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Posts Tagged ‘communalism’

[ गुजरात में 2002 में हुए नरसंहार के दरमियान एक रक्त रंजित महिला का चित्र देश भर में छपा था। चित्र उत्तर गुजरात के लूनावडा का था। उसी वर्ष दैनिक हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण के पत्रकार मित्र ने साथी स्वाति से महिला संगठनकर्ता के नाते अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के लिए संदेश मांगा था । साथी स्वाति ने यह पत्र लिखा। 7 मार्च 2002 के दैनिक हिंदुस्तान,वाराणसी में यह छपा।]

बहन,

हम महिला आंदोलन से जुड़ी बहनें हर साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं।यह दिन इंग्लैण्ड की मजदूर महिलाओं की सम्मानजनक मजदूरी व समान वेतन की लड़ाई, उनके शोषण व शोषण पर जीत की याद में व अपने अंतर की शक्ति को पहचानने, एकजुटता बनाने के लिए होता है। किसी की भी लड़ाई (अगर वह सामाजिक रूप से सही और बुलंद हो) से खुद को जोड़ने से बेगानापन या मानसिक गुलामी के हालात नहीं बनते। मगर आज अपने रहनुमाओं ने औरत को देशों, जातियों, धर्मों,वर्गों में बांटने के नजरिए को पुख्ता कर दिया है। भुला दी गई है वह पुरानी कहावत , ‘औरत चाहे किसी भी जाति की हो,अपने घर की कहारिन है’।इस कहावत में भी हमारे समाज की जाति व्यवस्था, उसके श्रम के बंटवारे व शारीरिक श्रम से जुड़ी अप्रतिष्ठा की भावना निहित है।यह सच्चाई है कि आज भी घर के अंदर व बाहर दोनों जगह औरत चाहे व किसी भी अंचल की व समाज की किसी भी श्रेणी की क्यों न हो,दबायी जाती है। अपवाद स्वरूप कुछ महिलाएं मिलेंगी जो अपनी जिंदगी के बारे में स्वयं निर्णय ले सकें,पर वह महज अपवाद ही होंगी।

भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने वर्ष 2001 को नारी सशक्तिकरण वर्ष घोषित किया।सेमिनारों के व्याख्यान और प्रसार माध्यमों की घोषणाओं से प्रतीत होने लगा कि नारी आंदोलन की कोई आवश्यकता अब भारतीय समाज को नहीं रही क्योंकि नारी आंदोलन के प्रमुख मुद्दों – कन्या भ्रूण हत्या,पारिवारिक हिंसा, व राजनीतिक शक्तिकरण (विधायिकाओं में 33% आरक्षण का महिला बिल)- को सरकार ने अपना लिया है व अपना मन बना लिया है कि वह इन पर शीघ्र ही कार्रवाई करेगी।

2001 के अंत तक स्पष्ट हो गया कि महिलाओं को बरगलाने के अलावा इनमें से किसी पर भी कारगर कानून बनाने की इच्छा शक्ति सरकार की नहीं है।उदाहरण के लिए कन्या भ्रूण हत्या का व्यापक कानून 1996 में ही बन गया था परंतु उस पर अमल नहीं किया गया-कड़ाई से अमल की बात तो दूर रही।मई 2001 में संशोधन हेतु सरकार ने जिस तरह की जांच समितियों का गठन किया उनकी सिफारिशों के लागू होने पर इस कानून के शिकंजे से बच निकलना ज्यादा आसान हो गया है।

दरअसल मनुवादी समाज की स्थापना को आदर्श मानने वाले संघ परिवार के राजनैतिक प्रतिनिधि स्त्री के शक्तिकरण हेतु ठोस उपाय कैसे लागू करेंगे। वादों की मृगमरीचिकाओं में जनता को भटका जरूर सकते हैं। औरतों के संदर्भ में इनकी मूल दृष्टि पर गौर करें। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रमुख श्री गोलवलकर ने हिंदू स्त्री को पारिवारिक संपत्ति में बराबर का हिस्सा देने वाले कानून का विरोध किया था।भाजपा महिला मोर्चा की पूर्व अध्यक्ष विजयराजे सिंधिया ने सती निरोधक कानून का विरोध करते हुए कहा था,’हिंदू स्त्री को सती होने का बुनियादी अधिकार है चूंकि इससे हमारी गौरवमयी परंपरा और संस्कृति संरक्षित होती है। भाजपा महिला मोर्चा की एक अन्य पूर्व अध्यक्ष व वर्तमान में केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष श्रीमती मृदला सिन्हा ने 1993 में      ‘द टेलिग्राफ’ से साक्षात्कार में निम्नलिखित बातें कहीं थीं।जिस जिम्मेदार पद पर आज वे आसीन हैं उसके मद्देनजर स्त्री-कल्याण के भाजपाई रवैये का अंदाज लगाया जा सकता है। मृदुला सिन्हा के शब्दों मेँ

  • स्त्री को घर के बाहर कार्य नहीं करना चाहिए।परिवार अत्यंत गरीब हो तब ही वह घर के बाहर काम पर जाए।
  • स्त्रियों पर घरेलु हिंसा में क्या बुराई है?अक्सर इन मामलों में स्त्री की ही गलती होती है।
  • मैं स्त्री मुक्ति की विरोधी हूं क्योंकि स्त्री मुक्ति अनैतिकता का दूसरा नाम है।
  • मैंने दहेज दिया था और दहेज प्राप्त भी किया था।
  • स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का हम विरोध करते हैं।

भाजपा के पूर्व अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे ने एक उपचुनाव के दौरान सभी दलों द्वारा 3 से 7 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों की संख्या के बारे में पूछे जाने पर कहा कि महिलाएं सही ढंग से चुनाव तभी लड़ सकती हैं जब सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो।कोई भी दल प्रतिनिधि बनाने का हुआ नहीं खेलना चाहता।स्पष्ट है कि राजनैतिक आरक्षण के बिना औरतें ज्यादा संख्या में सत्ता की गलियों में नहीं पहुंचेंगी।नजमा हेपतुल्ला या सुषमा स्वराज जैसी इक्की-दुक्की ‘टोकेन’,दिखाने भर के लिए प्रतिनिधि ही बनेंगी,जिसमें सत्ता चाहे किसी पार्टी की हो नियम कानून पुरुषसत्तात्मक समाज बनायेगा।

