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Posts Tagged ‘christian personal law’

इस लेख का – भाग एक , भाग दो

    ईसाई कानूनों की स्थिति दिलचस्प है । ईसाई विवाह अधिनियम ( 1872 ) व ईसाई तलाक अधिनियम ( 1869 ) अंग्रेजों द्वारा बनाये गये हैं । ये एक सदी से ज्यादा पुराने हो चुके हैं । इस सदी में हमारा पूरा समाज बदल चुका है , जो कि विशेष विवाह अधिनियम व तलाक अधिनियम ( 1974 ) में ( एक हद तक ) परिलक्षित है । जो निजी कानून ईसाई धर्मावलम्बियों के लिए है उसमें पुरुष को तलाक देने के लिए पत्नी को व्याभिचारिणी सिद्ध करना काफी है , परंतु स्त्री को पति के व्यभिचार के साथ शारीरिक यातना , बलात्कार , परित्याग जैसे एक से अधिक आधार सिद्ध करने पड़ते हैं । जाहिर है कि इसके साक्ष्य जुटाना कठिन हैं । मतलब कि गैर बराबर आधार है एक ही स्थिति से निजात के लिए । गोद लेने का अधिकार भी नहीं है ईसाई माता या पिता को ।

      उत्तराधिकार अलग – अलग ईसाई पंथ में अलग है । केरल के प्रसिद्ध मेरी रॉय बनाम केरल राज्य मामले में वादी ने सीरियन ईसाईयों की प्रथा को चुनौती दी थी जिसमें पुत्रियों का हिस्सा अपने भाइयों के हिस्से से (1/4 ) आँका जाता है । अंतत: उनकी जीत उच्चतम न्यायालय से हुई । समानता मूलक कानून बनाने का भी निर्देश इस निर्णय में था । 1994 में लगभग एक दशक की चर्चा व चिंतन के बाद विभिन्न ईसाई पंथ के पादरियों की परिषद , महिला संगठनों व कानूनविदों ने ईसाई धर्मावलम्बियों के लिए एक निजी कानून प्रस्तावित किया है जो वक्त की जरूरत पर आधारित है। उस प्रस्ताव  भारत सरकार द्वारा सुनवाई होना बाकी है । ईसाई विवाह अधिनियम ( 1872 ) का चरित्र प्रशासनिक ज्यादा , सामाजिक कम है । इसमें विवाह की शर्तें स्पष्ट भी नहीं हैं , व हर पंथ के लिए समान भी नहीं । इसकी उपधारा ( 79 – 71 )  में बाल – विवाह की अनुमति भी है । ईसाई तलाक अधिनियम (1869 ) के विडंबनापूर्ण व विषमतामूलक रूप को हमने रेखांकित किया है । ज्यादातर धर्मगुरु भी अब परस्पर रजामंदी से तलाक ( विशेष विवाह अधिनियम 1974  की तरह ) सुविधा समाज को मिले , यह चाहते हैं । इससे समाज में विकृतियाँ कम होंगी ऐसा उन्हें लगता है । केरल के उच्च न्यायालय ने इस तलाक अधिनियम (1869 ) को असंवैधानिक बताया है । भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम ( 1925 )  ईसाईयों पर लागू होता है जिसमें ईसाई विधवा को पति की आधी संपत्ति ही मिल सकती है । अगर गलती से या अज्ञानतावश पत्नी ने शादी के पूर्व किए करार में संपत्ति में अपना हिस्सा छोड़ दिया हो तो बाद में यह गलती नहीं सुधारी जा सकती । 1994 के प्रस्तावित विधेयक में विवाह व तलाक नियमों को विशेष विवाह अधिनियम (1954 ) के अनुरूप बना दिया गया है । उत्तराधिकार में समान हिस्सा मिले यह प्रस्तावित है और गोद लेने का हक भी स्त्री – पुरुष दोनों को है ।

