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Posts Tagged ‘Dr. Swati’

डॉ. स्वाति का गैरबराबरी और अन्याय के खिलाफ़ जुझारू जज़्बा हमेशा आह्वान देता रहेगा!

समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की सदस्य डॉ. स्वाति का 2 मई 2020 को शाम 8:30 बजे वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में निधन हो गया। गुर्दों को बुरी तरह नाकाम करने वाली बहुत ही कम होने वाली मल्टिपल माईलोमा नामक प्लाज़्मा कोशिकाओं की कैंसर की बीमारी से बहादुरी से जूझते हुए उनकी साँस छूटी। तक़रीबन एक साल तक के इस तकलीफ़देह दौर में उन्हीं की तरह अरसे से जाने-माने समाजवादी नेता, उनके पति अफ़लातून, कई अस्पतालों में उनकी आखिरी साँसों तक हर पल उनके संग जुड़े रहे।

शिक्षा और विज्ञान-कार्य
21 अप्रैल 1948 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश के बंगाली परिवार में जन्मी डॉ. स्वाति ने 1967 में कमला राजा गर्ल्स स्नातकोत्तर कॉलेज, ग्वालियर से स्वर्णपदक के साथ बीएससी (फिज़िक्स) पास की। 1969 में उन्होंने मुंबई के आईआईटी-बॉम्बे से फिज़िक्स में एमएससी पूरी की और 1974-75 में अमरीका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग से एटॉमिक फिज़िक्स में पीएचडी की। पश्चिम के विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने वाले अपने समकालीन ज़्यादातर युवा हिंदुस्तानियों से अलग डॉ. स्वाति अपने मुल्क वापस लौटकर समाजवादी समाज बनाने के लिए अवाम की जद्दोजहद में शामिल होने को बेचैन थीं।
अमरीका के लुभावने अध्यापन और शोध के मौके छोड़कर, पीएचडी के बाद ही वे भारत लौट आईं और कुछ वक्त तक रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ाती रहीं। 1979 में डॉ. स्वाति की नियुक्ति फिज़िक्स में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के महिला महाविद्यालय में हो गई। यहाँ वे 30 सालों से भी ज़्यादा अरसे तक अध्यापन और शोध का काम करती रहीं और 2013 में असोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर रिटायर हुईं।
1990 के दशक के शुरूआती सालों से ही डॉ. स्वाति ज़मीनी सामाजिक-राजनीतिक काम में पूरी संजीदगी से सक्रिय रहीं, लेकिन उन्होंने विज्ञान के प्रति अपना लगाव नहीं छोड़ा और 2005 में बायोइन्फ़ॉर्मेटिक्स के बिल्कुल नए क्षेत्र में शोध करना शुरू किया। अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 35 शोध परचे प्रकाशित करने के अलावा बीएचयू में बायोइन्फॉर्मेटिक्स का विभाग शुरू करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई पीएचडी छात्रों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चल कर शोध में नाम कमाया। सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में वरिष्ठ पदाधिकारी की दोहरी ज़िम्मेदारियां संभालने के बावजूद सूक्ष्मजीवियों के आरएनए में संरचनात्मक बदलावों पर उनका एक परचा अभी पिछले साल ही प्रकाशित हुआ है। वे जेएनयू और आईआईआईटी हैदराबाद में विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहीं।

सियासी सफर
गौरतलब है कि डॉ. स्वाति जब अमेरिका से लौटी थीं, वह आपातकाल के बाद का सियासी सरगर्मियों का वक्त था। वे जल्द ही उस दौर के सक्रिय समाजवादी आंदोलन के संपर्क में आईं। जब 1980 में उत्पीड़ित वर्गों और जातियों का ज़मीनी आंदोलन खड़ा करने के लिए किशन पटनायक, भाई वैद्य, जुगल किशोर रायबीर, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नेता और कई छात्र कार्यकर्ता जुटे, तो समता संगठन नामक उस समूह के संस्थापक सदस्यों में डॉ. स्वाति शामिल थीं। इस गुट के सदस्य बतौर उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में खास तौर पर आदिवासियों, दलितों, किसानों और मजदूरों के साथ काम किया। जब सुनील और राजनारायण जैसे ज़मीनी नेताओं को होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) जेल में भेजा गया तो उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को एकजुट करने के लिए विश्वविद्यालय की नौकरी से लंबी छुट्टी ले ली।
वाराणसी में आंदोलन को ज़रूरी स्त्रीवादी मोड़ देते हुए उन्होंने ’नारी एकता मंच’ का गठन करने में भूमिका निभाई, जिसमें सभी वर्गों और जातियों से स्त्रियाँ शामिल हुईं और स्त्री क़ैदी, घरेलू हिंसा, दहेज पीड़ित व स्त्रियों के दीगर मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाई गई। समाजवादी अध्यापक गुट के सदस्य के रूप में वे विश्वविद्यालय के स्तर पर आंदोलनों में शरीक रहीं और बीएचयू के अध्यापक संगठन की उपाध्यक्ष चुनी गईं। वाराणसी के सुंदर बगिया इलाके के विपन्न बच्चों को पढ़ाने के लिए भी उन्होंने वक्त निकाला।
जब 1995 में समता संगठन और दूसरे संगठनों ने मिलकर आर्थिक विकेंद्रीकरण, वैकल्पिक समाजवादी विकास का मॉडल और समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल, समाजवादी जन परिषद (सजप) बनाया, तो डॉ. स्वाति पार्टी के सचिव-मंडल की सदस्य बनीं और राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अहम शख़्सियत बतौर काम करती रहीं। लगातार अध्ययन और चिंतन में जुटी रहकर उन्होंने राजनीति में स्त्रियों के मुद्दों पर सवाल उठाए और इस पर पार्टी के मुखपत्रों, सामयिक वार्ता और समता इरा, में लेख लिखे। देश में चल रहे जनविज्ञान आंदोलनों में भी उनकी बड़ी भागीदारी थी। मुनाफ़ाखोरी, ज़ुल्म और गुलामगिरी बढ़ाने के पूँजीवादी हथकंडों में इस्तेमाल होने के बजाए विज्ञान की जनता की भलाई के लिए क्या भूमिका हो सकती है, इस सवाल पर उनकी गहरी समझ थी।
दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद डॉ. स्वाति ने अपनी काफ़ी ऊर्जा सांप्रदायिक विभाजनकारी ताकतों का प्रतिरोध करने में लगाई।

शिक्षा आंदोलन में योगदान
2009 में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के संस्थापक सदस्य-संगठनों में समाजवादी जन परिषद (सजप) शामिल था। हालाँकि शुरूआती दौर में अभाशिअमं के अध्यक्ष मंडल में सजप के प्रतिनिधि, जेएनयू से पढ़े और आदिवासियों व विपन्न तबकों के साथ काम कर रहे, श्री सुनील थे, डॉ. स्वाति ने अभाशिअमं के कार्यक्रमों, खास तौर पर 2010 में संसद मार्च व प्रदर्शन के लिए कई राज्यों से लोगों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई। अप्रैल 2014 में सुनील के असमय निधन के बाद अभाशिअमं ने डॉ. स्वाति और अफ़लातून जी, दोनों को सजप के प्रतिनिधि बतौर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आने का न्यौता दिया। फरवरी 2018 में डॉ. स्वाति अभाशिअमं के सचिव-मंडल में आ गईं। तब से वे सचिव मंडल का स्तंभ बनी रहीं हैं और उन्होंने हर प्रस्तावित कार्ययोजना और फ़ैसले को अपने आलोचनात्मक नज़रिए से बेहतर बनाया।
डॉ. स्वाति की दूरदर्शिता और जनाधार को लामबंद करने की उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से ’केजी से पीजी’ तक बराबरी और सामाजिक न्याय-आधारित समान शिक्षा व्यवस्था और पूरी तौरपर मुफ़्त शिक्षा के अभाशिअमं के देशव्यापी आंदोलन के नए आयाम उभरे हैं। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में सजप की इकाइयों को अपने-अपने इलाकों में अभाशिअमं की मुख्य माँग यानी ‘केजी से बारहवीं कक्षा तक ’समान स्कूल व्यवस्था’ के समर्थन में आगे बढ़ने को तैयार किया है। लगातार हुए दो घटना-क्रमों ने डॉ० स्वाति के सचिव मंडल में आने से पहले ही शिक्षा आंदोलन में उनकी बढ़ती हुई भूमिका को निखरने में मदद दी। पहली, यह कि भारत सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ–गैट्स (WTO-GATS) को उच्च शिक्षा का मुद्दा खैरात दिए जाने की पहलकदमी वापस लेने के लिए अगस्त, 2015 में अभाशिअमं ने देशव्यापी जन-आंदोलन खड़ा करने का आह्वान किया। इस मुद्दे का महत्व समझकर उन्होंने वाराणसी में एक डब्ल्यूटीओ-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। दूसरी, यह कि अप्रैल, 2016 में अभाशिअमं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश (अगस्त, 2015) को देशभर में लागू करने की मांग को लेकर राष्ट्रीय असेंबली का आयोजन किया। उक्त आदेश के मुताबिक, उत्तर प्रदेश सरकार के खजाने से किसी भी तरह का माली लाभ (तनख़्वाह, मानदेय, भत्ता, ठेके का भुगतान, सलाहकार फीस या कुछ और भी) लेने वालों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को भेजें, चाहे उनका सामाजिक-आर्थिक रुतबा कैसा भी हो। डॉ. स्वाति ने देश के विभिन्न हिस्सों से, खास तौर पर उत्तर प्रदेश से, राष्ट्रीय असेंबली में शामिल होने के लिए लोगों को एकजुट किया। इसी तरह फरवरी 2019 की हुंकार रैली के लिए उन्होंने दूरदराज के आदिवासी इलाकों तक से लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की।

भाषा और समाज
डॉ. स्वाति, अंग्रेज़ी और हिन्दी में समान रूप से काम करती थीं और बांग्ला धाराप्रवाह बोलती थीं। तीन साल पहले नागालैंड में उसकी 16 ज़ुबानों को बचाने और आगे बढ़ाने पर हुए सेमिनार में हिस्सा लेने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि “जब तक समाज में वर्ग (या जाति) का बँटवारा रहेगा, भाषाएँ भी वर्गों और जातियों में बँटी रहेंगी!” इसलिए उनका मत था कि भारतीय समाज को समाजवादी और मानवीय खाके में नए सिरे से गढ़ने के लिए वैकल्पिक शिक्षाशास्त्र ज़रूरी है। जब 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने हिन्दी माध्यम में चल रहे 5000 प्राथमिक स्कूलों को इंग्लिश-मीडियम में तब्दील करने का फ़ैसला लिया तो उनकी मादरी ज़ुबान के माध्यम से तालीम की प्रतिबद्धता को बड़ी चुनौती मिली। इस फ़ैसले की वजह से बच्चों की बड़ी तादाद में शिक्षा से होने वाली बेदखली के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प न बचा था।