आज जब गुजरात दंगों की आग में,सांप्रदायिकता के ईंधन से दावानल सा धधक रहा है तब महिलाओं का राजनैतिक सशक्तिकरण (आरक्षण) सामाजिक परिवर्तन बलात करने के लिए एकमात्र कारगर औजार के रूप में दिखता है।महिलाएं ऐसा कानून बनाएंगी कि जिस राज्य में तीन दिन से अधिक दंगे चलेंगे वहाम संविधान की एक नयी धारा सृजित धारा के अंतर्गत राज्य के प्रशासन को पंगु मानते हुए सरकार को बरखास्त किया जाएगा और पहले चरण में राष्ट्रपति शासन होगा तथा तथा छः महीने के भीतर विधानसभा चुनाव कराए जाएंगे। राज्य शासन की अकर्मण्यता पर जनता अपना निर्णय व्यक्त कर देगी जैसे कि उत्तर प्रदेश के भाजपा-गठबंधन की सरकार पर हालिया चुनाव ने प्रश्न खड़े किए हैं।इस चुनाव परिणाम से उपजी हताशा भाजपा के आनुषंगिक संगठनों को मंदिर निर्माण की मांग को तेज करने व बलवा फैलाने की तरफ मोड़ा है।

लूनावाड़ा (गुजरात) की अनाम बहन !यह सब तथ्य,यह विश्लेषण तुम्हारा खून से सना दुखी व लाचार चेहरा देख कर तुम जैसी दुखी बहनों के लिए संदेश है। माना कि आज तुम्हारे परिवार,पड़ोसी,साथी,किसी को भी बचाने में गुजरात की सरकार या हम देशवासी नाकामयाब रहे।मगर तुम्हें इस दरिंदगी भरी जिंदगी से हमें उबारना ही होगा।उबारना ही होगा अपने देश को,समाज को अपने बच्चों के लिएजो जन्म ले चुके हैं वे भी जो अजन्मे हैं उनके लिए भी।

गोधरा से लेकर लूनावाड़ा तक,नेल्लि (असम) से लेकर दिल्ली तक सियासी खेल औरतों की इज्जत लूट कर ही खेले जाते हैं।रघुवीर सहाय ने ठीक ही कहा है कि ‘ औरत की देह ही उसका देश है।इसी से वह गढ़ती भी है-इसीसे वह बांटी भी जाती है जाति,धर्म,वर्ग,देश व संस्कृति के कटघरों में।

हमको अपनी बंटी हुई जिंदगियों,बंटे हुए अहसासात को महसूस कर एकजुटता बनानी होगी-ताकि हम लड़ सकें।उन हालात से जो हमें तोड़ते हैं और हमारे देश को भी।

डॉ स्वाति,संयोजक ,नारी एकता  IMG-20200623-WA0043

संयोजक,

 

नारी एकता

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रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद विवाद पर बेहतर फैसले की उम्मीद थी, आगे असंख्य विवादों पर रोक लगे : समाजवादी जन परिषद

राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद मामले में लंबे समय की मुकदमेबाजी के बाद आखि‍र सर्वोच्च न्याजयालय का फैसला आया है। इससे पहले इस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ का फैसला 2010 में आया जिसमें विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटकर मुकदमा लड़ रहे तीन पक्षों- निर्मोही अखाड़ा, रामलला विराजमान और सुन्नी वक्फ बोर्ड को बांटा गया था। तीनों पक्ष इससे असहमत होकर सुप्रीम कोर्ट आए थे। इसका अलग से आपराधिक मुकदमा चल रहा है। इस पर अभी निचली अदालत का फैसला आना बाकी है। इस बीच 1992 में आरएसएस-भाजपा द्वारा बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट में कोई पक्ष अपना दावा साबित नहीं पाया। यह भी साबित नहीं हो पाया कि बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर या राम मंदिर को तोड़कर हुआ था। ऐसे में 6 दिसंबर 1992 में मस्जिद का ध्वंस का अपराध और संगीन हो जाता है। लेकिन इसमें हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बाबरी मस्जिद की नींव इससे पहले 1949 से ही कमजोर होना शुरू हो गई थी जब उसमें रामलला की प्रतिमा चोरी-चुपके रखी गईं और तत्कालीन सरकार ने उसे तत्काल हटाने की कोई कार्रवाई नहीं की। नींव 1986 में उस समय और कमजोर हो गई जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने केस निर्णित होने से पहले ही ताला खुलवाया और वहां मंदिर का शिलान्या‍स कर दिया। इतनी कमजोर हो चुकी नींव वाली मस्जिद विवादित ढांचा भर रह गई और अंतत ध्वस्त कर दी गई।

सजप यह पाती है कि सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुत्ववादियों द्वारा बाबरी मस्जिद ध्वं‍स को ग़ैरकानूनी ठहराया है लेकिन उसका फैसला इस कृत्य को वैधता प्रदान करता है। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिली शक्तियों का उपयोग करते हुए विवादित भूमि पर किसी पक्ष द्वारा दावा साबित न कर पाने की स्थिति में विवादित भूमि एक पक्ष को देकर केंद्र व राज्य सरकार को वहां मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाने का निर्देश दिया है। यह फैसला विवाद को समाप्त करने के लिए वस्तुस्थिति से अलग हटकर पंचायती करने जैसा है। लेकिन अदालत एकतरफा आदेश के चलते दोनों पक्षों के साथ ही देश के न्याय पसंद लोगों को संतुष्ट करने में असफल रहा है। इस तरह की पंचायती तब तक को ठीक कही जाती जब तक मस्जिद नहीं ढहाई गई थी। लेकिन मस्जिद ध्वंस के बाद विध्वंसकारियों के पक्ष में इस तरह की पंचायत में बहुसंख्यकवाद की ओर झुकाव दिख रहा है जो देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।

