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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी : अन्नपूर्णा महाराणा

हिन्दुस्तानकी स्त्रियाँ जिस अँधेरेमें डूबी हुई थीं , उसमें से सत्याग्रहके तरीकेने उन्हें अपने-आप बाहर निकाल लिया है ; और यह भी सच है कि दूसरे किसी तरीकेसे वे इतने कम समयमें , जिस पर विश्वास नहीं हो सकता , आगे न आ पातीं । फिर भी स्त्री-जातिकी सेवाके कामको मैंने रचनात्मक कार्यक्रममें जगह दी है , क्योंकि स्त्रियोंको पुरुषोंके साथ बराबरीके दरजेसे और अधिकारसे स्वराज्यकी लड़ाईमें शामिल करनेके लिए जो कुछ करना चाहिए , वह सब करनेकी बात अभी कांग्रेसवालोंके दिलमें बसी नहीं है । कांग्रेसवाले अभी तक यह नहीं समझ पाये हैं कि सेवाके धार्मिक काममें स्त्री ही पुरुषकी सच्ची सहायक और साथिन है । जिस रूढ़ि और कानूनके बनानेमें स्त्रीका कोई हाथ नहीं था और जिसके लिए सिर्फ़ पुरुष ही जिम्मेदार है , उस कानून और रूढ़िके जुल्मोंने स्त्रीको लगातार कुचला है । अहिंसाकी नींव पर रचे गये जीवनकी योजनामें जितना और जैसा अधिकार पुरुषको अपने भविष्यकी रचनाका है उतना और वैसा ही अधिकार स्त्रीको भी अपना भविष्य तय करनेका है । लेकिन अहिंसक समाजकी व्यवस्थामें जो अधिकार मिलते हैं ,  वे किसी न किसी कर्तव्य या धर्म के पालनसे प्राप्त होते हैं । इसलिए यह भी मानना चाहिएकि सामाजिक आचार-व्यवहारके नियम स्त्री और पुरुष दोनों आपसमें मिलकर और राजी-खुशी से तय करें । इन नियमों का पालन करनेके लिए बाहरकी किसी सत्ता या हुकूमतकी जबरदस्ती काम न देगी । स्त्रियोंके साथ अपने व्यवहार और बरतावमें पुरुषोंने इस सत्यको  पूरी तरह पहचाना नहीं है । स्त्रीको अपना मित्र या साथी मानने के बदले पुरुषने अपनेको उसका स्वामी माना है । कांग्रेसवालोंका यह खास हक है कि वे हिन्दुस्तानकी स्त्रियोंको उनकी इस गिरी हुई हालतसे हाथ पकड़कर ऊपर उठावें । पुराने जमानेका गुलाम यह नहीं जानता था कि उसे आजाद होना है , या कि वह आजाद हो सकता है । औरतों की हालत भी आज कुछ ऐसी ही है । जब उस गुलामको आजादी मिली , तो कुछ समय तक उसे ऐसा मालूम हुआ , मानो उसका सहारा ही जाता रहा । औरतोंको यह सिखाया गया है कि वे अपनेको पुरुषोंकी दासी समझें । इसलिए कांग्रेसवालोंका यह फर्ज है कि वे स्त्रियोंको उनकी मौलिक स्थितिका पूरा बोध करावें और उन्हें इस तरहकी तालीम दें,जिससे वे जीवनमें पुरुषके साथ बराबरीके दरजेके हाथ बँटाने लायक बनेण ।

एक बार मनका निश्चय हो जानेके बाद इस क्रान्तिका काम आसान है । इसलिए कांग्रेसवाले इसकी शुरुआत अपने घरसे करें । वे अपनी पत्नियोंको मन बहलानेकी गुड़िया या भोग-विलासका साधन माननेके बदले उनको सेवाके समान कार्यमें अपना सम्मान्य साथी समझें । इसके लिए जिन स्त्रियोंको स्कूल या कॉलेजकी शिक्षा नहीं मिली है , वे अपने पतियोंसे , जितना बन पड़े ,सीखें । जो बात पत्नियोंके लिए कही है, वही जरूरी हेरफेरके साथ माताओं और बेटियोंके लिए भी समझनी चाहिए।

यह कहनेकी जरूरत नहीं कि हिन्दुस्तानकी स्त्रियोंकी लाचारीका यह एकतरफ़ा चित्र ही मैंने यहाँ दिया है । मैं भली-भाँति जानता हूँ कि गाँवोंमें औरतें अपने मर्दोंके साथ बराबरीसे टक्कर लेती हैं ; कुछ मामलों में वे उनसे बढ़ी-चढ़ी हैं और उन पर हुकूमत भी चलाती हैं । लेकिन हमें बाहरसे देखनेवाला कोई भी तटस्थ आदमी यह कहेगा कि हमारे समूचे समाजमें कानून और रूढ़िकी रूसे औरतोंको जो दरजा मिला है ,उसमें कई खामियाँ हैं और उन्हें जड़मूलसे सुधारनेकी जरूरत है ।

– गांधीजी

[ रचनात्मक कार्यक्रम: उसका रहस्य और स्थान ,ले. गांधीजी,अनुवादक- काशिनाथ त्रिवेदी,पहली आवृत्ति १९४६ ]

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