[नवम्बर 1956 में,विश्व-बौद्ध-सम्मेलन काठमंडू (नेपाल) में दिया गया बाबासाहेब का व्याख्यान]
मित्रों!आज जिस युग में हम विचर रहे हैं,उसमें संसार के बुद्धिवादी विचारकों को मानव जीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाने के लिए केवल दो ही मार्ग ही दिखाई पड़ते हैंः पहला मार्ग साम्यवाद का है और दूसरा बौद्ध-धर्म का।शिक्षित युवकों पर साम्यवाद (Communism) का प्रभाव अधिक दिखाई देता है,इसका प्रमुख कारण यह है कि साम्यवाद का प्रचार सुसंगठित रूप से हो रहा है,और इसके प्रचारक बुद्धिवादी दलीलें पेश करते हैं।बौद्ध-धर्म भी बुद्धिवादी है,समता-प्रधान है।और परिणाम की ओर ध्यान दिया जाए,तो साम्यवाद से अधिक कल्याणकारी है। इसी तत्त्व पर अपने विचार आपके आगे रखना चाहता हूं।क्योंकि मैं समझता हूं,यह बात शिक्षित युवकों के आगे रखना अति आवश्यक है।
मेरे विचार में साम्यवाद की इस चुनौती को स्वीकार करते हुए बौद्ध-भिक्षुओं को चाहिए कि वे युगानुरूप अपनी विचार-पद्धति एवं प्रचार-कार्य में परिवर्तन करें और भगवान बुद्ध के विचार विशुद्ध रूप में शिक्षित युवकों के सामने रखें।बौद्ध धर्म के उत्थान और उन्नति के लिए इसीकी अत्यन्त आवश्यकता है।यदि इस काम को बौद्ध भिक्षु उचित प्रकार से न कर सकेंगे,तो बौद्ध धर्म की बहुत हानि होगी।इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।सारे संसार में व्याप्त कम्युनिज्म को भगवान बुद्ध की विचार प्रणाली में केवल यही उत्तर है कि मानव-जीवन को सुखी बनाने का साम्यवाद एक समीपी किन्तु टेढ़ा मार्ग है। बौद्ध-धर्म यद्यपि अपेक्षाकृत एक लम्बा रास्ता है किन्तु इस समीपी और टेढ़े रास्ते पर चलने की अपेक्षा यह एक सुन्दर,हितकर,समुचित और सम्यक राज-मार्ग है।
मार्क्सवादी साम्यवाद के मार्ग में संकट है,विपत्तियां हैं,इसीलिए उस मार्ग से हमें जहां पहुंचना है,वहां पहुंच पायेंगे या नहीं,इसमें संदेह है।
मार्क्सवादी साम्यवादी की मुख्य बात यह है कि संसार में आर्थिक शोषण से उत्पन्न विषमता के कारण ही बहुसंख्यक लोग दीन और दास बनकर कष्ट उठा रहे हैं।इस आर्थिक विषमता के शोषण और लूट को रोकने का एक ही रास्ता है,जिसके द्वारा व्यक्तिगत सीमित अधिकार को नष्ट किया जाए और उसकी जगह संपत्ति का राष्ट्रीयकरण या सामाजीकरण करके राष्ट्रीय अधिकार को अधिष्ठित किया जाय,जिससे श्रमिकों के राज्य की स्थापना हो,शोषण बंद हो और श्रमजीवी-वर्ग सुखी हो।
बौद्ध-धर्म का मुख्य तत्त्व भी मार्क्सवाद के अनुसार ही है। इसके अनुसार संसार में दुख है और उस दुख को दूर करना आवश्यक है।भगवान बुद्ध ने भी जिस दुख का निरूपण किया है,वह सांसारिक दुख ही है।बुद्ध-वचनों में इसके अनेक प्रमाण पाए जाते हैं। बौद्ध-धर्म अन्य धर्मों की भांति आत्मा और परमात्मा के संबंध पर आधारित नहीं है,बौद्ध-धर्म जीवन की अनुभूति पर अधिष्ठित है।दुख का पारलौकि अर्थ लगाकर पुनर्जन्म से उसका संबंध जोड़ना बुद्ध-मत के विरुद्ध है।संसार में दरिद्रता में जन्म लेकर प्लनेवाले दुखों का नाश होना अनिवार्य आवश्यक है।यह मान लेने के बाद देखना होगा कि इस दुख को हटाने के भगवान ने कौन-कौन से मार्ग बताये हैं। भगवान बुद्ध ने आदर्श बौद्ध समाज के तत्त्व संघ के अन्तर्निहित किए हैं।संघ में व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार के लिए कोई स्थान नहीं है।भिक्षु को केवल आठ चीजें अपने पास रखने का आदेश है।इन आठों में सबसे पहला वस्त्र है।इसमें भी परिग्रह की भावना का निर्माण न होने पाये,इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है।
