‘’ शिक्षा का बाजार एक विकृति है । किसी भी आधुनिक समाज में शिक्षा के बाजार का मतलब क्या है ? हमारे शिक्षण संस्थानों को पहले हम शिक्षा का मंदिर कहते थे । अब वे शिक्षा की दुकानें बन गई हैं । वहां मुनाफाखोरी चल रही है , घोटाले हो रहे हैं । इसमें यही होगा। भोपाल में व्यापमं (व्यावसायिक परीक्षा मंडल , मध्य प्रदेश ) घोटाला हुआ। मेडिकल की सीटों के लिए आज दस से बीस लाख रुपए लिए जा रहे हैं , चारों तरफ यह हो रहा है । होशंगाबाद में ५ – ६ बी.एड. कॉलेज खुल गए हैं और वहां चालीस हजार फीस है और एक लाख दे दीजिए तो बिना एटैण्डेंस (उपस्थिति) आपको सब मिल जाएगा और आप पास भी हो जाएंगे । यह शिक्षा के बाजार का परिणाम है । बाजार में उसी के लिए जगह है जिसके पास पैसा है । बाज़ार जो टुकड़े व जूठन फेंकेगा , आप उसे उठा सकते हैं ।‘’
‘’ बाजारीकरण क्यों बढ़ रहा है ? निजीकरण की मांग जनता की ओर से नहीं आई । यह विश्व बैंक द्वारा भारत की शिक्षा नीति और व्यवस्था को प्रभावित करके शिक्षा का बाजारीकरण किया गया है । इसमें नेताओं के अपने स्वार्थ हैं । वे सब शिक्षा के इस धंधे में कूद पड़े हैं । जितने भी स्कूल – कॉलेज – मेडिकल ,इंजीनियरिंग , बी.एड हैं – सब नेताओं ने खोल लिए हैं। यह आज उनका निहित स्वार्थ बन गया है। सभी सरकारें शिक्षा के निजीकरण को अंधाधुंध तरीके से बढ़ावा दे रही हैं। इस देश में शिक्षा का धंधा सबसे ज्यादा मुनाफेवाला , सबसे ज्यादा अनियंत्रित और सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ने वाला धंधा बन गया है। बड़े – बड़े नेताओं से लेकर छुटभैया नेताओं तक सब इसमें टूट पड़े हैं । इसमें अनाप – शनाप लूट और शोषण है और देश का नुकसान है ।‘’
‘’……… निजी स्कूल का मतलब ही भेदभाव है । जिसके पास पैसा है , उसका बच्चा ऊंचे स्कूल में पढ़ेगा । जिसके पास और पैसा है , उसका बच्चा विदेश में पढ़ने जाएगा । जिसके पास पैसा नहीं है और जो सबसे ज्यादा उपेक्षित , गरीब व मजदूर का बच्चा है , वह सरकारी स्कूल में जाएगा। शिक्षा में भेदभाव, स्वास्थ्य में भेदभाव। बच्चे तो भगवान की देन हैं फिर आप उन बच्चों में भेदभाव क्यों कर रहे हैं ? आपकी समान अवसर की बात सिर्फ एक ढकोसला है । शिक्षा में भेदभाव नहीं होना चाहिए।…‘’
( लोकसभा चुनाव , २०१४ के दौरान राजनीतिक दलों के साथ शिक्षा नीति पर ०७ अप्रैल २०१४ को भोपाल में आयोजित संवाद में सुनील ,राष्ट्रीय महामंत्री ,समाजवादी जनपरिषद के विडियो रेकार्डिंग से लिप्यांतरित ।)
– ‘भारत शिक्षित कैसे बने?’,ले. सुनील,प्रकाशक – किशोर भारती ,अप्रैल २०१४, पृ. ४६ – ४७ से उद्धरित ।
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शिक्षा की दुकानदारी : सुनील
Posted in common school system, tagged व्यवसायीकरण, शिक्षा का बाजारी करण, सुनील, common school system on नवम्बर 15, 2014| 1 Comment »
राष्ट्रमण्डल खेल बनाम शिक्षा का अधिकार
Posted in common school system, commonwealth games, corporatisation, education bill, madhya pradesh, tagged anil sadgopal, अनिल सद्गोपाल, ज्योत्सना मिलन, राष्ट्रमण्डल खेल, समान शिक्षा, सुनील, common school system, commonwealth games, jyotsana milan, sunil on जनवरी 31, 2010| 4 Comments »
शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल के तत्वाधान में 24 जनवरी 2010 को मॉडल शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय परिसर में ’’राष्ट्रमंडल खेल-2010 बनाम शिक्षा का अधिकार’’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में प्रख्यात समाजवादी नेता श्री सुनील द्वारा लिखित एवं समाजवादी जनपरिषद और विद्यार्थी युवजन सभा द्वारा प्रकाशित पुस्तक ’’ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेल-2010; गुलामी और बरबादी का तमाशा’’ पुस्तक का लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता ’अनुसूया’ की सम्पादक श्रीमती ज्योत्सना मिलन ने की इसके पूर्व संगोष्ठी को संबोधित करते हुए ’’अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच’’ के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य एवं प्रख्यात शिक्षाविद् डॉ. अनिल सद्गोपाल ने कहा कि यह शर्मनाक बात है कि शिक्षा, स्वास्थ, पेयजल, कृषि आदि प्राथमिक विषयों की उपेक्षा करते हुए राष्ट्रमंडल खेलों की आड़ में राजधानी क्षेत्र नई दिल्ली एवं आसपास के क्षेत्रों में विकास के नाम पर अरबों रुपये खर्च किए जा रहे है। उन्होने बताया की सरकार की ऐसी जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध आगामी 24 फरवरी 2010 को ’’अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच’’ संसद मार्च करेंगा जिसमें देश के विभिन्न संगठन हिस्सा लेंगे। इस रैली का मुख्य उद्देश्य देश की जनता को देश में हो रहे नवउदारवादी एजेण्डे के तहत नई तरह की गुलामी को थोपने वाली नीतियों से अवगत कराना होगा। जिसका एक हिस्सा ’शिक्षा अधिकार कानून 2009’ भी है। इस रैली के जरिए आम जनमानस का आह्वान किया जाएगा कि वह संगठित होकर इस दलाल चरित्र वाली सरकार को देश के हित में कार्य करने को मजबूर करें।
पुस्तक के लेखक एवं विचारक श्री सुनील ने कहा कि देश बाजारवाद एवं नई खेल संस्कृति विकसित करने की आड़ में गुलामी की ओर बढ़ रहा है, दिल्ली में 200 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का प्राथमिक आकलन किया गया था, जिसे बढाकर 1.5 लाख करोड़ कर दिया गया है। दिल्ली में कई ऐसे स्थानों पर निर्माण कार्य किए जा रहे हैं।