    इन मुख्य धर्मों के निजी कानूनों से अलग गोवा राज्य में पुर्तगाली सिविल कोड ( कोडिगो सिविल पोर्चगीज़ – 1870 ) हर धर्म के नागरिक पर लागू होता है । इसके कारण वहाँ हर विवाह , जन्म व मृत्यु को पंजीकृत करना अनिवार्य है । कुछ अपवाद छोड़कर वहाँ सभी इसी नियम का पालन करते हैं । परस्पर रजामंदी से तलाक पहले 1910 में मिला , फिर 1946 में  कैथोलिक मत से प्रभावित पुर्तगाली राज्यसत्ता ने तलाक का प्रावधान हटाया , अब 1974 से फिर मिला है ।शादी के पहले की संपत्ति पति या पत्नी की निजी व विवाहोपरान्त साझी होती है । तलाक के बाद इसका आधे में बँटवारा होता है । पति अगर किसी व्यक्ति या संस्था से ऋण लेकर नहीं चुकाता है तो उसके हिस्से की संपत्ति जब्त होती है , पत्नी की नहीं । शादी के पहले किए गये करार को सार्वजनिक माना जाता है व परिवर्तनीय होता है । दरअसल वहाँ के कर के नियमों से भी ” अर्धांगिनी को आधा हक़” मिला हुआ है । साझी संपत्ति रखने पर उस पर कर भी आधा लगता है । व्यक्तिगत व साझी संपत्ति का मूल्यांकन भी अलग – अलग होता है । हाँ , इससे भी छुटकारा पाने के लिए तलाक के वक्त कभी – कभी पुरुष अपनी संपत्ति को पहले ही बहन या भाई को लिख देते हैं ताकि पत्नी को हिस्सा न देना पड़े । शून्य का आधा भी तो शून्य ही होगा । उत्तराधिकार नियम है कि यदि पति – पत्नी में से एक की मृत्यु हो जाए तो दूसरे को आधा हिस्सा मिलेगा व आधा संतानों में बराबर हिस्सों में बँटेगा । नि:संतान दंपत्ति के मामले में यह संतान का हिस्सा मृतक के माता – पिता को मिलेगा । अगर वो भी जीवित नहीं हों तो भाई या बहन को मिलेगा । संतान को पूरी संपत्ति से वंचित करना असंभव है क्योंकि कोई व्यक्ति अपने हिस्से से आधे से ज्यादा संपत्ति की वसीयत नहीं लिख सकता । गौरतलब है कि जो मुसलमान पुरुष इस कोड के तहत शादी करते हैं वे बहुपत्नी प्रथा व तलाक – ए- बिद्दत से महरूम हो जाते हैं । पहले गोवा में दहेज विरोधी अधिनियम लागू नहीं था । संपत्ति व दहेज के लिए हत्याएँ बढ़ने से महिला संगठनों ने विधि मंत्रालय के माध्यम से अपनी कोशिशों से 1990 से लागू कराया है । इस पुर्तगाली कानून की भी खामियाँ हैं ही व इसके कड़े नियमों से बचने के उपाय भी लोगों ने खोज लिए हैं ।

     प्रश्न है कि क्या आज के पारिवारिक कानून समता आधारित हैं ? उत्तर होगा – नहीं । धार्मिक परंपराओ व रीतियों को न छोड़ते हुए भी कतिपय न्यूनतम परिवर्तन हर धर्म के कानून में हो सकते हैं । ये हैं :

1.  पिता – माता की   संपत्ति में अधिकार पुत्र-पुत्रियों का समान हो ।

1 अ. वसीयत द्वारा इस नियम को नकारा न जा सके ।

2.   विवाहोपरान्त पति या पत्नी द्वारा अर्जित संपत्ति साझी मानी जाए । दोनों का हिस्सा आधा गिना जाए । गृहस्थ जीवन में पत्नी के श्रम की प्रतिष्ठा हो व परित्यक्ता बनने की परिस्थिति में , उसको व उसके बच्चों को जीवन यापन के लिए आधी संपत्ति अवश्य मिले । जहाँ पत्नी ज्यादा अर्जन करती हो , तलाक के समय पति को हिस्सा मिले ।

2 अ.  साझी संपत्ति की वसीयत किसी भी स्थिति में न हो । एक की मृत्यु होने पर ,संतान को मिले । नि:संतान हों तो माता – पिता को मिले ।

