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कविता / तुम थे हमारे समय के राडार / राजेन्द्र राजन
Posted in globalisation, kishan patanayak, poem, politics, rajendra rajan, samajwadi janparishad, tagged राजेन्द्र राजन, सामयिक वार्ता, हिन्दी कविता, hindi, kishan pattanayak, rajendra rajan on सितम्बर 22, 2012| 2 Comments »
जनतंत्र का भविष्य / किशन पटनायक / साभार ’दूसरा शनिवार’(सितम्बर १९९७) : सम्पादक – राजकिशोर
Posted in corruption, globalisation , privatisation, politics, tagged किशन पटनायक, जनतंत्र, दूसरा शनिवार, पूंजीपतियों पर आश्रित, भ्रष्टाचार, राजनीति का खर्च, corruption, kishan pattanayak on जुलाई 17, 2011| 5 Comments »
[ करीब चौदह वर्ष पहले किशन पटनायक ने अपने मित्र राजकिशोर द्वारा सम्पादित पत्रिका ’दूसरा शनिवार’ (सितम्बर १९९७) में यह लेख लिखा था । यह पुराना लेख भविष्य की बाबत है इसलिए और ध्यान खींचता है । कई बातें इस दौर के लिए भी प्रासंगिक और नई हैं । लेख इन्टरनेट के लिहाज से लम्बा है। उम्मीद है पाठक धीरज न खोयेंगे । – अफ़लातून ]
सिर्फ भारत में नहीं , पूरे विश्व में जनतंत्र का भविष्य धूमिल है । १९५० के आसपास अधिकांश औपनिवेशिक मुल्क आजाद होने लगे । उनमें से कुछ ही देशों ने जनतंत्र को शासन प्रणाली के रूप में अपनाया । अभी भी दुनिया के ज्यादातर देशों में जनतंत्र स्थापित नहीं हो सका है । बढ़ते मध्य वर्ग की आकांक्षाओं के दबाव से कहीं – कहीं जनतंत्र की आंशिक बहाली हो जाती है । लेकिन कुल मिलाकर विकासशील देशों में जनतंत्र का अनुभव उत्साहवर्धक नहीं है । नागरिक आजादी की अपनी गरिमा होती है , लेकिन कोई भी विकासशील देश यह दावा नहीं कर सकता कि जनतंत्र के बल पर उसका राष्ट्र मजबूत या समृद्ध हुआ है या जनसाधारण की हालत सुधरी है ।
अगर भारत में जनतंत्र का खात्मा जल्द नहीं होने जा रहा है , तो इसका मुख्य कारण यह है कि पिछड़े और दलित समूहों की अकांक्षाएँ इसके साथ जुड़ गई हैं । अत: जनतंत्र का ढाँचा तो बना रहेगा , लेकिन जनतंत्र के अन्दर से फासीवादी तत्वों का जोर-शोर से उभार होगा । जयललिता , बाल ठाकरे और लालू प्रसाद पूर्वाभास हैं । अरुण गवली , अमर सिंह जैसे लोग दस्तक दे रहे हैं । अगर वीरप्पन कर्नाटक विधान सभा के लिए निर्वाचित हो जाता है तो इक्कीसवीं सदी के लिए आश्चर्य की बात नहीं होगी । यानी जनतंत्र जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा नहीं कर पा रहा है । अगर राजनीति की गति बदली नहीं , तो अगले दो दशकों में भारत के कई इलाकों में क्षेत्रीय तानाशाही या अराजकता जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होंगी ।