संगोष्ठी में सर्व श्री दामोदर जैन, गोविंद सिंह आसिवाल, प्रो. एस. जेड. हैदर, प्रिंस अभिशेख अज्ञानी, अरुण पांडे और राजू ने अपने विचार व्यक्त करते हुए ’समान स्कूल प्रणाली’ विषयक संगठन के उद्देश्य के प्रति सहमति व्यक्त की। अंत में मंच की ओर से श्री कैलाश श्रीवास्तव ने आभार व्यक्त किया।
शिक्षा अधिकार विधेयक एक छलावा है, शिक्षा का बाजारीकरण एक विकृति है,
Posted in common school system, education bill, lohia, tagged common school system, education bill, lohia, right to education on अगस्त 19, 2009| 6 Comments »
देश के सारे बच्चों को मुफ्त, समतापूर्ण, गुणवत्तापू्र्ण शिक्षा के संघर्ष के लिए आगे आएं
लोकसभा चुनाव में दुबारा जीतकर आने के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के नए मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने कई घोषणाएं की हैं। अपने मंत्रालय का 100 दिन का कार्यक्रम जारी करते हुए उन्होंने शिक्षा व्यवस्था में अनेक प्रकार के सुधारों व बदलावों की मंशा जाहिर की है। उनकी घोषणाओं में प्रमुख हैं :-
शिक्षा में निजी-सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ावा देना, देश में विदेशी विश्वविद्यालयों को इजाजत देना, कक्षा 10वीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त करना, अंकों के स्थान पर ग्रेड देना, देश भर के कॉलेजों में दाखिला के लिए एक अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा लेना, व्यावसायिक शिक्षा के लिए बैंक ऋण में गरीब छात्रों को ब्याज अनुदान देना आदि। यशपाल समिति की सिफारिश को भी स्वीकार किया जा सकता है, जिसमें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, भारतीय चिकित्सा परिषद् आदि को समाप्त कर चुनाव आयोग की तर्ज पर ‘राष्ट्रीय उच्च शिक्षा एवं शोध आयोग’ बनाने का सुझाव दिया गया है। अचरज की बात है कि शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है, किन्तु श्री सिब्बल ने इन घोषणाओं के पहले राज्य सरकारों से परामर्श की जरुरत भी नहीं समझी।

शिक्षा अधिकार सम्मेलन , भोपाल
इनमें से कुछ प्रावधान अच्छे हो सकते हैं, किन्तु कई कदम खतरनाक हैं और उन पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस की जरुरत है। इन घोषणाओं से प्रतीत होता है कि भारत सरकार और श्री कपिल सिब्बल भारत की शिक्षा की दुरावस्था से चिंतित हैं और उसको सुधारना चाहते हैं। लेकिन वास्तव में वे शिक्षा का निजीकरण एवं व्यवसायीकरण, शिक्षा में मुनाफाखोरी के नए अवसर खोलने, विदेशी शिक्षण संस्थाओं की घुसपैठ कराने, सरकारी शिक्षा व्यवस्था को और ज्यादा बिगाड़ने, साधारण बच्चों को शिक्षा से वंचित करने और देश के सारे बच्चों को शिक्षति करने की सरकार की जिम्मेदारी से भागने की तैयारी कर रहे हैं। इन कदमों का पूरी ताकत से विरोध होना चाहिए। साथ ही अब समय आ गया है कि देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए सरकारी संसाधनों से समान स्कूल प्रणाली पर आधारित मुफ्त, अनिवार्य व समतापू्र्ण शिक्षा के लिए सघर्ष को तेज किया जाए।
शिक्षा अधिकार विधेयक का पाखंड
‘बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिकार विधेयक’ संसद में काफी समय से लंबित है और इसका काफी विरोध हुआ है। वर्तमान स्वरुप में यह देश के बच्चों को शिक्षा का
अधिकार देने के बजाय छीनने का काम करता है। इस विधेयक में शिक्षा के बढ़ते निजीकरण, व्यवसायीकरण और बाजारीकरण पर रोक लगाने की कोई बात नहीं है। आज देश में शिक्षा की कई परतें बन गई हैं। जिसकी जैसी आर्थिक हैसियत है, उसके हिसाब से वह अपने बच्चों को उस स्तर के स्कूलों मे पढ़ा रहा है। सरकारी स्कूलों की हालत जानबूझकर इतनी खराब बना दी गई है कि उनमें सबसे गरीब साधनहीन परिवारों के बच्चे ही जा रहे हैं। ऐसी हालत में उनकी उपेक्षा और बदहाली और ज्यादा बढ़ गई है। इस दुष्चक्र और भेदभाव को तोड़ने के बजाय यह विधेयक और मजबूत करता है।
विश्वबैंक के निर्देशों के तहत, शिक्षा के बाजार को बढ़ावा देने के मकसद से, पिछले कुछ वर्षों से केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों ने जानबूझकर सरकारी शिक्षा व्यवस्था बिगाड़ने का काम किया है। पहले तो देश के सारे बच्चों को स्कूली शिक्षा प्रदान करने के संवैधानिक निर्देश को पूरा करने के बजाय साक्षरता अभियान, औपचारिकेतर शिक्षा व शिक्षा गारंटी शालाओं के नाम पर सरकार ने अपनी जिम्मेदारी टालने की कोशिश की। फिर स्कूलों व कॉलेजों में स्थायी-प्रशिक्षति शिक्षकों के स्थान पर पैरा-शिक्षकों की नियुक्तियां शुरु कर दी,जो अस्थायी व अप्रशिक्षति होते हैं और जिन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है। इसी के साथ प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षकों की कामचलाऊ नियुक्ति को भी वैधानिक स्वीकृति दे दी गई, जिसका मतलब है कि एक शिक्षक दो, तीन, चार या पांच कक्षाएं एक साथ पढ़ाएगा। देश के साधारण गरीब बच्चों को इस लायक भी सरकार ने नहीं समझा कि एक कक्षा के लिए कम से कम एक शिक्षक मुहैया कराया जाए। सरकारी शिक्षकों को तमाम तरह के गैर-शैक्षणिक कामों में लगाने पर भी रोक इस विधेयक में नहीं लगाई गई है, जिसका मतलब है सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का और ज्यादा अभाव एवं ज्यादा गैरहाजिरी। चूंकि निजी स्कूलों के शिक्षकों को इस तरह की कोई ड्यूटी नहीं करनी पड़ती है, सरकारी स्कूलों में जाने वाले साधारण गरीब बच्चों के प्रति भेदभाव इससे और मजबूत होता है। निजी स्कूलों के साधन-संपन्न बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा में इससे वे और कमजोर पड़ते जाते हैं।