इस फैसले के बाद से कुछ लोग बार बार यह कह रहे हैं कि अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सबको चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। उसकी आलोचना नहीं होनी चाहिए। इस समय ऐसा कहने वालों में उनकी संख्या ज्यादा है जो कुछ समय पहले तक यह कहते थे कि मंदिर के पक्ष में फैसला नहीं आया तो कानून बना कर उसे बदला जाएगा। ऐसा कहते हुए वे शाहबानो प्रकरण का उदाहरण देते थे। बताते थे कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदला जा सकता है।

दरअसल यहां मसला स्वीकार-अस्वीकार का नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के अनेक बेतुके फैसले भी इस देश ने स्वीकार ही किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में कई बेतुके फैसले दिए हैं। अपने ही बनाए नियम उसने तोड़े हैं। नर्मदा बांध मामले में पर्यावरण को ताक पर रख कर सुप्रीम कोर्ट ने विकास की एक बेतुकी परियोजना के पक्ष में फैसला दिया। हजारों लोग बेघर हुए। लेकिन एक दूसरे मामले में उसी पर्यावरण की दुहाई देकर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली से सैकड़ों फैक्ट्रियों को बाहर कर दिया। फिर हजारों, लाखों लोग बेरोजगार हुए, वह फैसला भी स्वीकार किया गया।

देश ने सुप्रीम कोर्ट के सभी फैसले इसलिए स्वीकार किए क्योंकि उन्हें अस्वीकार करने से व्यवस्था टूट जाएगी, अराजकता फैलेगी और देश संकट में होगा। लेकिन स्वीकार करने का यह मतलब नहीं है कि उसकी विवेचना नहीं की जाए। फैसले की विवेचना होनी चाहिए. उसके असर का मूल्यांकन होना चाहिए। सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर चर्चा होनी चाहिए। इससे भविष्य में न्यायिक प्रक्रिया मजबूत होती है। समाज में न्यायिक चेतना विकसित होती है। न्याय और अन्याय का भेद पता चलता है। न्याय और अन्याय के बीच समझौते का भी एक विकल्प होता है, जहां दोनों ही पक्ष थोड़ा हारते हैं, थोड़ा जीतते हैं।

फैसले पर गौर करने से साफ है कि अदालत ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की है ताकि टकराव टाला जा सके। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने सर्वधर्म समभाव वाला बेंच तैयार किया था, और उस बेंच ने सुलह का फॉर्मूला आम सहमति से निकालने की कोशिश की। लेकिन फैसले से एक पक्ष में पाने का और दूसरे पक्ष में खोने का अहसास पैदा हो गया है।

मौजूदा सरकार को भी देश के भविष्य से कोई मतलब नहीं है। तात्कालिक फायदे के लिए सरकार भविष्य से खिलवाड़ करने पर उतारू है। इस फैसले होना तो यह चाहिए था कि कोर्ट मस्जिद की ही तरह मंदिर के लिए भी कहीं और जगह जमीन उपलब्ध कराती और जमीन अपने कब्जे में रखती। दुनिया में इस तरह के उदाहरण मौजूद भी है। तुर्की की सोफि‍या मस्जिद इसका सटीक प्रमाण है। हजार साल की इस मस्जिद को अतातुर्क कमाल पाशा ने बैजेंटाइन काल का संग्रहालय बना दिया था।

इस समय सवाल देश की लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, सह अस्तित्व की परंपरा को बनाए रखने और बचाने का है। इस फैसले को इस उम्मीद, सतर्कता और जिम्मेदारी के साथ स्वीकार किया जा सकता है कि इस तरह के असंख्य विवादों पर आगे पूर्ण विराम लग जाए। देश की करीब तीन हजार साल की ज्ञात इतिहास में अनेक ऐसी घटनाएं हैं जिनमें जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा के पूजास्थलों, पूजनीय प्रतिमाओं का ध्वंस, उनका दूसरे मतावलंबियों द्वारा हरण किया गया है।

अब व्यवस्था होनी चाहिए कि आगे ये मुद्दे विवाद का कारण न बन पाएं। सरकार, संविधान, न्यायपालिका और वृहत्तर तौर पर समाज को यह मन से स्वीकार करना चाहिए कि संसद द्वारा 1991 में पारित ‘प्लेसेज ऑफ वर्शिप कानून’ का पालन किया जाएगा, जिसमें धर्मस्थलों की 15 अगस्त 1947 की स्थिति मानी गई है। सजप मानती है कि देश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की कमजोरियों को उजागर करने की जरूरत है। इसे नए सिरे से व्याख्यायित करने की जरूरत है और ‘अभी तो केवल झांकी है। काशी,मथुरा बाकी है।‘, ‘तीन नहीं, अब तीस हजार, बचे न एको कब्र, मजार’ जैसी मानसिकता और विचारधाराओं से निरंतर संघर्ष जारी रखने की जरूरत है।

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अफलातून

जनसत्ता 15 अगस्त, 2014 : गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने राज्यसभा में कहा, ‘मत भूलिए कि महात्मा गांधी, जिनको हम आज भी अपना पूज्य मानते हैं, जिन्हें हम राष्ट्रपिता मानते हैं,

उन्होंने भी आरएसएस के कैंप में जाकर ‘संघ’ की सराहना की थी।’

1974 में ‘संघ’ वालों ने जयप्रकाशजी को बताया था कि गांधीजी अब उनके ‘प्रात: स्मरणीयों’ में एक हैं। संघ के काशी प्रांत की शाखा पुस्तिका क्रमांक-2, सितंबर-अक्तूबर, 2003 में अन्य बातों के अलावा गांधीजी के बारे में पृष्ठ 9 पर लिखा गया है: ‘‘देश विभाजन न रोक पाने और उसके परिणामस्वरूप लाखों हिंदुओं की पंजाब और बंगाल में नृशंस हत्या और करोड़ों की संख्या में अपने पूर्वजों की भूमि से पलायन, साथ ही पाकिस्तान को मुआवजे के रूप में करोड़ों रुपए दिलाने के कारण हिंदू समाज में इनकी प्रतिष्ठा गिरी।’’ संघ के कार्यक्रमों के दौरान बिकने वाले साहित्य में ‘गांधी वध क्यों?’ नामक किताब भी होती है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और समाचार-पत्रों द्वारा दंगों की रिपोर्टिंग की बाबत खुद गांधीजी का ध्यान खींचा जाता रहा और उन्होंने इन विषयों पर साफगोई से अपनी राय रखी। विभाजन के बाद संघ के कैंप में गांधीजी के जाने का विवरण उनके सचिव प्यारेलाल ने अपनी पुस्तक ‘पूर्णाहुति’ में दिया है। इसके पहले, 1942 से ही संघ की गतिविधियों को लेकर गांधीजी का ध्यान उनके साथी खींचते रहते थे। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन अध्यक्ष आसफ अली ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों के बारे में प्राप्त एक शिकायत गांधीजी को भेजी और लिखा था कि वे शिकायतकर्ता को नजदीक से जानते हैं, वे सच्चे और निष्पक्ष राष्ट्रीय कार्यकर्ता हैं।

