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Posts Tagged ‘globalisation’

मार्क्स हों ,गांधी हों या लोहिया उनके बताये रस्ते पर चलते रहने के बजाए नई पगडंडिया बनाने वाला ही योग्य अनुगामी होता है। वह लकीर का फकीर नहीं होता , नए उसूल बताता है और उन पर चल कर दिखाता है। सुनील ने इन महापुरुषों के विचार ,सिद्धान्त और काम में नया जोड़ा। सुनील की बनाई पगडंडियों की आज चर्चा का दिन है। सुनील इन पगडंडियों पर चला भी इसलिए यह चर्चा आगे भी प्रासंगिक रहेगी।

केसला इलाके में पीने के पानी और सिंचाई के लिए छोटे बन्धों के लिए भौंरा बेतूल पैदल मार्च इलाके को रचनात्मक उर्जा देने वाला कार्यक्रम सिद्ध हुआ। इन बन्धों का प्रस्ताव मोतीलाल वोरा को किसान आदिवासी संगठन ने दिया।

आदिवासी गांव में नियुक्त मास्टर की मौजूदगी के लिए भी इस व्यवस्था में महीनों जेल जाना पड़ता है यह राजनारायण और सुनील ने बताया।

सुनील ने लम्बे चौड़े विधान सभा ,लोक सभा क्षेत्रों के बजाए व्यावाहारिक विकेन्द्रीकरण का मॉडल बताया जिनमें पंचायती व्यवस्था के वित्तीय-आर्थिक अधिकार का प्रावधान होता। पूंजीपतियों के भरोसे चलने वाले मुख्यधारा के दल ही इन बड़े चुनाव क्षेत्रों में सफल होते हैं।

जल,जंगल,जमीन के हक को स्थापित करने के लिए आदिवासी में स्वाभिमान जगाने के बाद और लगातार अस्तित्व के लिए संघर्ष करते करते सहकारिता की मिल्कियत का एक अनूठा मॉडल चला कर दिखाया।

संसदीय लोकतंत्र ,रचनात्मक काम और संघर्ष इनके प्रतीक ‘वोट,फावड़ा ,जेल’ का सूत्र लोहिया ने दिया।’वोट , फावड़ा,जेल’ के इन नये प्रयोगों के साथ-साथ सुनील ने इस सूत्र में दो नये तत्व जोड़े- संगठन और विचार । जीवन के हर क्षेत्र को प्रतिकूल दिशा में ले जाने वाली ‘प्रतिक्रांति’ वैश्वीकरण के षड़्यन्त्र को कदम-कदम पर बेनकाब करने का काम सुनील ने किया। ‘पूंजी के आदिम संचय’ के दौरान होने वाला प्रकृति का दोहन सिर्फ आदिम प्रक्रिया नहीं थी,सतत प्रक्रिया है। १९४३ में लिखे लोहिया के निबन्ध ‘अर्थशास्त्र , मार्क्स से आगे’। मार्क्स की शिष्या रोजा लक्सेमबर्ग की तरह लोहिया ने बताया कि पूंजीवाद को टिकाये रखने के लिए साम्राज्यवादी शोषण जरूरी है। समाजवादी मनीषी सच्चिदानन्द ने आन्तरिक उपनिवेशवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। सुनील ने इस सिद्धान्त को परिमार्जित करते हुए कहा कि  सिर्फ देश के अन्दर के पिछाड़े गये भौगोलिक इलाके ही नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था के खेती,छोटे उद्योग जैसे क्षेत्र भी आन्तरिक उपनिवेश हैं। खेती के शोषण से भी पूंजीवाद को ताकत मिलती है।

्सुनील

सुनील

भ्रष्टाचार और घोटालों से उदारीकरण की नीतियों का संबध है यह सुनील हर्षद मेहता के जमाने से सरल ढंग से समझाते आए थे। इस संबंध को पिछले दिनों चले ‘भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन’ ने पूरी तरह नजरअन्दाज किया था। बल्कि इस आन्दोलन के तमाम प्रणेता इसे सिर्फ नैतिकतावादी मुहिम के रूप में चला कर घोटालों से जुड़े कॉर्पोरेट घरानों और फिक्की जैसे उद्योगपतियों के समूहों को इस बात द्वारा आश्वस्त करते रहे कि आपको लाभ देने वाली नीतियों की चर्चा को हम अपनी मुहिम का हिस्सा नहीं बना रहे हैं ।

सुनील की बताई राह यथास्थितिवाद की राह नहीं है , बुनियादी बदलाव की राह है। सुनील के क्रांति के लिए समर्पित जीवन से हम ताकत और प्रेरणा पाते रहेंगे।