भोपाल सम्मेलन
निजी स्कूल कभी भी देश के सारे बच्चों को शिक्षा देने का काम नहीं कर सकते हैं,क्योंकि उनकी फीस चुकाने की क्षमता सारे लोगों में नहीं होती है। शिक्षा का निजीकरण देश में पहले से मौजूद अमीर-गरीब की खाई को और ज्यादा मजबूत करेगा तथा करोड़ों बच्चों को शिक्षा से वंचित करने का काम करेगा। देश के सारे बच्चों को शिक्षति करने के लिए सरकार को ही आगे आना पड़ेगा व जिम्मेदारी लेनी होगी। लेकिन सरकार ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को इस चुनौती के अनुरुप फैलाने, मजबूत करने और बेहतर बनाने के बजाय लगातार उल्टे बिगाड़ा है व उपेक्षति-वंचित किया है। सरकारी स्कूलों की संख्या में जरुर वृद्धि हुई है, स्कूलों में नाम दर्ज बच्चों की संख्या भी 90-95 प्रतिशत तक पहुंचने का दावा किया जा रहा है, किन्तु इस कुव्यवस्था, घटिया शिक्षा, अनुपयुक्त व अरुचिपूर्ण शिक्षा पद्धति, खराब व्यवहार एवं गरीबी की परिस्थितियों के कारण आधे से भी कम बच्चे 8 वीं कक्षा तक पहुंच पाते हैं। इसलिए शिक्षा के अधिकार की कोई भी बात करने के पहले देश की सरकारी शिक्षा व्यवस्था को सार्थक, संपू्र्ण, सुव्यवस्थित व सर्वसुविधायुक्त बनाना जरुरी है। जो सरकार उल्टी दिशा में काम कर रही है, और जानबूझकर सरकारी स्कूल व्यवस्था को नष्ट करने का काम कर रही हैं, उसके द्वारा शिक्षा अधिकार विधेयक संसद में पास कराने की बात करना एक पाखंड है और आंखों में धूल झोंकने के समान है।
समान स्कूल प्रणाली एकमात्र विकल्प
देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, इसके लिए यह भी जरुरी है कि देश में कानून बनाकर पड़ोसी स्कूल पर आधारित समान स्कूल प्रणाली लागू की जाए। इसका मतलब यह है कि एक गांव या एक मोहल्ले के सारे बच्चे (अमीर या गरीब, लड़के या लड़की, किसी भी जाति या धर्म के) एक ही स्कूल में पढ़ेंगे। इस स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाएगी और सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएगी। यह जिम्मेदारी सरकार की होगी और शिक्षा के सारे खर्च सरकार द्वारा वहन किए जाएंगे। सामान्यत: स्कूल सरकारी होगें, किन्तु फीस न लेने वाले परोपकारी उद्देश्य से (न कि मुनाफा कमाने के उद्देश्य से) चलने वाले कुछ निजी स्कूल भी इसका हिस्सा हो सकते हैं। जब बिना भेदभाव के बड़े-छोटे, अमीर-गरीब परिवारों के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ेगें तो अपने आप उन स्कूलों की उपेक्षा दूर होगी, उन पर सबका ध्यान होगा और उनका स्तर ऊपर उठेगा। भारत के सारे बच्चों को शिक्षति करने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। दुनिया के मौजूदा विकसित देशों में कमोबेश इसी तरह की स्कूल व्यवस्था रही है और इसी तरह से वे सबको शिक्षति बनाने का लक्ष्य हासिल कर पाए हैं। समान स्कूल प्रणाली का प्रावधान किए बगैर शिक्षा अधिकार विधेयक महज एक छलावा है।
इस विधेयक में और कई कमियां हैं। यह सिर्फ 6 से 14 वर्ष की उम्र तक (कक्षा 1 से 8 तक) की शिक्षा का अधिकार देने की बात करता है। इसका मतलब है कि बहुसंख्यक बच्चे कक्षा 8 के बाद शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। कक्षा 1 से पहले पू्र्व प्राथमिक शिक्षा भी महत्वपू्र्ण है। उसे
अधिकार के दायरे से बाहर रखने का मतलब है सिर्फ साधन संपन्न बच्चों को ही केजी-1, केजी-2 आदि की शिक्षा पाने का अधिकार रहेगा। शुरुआत से ही भेदभाव की नींव इस विधेयक द्वारा डाली जा रही है।
शिक्षा अधिकार विधेयक में निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों का आरक्षण गरीब बच्चों के लिए करने का प्रावधान किया गया है और उनकी ट्यूशन फीस का भुगतान सरकार करेगी। किन्तु महंगे निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा कई तरह के अन्य शुल्क लिए जाते हैं, क्या उनका भुगतान गरीब परिवार कर सकेगें ? क्या ड्रेस, कापी-किताबों आदि का भारी खर्च वे उठा पाएंगे ? क्या यह एक ढकोसला नहीं होगा ? फिर क्या इस प्रावधान से गरीब बच्चों की शिक्षा का सवाल हल हो जाएगा ? वर्तमान में देश में स्कूल आयु वर्ग के 19 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से लगभग 4 करोड़ निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। मान लिया जाए कि इस विधेयक के पास होने के बाद निजी स्कूलों में और 25 प्रतिशत यानि 1 करोड़ गरीब बच्चों का दाखिला हो जाएगा, तो भी बाकी 14 करोड़ बच्चों का क्या होगा ? इसी प्रकार जब सरकार गरीब प्रतिभाशाली बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय, कस्तूरबा कन्या विद्यालय, उत्कृष्ट विद्यालय और अब प्रस्तावित मॉडल स्कूल खोलती है, तो बाकी विशाल संख्या में बच्चे और ज्यादा उपेक्षति हो जाते है। ऐसी हालत में, देश के हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार देने की बात महज एक लफ्फाजी बनकर रह जाती है।
शिक्षा का मुक्त बाजार ?
