० गुण्डी सूत लगेगा । ७५ गुण्डी हो चुका है। बारिश खतम होते अपने हाथों से कुछ सूत रंग कर दिसम्बर में बुनाई करना है । यरवड़ा चक्र से रोज के एक से देढ़ घण्टा कताई करने से हो जायेगा । बीच – बीच में प्रवास में रहती हूँ इसलिए आज कल रोज तीन घण्टा कताई करती हूँ । अंबर चरखा (दो तकुआ) से तो पूरे परिवार की कपड़ों की आवश्यकता पूरी की जा सकती है – एक घण्टा प्रति दिन समय देकर । मुझे अंबर रुचता नहीं है ।

बाबूभाई आजकल एक किताब लिखने में व्यस्त हैं । अभी तो पढ़ाई कर रहे हैं । विभाजन और गांधी । अगस्त की २२ तारीख तक घर पर ही हैं । अभी तो किताब हाथ में लिये बैठे बैठे सो रहे हैं !

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५ या ६ को रक्षाबन्धन है । जब भी हो प्यार से बाँधना ।

खूब खूब प्यार –

उमादीदी .

बहन के हाथ – कते सूत से बनी यह राखी हाथ – लिखे इस ख़त के साथ ही मिल सकती थी , इन्टरनेट से नहीं । आज बात हुई तो पता चला ९३ गुण्डी सूत कात चुकी है ।  एक गुण्डी यानी १०० मीटर , १० गुण्डी = एक किलोमीटर और उसकी सालाना जरूरत की १०० गुण्डी मतलब १० किलोमीटर सूत । हाल ही में पढ़ी हबीब तनवीर की कविता याद आई – एक जरूरी हिसाब यह भी होता !

आज पिताजी से पूछा , ’आप बड़े या गांधी की खादी ?’ उन्होंने बताया कि खादी के प्रसार और विकास के लिए बना संगठन (अखिल भारत चरखा संघ ) उनके जन्म के कुछ माह बाद १९२५ में गठित हुआ था लेकिन १९२१ में मदुरै में काठियावाड़ी पग्गड़ छोड़ने के बाद गांधी ने खादी अपना ली थी । पारम्परिक चरखा एक बड़े चक्र और तकुए वाला था । उसे यात्रा में ले कर चलना कठिन था । यरवदा जेल से साबरमती आश्रम में मगनलाल गांधी और श्री आशर को गांधी चरखे में सुधार के बारे में लगातार ख़त लिखते – ’ एक की जगह दो चक्र लगाओ , एक बड़ा और एक छोटा । क्या दोनों चक्र एक बक्से (’पेटी’ शब्द मराठी – गुजराती में चलता है ) में अट सकते हैं ?’  गांधी की इन चिट्ठियों की मदद से साबरमती और बारडोली आश्रम के ’सरंजाम केन्द्रों’(वर्कशॉप) में पोर्टेबल पेटी चर्खा बना – यरवदा चक्र । मगनलाल गांधी ने एक डिबरी भी विकसित की थी – इसका मगन-दीप नाम पड़ा ।

यूँ तो हमारे बाप की पैदाईश के वक़्त भी उनका गू-मूत खादी के कपड़े से हुआ होगा । उसका महत्व नहीं है । बाप – दादा के कारण खादी अपनाने को अपनाना नहीं कहा जा सकता । ’ कातो ,समझ – बूझ कर कातो । जो काते से पहने , जो पहने सो काते ’ – इसे अपनाना असल बात है । वस्त्र स्वावलंबन का मर्म समझाने वाली इन काव्यमय पंक्तियों के रचयिता गांधी थे ।

We need production by masses not mass production.

अथवा The Earth has enough to fulfill everyone’s need but does not have enough to satisfy even a single person’s greed.

गांधी के मानवीय अर्थशास्त्र के उसूलों को इन काव्यमय सूक्तियों से आत्मसात करना कितना आनन्दकर है ।

पिछली सरकार द्वारा असंगठित क्षेत्र के अध्ययन के लिए बनी सेनगुप्ता कमिटी के अनुसार देश की ८७ फीसदी आबादी असंगठित क्षेत्र से जुड़ी है । बचपन से सुनते आए थे कि असंगठित क्षेत्र में रोजगार देने वाला सबसे बड़ा धन्धा हथकरघा है । हमारे पूर्वांचल में ही आजमगढ़ , मऊ , मोहम्मदाबाद, बस्ती , गोरखपुर, बस्ती , बहराईच, अकबरपुर , फैजाबाद में हथकरघे पर बेशकीमती साड़ियाँ ही नहीं आम आदमी की जरूरत को पूरा करने वाला सूती कपड़ा , चादर ,धोती,गमछा,शर्टिंग बनता था ।