ऐतिहासिक संदर्भ और हमारा संकल्प
डॉ. स्वाति के निधन से सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में एक बड़ा शून्य बन गया है, जिसे भर पाना मुश्किल होगा। बदकिस्मती से यह ऐसे वक्त हुआ है जब मुल्क आज़ादी के बाद के सबसे कठिन सियासी दौर से गुज़र रहा है। ऐसे वक्त स्वाति जैसी शख़्सियत का होना देश के लिए निहायत ज़रूरी था।
हमें इस अनोखी बात पर गौर करना चाहिए कि एक शख़्सियत ने विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की राह पर चलते हुए सक्रिय राजनीति और समाज में बराबरी और इंसाफ के लिए ज़मीनी जद्दोजहद में भी हिस्सा लिया। जब इतिहास में ऐसी मिसालें ढूँढी जाएँगी, तो इस अनोखे किरदार के एक उम्दा प्रतिनिधि बतौर डॉ. स्वाति को उनकी यह ऐतिहासिक जगह देने से कोई इंकार नहीं कर पाएगा !
तक़रीबन एक साल की अवधि में ही अभाशिअमं ने अपने दो स्तंभ खो दिए हैं – डॉ. मेहर इंजीनियर और डॉ. स्वाति – दोनों ही पेशे से वैज्ञानिक थे। दोनों ने हमारे आंदोलन में अपनी खास भागीदीरी निभाई। आइए, हम उनके अभी बाक़ी रह गए एजेंडे पर काम करते रहने की शपथ लें और उन दोनों को सलाम कहें!
समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की सदस्य डॉ. स्वाति का 2 मई 2020 को शाम 8:30 बजे वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में निधन हो गया। गुर्दों को बुरी तरह नाकाम करने वाली बहुत ही कम होने वाली मल्टिपल माईलोमा नामक प्लाज़्मा कोशिकाओं की कैंसर की बीमारी से बहादुरी से जूझते हुए उनकी साँस छूटी। तक़रीबन एक साल तक के इस तकलीफ़देह दौर में उन्हीं की तरह अरसे से जाने-माने समाजवादी नेता, उनके पति अफ़लातून, कई अस्पतालों में उनकी आखिरी साँसों तक हर पल उनके संग जुड़े रहे।

शिक्षा और विज्ञान-कार्य
21 अप्रैल 1948 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश के बंगाली परिवार में जन्मी डॉ. स्वाति ने 1967 में कमला राजा गर्ल्स स्नातकोत्तर कॉलेज, ग्वालियर से स्वर्णपदक के साथ बीएससी (फिज़िक्स) पास की। 1969 में उन्होंने मुंबई के आईआईटी-बॉम्बे से फिज़िक्स में एमएससी पूरी की और 1974-75 में अमरीका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग से एटॉमिक फिज़िक्स में पीएचडी की। पश्चिम के विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने वाले अपने समकालीन ज़्यादातर युवा हिंदुस्तानियों से अलग डॉ. स्वाति अपने मुल्क वापस लौटकर समाजवादी समाज बनाने के लिए अवाम की जद्दोजहद में शामिल होने को बेचैन थीं।
अमरीका के लुभावने अध्यापन और शोध के मौके छोड़कर, पीएचडी के बाद ही वे भारत लौट आईं और कुछ वक्त तक रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ाती रहीं। 1979 में डॉ. स्वाति की नियुक्ति फिज़िक्स में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के महिला महाविद्यालय में हो गई। यहाँ वे 30 सालों से भी ज़्यादा अरसे तक अध्यापन और शोध का काम करती रहीं और 2013 में असोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर रिटायर हुईं।
1990 के दशक के शुरूआती सालों से ही डॉ. स्वाति ज़मीनी सामाजिक-राजनीतिक काम में पूरी संजीदगी से सक्रिय रहीं, लेकिन उन्होंने विज्ञान के प्रति अपना लगाव नहीं छोड़ा और 2005 में बायोइन्फ़ॉर्मेटिक्स के बिल्कुल नए क्षेत्र में शोध करना शुरू किया। अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 35 शोध परचे प्रकाशित करने के अलावा बीएचयू में बायोइन्फॉर्मेटिक्स का विभाग शुरू करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई पीएचडी छात्रों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चल कर शोध में नाम कमाया। सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में वरिष्ठ पदाधिकारी की दोहरी ज़िम्मेदारियां संभालने के बावजूद सूक्ष्मजीवियों के आरएनए में संरचनात्मक बदलावों पर उनका एक परचा अभी पिछले साल ही प्रकाशित हुआ है। वे जेएनयू और आईआईआईटी हैदराबाद में विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहीं।

सियासी सफर
गौरतलब है कि डॉ. स्वाति जब अमेरिका से लौटी थीं, वह आपातकाल के बाद का सियासी सरगर्मियों का वक्त था। वे जल्द ही उस दौर के सक्रिय समाजवादी आंदोलन के संपर्क में आईं। जब 1980 में उत्पीड़ित वर्गों और जातियों का ज़मीनी आंदोलन खड़ा करने के लिए किशन पटनायक, भाई वैद्य, जुगल किशोर रायबीर, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नेता और कई छात्र कार्यकर्ता जुटे, तो समता संगठन नामक उस समूह के संस्थापक सदस्यों में डॉ. स्वाति शामिल थीं। इस गुट के सदस्य बतौर उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में खास तौर पर आदिवासियों, दलितों, किसानों और मजदूरों के साथ काम किया। जब सुनील और राजनारायण जैसे ज़मीनी नेताओं को होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) जेल में भेजा गया तो उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को एकजुट करने के लिए विश्वविद्यालय की नौकरी से लंबी छुट्टी ले ली।
वाराणसी में आंदोलन को ज़रूरी स्त्रीवादी मोड़ देते हुए उन्होंने ’नारी एकता मंच’ का गठन करने में भूमिका निभाई, जिसमें सभी वर्गों और जातियों से स्त्रियाँ शामिल हुईं और स्त्री क़ैदी, घरेलू हिंसा, दहेज पीड़ित व स्त्रियों के दीगर मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाई गई। समाजवादी अध्यापक गुट के सदस्य के रूप में वे विश्वविद्यालय के स्तर पर आंदोलनों में शरीक रहीं और बीएचयू के अध्यापक संगठन की उपाध्यक्ष चुनी गईं। वाराणसी के सुंदर बगिया इलाके के विपन्न बच्चों को पढ़ाने के लिए भी उन्होंने वक्त निकाला।
जब 1995 में समता संगठन और दूसरे संगठनों ने मिलकर आर्थिक विकेंद्रीकरण, वैकल्पिक समाजवादी विकास का मॉडल और समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल, समाजवादी जन परिषद (सजप) बनाया, तो डॉ. स्वाति पार्टी के सचिव-मंडल की सदस्य बनीं और राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अहम शख़्सियत बतौर काम करती रहीं। लगातार अध्ययन और चिंतन में जुटी रहकर उन्होंने राजनीति में स्त्रियों के मुद्दों पर सवाल उठाए और इस पर पार्टी के मुखपत्रों, सामयिक वार्ता और समता इरा, में लेख लिखे। देश में चल रहे जनविज्ञान आंदोलनों में भी उनकी बड़ी भागीदारी थी। मुनाफ़ाखोरी, ज़ुल्म और गुलामगिरी बढ़ाने के पूँजीवादी हथकंडों में इस्तेमाल होने के बजाए विज्ञान की जनता की भलाई के लिए क्या भूमिका हो सकती है, इस सवाल पर उनकी गहरी समझ थी।
दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद डॉ. स्वाति ने अपनी काफ़ी ऊर्जा सांप्रदायिक विभाजनकारी ताकतों का प्रतिरोध करने में लगाई।

शिक्षा आंदोलन में योगदान
2009 में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के संस्थापक सदस्य-संगठनों में समाजवादी जन परिषद (सजप) शामिल था। हालाँकि शुरूआती दौर में अभाशिअमं के अध्यक्ष मंडल में सजप के प्रतिनिधि, जेएनयू से पढ़े और आदिवासियों व विपन्न तबकों के साथ काम कर रहे, श्री सुनील थे, डॉ. स्वाति ने अभाशिअमं के कार्यक्रमों, खास तौर पर 2010 में संसद मार्च व प्रदर्शन के लिए कई राज्यों से लोगों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई। अप्रैल 2014 में सुनील के असमय निधन के बाद अभाशिअमं ने डॉ. स्वाति और अफ़लातून जी, दोनों को सजप के प्रतिनिधि बतौर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आने का न्यौता दिया। फरवरी 2018 में डॉ. स्वाति अभाशिअमं के सचिव-मंडल में आ गईं। तब से वे सचिव मंडल का स्तंभ बनी रहीं हैं और उन्होंने हर प्रस्तावित कार्ययोजना और फ़ैसले को अपने आलोचनात्मक नज़रिए से बेहतर बनाया।
डॉ. स्वाति की दूरदर्शिता और जनाधार को लामबंद करने की उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से ’केजी से पीजी’ तक बराबरी और सामाजिक न्याय-आधारित समान शिक्षा व्यवस्था और पूरी तौरपर मुफ़्त शिक्षा के अभाशिअमं के देशव्यापी आंदोलन के नए आयाम उभरे हैं। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में सजप की इकाइयों को अपने-अपने इलाकों में अभाशिअमं की मुख्य माँग यानी ‘केजी से बारहवीं कक्षा तक ’समान स्कूल व्यवस्था’ के समर्थन में आगे बढ़ने को तैयार किया है। लगातार हुए दो घटना-क्रमों ने डॉ० स्वाति के सचिव मंडल में आने से पहले ही शिक्षा आंदोलन में उनकी बढ़ती हुई भूमिका को निखरने में मदद दी। पहली, यह कि भारत सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ–गैट्स (WTO-GATS) को उच्च शिक्षा का मुद्दा खैरात दिए जाने की पहलकदमी वापस लेने के लिए अगस्त, 2015 में अभाशिअमं ने देशव्यापी जन-आंदोलन खड़ा करने का आह्वान किया। इस मुद्दे का महत्व समझकर उन्होंने वाराणसी में एक डब्ल्यूटीओ-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। दूसरी, यह कि अप्रैल, 2016 में अभाशिअमं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश (अगस्त, 2015) को देशभर में लागू करने की मांग को लेकर राष्ट्रीय असेंबली का आयोजन किया। उक्त आदेश के मुताबिक, उत्तर प्रदेश सरकार के खजाने से किसी भी तरह का माली लाभ (तनख़्वाह, मानदेय, भत्ता, ठेके का भुगतान, सलाहकार फीस या कुछ और भी) लेने वालों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को भेजें, चाहे उनका सामाजिक-आर्थिक रुतबा कैसा भी हो। डॉ. स्वाति ने देश के विभिन्न हिस्सों से, खास तौर पर उत्तर प्रदेश से, राष्ट्रीय असेंबली में शामिल होने के लिए लोगों को एकजुट किया। इसी तरह फरवरी 2019 की हुंकार रैली के लिए उन्होंने दूरदराज के आदिवासी इलाकों तक से लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की।

