Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Posts Tagged ‘battle for water’

” दुनिया के पैमाने पर हर आठवें आदमी को पीने का पानी नहीं मिलता । हर रोज महिलाओं द्वारा २० करोड़ घण्टे पानी इकट्ठा कर अपने घर लाने में लगाये जाते हैं । दुनिया की आबादी का ४० फीसदी ( २.६ अरब लोग ) पानी के अभाव में सफ़ाई-सुविधाओं से वंचित हैं । ’ डायरिया : अब भी बच्चे क्यों मर रहे हैं तथा हम क्या कर सकते हैं ’ नामक विश्व स्वास्थ्य संगठन और युनिसेफ की रपट ’ के अनुसार , ’ हर रोज विकासशील दे्शों के २४,००० बच्चे डायरिया जैसी दूषित पानी से हुई बीमारियों से मरते हैं । मौत की इन सामान्य वजहों से बचा जा सकता है। इस आंकड़े के माएने हुए कि हर साढ़े तीन सेकेण्ड में एक बच्चा मर जाता है। आपके ’एक-दो-तीन’ बोलते ही। कुछ करने का वक्त आ गया है।’

संयुक्त राष्ट्र  महासभा में ’स्वच्छ पानी हासिल करने का बुनियादी हक़ ’हासिल करने के लिए  प्रस्ताव रखने वाले बोलिविया के प्रतिनिधि पाब्लो सोलोन ने ऊपर्युक्त बाते कही हैं। दस साल पहले बोलिविया में कोचाबाम्बा शहर के लोगों ने अपनी पानी की व्यवस्था बहुराष्ट्रीय कम्पनी बेकटेल को सौंपे जाने के खिलाफ़ सफल अहिंसक आन्दोलन किया था। इस आन्दोलन के नेता एक जूता कम्पनी के मशीनिस्ट ऑस्कर ऑलिवेरा फोरोन्डा थे । ऑलिवेरा कहते हैं – ’पानी सबके लिए है – सभी जीवों , पौधों , पशुओं व मानव – जाति की प्राकृतिक धोरोहर !’ आंदोलन की सफलता के बाद उन्होंने जीत का अर्थिक पक्ष बताया था – बढ़े रेट खारिज किए जाने तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनी के निष्कासन के फलस्वरूप कोचाबाम्बा से तीस लाख डॉलर बाहर जाने से बच जाएंगे । हमारे देश की न्यूनतम आमदनी ६० डॉलर मासिक है तथा प्रत्येक परिवार पानी पर खर्च के मद में ३० से ८० डॉलर की बचत कर लेगा ।’

यह बहुप्रतीक्षित प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित न हो सका । यह जरूर है कि प्रस्ताव के विरोध में किसी देश ने वोट देने की हिम्मत नहीं की परन्तु ४१ देश मतदान से विरत रहे । विरत रहने वाले देशों में प्रमुख अमेरिका , इंग्लैण्ड,कैनेडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड आदि थे । यह गौरतलब है कि यह सभी देश अंग्रेजी भाषी हैं । जर्मनी, फ्रांस, इटली, रूस, चीन जैसे गैर अंग्रेजी-भाषी विकसित राष्ट्रों ने भी प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया। इंग्लैण्ड के एक राजनयिक ने इस अधिकार के विरुद्ध स्पष्ट तौर पर कहा था ,’ हम अफ़्रीका में संडास बनाने के लिए क्यों खर्च करें ? ’ इस बहस में अमेरिकी प्रतिनिधि ने प्रस्तावकर्ता बोलिविया के प्रतिनिधि को अपमानजनक शब्दों में धमकाने वाला भाषण दिया। अमेरिका द्वारा पिछले कुछ वर्षों से संयुक्त राष्ट्र में अधिकारों का विरोध करने की नीति जारी की गई है । इस मामले में बुश और ओबामा में अन्तर नहीं है । इस अधिकार के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जन जागृति फैलाने वाली प्रमुख नेता मॉड बार्लो का कहना है कि इस फैसले से कुदरत के प्रति हमारा रवैया तथा अन्य इंसानों के प्रति हमारा रवैया बदलेगा ।जिन देशों ने प्रस्ताव से विरत रहना उचित समझा वहां की जनता द्वारा इस ’कायरता’ की आलोचना हो रही है । इससे लगता है कि पूरी दुनिया की जनता के बीच तो पूर्ण सहमति है ।