सुनील की स्मृति में कुछ चित्र

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1991 से भारत में जिस आर्थिक नीति को घोषित रूप से लागू किया गया है उसे द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामों से लेकर 1990 आते-आते सोवियत यूनियन के ध्वस्त होने जैसी घटनाओं के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादी शोषण के पुराने रूप पर एक हद का विराम लग गया। भारत समेत दुनिया के अनेक देश साम्राज्यवादी नियंत्रण से आजाद हो गये जिन पर पुराने तरह तक आर्थिक नियंत्रण असंभव हो गया। सोवियत यूनियन एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा और स्वयं यूरोप के बड़े भू-भाग पर इसका नियंत्रण काफी दिनों तक बना रहा। इसी पृष्ठभूमि में ब्रेटनवुड्स संस्थाएं – विश्व बैंक, अंर्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन – 2 जुलाई 1944 में अस्तित्व में आयीं, जिनका मूल उद्देश्य युद्ध से ध्वस्त हो चुकी पश्चिमी यूरोप और जापान की अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर लाकर एक हद तक संसार पर इनके वर्चस्व को फिर से स्थापित करना था।
पश्चिमी वर्चस्व को कायम रखने का यह प्रयास चल ही रहा था कि रूस और चीन में भारी आर्थिक बदलाव आये जिसने पश्चिमी ढ़ंग के औद्योगिक विकास के लिए एक संजीवनी का काम किया। चीन में कई उथल-पुथल, जैसे ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’, ‘बड़ा उछाल’ (ग्रेट लीप) आदि के बाद देंग द्वारा कम्युनिश्ट राजनीतिक सत्ता के तहत ही पूंजीवाद की ओर संक्रमण शुरू हुआ और रूस में, 1990 आते आते थोड़े ही समय में पूरी कम्युनिश्ट व्यवस्था धराशायी हो गयी।
सोवियत व्यवस्था के अंतर्विरोध
रूस के ऐसे अप्रत्याशित बदलाव के निहितार्थ को समझना जरूरी है। रूस ने अपने सामने वैसे ही औद्योगिक समाज के विकास का लक्ष्य रखा जैसा औद्योगिक क्रान्ति के बाद पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में विकसित हुआ था। दरअसल रूस ने तेजी से इस दिशा में अमेरिका से आगे निकलने का लक्ष्य अपने सामने रखा था। लेकिन आधुनिक उद्योगों के लिए पूंजी संचय की प्रक्रिया का समतामूलक समाज के लक्ष्य से इतना विरोध था कि इस व्यवस्था पर असह्य दबाव बना रहा। मजदूरों पर काम का बोझ बढ़ाने के लिए ‘पीस रेट’1 की असह्य (तथाकथित स्टैखनोवाइट) व्यवस्था लागू की जाने लगी। किसानों की जमीन को जबर्दस्ती सामूहिक फार्मों के लिए ले लिया गया और उन्हें एक नौकरशाही के तहत श्रमिक की तरह कठिन शर्तों पर काम करने को मजबूर किया गया। कृषि के अधिशेष (surplus) को उद्योगों के विकास के लिए लगाया जाने लगा। इससे उद्योगों के लिए तो पूंजी संचय तेज हुआ लेकिन चारों  ओर पार्टी और इससे जुड़ी नौकरशाही के खिलाफ इतना आक्रोश हुआ कि अंततः व्यवस्था धराशायी हो गयी। जो नतीजे हुए वे जग जाहिर है। इससे जो पूंजीवाद पैदा हुआ वह बहुत ही अस्वस्थ ढ़ंग का है। एक खास तरह की उद्यमिता और मितव्ययिता जो पूंजीपतियों के साथ पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में जुड़ी थीं उसका वहां अभाव था और सामूहिक संपत्ति की लूट और विशाल मात्रा में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन (जैसे प्राकृतिक गैस एवं दूसरे खनिजों) की खरीद फरोख्त से धनाढ्य बनने की होड़ लग गयी। इस क्रम में सोवियत काल की जो सामाजिक सुरक्षा आम लोगों को उपलब्ध थी वह छिन्न-भिन्न हो गयी। थोड़े से लोग अल्पकाल में ही धनाढ्य हो गये। फिर भी अपने प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर रूस एक बड़ी पूंजीवादी व्यवस्था के रूप में प्रभावी बना हुआ है। लेकिन आम लोगों का जीवन स्तर देश की विशाल संपदा के हिसाब से काफी नीचा है।
चीन के अंतर्विरोध
चीन में जो बदलाव आये हैं वे कुछ अचरज में डालने वाले लगते हैं। लेकिन गहराई से विचार करने पर साफ दिखाई देता है कि यह भी समतामूलक समाज के लक्ष्यों से आधुनिक ढंग के औद्योगीकरण के अंतरविरोध का ही नतीजा है। माओ ने शुरू में ऐसा सोचा था कि एक साम्यवादी समाज की स्थापना के लिए औद्योगिक विकास के अति उच्च स्तर पर पहुँचना जरूरी नहीं, जैसी कि मार्क्सवादियों की प्रारंभिक मान्यता थी। उसका ऐसा मानना था कि लोगों की चेतना और जीवन शैली में बदलाव से, ऊंचे औद्योगिक विकास के बिना भी, समतामूलक, साम्यवादी समाज बनाया जा सकता है। इसी सोच से सांस्कृतिक क्रांति के प्रयास हुए जिसमें लोगों की सोच को बदलने के लिए शहरी लोगों को ग्रामीण अंचलों में कृषि से जुड़े कामों को करने को बाध्य किया गया। सामूहिक जीवन के लिए सभी स्तर पर कम्युनों की स्थापना की जाने लगी। पर माओ के इस सपने के बिखरने के दो कारण थे। एक तो जिस कम्युन पद्धति को वह लागू करना चाहता था, वह स्वतः स्फूर्त रूप से नीचे से विकसित नहीं हो रही थी बल्कि ऊपर से एक केन्द्रीय सत्ता के द्वारा लागू की जा रही थी, जिसके पीछे वहां की सैन्य शक्ति थी। इस तरह यह एक सहयोगी व्यवस्था को केन्द्रीकृत पार्टी नौकरशाही के दबाव में विकसित करने का प्रयास था। इससे पैदा संस्थागत अवरोध के खिलाफ छात्रों और युवाजनों की शक्ति को उभारने का प्रयास किया गया, जिससे जगह-जगह संघर्ष होने लगे और सैन्य शक्ति से ही स्थिति को नियंत्रित किया गया। दूसरा, माओ नेे ‘बैकयार्ड स्टील मिल’ की बात जरूर की लेकिन यह छोटे और घरेलू उद्योगों के आदर्श को लागू करने के लिए नहीं हुआ। इसे तत्कालिक मजबूरी से ज्यादा नहीं माना गया। भारी सैन्यबल के विकास और इसके लिए जरूरी अत्याधुनिक उद्योगों के विकास का लक्ष्य कभी भी नहीं छोडा गया। अंततः अति विकसित उद्योगों की महत्वाकंाक्षा ने छोटे उद्योगों और स्वशासी कम्युनों की कल्पना को रौंद दिया और माओ के जाते-जाते अत्याधुनिक उद्योगों पर आश्रित सैन्यबल की महत्वाकांक्षा हावी हो गई। आधुनिक ढ़ंग की औद्योगिक व्यवस्था के विकास के लिए पूंजी संचय के वे सारे रास्ते अपनाना अपरिहार्य हो गया जिन्हें अन्यत्र अपनाया गया था। चीन में ‘‘मंडारिनों’’ (केन्द्रीकृत नौकरशाही) के तहत राज्य के उद्देश्यों के लिए आम लोगों की कई पीढि़यों की बलि देने की परंपरा दो हजार वर्षों से अधिक पुरानी है, जिसका गवाह चीन की दीवार है। इसलिए जब एक बार आधुनिक ढंग के औद्योगिक विकास का लक्ष्य अपनाया गया तो आम लोगों, विशेषकर ग्रामीण लोगों के हितों को नजरअंदाज किया जाने लगा। इसके लिए चीन के प्राकृतिक और मानव संसाधनों का अबाध शोषण शुरू हुआ और संसार भर के अत्याधुनिक पूंजीवादी प्रतिष्ठानों को आमंत्रित कर इस विकास में लगाया गया। विशेष सुविधाओं से युक्त ‘‘स्पेशल इकाॅनोमिक जोन’’ SEZ का जाल बिछ गया। पूंजीवाद के विकास से जुड़ा औपनिवेशक शोषण का यह आंतरिक और आत्यांतिक रूप बन गया है।
प्राथमिक पूंजी संचय प्राथमिक नहीं, निरंतर
मार्क्स ने औद्योगिक क्रान्ति के लिए आवश्यक ‘प्राथमिक पूंजी संचय’ 2 को किसानों के क्रूर विस्थापन और श्रमिकों के घोर शोषण से जोड़ा था। उसने यह मान लिया था कि इसके बाद स्थापित उद्योगों में मजदूरों के शोषण से प्राप्त अधिशेष के आधार पर पूंजी का विस्तार होता रहेगा। श्रमिकों और पंूजीपतियों का संघर्ष श्रम के अधिशेष के अनुपात को लेकर होगा जो पूंजीपतियों के मुनाफे का आधार है। लेकिन समग्रता में परिणाम सुखदायी होगा क्योंकि अंततः इससे एक नयी सभ्यता का विस्तार होता रहेगा। इनमें रूकावट श्रम से जुडे अधिशेष को हासिल करने और इससे जुड़े समय-समय पर आने वाले व्यापार के संकटों (ट्रेड साइकिल) से आएगी। रोजा लक्जमबर्ग जैसी मार्क्सवादी चिन्तकों ने भी इस व्यवस्था का मूल संकट अधिशेष जनित पण्यों के बाजार से ही जोड़ा था। स्वयं धरती के संसाधनों के सिकुड़न के संकट पर किसी का ध्यान नहीं गया था।
अब तस्वीर ज्यादा जटिल और भयावह है। औद्योगिक विकास शून्य में नहीं होता और सकल उत्पाद में श्रम निर्गुण या अदेह रूप में संचित नहीं होता बल्कि अन्न, जल और अनगिनत जैविक पदार्थो के परिवर्तन और परिवर्धन से उपयोग की वस्तुओं के अंसख्य रूपों में संचित होता है। यह प्रक्रिया पूरी धरती को संसाधन के रूप में जज्ब कर असंख्य उपयोग की वस्तुओं के रूप में बदलने की प्रक्रिया होती है।