भाषा और समाज
डॉ. स्वाति, अंग्रेज़ी और हिन्दी में समान रूप से काम करती थीं और बांग्ला और उड़िया में धाराप्रवाह बोलती थीं। तीन साल पहले नागालैंड में उसकी 16 ज़ुबानों को बचाने और आगे बढ़ाने पर हुए सेमिनार में हिस्सा लेने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि “जब तक समाज में वर्ग (या जाति) का बँटवारा रहेगा, भाषाएँ भी वर्गों और जातियों में बँटी रहेंगी!” इसलिए उनका मत था कि भारतीय समाज को समाजवादी और मानवीय खाके में नए सिरे से गढ़ने के लिए वैकल्पिक शिक्षाशास्त्र ज़रूरी है। जब 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने हिन्दी माध्यम में चल रहे 5000 प्राथमिक स्कूलों को इंग्लिश-मीडियम में तब्दील करने का फ़ैसला लिया तो उनकी मादरी ज़ुबान के माध्यम से तालीम की प्रतिबद्धता को बड़ी चुनौती मिली। इस फ़ैसले की वजह से बच्चों की बड़ी तादाद में शिक्षा से होने वाली बेदखली के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प न बचा था।

ऐतिहासिक संदर्भ और हमारा संकल्प
डॉ. स्वाति के निधन से सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में एक बड़ा शून्य बन गया है, जिसे भर पाना मुश्किल होगा। बदकिस्मती से यह ऐसे वक्त हुआ है जब मुल्क आज़ादी के बाद के सबसे कठिन सियासी दौर से गुज़र रहा है। ऐसे वक्त स्वाति जैसी शख़्सियत का होना देश के लिए निहायत ज़रूरी था।
हमें इस अनोखी बात पर गौर करना चाहिए कि एक शख़्सियत ने विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की राह पर चलते हुए सक्रिय राजनीति और समाज में बराबरी और इंसाफ के लिए ज़मीनी जद्दोजहद में भी हिस्सा लिया। जब इतिहास में ऐसी मिसालें ढूँढी जाएँगी, तो इस अनोखे किरदार के एक उम्दा प्रतिनिधि बतौर डॉ. स्वाति को उनकी यह ऐतिहासिक जगह देने से कोई इंकार नहीं कर पाएगा !
तक़रीबन एक साल की अवधि में ही अभाशिअमं ने अपने दो स्तंभ खो दिए हैं – डॉ. मेहर इंजीनियर और डॉ. स्वाति – दोनों ही पेशे से वैज्ञानिक थे। दोनों ने हमारे आंदोलन में अपनी खास भागीदीरी निभाई। आइए, हम उनके अभी बाक़ी रह गए एजेंडे पर काम करते रहने की शपथ लें और उन दोनों को सलाम कहें!
समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की सदस्य डॉ. स्वाति का 2 मई 2020 को शाम 8:30 बजे वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में निधन हो गया। गुर्दों को बुरी तरह नाकाम करने वाली बहुत ही कम होने वाली मल्टिपल माईलोमा नामक प्लाज़्मा कोशिकाओं की कैंसर की बीमारी से बहादुरी से जूझते हुए उनकी साँस छूटी। तक़रीबन एक साल तक के इस तकलीफ़देह दौर में उन्हीं की तरह अरसे से जाने-माने समाजवादी नेता, उनके पति अफ़लातून, कई अस्पतालों में उनकी आखिरी साँसों तक हर पल उनके संग जुड़े रहे।

शिक्षा और विज्ञान-कार्य
21 अप्रैल 1948 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश के बंगाली परिवार में जन्मी डॉ. स्वाति ने 1967 में कमला राजा गर्ल्स स्नातकोत्तर कॉलेज, ग्वालियर से स्वर्णपदक के साथ बीएससी (फिज़िक्स) पास की। 1969 में उन्होंने मुंबई के आईआईटी-बॉम्बे से फिज़िक्स में एमएससी पूरी की और 1974-75 में अमरीका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग से एटॉमिक फिज़िक्स में पीएचडी की। पश्चिम के विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने वाले अपने समकालीन ज़्यादातर युवा हिंदुस्तानियों से अलग डॉ. स्वाति अपने मुल्क वापस लौटकर समाजवादी समाज बनाने के लिए अवाम की जद्दोजहद में शामिल होने को बेचैन थीं।
अमरीका के लुभावने अध्यापन और शोध के मौके छोड़कर, पीएचडी के बाद ही वे भारत लौट आईं और कुछ वक्त तक रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ाती रहीं। 1979 में डॉ. स्वाति की नियुक्ति फिज़िक्स में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के महिला महाविद्यालय में हो गई। यहाँ वे 30 सालों से भी ज़्यादा अरसे तक अध्यापन और शोध का काम करती रहीं और 2013 में असोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर रिटायर हुईं।
1990 के दशक के शुरूआती सालों से ही डॉ. स्वाति ज़मीनी सामाजिक-राजनीतिक काम में पूरी संजीदगी से सक्रिय रहीं, लेकिन उन्होंने विज्ञान के प्रति अपना लगाव नहीं छोड़ा और 2005 में बायोइन्फ़ॉर्मेटिक्स के बिल्कुल नए क्षेत्र में शोध करना शुरू किया। अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 35 शोध परचे प्रकाशित करने के अलावा बीएचयू में बायोइन्फॉर्मेटिक्स का विभाग शुरू करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई पीएचडी छात्रों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चल कर शोध में नाम कमाया। सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में वरिष्ठ पदाधिकारी की दोहरी ज़िम्मेदारियां संभालने के बावजूद सूक्ष्मजीवियों के आरएनए में संरचनात्मक बदलावों पर उनका एक परचा अभी पिछले साल ही प्रकाशित हुआ है। वे जेएनयू और आईआईआईटी हैदराबाद में विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहीं।

सियासी सफर
गौरतलब है कि डॉ. स्वाति जब अमेरिका से लौटी थीं, वह आपातकाल के बाद का सियासी सरगर्मियों का वक्त था। वे जल्द ही उस दौर के सक्रिय समाजवादी आंदोलन के संपर्क में आईं। जब 1980 में उत्पीड़ित वर्गों और जातियों का ज़मीनी आंदोलन खड़ा करने के लिए किशन पटनायक, भाई वैद्य, जुगल किशोर रायबीर, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नेता और कई छात्र कार्यकर्ता जुटे, तो समता संगठन नामक उस समूह के संस्थापक सदस्यों में डॉ. स्वाति शामिल थीं। इस गुट के सदस्य बतौर उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में खास तौर पर आदिवासियों, दलितों, किसानों और मजदूरों के साथ काम किया। जब सुनील और राजनारायण जैसे ज़मीनी नेताओं को होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) जेल में भेजा गया तो उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को एकजुट करने के लिए विश्वविद्यालय की नौकरी से लंबी छुट्टी ले ली।
वाराणसी में आंदोलन को ज़रूरी स्त्रीवादी मोड़ देते हुए उन्होंने ’नारी एकता मंच’ का गठन करने में भूमिका निभाई, जिसमें सभी वर्गों और जातियों से स्त्रियाँ शामिल हुईं और स्त्री क़ैदी, घरेलू हिंसा, दहेज पीड़ित व स्त्रियों के दीगर मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाई गई। समाजवादी अध्यापक गुट के सदस्य के रूप में वे विश्वविद्यालय के स्तर पर आंदोलनों में शरीक रहीं और बीएचयू के अध्यापक संगठन की उपाध्यक्ष चुनी गईं। वाराणसी के सुंदर बगिया इलाके के विपन्न बच्चों को पढ़ाने के लिए भी उन्होंने वक्त निकाला।
जब 1995 में समता संगठन और दूसरे संगठनों ने मिलकर आर्थिक विकेंद्रीकरण, वैकल्पिक समाजवादी विकास का मॉडल और समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल, समाजवादी जन परिषद (सजप) बनाया, तो डॉ. स्वाति पार्टी के सचिव-मंडल की सदस्य बनीं और राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अहम शख़्सियत बतौर काम करती रहीं। लगातार अध्ययन और चिंतन में जुटी रहकर उन्होंने राजनीति में स्त्रियों के मुद्दों पर सवाल उठाए और इस पर पार्टी के मुखपत्रों, सामयिक वार्ता और समता इरा, में लेख लिखे। देश में चल रहे जनविज्ञान आंदोलनों में भी उनकी बड़ी भागीदारी थी। मुनाफ़ाखोरी, ज़ुल्म और गुलामगिरी बढ़ाने के पूँजीवादी हथकंडों में इस्तेमाल होने के बजाए विज्ञान की जनता की भलाई के लिए क्या भूमिका हो सकती है, इस सवाल पर उनकी गहरी समझ थी।
दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद डॉ. स्वाति ने अपनी काफ़ी ऊर्जा सांप्रदायिक विभाजनकारी ताकतों का प्रतिरोध करने में लगाई।