इसका मतलब यह नहीं कि जनतंत्र का कोई विकल्प है । अगर १९४७ या १९५० में हम एक जनतांत्रिक शासन प्रणाली नहीं अपनाते , तो देश की हालत इससे भी बुरी होती । गलती यह हुई कि हम अपने जनतंत्र को सही रूप और चरित्र नहीं दे पाये । भारत के इतिहास , भूगोल, समाज और अर्थनीति को समझते हुए भारत में जनतंत्र का जो मौलिक स्वरूप होना चाहिए था , उसका निरूपण आज तक नहीं हो पाया है । हमारे नेतृत्व का दिवालियापन और बौद्धिक वर्ग की वैचारिक गुलामी इसके लिए दायी हैं । १९४७ में उनके सामने सफ़ल जनतंत्र के दो नमूने थे और शासन व्यवस्था की एक औपनिवेशिक प्रणाली भारत में चल रही थी । इन तीनों को मिलाकर हमारे बौद्धिक वर्ग ने एक औपनिवेशिक जनतंत्र को विकसित किया है , जो जनतंत्र जरूर है , लेकिन अंदर से खोखला है । शुरु के दिनों में अन्य विकासशील देशों के लिए भारत की मार्गदर्शक भूमिका थी । जब भारत ही जनतंत्र का कोई मौलिक स्वरूप विकसित नहीं कर पाया , तो अन्य देशों के सामने कोई विकल्प नहीं रह गया ।
पिछले पचास साल में भारत तथा अन्य विकासशील देशों में जनतंत्र की क्या असफलताएँ उजागर हुई हैं , उनका अध्ययन करना और प्रतिकार ढूँढना – यह काम भारत के विश्वविद्यालयों ने बिलकुल नहीं किया है । शायद इसलिए कि पश्चिम के समाजशास्त्र ने इसमें कोई अगुआई नहीं की । पश्चिम से सारे आधुनिक ज्ञान का उद्गम और प्रसारण होता है लेकिन वहाँ के शास्त्र ने भी १९५० के बाद की दुनिया में जनतंत्र की असफलताओं का कोई गहरा या व्यापक अध्ययन नहीं किया है , जिससे समाधान की रोशनी मिले । पश्चिम की बौद्धिक क्षमता संभवत: समाप्त हो चुकी है ; फिर भी उसका वर्चस्व जारी है ।
१९५० के आसपास जिन देशों को आजादी मिली , उन समाजों में आर्थिक सम्पन्नता नहीं थी और शिक्षा की बहुत कमी थी । इसलिए इन देशों के जनतांत्रिक अधिकारों में यह बात शामिल करनी चाहिए थी कि प्रत्येक नागरिक के लिए आर्थिक सुरक्षा की गारंटी होगी और माध्यमिक स्तर तक सबको समान प्रकार की शिक्षा उपलब्ध होगी । अगर ये दो बुनियादी बातें भारतीय जनतंत्र की नींव में होतीं , तो भारत की विकास की योजनाओं की दिशा भी अलग हो जाती । जाति प्रथा , लिंग भेद , सांप्रदायिकता और क्षेत्रीय विषमता जैसी समस्याओं के प्रतिकार के लिए एक अनुकूल वातावरण पैदा हो जाता । लोग जनतंत्र का एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर सकते थे ।
हुआ है उलटा । सारे समाज विरोधी तत्व जनतंत्र का उपयोग अपने को शक्तिशाली बनाने के लिए कर रहे हैं । राजनीति पर उन्हींका अधिकार है । जनतंत्र एक व्यापक राजनीति के द्वारा संचालित होता है । इस राजनीति का चरित्र इतना भयावह होता गया है कि अच्छे लोगों के लिए राजनीति वर्जनीय मानी जा रही है । इसका तार्किक परिणाम है कि राजनीति पर अधिकारियों का अधिकार हो जायेगा । अगर विवेकशील लोगों का प्रवेश राजनीति में नहीं होगा तो भ्रष्ट लोगों का राजत्व अवश्य होगा । इस द्वन्द्व का समाधान कैसे होगा ? अच्छे लोग राजनीति में कैसे आयेंगे और वहाँ अच्छे बन कर रहेंगे , इसका कोई