वास्तव में नवउदारवादी रास्ते पर चल रही भारत सरकार देश में शिक्षा का मुक्त बाजार बनाने को प्रतिबद्ध है और उसी दिशा में आगे बढ़ रही है। शिक्षा में सरकारी-निजी भागीदारी का मतलब व्यवहार में यह होगा कि या तो नगरों व महानगरों की पुरानी सरकारी शिक्षण संस्थाओं के पास उपलब्ध कीमती जमीन निजी हाथों के कब्जे में चली जाएगी या फिर प्रस्तावित मॉडल स्कूलों में पैसा सरकार का होगा, मुनाफा निजी हाथों में जाएगा। निजीकरण के इस माहौल में छात्रों और अभिभावकों का शोषण बढ़ता जा रहा है। बहुत सारी घटिया, गैरमान्यताप्राप्त और फर्जी शिक्षण संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। दो-तीन कमरों में चलने वाले कई निजी विश्वविद्यालय आ गए हैं और कई निजी संस्थानों को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया है। कोचिंग और ट्यूशन का भी बहुत बड़ा बाजार बन गया है। बड़े कोचिंग संस्थान तो करोड़ों की कमाई कर रहे है। अभिभावकों के लिए अपने बच्चों को पढ़ाना व प्रतिस्पर्धा में उतारना दिन-प्रतिदिन महंगा व मुश्किल होता जा रहा है। गरीब और साधारण हैसियत के बच्चों के लिए दरवाजे बंद हो रहे है।
यदि कपिल सिब्बल की चलेगी तो अब कॉलेज में दाखिले के लिए भी अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा होगी। इससे कोचिंग का बाजार और बढ़ेगा तथा साधारण हैसियत के युवाओं के लिए कॉलेज शिक्षा के दरवाजे भी बंद होने लगेगें। आत्महत्याओं व कुंठा में और बढ़ोत्तरी होगी। विडंबना यह है कि बच्चों का परीक्षा का तनाव कम करने की बात करने वाले सिब्बल साहब को गलाकाट प्रतिस्पर्धाओं और कोचिंग कारोबार के दोष नहीं दिखाई देते। महंगी निजी शिक्षा के लिए उनका फार्मूला है शिक्षा ऋण तथा गरीब विद्यार्थियों के लिए इस ऋण में ब्याज अनुदान। लेकिन बहुसंख्यक युवाओं की कुंठा, वंचना और हताशा बढ़ती जाएगी।
यदि देश के दरवाजे विदेशी शिक्षण संस्थाओं और विदेशी विश्वविद्यालय के लिए खोल दिए गए, तो बाजार की यह लूट व धोखाधड़ी और बढ़ जाएगी। यह उम्मीद करना बहुत गलत एवं भ्रामक है कि दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय भारत में आने को तत्पर है और इससे देशमें शिक्षा का स्तर बढ़ेगा। वास्तव में घटिया, चालू और मुनाफे व कमाई की खोज में बैचेन विश्वविद्यालय व शिक्षण संस्थान ही आएंगे। देश के जनजीवन के लगभग हर क्षेत्र को विदेशी कंपनियों के मुनाफे के लिए खोलने के बाद अब शिक्षा, स्वास्थ्य, मीडिया आदि के बाकी क्षेत्रों को भी विदेशी कंपनियों के लूट व मुनाफाखोरी के हवाले करने की यह साजिश है। यह सिर्फ आर्थिक लूट ही नहीं होगी। इससे देश के ज्ञान-विज्ञान, शोध, चिन्तन, मूल्यों और संस्कृति पर भी गहरा विपरीत असर पड़ेगा। इसका पूरी ताकत से प्रतिरोध करना जरुरी है।
स्वतंत्र आयोग या निजीकरण का वैधानीकरण ?
यशपाल समिति की पूरी रिपोर्ट का ब्यौरा सामने नहीं आया है। उच्च शिक्षा की बिगड़ती दशा के बारे में उसकी चिंता जायज है। डीम्ड विश्वविद्यालयों की बाढ़ के बारे में भी उसने सही चेतावनी दी है। किन्तु यू.जी.सी., अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, भारतीय चिकित्सा परिषद् आदि समाप्त करके उनके स्थान पर चुनाव आयोग जैसा स्वतंत्र एवं स्वायत्त ‘उच्च शिक्षा एवं शोध आयोग’ बनाने के सुझाव पर सावधानी की जरुरत है। पिछले कुछ समय में, विश्व बैंक के सुझाव पर अनेक प्रांतो में विद्युत नियामक आयोग एवं जल नियामक आयोग बनाए गए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर दूरसंचार व बीमा के लिए भी इस तरह के आयोग बने हैं। दरअसल ये सारे आयोग निजीकरण के साथ आए हैं। जब तक सब कुछ सरकार के हाथ में था, आयोग की जरुरत नहीं थी। यह कहा जाता है कि ये आयोग सरकार से स्वतंत्र एवं स्वायत्त होते हैं और राजनीतिक प्रभाव से मुक्त होते हैं। लेकिन विश्वबैंक और देशी-विदेशी कंपनियों का प्रभाव उन पर काम करता रहता है। कम से कम बिजली और पानी के बारे में इन आयोगों की भूमिका निजीकरण की राह प्रशस्त करना, उसे वैधता देने और बिजली-पानी की दरों को बढ़ाने की रही है। उन्हें राजनीति से अलग रखने के पीछे मंशा यह भी है कि जन असंतोष और जनमत का दबाब उन पर न पड़ जाए। उच्च शिक्षा और स्कूली शिक्षा के बारे में इस तरह के आयोगों की भूमिका भी निजीकरण को वैधता प्रदान करने की हो सकती है, जबकि जरुरत शिक्षा के निजीकरण को रोकने व समाप्त करने की है। अफसोस की बात है कि यशपाल समिति ने उच्च शिक्षा के निजीकरण और विदेशी संस्थानों के घुसपैठ का स्पष्ट विरोध नहीं किया है।
आइए, आठ सूत्री देशव्यापी मुहिम छेड़ें
शिक्षा का बाजार एक विकृति है। बच्चों में शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण में भेदभाव करना
आधुनिक सभ्य समाज पर कलंक के समान है। देश के सारे बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना हमारा संवैधानिक दायित्व है। भारतीय संविधान में इस काम को 10 वर्ष में पूरा करने के निर्देश दिए गए थे। लेकिन छ: दशक में भी इसे पूरा न करके भारत की सरकारों ने भारत की जनता, देश और संविधान के प्रति अक्षम्य अपराध किया है। अब सरकार जो कदम उठा रही हैं,उससे यह लक्ष्य और दूर हो जाएगा। समय आ गया है कि इस मामले में देश भर में मुहिम चलाकर भारत सरकार पर दबाब बनाया जाए कि –
1. शिक्षा के निजीकरण, व्यवसायीकरण और मुनाफाखोरी को तत्काल रोका जाए और इस दिशा में उठाए गए सारे कदम वापस लिए जाएं।
2. शिक्षा में विदेशी शिक्षण संस्थानों के प्रवेश पर रोक लगे।
3. शिक्षा में सभी तरह के भेदभाव और गैरबराबरी खतम की जाए। समान स्कूल प्रणाली पर आधारित मुफ्त, अनिवार्य एवं समतामूलक शिक्षा की व्यवस्था देश के सारे बच्चों के लिए अविलंब की जाए।
4. सरकारी स्कूलों में पर्याप्त संख्या में स्थायी व प्रशिक्षति शिक्षक नियुक्त किए जाएं और उन्हें सम्मानजनक वेतन दिए जाएं। स्कूलों में भवन, पाठ्य-पुस्तकों, पाठ्य सामग्री, खेल सामग्री, खेल मैदान, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शिल्प-शिक्षण, छात्रवृत्तियों, छात्रावास आदि की पर्याप्त एवं समुचित व्यवस्था हो। सुविधाओं व स्तर की दृष्टि से प्रत्येक स्कूल को केन्द्रीय विद्यालय या नवोदय विद्यालय के समकक्ष लाया जाए।
5. ‘शिक्षा का अधिकार विधेयक’ के मौजूदा प्रारुप को तत्काल वापस लेकर उक्त शर्तों को पूरा करने वाला नया विधेयक लाया जाए। विधेयक के मसौदे पर पूरे देश में जनसुनवाई की जाए एवं चर्चा-बहस चलाई जाए।