शिक्षा आंदोलन में योगदान
2009 में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के संस्थापक सदस्य-संगठनों में समाजवादी जन परिषद (सजप) शामिल था। हालाँकि शुरूआती दौर में अभाशिअमं के अध्यक्ष मंडल में सजप के प्रतिनिधि, जेएनयू से पढ़े और आदिवासियों व विपन्न तबकों के साथ काम कर रहे, श्री सुनील थे, डॉ. स्वाति ने अभाशिअमं के कार्यक्रमों, खास तौर पर 2010 में संसद मार्च व प्रदर्शन के लिए कई राज्यों से लोगों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई। अप्रैल 2014 में सुनील के असमय निधन के बाद अभाशिअमं ने डॉ. स्वाति और अफ़लातून जी, दोनों को सजप के प्रतिनिधि बतौर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आने का न्यौता दिया। फरवरी 2018 में डॉ. स्वाति अभाशिअमं के सचिव-मंडल में आ गईं। तब से वे सचिव मंडल का स्तंभ बनी रहीं हैं और उन्होंने हर प्रस्तावित कार्ययोजना और फ़ैसले को अपने आलोचनात्मक नज़रिए से बेहतर बनाया।
डॉ. स्वाति की दूरदर्शिता और जनाधार को लामबंद करने की उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से ’केजी से पीजी’ तक बराबरी और सामाजिक न्याय-आधारित समान शिक्षा व्यवस्था और पूरी तौरपर मुफ़्त शिक्षा के अभाशिअमं के देशव्यापी आंदोलन के नए आयाम उभरे हैं। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में सजप की इकाइयों को अपने-अपने इलाकों में अभाशिअमं की मुख्य माँग यानी ‘केजी से बारहवीं कक्षा तक ’समान स्कूल व्यवस्था’ के समर्थन में आगे बढ़ने को तैयार किया है। लगातार हुए दो घटना-क्रमों ने डॉ० स्वाति के सचिव मंडल में आने से पहले ही शिक्षा आंदोलन में उनकी बढ़ती हुई भूमिका को निखरने में मदद दी। पहली, यह कि भारत सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ–गैट्स (WTO-GATS) को उच्च शिक्षा का मुद्दा खैरात दिए जाने की पहलकदमी वापस लेने के लिए अगस्त, 2015 में अभाशिअमं ने देशव्यापी जन-आंदोलन खड़ा करने का आह्वान किया। इस मुद्दे का महत्व समझकर उन्होंने वाराणसी में एक डब्ल्यूटीओ-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। दूसरी, यह कि अप्रैल, 2016 में अभाशिअमं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश (अगस्त, 2015) को देशभर में लागू करने की मांग को लेकर राष्ट्रीय असेंबली का आयोजन किया। उक्त आदेश के मुताबिक, उत्तर प्रदेश सरकार के खजाने से किसी भी तरह का माली लाभ (तनख़्वाह, मानदेय, भत्ता, ठेके का भुगतान, सलाहकार फीस या कुछ और भी) लेने वालों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को भेजें, चाहे उनका सामाजिक-आर्थिक रुतबा कैसा भी हो। डॉ. स्वाति ने देश के विभिन्न हिस्सों से, खास तौर पर उत्तर प्रदेश से, राष्ट्रीय असेंबली में शामिल होने के लिए लोगों को एकजुट किया। इसी तरह फरवरी 2019 की हुंकार रैली के लिए उन्होंने दूरदराज के आदिवासी इलाकों तक से लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की।

भाषा और समाज
डॉ. स्वाति, अंग्रेज़ी और हिन्दी में समान रूप से काम करती थीं और बांग्ला और उड़िया में धाराप्रवाह बोलती थीं। तीन साल पहले नागालैंड में उसकी 16 ज़ुबानों को बचाने और आगे बढ़ाने पर हुए सेमिनार में हिस्सा लेने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि “जब तक समाज में वर्ग (या जाति) का बँटवारा रहेगा, भाषाएँ भी वर्गों और जातियों में बँटी रहेंगी!” इसलिए उनका मत था कि भारतीय समाज को समाजवादी और मानवीय खाके में नए सिरे से गढ़ने के लिए वैकल्पिक शिक्षाशास्त्र ज़रूरी है। जब 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने हिन्दी माध्यम में चल रहे 5000 प्राथमिक स्कूलों को इंग्लिश-मीडियम में तब्दील करने का फ़ैसला लिया तो उनकी मादरी ज़ुबान के माध्यम से तालीम की प्रतिबद्धता को बड़ी चुनौती मिली। इस फ़ैसले की वजह से बच्चों की बड़ी तादाद में शिक्षा से होने वाली बेदखली के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प न बचा था।

ऐतिहासिक संदर्भ और हमारा संकल्प
डॉ. स्वाति के निधन से सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में एक बड़ा शून्य बन गया है, जिसे भर पाना मुश्किल होगा। बदकिस्मती से यह ऐसे वक्त हुआ है जब मुल्क आज़ादी के बाद के सबसे कठिन सियासी दौर से गुज़र रहा है। ऐसे वक्त स्वाति जैसी शख़्सियत का होना देश के लिए निहायत ज़रूरी था।
हमें इस अनोखी बात पर गौर करना चाहिए कि एक शख़्सियत ने विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की राह पर चलते हुए सक्रिय राजनीति और समाज में बराबरी और इंसाफ के लिए ज़मीनी जद्दोजहद में भी हिस्सा लिया। जब इतिहास में ऐसी मिसालें ढूँढी जाएँगी, तो इस अनोखे किरदार के एक उम्दा प्रतिनिधि बतौर डॉ. स्वाति को उनकी यह ऐतिहासिक जगह देने से कोई इंकार नहीं कर पाएगा !
तक़रीबन एक साल की अवधि में ही अभाशिअमं ने अपने दो स्तंभ खो दिए हैं – डॉ. मेहर इंजीनियर और डॉ. स्वाति – दोनों ही पेशे से वैज्ञानिक थे। दोनों ने हमारे आंदोलन में अपनी खास भागीदीरी निभाई। आइए, हम उनके अभी बाक़ी रह गए एजेंडे पर काम करते रहने की शपथ लें और उन दोनों को सलाम कहें!
समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की सदस्य डॉ. स्वाति का 2 मई 2020 को शाम 8:30 बजे वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में निधन हो गया। गुर्दों को बुरी तरह नाकाम करने वाली बहुत ही कम होने वाली मल्टिपल माईलोमा नामक प्लाज़्मा कोशिकाओं की कैंसर की बीमारी से बहादुरी से जूझते हुए उनकी साँस छूटी। तक़रीबन एक साल तक के इस तकलीफ़देह दौर में उन्हीं की तरह अरसे से जाने-माने समाजवादी नेता, उनके पति अफ़लातून, कई अस्पतालों में उनकी आखिरी साँसों तक हर पल उनके संग जुड़े रहे।

शिक्षा और विज्ञान-कार्य
21 अप्रैल 1948 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश के बंगाली परिवार में जन्मी डॉ. स्वाति ने 1967 में कमला राजा गर्ल्स स्नातकोत्तर कॉलेज, ग्वालियर से स्वर्णपदक के साथ बीएससी (फिज़िक्स) पास की। 1969 में उन्होंने मुंबई के आईआईटी-बॉम्बे से फिज़िक्स में एमएससी पूरी की और 1974-75 में अमरीका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग से एटॉमिक फिज़िक्स में पीएचडी की। पश्चिम के विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने वाले अपने समकालीन ज़्यादातर युवा हिंदुस्तानियों से अलग डॉ. स्वाति अपने मुल्क वापस लौटकर समाजवादी समाज बनाने के लिए अवाम की जद्दोजहद में शामिल होने को बेचैन थीं।
अमरीका के लुभावने अध्यापन और शोध के मौके छोड़कर, पीएचडी के बाद ही वे भारत लौट आईं और कुछ वक्त तक रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ाती रहीं। 1979 में डॉ. स्वाति की नियुक्ति फिज़िक्स में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के महिला महाविद्यालय में हो गई। यहाँ वे 30 सालों से भी ज़्यादा अरसे तक अध्यापन और शोध का काम करती रहीं और 2013 में असोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर रिटायर हुईं।
1990 के दशक के शुरूआती सालों से ही डॉ. स्वाति ज़मीनी सामाजिक-राजनीतिक काम में पूरी संजीदगी से सक्रिय रहीं, लेकिन उन्होंने विज्ञान के प्रति अपना लगाव नहीं छोड़ा और 2005 में बायोइन्फ़ॉर्मेटिक्स के बिल्कुल नए क्षेत्र में शोध करना शुरू किया। अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 35 शोध परचे प्रकाशित करने के अलावा बीएचयू में बायोइन्फॉर्मेटिक्स का विभाग शुरू करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई पीएचडी छात्रों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चल कर शोध में नाम कमाया। सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में वरिष्ठ पदाधिकारी की दोहरी ज़िम्मेदारियां संभालने के बावजूद सूक्ष्मजीवियों के आरएनए में संरचनात्मक बदलावों पर उनका एक परचा अभी पिछले साल ही प्रकाशित हुआ है। वे जेएनयू और आईआईआईटी हैदराबाद में विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहीं।

सियासी सफर
गौरतलब है कि डॉ. स्वाति जब अमेरिका से लौटी थीं, वह आपातकाल के बाद का सियासी सरगर्मियों का वक्त था। वे जल्द ही उस दौर के सक्रिय समाजवादी आंदोलन के संपर्क में आईं। जब 1980 में उत्पीड़ित वर्गों और जातियों का ज़मीनी आंदोलन खड़ा करने के लिए किशन पटनायक, भाई वैद्य, जुगल किशोर रायबीर, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नेता और कई छात्र कार्यकर्ता जुटे, तो समता संगठन नामक उस समूह के संस्थापक सदस्यों में डॉ. स्वाति शामिल थीं। इस गुट के सदस्य बतौर उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में खास तौर पर आदिवासियों, दलितों, किसानों और मजदूरों के साथ काम किया। जब सुनील और राजनारायण जैसे ज़मीनी नेताओं को होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) जेल में भेजा गया तो उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को एकजुट करने के लिए विश्वविद्यालय की नौकरी से लंबी छुट्टी ले ली।
वाराणसी में आंदोलन को ज़रूरी स्त्रीवादी मोड़ देते हुए उन्होंने ’नारी एकता मंच’ का गठन करने में भूमिका निभाई, जिसमें सभी वर्गों और जातियों से स्त्रियाँ शामिल हुईं और स्त्री क़ैदी, घरेलू हिंसा, दहेज पीड़ित व स्त्रियों के दीगर मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाई गई। समाजवादी अध्यापक गुट के सदस्य के रूप में वे विश्वविद्यालय के स्तर पर आंदोलनों में शरीक रहीं और बीएचयू के अध्यापक संगठन की उपाध्यक्ष चुनी गईं। वाराणसी के सुंदर बगिया इलाके के विपन्न बच्चों को पढ़ाने के लिए भी उन्होंने वक्त निकाला।
जब 1995 में समता संगठन और दूसरे संगठनों ने मिलकर आर्थिक विकेंद्रीकरण, वैकल्पिक समाजवादी विकास का मॉडल और समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल, समाजवादी जन परिषद (सजप) बनाया, तो डॉ. स्वाति पार्टी के सचिव-मंडल की सदस्य बनीं और राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अहम शख़्सियत बतौर काम करती रहीं। लगातार अध्ययन और चिंतन में जुटी रहकर उन्होंने राजनीति में स्त्रियों के मुद्दों पर सवाल उठाए और इस पर पार्टी के मुखपत्रों, सामयिक वार्ता और समता इरा, में लेख लिखे। देश में चल रहे जनविज्ञान आंदोलनों में भी उनकी बड़ी भागीदारी थी। मुनाफ़ाखोरी, ज़ुल्म और गुलामगिरी बढ़ाने के पूँजीवादी हथकंडों में इस्तेमाल होने के बजाए विज्ञान की जनता की भलाई के लिए क्या भूमिका हो सकती है, इस सवाल पर उनकी गहरी समझ थी।
दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद डॉ. स्वाति ने अपनी काफ़ी ऊर्जा सांप्रदायिक विभाजनकारी ताकतों का प्रतिरोध करने में लगाई।