9 अगस्त, 1942 को हरिजन (पृष्ठ: 261) में गांधीजी ने लिखा: ‘‘शिकायती पत्र उर्दू में है। उसका सार यह है कि आसफ अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) उसके तीन हजार सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैं, कवायद के बाद नारा लगाते हैं- हिंदुस्तान हिंदुओं का है और किसी का नहीं। इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैं, जिनमें वक्ता कहते हैं- ‘पहले अंगरेजों को निकाल बाहर करो उसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे, अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हें मार डालेंगे।’ बात जिस ढंग से कही गई है, उसे वैसे ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषय-वस्तु तो और भी बुरी है।

‘‘नारा गलत और बेमानी है, क्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा।

‘‘धर्म एक निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गई है, उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गए हैं। जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी, तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे। अगर अंगरेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होने वाली हो तो अंगरेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता। वह स्वराज्य नहीं होगा।’’

गांधीजी विभाजन के बाद हुए व्यापक सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ ‘करो या मरो’ की भावना से दिल्ली में डेरा डाले हुए थे। 21 सितंबर ’47 को प्रार्थना-प्रवचन में ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ के संदर्भ में उन्होंने टिप्पणी की: ‘‘एक अखबार ने बड़ी गंभीरता से यह सुझाव रखा है कि अगर मौजूदा सरकार में शक्ति नहीं है, यानी अगर जनता सरकार को उचित काम न करने दे, तो वह सरकार उन लोगों के लिए अपनी जगह खाली कर दे, जो सारे मुसलमानों को मार डालने या उन्हें देश निकाला देने का पागलपन भरा काम कर सके। यह ऐसी सलाह है कि जिस पर चल कर देश खुदकुशी कर सकता है और हिंदू धर्म जड़ से बरबाद हो सकता है। मुझे लगता है, ऐसे अखबार तो आजाद हिंदुस्तान में रहने लायक ही नहीं हैं। प्रेस की आजादी का यह मतलब नहीं कि वह जनता के मन में जहरीले विचार पैदा करे। जो लोग ऐसी नीति पर चलना चाहते हैं, वे अपनी सरकार से इस्तीफा देने के लिए भले कहें, मगर जो दुनिया शांति के लिए अभी तक हिंदुस्तान की तरफ ताकती रही है, वह आगे से ऐसा करना बंद कर देगी। हर हालत में जब तक मेरी सांस चलती है, मैं ऐसे निरे पागलपन के खिलाफ अपनी सलाह देना जारी रखूंगा।’’

प्यारेलाल ने ‘पूर्णाहुति’ में सितंबर, 1947 में संघ के अधिनायक गोलवलकर से गांधीजी की मुलाकात, विभाजन के बाद हुए दंगों और गांधी-हत्या का विस्तार से वर्णन किया है। प्यारेलालजी की मृत्यु 1982 में हुई। तब तक संघ द्वारा इस विवरण का खंडन नहीं हुआ था।

गोलवलकर से गांधीजी के वार्तालाप के बीच में गांधी मंडली के एक सदस्य बोल उठे- ‘संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है। उन्होंने अनुशासन, साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है।’ गांधीजी ने उत्तर दिया- ‘पर यह न भूलिए कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था।’ उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया। (पूर्णाहुति, चतुर्थ खंड, पृष्ठ: 17)

अपने एक सम्मेलन (शाखा) में गांधीजी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता

गोलवलकर ने उन्हें ‘हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ बताया। उत्तर में गांधीजी बोले- ‘‘मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य है। पर मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी। हिंदू धर्म की विशिष्टता जैसा मैंने समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है। यदि हिंदू यह मानते हों कि भारत में अहिंदुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दरजे से संतोष करना होगा- तो इसका परिणाम यह होगा कि हिंदू धर्म श्रीहीन हो जाएगा… मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा।’’

इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उन२में गांधीजी से पूछा गया- ‘क्या हिंदू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता? यदि नहीं देता, तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है, उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है?’

गांधीजी ने कहा- ‘‘पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है। मारने का प्रश्न खड़ा होने से पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आतताई कौन है? दूसरे शब्दों में, हमें ऐसा अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जाएं। एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने या फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है? रही बात दूसरे प्रश्न की। यह मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है, तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भलीभांति कर सकती है। अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद दोनों एक साथ बन जाएं, तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जाएंगे- उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए, कानून को अपने हाथों में लेकर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए।’’

तीस नवंबर ’47 के प्रार्थना प्रवचन में गांधीजी ने कहा: ‘‘हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार है कि हिंदुत्व की रक्षा का एकमात्र तरीका उनका ही है। हिंदू धर्म को बचाने का यह तरीका नहीं है कि बुराई का बदला बुराई से। हिंदू महासभा और संघ दोनों हिंदू संस्थाएं हैं। उनमें पढ़े-लिखे लोग भी हैं। मैं उन्हें अदब से कहूंगा कि किसी को सता कर धर्म नहीं बचाया जा सकता।’’