साफ़ पानी के अधिकार के असाधारण महत्व को समझने के लिए हमे कुछ तथ्यों पर गौर करना होगा ।

स्कूल में हमें पढाया जाता है कि पृथ्वी का जल-चक्र एक बन्द प्रणाली है । अर्थात वर्षा और वाष्पीकरण द्वारा सतत रूप बदलता पानी पृथ्वी के वातावरण में जस का तस बना हुआ है। न सिर्फ़ पृथ्वी के निर्माण के समय हमारे ग्रह पर जितना पानी था वह बरकरार है अपितु यह पानी वह ही है। जब कभी आप बरसात में टहल रहे हों तब कुछ रुककर कल्पना कीजिए – बूंदें जो आप पर गिर रही हैं कभी डाइनोसॉर के खून के साथ बहती होंगी अथवा हजारों बरस पहले के बच्चों के आंसुओं में शामिल रही होंगी।

पानी की कुल मात्रा बरकरार रहेगी फिर भी यह मुमकिन है कि इन्सान उसे भविष्य में अपने और पृथ्वी के उपयोग के लायक न छोडे.पीने के पानी के संकट की कई वजह हैं। पानी की खपत हर बीसवें साल में प्रति व्यक्ति दुगुनी हो जा रही है तथा आबादी बढने की तेज रफ़्तार से भी यह दुगुनी है। अमीर औद्योगिक देशों की तकनीकी तथा आधुनिक स्वच्छता प्रणाली ने जरूरत से कहीं ज्यादा पानी के उपयोग को बढावा दिया है। व्यक्तिगत स्तर पर पानी के उपयोग की इस बढोतरी के बावजूद घर – गृहस्थी तथा नगरपालिकाओं में मात्र दस फ़ीसदी पानी की खपत होती है।

दुनिया के कुल ताजे पानी की आपूर्ति का २० से २५ प्रतिशत उद्योगों द्वारा इस्तेमाल होता है। उद्योगों की मांग भी लगातार बढ रही है। सर्वाधिक तेजी से बढ रहे कई उद्योग पानी की सघन खपत करते हैं। मसलन सिर्फ़ अमरीकी कम्प्यूटर उद्योग द्वारा सालाना ३९६ अरब लीटर पानी का उपयोग किया जाएगा।

सर्वाधिक पानी की खपत सिंचाई में होती है.मानव द्वारा प्रयुक्त कुल पानी का ६५ से ७० फ़ीसदी हिस्सा सिंचाई का है। औद्योगिक खेती (कम्पनियों द्वारा खेती) में निरन्तर अधिकाधिक पानी की खपत के तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं। कम्पनियों द्वारा सघन सिंचाई वाली खेती के लिए सरकारों तथा करदाताओं द्वारा भारी अनुदान भी दिया जाता है । अनुदान आदि मिलने के कारण ही कम सिंचाई के तौर-तरीके के प्रति इन कम्पनियों को कोई आकर्षण नही होता।

जनसंख्या वृद्धि तथा पानी की प्रति व्यक्ति खपत में वृद्धि के साथ – साथ भूतल जल-प्रणालियों के भीषण प्रदूषण के कारण शेष बचे स्वच्छ और ताजे पानी की आपूर्ति पर भारी दबाव बढ़ जाता है। दुनिया भर में जंगलोंका विनाश , कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों से प्रदूषण तथा ग्लोबल वार्मिंग के सम्मिलित प्रभाव से पृथ्वी की नाजुक जल प्रणाली पर हमला हो रहा है।

दुनिया में ताजे पानी की कमी हो गयी है। वर्ष २०२५ में विश्व की आबादी आज से से २.६ अरब अधिक हो जाएगी। इस आबादी के दो-तिहाई लोगों के समक्ष पानी का गंभीर संकट होगा तथा एक तिहाई के समक्ष पूर्ण अभाव की स्थिति होगी।

दिनोंदिन बढती मांग और संकुचित हो रही आपूर्ति के कारण बडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की रुचि इस क्षेत्र में जागृत हुई है जो  पानी से मुनाफ़ा कमाना चाहती हैं। विश्व-बैंक द्वारा पानी-उद्योग को एक खरब डॊलर के उद्योग के रूप में माना जा रहा है तथा बढावा दिया जा रहा है। विश्व बैंक द्वारा सरकारों पर दबाव है कि वे जल-आपूर्ति की सार्वजनिक व्यवस्था निजी हाथों में सौंप दें। पानी इक्कीसवीं सदी का ‘नीला सोना’ बन गया है।

