ईसाई कानूनों की स्थिति दिलचस्प है । ईसाई विवाह अधिनियम ( 1872 ) व ईसाई तलाक अधिनियम ( 1869 ) अंग्रेजों द्वारा बनाये गये हैं । ये एक सदी से ज्यादा पुराने हो चुके हैं । इस सदी में हमारा पूरा समाज बदल चुका है , जो कि विशेष विवाह अधिनियम व तलाक अधिनियम ( 1974 ) में ( एक हद तक ) परिलक्षित है । जो निजी कानून ईसाई धर्मावलम्बियों के लिए है उसमें पुरुष को तलाक देने के लिए पत्नी को व्याभिचारिणी सिद्ध करना काफी है , परंतु स्त्री को पति के व्यभिचार के साथ शारीरिक यातना , बलात्कार , परित्याग जैसे एक से अधिक आधार सिद्ध करने पड़ते हैं । जाहिर है कि इसके साक्ष्य जुटाना कठिन हैं । मतलब कि गैर बराबर आधार है एक ही स्थिति से निजात के लिए । गोद लेने का अधिकार भी नहीं है ईसाई माता या पिता को ।
उत्तराधिकार अलग – अलग ईसाई पंथ में अलग है । केरल के प्रसिद्ध मेरी रॉय बनाम केरल राज्य मामले में वादी ने सीरियन ईसाईयों की प्रथा को चुनौती दी थी जिसमें पुत्रियों का हिस्सा अपने भाइयों के हिस्से से (1/4 ) आँका जाता है । अंतत: उनकी जीत उच्चतम न्यायालय से हुई । समानता मूलक कानून बनाने का भी निर्देश इस निर्णय में था । 1994 में लगभग एक दशक की चर्चा व चिंतन के बाद विभिन्न ईसाई पंथ के पादरियों की परिषद , महिला संगठनों व कानूनविदों ने ईसाई धर्मावलम्बियों के लिए एक निजी कानून प्रस्तावित किया है जो वक्त की जरूरत पर आधारित है। उस प्रस्ताव भारत सरकार द्वारा सुनवाई होना बाकी है । ईसाई विवाह अधिनियम ( 1872 ) का चरित्र प्रशासनिक ज्यादा , सामाजिक कम है । इसमें विवाह की शर्तें स्पष्ट भी नहीं हैं , व हर पंथ के लिए समान भी नहीं । इसकी उपधारा ( 79 – 71 ) में बाल – विवाह की अनुमति भी है । ईसाई तलाक अधिनियम (1869 ) के विडंबनापूर्ण व विषमतामूलक रूप को हमने रेखांकित किया है । ज्यादातर धर्मगुरु भी अब परस्पर रजामंदी से तलाक ( विशेष विवाह अधिनियम 1974 की तरह ) सुविधा समाज को मिले , यह चाहते हैं । इससे समाज में विकृतियाँ कम होंगी ऐसा उन्हें लगता है । केरल के उच्च न्यायालय ने इस तलाक अधिनियम (1869 ) को असंवैधानिक बताया है । भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम ( 1925 ) ईसाईयों पर लागू होता है जिसमें ईसाई विधवा को पति की आधी संपत्ति ही मिल सकती है । अगर गलती से या अज्ञानतावश पत्नी ने शादी के पूर्व किए करार में संपत्ति में अपना हिस्सा छोड़ दिया हो तो बाद में यह गलती नहीं सुधारी जा सकती । 1994 के प्रस्तावित विधेयक में विवाह व तलाक नियमों को विशेष विवाह अधिनियम (1954 ) के अनुरूप बना दिया गया है । उत्तराधिकार में समान हिस्सा मिले यह प्रस्तावित है और गोद लेने का हक भी स्त्री – पुरुष दोनों को है ।
इन मुख्य धर्मों के निजी कानूनों से अलग गोवा राज्य में पुर्तगाली सिविल कोड ( कोडिगो सिविल पोर्चगीज़ – 1870 ) हर धर्म के नागरिक पर लागू होता है । इसके कारण वहाँ हर विवाह , जन्म व मृत्यु को पंजीकृत करना अनिवार्य है । कुछ अपवाद छोड़कर वहाँ सभी इसी नियम का पालन करते हैं । परस्पर रजामंदी से तलाक पहले 1910 में मिला , फिर 1946 में कैथोलिक मत से प्रभावित पुर्तगाली राज्यसत्ता ने तलाक का प्रावधान हटाया , अब 1974 से फिर मिला है ।