प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों का असीमित दोहन
इस क्रम में धरती के सारे तत्व जैविक प्रक्रिया से बाहर हो जीवन के लिए अनुपलब्ध बनते जाते हैं – जैसे ईंट, सीमेंट, लोहा या प्लास्टिक, जिन्हें मनुष्य से लेकर जीवाणु तक कोई भी जज्ब नहीं कर सकता। इस सारी प्रक्रिया केा धरती पर जीवन या स्वयं धरती की मौत के रूप में देखा जा सकता है। क्योंकि यह किसी भी जैविक प्रक्रिया के लिए अनुपयोगी बन जायेगी। ध्यान देने की बात है कि पूंजी संचय और इस पर आधारित औद्योगिक विकास की प्रक्रिया सिर्फ प्राथमिक स्तर पर हीं नहीं बल्कि सतत् चलने वाली होती है और इसमें प्राकृतिक और मानव संसाधनों का दोहन हर स्तर पर चलता रहता है। यह संभव इसलिए होता है क्योंकि समाज में एक ऐसा वर्ग भी बना रहता है जो इस से लाभान्वित होता है – सिर्फ पूंजीपति ही नहीं बल्कि विस्तृत नौकरशाही, व्यवस्थापक और विनिमय करने वाला वर्ग भी जिसका जीवन स्तर इस विकास के साथ ऊंचा होता रहता है। यह समूह विकास का वाहक और पेरोकार बना रहता है क्योंकि इससे इसकी समृद्धि और उपभोग के दायरे का विस्तार होता रहता है। दूसरे इसका अनुकरण करते है। इससे अपनी पारी आने का भ्रम बना रहता है।
वैसे समूह जिनके आवास और पारंपरिक रूप से जीवन के आधार वैसे प्रदेश हैं जहां वन हैं, खनिज पदार्थ हैं और ऐसी जल धाराएं जिन्हें बिजली पैदा करने के लिए बांधों से नियंत्रित किया जा रहा है – विस्थापित हो इस उत्पादन पद्धति के पायदान पर डाल दिये जाते हैं। किसानों की उपज को सस्ते दाम पर लेने का प्रयास होता है ताकि इन पर आधारित औद्योगिक उत्पादों की कीमतें कम कर ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके। विशाल पैमाने पर होने वाले विस्थापन से श्रम बाजार में काम तलाशने वालों की भीड़ बनी रहती है जिससे श्रमिकों को कम से कम मजदूरी देना होता है। इस तरह देश के मजदूर और किसान लगातार गरीबी रेखा पर बने रहते हैं। अगर उपभोग की वस्तुओं की कीमतें बढ़ती है तो ये भूखमरी और कंगाली झेलते हैं। जो बड़ी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं हैं वे लगातार इस प्रयास में लगी रहती हैं कि सस्ते श्रम और संसाधनों के क्षेत्र में पंूजी का प्रवेश निर्बाध बना रहे। जैसे पानी बहकर एक स्तर पर फैल जाता है वैसे ही निर्धनता भी अपना स्तर ढूंढ़ते हुए व्यापक बनती जाती है। श्रमिकों के पलायन से संपन्न क्षेत्रों पर जनसंख्या का दबाव बढ़ना और फिर इससे वहां के मजदूरों के जीवन पर विपरीत प्रभाव और बाहरी श्रमिकों के खिलाफ आक्रोश इसका परिणाम होता है।
महंगाई का मूल कारण
ऊपर के संदर्भ में आज की महंगाई पर भी विचार करने की जरूरत है। महंगाई को आम तौर से आपूर्ति और मंाग से जोड़ा जाता है। यह बाजार के दैनन्दिन के अनुभवों पर आधारित है। लेकिन अब हम एक ऐसे मुकाम पर पहुंच चुके हैं कि आपूर्ति का संकट स्थायी और वैश्विक बन गया है। इसमें तत्कालिक रूप से कहीं मंदी और कीमतों में गिरावट भले ही दिखे, स्थायी रूप से महंगाई का दबाव वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बना रहेगा। इसका मूल कारण है हमारी सभ्यता और खासकर पूंजीवादी सभ्यता, जिसका मूल उद्देश्य अविरल मुनाफे के लिए ‘‘उपभोग’’ की वस्तुओं की विविधता और मात्रा का विस्तार करते जाना है। इनके पैमानों के उत्तरोत्तर विस्तार के साथ प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता पर उन्नीसवीं शताब्दी से ही दबाव बढ़ने लगा है, जबसे औद्योगिक क्रान्ति का असर दुनिया पर पड़ने लगा। इनसे अनेक आवश्यक खनिज जिनमें ऊर्जा के मूल स्त्रोत कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस एवं उत्पादन के ढांचे के लिए आधार तांबा, लोहा एवं अल्युमिनियम आदि के अयस्क इतनी तेजी से खतम होते जा रहे हैं कि इनकी उपलब्धता घटने लगी है और ये दिनों दिन महंगे होते जा रहे हैं। इससे पूरी अर्थव्यवस्था पर महंगाई का दबाव बनता है। बाहर की किन्हीं तात्कालिक स्थितियों या अचानक ऊर्जा के किसी स्त्रोत के सुलभ होने से कभी-कभी महंगाई से राहत भले ही मिल जाये, ऊपर वर्णित संसाधनों की आपूर्ति का मूल संकट सदा बना रहता है। इससे भी बढ़कर जीवन के लिए अपरिहार्य पेयजल, जो वनस्पति जगत से लेकर सभी जीव और मानव जीवन के लिए अपरिहार्य है, अपर्याप्त होता जा रहा है। इसके खत्म होने का कारण इसका बड़ी मात्रा में उपयोग ही नहीं बल्कि आधुनिक उद्योगों और औद्योगिक आबादियों के कचड़े एवं कृषि में विशाल मात्रा में इस्तेमाल किये जा रहे रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का जलश्रोतों और भूजल में घुलने से हो रहा प्रदूषण भी है। इनका प्रयोग अब जटिल रासायनिक प्रक्रिया से सफाई के बाद ही संभव होता है जिससे यह ये महंगे पण्य की श्रेणी में आ जाते हैं। इसका बोझ गरीब वर्गो के लिए असह्य हो जाता है जो न महंगे बोतलबन्द पानी खरीद सकते हैं न नगरों के भारी पानी के टैक्स का बोझ उठा सकते हैं। अन्न महंगा करने में ये सभी कारक शामिल हो जाते है।
मूल बीमारी औद्योगिक सभ्यता
संसार की बड़ी वित्तीय संस्थाएं इस कोशिश में रहती हैं कि पूंजी का प्रवाह बिना अवरोध के बना रहे और इससे औद्योगिक सभ्यता की मूल बीमारी धीरे-धीरे उन देशों और भू-भागों को भी ग्रसित करती है जो पहले इस औद्योगिक सभ्यता की चपेट में नहीं आये थे। जैसे-जैसे प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता घटती है दुनिया के तमाम लोगों पर अपने जल और जमीन को पूंजीवादी प्रतिष्ठानों के लिए खोलने का दबाव बढ़ता है। वैश्विक वित्तीय संस्थाओं के प्रावधानों का मूल उद्देश्य इसी प्रक्रिया की औपचारक मान्यता का उद्घोष है। इसलिए इस समस्या का निदान एक ऐसी विकेन्द्रित व्यवस्था ही हो सकता है जिसमें लोग स्थानीय संसाधनों के आधार पर सरल जीवन पद्धति अपनायें। यह व्यवस्था समतामूलक ही हो सकती है।