उदारीकरण ,निजीकरण,विनिवेश आदि दुनिया के आर्थिक दर्शन पर हावी हैं। यह नीतियां ‘वाशिंगटन सहमति’ के नाम से जानी जाती हैं। पानी का निजीकरण इन नीतियों से मेल खाता है। यह दर्शन सरकारों को सामाजिक कार्यक्रमों की जिम्मेदारी तथा संसाधनों के प्रबन्धन से मुंह मोड लेने की सलाह देता है ताकि निजी क्षेत्र उनका स्थान ले लें। इस मामले में यह ‘सबके लिए पानी’ की प्राचीन सोच पर सीधा हमला है।

सर्वाधिक पानी की खपत सिंचाई में होती है। मानव द्वारा प्रयुक्त कुल पानी का ६५ से ७० फ़ीसदी हिस्सा सिंचाई का है। औद्योगिक खेती (कम्पनियों द्वारा खेती) में निरन्तर अधिकाधिक पानी की खपत के तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं। कंपनियों द्वारा सघन सिंचाई वाली खेती के लिए सरकारों तथा करदाताओं द्वारा भारी अनुदान भी दिया जाता है । अनुदान आदि मिलने के कारण ही कम सिंचाई के तौर-तरीके के प्रति इन कंपनियों को कोई आकर्षण नही नही होता।

जनसंख्या वृद्धि तथा पानी की प्रति व्यक्ति खपत में वृद्धि के साथ – साथ भूतल जल-प्रणालियों के भीषण प्रदूषण के कारण शेष बचे स्वच्छ और ताजे पानी की आपूर्ति पर भारी दबाव बढ जाता है। दुनिया भर में जंगलोंका विनाश , कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों से प्रदूषण तथा ग्लोबल वार्मिंग के सम्मिलित प्रभाव से पृथ्वी की नाजुक जल प्रणाली पर हमला हो रहा है।  पानी के जरिए मुनाफ़ा कमाने की कंपनियों की कोशिशों का गरीब मुल्कों में तीव्र विरोध हुआ है। इसलिए अब वे अमेरिका , इंग्लैण्ड ,ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में पैर पसार रही हैं ।

पानी की कुल मात्रा बरकरार रहेगी फिर भी यह मुमकिन है कि इन्सान उसे भविष्य में अपने और पृथ्वी के उपयोग के लायक न छोडे। पीने के पानी के संकट की कई वजह हैं।  अमीर औद्योगिक देशों की तकनीकी तथा आधुनिक स्वच्छता प्रणाली ने जरूरत से कहीं ज्यादा पानी के उपयोग को बढावा दिया है। व्यक्तिगत स्तर पर पानी के उपयोग की इस बढोतरी के बावजूद घर – गृहस्थी तथा नगरपालिकाओं में मात्र दस फ़ीसदी पानी की खपत होती है। दुनिया के कुल ताजे पानी की आपूर्ति का २० से २५ प्रतिशत उद्योगों द्वारा इस्तेमाल होता है।उद्योगों की मांग भी लगातार बढ रही है। सर्वाधिक तेजी से बढ रहे कई उद्योग पानी की सघन खपत करते हैं। मसलन सिर्फ़ अमरीकी कम्प्यूटर उद्योग द्वारा सालाना ३९६ अरब लीटर पानी का उपयोग किया जाएगा।

सर्वाधिक पानी की खपत सिंचाई में होती है। मानव द्वारा प्रयुक्त कुल पानी का ६५ से ७० फ़ीसदी हिस्सा सिंचाई का है। औद्योगिक खेती (कम्पनियों द्वारा खेती) में निरन्तर अधिकाधिक पानी की खपत के तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं। कम्पनियों द्वारा सघन सिंचाई वाली खेती के लिए सरकारों तथा करदाताओं द्वारा भारी अनुदान भी दिया जाता है । अनुदान आदि मिलने के कारण ही कम सिंचाई के तौर-तरीके के प्रति इन कम्पनियों को कोई आकर्षण नही नही होता।