अखिल भारतीय कांग्रेस समिति को अपने अंतिम संबोधन (18 नवंबर ’47) में उन्होंने कहा, ‘‘मुझे पता चला है कि कुछ कांग्रेसी भी यह मानते हैं कि मुसलमान यहां न रहें। वे मानते हैं कि ऐसा होने पर ही हिंदू धर्म की उन्नति होगी। परंतु वे नहीं जानते कि इससे हिंदू धर्म का लगातार नाश हो रहा है। इन लोगों द्वारा यह रवैया न छोड़ना खतरनाक होगा… मुझे स्पष्ट यह दिखाई दे रहा है कि अगर हम इस पागलपन का इलाज नहीं करेंगे, तो जो आजादी हमने हासिल की है उसे हम खो बैठेंगे।… मैं जानता हूं कि कुछ लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस ने अपनी आत्मा को मुसलमानों के चरणों में रख दिया है, गांधी? वह जैसा चाहे बकता रहे! यह तो गया बीता हो गया है। जवाहरलाल भी कोई अच्छा नहीं है।

‘‘रही बात सरदार पटेल की, सो उसमें कुछ है। वह कुछ अंश में सच्चा हिंदू है। परंतु आखिर तो वह भी कांग्रेसी ही है! ऐसी बातों से हमारा कोई फायदा नहीं होगा, हिंसक गुंडागिरी से न तो हिंदू धर्म की रक्षा होगी, न सिख धर्म की। गुरु ग्रंथ साहब में ऐसी शिक्षा नहीं दी गई है। ईसाई धर्म भी ये बातें नहीं सिखाता। इस्लाम की रक्षा तलवार से नहीं हुई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में मैं बहुत-सी बातें सुनता रहता हूं। मैंने यह सुना है कि इस सारी शरारत की जड़ में संघ है। हिंदू धर्म की रक्षा ऐसे हत्याकांडों से नहीं हो सकती। आपको अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी। वह रक्षा आप तभी कर सकते हैं जब आप दयावान और वीर बनें और सदा जागरूक रहेंगे, अन्यथा एक दिन ऐसा आएगा जब आपको इस मूर्खता का पछतावा होगा, जिसके कारण यह सुंदर और बहुमूल्य फल आपके हाथ से निकल जाएगा। मैं आशा करता हूं कि वैसा दिन कभी नहीं आएगा। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि लोकमत की शक्ति तलवारों से अधिक होती है।’’

इन सब बातों को याद करना उस भयंकर त्रासदाई और शर्मनाक दौर को याद करना नहीं है, बल्कि जिस दौर की धमक सुनाई दे रही है उसे समझना है। गांधीजी उस वक्त भले एक व्यक्ति हों, आज तो उनकी बातें कालपुरुष के उद्गार-सी लगती और हमारे विवेक को कोंचती हैं। उस आवाज को तब न सुन कर हमने उसका गला घोंट दिया था। अब आज? आज तो आवाज भी अपनी है और गला भी! इस बार हमें पहले से भी बड़ी कीमत अदा करनी होगी।

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यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में

आग लगी हो

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में सो सकते हो ?

यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में

लाशें सड़ रहीं हों

तो क्या तुम दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो ?

यदि हां तो मुझे तुम से

कुछ नहीं कहना है ।

………………

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा

कुछ भी नहीं है

न ईश्वर

न ज्ञान

न चुनाव

………………

आखिरी बात बिल्कुल साफ

किसी हत्यारे को कभी मत करो माफ

चाहे हो वह तुम्हारा यार

धर्म का ठेकेदार ,

चाहे लोकतंत्र का

स्वनामधन्य पहरेदार ।

– सर्वेश्वरदयाल सक्सेना.

समाजवादी सरकारों का यह दावा हुआ करता था कि किसी भी साम्प्रदायिक हिंसा पर ३६ घण्टे के अन्दर काबू पाया जा सकता है। अन्तर्जातीय और अन्तर-धार्मिक पसन्द से किए गए विवाह करने वाले प्रेमी-युगलों के खिलाफ खापों में लिए गए फैसलों के अनुरूप हिंसक हमले और प्रतिहिंसा निश्चित तौर पर चिन्ता का विषय हैं किन्तु पश्चिमी उ.प्र. के लिए नई बात नहीं है । इस बार इनके बहाने साम्प्रदायिकता की आग को गांवों तक ले जाने में सभी दलों और सरकारी मशीनरी का घिनौना चेहरा सामने आया है । राहत शिविरों से अपने मूल गांव न लौटने के शपथ पत्र भरवाने की सरकार द्वारा कोशिश की गई। इसका परिणाम साम्प्रदायिक वैमनस्य को एक स्थायी भौगोलिक विभाजन देने जैसा हो जाता।शुक्र है कि न्यायपालिका ने इस मामले में हस्तक्षेप कर इसे रोका।

सूबे में सत्तानशीन दल के मुखिया ने कह दिया कि राहत शिविरों में कोई है ही नहीं । इसके दो ही दिन बाद मण्डलायुक्त द्वारा राहत शिविरों में ३४ बच्चों के ठण्ड से मरने की रपट आई है । उत्तर प्रदेश के नागरिक होने के नाते हम इस परिस्थिति से मर्माहत हैं। एक ओर साम्प्रदायिक हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों को सार्वजनिक तौर पर सम्मानित किया जाना तो दूसरी ओर प्रशासनिक गैर-जिम्मेदारियों के द्वारा जानबूझकर एक तबके में असुरक्षा की भावना पैदा करने का क्रम चल रहा है। यह तत्काल रुकना चाहिए। सद्भाव का वातावरण फिर कायम हो सके और राहत शिविरों में रहने को मजबूर परिवार अपने गांवों में बेखौफ लौट सकें इसके लिए पहलकदमी ली जानी चाहिए।

इस कार्यक्रम के द्वारा हम यह संकल्प लेते हैं कि सद्भावना के माहौल में खलल डालने की किसी भी कोशिश को हम सफल नहीं होने देंगे। जान-माल की रक्षा और अमन-चैन बरकरार रखने की अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी पर राज्य सरकार तत्काल गंभीर पहल करे। इसके साथ ही सूबे में सक्रिय सभी राजनैतिक शक्तियों से हमारा आवाहन है कि भाई-चारा कायम रखने में मददगार साबित हों ।

निवेदक,

समाजवादी जनपरिषद , वाराणसी.