6. शिक्षा की जिम्मेदारी से भागना बंद करके सरकार शिक्षा के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए। कोठारी आयोग एवं तपस सेनगुप्ता समिति की सिफारिश के मुताबिक कम से कम राष्ट्रीय आय के छ: प्रतिशत के बराबर व्यय सरकार द्वारा शिक्षा पर किया जाए।
7. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। शिक्षा, प्रशासन एवं सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का वर्चस्व गुलामी की विरासत है। इसे तत्काल समाप्त किया जाए।
8. मैकाले द्वारा बनाया शिक्षा का मौजूदा किताबी, तोतारटन्त, श्रम के तिरस्कार वाला, जीवन से कटा, विदेशी प्रभाव एवं अंग्रेजी के वर्चस्व वाला स्वरुप बदला जाए। इसे आम लोगों की जरुरतों के अनुसार ढाला जाए एवं संविधान के लक्ष्यों के मुताबिक समाजवादी,धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रकि एवं प्रगतिशील भारत के निर्माण के हिसाब से बनाया जाए। हर बच्चे के अंदर छुपी क्षमताओं व प्रतिभाओं के विकास का मौका इससे मिले।
लगभग इसी तरह के मुद्दों व मांगो को लेकर 21-22 जून को एक राष्ट्रीय सेमिनार में अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच का गठन हुआ है, जिसकी ओर से जुलाई में संसद पर प्रदर्शन की तैयारी की जा रही है। अखिल भारतीय समाजवादी अध्यापक सभा द्वारा भी काफी समय से इन मुद्दों पर मुहिम चलाई जा रही है जिसका समापन 25 अक्टूबर 2009 को दिल्ली मे राजघाट पर होगा।
कृपया आप भी अपने क्षेत्र मेंव अपनी इकाइयों में इन मुद्दों व मांगो पर तत्काल कार्यक्रम लें। आप गोष्ठी, धरने, प्रदर्शन, ज्ञापन, परचे वितरण, पोस्टर प्रदर्शनी आदि का आयोजन कर सकते हैं। स्थानीय स्तर पर शिक्षकों, अभिभावकों, विद्यार्थियों, जागरुक नागरिकों व अन्य जनसंगठनों के साथ मिलकर ‘शिक्षा अधिकार मंच’ का गठन भी कर सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि यह वर्ष प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्मशताब्दी वर्ष है। उनके नेतृत्व में पचास साल पहले ही समाजवादी आंदोलन ने मुफ्त और समान शिक्षा का आंदोलन छेड़ा था तथा अंग्रेजी के वर्चस्व का विरोध किया था। ‘चपरासी हो या अफसर की संतान, सबकी शिक्षा एक समान’ तथा ‘चले देश में देशी भाषा, गांधी-लोहिया की यह अभिलाषा’ के नारे देते हुए शिक्षा में भेदभाव समाप्त करने का आह्वान किया था। डॉ. लोहिया की जन्मशताब्दी पर उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी कि इस आवाज को हम फिर से पूरी ताकत से बुलंद करें।
सुनील
राष्ट्रीय अध्यक्ष
समाजवादी जन परिषद्
ग्राम- पोस्ट – केसला
जिला होशंगाबाद
फोन 09425040452
शिक्षा अधिकार विधेयक एक छलावा है
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एक आह्वान
शिक्षा अधिकार विधेयक एक छलावा है,
शिक्षा का बाजारीकरण एक विकृति है,
देश के सारे बच्चों को मुफ्त, समतापूर्ण, गुणवत्तापू्र्ण शिक्षा के संघर्ष
के लिए आगे आएं
लोकसभा चुनाव में दुबारा जीतकर आने के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के नए मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने कई घोषणाएं की हैं। अपने मंत्रालय का 100 दिन का कार्यक्रम जारी करते हुए उन्होंने शिक्षा व्यवस्था में अनेक प्रकार के सुधारों व बदलावों की मंशा जाहिर की है। उनकी घोषणाओं में प्रमुख हैं :-
शिक्षा में निजी-सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ावा देना, देश में विदेशी विश्वविद्यालयों को इजाजत देना, कक्षा 10वीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त करना, अंकों के स्थान पर ग्रेड देना, देश भर के कॉलेजों में दाखिला के लिए एक अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा लेना, व्यावसायिक शिक्षा के लिए बैंक ऋण में गरीब छात्रों को ब्याज अनुदान देना आदि। यशपाल समिति की सिफारिश को भी स्वीकार किया जा सकता है, जिसमें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, भारतीय चिकित्सा परिषद् आदि को समाप्त कर चुनाव आयोग की तर्ज पर ‘राष्ट्रीय उच्च शिक्षा एवं शोध आयोग’ बनाने का सुझाव दिया गया है। अचरज की बात है कि शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है, किन्तु श्री सिब्बल ने इन घोषणाओं के पहले राज्य सरकारों से परामर्श की जरुरत भी नहीं समझी।
इनमें से कुछ प्रावधान अच्छे हो सकते हैं, किन्तु कई कदम खतरनाक हैं और उन पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस की जरुरत है। इन घोषणाओं से प्रतीत होता है कि भारत सरकार और श्री कपिल सिब्बल भारत की शिक्षा की दुरावस्था से चिंतित हैं और उसको सुधारना चाहते हैं। लेकिन वास्तव में वे शिक्षा का निजीकरण एवं व्यवसायीकरण, शिक्षा में मुनाफाखोरी के नए अवसर खोलने, विदेशी शिक्षण संस्थाओं की घुसपैठ कराने, सरकारी शिक्षा व्यवस्था को और ज्यादा बिगाड़ने, साधारण बच्चों को शिक्षा से वंचित करने और देश के सारे बच्चों को शिक्षति करने की सरकार की जिम्मेदारी से भागने की तैयारी कर रहे हैं। इन कदमों का पूरी ताकत से विरोध होना चाहिए। साथ ही अब समय आ गया है कि देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए सरकारी संसाधनों से समान स्कूल प्रणाली पर आधारित मुफ्त, अनिवार्य व समता्पूर्ण शिक्षा के लिएश संघर्षको तेज किया जाए।
शिक्षा अधिकार विधेयक का पाखंड
‘बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिकार विधेयक’ संसद में काफी समय से लंबित है और इसका काफी विरोध हुआ है। वर्तमान स्वरुप में यह देश के बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने के बजाय छीनने का काम करता है। इस विधेयक में शिक्षा के बढ़ते निजीकरण, व्यवसायीकरण और बाजारीकरण पर रोक लगाने की कोई बात नहीं है। आज देश में शिक्षा की कई परतें बन गई हैं। जिसकी जैसी आर्थिक हैसियत है, उसके हिसाब से वह अपने बच्चों को उस स्तर के स्कूलों मे पढ़ा रहा है। सरकारी स्कूलों की हालत जानबूझकर इतनी खराब बना दी गई है कि उनमें सबसे गरीब साधनहीन परिवारों के बच्चे ही जा रहे हैं। ऐसी हालत में उनकी उपेक्षा और बदहाली और ज्यादा बढ़ गई है। इस दुष्चक्र और भेदभाव को तोड़ने के बजाय यह विधेयक और मजबूत करता है।