शास्त्र या विवेचन होना चाहिए । समाज अगर जनतंत्र चाहता है , तो समाज के ही कुछ तरीके होने चाहिए , जिससे अच्छे लोग राजनीति में आयेंगे और बने रहेंगे यह सिलसिला निरंतरतापूर्वक चालू रहेगा। अगर वैसा नहीं होता है , तो राजतंत्र क्यों बुरा था ? राजतंत्र को बुरा माना गया क्योंकि अच्छे राजा का बेटा अच्छा होगा इसका कोई निश्चय नहीं है । १५० साल के अनुभव से यह मालूम हो रहा है कि जनतंत्र में भी इसका निश्चय नहीं है कि एक बुरे शासक को हटा देने के बाद अगला शासक अच्छा होगा । अत: जनतंत्र को कारगर बनाने के लिए नया सोच जरूरी है । जनतंत्र के ढाँचे में ही बुनियादी परिवर्तन की जरूरत है ।
राजनैतिक दल और राजनैतिक कार्यकर्ता आधुनिक जनतंत्र के लिए न सिर्फ अनिवार्य हैं , बल्कि उनकी भूमिका जनतंत्र के संचालन में निर्णायक हो गई है । फिर भी हमारे संविधान में ऐसा कोई सूत्र नहीं है , जिसके तहत नेताओं और दलों पर संस्थागत निगरानी रखी जा सके । ब्रिटेन या अमेरिका में जनमत यानी संचार माध्यमों की निगरानी को पर्याप्त माना जा सकता है । लेकिन भारत जैसे मुल्क में यह पर्याप्त साबित नहीं हो रही । पश्चिम के जनतंत्र को जो भी सीमित सफलता मिली है , उसके पीछे वहां के जनसाधारण की आर्थिक संपन्नता और शिक्षा का व्यापक प्रसार भी है । इसके अतिरिक्त कई प्रकार की परंपराएं वहां विकसित हो चुकी हैं । उन देशों के लोगों को यह बात बुरी नहीं लगती कि सारे स्थापित राजनैतिक दल पूँजीपतियों पर आश्रित हैं । भारत या किसी भी गरीब मुल्क में यह बात बुरी लगेगी कि सारे राजनैतिक दल पूँजीपतियों के अनुदान पर आश्रित हैं ।
राजनीति का खर्च कहाँ से आयेगा ? राजनीति का खर्च बहुत बड़ा होता है , राजनेताओं यानी राजनैतिक कार्यकर्ताओं का अपना खर्च है , संगठन का खर्च है , चुनाव और आन्दोलनों का खर्च है । यह कल्पना बिलकुल गलत है कि अच्छे काम के लिए पर्याप्त पैसे मिल जाते हैं । राजनीति का अनुभव है कि बुरे काम के लिए पैसे मिल जाते हैं । अच्छी राजनीति के लिए जितना पैसा जनसाधारण से मिलता है , उतने से काम नहीं चलता है । अत: राजनीति के लिए कहाँ से पैसा आयेगा ,यह जनतंत्र का एक जटिल प्रश्न है और इसका एक सांविधानिक उत्तर होना चाहिए । अगर संविधान इसका उत्तर नहीं देगा , तो सारे के सारे राजनेता या तो पूँजीपतियों पर आश्रित होंगे या उनसे मिलकर भ्रष्टाचार को बढ़ायेंगे । कार्यकर्ता उनके पिछलग्गू हो जायेंगे । कार्यकर्ता का अपनी जीविका के लिए दल पर आश्रित रहना भी अच्छी बात नहीं है , क्योंकि वह दल का गुलाम हो जायेगा ।
( अगले भाग में समाप्य )
भ्रष्टाचार / तहलका से उठे सवाल (३) / राजनैतिक समूहों में सदाचार के आधार किशन पटनायक
Posted in corruption, kishan patanayak, tagged कम्युनिस्ट, किशन पटनायक, तहलका, दल, भ्रष्टाचार, communist parties, communist party, corruption, kishan pattanayak on मार्च 31, 2011| 2 Comments »