सैय्यद मकसूद अली – जिलाध्यक्ष , काशीनाथ – जिला महामन्त्री , अनवर खान- पूर्व जिला महामन्त्री , रामजनम – पूर्व प्रान्तीय महामन्त्री , डॉ स्वाति- पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष , चंचल मुखर्जी- पूर्व राष्ट्रीय सचिव,अफलातून – राष्ट्रीय सचिव

डॉ नीता चौबे , डॉ मुनीजा खान , अब्दुल हफीज, मो. नसीम उर्फ बच्चा, राम आसरे, दिनेश पटेल.

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30 सितंबर, 2010 को अयोध्या विवाद के विषय में लखनऊ उच्च न्यायालय के फैसले के बाद देश ने राहत की सांस ली है। तीनों पक्षों को एक तिहाई – एक तिहाई भूमि बांटने के इस फैसले के कारण कोई भी पक्ष पूरी हार – जीत का दावा नहीं कर पाया। कोई खून-खराबा या उपद्रव इसलिए भी नहीं हुआ, क्योंकि देश की आम जनता इस विवाद से तंग आ चुकी है और इसको लेकर अब कोई बखेड़े, दंगों या मार-काट के पक्ष में नहीं है।
किन्तु इस फैसले से कोई पक्ष संतुष्ट नहीं है और यह तय है कि मामला सर्वोच्च न्यायालय में जाएगा और इसमें कई साल और लग सकते हैं। इस विवाद का फैसला चाहे सर्वोच्च न्यायालय से हो चाहे आपसी समझौते से, किन्तु अब यह तय हो जाना चाहिए कि इसका व इस तरह के विवादों का फैसला सड़कों पर खून – खच्चर व मारकाट से नहीं होगा। ऐसा कोई नया विवाद नहीं उठाया जाएगा। धार्मिक कट्टरता और उन्माद फैलाने वाली फिरकापरस्त ताकतों को देश को बंधक बनाने, पीछे ले जाने और अपना उल्लू सीधा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
इस फैसले को लेकर कुछ चिन्ताजनक बातें हैं । एक तो यह कि इसमें जमीन एवं सम्पत्ति के मुकदमे को हल करने के लिए आस्था और धार्मिक विश्वास को आधार बनाया गया है, जो एक खतरनाक शुरुआत है। ‘भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण’ की जिस रपट का इसमें सहारा लिया गया है, वह भी काफी विवादास्पद रही है।
दूसरी बात यह है कि 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद को तोड़ने की जो गुण्डागर्दी की गई, इसके दोषियों को अभी तक सजा नहीं मिली है। यह घटना करीब-करीब वैसी ही थी, जैसी अफगानिस्तान में तालिबान शासकों द्वारा बुद्ध की मूर्ति को तोड़ने की। यह भारत के संविधान के खिलाफ थी और भारत की विविधता वाली संस्कृति पर तथा इसकी धर्मनिरपेक्षता पर गहरी चोट थी। अडवाणी, सिंघल जैसे लोग इस फैसले के आने के बाद अपने इस अपराधिक कृत्य को फिर से उचित ठहरा रहे हैं। इस घटना के बाद देश में कई जगह दंगे हुए थे, किन्तु उनके दोषियों को भी अभी तक सजा नहीं मिली है। मुम्बई दंगों के बारे में श्रीकृष्ण आयोग की रपट पर भी कार्रवाई नहीं हुई है। इसी तरह से 1949 में मस्जिद परिसर में रातोंरात राम की मूर्ति रखने वालों को भी सजा नहीं मिली है। ऐसा ही चलता रहा तो भारत के अंदर इंसाफ पाने में अल्पसंख्यकों का भरोसा खतम होता जाएगा। इन घटनाओं से बहुसंख्यक कट्टरता और अल्पसंख्यक कट्टरता दोनों को बल मिल सकता है, जो भारत राष्ट्र के भविष्य के लिए खतरनाक है।
ऐसी हालत मे, समाजवादी जन परिषद देश के सभी लोगों और इस विवाद के सभी पक्षों से अपील करती है कि –
1. इस मौके की तरह आगे भी भविष्य में इस विवाद को न्यायालय से या आपसी समझौते से सुलझाने के रास्ते को ही मान्य किया जाए। यदि कोई आपसी समझौता नहीं होता है तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को सभी मंजूर करें।
2. किसी भी हालत में इस विवाद या ऐसे अन्य विवादों को लेकर हिंसा, मारकाट, बलप्रयोग, नफरत व उन्माद फैलाने का काम न किया जाए। धार्मिक विवादों को लेकर राजनीति बंद की जाए। जो ऐसा करने की कोशिश करते हैं, उन्हें जनता मजबूती से ठुकराए।
3. मंदिर, मस्जिद या अन्य धार्मिक स्थलों को लेकर कोई नया विवाद न खड़ा किया जाए। वर्ष 1993 में भारतीय संसद यह कानून बना चुकी है कि (अयोध्या विवाद को छोड़कर) भारत में धर्मस्थलों की जो स्थिति 15, अगस्त, 1947 को थी, उसे बरकरार रखा जाएगा। इस कानून का सभी सम्मान व पालन करें।
4. 6 दिसंबर, 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस, उसके बाद के दंगो तथा ऐसी अन्य हिंसा के दोषियों को शीघ्र सजा दी जाए।

लिंगराज सुनील सोमनाथ त्रिपाठी अजित झा
अध्यक्ष उपाध्यक्ष महामन्त्री मन्त्री

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किशन पटनायक

किशन पटनायक

 

परसों ( २७ सितम्बर ) मेरे दल के नेता साथी किशन पटनायक की मृत्यु तिथि थी । देश में जो कुहासा और कड़ुवाहट फैलाने की कोशिश हो रही है उससे व्यापक स्तर पर अवसाद फैले यह मुमकिन है । राजनीति करने वालों का एक बुनियादी दायित्व है कि वह लोगों में लोकतंत्र के प्रति बुनियादी यक़ीन को मजबूत करें – किशनजी ने यह सिखाया । देश को हिला देने वाली गत दिनों हुई घटनाओं के बारे में स्पष्टता बहुत जरूरी है ।