जनसंख्या वृद्धि तथा पानी की प्रति व्यक्ति खपत में वृद्धि के साथ – साथ भूतल जल-प्रणालियों के भीषण प्रदूषण के कारण शेष बचे स्वच्छ और ताजे पानी की आपूर्ति पर भारी दबाव बढ जाता है। दुनिया भर में जंगलोंका विनाश, कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों से प्रदूषण तथा पृथ्वी के बढ़ते तापमान के सम्मिलित प्रभाव से पृथ्वी की नाजुक जल प्रणाली पर हमला हो रहा है।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा साफ़ पानी और सफ़ाई को बुनियादी अधिकार माने जाने से पानी से मुनाफ़ा कमाने और स्थानीय आबादी को पानी से वंचित किए जाने के विरुद्ध चल रहे जन आन्दोलन इस कदम से उत्साहित हैं। जीने के लिए पानी जरूरी है। सभी लोगों को समानरूप से पानी मिलना चाहिए उसकी कीमत चुकाने की औकात से नहीं – इस बुनियादी दर्शन की दिशा में लड़ने वालों को संयुक्त राष्ट्र के कदम से बल मिलेगा ।


Aflatoon   अफ़लातून ,
समाजवादी जनपरिषद ,

Read Full Post »

[लेखक परिचय : मॉड बार्लो – कैनेडा के सबसे बडे जनसंगठन ‘काउन्सिल ऑफ़ कैनेडियन्स’ की अध्यक्षा.वैनकूवर ,टोरेन्टो तथा हेलिफैक्स शहरों में पानी के निजीकरण के विरुद्ध यह संगठन सक्रिय है.पानी के निगमीकरण पर टोनी क्लार्क के साथ लिखी गयी चर्चित पुस्तक ‘ब्लू गोल्ड’ की लेखिका.

टोनी क्लार्क – लोकतांत्रिक समाज परिवर्तन के संघर्ष हेतु जन आन्दोलनों को प्रशिक्षित करने वाली संस्था पोलारिस इन्स्टीट्यूट के निदेशक.वैश्वीकरण विरोधी आन्दोलन के नेता. ]

  स्कूल में हमें पढाया जाता है कि पृथ्वी का जल-चक्र एक बन्द प्रणाली है . अर्थात वर्षा और वाष्पीकरण द्वारा सतत रूप बदलता पानी पृथ्वी के वातावरण में जस का तस बना हुआ है. न सिर्फ़ पृथ्वी के निर्माण के समय हमारे ग्रह पर जितना पानी था वह बरकरार है अपितु यह यह पानी वह ही है. जब कभी आप बरसात में टहल रहे हों तब कुछ रुककर कल्पना कीजिए – बूंदें जो आप पर गिर रही हैं कभी डिनासार के खून के साथ बहती होंगी अथवा हजारों बरस पहले के बच्चों के आंसुओं में शामिल रही होंगी.

  पानी की कुल मात्रा बरकरार रहेगी फिर भी यह मुमकिन है कि इन्सान उसे भविष्य में अपने और पृथ्वी के उपयोग के लायक न छोडे.पीने के पानी के संकट की कई वजह हैं.पानी की खपत हर बीसवें साल में प्रति व्यक्ति दुगुनी हो जा रही है तथा आबादी बढने की तेज रफ़्तार से यह दुगुनी है. अमीर औद्योगिक देशों की तकनीकी तथा आधुनिक स्वच्छता प्रणाली ने जरूरत से कहीं ज्यादा पानी के उपयोग को बढावा दिया है.व्यक्तिगत स्तर पर पानी के उपयोग की इस बढोतरी के बावजूद घर – गृहस्थी तथा नगरपालिकाओं में मात्र दस फ़ीसदी पानी की खपत होती है.

  दुनिया के कुल ताजे पानी की आपूर्ति का २० से २५ प्रतिशत उद्योगों द्वारा इस्तेमाल होता है.उद्योगों की मांग भी लगातार बढ रही है.सर्वाधिक तेजी से बढ रहे कई उद्योग पानी की सघन खपत करते हैं.मसलन सिर्फ़ अमरीकी कम्प्यूटर उद्योग द्वारा सालाना ३९६ अरब लीटर पानी का उपयोग किया जाएगा.