अंगरेजी पत्रकारिता और राजनैतिक चर्चा सदाचार को एक व्यक्तिगत गुण के रूप में समझती है । व्यक्ति का स्वभाव और संकल्प सार्वजनिक जीवन में सदाचार का एक स्रोत जरूर है , लेकिन राजनीतिक व्यक्तियों को सदाचार का प्रशिक्षण देकर या अच्छे स्वभाव के ’सज्जनों’ को राजनीति में लाकर सार्वजनिक जीवन में सदाचार की गारंटी नहीं दी जा सकती है । भारत की ही राजनीति में ऐसे सैकड़ों उदाहरण होंगे कि जो व्यक्ति सत्ता-राजनीति में प्रवेश के पहले बिलकुल सज्जन था , सत्ता प्राप्ति के बाद बेईमान या भ्रष्ट हो गया । सदाचार की एक संस्कृति और संरचना होती है । सदाचार का क्षेत्र समाज हो सकता है , राजनैतिक समुदाय हो सकता है ,या एक निर्दिष्ट राजनैतिक समूह यानी दल हो सकता है । प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार कितना होगा,किस प्रकार का होगा, यह उस क्षेत्र की भौतिक संरचना और संस्कृति के द्वारा निरूपित होता है ।
क्या इस वक्त भारत के राजनैतिक दलों में कोई दल ऐसा है जो अन्य दलों की तुलना में गुणात्मक रूप में कम भ्रष्ट है। और, यह अन्तर एक गुणात्मक अन्तर है । भारतीय कम्युनिस्टों को वैचारिक दिशाहीनता और संघर्ष न करने की निष्क्रियता तेजी से ग्रस रही है और वे पतनशील अवस्था में हैं । पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी नेताओं के भ्रष्टाचार के बारे में अभियोग बढ़ता जा रहा है । इसके बावजूद भ्रष्टाचार के मामले में उनमें और बाकी दलों में अभी गुणात्मक अन्तर है ।
राजनीतिक समूहों में सदाचार के तीन आधार होते हैं : १. आदर्शवादी लक्ष्यों से प्रेरित होकर समाज को बदलने – सुधारने के विचारों का सामूहिक रूप में अनुवर्ती होना ; २. समाज के शोषित-पीड़ित वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति की भावनाओं को वाणी और कर्म के स्तर पर एक संस्कृति के रूप में विकसित करना ; ३. समूह या दल के अन्दर समानता , भाईचारा और अनुशासन का होना । राजनीति में धन और सत्ता की प्रबलता होती है । इसीलिए संस्कृति-विहीन राजनीति में भ्रष्टाचार का तुरन्त प्रवेश हो जाता है । इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है , न इस कारण से राजनीति का तिरस्कार होना चाहिए । यह एक चुनौती है कि राजनीति को संस्कृतिनिष्ठ बनाकर सशक्त करें और धन तथा सत्ता का केन्द्रीकरण न होने दें । राजनीति अवश्यंभावी है ; उसको मानव-हित में लगाने के लिए आदर्शवादी विचारों , क्रांतिकारी भावनाओं और कठिन श्रम की संस्कृति के द्वारा उसे एक महान कर्म का दरजा प्रदान करें ।
अगर अंग्रेजी पत्रकार चाहता है कि राजनीति से क्रान्तिकारी विचारों की विदाई हो जाए , आदर्शवाद की खिल्ली उड़ाई जाए, धन का केन्द्रीकरण और भोग का प्रदर्शन बढ़ता जाए, राजनीति शोषितों के हित में नहीं बाजार के हित में संचालित हो और फिर भी वह उम्मीद करता है कि भ्रष्टाचार हटे तो उसकी सोच गम्भीर नहीं है ।