टिप्पणियां
1. ‘पीस रेट’ (Piece Rate) का मतलब है कि एक निश्चित मात्रा में काम करने पर ही निर्धारित मजदूरी दी जाएगी। मजदूरी देने के दो तरीके हो सकते हैं – एक, दिन के हिसाब से मजदूरी दी जाए (डेली वेज रेट) और दो, काम की मात्रा के हिसाब से मजदूरी दी जाए (पीस रेट)। दूसरे तरीके में मजदूरों का शोषण बढ़ जाता है। जो हट्टे-कट्टे जवान होते है, वे पैसे के लालच में अपने स्वास्थ्य की परवाह न करके एक दिन में ज्यादा काम करते है। जो थोड़ा कमजोर होते है, वे निर्धारित मात्रा में काम नहीं कर पाने के कारण एक दिन की मजदूरी भी नहीं पाते हैं। भारत में मनरेगा की बहुचर्चित योजना में पीस रेट का उपयोग करने के कारण मजदूरों का काफी शोषण हो रहा है। कई बार मजदूरो को एक दिन की मजदूरी 50-60 रू. ही मिल पाती है।
2. कार्ल मार्क्स ने ‘प्राथमिक पूंजी संचय’ (Primitive Accumulation of Capital)पूंजीवाद के प्रारंभ की उस प्रक्रिया को कहा था, जिसमें 16 वीं से 18 वीं सदी तक बड़े पैमाने पर इंग्लैण्ड के खेतों से किसानों को विस्थापित करके उन्हें ऊनी वस्त्र उद्योग की ऊन की जरूरत के लिए भेड़ों को पालने के लिए चरागाहों में बदला गया। इससे औद्योगीकरण में दो तरह से मदद मिली। एक, उद्योगांे को सस्ता कच्चा माल मिला। दो, विस्थापित किसानों से बेरोजगार मजदूरों की सुरक्षित फौज तैयार हुई और उद्योगों को सस्ते मजदूर मिले। सच्चिदानंद सिन्हा कहना चाहते हैं कि यह प्रक्रिया मार्क्स के बताए मुताबिक पूंजीवाद की महज प्राथमिक या प्रारंभिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि लगातार चलने वाली पूंजीवाद की अनिवार्य प्रक्रिया है।
3. ‘पण्य’ मार्क्स द्वारा इस्तेमाल की गई अवधारणा Commodity का अनुवाद है। इसका मतलब वे वस्तुएं है जिनकी बाजार में खरीद-फरोख्त होती है। जैसे पानी यदि मुफ्त में उपलब्ध है तो वह पण्य नहीं है। किंतु वह बोतलों में बंद होकर बिकने लगा है तो पण्य बन गया है।

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भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्वों में सरकार को यह निर्देश दिया गया था कि वह 14 वर्ष तक के सारे बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा देने की व्यवस्था 26 जनवरी 1960 तक करेगी। यदि इस तारीख के लगभग 50 वर्ष बीतने के बाद भी यह काम नहीं हो पाया है, तो उसके कारणों को खोजना होगा। क्या प्रस्तावित विधेयक उन कारणों को दूर करता है ? यही इस विधेयक को जांचने की मुख्य कसौटी होनी चाहिए।

इच्छाशक्ति की कमी –

सरकारों की ओर से अपने दायित्व-निर्वाह में इस चूक के लिए प्रमुख दलील दी जाती रही है कि भारत एक गरीब देश है और सरकार के पास संसाधनों की कमी रही है। किन्तु इस दलील को स्वीकार नहीं किया जा सकता। वे ही सरकारें फौज, हथियारों, हवाई अड्डों एवं हवाई जहाजों, फ्लाई-ओवरों, एशियाड और अब राष्ट्रमंडल खेलों पर विशाल खर्च कर रही है। दरअसल सवाल प्राथमिकता और राजनीतिक इच्छाशक्ति का है। देश के सारे बच्चों को शिक्षित करना कभी भी सरकार की प्राथमिकता में नही रहा है। यह भी माना जा सकता है कि भारत का शासक वर्ग नहीं चाहता था कि देश के सारे बच्चे भलीभांति शि्क्षित हों, क्योंकि वे शि्क्षित होकर बड़े लोगों के बच्चों से प्रतिस्पर्धा करने लगेगें और उनके एकाधिकार एवं विशेषाधिकारों को चुनौती मिलने लगेगी। अंग्रेजों के चले जाने के बाद अंग्रेजी का वर्चस्व भी इसीलिए बरकरार रखा गया।
देश के सारे बच्चों को शि्क्षित करने का काम कभी भी निजी स्कूलों के दम पर नहीं हो सकता। कारण साफ है। देश की जनता के एक हिस्से में निजी स्कूलों की फीस अदा करने की हैसियत नहीं है। भारत की सरकारों को ही इसकी जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को ही व्यापक, सुदृढ़ व सक्षम बनाना होगा। लेकिन पिछले दो दशकों में सरकारें ठीक उल्टी दिशा में चलती दिखाई देती है। यानि अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना, सरकारी शिक्षा व्यवस्था को जानबूझकर बिगाड़ना एवं वंचित करना तथा शिक्षा के निजीकरण एवं व्यवसायीकरण को बढ़ावा देना। इससे भी मालूम होता है कि सरकार की इच्छा इस दिशा में नहीं है।
यों पिछले कुछ वर्षों में देश में स्कूलों की संख्या काफी बढ़ी है। छोटे-छोटे गांवों एवं ढानों में भी स्कूल खुल गए हैं। स्कूल जाने लायक उम्र के बच्चों में 90 से 95 प्रतिशत के नाम स्कूलों में दर्ज  हो गए हैं, यह दावा भी किया जा रहा है। किन्तु इस द्र्ज संख्या में एक हिस्सा तो फर्जी या दिखावटी है। फिर जिन बच्चों के नाम पहली कक्षा में लिख जाते हैं, उनमें कई बीच में स्कूल छोड़ देते हैं और आधे भी कक्षा 8 में नहीं पहुंच पाते हैं। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। इस वर्ष मध्यप्रदेश में कक्षा 10वीं में केवल 35 प्रतिशत बच्चों का पास होना इस शिक्षा-व्यवस्था की दुर्गति का एक सूचक है।