  सर्वाधिक पानी की खपत सिंचाई में होती है.मानव द्वारा प्रयुक्त कुल पानी का ६५ से ७० फ़ीसदी हिस्सा सिंचाई का है.औद्योगिक खेती (कम्पनियों द्वारा खेती) में निरन्तर अधिकाधिक पानी की खपत के तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं.कम्पनियों द्वारा सघन सिंचाई वाली खेती के लिए सरकारों तथा करदाताओं द्वारा भारी अनुदान भी दिया जाता है . अनुदान आदि मिलने के कारण ही कम सिंचाई के तौर-तरीके के प्रति इन कम्पनियों को कोई आकर्षण नही नही होता.

  जनसंख्या वृद्धि तथा पानी की प्रति व्यक्ति खपत में वृद्धि के साथ – साथ भूतल जल-प्रणालियों के भीषण प्रदूषण के कारण शेष बचे स्वच्छ और ताजे पानी की आपूर्ति पर भारी दबाव बढ जाता है.दुनिया भर में जंगलोंका विनाश , कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों से प्रदूषण तथा ग्लोबल वार्मिंग के सम्मिलित प्रभाव से पृथ्वी की नाजुक जल प्रणाली पर हमला हो रहा है.

  दुनिया में ताजे पानी की कमी हो गयी है.वर्ष २०२५ में विश्व की आबादी आज से से २.६ अरब अधिक हो जाएगी.इस आबादी के दो-तिहाई लोगों के समक्ष पानी का गंभीर संकट होगा तथा एक तिहाई के समक्ष पूर्ण अभाव की स्थिति होगी.तब पानी की उपलब्धता से ५६ फ़ीसदी ज्यादा की मांग होगी.

  दिनोंदिन बढती मांग और संकुचित हो रही आपूर्ति के कारण बडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की रुचि इस क्षेत्र में जागृत हुई है जो  पानी से मुनाफ़ा कमाना चाहती हैं.विश्व-बैंक द्वारा पानी-उद्योग को एक खरब डॊलर के उद्योग के रूप में माना जा रहा है तथा बढावा दिया जा रहा है.विश्व बैंक द्वारा सरकारों पर दबाव है कि वे जल-आपूर्ति की सार्वजनिक व्यवस्था निजी हाथों में सौंप दें.पानी इक्कीसवीं सदी का ‘नीला सोना’ बन गया है.

  उदारीकरण ,निजीकरण,विनिवेश आदि दुनिया के आर्थिक दर्शन पर हावी हैं.यह नीतियां ‘वाशिंगटन सहमति’ के नाम से जानी जाती हैं. पानी का निजीकरण इन नीतियों से मेल खाता है.यह दर्शन सरकारों को सामाजिक कार्यक्रमों की जिम्मेदारी तथा संसाधनों के प्रबन्धन से मुंह मोड लेने की सलाह देता है ताकि निजी क्षेत्र उनका स्थान ले लें.इस मामले में यह ‘सबके लिए पानी’ की प्राचीन सोच पर सीधा हमला है.

  पानी के व्यवसाय से जुडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथ में सबसे जरूरी औजार विश्व व्यापार समझौते मुहैय्या कराते हैं.विश्व व्यापार संगठन और नाफ्टा (उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापार सन्धि) जैसे बहुराष्ट्रीय प्रबन्ध निकाय पानी को व्यापार की वस्तु के रूप में परिभाषित करते हैं.नतीजन जो नियम पेट्रोल और प्राकृतिक गैस के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को संचालित करते हैं वे पानी पर भी लागू हो गये हैं.इन अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के तहत कोई भी देश पानी के निर्यात पर यदि प्रतिबन्ध लगाता है अथवा उसे सीमित करता है तो वह देश विश्वव्यापार संगठन की नाराजगी और निन्दा का भागी होगा . पानी के आयात से इन्कार किया जाना भी प्रतिबन्धित होगा.नाफ्टा सन्धि की एक धारा के तहत यदि कोई देश अपने प्राकृतिक संसाधनों का निर्यात शुरु करता है तो वह उस पर तब तक रोक नहीं लगा सकता जब तक वह संसाधन समाप्त न हो जाए.