3. विवाह अवश्य पंजीकृत हो । पंजीकरण न्यायालय के अलावा चर्च या काजी भी कर सकते हों ।

4.  गोद लेने का हक हर उपयुक्त स्त्री व पुरुष को चाहे वे विवाहित हो या अविवाहित मिले । ( उपयुक्त होने के लिए सर्वमान्य उम्र, आय , सामाजिक स्थिति आदि है । )

5. एक से अधिक संतान गोद लेने की छूट हो ।

6. तलाक के आधार पति या पत्नी के एक हों , इसका कानून एक रूप हो तो बेहतर है ।

7.   15 साल की उम्र तक संतान माता के अभिभावकत्व में रहे । तदुपरान्त या 15 साल से ज्यादा वय की संतान स्वत: निर्णय ले ।

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लेखिका समाजवादी जनपरिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य है तथा काशी विश्वविद्यालय में भौतिकी की व्याख्याता है  ।

 

  

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पिछला भाग – एक

हिंदु विवाह अधिनियम (1955 ) सतही तौर पर ’समता’ पर आधारित है । वह अदालत से तलाक मांगने का अधिकार स्त्री-पुरुष दोनों को देता है । 1976 के अधिनियम में तलाक के साधारण स्थापित कारकों के अलावा , क्रूरता (मानसिक/शारीरिक ), परित्याग करना व परस्पर रजामंदी भी तलाक के लिए पर्याप्त कारण माने गए हैं । भरण – पोषण का भत्ता माँगने का हक पति अथवा पत्नी दोनों को है । परंतु अदालती कार्रवाई के बाद ही यह गुजारा भत्ता मिलता है व उसे पति की आय का (1/5 से लेकर 1/3 ) हिस्सा निर्धारित किया जाता है । इतनी कम राशि ( वह भी न्यायालय व वकील के खर्च के बाद ) से परित्यक्ता या तलाकशुदा पत्नी व बच्चों का गुजारा चलता नहीं है व उसे अपने मायके वालों की शरण में जाना पड़ता है । बहुपत्नी प्रथा कहने को तो हिंदुओं में , जैन धर्मावलंबियों में समाप्त है , परंतु वास्तविकता विपरीत साक्ष्य प्रस्तुत करती है । कई संस्थाओं व स्वतंत्र अन्वेषण के दौरान पाया गया कि दो विवाह करने का रिवाज मुसलमानों से ज्यादा हिंदुओं में है और हिंदुओं से ज्यादा जैनों में। इनमें से कुछ तो पहली पत्नी का परित्याग करते हैं तो कुछ दोहरी गृहस्थियाँ चलाते हैं । अगर कोई स्त्री अदालत में वाद स्थापित करती है कि उसके पति ने दूसरी शादी की है व उसको न्याय व उसका अधिकार दिलाया जाये तो वादी को सिद्ध करना होता है कि उसके प्रतिवादी ने दूसरी शादी की है । ये पेचीदगी और भी बढ़ जाती है जब हिन्दू विवाह अधिनियम (1955 ) द्वारा विवाह को हिन्दू उच्च वर्ण की रीतियों ( मसलन पाणिग्रहण , सप्तपदी ) द्वारा संपादित किए जाने पर ही विवाह को मान्यता मिलती है । अन्य किसी इतर सामाजिक प्रथा को कानून मान्यता नहीं मिली है । तिरुपति मन्दिर में अपने समाज के सामने गांधर्व पद्धति से माला बदलने से विवाह मान्य नहीं होगा , इस प्रक्रिया से दूसरा विवाह करने वाला पुरुष ने “विवाह” नहीं किया इसलिए दंडित नहीं होगा । उल्टे अगर माननीय न्यायाधीशों ने पहली पत्नी से उसके विवाह के सबूत माँगे और वह सप्तपदी इत्यादि सिद्ध नहीं कर पायी तो उसका विवाह न्यायालय समाप्त कर सकता है । ( देखें वनजाक्षम्मा बनाम गोपालकृष्णन,ए.आई.आर १९७०,मैसूर 305) कई बार ऐसा हुआ है कि निचली अदालतें (सत्र व उच्च न्यायालय) में पति को सजा हुई है मगर उच्चतम न्यायालय ने अपने (कु)प्रसिद्ध भाऊराव लोखंडे बनाम महाराष्ट्र राज्य (1956) मामले का हवाला देते हुए सभी ऐसे मामलों में पति को बरी कर दिया है । एक तरह से उच्चतम न्यायालय ने पुरुषों को दूसरे/ तीसरे विवाह की अघोषित छूट दी हुई है । ’सरला मुदगल आदि बनाम भारत’ नाम के चर्चित मामले में पुरुष ने इस्लाम धर्म कबूल किया था सिर्फ़ वैधानिक रूप से शादी करने के लिए । 1995 में उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों (श्री कुलदीप सिंह व श्री सहाय ) ने भारत सरकार को इस बिंदु पर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों से चुकने के लिए आड़े हाथों लिया कि वह “समान नागरिक संहिता” क्यों नहीं ला रही जिससे मुस्लिम पर्सनल लॉ में दी गई बहुपत्नी प्रथा की छूट समाप्त हो । इसके लिए मुस्लिम धर्मान्धता को भी कोसा गया। जो व्यक्ति सिर्फ इसलिए इस्लाम धर्म कबूलते हैं ताकि दूसरी शादी की छूट हो ,वो तो गलत हैं हीं,मगर जो अन्य धर्मावलम्बी ऐसा ही कार्य करते हैं उनके बारे में न्याय की दृष्टि इतनी धुंधली क्यों है ?
इन समस्याओं को कम करने का एक तरीका विवाहों को कानूनी रूप से पंजीकृत करना अनिवार्य कर दिया जाये ताकि दूसरे विवाह के साक्ष्य जुटाना पहले पक्ष(पति या पत्नी) के लिए दुष्कर न हो व दूसरे विवाह पर कुछ रोक लग सके । अगर साक्ष्य अधिनियमों (एविडेन्स एक्ट )में परिवर्तन कर, दूसरी बार विवाहित न होने का सबूत प्रतिवादी (पति या पत्नी जो भी हो) को देना हो तो भी एक रोक लग सकती है । इस पर गहन विचार करना होगा ।
अभिभावकत्व का अधिकार भी पिता को मिला है। पांच साल से कम का बच्चा ही माँ को मिलता है । स्त्री के संपत्ति के अधिकार अनुपालन तो समाज ने करने से इंकार कर दिया ठीक जैसे दहेज या बाल विवाह संबंधी कानूनों की भांति। सामाजिक स्वाभाविक अभिभावक माँ है इसे भी नकारा गया है ।