विश्वबैंक के निर्देशों के तहत, शिक्षा के बाजार को बढ़ावा देने के मकसद से, पिछले कुछ वर्षों से केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों ने जानबूझकर सरकारी शिक्षा व्यवस्था बिगाड़ने का काम किया है। पहले तो देश के सारे बच्चों को स्कूली शिक्षा प्रदान करने के संवैधानिक निर्देश को पूरा करने के बजाय साक्षरता अभियान, औपचारिकेतर शिक्षा व शिक्षा गारंटी शालाओं के नाम पर सरकार ने अपनी जिम्मेदारी टालने की कोशिश की। फिर स्कूलों व कॉलेजों में स्थायी-प्रशिक्षित शिक्षकों के स्थान पर पैरा-शिक्षकों की नियुक्तियां शुरु कर दी,जो अस्थायी व अप्रशिक्षित होते हैं और जिन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है। इसी के साथ प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षकों की कामचलाऊ नियुक्ति को भी वैधानिक स्वीकृति दे दी गई, जिसका मतलब है कि एक शिक्षक दो, तीन, चार या पांच कक्षाएं एक साथ पढ़ाएगा। देश के साधारण गरीब बच्चों को इस लायक भी सरकार ने नहीं समझा कि एक कक्षा के लिए कम से कम एक शिक्षक मुहैया कराया जाए। सरकारी शिक्षकों को तमाम तरह के गैर-शैक्षणिक कामों में लगाने पर भी रोक इस विधेयक में नहीं लगाई गई है, जिसका मतलब है सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का और ज्यादा अभाव एवं ज्यादा गैरहाजिरी। चूंकि निजी स्कूलों के शिक्षकों को इस तरह की कोई ड्यूटी नहीं करनी पड़ती है, सरकारी स्कूलों में जाने वाले साधारण गरीब बच्चों के प्रति भेदभाव इससे और मजबूत होता है। निजी स्कूलों के साधन-संपन्न बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा में इससे वे और कमजोर पड़ते जाते हैं।
निजी स्कूल कभी भी देश के सारे बच्चों को शिक्षा देने का काम नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उनकी फीस चुकाने की क्षमता सारे लोगों में नहीं होती है। शिक्षा का निजीकरण देश में पहले से मौजूद अमीर-गरीब की खाई को और ज्यादा मजबूत करेगा तथा करोड़ों बच्चों को शिक्षा से वंचित करने का काम करेगा। देश के सारे बच्चों को शिक्षति करने के लिए सरकार को ही आगे आना पड़ेगा व जिम्मेदारी लेनी होगी। लेकिन सरकार ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को इस चुनौती के अनुरुप फैलाने, मजबूत करने और बेहतर बनाने के बजाय लगातार उल्टे बिगाड़ा है व उपेक्षति-वंचित किया है। सरकारी स्कूलों की संख्या में जरुर वृद्धि हुई है, स्कूलों में नाम दर्ज बच्चों की संख्या भी 90-95 प्रतिशत तक पहुंचने का दावा किया जा रहा है, किन्तु इस कुव्यवस्था, घटिया शिक्षा, अनुपयुक्त व अरुचिपू्र्ण शिक्षा पद्धति, खराब व्यवहार एवं गरीबी की परिस्थितियों के कारण आधे से भी कम बच्चे 8 वीं कक्षा तक पहुंच पाते हैं। इसलिए शिक्षा के अधिकार की कोई भी बात करने के पहले देश की सरकारी शिक्षा व्यवस्था को सार्थक, संपूर्ण, सुव्यवस्थित व सर्वसुविधायुक्त बनाना जरुरी है। जो सरकार उल्टी दिशा में काम कर रही है, और जानबूझकर सरकारी स्कूल व्यवस्था को नष्ट करने का काम कर रही हैं, उसके द्वारा शिक्षा अधिकार विधेयक संसद में पास कराने की बात करना एक पाखंड है और आंखों में धूल झोंकने के समान है।
समान स्कूल प्रणाली एकमात्र विकल्प
देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, इसके लिए यह भी जरुरी है कि देश में कानून बनाकर पड़ोसी स्कूल पर आधारित समान स्कूल प्रणाली लागू की जाए। इसका मतलब यह है कि एक गांव या एक मोहल्ले के सारे बच्चे (अमीर या गरीब, लड़के या लड़की, किसी भी जाति या धर्म के) एक ही स्कूल में पढ़ेंगे। इस स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाएगी और सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएगी। यह जिम्मेदारी सरकार की होगी और शिक्षा के सारे खर्च सरकार द्वारा वहन किए जाएंगे। सामान्यत: स्कूल सरकारी होगें, किन्तु फीस न लेने वाले परोपकारी उद्देश्य से (न कि मुनाफा कमाने के उद्देश्य से) चलने वाले कुछ निजी स्कूल भी इसका हिस्सा हो सकते हैं। जब बिना भेदभाव के बड़े-छोटे, अमीर-गरीब परिवारों के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ेगें तो अपने आप उन स्कूलों की उपेक्षा दूर होगी, उन पर सबका ध्यान होगा और उनका स्तर ऊपर उठेगा। भारत के सारे बच्चों को शिक्षित करने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। दुनिया के मौजूदा विकसित देशों में कमोबेश इसी तरह की स्कूल व्यवस्था रही है और इसी तरह से वे सबको शिक्षति बनाने का लक्ष्य हासिल कर पाए हैं। समान स्कूल प्रणाली का प्रावधान किए बगैर शिक्षा अधिकार विधेयक महज एक छलावा है।
इस विधेयक में और कई कमियां हैं। यह सिर्फ 6 से 14 वर्ष की उम्र तक (कक्षा 1 से 8 तक) की शिक्षा का अधिकार देने की बात करता है। इसका मतलब है कि बहुसंख्यक बच्चे कक्षा 8 के बाद शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। कक्षा 1 से पहले पू्र्व प्राथमिक शिक्षा भी महत्वपू्र्ण है। उसे अधिकार के दायरे से बाहर रखने का मतलब है सिर्फ साधन संपन्न बच्चों को ही केजी-1, केजी-2 आदि की शिक्षा पाने का अधिकार रहेगा। शुरुआत से ही भेदभाव की नींव इस विधेयक द्वारा डाली जा रही है।
शिक्षा अधिकार विधेयक में निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों का आरक्षण गरीब बच्चों के लिए करने का प्रावधान किया गया है और उनकी ट्यूशन फीस का भुगतान सरकार करेगी। किन्तु महंगे निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा कई तरह के अन्य शुल्क लिए जाते हैं, क्या उनका भुगतान गरीब परिवार कर सकेगें ? क्या ड्रेस, कापी-किताबों आदि का भारी खर्च वे उठा पाएंगे ? क्या यह एक ढकोसला नहीं होगा ? फिर क्या इस प्रावधान से गरीब बच्चों की शिक्षा का सवाल हल हो जाएगा ? वर्तमान में देश में स्कूल आयु वर्ग के 19 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से लगभग 4 करोड़ निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। मान लिया जाए कि इस विधेयक के पास होने के बाद निजी स्कूलों में और 25 प्रतिशत यानि 1 करोड़ गरीब बच्चों का दाखिला हो जाएगा, तो भी बाकी 14 करोड़ बच्चों का क्या होगा ? इसी प्रकार जब सरकार गरीब प्रतिभाशाली बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय, कस्तूरबा कन्या विद्यालय, उत्कृष्ट विद्यालय और अब प्रस्तावित मॉडल स्कूल खोलती है, तो बाकी विशाल संख्या में बच्चे और ज्यादा उपेक्षति हो जाते है। ऐसी हालत में, देश के हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार देने की बात महज एक लफ्फाजी बनकर रह जाती है।
शिक्षा का मुक्त बाजार ?