शिक्षा आंदोलन में योगदान
2009 में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के संस्थापक सदस्य-संगठनों में समाजवादी जन परिषद (सजप) शामिल था। हालाँकि शुरूआती दौर में अभाशिअमं के अध्यक्ष मंडल में सजप के प्रतिनिधि, जेएनयू से पढ़े और आदिवासियों व विपन्न तबकों के साथ काम कर रहे, श्री सुनील थे, डॉ. स्वाति ने अभाशिअमं के कार्यक्रमों, खास तौर पर 2010 में संसद मार्च व प्रदर्शन के लिए कई राज्यों से लोगों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई। अप्रैल 2014 में सुनील के असमय निधन के बाद अभाशिअमं ने डॉ. स्वाति और अफ़लातून जी, दोनों को सजप के प्रतिनिधि बतौर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आने का न्यौता दिया। फरवरी 2018 में डॉ. स्वाति अभाशिअमं के सचिव-मंडल में आ गईं। तब से वे सचिव मंडल का स्तंभ बनी रहीं हैं और उन्होंने हर प्रस्तावित कार्ययोजना और फ़ैसले को अपने आलोचनात्मक नज़रिए से बेहतर बनाया।
डॉ. स्वाति की दूरदर्शिता और जनाधार को लामबंद करने की उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से ’केजी से पीजी’ तक बराबरी और सामाजिक न्याय-आधारित समान शिक्षा व्यवस्था और पूरी तौरपर मुफ़्त शिक्षा के अभाशिअमं के देशव्यापी आंदोलन के नए आयाम उभरे हैं। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में सजप की इकाइयों को अपने-अपने इलाकों में अभाशिअमं की मुख्य माँग यानी ‘केजी से बारहवीं कक्षा तक ’समान स्कूल व्यवस्था’ के समर्थन में आगे बढ़ने को तैयार किया है। लगातार हुए दो घटना-क्रमों ने डॉ० स्वाति के सचिव मंडल में आने से पहले ही शिक्षा आंदोलन में उनकी बढ़ती हुई भूमिका को निखरने में मदद दी। पहली, यह कि भारत सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ–गैट्स (WTO-GATS) को उच्च शिक्षा का मुद्दा खैरात दिए जाने की पहलकदमी वापस लेने के लिए अगस्त, 2015 में अभाशिअमं ने देशव्यापी जन-आंदोलन खड़ा करने का आह्वान किया। इस मुद्दे का महत्व समझकर उन्होंने वाराणसी में एक डब्ल्यूटीओ-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। दूसरी, यह कि अप्रैल, 2016 में अभाशिअमं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश (अगस्त, 2015) को देशभर में लागू करने की मांग को लेकर राष्ट्रीय असेंबली का आयोजन किया। उक्त आदेश के मुताबिक, उत्तर प्रदेश सरकार के खजाने से किसी भी तरह का माली लाभ (तनख़्वाह, मानदेय, भत्ता, ठेके का भुगतान, सलाहकार फीस या कुछ और भी) लेने वालों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को भेजें, चाहे उनका सामाजिक-आर्थिक रुतबा कैसा भी हो। डॉ. स्वाति ने देश के विभिन्न हिस्सों से, खास तौर पर उत्तर प्रदेश से, राष्ट्रीय असेंबली में शामिल होने के लिए लोगों को एकजुट किया। इसी तरह फरवरी 2019 की हुंकार रैली के लिए उन्होंने दूरदराज के आदिवासी इलाकों तक से लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की।

भाषा और समाज
डॉ. स्वाति, अंग्रेज़ी और हिन्दी में समान रूप से काम करती थीं और बांग्ला और उड़िया में धाराप्रवाह बोलती थीं। तीन साल पहले नागालैंड में उसकी 16 ज़ुबानों को बचाने और आगे बढ़ाने पर हुए सेमिनार में हिस्सा लेने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि “जब तक समाज में वर्ग (या जाति) का बँटवारा रहेगा, भाषाएँ भी वर्गों और जातियों में बँटी रहेंगी!” इसलिए उनका मत था कि भारतीय समाज को समाजवादी और मानवीय खाके में नए सिरे से गढ़ने के लिए वैकल्पिक शिक्षाशास्त्र ज़रूरी है। जब 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने हिन्दी माध्यम में चल रहे 5000 प्राथमिक स्कूलों को इंग्लिश-मीडियम में तब्दील करने का फ़ैसला लिया तो उनकी मादरी ज़ुबान के माध्यम से तालीम की प्रतिबद्धता को बड़ी चुनौती मिली। इस फ़ैसले की वजह से बच्चों की बड़ी तादाद में शिक्षा से होने वाली बेदखली के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प न बचा था।

ऐतिहासिक संदर्भ और हमारा संकल्प
डॉ. स्वाति के निधन से सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में एक बड़ा शून्य बन गया है, जिसे भर पाना मुश्किल होगा। बदकिस्मती से यह ऐसे वक्त हुआ है जब मुल्क आज़ादी के बाद के सबसे कठिन सियासी दौर से गुज़र रहा है। ऐसे वक्त स्वाति जैसी शख़्सियत का होना देश के लिए निहायत ज़रूरी था।
हमें इस अनोखी बात पर गौर करना चाहिए कि एक शख़्सियत ने विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की राह पर चलते हुए सक्रिय राजनीति और समाज में बराबरी और इंसाफ के लिए ज़मीनी जद्दोजहद में भी हिस्सा लिया। जब इतिहास में ऐसी मिसालें ढूँढी जाएँगी, तो इस अनोखे किरदार के एक उम्दा प्रतिनिधि बतौर डॉ. स्वाति को उनकी यह ऐतिहासिक जगह देने से कोई इंकार नहीं कर पाएगा !
तक़रीबन एक साल की अवधि में ही अभाशिअमं ने अपने दो स्तंभ खो दिए हैं – डॉ. मेहर इंजीनियर और डॉ. स्वाति – दोनों ही पेशे से वैज्ञानिक थे। दोनों ने हमारे आंदोलन में अपनी खास भागीदीरी निभाई। आइए, हम उनके अभी बाक़ी रह गए एजेंडे पर काम करते रहने की शपथ लें और उन दोनों को सलाम कहें!
डॉ. स्वाति नहीं रहीं उन्होंने दलित, आदिवासी, किसान और श्रमिकों के साथ व्यापक रूप से काम किया था।
समाजवादी जन परिषद (सजप) की उपाध्यक्ष और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के सचिव-मंडल की सदस्य डॉ. स्वाति का 2 मई 2020 को शाम 8:30 बजे वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में निधन हो गया। गुर्दों को बुरी तरह नाकाम करने वाली बहुत ही कम होने वाली मल्टिपल माईलोमा नामक प्लाज़्मा कोशिकाओं की कैंसर की बीमारी से बहादुरी से जूझते हुए उनकी साँस छूटी। तक़रीबन एक साल तक के इस तकलीफ़देह दौर में उन्हीं की तरह अरसे से जाने-माने समाजवादी नेता, उनके पति अफ़लातून, कई अस्पतालों में उनकी आखिरी साँसों तक हर पल उनके संग जुड़े रहे।

शिक्षा और विज्ञान-कार्य
21 अप्रैल 1948 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश के बंगाली परिवार में जन्मी डॉ. स्वाति ने 1967 में कमला राजा गर्ल्स स्नातकोत्तर कॉलेज, ग्वालियर से स्वर्णपदक के साथ बीएससी (फिज़िक्स) पास की। 1969 में उन्होंने मुंबई के आईआईटी-बॉम्बे से फिज़िक्स में एमएससी पूरी की और 1974-75 में अमरीका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग से एटॉमिक फिज़िक्स में पीएचडी की। पश्चिम के विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने वाले अपने समकालीन ज़्यादातर युवा हिंदुस्तानियों से अलग डॉ. स्वाति अपने मुल्क वापस लौटकर समाजवादी समाज बनाने के लिए अवाम की जद्दोजहद में शामिल होने को बेचैन थीं।
अमरीका के लुभावने अध्यापन और शोध के मौके छोड़कर, पीएचडी के बाद ही वे भारत लौट आईं और कुछ वक्त तक रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ाती रहीं। 1979 में डॉ. स्वाति की नियुक्ति फिज़िक्स में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के महिला महाविद्यालय में हो गई। यहाँ वे 30 सालों से भी ज़्यादा अरसे तक अध्यापन और शोध का काम करती रहीं और 2013 में असोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर रिटायर हुईं।
1990 के दशक के शुरूआती सालों से ही डॉ. स्वाति ज़मीनी सामाजिक-राजनीतिक काम में पूरी संजीदगी से सक्रिय रहीं, लेकिन उन्होंने विज्ञान के प्रति अपना लगाव नहीं छोड़ा और 2005 में बायोइन्फ़ॉर्मेटिक्स के बिल्कुल नए क्षेत्र में शोध करना शुरू किया। अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 35 शोध परचे प्रकाशित करने के अलावा बीएचयू में बायोइन्फॉर्मेटिक्स का विभाग शुरू करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई पीएचडी छात्रों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चल कर शोध में नाम कमाया। सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में वरिष्ठ पदाधिकारी की दोहरी ज़िम्मेदारियां संभालने के बावजूद सूक्ष्मजीवियों के आरएनए में संरचनात्मक बदलावों पर उनका एक परचा अभी पिछले साल ही प्रकाशित हुआ है। वे जेएनयू और आईआईआईटी हैदराबाद में विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहीं।