राजीव गांधी सरकार की कपड़ा नीति ढाका की मलमल बनाने वाले कारीगरों के अंगूठे काटने वाली नीति के समान थी । इस नीति की बदौलत एक अन्जान व्यक्ति देश का सबसे अमीर बन गया और साथ – साथ रोजगार देने वाला सबसे बड़ा हथकरघा क्षेत्र अत्यन्त सिकुड़ गया । सिंथेटिक तागे और डिटर्जेन्ट बनाने में सरकारी रियायत और छूट की नीति के चलते गरीब आदमी के तन से सूती कपड़ा हटा , सिंथेटिक कपड़ा आ गया । किसानों की तरह बुनकर भी खुदकुशी करने को मजबूर होने लगे । सरकार के छोटे से फैसले से कैसे बना – बनाया बाजार , गारण्टीशुदा मुनाफ़ा- बिना खर्च मिल जाता है ! मानिए सरकार फैसला ले कि देश भर के पुलिस थाने में मारुति कम्पनी की जिप्सी रखी जाएगी तो इससे बिना विज्ञापन आदि के खर्च के हजारों जिप्सी बिक जाती हैं । ठीक इसी प्रकार अम्बानी समूह को छोटे छोटे फैसलों से करोड़ों – अरबों का मुनाफ़ा पहुंचाया गया ।

मुझे बनारस में सुना चौधरी चरण सिंह का भाषण याद है जिसमें उन्होंने माचिस बनाने वाली एकमात्र विदेशी (और ऑटॉमैटिक संयंत्र वाली)  विमको को बन्द करने के फैसले के औचित्य को बखूबी समझाया था ।

वैसे ही आपातकाल के दौरान गांधी आश्रम के एक खादी भण्डार के उद्घाटन की याद आती है । अंग्रेजी राज में पूर्वी उत्तर प्रदेश में खादी उत्पादन की प्रमुख संस्था – गांधी आश्रम की स्थापना धीरेन्द्र मजुमदार और आचार्य जे. बी. कृपलानी जैसे नेताओं ने की थी । कमलापति त्रिपाठी इन लोगों द्वारा प्रशिक्षित हुए थे । आपातकाल के दरमियान बनारस के शास्त्री नगर के खादी भंदार के उद्घाटन कार्यक्रम में गुरु (आचार्य कृपलानी) – शिष्य (कमलापति ) दोनों मंच पर मौजूद थे । पंडितजी रेल मन्त्री थे । सभा में आचार्यजी ने पंडितकी को सलाह दी थी कि रेल महकमा चाहे तो खादी की कितनी खपत कर सकता है । यह गौरतलब है कि स्वतंत्रता-पूर्व जब आचार्यजी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव थे तब जवाहरलाल नेहरू चवन्निया सदस्य भी नहीं थे ।  वरिष्टता के कारण आपातकाल में गिरफ़्तार न किए जाने के शायद एक मात्र अपवाद भी वे ही थे । उस सभा में आचार्यजी द्वारा सरकार की आलोचना सुन कर लोकपति त्रिपाठी यह बड़बड़ाते हुए बहिर्गमन कर गए थे कि , ’ बाबू बैठे हैं नहीं तो इस बूढ़े को बन्द करवा देता ’ । राजीव गांधी और लोकपति की कांग्रेसी पीढ़ी खादी के मर्म को भूल चुकी थी।

बहन और पिताजी ने गांधीजी के वस्त्र स्वावलम्बन के सूत्र(कातो समझ-बूझ कर कातो,…..) को समझ – बूझ कर अपनाया है । आज खादी कमीशन की अध्यक्षा द्वारा युवा पीढ़ी के नाम पर खादी – सुधार (’फेसलिफ़्ट’) के लिए एशियाई विकास बैंक से कर्जा लेकर नये शो-रूम बनाने की बात एक साक्षात्कार में पढ़ी तो मुझे सदमा लगा और कोफ़्त हुई । बहन के विद्यार्थी-जीवन को याद किया । उसने कोलकाता के सियालदह स्थित नीलरतन सरकार मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी पढ़ी । कॉलेज की दीवारों पर तब माओ-त्से-तुंग की स्टेन्स्लि के साथ नारे लिखे होते थे , ’ चीनेर चेयरमैन – आमादेर चेयरमैन’ । फिर पूर्व पाकिस्तान से आए लाखों शरणार्थियों के बीच मेडिकल छात्र- छात्राओं की टीम बनाकर शरणार्थी शिबिरों में टीकाकरण आदि में लगी । तब इन तरुण – तरुणियों का नारा होता था – ’ओपार थेके आश्छे कारा ?-आमादेरी भाई बोनेरा ।’ कॉलेज यूनियन की वह महामन्त्री चुनी गयी थी ।

डॉ. संघमित्रा गाडेकर

डॉ. संघमित्रा गाडेकर

खादी का एक बुनियादी सिद्धान्त है कि शोरूम ,विक्रेता-वेतन ,प्रचार पर एक निश्चित प्रतिशत से ज्यादा खर्च नहीं किया जाना चाहिए ताकि कत्तिनों और बुनकरों के श्रम की कीमत इन फिजूल के खर्चों में न जाए तथा कत्तिनों और बुनकरों को ज्यादा लाभ दिया जा सके । दिक्कत यह है कि जो सरकार बुनकर और कत्तिन विरोधी कपड़ा नीति अपनाती है वह खादी का क्ल्याण करे यह कैसे मुमकिन है ? विदेशी वित्तीय एजेन्सी पर अवलम्बन स्वावलम्बन के अस्त्र का पराभव है ? लगता है खादी वालों को विनोबा के सूत्र के सहारे अब चलाना होगा – अ-सरकारी = असरकारी । खादी की मूल भावना के प्रचार से सरकार क्यों भाग रही है ?

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