राजनैतिक दल तत्काल दो काम कर सकते हैं । मीडिया और जनमत का दबाव इस दिशा में बनना चाहिए ।आपराधिक रेकार्ड वाले व्यक्तियों को पार्टी का टिकट या पद देना सारे राजनैतिक दल बन्द कर दें । कम से कम विपक्षी दल अवश्य कर दें । जो तीसरा मंच बन रहा है वह इसके लिए तैयार हो जाए तब भी एक आचरण संहिता की शुरुआत हो सकती है ; एक राजनैतिक संस्कृति की शुरआत हो सकती है । उसी तरह से राजनेताओं और उनके दलोम के द्वारा जो धनसंग्रह होता है उसमें पारदर्शिता के नियम बनाये जा सकते हैं । यह काम विपक्षी राजनैतिक दल खुद अपने स्तर पर कर सकते हैं । अगर इतना भी करने के लिए वे तैयार नहीं हैं तो संसद कार्यवाही को ठपकर देने से क्या फायदा ? संसद को ठप करना एक उग्र कदम है और उसकी जरूरत होती है जब शासक दल जरूरी बहस को नहीं होने देता है । अगर उपर्युक्त आचरण संहिता पर बहस की माँग करते हुए विपक्षी दल संसद संसद में हल्ला करते तो शासक दल की नैतिक पराजय होती । अन्यथा एक दिन शासक दल ( भाजपा ) के नेता को घूस लेते हुए विडियो टेप में दिखाया जाएगा तो दूसरे दिन विपक्षी दल (कांग्रेसी ) के नेता को घूस लेते हुए दिखाया जाएगा । इस कुचक्र से देश की राजनीति का उद्धार करने का उपाय यह है कि एक राजनैतिक संस्कृति को विकसित करने की पहल कुछ प्रभावी लोग करें ।
केवल राजनीति को नहीं , समाज को भी सदाचार की जरूरत है । यह भावुकता का मुद्दा नहीं है ; यह मनुष्य के अस्तित्व का मुद्दा बनने जा रहा है ।
( सामयिक वार्ता , अप्रैल,२००१)
किशन पटनायक के भ्रष्टाचार पर कुछ अन्य लेख भी पढ़ें :
भ्रष्टाचार की बुनियाद कहां है ?
किशन पटनायक का लिखा अगला लेख : राजनीति में नैतिकता के सूत्र
भ्रष्टाचार / तहलका से उठे सवाल (२) (सेना में भ्रष्टाचार)/ किशन पटनायक
Posted in corruption, kishan patanayak, tagged किशन पटनायक, तहलका, भ्रष्टाचार, सेना भ्रष्टाचार, corruption, corruption army, kishan pattanayak, tehalka on मार्च 28, 2011| 3 Comments »
जनसत्ता और हिन्दुस्तान आदि में हिन्दी में कई लेख छपे हैं जिनमें नए प्रतिमानों को स्थापित करने की कोशिश है । एक लेख से यह साफ होता है कि तहलका के चलते हम जिस रक्षा मंत्रालय या रक्षा विभाग की बात बार-बार कर रहे हैं वह तो असल में हमारी सेना है । प्रतिरक्षा में भ्रष्टाचार न कहकर ’ हमारी भ्रष्ट सेना ’ कहने से असलियत ज्यादा सामने आती है । उच्च शिक्षित समूहों में कुछ लोग हमेशा कहते रहे हैं कि निर्वाचित राजनेताओं के हाथों से सत्ता लेकर सेना के अफसरों के हाथ सौंप देने से भ्रष्टाचार पर काबू हो जायेगा । तहलका उनको बता सकता है कि भ्रष्ट राजनेताओं से भ्रष्ट सेनापति बदतर होगा । हमारी सेना शुरु से अकुशल और भ्रष्ट रही है । भारतीय सेना से शायद ज्यादा भ्रष्ट शायद पाकिस्तान की सेना है । इस