संपत्ति पर व्यक्ति -विशेष का अधिकार सारे अनर्थों का कारण है यह बात भगवान बुद्ध ने कार्ल मार्क्स से चौबीस सौ वर्ष पहले जान ली थी।बुद्ध और मार्क्स में जो अन्तर है,वह केवल उस दुख के दूरीकरण के लिए बताए हुए उपायों में है।मार्क्स के मतानुसार संपत्ति पर से व्यक्ति का अधिकार हटाने का एक-मात्र साधन बलप्रयोग है,इसके विपरीत भगवान बुद्ध के विचारानुसार करुणा,मैत्री,समता,प्रेम,तृष्णा का त्याग,विराग आदि प्रमुख साधन हैं।बलपूर्वक सत्ता ग्रहण करके साम्यवादी अधिनानायकी स्थापित करके व्यक्तिगत अधिकार नष्ट करने में मार्क्सवादी प्रणाली थोड़े दिनों तक अच्छी मालूम होती है,इसके बाद कटु हो जाती है।क्योंकि बलपूर्वक अधिष्ठित अधिनायकी तथा उसके द्वारा आरंभ होने वाले हत्याकांड की परिसमाप्ति कब होगी,इसकी निश्चयता नहीं है।और यदि अधिनायकी कहीं असफल हो गयी ,तो फिर अपरिमित रक्तपात के सिवा और कोई मार्ग नहीं रह जाता। हिंसा के द्वारा स्थापित समता समाज में दृढता नहीं हो पाती,क्योंकि बल का स्थान धीरे-धीरे किस अन्य तत्त्व द्वारा ग्रहण किया जायेगा,इसका कोई उत्तर मार्क्स की मत-प्रणाली में नहीं है। हिंसा-प्रधान साम्यवादी शासन-प्रणाली में -शासन-चक्र अपने आप ही धीरे-धीरे नष्टप्राय होता जायेगा।यह बात भ्रममूलक नहीं है।
इसके विपरीत बुद्ध-प्रदर्शित अहिंसा,करुणा,मैत्री,समता द्वारा दुखों और क्लेशों की निवृत्ति का मार्ग श्रेयस्कर है,क्योंकि वह चित्त की विशुद्धि और हृदय-परिवर्तन के पुनीत तत्त्व पर आधारित है।मनुष्य के जीवन को सुखी बनाने के लिए नैतिक रूप से उसके मन को सुसंस्कृत करना अनिवार्य आवश्यक है,इस बात पर भगवान बुद्ध ने जितना अधिक ध्यान दिया उतना शायद संसार के किसी भी धर्म-प्रवर्तक या विचार-प्रणाली ने नहीं दिया।मनुष्य में विवेक हमेशा जागृत और सक्रिय बनाये रखने के लिए सदाचरण या शील को श्रद्धा का अधिष्ठान प्रदान करना भगवान बुद्ध का हेतु या लक्ष्य है। शील या सदाचरण को श्रद्धा का रूप प्राप्त होने के बाद दुख कम करने के लिए अर्थात शोषण और आर्थिक लूट रोकने के लिए बलप्रयोग की आवश्यकता नहीं रहती। ”State shall wither away.”(राज्य स्वयं सूख जाएगा) लेनिन का यह मधुर स्वप्न यदि साकार होगा,तो वह बलप्रयोग द्वारा स्थापित की हुई अधिनायकी द्वारा नहीं,वरन बुद्ध-प्रदर्शित शील-सदाचार और विशुद्धि-तत्त्व से ही होगा।
अदिनायकी का भगवान बुद्ध ने विरोध किया है।अजातशत्रु के एक मंत्री ने एक बार उनसे प्रश्न किया-“भगवन! बज्जियों पर हम किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकेंगे?”भगवान बुद्ध ने उत्तर में कहा-“बज्जी लोग जब तक गणतंत्र-शासन का संचालन बहुमत से करते रहेंगे,तब तक वे अजेय हैं।जिस दिन बज्जी गणतंत्र शासन-प्रणाली को त्याग देंगे, उसी दिन वे पराजित हो जायेंगे।”भगवान बुद्ध का यह नीतिप्रधान लोकतंत्र का मार्ग मार्क्सवादी अधिनायक-तंत्र की पएक्षा अधिक हितकर एवं चिरस्थायी है।मुझे आशा है साम्यवाद का यह कल्याणकारी प्राचीन मार्ग यदि आज भी हम युवक समाज के सामने समुचित रूप से रख सकें,तो यह उन्हें आकर्षित किये बिना न रहेगा।
भगवान ने पने भिक्षुओं को “बहुजन-हित और बहुजन-सुख” के लिए आदेश किया था कि “संसार की हर दिशा में जाकर मेरे इस आदि में कल्याण करनेवाले,मध्य में कल्याण करनेवाले और अंत में कल्याण करनेवाले धर्म का प्रचार करो और विशुद्ध ब्रह्मचर्य का प्रकाश करो।”किंतु आज हम देखते हैं,भिक्षुगण मनमुख हो अपने-अपने विहार में रहकर आत्मोन्नति का मार्ग ढूंढ़ रहे हैं।यह कदापित उचित और हितकर नहीं है। बौद्ध धर्म एकांत में आचरण किया जानेवाला कोई रहस्यमय आचार नहीं है,यह एक प्रबल सामाजिक संघ-शक्ति है।आज भी विनाश की भयानक चोटी पर खड़े संसार का मार्ग दिखाने का सामर्थ्य इस शक्ति में है। भगवान बुद्ध के आदेश को स्मरण रखते हुए उनके पवित्र कल्याणकारी धर्म का चारों ओर प्रचार करने की चेष्टा भिक्षुओं को करना चाहिए।
नोट(अनुवादक का)-कम्युनिस्ट और कम्युनिज्म के संबंध में बाबासाहेब ने अपने लाहौर वाले भाषण “जातिभेद का विनाश” में तथा नागपुर के भाषण” हम बौद्ध क्यों बनें?” में भी अच्छा प्रकाश डाला है।ये दोनों व्याख्यान अलग-अलग छपे हैं।
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