    यहाँ प्रस्तुत किशन पटनायक के दो छोटे बयान इस कोहरें , कड़ुवाहट और घुटन को काटने में मददगार होंगे , उम्मीद है । राँची में २९ अगस्त , २००४ को दिए गए व्याख्यान और दिसम्बर १९९२ में लिखा गया सामयिक वार्ता का सम्पादकीय- ‘राष्ट्र के हत्यारों के खिलाफ एक कार्यक्रम’ । राँची के कार्यक्रम में किशनजी ने मेरी किताब ‘कोक-पेप्सी की लूट और पानी की जंग’ का विमोचन भी किया था और ५ दिसम्बर , १९९२ को भी हम झारखण्ड के किसी कार्यक्रम से साथ में रेल से लौट रहे थे। राँची के कार्यक्रम की रपट उनकी मृत्यु के अगले दिन (२८ सितम्बर, २००४, पृष्ट ९ ) के ‘प्रभात खबर’ में भी छपी थी ।

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    १९६७ -६९ की कुछ राजनैतिक घटनाओं की तस्वीरें मेरी याददाश्त का हिस्सा बन गयी है। मेरी उमर आठ – दस साल की । ‘६७ में गैर कांग्रेसवाद की कई सूबों में सफलता और १९६९ में गाँधी की जन्म शताब्दी । गांधी की जन्म शती के मौके पर दुनिया के कई हिस्सों के ‘गाँधी’ भारत आये थे । सरहदी गाँधी – बादशाह ख़ान , फ्रान्स के गांधी – लान्ज़ो देल्वास्तो , मेक्सिकी खेत मजदूरों के गांधी प्रभावित नेता सीज़र शावेज , इटली के दानिलो दोलची । दिल्ली के हरिजन सेवक संघ में बादशाह ख़ान का कार्यक्रम था तब उनसे मिलने देश की कई हस्तियाँ वहाँ मौजूद थीं – ‘भारत में अंग्रेजी राज’ अंग्रेजों द्वारा प्रतिबन्धित उस अमर किताब के लेखक पण्डित सुन्दरलाल – लम्बी झक दाढ़ी के साथ , अंग्रेजों की जेल में रहने के बाद नेहरू द्वारा बरसों गिरफ़्तार रखे गए शेर-ए- कश्मीर शेख़ अब्दुलाह – मेरी बा जब उनसे मिलाने ले गयी तो मैंने उनसे कहा ,’दहाड़िए’ और वे दहाड़े भी । और हिन्दी ,देवनागरी की सेवा करने वाले काका साहब कालेलकर जिन्होंने पहले पिछड़े वर्ग आयोग की सदारत की थी । इन शक्सियतों के दर्शन का यह एक लाभ तो है ही कि उनके द्वारा किए गए देश के लिए काम का स्मरण होता है ।

   १९६७ में गैर कांग्रसवाद का नारा देते वक्त लोहिया यह भी चाहते थे कि वैचारिक आधार पर एक विकल्प बने। उनकी एक बात गैर कांग्रेसी मोर्चे की बाबत बहुत महत्वपूर्ण थी।“जनसंघ की एक पहाड़ साम्प्रदायिकता से कांग्रेस की एक बूँद साम्प्रदायिकता ज्यादा खतरनाक है क्योंकि वह सत्ता में है । इसी प्रकार कम्युनिस्टों की एक पहाड़ गद्दारी से कांग्रेस की एक बूँद गद्दारी ज्यादा खतरनाक है”। लगातार २० वर्षों से केन्द्र में एक दल का शासन था। केन्द्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनने में और दस साल लग गए। जनसंघी पृष्टभूमि के राजबली तिवारी १९७७ में जब बनारस में विधान सभा चुनाव लड़े और जीते तब ‘रजब अली’ को जिताने में मुसलमान पीछे नहीं थे। जनसंघी सोचते थे कि ‘रजब अली’ कहने पर वोट मिलेगा । तानाशाही के खिलाफ़ जम्हूरियत को बचाए रखने के लिए केले के खम्भे को भी जनता वोट देने के लिए तैयार थी।

    याद कीजिए इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद का चुनाव ।  स्वर्ण मन्दिर में सैनिक कार्रवाई की आलोचना का माने आप गद्दार हैं । भूल जाइए कि अकालियों  और किसा्नों के आन्दोलन से पंजाब में हाशिए पर जा रही कांग्रेस ने भिंडरावाला को ‘सन्त’ का दरजा दिया था । एक छोटे अल्पसंख्यक समूह को ‘गद्दारी’ के साथ जोड़ कर चुनाव अभियान चलाया तो ‘संघ’ ने भी मान लिया कि हिन्दू हित कांग्रेस देखेगी , दो उसीका साथ । भाजपा आ गयी लोकसभा में दो सीटों पर । जम्मू क्षेत्र की जो सीटें आजादी के बाद से हमेशा जनसंघ जीतती थी वे भी पहली बार गईं कांग्रेस की झोली में । पहली बार रीडिफ़्यूज़न नामक बहुराष्ट्रीय कम्पनी से कांग्रेस ने प्रचार करवाया । अखबारों में पूरे-पूरे पन्ने के प्रभावशाली (भय पैदा करने में) विज्ञापन छपते थे – ‘क्या आप चाहते हैं कि देश की सीमा आपके घर की चौहद्दी तक आ जाए?’ कांग्रेस को उस बार मिली सीटें अब तक की सब से बड़ी सफलता और सबसे बड़ा बहुमत रही हैं ।

     बहरहाल , अब केन्द्र में भाजपा भी सत्ता में रह चुकी है । सत्ता में रहने पर निश्चित तौर पर उसकी फिरकापरस्ती खतरनाक हो जाया करती है। पूर्वोत्तर के राज्यों और कश्मीर की बाबत ‘संघ’ के कैडरों के दिमाग में जितनी सतही नासमझी भरी रहती है उससे जिम्मेदार रूप में सरकार में रहने पर भाजपा को रहना पड़ता है । राजग सरकार भी उन अलगाववादी समूहों से बात की कोशिश करती है । जम्मू कश्मीर विधान सभा में भाजपा के कितने विधायक हैं ? और अहोम के अलावा बाकी पूर्वोत्तर के सूबों की विधान सभाओं में ? सिफ़र !