अंतिम तथ्य गैर बराबरी का

विशेष विवाह अधिनियम के तहत कोई स्त्री किसी भी जाति के पुरुष से शादी कर सकती है मगर हमारा जातिवादी पुरुषसत्तात्मक समाज अक्सर ऐसे युवक-युवतियों को सजाए मौत देता है(कानून अपने हाथ में ले कर ) । जाहिर है कि हिन्दू निजी अधिनियमों में कई खामियाँ हैं व इन्हें दूर करने के लिए पूरे समाज में , विधिवेत्ताओं में, न्यायाधीशों में व कानून बनाने वालों में समतामूलक दृष्टि की जरूरत है ।

इस्लाम ने बेटियों को संपत्ति का अधिकार तब दिया , जब अरब में बच्चियाँ पैदा होते ही रेत में दबा दी जाती थीं। भले बेटियों का हिस्सा बेटों से (1/3) का हो- जन्म से है । पैगम्बर रसूल की नजर औरतों के हकूक पर निश्चित थी क्योंकि उन्हें औरतों के साथ किए गए व्यवहार के बारे में चिंता थी । उन दिनों अरब में लगातार कबिलाई युद्ध होते थे । बंदी की गयी दुश्मन कबीलों की औरतों , बच्चियों के साथ विजेता अक्सर बदसलूकी करते थे। अनिश्चित संख्या में विवाह करने की सामाजिक छूट थी क्योंकि औरतों की संख्या ज्यादा थी । औरतों के साथ बदसलूकी न हो व सामाजिक प्रतिष्ठा मिले इसलिए एक ही पुरुष को चार विवाह करने की छूट इस्लाम में दी गई । कुरान की आयतों में स्पष्ट निर्देश है कि अगर सभी पत्नियों से समान रूप ( आर्थिक ,सामाजिक,भावनात्मक) से व्यवहार करने में समर्थ पुरुष ही ,दूसरी/तीसरी/चौथी शादी कर सकता है। इसी तरह जबानी तलाक के बारे में स्पष्ट निर्देश है कि अगर पति काजी या समाज के जिम्मेदार व्यक्तियों के सामने पहली बार तलाक कहेगा ।उसके बाद पति-पत्नी एक महीने की अवधि के लिए साथ-साथ रहेंगे-समझौते की संभावना तलाशने के लिए। नहीं कर पाए तो तो महीने अंत में पुन: काजी या जिम्मेदार व्यक्तियों के सामने “तलाक” कहेगा पति। फिर एक महीना साथ रहना व जब संबंध निभाने में किन्हीं कारणों से अक्षम हो तो सार्वजनिक रूप से तीसरी बार “तलाक” कहने से विवाह विच्छेद माना जाएगा ।हिदायत है कि पूर्व पत्नी को विदा करते समय पूरे सम्मान व उसकी मेहर की रकम , निजी सामान इत्यादि देना होगा तथा इद्दत की मुद्दत का उसका व बच्चों का खर्च भी पति को देना होगा । ( तलाक ए रजई) इस प्रथा को एक ही बार में “तीन तलाक” जबानी से बदल देना,कुरान के नियमों का गलत अर्थ लगाना है । इस कुप्रथा को निश्चित ही खत्म करना चाहिए । हजरत मुहम्मद साहब ने सिर्फ अंतिम विकल्प के रूप में तलाक को समझाया है ।समाज जैसे-जैसे बदलता है,उसके नियम भी बदलते हैं ।लड़कियों को पढ़ाना , रोजगार करना मान्य हुआ है , हो रहा है । १५ वीं सदी के अरब समाज से आज के मुस्लिम देशों के समाज में जो परिवर्तन आया है उससे कई देशों ने मसलन मिश्र, तुर्की , इरान ,ईराक ,मलेशिया आदि देशों ने  बहुपत्नी प्रथा कानून खत्म की है अथवा उसमें सुधार किया है । पाकिस्तान में काजी के समक्ष पहली पत्नी सहमति देती है तब ही दूसरी शादी पति कर सकता है अन्यथा शादी गैर कानूनी होगी । इस्लाम में जो मानव -मात्र के प्रति विचार है(हजरत मुहम्मद साहब ने नस्ल का फर्क करने से मना किया “सभी खुदा के बन्दे हैं”) उसे अगर नर-नारी समता के लिए फैलाने का आग्रह मुस्लिम समाज अगर खुद करे तो बहुत बड़ा कदम होगा । उसे खोना तो विशेष नहीं होगा , उसी समाज के आधे हिस्से को न्याय मिलेगा साथ ही धर्मान्धता का आरोप भी खत्म हो जाएगा । यह पूरे भारतीय समाज व देश के लिए शुभ संकेत होगा और तब एक समतामूलक न्यायसंगत पारिवारिक कानून बन सकेगा ।
जारी