   

विश्वव्यापार संगठन के सेवाओं के व्यापार से सम्बन्धित नियम भी जल आपूर्ति के निजीकरण को बढावा देंगे.इन नियमों के तहत सभी देशों पर न सिर्फ़ सार्वजनिक जल-प्रणालियों से सरकारी नियंत्रण हटाने और निजीकरण करने का दबाव होगा अपितु किसी शहर की जल वितरण प्रणाली यदि किसी विदेशी कम्पनी के हाथों चली जाती है तो उसे वापस जनता के नियंत्रण में लेना विश्वव्यापार संगठन द्वारा भारी जुर्माना न्योतना होगा.  पानी के निजीकरण की मुहिम की रहनुमाई यूरोप शित तीन विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कर रही हैं – विवेन्डी (फ़्रान्स ) , सुवेज (फ़्रान्स) , आर.डब्ल्यू.ई (जर्मनी).वर्ष २००१ में पानी से प्राप्त इनकी आमदनी क्रमश: ११.९० अरब , ८.८४ अरब तथा २.८ अरब डॊलर थी.इन तीनों कम्पनियों ने दुनिया भर के पानी व्यापार पर हावी होने के लिए छोटी – छोटी प्रतिद्वन्द्वी कम्पनियों को खरीद लिया है.शुरु में तीसरी दुनिया के पानी के संकट का तारनहार बनने की आस में तथा प्रयास में इन कम्पनियोंने सार्वजनिक जल वितरण व्यवस्था पर कब्जा जमाने की दूरगामी रणनीति बनाई.परन्तु तीसरी दुनिया के देशों में इनकी कोशिशों को मुंह के बल गिरना पडा और उनके इस अभियान की गाडी पटरी से उतर गयी.  ब्वेनॊस एरिस (अर्जेन्टीना की राजधानी) का प्रकरण विशेष रूप से सबक देने वाला था.तीसरी दुनिया में पानी के निजीकरण की यह महत्वपूर्ण योजना थी.सुवेज ने अपनी आनुषंगिक कम्पनी अगुआस अर्जेन्टीनास के द्वारा इस शहर की जल-आपूर्ति तथा सीवर व्यवस्था को अधिगृहीत किया.पुरानी पड चुकी वितरण व्यवस्था के नवीनीकरण हेतु सार्वजनिक क्षेत्र में धन का अभाव रहता है तथा निजी कम्पनियांकमी को पूरा कर सकती हैं-निजीकरण के पक्ष में यह तर्क आम तौर पर दिया जाता है.इस मामले में सुवेज कम्पनी के निजीकरण के प्रयोग हेतु आवश्यक एक अरब डोलर की ९७ फ़ीसदी पूंजी के हिस्से की पूर्ति विश्व बैक,अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष व अन्य छोटे बैंकों ने की.जल-आपूर्ति व सीवर व्यवस्था में मामूली बढोतरी के बावजूद  सुवेज कम्पनी दोनों कार्यों में निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नही कर सकी.यह गौरतलब है कि ९० के दशक के बीच के वर्षों में कम्पनी ने सालाना २५ फ़ीसदी मुनाफ़ा भी कमा लिया.हाल ही में सुवेज ने अर्जेन्टीना छोडने की घोषणा कर दी है.कम्पनी ने कहा है कि उस देश के मुद्रा संकट के कारण उसे कम मुनाफ़ा मिल रहा है.निजीकरण की योजनाएं जोहानस्बर्ग और मनीला में भी लडखडाई हैं.गंगा नदी से निकली गंग नहर से नई दिल्ली के सोनिया विहार में जल-आपूर्ति की योजना भी इसी सुवेज के हवाले है.सर्वाधिक प्रसिद्ध मामला दक्षिण अमेरिकी देश बोलिविया के एक बडे शहर कोचाबाम्बा का है.१९९९ में बेकटेल कम्पनी द्वारा इस शहर की जल -आपूर्ति की बागडोर संभालने के बाद पानी का रेट इतना बढ गया कि कई लोगों को अपनी आमदनी का बीस फ़ीसदी पानी के लिए खर्च करना पडा.नागरिकोख द्वारा इस फ़ैसले का तीव्र प्रतिकार हुआ.पुलिस दमन में छ; लोगों की मृत्यु हुई.अन्तत: सरकार ने बेकटेल कम्पनी से हुए करार को खारिज कर दिया और कहा कि यदि वह उस देश में टिकी रही तो उसकी सुरक्षा की गारण्टी लेने में सरकार असमर्थ होगी.

