हमारे देश में भ्रष्टाचार एक अन्तहीन रुदन का विषय बन गया है – इस हद तक कि इसकी चर्चा सिर्फ रस्मी रह जाए और इसके मिटने की संभावना असंभव लगने लगे । यह बढ़ता हुआ विश्वास कि सभी भ्रष्ट हैं लोगों के मन में यह भाव भी पैदा करता है कि चूँकि सभी भ्रष्ट ही हैं ईमानदार रहना , जो कठिनाइयों से भरा है जरूरी नहीं है और भ्रष्ट आचरण ही व्यावहारिक आचरण है । इस तरह जो भ्रष्ट आचरण से घबड़ाते हैं वे अव्यावहारिक या इससे भी बढ़कर निरे मूर्ख समझे जाते हैं । जब भ्रष्टाचार इतना व्यापक बन गया हो तो इससे लड़ने के लिए न सिर्फ मजबूत संकल्प की जरूरत है बल्कि भ्रष्ट आचरण के व्यापक बनने के कारणों की जानकारी के भी । अगर हम अपने देश के भ्रष्टाचार की सामाजिक जड़ों को पहचानने लगेंगे तो शायद यह विश्वास भी पैदा हो कि यह पुराण विहित कलिकाल की करामात नहीं , जिसके अनुसार हम भ्रष्ट युग या ’ मठ युग ’ में प्रवेश कर गये हैं और इससे उबरने के लिए हमें किसी नये अवतार की प्रतीक्षा या तलाश करनी चाहिए । अगर हममें यह जानकारी बढ़ी कि भ्रष्टाचार के विशेष सामाजिक कारण हैं तो हम इसके निराकरण के भी सामाजिक उपाय ढूँढेंगे । वी.पी. सिंह या किसी अन्य त्राता की ओर इस आशा भरी निगाह से देखना कि वे हमें इस राक्षस से मुक्त कर देंगे अपने यहाँ के भ्रष्टाचार की सामाजिक सन्दर्भों को नहीं समझने का ही परिणाम है ।
इस संदर्भ में सबसे बुनियादी बात यह है कि किसी आचरण को भ्रष्ट मानना काफी हद तक इस पर निर्भर करता है कि संबद्ध व्यक्ति कैसे समाज में रहता है । कोई भी समाज कुछ केन्द्रीय मूल्यों के इर्दगिर्द गठित होता है । उन्हीं मूल्यों से यह निर्धारित होता है कि कोई आचरण भ्रष्ट है या नहीं । मैक्सवेबर के बाद के अधिकांश समाजशास्त्री मोटा मोटी तौर से यह मानने लगे हैं कि किसी समाज के मूल्यों के आधार होते हैं परंपरा , करिश्मा वाला व्यक्तित्व या विवेक पर आधारित कानून नियम की व्यवस्था । इस विभाजन के अनुसार आधुनिक औद्योगिक समाज के मूल्यों के आधार होते हैं भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बनाए गए नियम कानून । यह माना जाता है कि ऐसे आधुनिक समाज में व्यवस्था वैयक्तिक या कौटुंबिक संबंधों या प्रभावों से असंपृक्त होती है । कानून नियम को लागू करने की जवाबदेही एक वेतनभोगी समुदाय या नौकरशाही पर होती है जो शुद्ध रूप से नियमों पर चलते हैं । आदर्श रूप में आधुनिक औद्योगिक समाज और चुनाव पद्धति पर आधारित राजनैतिक व्यवस्थाओं के काम इसी पद्धति से चलते हैं । अगर व्यवहार में आचरण इससे अलग होता है तो इसे विकृति माना जाता है । इसके विपरीत परंपरा पर आधारित समाज में ,और कुछ हद तक करिश्मा वाले व्यक्तित्व के प्रभाव में चलने वाली व्यवस्थाओं में भी वैयक्तिक वफादारी और निष्ठा नियम कानून से ऊपर हो जाती है । आधुनिक राजनीति में भ्रष्टाचार कुछ आरोपों के कारण आचरण और इसके मूल्यांकन का दो भिन्न मूल्यों पर आधारित समाज व्यवस्थाओं से प्रभावित होना होता है । इसलिए आज का कोई भी समाज जिसने अपने आर्थिक और राजनैतिक ढाँचे में आधुनिक औद्योगिक समाज के मूल्यों को अपना लिया है लेकिन जिसके आपसी मानवीय संबंध परंपरागत समाज के मूल्यों पर चलते हैं एक खास तरह के भ्रष्टाचार के दबाव में रहता है । जैसा ऊपर कहा गया है परंपरागत समाज में व्यक्ति या परिवार के प्रति वफादारी सर्वोपरि महत्व की होती है । इस कारण समाज में किसी ऊँचे ओहदे पर पहुँचे हुए व्यक्ति से अपेक्षा होती है कि रिश्तेदारों को अपने पद से लाभ पहुँचाए । ठीक इसके विपरीत आधुनिक औद्योगिक समाज की यह अपेक्षा है कि इसके अधिकारी अपने पद का उपयोग कानूनी दायरे के बाहर किसी संबंधी को लाभ पहुंचाने में न करें । इस तरह का व्यवहार समाज के मूल्यों के अनुसार भ्रष्ट आचरण है ।
पदों के दुरुपयोग के अधिकांश मामले इसीलिए उठते हैं क्योंकि आधुनिक मानदंडों पर आधारित संसदीय लोकतंत्र और प्रशासन के ऊँचे पदों पर वे ही लोग हैं जिनके वैयक्तिक आचरण में परंपरागत वफादारी घुटघुट कर समाई हुई है । विडंबना तो यह है कि जो लोग आधुनिकता की सबसे अधिक दुहाई देते हैं वे ही लोग अपने सगे-संबंधियों को आगे बढ़ाने में सबसे अधिक रुचि भी दिखलाते हैं । महात्मा गांधी जिन्हें आम तौर से पीछे देखू , परंपरावादी और घोर प्रतिक्रियावादी कहा जाता है शायद देश के बड़े नेताओं में अकेले थे जिन्होंने अपने पुत्रों को वैसे ही जीवन के लिए प्रशिक्षित किया जो देश के श्रमिक वर्ग के बच्चों को उपलब्ध है । अपनी संतान के प्रति पक्षपात रहित व्यवहार का एक दु:खद परिणाम यह हुआ कि उनके बड़े पुत्र हरिलाल गांधी विद्रोही बन गये और वह सब किया जिनका विरोध गांधीजी करते थे । इसके विपरीत जवाहरलाल नेहरू जिन्हें भारतीय आधुनिकता का प्रतीक माना जाता है हर मौके पर अपने परिवार के लोगों को आगे बढ़ाने की कोशिश करते रहे जिसके परिणामस्वरूप देश पर तीन पीढ़ी से एक परिवार का शासन चल रहा है । इसी तरह कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं संतान प्रेम भी आधुनिकता की मर्यादाओं को नहीं मानता । अगर भारतीय व्यवस्था में उनके लिए समुचित स्थान नहीं बन पाता तो उनके लिए रूस या अन्य कम्युनिस्ट देशों के नामी प्रतिष्ठानों में पैठ मिल जाती थी जहाँ से वे पुन: अपने लिए एक विशिष्ट स्थान बना लेते थे ।
इस अंतर्विरोध को समझना जरूरी है ।