सियासी सफर
गौरतलब है कि डॉ. स्वाति जब अमेरिका से लौटी थीं, वह आपातकाल के बाद का सियासी सरगर्मियों का वक्त था। वे जल्द ही उस दौर के सक्रिय समाजवादी आंदोलन के संपर्क में आईं। जब 1980 में उत्पीड़ित वर्गों और जातियों का ज़मीनी आंदोलन खड़ा करने के लिए किशन पटनायक, भाई वैद्य, जुगल किशोर रायबीर, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नेता और कई छात्र कार्यकर्ता जुटे, तो समता संगठन नामक उस समूह के संस्थापक सदस्यों में डॉ. स्वाति शामिल थीं। इस गुट के सदस्य बतौर उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में खास तौर पर आदिवासियों, दलितों, किसानों और मजदूरों के साथ काम किया। जब सुनील और राजनारायण जैसे ज़मीनी नेताओं को होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) जेल में भेजा गया तो उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को एकजुट करने के लिए विश्वविद्यालय की नौकरी से लंबी छुट्टी ले ली।
वाराणसी में आंदोलन को ज़रूरी स्त्रीवादी मोड़ देते हुए उन्होंने ’नारी एकता मंच’ का गठन करने में भूमिका निभाई, जिसमें सभी वर्गों और जातियों से स्त्रियाँ शामिल हुईं और स्त्री क़ैदी, घरेलू हिंसा, दहेज पीड़ित व स्त्रियों के दीगर मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाई गई। समाजवादी अध्यापक गुट के सदस्य के रूप में वे विश्वविद्यालय के स्तर पर आंदोलनों में शरीक रहीं और बीएचयू के अध्यापक संगठन की उपाध्यक्ष चुनी गईं। वाराणसी के सुंदर बगिया इलाके के विपन्न बच्चों को पढ़ाने के लिए भी उन्होंने वक्त निकाला।
जब 1995 में समता संगठन और दूसरे संगठनों ने मिलकर आर्थिक विकेंद्रीकरण, वैकल्पिक समाजवादी विकास का मॉडल और समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल, समाजवादी जन परिषद (सजप) बनाया, तो डॉ. स्वाति पार्टी के सचिव-मंडल की सदस्य बनीं और राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अहम शख़्सियत बतौर काम करती रहीं। लगातार अध्ययन और चिंतन में जुटी रहकर उन्होंने राजनीति में स्त्रियों के मुद्दों पर सवाल उठाए और इस पर पार्टी के मुखपत्रों, सामयिक वार्ता और समता इरा, में लेख लिखे। देश में चल रहे जनविज्ञान आंदोलनों में भी उनकी बड़ी भागीदारी थी। मुनाफ़ाखोरी, ज़ुल्म और गुलामगिरी बढ़ाने के पूँजीवादी हथकंडों में इस्तेमाल होने के बजाए विज्ञान की जनता की भलाई के लिए क्या भूमिका हो सकती है, इस सवाल पर उनकी गहरी समझ थी।
दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद डॉ. स्वाति ने अपनी काफ़ी ऊर्जा सांप्रदायिक विभाजनकारी ताकतों का प्रतिरोध करने में लगाई।

शिक्षा आंदोलन में योगदान
2009 में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) के संस्थापक सदस्य-संगठनों में समाजवादी जन परिषद (सजप) शामिल था। हालाँकि शुरूआती दौर में अभाशिअमं के अध्यक्ष मंडल में सजप के प्रतिनिधि, जेएनयू से पढ़े और आदिवासियों व विपन्न तबकों के साथ काम कर रहे, श्री सुनील थे, डॉ. स्वाति ने अभाशिअमं के कार्यक्रमों, खास तौर पर 2010 में संसद मार्च व प्रदर्शन के लिए कई राज्यों से लोगों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई। अप्रैल 2014 में सुनील के असमय निधन के बाद अभाशिअमं ने डॉ. स्वाति और अफ़लातून जी, दोनों को सजप के प्रतिनिधि बतौर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आने का न्यौता दिया। फरवरी 2018 में डॉ. स्वाति अभाशिअमं के सचिव-मंडल में आ गईं। तब से वे सचिव मंडल का स्तंभ बनी रहीं हैं और उन्होंने हर प्रस्तावित कार्ययोजना और फ़ैसले को अपने आलोचनात्मक नज़रिए से बेहतर बनाया।
डॉ. स्वाति की दूरदर्शिता और जनाधार को लामबंद करने की उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से ’केजी से पीजी’ तक बराबरी और सामाजिक न्याय-आधारित समान शिक्षा व्यवस्था और पूरी तौरपर मुफ़्त शिक्षा के अभाशिअमं के देशव्यापी आंदोलन के नए आयाम उभरे हैं। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में सजप की इकाइयों को अपने-अपने इलाकों में अभाशिअमं की मुख्य माँग यानी ‘केजी से बारहवीं कक्षा तक ’समान स्कूल व्यवस्था’ के समर्थन में आगे बढ़ने को तैयार किया है। लगातार हुए दो घटना-क्रमों ने डॉ० स्वाति के सचिव मंडल में आने से पहले ही शिक्षा आंदोलन में उनकी बढ़ती हुई भूमिका को निखरने में मदद दी। पहली, यह कि भारत सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ–गैट्स (WTO-GATS) को उच्च शिक्षा का मुद्दा खैरात दिए जाने की पहलकदमी वापस लेने के लिए अगस्त, 2015 में अभाशिअमं ने देशव्यापी जन-आंदोलन खड़ा करने का आह्वान किया। इस मुद्दे का महत्व समझकर उन्होंने वाराणसी में एक डब्ल्यूटीओ-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। दूसरी, यह कि अप्रैल, 2016 में अभाशिअमं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक आदेश (अगस्त, 2015) को देशभर में लागू करने की मांग को लेकर राष्ट्रीय असेंबली का आयोजन किया। उक्त आदेश के मुताबिक, उत्तर प्रदेश सरकार के खजाने से किसी भी तरह का माली लाभ (तनख़्वाह, मानदेय, भत्ता, ठेके का भुगतान, सलाहकार फीस या कुछ और भी) लेने वालों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को भेजें, चाहे उनका सामाजिक-आर्थिक रुतबा कैसा भी हो। डॉ. स्वाति ने देश के विभिन्न हिस्सों से, खास तौर पर उत्तर प्रदेश से, राष्ट्रीय असेंबली में शामिल होने के लिए लोगों को एकजुट किया। इसी तरह फरवरी 2019 की हुंकार रैली के लिए उन्होंने दूरदराज के आदिवासी इलाकों तक से लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की।

भाषा और समाज
डॉ. स्वाति, अंग्रेज़ी और हिन्दी में समान रूप से काम करती थीं और बांग्ला और उड़िया में धाराप्रवाह बोलती थीं। तीन साल पहले नागालैंड में उसकी 16 ज़ुबानों को बचाने और आगे बढ़ाने पर हुए सेमिनार में हिस्सा लेने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि “जब तक समाज में वर्ग (या जाति) का बँटवारा रहेगा, भाषाएँ भी वर्गों और जातियों में बँटी रहेंगी!” इसलिए उनका मत था कि भारतीय समाज को समाजवादी और मानवीय खाके में नए सिरे से गढ़ने के लिए वैकल्पिक शिक्षाशास्त्र ज़रूरी है। जब 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने हिन्दी माध्यम में चल रहे 5000 प्राथमिक स्कूलों को इंग्लिश-मीडियम में तब्दील करने का फ़ैसला लिया तो उनकी मादरी ज़ुबान के माध्यम से तालीम की प्रतिबद्धता को बड़ी चुनौती मिली। इस फ़ैसले की वजह से बच्चों की बड़ी तादाद में शिक्षा से होने वाली बेदखली के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प न बचा था।

ऐतिहासिक संदर्भ और हमारा संकल्प
डॉ. स्वाति के निधन से सजप और अभाशिअमं दोनों संगठनों में एक बड़ा शून्य बन गया है, जिसे भर पाना मुश्किल होगा। बदकिस्मती से यह ऐसे वक्त हुआ है जब मुल्क आज़ादी के बाद के सबसे कठिन सियासी दौर से गुज़र रहा है। ऐसे वक्त स्वाति जैसी शख़्सियत का होना देश के लिए निहायत ज़रूरी था।
हमें इस अनोखी बात पर गौर करना चाहिए कि एक शख़्सियत ने विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की राह पर चलते हुए सक्रिय राजनीति और समाज में बराबरी और इंसाफ के लिए ज़मीनी जद्दोजहद में भी हिस्सा लिया। जब इतिहास में ऐसी मिसालें ढूँढी जाएँगी, तो इस अनोखे किरदार के एक उम्दा प्रतिनिधि बतौर डॉ. स्वाति को उनकी यह ऐतिहासिक जगह देने से कोई इंकार नहीं कर पाएगा !
तक़रीबन एक साल की अवधि में ही अभाशिअमं ने अपने दो स्तंभ खो दिए हैं – डॉ. मेहर इंजीनियर और डॉ. स्वाति – दोनों ही पेशे से वैज्ञानिक थे। दोनों ने हमारे आंदोलन में अपनी खास भागीदीरी निभाई। आइए, हम उनके अभी बाक़ी रह गए एजेंडे पर काम करते रहने की शपथ लें और उन दोनों को सलाम कहें!