सरकारी शिक्षा की बदहाली –

पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने स्वयं कई कदम उठाए हैं, जिनसे सरकारी शिक्षा की हालत बिगड़ी है :-
(1)    स्थायी, प्रशिक्षित शिक्षकों का कैडर समाप्त करके उनके स्थान पर पैरा-शिक्षकों (शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, अतिथि शिक्षक, शिक्षा सेवक, शिक्षा मित्र आदि) की नियुक्ति। पैरा-शिक्षक अप्रशिक्षित व अस्थायी होते हैं और उन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है।
(2)    कई प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षक ही नियुक्त करना तथा यह मान लेना कि एक शिक्षक एक समय में दो या तीन कक्षाओं को एक साथ पढ़ा सकता है।
(3)    माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक शालाओं में प्रत्येक विषय के शिक्षक न प्रदान करना। शिक्षकों के पद खाली रखना। प्रतिवर्ष पैरा-शिक्षकों की नियुक्ति के चक्कर में भी कई पद खाली रहते हैं।
(4)    शिक्षकों को गैर-शिक्षणीय कामों में लगाना तथा ये काम बढ़ाते जाना।
(5)    शालाओं के निरीक्षण की व्यवस्था को कमजोर या समाप्त करना।
(6)    शालाओं में पर्याप्त भवन, एवं अन्य जरुरी सुविधाएं न प्रदान करना।
शिक्षा का बंटवारा और दुष्चक्र –
सरकारी स्कूलों की हालत बिगड़ने का एक और कारण यह रहा है कि जैसे-जैसे कई तरह के निजी स्कूल खुलते गए, बड़े लोगों, पैसे वालों और प्रभावशाली परिवारों के बच्चे उनमें जाने लगे। सरकारी स्कूलों में सिर्फ गरीब बच्चे रह गए। इससे उनकी तरफ समाज व सरकार का ध्यान भी कम हो गया। यह एक तरह का दुष्चक्र है, जिसमें सरकारी शिक्षा व्यवस्था गहरे फंसती जा रही है। देश में समान स्कूल प्रणाली लाए बगैर इस दुष्चक्र को नहीं तोड़ा जा सकता। शिक्षा में समानता और शिक्षा के सर्वव्यापीकरण का गहरा संबंध है।
अफसोस की बात है कि संसद में पेश ‘बच्चों के मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार
विधेयक’ में इस दुष्चक्र को तोड़ने, सरकारी शिक्षा की दुर्गति को रोकने तथा शिक्षा के निजीकरण एवं बाजारीकरण को रोकने के पर्याप्त उपाय मौजूद नहीं है। वैसे सरसरी तौर पर यह विधेयक प्रगतिशील और भले उद्देश्य वाला दिखाई देता है। इसमें कुछ अच्छी बातें भी है। किन्तु यदि लक्ष्य देश के सारे बच्चों को शिक्षित करने का है, तो यह विधेयक अपर्याप्त व भ्रामक है। यही नहीं, यह भारत में शिक्षा में बढ़ते हुए भेदभाव, गैरबराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण व मुनाफाखोरी पर वैधानिकता का ठप्पा लगाने का काम करता है, जबकि जरुरत उन पर तत्काल रोक लगाने की है।
शिक्षा का बढ़ता हुआ बाजार वास्तव में बहुसंख्यक बच्चों को अच्छी शिक्षा से वंचित करने का काम करता है, क्योंकि वे इस बाजार की कीमतों को चुकाने में समर्थ नहीं होते। उनके लिए जो ‘मुफ्त’ सरकारी शिक्षा रह जाती है, वह लगातार घटिया, उपेक्षित, अभावग्रस्त होती जाती है। बाजार में सबसे खराब, सड़ा और फेंके जाने वाला माल ही मुफ्त मिल सकता है। दरअसल बाजार और अधिकार दोनों एक साथ नहीं चल सकते। यह अचरज की बात है कि शिक्षा के बाजारीकरण एवं व्यवसायीकरण पर रोक नहीं लगाने वाले इस विधेयक को कैसे ‘शिक्षा अधिकार विधेयक’ का नाम दिया गया है ?

विधेयक की प्रमुख कमियां –

इस विधेयक के बारे में निम्न बातें विशेष रुप से गौर करने लायक है –

स्कूलों में भेद

विधेयक के प्रारंभ में ही परिभाषाओं की धारा 2 (एन) में (स्कूल की परिभाषा में) मान लिया गया है कि चार तरह के स्कूल होगें – (1)    सरकारी स्कूल    (2)    अनुदान प्राप्त निजी स्कूल (3)    विशेष श्रेणी के स्कूल (केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय आदि) और (4)    अनुदान न पाने वाले निजी स्कूल। विधेयक के कई प्रावधान श्रेणी (2), (3) या (4) पर लागू नहीं होती है। शिक्षा के भेदभाव को इस तरह से मान्य एवं पुष्ट किया गया है।

25 प्रतिशत सीटें गरीबों को : बाकी का क्या ?

धारा 8(ए) और धारा 12 से स्पष्ट है कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा सिर्फ सरकारी स्कूलों में ही मिल सकेगी। श्रेणी (2),(3) एवं (4) के स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें कमजोर तबके के बच्चों को मिलेगीं, जिसके लिए सरकार श्रेणी (4) के स्कूलों को खर्च का भुगतान करेगी। सवाल है कि ऐसा क्यों ? कुछ बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ने का मौका मिले, कुछ को विशेष श्रेणी के स्कूलों में और कुछ को उपेक्षित घटिया सरकारी स्कूलों में ? क्या इससे सारे बच्चों को सही व उम्दा शिक्षा मिल सकेगी ?वर्तमान में देश में स्कूल जाने वाली उम्र के 19 करोड़ बच्चे हैं। उनमें से 4 करोड़ बच्चे मान्यताप्राप्त निजी स्कूलों में जाते हैं। यदि उनमें 25 प्रतिशत या 1 करोड़ अतिरिक्त गरीब बच्चों की भरती भी हो गई तो बाकी 14 करोड़ बच्चों की शिक्षा का क्या होगा ?

फीस पर कोई नियंत्रण नहीं

विधेयक की धारा 13 में केपिटेशन फीस और बच्चों की छंटाई का निषेध किया गया है। धारा 2(बी) की परिभाषा के मुताबिक केपिटेशन फीस वह भुगतान है, जो स्कूल द्वारा अधिसूचित फीस के अतिरिक्त हो। इसका मतलब है कि अधिसूचित करके चाहे जितनी फीस लेने का अधिकार निजी स्कूलों को होगा तथा उस पर कोई रोक या नियंत्रण इस विधेयक में नहीं है। निजी स्कूलों की मनमानी एवं लूट बढ़ती जाएगी। बिना रसीद के या अन्य छुपे तरीकों से केपिटेशन फीस लेना भी जारी रहेगा, जिसको साबित करना मुश्किल होगा। इसके लिए सजा भी बहुत कम (केपिटेशन फीस का 10गुना जुर्माना) रखी गई है।

पैरा शिक्षक की व्यवस्था जारी रहेगी

इस विधेयक में शिक्षकों की न्यूनतम योग्यता और वेतन-भत्ते तय करने की बात तो है
(धारा 23), किन्तु वह कितना होगा, यह सरकार पर छोड़ दिया है। इस बात की आशंका है कि पैरा-शिक्षकों के मौजूदा कम वेतन को ही निर्धारित किया जा सकता है। शिक्षकों का स्थायी कैडर बनाने को भी अनिवार्य नहीं किया गया है। ठेके पर या दैनिक मजदूरी पर भी शिक्षक लगाए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, इस विधेयक में पैरा-शिक्षक वाली बीमारी का इलाज नहीं किया गया है और उसे जारी रखने की गुंजाइश छोड़ी गई है।