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[ वरिष्ट अधिवक्ता एवं लोकप्रिय चिट्ठेकार दिनेशराय द्विवेदी ने कल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक नि:संतान हिन्दू विधवा द्वारा अर्जित सम्पत्ति पर विवाह के तीन माह बाद गुजर गये पति के वारिसों का हक मुकर्रर करने के फैसले का विवरण अपने चिट्ठे पर दिया था । दिनेशजी ने उक्त पोस्ट में फैसले की बारीकियों को अत्यन्त सरल ढंग से हिन्दी ब्लॉगजगत के पाठकों के समक्ष रखा , जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं । हमारे देश में प्रचलित विभिन्न धर्मों के निजी कानूनों में स्त्री को अशक्त बनाये रखने के लिए नाना प्रकार के प्रावधान किए गए हैं । देश के संविधान निर्माताओं की मंशा के अनुरूप समान नागरिक संहिता लागू करने की हर ईमानदार कोशिश को निजी कानूनों के स्त्री विरोधी स्वरूप को बदल कर सफल बनाया जा सकता है । समाजवादी जनपरिषद द्वारा १६ नवम्बर १९९६ को दिल्ली में इस विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई थी । दल की तत्कालीन राष्ट्रीय सचिव तथा उक्त संगोष्ठी की संयोजक डॉ. स्वाति ने उक्त विषय पर यह परचा प्रस्तुत किया था । विषय के विभिन्न पहलुओं पर गहराई से विचार करने में यह लेख सहायक होगा। – अफ़लातून ]

किसी भी देश के कानून उसके समाज के नियमों का सार या निचोड़ होते हैं । कानून परंपरा व सांस्कृतिक धारावाहिकता का व्यावहारिक रूप धर लेते हैं । इसीलिए आज बाल – विवाह व सती प्रथा के खिलाफ कानून है । यह जरूर गौरतलब है कि बाल विवाह ग्रामीण समाजों में अबाध रूप से होते रहे हैं , हो रहे हैं । दहेज विरोधी कानून होने के बावजूद धन , उपभोक्ता सामान , उपयोगी – अनुपयोगी वस्तुओं से वधु को लैस कर ससुराल भेजा जाता है ताकि उसे सहज स्वीकारा जाए । दहेज प्रथा को सामाजिक कलंक की जगह सामाजिक प्रतिष्ठा का मनदण्ड बना लिया गया है । राजाओं से उपजा यह विवाह का विधान हिंदू ही नहीं , मुसलमान व ईसाई समाज को प्रभावित कर रहा है । मुस्लिम समाज में भी दहेज के कारण बहुएँ जलाई तक जाने लगी हैं । कुप्रथाओं को जड़ जमाने में देर नहीं लगती ।

अँग्रेजों ने अपने राज के समय विभिन्न धर्मों के कानूनों को न छेड़ना ही लाभप्रद समझा था ताकि इनको हटाने से उपजे विद्रोह को झेलना न पड़े । अपराधों के खिलाफ़ तो एक सर्वमान्य भारतीय दंड संहिता थी और आज भी है । परंतु व्यक्तिगत मामलों में विभिन्न धर्मों के भिन्न निजी कानून (पर्सनल कोड ) थे । आज भी भिन्न भिन्न निजी कनून हैं । जीवन के जिन क्षेत्रों को वे प्रभावित करते हैं , वे हैं :

  1. संपत्ति का उत्तराधिकार , विरासत का हक़
  2. विवाह तथा विवाह-विच्छेद (तलाक )
  3. गोद लेने का हक़
  4. पुत्र व पुत्री के अभिवावकत्व (गार्जियनशिप ) का अधिकार
  5. परित्यक्ता व तलाकशुदा को गुजारा मिलने का हक़

कुछ हिंदूवादी लोगों व संस्थाओं के लगातार प्रचार से भारतीय समाज में यह धारणा आम है कि सिर्फ इस्लाम से जुड़े निजी कानून औरत के हक़ के खिलाफ़ हैं । इस धारणा को बल देने के लिए वे मुसलमानों में बहुपत्नी प्रथा ( पुरुष को चार शादियाँ करने का हक़ ) व जबानी तलाक़ या तलाके बिद्दत को उदाहरणार्थ पेश करते हैं । यह प्रचार भी होता है कि स्वाधीनता के बाद सभी धर्मों ने अपने – अपने धार्मिक कानून छोड़ दिए , विशेषत: हिंदुओं ने ने , जो उदारवादी हैं परंतु मुसलमान अपने कठमुल्लापन के कारण अपने निजी कानून को नहीं बदलने देते ।

वस्तुस्थिति कुछ और है

भारत के तीन प्रमुख धर्मों के निजी कानून हैं । इनके अलावा पारसी व पुर्तगाली सिविल कोड है । सिख , जैन , बौद्ध व आदिवासी अपने विवाह , विवाह-विच्छेद (छुटकारा) अपनी अपनी सामाजिक रीतियों के अनुसार करते हैं – मगर कानून इन्हें हिंदू ही माना गया है ।

सर्वप्रथम हिंदू धार्मिक कानूनों के बारे में चर्चा करें । संपत्ति के उत्तराधिकार के नियम हिंदू कोड में पुरुष सत्तात्मक समाज की प्रथा से बँधे हुए हैं । कहने को तो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में पुत्र – पुत्रियों को समान अधिकार प्राप्त है परंतु जिस प्रवर समिति ने यह अधिनियम बनाया था उसने पुराने कानून “मिताक्षर” को समाप्त करने की राय दी थी । परंतु तत्कालीन भारत सरकार भी शायद अँग्रेजों की तरह झंझटों से बचना चाहती थी इसलिए मिताक्षर सह-उत्तराधिकार प्रणाली को नहीं हटाया और अभी भी वह कानून में है । हिंदु संयुक्त परिवार प्रणाली की व्यवस्था है कि उत्तराधिकार का हक़ प्रत्यावर्तन द्वारा हो न कि महज संतान होने के हक़ से । और संयुक्त परिवार के सदस्य केवल पुरुष ही होंगे । इस प्रणाली में पुत्र जन्म से ही पिता की संपत्ति का वारिस बनता है व पुत्री पिता की मृत्यु के बाद ही । पुत्र-पुत्री में सही माने में बराबरी का हिस्सा नहीं बनता ।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ( 1956 ) की धारा 4(2) के मुताबिक जोत की जमीन का विभाजन रोकने के लिए अथवा जमीन की अधिकतम सीमा निर्धारण के लिए , पुत्री को जमीन की विरासत का अधिकार नहीं दिया गया । महिलाओं को काश्तकारी से वंचित किया गया । वे खेत में काम कर सकती हैं मगर उसकी मालिक नहीं बन सकती ।

विवाहोपरान्त पति की व्यक्तिगत संपत्ति का आधा हिस्सा अधिकारस्वरूप माँगने पर तर्क दिया जाता है कि पैतृक व पति की , दोनों संपत्ति का हक़ औरत को क्यों मिले ? सच्चाई यह है कि विशेष विवाह अधिनियम ( स्पेशल मैरेज एक्ट 1954 ) के अंतर्गत विवाह करने के बाद भी पुरुष उत्तराधिकार संबंधी नियमों में पुरानी धार्मिक प्रथाओंद्वारा बनी प्रणाली से उत्तराधिकार तय कर सकता है । उत्तराधिकार अधिनियम की धारा – 30 के अंतर्गत वह वसीयत द्वारा अपनी संपत्ति किसी के भी नाम लिख सकता है ।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा – 23 के अधीन यदि किसी स्त्री को एक मकान विरासत में मिला है और उसमें उसके पैतृक परिवार के सदस्य रह रहे हैं तो उसे उस मकान का बँटवारा करने का कोई अधिकार नहीं है । और कि वह स्वयं उसमें तब ही रह सकती है जब वह अविवाहित हो या तलाकशुदा । अगर कोई निस्संतान विधवा हिंदू स्त्री वसीयत किए बिना मरती है तो उसकी संपत्ति उसके पति के वारिसों को सौंप दी जाएगी । अपवाद स्वरूप अगर उसे कोई संपत्ति माता – पिता से मिली हो तो उपर्युक्त परिस्थिति में वह उसके पिता के वारिसों को मिलेगी । यह यदि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का न्याय नहीं है तो और क्या है ? हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956 ) के अलावा हिंदू विवाह अधिनियम (1955 ) , हिंदू दत्तक व भरण पोषण अधिनियम (1956) जैसे कानून महिलाओं के प्रति विषम दृष्टिकोण के ज्वलंत उदाहरणों से भरे हैं ।

( जारी )

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