वास्तव में नवउदारवादी रास्ते पर चल रही भारत सरकार देश में शिक्षा का मुक्त बाजार बनाने को प्रतिबद्ध है और उसी दिशा में आगे बढ़ रही है। शिक्षा में सरकारी-निजी भागीदारी का मतलब व्यवहार में यह होगा कि या तो नगरों व महानगरों की पुरानी सरकारी शिक्षण संस्थाओं के पास उपलब्ध कीमती जमीन निजी हाथों के कब्जे में चली जाएगी या फिर प्रस्तावित मॉडल स्कूलों में पैसा सरकार का होगा, मुनाफा निजी हाथों में जाएगा। निजीकरण के इस माहौल में छात्रों और अभिभावकों का शोषण बढ़ता जा रहा है। बहुत सारी घटिया, गैरमान्यताप्राप्त और फर्जी शिक्षण संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। दो-तीन कमरों में चलने वाले कई निजी विश्वविद्यालय आ गए हैं और कई निजी संस्थानों को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया है। कोचिंग और ट्यूशन का भी बहुत बड़ा बाजार बन गया है। बड़े कोचिंग संस्थान तो करोड़ों की कमाई कर रहे है। अभिभावकों के लिए अपने बच्चों को पढ़ाना व प्रतिस्पर्धामें उतारना दिन-प्रतिदिन महंगा व मुश्किल होता जा रहा है। गरीब और साधारण हैसियत के बच्चों के लिए दरवाजे बंद हो रहे है।
यदि कपिल सिब्बल की चलेगी तो अब कॉलेज में दाखिले के लिए भी अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा होगी। इससे कोचिंग का बाजार और बढ़ेगा तथा साधारण हैसियत के युवाओं के लिए कॉलेज शिक्षा के दरवाजे भी बंद होने लगेगें। आत्महत्याओं व कुंठा में और बढ़ोत्तरी होगी। विडंबना यह है कि बच्चों का परीक्षा का तनाव कम करने की बात करने वाले सिब्बल साहब को गलाकाट प्रतिस्पर्धाओं और कोचिंग कारोबार के दोष नहीं दिखाई देते। महंगी निजी शिक्षा के लिए उनका फार्मूला है शिक्षा ऋण तथा गरीब विद्यार्थियों के लिए इस ऋणमें ब्याज अनुदान। लेकिन बहुसंख्यक युवाओं की कुंठा, वंचना और हताशा बढ़ती जाएगी।
यदि देश के दरवाजे विदेशी शिक्षण संस्थाओं और विदेशी विश्वविद्यालय के लिए खोल दिए गए, तो बाजार की यह लूट व धोखाधड़ी और बढ़ जाएगी। यह उम्मीद करना बहुत गलत एवं भ्रामक है कि दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय भारत में आने को तत्पर है और इससे देश में शिक्षा का स्तर बढ़ेगा। वास्तव में घटिया, चालू और मुनाफे व कमाई की खोज में बैचेन विश्वविद्यालय व शिक्षण संस्थान ही आएंगे। देश के जनजीवन के लगभग हर क्षेत्र को विदेशी कंपनियों के मुनाफे के लिए खोलने के बाद अब शिक्षा, स्वास्थ्य, मीडिया आदि के बाकी क्षेत्रों को भी विदेशी कंपनियों के लूट व मुनाफाखोरी के हवाले करने की यह साजिश है। यह सिर्फ आर्थिक लूट ही नहीं होगी। इससे देश के ज्ञान-विज्ञान, शोध, चिन्तन, मूल्यों और संस्कृति पर भी गहरा विपरीत असर पड़ेगा। इसका पूरी ताकत से प्रतिरोध करना जरुरी है।
स्वतंत्र आयोग या निजीकरण का वैधानीकरण ?