अपर्याप्त मानदण्ड : एक शिक्षक, कई कक्षाएं

विधेयक की धारा 8 एवं 9 में अनिवार्य शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि सरकार गांव-मुहल्ले में स्कूल खोलेगी जिसमें अनुसूची में दिए गए मानदण्डों के मुताबिक संरचना व सुविधाएं प्रदान करेगी। धारा 19 एवं 25 में भी सारे स्कूलों के लिए अनुसूची के मुताबिक शिक्षक-छात्र अनुपात तथा अन्य सुविधाएं प्रदान करना जरुरी बनाया गया है। तभी स्कूलों को मान्यता मिलेगी।किन्तु इस अनुसूची में शिक्षकों और भवन के जो मानदण्ड दिए गए हैं, वे काफी कम एवं अपर्याप्त है। प्राथमिक शालाओं में बच्चों तक 30 बच्चों पर एक शिक्षक तथा 200 से ऊपर होने पर 40 बच्चों पर एक शिक्षक का अनुपात रखा गया है। प्रधान अध्यापक तभी जरुरी होगा, जब 150 से ऊपर बच्चे हों। इसका मतलब है कि बहुत सारी छोटी प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षक ही होंगे। वे पांच कक्षाओं को कैसे पढांएगे ? शाला भवन के मामले में भी प्रति शिक्षक एक कमरे का मानदण्ड रखा गया है।
देश के सारे बच्चों को शिक्षा देने के लिए जरुरी है कि छोटे-छोटे गांवो और ढ़ानों में भी स्कूल खोले जाएं और वहां कम से कम एक कक्षा के लिए एक शिक्षक हो। इन मानदण्डों से देश में 37 फीसदी प्राथमिक शालाएं दो शिक्षक-दो कमरे वाली, 17 फीसदी तीन शिक्षक-तीन कमरे वाली और 12 फीसदी शालाएं चार शिक्षक-चार कमरे वाली रह जाएगी। एक शिक्षक एक साथ दो या तीन कक्षाएं पढ़ाता रहेगा। यह शिक्षा के नाम पर देश के गरीब बच्चों के साथ मजाक होगा।
चाहे अधिक शिक्षक देने पड़े, चाहे बहुत छोटे गांवों में कक्षा 3 तक ही स्कूल रखा जाए, यह जरुरी है कि कम से कम 1 कक्षा पर 1 शिक्षक हो। क्या देश के गरीब बच्चों को इतना भी हक नहीं है कि उनकी एक कक्षा पर एक शिक्षक और एक कमरा उनको मिले ? यह कैसा शिक्षा अधिकार विधेयक है ? यह अधिकार देता है या छीनता है ?

शिक्षकों के गैर-शिक्षण काम

धारा 27 में शिक्षकों को गैर-शिक्षण कामों में न लगाने की बात करते हुए भी जनगणना, आपदा राहत और सभी प्रकार के चुनावों में उनको लगाने की छूट दे दी गई है। चूंकि सिर्फ सरकारी शिक्षकों को ही इन कामों में लगाया जाता है, इससे सरकारी बच्चों की शिक्षा ही प्रभावित होती है। यह गरीब बच्चों के साथ एक और भेदभाव व अन्याय होता है।

कक्षा 8 के बाद क्या ?

विधेयक की धारा 2(सी), 2(एफ) और 3(1) के मुताबिक 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को कक्षा 1 से 8 तक की मुफ्त एवं अनि्वार्य शिक्षा देने की बात कही गई है। सवाल यह है कि कक्षा 8 के बाद क्या होगा ? कक्षा 12 तक का अधिकार क्यों नहीं दिया जा रहा है ? आज कक्षा 12 की शिक्षा पूरी किए बगैर किसी भी प्रकार का रोजगार या उच्च शिक्षा हासिल नहीं की जा सकती है। इसी तरह पूर्व प्राथमिक शिक्षा को भी अधिकार के दायरे से बाहर कर दिया है। धारा 11 में इसे सरकारों की इच्छा व क्षमता पर छोड़ दिया गया है।

फेल नहीं, किन्तु पढ़ाई का क्या ?

विधेयक की धारा 16 में प्रावधान है कि किसी बच्चे को किसी कक्षा में फेल नहीं किया जाएगा और स्कूल से निकाला नहीं जाएगा। धारा 30(1) में कहा गया है कि कक्षा 8 से पहले कोई बोर्ड परीक्षा नहीं होगी। इसके पीछे सिद्धांत तो अच्छा है कि कमजोर बच्चों को नालायक घोषित करके तिरस्कृत करने के बजाय स्कूल उन पर विशेष ध्यान दे तथा उनकी प्रगति की जिम्मेदारी ले। यह भी कि बच्चों को अपनी-अपनी गति से पढ़ाई करने का मौका दिया जाए। किन्तु इस सिद्धांत को लागू करने के लिए यह जरुरी है कि सरकारी स्कूलों की बदहाली को दूर किया जाए, वहां बच्चों पर ध्यान देने के लिए पूरे व पर्याप्त शिक्षक हों तथा पढ़ाई ठीक से हो। नहीं तो विधेयक के इस प्रावधान के चलते सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की हालत और बिगड़ती चली जाएगी। इस सिद्धांत को लागू करने के लिए यह भी जरुरी है कि उच्च शिक्षा और रोजगार के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा का माहौल बदला जाए। विधेयक इस दिशा में भी कुछ नहीं करता है।

अंग्रेजी माध्यम की गुंजाईश

धारा 29(2)-(एफ) में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा बनाने के प्रावधान में ‘जहां तक व्यावहारिक हो’ वाक्यांश जोड़ दिया गया है। इससे देश में महंगे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की गुंजाईश छोड़ दी गई है। यह देश में भेदभाव का बड़ा जरिया बना रहेगा।

ट्यूशन पर रोक कैसे ?

धारा 28 में शिक्षकों द्वारा प्राईवेट ट्यूशन करने पर पाबंदी लगाकर अच्छा काम किया गया है। लेकिन इसे कैसे रोका जाएगा, कौन कार्यवाही करेगा और क्या सजा होगी, इसका कोई जिक्र नहीं है। ट्यूशन की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए शिक्षकों को पर्याप्त वेतन दिया जाना तथा उनका शोषण रोकना जरुरी है, किन्तु विधेयक ने यह सुनिश्चित करने की जरुरत नहीं समझी है। देश में तेजी से बढ़ते कोचिंग उद्योग को रोकने के कोई उपाय भी विधेयक में नहीं है।

निजी स्कूलों की निरंकुशता

अनुदान न लेने वाले निजी स्कूलों को ‘स्कूल प्रबंध समिति’ के प्रावधान (धारा 21 एवं 22) से बाहर रखा गया है। उनके प्रबंधन में अभिभावकों, जनप्रतिनिधियों, स्थानीय शासन संस्थाओं, कमजोर तबकों आदि का कोई दखल या प्रतिनिधित्व नहीं होगा। वे पूरी मनमानी करेगें और निरंकुश रहेंगे।