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[जुलाई-अगस्त 1996 की ‘सामयिक वार्ता’ में साथी स्वाति की यह टिप्पणी छपी थी।वार्ता बनारस से छपती थी।]

    मेरे सामाजिक-राजनैतिक जीवन के शैशव काल में ‘लोकायन-लोकनिधि’ संस्था की ओर से आदरणीय श्री पंकज जी ने मुझे ‘भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति’ पर पर्चा पढ़ने के लिए आमंत्रित किया था।यह मेरा इस विषय पर पहला पर्चा था जो हमारे समाज में श्रम विभाजन,जाति प्रथा व परिवार तथा समाज में स्त्री की प्रतिष्ठा पर केंद्रित था।इसके बाद उस गोष्ठी मुझसे कई प्रश्न पूछे गए अधिकांश ऊलजलूल।कंझावला (दिल्ली से सटा हरियाणा का एक गांव) से दो किसान भाई भी थे। उनमें से एक ने अपने वक्तव्य में में कहा था कि अगर औरतें घर से बाहर निकलेंगी तो उन्हें बसों में,सार्वजनिक जगहों में धक्का-मुक्की तथा शरीर को स्पर्श करती हुई मर्दों की अश्लील हरकतों को सहना ही होगा।तब डी.टी.सी. बसों में औरतों के लिए आरक्षित सीटें नहीं हुआ करती थीं। अगस्त 1988 में ज्ब श्रीमती रूपन देवल बजाज,जो कि पंजाब कैडर की आई.ए.एस. अधिकारी हैं,ने पंजाब के तत्कालीन सर्वशक्तिमान, ख्यातनामा  पुलिस महानिरीक्षक कंवरपाल सिंह गिल पर आरोप लगाया कि उन्होंने अफसरों की एक पार्टी में उनके नितंब थपथपाने की अश्लील हरकत की तो ज्यादातर अखबारों ने कहा कि यह सब तो होता ही रहता है व श्रीमती बजाज को ऐसे मामलों को सार्वजनिक नहीं करना चाहिए। विशेषतः (1) जब किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा हरकत हुई हो (2) जब, वह शराब के नशे में हो।श्री कपूर (पंजाब के वित्त सचिव जिनके यहां पार्टी थी) व राज्यपाल श्री सिद्धार्थशंकर राय दोनों ने हीं श्री गिल से माफी मांग कर मामले को रफा-दफा करने की सलाह दी।मगर श्रीमती रूपन देवल बजाज व उनके पति ने न्यायालय में आई.पी.सी. धारा 354 एवं 509 के तहत मुकदमा दायर किया।इनमें से धारा 354 औरत के साथ अभद्र व्यवहार करने की है। आठ साल बाद चण्डीगढ़ की एक अदालत के मुख्य न्यायाधीश श्री दर्शन सिंह ने श्री गिल को तीन महीना सश्रम कारावास व 700 रु जुर्माना की सजा दी है। उन्हें तीन  दिन की मोहलत ऊपरी अदालत में अपील के लिए दी है।कुछ लोगों को शंका है कि अब ऐसे मुकदमों की बाढ़ आ जाएगी,कुछ को लगता है कि श्रीमती बजाज ने व्यक्तिगत खुन्नस के कारण अदालत के दरवाजे खतखटाए परंतु मुझे तो लगता है कि सामाजिक कुंठाओं और वर्जनाओं के कारण जो पुरुष की आखेटक  प्रवृत्ति बरकरार है समाज में उस पर रोक लगेगी । अश्लील हरकत करने से पुरुष डरेंगे तथा महिलाओं व लड़कियों के समाज में स्वच्छंद घूमने में सुविधा होगी।

    इस मामले में श्रीमती रूपन देवल बजाज को गलत ठहराने में दो प्रमुख स्तंभकार महिलाएं थीँ –तवलीन सिंह व नीलम महाजन सिंह।उनकी चर्चा का स्तर यह था कि जिस समाज में पार्टियों एक दूसरे के गले लोग पड़ते हैं उसमें जो गिल ने किया वह सामान्य था। श्रीमती बजाज तिल का ताड़ बना रही हैं।

संसद के इसी सत्र में कांग्रेस की सुश्री सरोज खापर्डे ने राज्यसभा में एक विधेयक रखा है जिसमें हर  गृहणी को एक साप्ताहिक अवकाश देना जरूरी हो ऐसी मांग की गई है। प्रसिद्ध वकील रानी जेठमलानी ने कहा है कि यह विधेयक अधूरा है,विवाह के समय पति की संपत्ति का आधा हिस्सा पत्नी को मिलना चाहिए। कम्युनिटी ऑफ प्रॉपर्टी (संपत्ति का आधा हिस्सा) नाम से यह फ्रांस,इंग्लैण्ड आदि कई देशों में दिया जाता है ताकि पत्नी के परिवार चलाने के योगदान की प्रतिष्ठा हो।

 

 

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[ गुजरात में 2002 में हुए नरसंहार के दरमियान एक रक्त रंजित महिला का चित्र देश भर में छपा था। चित्र उत्तर गुजरात के लूनावडा का था। उसी वर्ष दैनिक हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण के पत्रकार मित्र ने साथी स्वाति से महिला संगठनकर्ता के नाते अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के लिए संदेश मांगा था । साथी स्वाति ने यह पत्र लिखा। 7 मार्च 2002 के दैनिक हिंदुस्तान,वाराणसी में यह छपा।]

बहन,

हम महिला आंदोलन से जुड़ी बहनें हर साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं।यह दिन इंग्लैण्ड की मजदूर महिलाओं की सम्मानजनक मजदूरी व समान वेतन की लड़ाई, उनके शोषण व शोषण पर जीत की याद में व अपने अंतर की शक्ति को पहचानने, एकजुटता बनाने के लिए होता है। किसी की भी लड़ाई (अगर वह सामाजिक रूप से सही और बुलंद हो) से खुद को जोड़ने से बेगानापन या मानसिक गुलामी के हालात नहीं बनते। मगर आज अपने रहनुमाओं ने औरत को देशों, जातियों, धर्मों,वर्गों में बांटने के नजरिए को पुख्ता कर दिया है। भुला दी गई है वह पुरानी कहावत , ‘औरत चाहे किसी भी जाति की हो,अपने घर की कहारिन है’।इस कहावत में भी हमारे समाज की जाति व्यवस्था, उसके श्रम के बंटवारे व शारीरिक श्रम से जुड़ी अप्रतिष्ठा की भावना निहित है।यह सच्चाई है कि आज भी घर के अंदर व बाहर दोनों जगह औरत चाहे व किसी भी अंचल की व समाज की किसी भी श्रेणी की क्यों न हो,दबायी जाती है। अपवाद स्वरूप कुछ महिलाएं मिलेंगी जो अपनी जिंदगी के बारे में स्वयं निर्णय ले सकें,पर वह महज अपवाद ही होंगी।

भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने वर्ष 2001 को नारी सशक्तिकरण वर्ष घोषित किया।सेमिनारों के व्याख्यान और प्रसार माध्यमों की घोषणाओं से प्रतीत होने लगा कि नारी आंदोलन की कोई आवश्यकता अब भारतीय समाज को नहीं रही क्योंकि नारी आंदोलन के प्रमुख मुद्दों – कन्या भ्रूण हत्या,पारिवारिक हिंसा, व राजनीतिक शक्तिकरण (विधायिकाओं में 33% आरक्षण का महिला बिल)- को सरकार ने अपना लिया है व अपना मन बना लिया है कि वह इन पर शीघ्र ही कार्रवाई करेगी।

2001 के अंत तक स्पष्ट हो गया कि महिलाओं को बरगलाने के अलावा इनमें से किसी पर भी कारगर कानून बनाने की इच्छा शक्ति सरकार की नहीं है।उदाहरण के लिए कन्या भ्रूण हत्या का व्यापक कानून 1996 में ही बन गया था परंतु उस पर अमल नहीं किया गया-कड़ाई से अमल की बात तो दूर रही।मई 2001 में संशोधन हेतु सरकार ने जिस तरह की जांच समितियों का गठन किया उनकी सिफारिशों के लागू होने पर इस कानून के शिकंजे से बच निकलना ज्यादा आसान हो गया है।

दरअसल मनुवादी समाज की स्थापना को आदर्श मानने वाले संघ परिवार के राजनैतिक प्रतिनिधि स्त्री के शक्तिकरण हेतु ठोस उपाय कैसे लागू करेंगे। वादों की मृगमरीचिकाओं में जनता को भटका जरूर सकते हैं। औरतों के संदर्भ में इनकी मूल दृष्टि पर गौर करें। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रमुख श्री गोलवलकर ने हिंदू स्त्री को पारिवारिक संपत्ति में बराबर का हिस्सा देने वाले कानून का विरोध किया था।भाजपा महिला मोर्चा की पूर्व अध्यक्ष विजयराजे सिंधिया ने सती निरोधक कानून का विरोध करते हुए कहा था,’हिंदू स्त्री को सती होने का बुनियादी अधिकार है चूंकि इससे हमारी गौरवमयी परंपरा और संस्कृति संरक्षित होती है। भाजपा महिला मोर्चा की एक अन्य पूर्व अध्यक्ष व वर्तमान में केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष श्रीमती मृदला सिन्हा ने 1993 में      ‘द टेलिग्राफ’ से साक्षात्कार में निम्नलिखित बातें कहीं थीं।जिस जिम्मेदार पद पर आज वे आसीन हैं उसके मद्देनजर स्त्री-कल्याण के भाजपाई रवैये का अंदाज लगाया जा सकता है। मृदुला सिन्हा के शब्दों मेँ

  • स्त्री को घर के बाहर कार्य नहीं करना चाहिए।परिवार अत्यंत गरीब हो तब ही वह घर के बाहर काम पर जाए।
  • स्त्रियों पर घरेलु हिंसा में क्या बुराई है?अक्सर इन मामलों में स्त्री की ही गलती होती है।
  • मैं स्त्री मुक्ति की विरोधी हूं क्योंकि स्त्री मुक्ति अनैतिकता का दूसरा नाम है।
  • मैंने दहेज दिया था और दहेज प्राप्त भी किया था।
  • स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का हम विरोध करते हैं।

भाजपा के पूर्व अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे ने एक उपचुनाव के दौरान सभी दलों द्वारा 3 से 7 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों की संख्या के बारे में पूछे जाने पर कहा कि महिलाएं सही ढंग से चुनाव तभी लड़ सकती हैं जब सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो।कोई भी दल प्रतिनिधि बनाने का हुआ नहीं खेलना चाहता।स्पष्ट है कि राजनैतिक आरक्षण के बिना औरतें ज्यादा संख्या में सत्ता की गलियों में नहीं पहुंचेंगी।नजमा हेपतुल्ला या सुषमा स्वराज जैसी इक्की-दुक्की ‘टोकेन’,दिखाने भर के लिए प्रतिनिधि ही बनेंगी,जिसमें सत्ता चाहे किसी पार्टी की हो नियम कानून पुरुषसत्तात्मक समाज बनायेगा।

आज जब गुजरात दंगों की आग में,सांप्रदायिकता के ईंधन से दावानल सा धधक रहा है तब महिलाओं का राजनैतिक सशक्तिकरण (आरक्षण) सामाजिक परिवर्तन बलात करने के लिए एकमात्र कारगर औजार के रूप में दिखता है।महिलाएं ऐसा कानून बनाएंगी कि जिस राज्य में तीन दिन से अधिक दंगे चलेंगे वहाम संविधान की एक नयी धारा सृजित धारा के अंतर्गत राज्य के प्रशासन को पंगु मानते हुए सरकार को बरखास्त किया जाएगा और पहले चरण में राष्ट्रपति शासन होगा तथा तथा छः महीने के भीतर विधानसभा चुनाव कराए जाएंगे। राज्य शासन की अकर्मण्यता पर जनता अपना निर्णय व्यक्त कर देगी जैसे कि उत्तर प्रदेश के भाजपा-गठबंधन की सरकार पर हालिया चुनाव ने प्रश्न खड़े किए हैं।इस चुनाव परिणाम से उपजी हताशा भाजपा के आनुषंगिक संगठनों को मंदिर निर्माण की मांग को तेज करने व बलवा फैलाने की तरफ मोड़ा है।