यशपाल समिति की पूरी रिपोर्ट का ब्यौरा सामने नहीं आया है। उच्च शिक्षा की बिगड़ती दशा के बारे में उसकी चिंता जायज है। डीम्ड विश्वविद्यालयों की बाढ़ के बारे में भी उसने सही चेतावनी दी है। किन्तु यू.जी.सी., अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, भारतीय चिकित्सा परिषद् आदि समाप्त करके उनके स्थान पर चुनाव आयोग जैसा स्वतंत्र एवं स्वायत्त ‘उच्च शिक्षा एवं शोध आयोग’ बनाने के सुझाव पर सावधानी की जरुरत है। पिछले कुछ समय में, विश्व बैंक के सुझाव पर अनेक प्रांतो में विद्युत नियामक आयोग एवं जल नियामक आयोग बनाए गए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर दूरसंचार व बीमा के लिए भी इस तरह के आयोग बने हैं। दरअसल ये सारे आयोग निजीकरण के साथ आए हैं। जब तक सब कुछ सरकार के हाथ में था, आयोग की जरुरत नहीं थी। यह कहा जाता है कि ये आयोग सरकार से स्वतंत्र एवं स्वायत्त होते हैं और राजनीतिक प्रभाव से मुक्त होते हैं। लेकिन विश्वबैंक और देशी-विदेशी कंपनियों का प्रभाव उन पर काम करता रहता है। कम से कम बिजली और पानी के बारे में इन आयोगों की भूमिका निजीकरण की राह प्रशस्त करना, उसे वैधता देने और बिजली-पानी की दरों को बढ़ाने की रही है। उन्हें राजनीति से अलग रखने के पीछे मंशा यह भी है कि जन असंतोष और जनमत का दबाब उन पर न पड़ जाए। उच्च शिक्षा और स्कूली शिक्षा के बारे में इस तरह के आयोगों की भूमिका भी निजीकरण को वैधता प्रदान करने की हो सकती है, जबकि जरुरत शिक्षा के निजीकरण को रोकने व समाप्त करने की है। अफसोस की बात है कि यशपाल समिति ने उच्च शिक्षा के निजीकरण और विदेशी संस्थानों के घुसपैठ का स्पष्ट विरोध नहीं किया है।
आइए, आठ सूत्री देशव्यापी मुहिम छेड़ें
शिक्षा का बाजार एक विकृति है। बच्चों में शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण में भेदभाव करना
आधुनिक सभ्य समाज पर कलंक के समान है। देश के सारे बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना हमारा संवैधानिक दायित्व है। भारतीय संविधान में इस काम को 10 वषZ में पूरा करने के निर्देश दिए गए थे। लेकिन छ: दशक में भी इसे पूरा न करके भारत की सरकारों ने भारत की जनता, देश और संविधान के प्रति अक्षम्य अपराध किया है। अब सरकार जो कदम उठा रही हैं,उससे यह लक्ष्य और दूर हो जाएगा। समय आ गया है कि इस मामले में देश भर में मुहिम चलाकर भारत सरकार पर दबाब बनाया जाए कि –
1. शिक्षा के निजीकरण, व्यवसायीकरण और मुनाफाखोरी को तत्काल रोका जाए और इस दिशा में उठाए गए सारे कदम वापस लिए जाएं।
2. शिक्षा में विदेशी शिक्षण संस्थानों के प्रवेश पर रोक लगे।
3. शिक्षा में सभी तरह के भेदभाव और गैरबराबरी खतम की जाए। समान स्कूल प्रणाली पर आधारित मुफ्त, अनिवार्य एवं समतामूलक शिक्षा की व्यवस्था देश के सारे बच्चों के लिए अविलंब की जाए।
4. सरकारी स्कूलों में पर्याप्त संख्या में स्थायी व प्रशिक्षति शिक्षक नियुक्त किए जाएं और उन्हें सम्मानजनक वेतन दिए जाएं। स्कूलों में भवन, पाठ्य-पुस्तकों, पाठ्य सामग्री, खेल सामग्री, खेल मैदान, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शिल्प-शिक्षण, छात्रवृत्तियों, छात्रावास आदि की पर्याप्त एवं समुचित व्यवस्था हो। सुविधाओं व स्तर की दृष्टि से प्रत्येक स्कूल को केन्द्रीय विद्यालय या नवोदय विद्यालय के समकक्ष लाया जाए।
5. ‘शिक्षा का अधिकार विधेयक’ के मौजूदा प्रारुप को तत्काल वापस लेकर उक्त शर्तोंको पूरा करने वाला नया विधेयक लाया जाए। विधेयक के मसौदे पर पूरे देश में जनसुनवाई की जाए एवं चर्चा-बहस चलाई जाए।
6. शिक्षा की जिम्मेदारी से भागना बंद करके सरकार शिक्षा के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए। कोठारी आयोग एवं तपस सेनगुप्ता समिति की सिफारिश के मुताबिक कम से कम राष्ट्रीय आय के छ: प्रतिशत के बराबर व्यय सरकार द्वारा शिक्षा पर किया जाए।
7. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। शिक्षा, प्रशासन एवं सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का वर्चस्व गुलामी की विरासत है। इसे तत्काल समाप्त किया जाए।
8. मैकाले द्वारा बनाया शिक्षा का मौजूदा किताबी, तोतारटन्त, श्रम के तिरस्कार वाला, जीवन से कटा, विदेशी प्रभाव एवं अंग्रेजी के वर्चस्व वाला स्वरुप बदला जाए। इसे आम लोगों की जरुरतों के अनुसार ढाला जाए एवं संविधान के लक्ष्यों के मुताबिक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रकि एवं प्रगतिशील भारत के निर्माण के हिसाब से बनाया जाए। हर बच्चे के अंदर छुपी क्षमताओं व प्रतिभाओं के विकास का मौका इससे मिले।
लगभग इसी तरह के मुद्दों व मांगो को लेकर 21-22 जून को एक राष्ट्रीय सेमिनार में अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच का गठन हुआ है, जिसकी ओर से जुलाई में संसद पर प्रदर्शन की तैयारी की जा रही है। अखिल भारतीय समाजवादी अध्यापक सभा द्वारा भी काफी समय से इन मुद्दों पर मुहिम चलाई जा रही है जिसका समापन 25 अक्टूबर 2009 को दिल्ली मे राजघाट पर होगा।
कृपया आप भी अपने क्षेत्र में व अपनी इकाइयों में इन मुद्दों व मांगो पर तत्काल कार्यक्रम लें। आप गोष्ठी, धरने, प्रदर्शन, ज्ञापन, परचे वितरण, पोस्टर प्रदर्शनी आदि का आयोजन कर सकते हैं। स्थानीय स्तर पर शिक्षकों, अभिभावकों, विद्या्र्थियों, जागरुक नागरिकों व अन्य जनसंगठनों के साथ मिलकर ‘शिक्षा अधिकार मंच’ का गठन भी कर सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि यह वर्ष प्रखर समाजवादी नेता डॉ० राममनोहर लोहिया का जन्मशताब्दी वर्ष है। उनके नेतृत्व में पचास साल पहले ही समाजवादी आंदोलन ने मुफ्त और समान शिक्षा का आंदोलन छेड़ा था तथा अंग्रेजी के वर्चस्व का विरोध किया था। ‘चपरासी हो या अफसर की संतान, सबकी शिक्षा एक समान’ तथा ‘चले देश में देशी भाषा, गांधी-लोहिया की यह अभिलाषा’ के नारे देते हुए शिक्षा में भेदभाव समाप्त करने का आह्वान किया था। डॉ. लोहिया की जन्मशताब्दी पर उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी कि इस आवाज को हम फिर से पूरी ताकत से बुलंद करें।
सुनील
राष्ट्रीय अध्यक्ष
समाजवादी जन परिषद्
ग्राम/पोस्ट – केसला
जिला होशंगाबाद
फोन 09425040452