बुनियादी बदलाव की जगह कानून का झुनझुना

इस विधेयक से यह दिखाई देता है कि देश के साधारण बच्चों को अच्छी एवं साधनयुक्त शिक्षा उपलब्ध कराने का कार्यक्रम युद्धस्तर पर चलाने और वैसी नीति बनाने के बजाय सरकार एक अधूरा कानून बनाकर अपनी जिम्मेदारी टालना चाहती है। पिछले कुछ समय में सरकार ने कई ऐसे कानून (रोजगार गारंटी कानून, वन अधिकार कानून, असंगठित क्षेत्र कानून, घरेलू हिंसा कानून, सूचना का अधिकार कानून, प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून) बनाए हैं या बना रही है, जिनमें मौजूदा व्यवस्था  में बुनियादी बदलाव करने के बजाय कानूनों का झुनझुना आम जनता, एनजीओ आदि को पकड़ा दिया जाता है। क्या एक साधारण गरीब आदमी (जिसे शिक्षा के अधिकार की सबसे ज्यादा जरुरत है) अपने अधिकार को हासिल करने के लिए कचहरी-अदालत के चक्कर लगा सकता है ? इस कानून में तो उसे प्रांतीय स्तर पर राजधानियों में स्थित ‘बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ के पास जाना पडेगा। क्या यह उसके बूते की बात होगी ?

शिक्षा का मुक्त बाजार : महमोहन सिंह के नक्शे कदम पर

यह साफ है कि इस विधेयक से देश के साधारण बच्चों को उम्दा, साधनसंपन्न, संपूर्ण शिक्षा मिलने की कोई उम्मीद नहीं बनती है। सरकारी शिक्षा व्यवस्था का सुधार इससे नहीं होगा। देश में शिक्षा के बढ़ते निजीकरण, व्यवसायीकरण और बाजारीकरण पर रोक इससे नहीं लगेगी। नतीजतन शिक्षा में भेदभाव की जड़ें और मजबूत होगी। यदि हम पिछले दो दशकों में शिक्षा के बढ़ते बाजार को देखें तथा नए केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल की घोषणाओं को देखें (शिक्षा में निजी भागीदारी एवं पूंजी निवेश को बढ़ावा देना, निजी-सरकारी सहयोग, विदेशी शिक्षण संस्थाओं को प्रवेश देना, कॉलेज में प्रवेश के लिए अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा लेना आदि) तो मामला साफ हो जाता है। सरकार शिक्षा अधिकार कानून बनाने की रस्म-अदायगी करके देश में शिक्षा का मुक्त बाजार बनाना चाहती है। स्वयं श्री सिब्बल ने एक साक्षात्कार में कहा –
‘‘ डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 में अर्थव्यवस्था के लिए जो किया, मैं वह शिक्षा व्यवस्था के लिए करना चाहता हूं।’’ (द सण्डे इंडियन, 6-12 जुलाइZ 2009)
यह एक खतरनाक सोच व खतरनाक दिशा है। भारत के जनजीवन पर एक और हमला है। शिक्षा व स्वास्थ्य का बाजार एक विकृति है, मानव सभ्यता के नाम पर एक कलंक है। हमें समय रहते इसके प्रति सचेत होना पड़ेगा और इसका पूरी ताकत से विरोध करना होगा।

विकल्प क्या हो ?

यदि वास्तव में देश के सारे बच्चों को अच्छी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना है, तो सरकार को ऐसे कानून और ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिसमें निम्न बातें सुनिश्चित हों –
(1)    देश में समान स्कूल प्रणाली लागू हो, जिसमें एक जगह के सारे बच्चे अनिवार्य रुप से एक ही स्कूल में पढ़ेंगे।
(2)    शिक्षा के व्यवसायीकरण और शिक्षा में मुनाफाखोरी पर प्रतिबंध हो। जो निजी स्कूल फीस नहीं लेते हैं, परोपकार (न कि मुनाफे) के उद्देश्य से संचालित होते हैं, और समान स्कूल प्रणाली का हिस्सा बनने को तैयार हैं, उन्हें इजाजत दी जा सकती है।
(3)    देश में विदेशी शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश पर रोक लगे। हम विदेशों से ज्ञान, शोध, शिक्षण पद्धतियों और शिक्षकों-विद्यार्थियों का आदान-प्रदान एवं परस्पर सहयोग कर सकते हैं,किन्तु अपनी जमीन पर खड़े होकर।
(4)    शिक्षा में समस्त प्रकार के भेदभाव और गैरबराबरी समाप्त की जाए।
(5)    पूर्व प्राथमिक से लेकर कक्षा 12 तक की शिक्षा का पूरा ख्रर्च सरकार उठाए। स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक, भवन, शौचालय, पेयजल, खेल मैदान, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शिक्षण सामग्री, खेल सामग्री, उपकरण, छात्रावास, छात्रवृत्तियों आदि की पूरी व्यवस्था के लिए सरकार जरुरी संसाधन उपलब्ध कराए।
(6)    शिक्षकों को स्थायी नौकरी, पर्याप्त वेतन और प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाए। शिक्षकों से गैर-शिक्षणीय काम लेना बंद किया जाए। मध्यान्ह भोजन की जिम्मेदारी शिक्षकों को न देकर दूसरों को दी जाए। कर्तव्य-निर्वाह न करने वाले शिक्षकों पर कार्यवाही की जाए।¦
(7)    शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का वर्चस्व खतम किया जाए।
(8)    स्कूलों का प्रबंध स्थानीय स्वशासन संस्थाओं द्वारा और जनभागीदारी से किया जाए।
(9)    प्रतिस्पर्धा का गलाकाट एवं दमघोटूं माहौल समाप्त किया जाए। निजी कोचिंग संस्थाओं पर पाबंदी हो। प्रतिस्पर्धाओं के द्वारा विद्यार्थियों को छांटने के बजाय विभिन्न प्रकार की उच्च शिक्षा, प्रशिक्षण एवं रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराये जाएं।
(10)    शिक्षा को मानवीय, आनंददायक, संपूर्ण, सर्वांगीण, बहुमुखी, समानतापूर्ण, एवं संवेदनशील बनाने के लिए शिक्षण पद्धति और पाठ्यचर्या में आवश्यक बदलाव किए जाएं। बस्ते का बोझ कम किया जाए। किताबी एवं तोतारटन्त शिक्षा को बदलकर उसे ज्यादा व्यवहारिक, श्रम एवं कौशल प्रधान, जीवन से जुड़ा बनाया जाए। बच्चों के भीतर जिज्ञासा, तर्कशक्ति, विश्लेषणशक्ति और ज्ञानपिपासा जगाने का काम शिक्षा करे। बच्चों के अंदर छुपी विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं व क्षमताओं को पहचानकर उनके विकास का काम शिक्षा का हो। शिक्षा की जड़ें स्थानीय समाज, संस्कृति, देशज परंपराओं और स्थानीय परिस्थितियों में हो। शिक्षा को हानिकारक विदेशी प्रभावों एवं सांप्रदायिक आग्रहों से मुक्त किया जाए। संविधान के लक्ष्यों के मुताबिक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रकि भारत के प्रबुद्ध एवं जागरुक नागरिक तथा एक अच्छे इंसान का निर्माण का काम शिक्षा से हो।