शादी के पहले की संपत्ति पति या पत्नी की निजी व विवाहोपरान्त साझी होती है । तलाक के बाद इसका आधे में बँटवारा होता है । पति अगर किसी व्यक्ति या संस्था से ऋण लेकर नहीं चुकाता है तो उसके हिस्से की संपत्ति जब्त होती है , पत्नी की नहीं । शादी के पहले किए गये करार को सार्वजनिक माना जाता है व परिवर्तनीय होता है । दरअसल वहाँ के कर के नियमों से भी ” अर्धांगिनी को आधा हक़” मिला हुआ है । साझी संपत्ति रखने पर उस पर कर भी आधा लगता है । व्यक्तिगत व साझी संपत्ति का मूल्यांकन भी अलग – अलग होता है । हाँ , इससे भी छुटकारा पाने के लिए तलाक के वक्त कभी – कभी पुरुष अपनी संपत्ति को पहले ही बहन या भाई को लिख देते हैं ताकि पत्नी को हिस्सा न देना पड़े । शून्य का आधा भी तो शून्य ही होगा । उत्तराधिकार नियम है कि यदि पति – पत्नी में से एक की मृत्यु हो जाए तो दूसरे को आधा हिस्सा मिलेगा व आधा संतानों में बराबर हिस्सों में बँटेगा । नि:संतान दंपत्ति के मामले में यह संतान का हिस्सा मृतक के माता – पिता को मिलेगा । अगर वो भी जीवित नहीं हों तो भाई या बहन को मिलेगा । संतान को पूरी संपत्ति से वंचित करना असंभव है क्योंकि कोई व्यक्ति अपने हिस्से से आधे से ज्यादा संपत्ति की वसीयत नहीं लिख सकता । गौरतलब है कि जो मुसलमान पुरुष इस कोड के तहत शादी करते हैं वे बहुपत्नी प्रथा व तलाक – ए- बिद्दत से महरूम हो जाते हैं । पहले गोवा में दहेज विरोधी अधिनियम लागू नहीं था । संपत्ति व दहेज के लिए हत्याएँ बढ़ने से महिला संगठनों ने विधि मंत्रालय के माध्यम से अपनी कोशिशों से 1990 से लागू कराया है । इस पुर्तगाली कानून की भी खामियाँ हैं ही व इसके कड़े नियमों से बचने के उपाय भी लोगों ने खोज लिए हैं ।
प्रश्न है कि क्या आज के पारिवारिक कानून समता आधारित हैं ? उत्तर होगा – नहीं । धार्मिक परंपराओ व रीतियों को न छोड़ते हुए भी कतिपय न्यूनतम परिवर्तन हर धर्म के कानून में हो सकते हैं । ये हैं :
1. पिता – माता की संपत्ति में अधिकार पुत्र-पुत्रियों का समान हो ।
1 अ. वसीयत द्वारा इस नियम को नकारा न जा सके ।
2. विवाहोपरान्त पति या पत्नी द्वारा अर्जित संपत्ति साझी मानी जाए । दोनों का हिस्सा आधा गिना जाए । गृहस्थ जीवन में पत्नी के श्रम की प्रतिष्ठा हो व परित्यक्ता बनने की परिस्थिति में , उसको व उसके बच्चों को जीवन यापन के लिए आधी संपत्ति अवश्य मिले । जहाँ पत्नी ज्यादा अर्जन करती हो , तलाक के समय पति को हिस्सा मिले ।
2 अ. साझी संपत्ति की वसीयत किसी भी स्थिति में न हो । एक की मृत्यु होने पर ,संतान को मिले । नि:संतान हों तो माता – पिता को मिले ।
3. विवाह अवश्य पंजीकृत हो । पंजीकरण न्यायालय के अलावा चर्च या काजी भी कर सकते हों ।
4. गोद लेने का हक हर उपयुक्त स्त्री व पुरुष को चाहे वे विवाहित हो या अविवाहित मिले । ( उपयुक्त होने के लिए सर्वमान्य उम्र, आय , सामाजिक स्थिति आदि है । )
5. एक से अधिक संतान गोद लेने की छूट हो ।
6. तलाक के आधार पति या पत्नी के एक हों , इसका कानून एक रूप हो तो बेहतर है ।
7. 15 साल की उम्र तक संतान माता के अभिभावकत्व में रहे । तदुपरान्त या 15 साल से ज्यादा वय की संतान स्वत: निर्णय ले ।
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लेखिका समाजवादी जनपरिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य है तथा काशी विश्वविद्यालय में भौतिकी की व्याख्याता है ।