लूनावाड़ा (गुजरात) की अनाम बहन !यह सब तथ्य,यह विश्लेषण तुम्हारा खून से सना दुखी व लाचार चेहरा देख कर तुम जैसी दुखी बहनों के लिए संदेश है। माना कि आज तुम्हारे परिवार,पड़ोसी,साथी,किसी को भी बचाने में गुजरात की सरकार या हम देशवासी नाकामयाब रहे।मगर तुम्हें इस दरिंदगी भरी जिंदगी से हमें उबारना ही होगा।उबारना ही होगा अपने देश को,समाज को अपने बच्चों के लिएजो जन्म ले चुके हैं वे भी जो अजन्मे हैं उनके लिए भी।

गोधरा से लेकर लूनावाड़ा तक,नेल्लि (असम) से लेकर दिल्ली तक सियासी खेल औरतों की इज्जत लूट कर ही खेले जाते हैं।रघुवीर सहाय ने ठीक ही कहा है कि ‘ औरत की देह ही उसका देश है।इसी से वह गढ़ती भी है-इसीसे वह बांटी भी जाती है जाति,धर्म,वर्ग,देश व संस्कृति के कटघरों में।

हमको अपनी बंटी हुई जिंदगियों,बंटे हुए अहसासात को महसूस कर एकजुटता बनानी होगी-ताकि हम लड़ सकें।उन हालात से जो हमें तोड़ते हैं और हमारे देश को भी।

डॉ स्वाति,संयोजक ,नारी एकता  IMG-20200623-WA0043

संयोजक,

 

नारी एकता

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[ वरिष्ट अधिवक्ता एवं लोकप्रिय चिट्ठेकार दिनेशराय द्विवेदी ने कल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक नि:संतान हिन्दू विधवा द्वारा अर्जित सम्पत्ति पर विवाह के तीन माह बाद गुजर गये पति के वारिसों का हक मुकर्रर करने के फैसले का विवरण अपने चिट्ठे पर दिया था । दिनेशजी ने उक्त पोस्ट में फैसले की बारीकियों को अत्यन्त सरल ढंग से हिन्दी ब्लॉगजगत के पाठकों के समक्ष रखा , जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं । हमारे देश में प्रचलित विभिन्न धर्मों के निजी कानूनों में स्त्री को अशक्त बनाये रखने के लिए नाना प्रकार के प्रावधान किए गए हैं । देश के संविधान निर्माताओं की मंशा के अनुरूप समान नागरिक संहिता लागू करने की हर ईमानदार कोशिश को निजी कानूनों के स्त्री विरोधी स्वरूप को बदल कर सफल बनाया जा सकता है । समाजवादी जनपरिषद द्वारा १६ नवम्बर १९९६ को दिल्ली में इस विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई थी । दल की तत्कालीन राष्ट्रीय सचिव तथा उक्त संगोष्ठी की संयोजक डॉ. स्वाति ने उक्त विषय पर यह परचा प्रस्तुत किया था । विषय के विभिन्न पहलुओं पर गहराई से विचार करने में यह लेख सहायक होगा। – अफ़लातून ]

किसी भी देश के कानून उसके समाज के नियमों का सार या निचोड़ होते हैं । कानून परंपरा व सांस्कृतिक धारावाहिकता का व्यावहारिक रूप धर लेते हैं । इसीलिए आज बाल – विवाह व सती प्रथा के खिलाफ कानून है । यह जरूर गौरतलब है कि बाल विवाह ग्रामीण समाजों में अबाध रूप से होते रहे हैं , हो रहे हैं । दहेज विरोधी कानून होने के बावजूद धन , उपभोक्ता सामान , उपयोगी – अनुपयोगी वस्तुओं से वधु को लैस कर ससुराल भेजा जाता है ताकि उसे सहज स्वीकारा जाए । दहेज प्रथा को सामाजिक कलंक की जगह सामाजिक प्रतिष्ठा का मनदण्ड बना लिया गया है । राजाओं से उपजा यह विवाह का विधान हिंदू ही नहीं , मुसलमान व ईसाई समाज को प्रभावित कर रहा है । मुस्लिम समाज में भी दहेज के कारण बहुएँ जलाई तक जाने लगी हैं । कुप्रथाओं को जड़ जमाने में देर नहीं लगती ।

अँग्रेजों ने अपने राज के समय विभिन्न धर्मों के कानूनों को न छेड़ना ही लाभप्रद समझा था ताकि इनको हटाने से उपजे विद्रोह को झेलना न पड़े । अपराधों के खिलाफ़ तो एक सर्वमान्य भारतीय दंड संहिता थी और आज भी है । परंतु व्यक्तिगत मामलों में विभिन्न धर्मों के भिन्न निजी कानून (पर्सनल कोड ) थे । आज भी भिन्न भिन्न निजी कनून हैं । जीवन के जिन क्षेत्रों को वे प्रभावित करते हैं , वे हैं :

  1. संपत्ति का उत्तराधिकार , विरासत का हक़
  2. विवाह तथा विवाह-विच्छेद (तलाक )
  3. गोद लेने का हक़
  4. पुत्र व पुत्री के अभिवावकत्व (गार्जियनशिप ) का अधिकार
  5. परित्यक्ता व तलाकशुदा को गुजारा मिलने का हक़

कुछ हिंदूवादी लोगों व संस्थाओं के लगातार प्रचार से भारतीय समाज में यह धारणा आम है कि सिर्फ इस्लाम से जुड़े निजी कानून औरत के हक़ के खिलाफ़ हैं । इस धारणा को बल देने के लिए वे मुसलमानों में बहुपत्नी प्रथा ( पुरुष को चार शादियाँ करने का हक़ ) व जबानी तलाक़ या तलाके बिद्दत को उदाहरणार्थ पेश करते हैं । यह प्रचार भी होता है कि स्वाधीनता के बाद सभी धर्मों ने अपने – अपने धार्मिक कानून छोड़ दिए , विशेषत: हिंदुओं ने ने , जो उदारवादी हैं परंतु मुसलमान अपने कठमुल्लापन के कारण अपने निजी कानून को नहीं बदलने देते ।

वस्तुस्थिति कुछ और है

भारत के तीन प्रमुख धर्मों के निजी कानून हैं । इनके अलावा पारसी व पुर्तगाली सिविल कोड है । सिख , जैन , बौद्ध व आदिवासी अपने विवाह , विवाह-विच्छेद (छुटकारा) अपनी अपनी सामाजिक रीतियों के अनुसार करते हैं – मगर कानून इन्हें हिंदू ही माना गया है ।

सर्वप्रथम हिंदू धार्मिक कानूनों के बारे में चर्चा करें । संपत्ति के उत्तराधिकार के नियम हिंदू कोड में पुरुष सत्तात्मक समाज की प्रथा से बँधे हुए हैं । कहने को तो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में पुत्र – पुत्रियों को समान अधिकार प्राप्त है परंतु जिस प्रवर समिति ने यह अधिनियम बनाया था उसने पुराने कानून “मिताक्षर” को समाप्त करने की राय दी थी । परंतु तत्कालीन भारत सरकार भी शायद अँग्रेजों की तरह झंझटों से बचना चाहती थी इसलिए मिताक्षर सह-उत्तराधिकार प्रणाली को नहीं हटाया और अभी भी वह कानून में है । हिंदु संयुक्त परिवार प्रणाली की व्यवस्था है कि उत्तराधिकार का हक़ प्रत्यावर्तन द्वारा हो न कि महज संतान होने के हक़ से । और संयुक्त परिवार के सदस्य केवल पुरुष ही होंगे । इस प्रणाली में पुत्र जन्म से ही पिता की संपत्ति का वारिस बनता है व पुत्री पिता की मृत्यु के बाद ही । पुत्र-पुत्री में सही माने में बराबरी का हिस्सा नहीं बनता ।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ( 1956 ) की धारा 4(2) के मुताबिक जोत की जमीन का विभाजन रोकने के लिए अथवा जमीन की अधिकतम सीमा निर्धारण के लिए , पुत्री को जमीन की विरासत का अधिकार नहीं दिया गया । महिलाओं को काश्तकारी से वंचित किया गया । वे खेत में काम कर सकती हैं मगर उसकी मालिक नहीं बन सकती ।

विवाहोपरान्त पति की व्यक्तिगत संपत्ति का आधा हिस्सा अधिकारस्वरूप माँगने पर तर्क दिया जाता है कि पैतृक व पति की , दोनों संपत्ति का हक़ औरत को क्यों मिले ? सच्चाई यह है कि विशेष विवाह अधिनियम ( स्पेशल मैरेज एक्ट 1954 ) के अंतर्गत विवाह करने के बाद भी पुरुष उत्तराधिकार संबंधी नियमों में पुरानी धार्मिक प्रथाओंद्वारा बनी प्रणाली से उत्तराधिकार तय कर सकता है । उत्तराधिकार अधिनियम की धारा – 30 के अंतर्गत वह वसीयत द्वारा अपनी संपत्ति किसी के भी नाम लिख सकता है ।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा – 23 के अधीन यदि किसी स्त्री को एक मकान विरासत में मिला है और उसमें उसके पैतृक परिवार के सदस्य रह रहे हैं तो उसे उस मकान का बँटवारा करने का कोई अधिकार नहीं है । और कि वह स्वयं उसमें तब ही रह सकती है जब वह अविवाहित हो या तलाकशुदा । अगर कोई निस्संतान विधवा हिंदू स्त्री वसीयत किए बिना मरती है तो उसकी संपत्ति उसके पति के वारिसों को सौंप दी जाएगी । अपवाद स्वरूप अगर उसे कोई संपत्ति माता – पिता से मिली हो तो उपर्युक्त परिस्थिति में वह उसके पिता के वारिसों को मिलेगी । यह यदि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का न्याय नहीं है तो और क्या है ? हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956 ) के अलावा हिंदू विवाह अधिनियम (1955 ) , हिंदू दत्तक व भरण पोषण अधिनियम (1956) जैसे कानून महिलाओं के प्रति विषम दृष्टिकोण के ज्वलंत उदाहरणों से भरे हैं ।

( जारी )

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