   

तीसरी दुनिया के देशों में पानी के निजीकरण की कोशिशों को जनता के तीव्र प्रतिरोध का सामना करना पड रहा है.इन तीन बडी कम्पनियों ने आपस में तालमेल बनाया है तथा निजीकरण की पक्षधर नीति के निर्धारण हेतु विश्व बैंक और अमीर देशों की आर्थिक  मदद से इन कम्पनियों ने कई गठबंधन बना रखे हैं.हर तीन साल पर आयोजित होने वाले विश्व जल मंच (वर्ल्ड वॊटर फोरम) के आयोजन में इन संगठनों की मुख्य भूमिका होती है . व्यापार जगत और सरकारों के नीति निर्धारकों के इस जमावडे में भी आन्दोलनकारियों ने विरोध की आवाजें बुलन्द की हैं.पिछले साल मार्च महीने में जापान के क्योटो शहर में दुनिया भर के जन-आन्दोलनों के प्रतिनिधियों ने माइक कब्जे में ले कर निजीकरण के दुष्परिणामों की दास्तान सुनाई.मेक्सिको के कान्कुन शहर का एक आन्दोलनकारी अपने हाथ में काला और बदबूदार पानी से भरा गिलास ले कर मंच पर चढ गया.उसने बताया कि यह पानी वह अपने घर की टोटी से भर कर लाया है और उस नगर निगम का की जल – आपूर्ति सुवेज कम्पनी द्वारा होती है.उसने आयोजकों से निवेदन किया कि सुवेज के मुख्य कार्यपालक अधिकारी को मंच पर निमंत्रित कर वह गन्दा व बदबूदार पानी पीने को कहा जाए.  पानी व्यवसाय की यह बडी कम्पनियां अब रणनीति बदल रही हैं तथा उत्तरी अमेरिका व यूरोप के ज्यादा सुरक्षित बाजार में निवेश कर रही हैं.संयुक्त राज्य अमेरिका की जल आपूर्ति की सेवा का पचासी प्रतिशत अभी भी सार्वजनिक क्षेत्र में है. इन तीन बडी कम्पनियों ने आगामी दस सालों में अमरीका की सत्तर फ़ीसदी जल-आपूर्ति-सेवा पर कब्जा करने का लक्ष्य रखा है.अमरीका के छोटे कस्बों और समुदायों के बीच जल आपूर्ति करने वाली कई कम्पनियों को इन तीन बडी कम्पनियों ने खरीद लिया है.  छोटी-छोटी कम्पनियों के विलय से बनी विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनी जब नगर निगमों की जल -आपूर्ति अपने हाथों में लेती है तब ऐसा लगता है कि यह सिर्फ़ स्थानीय समस्या है.परन्तु इन्हीं कार्पोरेट खिलाडियों द्वारा दुनिया भर में लोगों के साथ करतूतें की जा रही है उसके मद्दे नजर जनता को भी आपस में सम्पर्क बढाना चाहिए तथा समन्वय बनाना चाहिए ताकि हम एक-दूसरे के अनुभवों से सीख ले सकें तथा सीधे हमले की शुरुआत कर सकें.

  हमारी स्थानीय कार्रवाइयां तीन जागतिक उसूलों से संचालित होनी चाहिए.पहला उसूल है कि जल संरक्षण की आवश्यकता व पानी की कमी को हल्के में नहीं लिया जा सकता . पानी कहीं प्रचुर है तो कहीं इसका घोर अभाव है इसलिए जल संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी.पानी एक मौलिक मानवाधिकार है ,यह दूसरा उसूल है.जीने के लिए पानी जरूरी है.सभी लोगों को समानरूप से पानी मिलना चाहिए उसकी कीमत चुकाने की औकात से नहीं . तीसरा सिद्धान्त जल- लोकतंत्र का है.अपने सबसे मूल्यवान संसाधन की जिम्मेदारी हम सरकार में बैठे नौकरशाहों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले कत्तई नहीं सौंप सकते हैं . इन लोगों की नीयत भले ही अच्छी हो अथवा बुरी. हमें इस बुनियादी उसूल को बचाना होगा,उसके लिए संघर्ष करना होगा तथा अपनी उचित भूमिका निभाते हुए जल-लोकतंत्र की मांग करनी होगी. (स्रोत : कोक-पेप्सी की लूट और पानी की जंग : सम्पादक- अफ़लातून )

Read Full Post »

%d bloggers like this: