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पिछले हिस्से से आगे

ए. काकबर्न नामक विद्वान ने दुनिया के मांस-इतिहास पर एक पेपर लिखा है, जिसमें संयुक्त राज्य अमरीका के एक प्रमुख सूअर-मांस उत्पादक राज्य उत्तरी केरोलीना के बारे में बताया है-
“बदबूदार खाडियों के चारों और सूअरों के अंधेरे गोदाम बने हुए है, जिनमें उन्हें धातु के कटघरों में रखा जाता है जो उनके शरीर के ही आकार के होते हैं। उनकी पूंछें काट दी जाती है। उन्हे मक्का, सोयाबीन और रसायनो का आहार ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता है, ताकि वे छ: महीनो में 240 पॉन्ड (लगभग एक क्विंटल) के हो जाएं । तब उन्हें बूचड़खानों में कत्ल करने के लिए जहाजों से भेज दिया जाता है।”

मेक्सिको में मेक्सिको नगर के पास ला गोरिया नामक जिस कस्बे से मार्च महीने में सुअर-ज्वर का यह प्रकोप शुरु हुआ है, वहां स्मिथफील्ड फूड्स नामक कंपनी का काफी बड़ा सुअर फार्म है। यह सुअर मांस का व्यापार करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है। ला गोरिया में यह लगभग दस लाख सुअरों को प्रतिवर्ष बड़ा करती है। दुनिया के स्तर पर इसने 2006 में 2.6 करोड़ सुअरों का मांस बेचा था, इसकी कुल बिक्री 1140 करोड़ डॉलर की हुई और इसे 42.1 करोड़ डालर का मुनाफा हुआ। संयुक्त राज्य अमेरिका के सुअर मांस व्यापार का एक-चौथाई इसके नियंत्रण में है। इसके ऊपर पर्यावरण को दूषित करने के 5000 से ज्यादा प्रकरण वहां दर्ज हुए हैं।एक दशक पहले सं०रा० अमरीका सरकार की पर्यावरण संरक्षण एजेन्सी ने इस पर वर्जीनिया प्रांत की एक नदी को प्रदूषित करने के लिए 1260 लाख डॉलर का जुर्माना लगाया था, जो अमरीका का अभी तक का सबसे बड़ा पर्यावरण जुर्माना है।
सं०रा०अमरीका के रोग नियंत्रण केन्द्र की जांच के ताजा नतीजों से पता चला है कि इस सुअर-ज्वर का वायरस 90 के दशक के अंत में उत्तरी केरोलीना प्रांत की औद्योगिक सुअर इकाईयों में पाई गई वायरस प्रजाति से निकला है। यह अमरीका का सबसे बड़ा और सबसे घना सुअर-पालन वाला प्रांत है। फेलिसिटी लारेन्स नामक विद्वान ने सुअर-ज्वर से पैदा हुये इस वैश्विक संकट की तुलना दुनिया के मौजूदा वित्तीय संकट से की है। वित्तीय क्षेत्र की तरह ही इसमें भी कुछ बड़ी कंपनियों का वर्चस्व है, जिन्होंने अपने मुनाफों के लिए पूरी दुनिया को संकट में डाल दिया है। आधुनिक वित्तीय क्षेत्र की तरह आधुनिक खाद्य व्यवस्था भी काफी अस्थिर है। दोनों में बुलबुले की तरह काफी तेजी से विस्तार हुआ है।दोनों में अमरीका-यूरोप के अमीर उपभोक्ता आसानी से मिलने वाली भोग-सुविधाओं के नशे में डूबे रहे। उन्होंने यह जानने की जरुरत नहीं समझी कि आखिर यह उपभोग किस कीमत पर आ रहा है तथा कितने दिन चलेगा ? फेलेसिटी लारेन्स ने मानव जाति की इस नई बीमारी को आज के औद्योगिक पशुपालन का विषैला कर्ज निरुपित किया है।
सूअर-ज्वर, पक्षी-ज्वर या पागल गाय रोग दरअसल एक बड़ी गहरी बीमारी के ऊपरी लक्षण हैं। वह बीमारी है भोग, लालच व गैरबराबरी पर आधारित पूंजीवादी सभ्यता की, जिसमे शीर्ष पर बैठे थोड़े से लोगों ने अपने मुनाफों एवं विलास के लिए बाकी सब लोगों, बाकी प्राणियों तथा प्रकृति पर अत्याचार करने को अपना जन्म-सिद्ध अधिकार मान लिया है।
आप यह भी कह सकते है कि ये नयी महामारियां उन निरीह प्राणियों या प्रकृति के प्रतिशोध का एक तरीका है। आखिर हर आतंकवाद लंबे, गहरे एवं व्यापक अन्याय व अत्याचार की प्रतिक्रिया में ही पैदा होता है। यह इस नए आतंकवाद के बारे मे भी सही है।

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पशुजन्य बिमारियो का नया आतंकवाद

औद्योगिक पशुपालन से पैदा होती महामारियां

दुनिया में अचानक एक नया आतंकवाद पैदा हो गया है। स्वाईन फ्लू या सुअर-ज्वर नामक एक नयी संक्रामक बीमारी से पूरा विश्व बुरी तरह आतंकित दिखाई दे रहा है। कई देशो में हाई-अलर्ट कर दिया गया है। हवाई अड्डो पर विशेष जांच की जा रही है। यह बीमारी मेक्सिको से शुरू हुई, जहां 200 के लगभग मौते हो चुकी है। वहां के रा’ट्रपति ने पूरे देश में 5 दिन के लिये आर्थिक बंद घोषित कर दिया है और लोगों को घर में रहने की सलाह दी है। स्कूल-कॉलेज, सिनेमाघर, नाईट क्लब बद कर दिए गए है और फुटबाल मैच रद्द कर दिए गए है। बगल में संयुक्त राज्य अमरीका में भी दहशत छाई है और ओबामा ने स्थिति से निपटने के लिए संसद से 150 करोड़ डालर मांगे है। स.रा. अमरीका के अलावा कनाडा, स्पेन, बि्रटेन, जर्मनी, न्यूजीलेण्ड, इजरायल, आिस्ट्रया, स्विटजरलैण्उ, नीदरलैण्ड आदि में भी इसका संक्रमण फैल चुका है। बाकी दुनिया में भी खलबली मची है। मिस्त्र ने तो सावधानी बतौर 3 लाख सूअरो को मारने के आदेश जारी कर दिए है। भारत के सारे हवाई-अड्डो पर बाहर से आने वाले यात्रियों की सघन जांच की जा रही है और उन पर निगरानी रखी जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि सुअर-ज्वर एक महामारी बन सकता है।
पहले यह बीमारी सिर्फ सूअरो में होती थी, अब इंसानो मे फैल रही है। सूअरों, पक्षियों व इंसानों को होने वाले फ्लू के रोगाणुओ को मिलकर एच 1 एन 1 नामक नया वायरस बन गया है, जिसकी प्रतिरोधक शक्ति इंसानो के शरीर मे नहीं है। इसलिए मौते हो रही है और घबराहट छाई है। मेक्सिको में इसके शुरूआती मामले सामने आने के तीन-चार हफ्तो में ही इंसानो की बडी संख्या में मौते होने लगी है। इसका कोई टीका भी नहीं है और टेमीफ्लू नाम की एक ही दवाई है।
पिछले कुछ दशको में पालतू पशुओं के जरिये इंसानो में बीमारी फैलने का यह चौथा-पांचवा मामला है। इसके पहले एन्थ्रेक्स, सार्स, बर्ड फ्लू, मेड काऊ डिजीज आदि से अफरा-तफरी मची थी। इंसान इन बीमारियो से इतना आतंकित है कि इनकी जरा- भी आशंका होने पर हजारों-लाखो मुर्गियों, गायो, सूअरों को मार दिया जाता है। बर्ड फ्लू या पक्षी-ज्वर के डर से भारत मे असम, बंगाल, महाराष्ट्र आदि में पिछले कुछ वर्षों में लाखे मुर्गियो को मौत के घाट उतारा गया है। मेड काऊ डिजीज या पागल गाय रोग के चक्कर में बि्रटेन व अन्य देशों में लाखो गायों-बछडो का कत्ल किया गया है। आखिर ऐसी हालाते पैदा कैसे हुई ?
दरअसल इनका सीधा संबंध आधुनिक ढंग के औद्योगिक पशुपालन से है, जिसमें बड़े-बड़े फार्मों में छोटे व संकरे दडबों या पिंजरों में हजारों-लाखों पशु-पक्षियों को एक जगह बडा किया जाता है। उनके घूमने-फिरने की कोई जगह नहीं होती है। अक्सर काफी गंदगी होती है। काफी रासायनयुक्त आहार ठूंस-ठूंस कर खिलाकर दवाईयां एवं हारमोन देकर, कम से कम समय मे उनका ज्यादा से ज्यादा बढाने की कोशिश होती है। इन्हे फार्म के बजाय फेक्टरी कहना ज्यादा उचित होगा, क्योंकि जमीन, खेती या कुदरत से इनका रिश्ता बहुत कम रह जाता है।
पालतू मुर्गियो व बतखों में बर्ड फ्लू की बीमारी काफी समय से चली आ रही हें किंतु नई हालातों में इसका रोगाणु एच 5 एन 1 नामक नए घातक रूप में बदल गया हे, जो प्रजाति की बाधा लांघकर इंसानो को प्रभावित करने में सक्षम हैं । विश्व खाद्य संगठन ने इसकी उत्पत्ति को चीन और दक्षिण पूर्वएशिया में मुर्गी पालन के तेजी से विस्तार, संकेन्द्रण और औद्योगीकरण से जोडा है। पिछले पन्द्रह वर्षों मे चीन में मुर्गी उत्पादन दुगना हो गया है। थाईलेण्ड, वियतनाम और इण्डोनेशिया मे मुर्गी उत्पादन अस्सी के दशक की तुलना मे तीन गुना हो गया है। वैज्ञानिक और चिकित्सक यह मानकर चल रहे है कि बर्ड फ्लू का नये रूप वाला यह रोगाणु आगे चलकर इंसान से इंसान को संक्रमित होने लगेगा। तब यह एक महामारी का रूप धारण कर सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि यह कभी भी हो सकता है और इससे निपटने की व्यापक एवं भारी तैयारी करना चाहिए।
मेड काऊ डिजीज का हिस्सा तो और भयानक है तथा आधुनिक मनुष्य के लालच की इन्तहा को बताता है। बी एस ई नामक गायों की इस बीमारी में मस्तिष्क को काफी क्षति पहुचती है, इसलिये इसे पागल गाय रोग कहा गया है । यह इसलिए फैल रहा है क्योकि शाकाहारी प्रजाति की गायो को उन्हीं की हडि्डयों, खून और अन्य अवयवों का बना हुआ आहार खिलाया जा रहा है। दरअसल पश्चिमी देशों  के आधुनिक बूचड़खानों में गायों आदि को काटने के बाद मांस को तो पैक करके बेच दिया जाता है, किन्तु बडे पैमाने पर हडि्डयां, अंतड़ियां,  खून आदि का कचरा निकलता है, जिसको ठिकाने लगाना एक समस्या होता है। इस समस्या से निपटने का एक तरीका यह निकाला गया कि इस कचरे को चूरा करके काफी ऊंचे तापमान पर इसका प्रसंस्करण किया जाता है। इसमें पौश्टिक तत्व भी होते है, अतएव इसे पुन: गायों के आहार में मिला दिया जाता है। मनुष्य की लाश को मनुष्य खाए, इसे अनैतिक, अकल्पनीय और अस्वीकार्य माना जाता है। लेकिन मुनाफों के लालच में मनुष्य द्वारा यह ’स्वजातिभक्षण’ गायों पर जबरदस्ती थोपा जा रहा है। ’पागल गाय रोग’ के व्यापक प्रकोप के बाद ब्रिटेन ने इस पर पाबंदी लगाई है। किन्तु उत्तरी अमरीका में और कुछ अन्य स्थानो पर यह प्रथा अभी भी चालू है।
इस तरह के रोग से ग्रसित गाय का मांस खाने वाले इंसानों को भी यह रोग हो सकता है। इसी तरह भोजन से फैलने वाले कुछ अन्य संक्रामक रोगो का भी संबंध आधुनिक फेक्टरीनुमा पशुपालन से जोड़ा जा रहा है।
मांसाहार शुरू से मनुष्य के भोजन का हिस्सा रहा है और भोजन के लिए पशुपालन कई हजार सालों से चला आ रहा है। किंतु आधुनिक औद्योगिक पशुपालन एक बिल्कुल ही अलग चीज है, जो काफी अप्राकृतिक, बरबादीयुक्त, प्रदूषणकारी और पूंजी प्रधान है तथा जिसने लालच व क्रूरता की सारी मर्यादाएं तोड दी है। अब इसमें खुले चरागाहों या खेतों मे पशुओं को नहीं चराया जाता और वे कुदरती भोजन भी नहीं करते है। ये परिवर्तन खास तौर पर पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए है। इस अवधि में दुनिया मे मांस का उत्पादन और अंतररा’ट्रीय व्यापार भी तेजी से बढा है। फेक्टरीनुमा पशुपालन सबसे पहले मुर्गियों का शुरू हुआ, उसके बाद सूअरों का नंबर आया। मिडकिफ नामक एक अमरीकी लेखक ने कंपनियांे के आधुनिक मांस कारखानों पर एक किताब लिखी है जिसमें इसे ’पीडा और गंदगी का निरंतर फैलता हुआ दायरा’’ कहा है। एम.जे. वाट्स ने इनकी तुलना ’उच्च तकनीकी यातना कक्षो’ से की है। वैश्विक खाद्य अर्थव्यवस्था पर अपनी ताजी पुस्तक मे टोनी वैस ने सूअरो के फेक्टरी फार्मों का वर्णन इस प्रकार किया है-
“इन फेक्टरी फार्मों मे जनने वाली मादा सूअर अपना पूरा जीवन धातु या कंकरीट के फर्श पर बने छोट-छोटे खांचों में गर्भ धारण करते हुए या शिशु सूअरों को पोसते हुए बिता देती है। ये खांचे 2 वर्ग मीटर से भी कम होते है, जिनमें वे मुड़ भी नहीं सकती हैं। सूअर शिशुओं को तीन-चार सप्ताह में मां से अलग कर मादा सूअरों को फिर से गर्भ धारण कराया जाता है तथा शिशुओं को अलग कोठरियो में रखकर अभूतपूर्व गति से मोटा किया जाता है। उन्हें एन्टी-बायोटिक दवाईयों और हारमोनों से युक्त जीन-परिवर्तित गरिष्ठ आहार दिया जाता है, जिससे जल्दी से जल्दी उनका वजन बढ़ता जाए। इस कैद के नतीजन होने वाले रोगों एवं अस्वभविक व्यवहारों को नियंत्रति करने के लिए काफी दवाईयां दी जाती है। उनकी पूंछें काट दी जाती है और इससे होने वाले गंदगी व दूषित कचरे को नदियों या समुद्री खाडियों में बहा दिया जाता है।”
( अगली किश्त में समाप्य )

(लेखक समाजवादी जन परषिद का राष्ट्रीय अध्यक्ष है)
सुनील, ग्राम@पोस्ट – केसला, वाया इटारसी, जिला- होशंगाबाद (म.प्र.) 46 ।।।
फोन 09425040452 ई-मेल sjpsunilATgmailDOTcom

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