  कई मित्र यह कह रहे हैं कि आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई राजनैतिक नहीं होनी चाहिए । मुख्यधारा की राजनीति की कमियों और कुछ नेताओं के अललटप्पू बयानों के कारण उनके दिमाग में यह ग़लतफ़हमी है । ‘दिल्ली के जामिया नगर में हुई पुलिस मुठभेड़ फर्जी थी ‘ कई मुस्लिम समूह और मानवाधिकार संगठन यह मान रहे हैं । इस सन्दर्भ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा न्यायमूर्ति रामभूषण मल्होत्रा द्वारा दिया गया एक फैसला महत्वपूर्ण है। रामभूषणजी नहीं चाहते कि उनके नाम के आगे न्यायमूर्ति लगाया जाए । चूँकि यह उनके द्वारा दिए गए फैसले की बात है इसलिए ‘न्यायमूर्ति’ लगाना उचित है। अपने फैसले हिन्दी में देने के लिए भी उन्हें याद किया जाएगा। उक्त फैसले में कहा गया था कि जब भी पुलिस ‘मुठभेड़’ का दावा करती है उन मामलों में (१) मृतकों के परिवार को पुलिस द्वारा सूचना दी जाएगी तथा (२) ऐसे सभी मामलों की मजिस्टरी जाँच होगी । यदि यह घटना जामिया नगर की जगह नोएडा में होती तो इन दोनों बातों को खुद-ब-खुद लागू करना होता।घटना की जाँच की माँग एक अत्यन्त साधारण माँग है तथा पूरी पारदर्शिता के साथ इसे पूरा किया जाना चाहिए ।

    इन मानवाधिकार संगठनों और मुस्लिम समूहों से भी हम रू-ब-रू होना चाहते हैं । इतनी गम्भीर परिस्थिति में बस इतना संकुचित रह कर काम नहीं चलेगा । आतंकी घटनाओ और उसके तार देश के भीतर से जुड़े़ होने की बात पहली बार खुल के हो रही है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा भारत के तमाम अमनपसंद मुसलमानों को भुगतना पड़ रहा है । इन घटनाओं के बाद संकीर्ण सोच वाले साम्प्रदायिक समूह हर मुसलमान को गद्दार बताने का अभियान शुरु कर चुके हैं, आगामी लोकसभा निर्वाचन में वोटों के ध्रुवीकरण की गलतफहमी भी वे पाले हुए हैं । आतंकवाद से मुकाबले की नाम पर क्लोज़ सर्किट टेवि जैसे करोड़ों के उपकरण खरीदें जायेंगे और इज़राइली गुप्त पुलिस ‘मसाद’ से तालीम दिलवाई जाएगी । कैनाडा और अमेरिका मे रहने वाले अनिवासी भारतीयों से पूछिए कि पैसे कि ताकत पर कैसे यहूदी लॉबी नीति निर्धारण में हस्तक्षेप करती है ?   इन सब से गम्भीर और नुकसानदेह  बात यह है कि मेधावी तरुण यदि ‘आतंक’ में ग्लैमर देखने लगें तो उन्हें उस दिशा से रोकने और अन्याय की तमाम घटनाओं के विरुद्ध राजनैतिक संघर्ष से जोड़ने का काम कौन करेगा ?  यह काम मुख्यधारा की राजनीति से जुड़ा कोई खेमा शायद नहीं करेगा।

     एक मुस्लिम महिला पत्रकार और कवयित्री ने अपने चिट्ठे पर लिखा , ‘कि दिल्ली का बम काण्ड करने वाले जरूर हिन्दू रहे होंगे’। अत्यन्त सिधाई से उन्होंने यह बात कह दी। मैंने यह देखा है कि शुद्ध असुरक्षा की भावना से ऐसी बातें दिमाग में आती हैं ।‘काम गलत है, इसलिए जरूर हमारे समूह का व्यक्ति न रहा होगा’ – यह मन में आता होगा ।  राष्ट्रीय एकता परिषद , सर्वोच्च न्यायालय और संसद के सामने बाबरी मस्जिद की सुरक्षा की कसमे खाने वाली जमात ने जब उस कसम को पैरों तले मसलने में अपना राष्ट्रवाद दिखाया तब किसी हिन्दू के दिमाग में क्या यह बात आई होगी कि जरूर यह काम हमारे समूह से अलग लोगों ने किया होगा ? जिन्हें लगता है कि “वह काम सही था और इसीलिए हमारे समूह ने किया” – उन राष्ट्रतोड़क राष्ट्रवादियों  से हमे कुछ नहीं कहना , उनके खतरनाक मंसूबों के खिलाफ़ लड़ना जरूर है ।

    मैंने आतिफ़ का ऑर्कुट का पन्ना पढ़ा है जिसमें वह फक्र के साथ एक फेहरिस्त देता है कि किन शक्सियतों के आजमगढ़ से वह ताल्लुक रख़ता है  – ……. राहुल सांकृत्यायन , कैफ़ी आज़मी । चार लोगों को जिन्दा जमीन में गाड़ देने वाले भाजपा नेता (पहले सपा और बसपा में रहा है) रमाकान्त यादव या भारत की सियासत के सबसे घृणित दलाल अमर सिंह का नाम नहीं लिखता ! ऐसा कोई तरुण घृणित , अक्षम्य आतंकी कार्रवाई से जुड़ता है , उन कार्रवाइयों की तस्वीरें उतारता है तो निश्चित तौर पर इसकी जिम्मेदारी मैं खुद पर भी लेता हूँ । अन्याय के खिलाफ़ लड़ने का तरीका आतंकवाद नहीं है । आजमगढ़ के शंकर तिराहे के आगे , मऊ वाली सड़क पर प्रसिद्ध पहलवान स्व. सुखदेव यादव के भान्जे के मकान में समाजवादी जनपरिषद के दफ़्तर के उद्घाटन के मौके पर आजमगढ़ के सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और फोटोग्राफर दता ने राहुलजी का लिखा गीत दहाड़ कर गाया था – ‘ भागो मत ,दुनिया को बदलो ! मत भागो , दुनिया को बदलो ‘ । आजमगढ़ के तरुणों से यही गुजारिश है ।

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