(लेखक सुनील राष्ट्रीय अध्यक्ष, समाजवादी जन परिषद् हैं)
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दुनिया के सबसे अमीर लोगों में से एक लक्ष्मीनारायण मित्तल । इन्हें इस्पात-नरेश भी कहा जाता है । भारतीय मूल का होने के कारण उन पर कई मध्यम वर्गीय भारतीय फक्र करते हैं । शायद इन मध्यम वर्गीय नागरिकों से ज्यादा फक्र हमारी सरकारों को है – इन पर और इनके जैसे अनिवासियों पर । इन विभूतियों को पद्म भूषण , पद्म विभूषण जैसे अलंकरणों से नवाजा जाना भी शुरु हो चुका है ।

इस्पात और अल्युमिनियम जैसी धातुओं के अयस्क के खनन से लेकर निर्माण की प्रक्रिया में मित्तल और अनिल अग्रवाल ( वेदान्त समूह ) दुनिया के पैमाने पर चोटी के उद्योगपति हैं ।

हमारे देश में इन अयस्कों के निर्यात और तैयार धातु विदेशों से आयातित करने को देश विरोधी मूर्खता माना जाता रहा है । जिस मुल्क में कपास पैदा करवा कर मैनचेस्टर की मिलों को बतौर कच्चा माल दिया जाता रहा हो वहाँ आम आदमी इस दोहरी लूट की प्रक्रिया का अंदाज सहज ही लगा सकता है ।

आधुनिक अर्थशास्त्र के जनक माने जाने वाले मार्शल के छात्र प्रो. जे.सी. कुमारप्पा अयस्क निर्यात को गलत मानते थे । बहरहाल , अब ओड़िशा , झारखण्ड की बॉक्साइट (अल्युमिन्यम अयस्क) तथा लौह अयस्क खदानों से मनमाने ( अनियंत्रित ) तरीके से अयस्क निकालने और देश के बाहर भेजने के अनुबंध हो रहे हैं । बिना टोका-टाकी निर्यात के लिए पारादीप में एक नया बंदरगाह तक ऐसी एक कम्पनी पोस्कों (कोरियाई) का होगा ।

मेरी पिछली बोकारो यात्रा के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठित प्राधिकरण स्टील ऑथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया (सेल) के एक वरिष्ट अधिकारी से मित्तल , अग्रवाल , जिन्दल जैसों की व्यावसायिक करतूतों के बारे में सुन कर मैं हक्का-बक्का रह गया । अपने उन मित्र के प्रति हृदय से आभार प्रकट करते हुए मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ ।

सेल की इस्पात – जगत में बहुत अच्छी छाप है । इस प्राधिकरण से जुड़े इंजीनियर अत्यन्त योग्य , मेहनती और समर्पित माने जाते हैं । लक्ष्मीनारायण मित्तल के दुनिया भर में फैले इस्पात साम्राज्य के आधार स्तम्भ सेल के पूर्व अधिकारी हैं । भिलाई , राउरकेला , दुर्गापुर और बोकारो जैसी हमारी इस्पात नगरियों के होटल में मित्तल के ‘मछुआरे’ डेरा डालते हैं और सार्वजनिक क्षेत्र के हमारे सर्वाधिक अनुभवी और योग्यतम इंजीनियरों पर जाल फेंकते हैं । मित्तल की मेक्सिको , चेक्स्लोवाकिया और पोलैण्ड जैसी इकाइयां ही नहीं भारत में में उसकी कारगुजारियों की जिम्मेदारी भी सेल के पूर्व अधिकारियों को हाथों में है । मसलन उसके ‘ऑडिशा-ऑपरेशन्स’ की जिम्मेदारी राउरकेला स्टील प्लान्ट के पूर्व निदेशक देखते हैं । एक अनुमान के अनुसार सेल में एक्सिक्यूटिव डाइरेक्टर के स्तर के व उससे ऊपर के २५ फीसदी अधिकारी मित्तल के चंगुल में आ जाते हैं । भविष्य में सार्वजनिक क्षेत्र का यह पूरा प्राधिकरण मित्तल के हाथों में चला जाए तो चौंकिएगा नहीं । अलबत्ता , तब इन अधिकारियों से ऊपर बिकने को तैयार बैठे मन्त्री की भूमिका गौरतलब हो जाएगी ।

अल्युमिनियम/फौलाद की इंग्लैण्ड की विशाल कम्पनी वेदान्त/स्टरलाइट के मालिक अनिल अग्रवाल ओड़िशा के कई छोटे पहाड़ों को खा जाने का ठेका नवीन पटनायक से पा चुके हैं । अनिल अग्रवाल के पिता साठ के दशक में पटना में लोहे की सरिया बेचते थे । उदारीकरण के दौर में ही यह संभव है कि एक पीढ़ी में ही अचानक इतनी दौलत इकट्ठा हो जाए । कई बार सरकारों के छोटे से फैसले से अथवा किसी जालसाजी कदम से कोई व्यक्ति राजा से रंक बन जाता है। अम्बानी , सुब्रत राय , अमर सिंह इसके उदाहरण हैं । क्या ३० – ३५ साल पहले इनमें से कोई भी टॉप टेन पूँजीपतियों में था ? उ.प्र. के पूर्व मुख्य मन्त्री वीरबहादुर सिंह की इकट्ठा दौलत का प्रबन्धन देखते-देखते अमर सिंह उनके मरने पर अमीर हो गया और उसके बेटे सड़क पर आ गए , ऐसा माना जाता है । हमारे गाँवों का गरीब सूती कपड़े पहनता था । अमेरिका में टेरलीन / टेरीकॉट सूती से सस्ता है यह जान कर तब आश्चर्य होता था । कपड़ा नीति में फेरबदल से सूती कपड़ा उद्योग से जुड़े किसान बुनकर , श्रमिक संकट में आ गये । सूती कपड़ों की जगह सिंथेटिक कपड़े गरीबों के तन पर आ गए – इससे अम्बानी देश का सबसे बड़ा औद्योगिक समूह हो गया ।

लोहे की पटरियां भिलाई में बनती हैं । १०० मीटर की पटरियां बनाने की एक परियोजना वहां शुरु हो नी थी । १०० मीटर की पटरियों से फिश प्लेट , नट , बोल्ट आदि जोड़ने के पुर्जों की आवश्यकता कम हो जाएगी , यह मकसद था । भिलाई के तकालीन प्रबन्ध निदेशक ने इस परियोजना को जानबूझकर लटकाए रखा । जब पता चला का निजी क्षेत्र की जिन्दल- समूह भी १०० मीटर की पटरियां बना रहा है तब उक्त अधिकारी से जवाब तलब किया गया । महोदय , इस्तीफा दे कर एक महीने के भीतर उक्त निजी कम्पनी में शामिल हो गये ।

देश के लिए अनिवार्य केन्द्रित बड़े उद्योग सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र में होने चाहिए । इन कारखानों में ठेकेदारी-प्रथा आदि भ्रष्टाचार की जड़ों पर डॉ. लोहिया करते थे । इन्हें आधुनिक तीर्थ कहने वाले नेहरू इन आलोचनाओं से सबक लेने के बजाए कम्युनिस्टों से लोहिया को गाली दिलवाते – मानों उन तीर्थों के मन्दिरों में कोई विधर्मी घुस गया हो । मन्दी के मौजूदा दौर में फिर राष्ट्रीयकरण द्वारा मदद की नौबत आ गयी है – इस प्रक्रिया को कभी आगे समझने की कोशिश होगी ।

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