कारण पाकिस्तान से कभी कभी मुकाबला हो जाता है । किसी देश की सेना अपने से कम भ्रष्ट है तो उसके सामने सीमा छोड़कर भागने की शर्मनाक परम्परा भारतीय सेना की है । तहलका में दिखाये गये चेहरों से इसकी सत्यता पुष्ट होनी चाहिए । भविष्य के युद्ध में भारत की अखंडता को बनाये रखने के लिए हमारी सेना का कायापलट करना होगा – जो काम १९४७ में ही हो जाना चाहिए था । इस सेना को भ्रष्ट बनाने में हमारे नौकरशाहों और प्रधानमन्त्रियों का भी काफी योगदान है । भारत की दीर्घकालीन प्रतिरक्षानीति कभी बन नहीं पाई है । सेना कोई मशीन नहीं होती है । एक कुशल और देशरक्षक प्रतिरक्षानीति के न होने पर सेना कैसे अपना काम कर सकती है ? सेना के इन अफसरों को मंगल-तिलक लगाने के लिए जब भी सजी-धजी संभ्रान्त महिलाओं का झुंड खड़ा होता है तो एक भावनात्मक आभामंडल से सेना का चेहरा उज्जवल दिखाई पड़ने लगता है । लेकिन इस सेना के बारे में कुछ कठोर समीक्षाएं जरूरी हैं । भ्रष्टाचार सेना के अन्दर व्याप्त है , तहलका के बाद हम यह जोर देकर कह सकते हैं । यह पूछा जा सकता है कि क्या जो सेना भ्रष्टाचार में इतनी डूबी हुई है , वह कैसे एक उम्दा किस्म की सेना हो सकती है ? क्या वह राष्ट्र की अखंडता की रक्षा को एक पवित्र कार्य मानकर मर-मिटने को तैयार हो सकती है ?
सेना की राष्ट्रभक्ति को हम अस्वीकार नहीं कर सकते हैं , लेकिन यह राष्ट्रभक्ति बहुत गहरी नहीं है । अनुशासन की कमी के चलते यह राष्ट्रभक्ति दुर्बल तो होगी ही । अगर हमारा लक्ष्य एक महान राष्ट्र होना है और अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता के साथ समझौता नहीं होने देना है , तो तो जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है उन चुनौतियों के लिए यह सेना योग्य नहीं है – ऐसा सन्देह पैदा होना स्वाभाविक है और इस पर गम्भीर सोच-विचार होना चाहिए ।
एक दूसरा पहलू भी है – जब भी राष्ट्र के अन्दर के किसी क्षेत्र के लोग लम्बे समय तक विद्रोही बने रहते हैं और सीमावर्ती इलाका होने के नाते सेना की किसी टुकड़ी को उस क्षेत्र की शांतिव्यवस्था में विशेष जिम्मेदारी दी जाती है , तो वहाँ सेना का व्यवहार अपने नागरिकों के प्रति ऐसी हो जाता है , जैसा किसी शत्रु देश के नागरिकों के प्रति होता है । भारत के उत्तर-पूर्व इलाकों तथा कश्मीर में सैनिक तथा अर्धसैनिक बलों का जो रेकार्ड है वह बहुत गन्दा है । सामूहिक बलात्कार तक के आरोप लगते रहते हैं। इन विद्रोही इलाकों के प्रति सरकार की नीतियाँ भी इसके लिए जिम्मेदार हैं । लेकिन ऐसा भी कभी नहीं हुआ है कि सेना के अन्दर होनेवाली गन्दी वारदातों के प्रतिवाद में सेना के किसी अधिकारी ने इस्तीफा दिया हो या जोखिम उठाकर विरोध किया हो ।
एक तीसरा पहलू है , सेना के अन्दर की गैर-बराबरी । पाकिस्तान और भारत की सेना पर सामन्तवाद हावी है । भारत की तुलना में पाकिस्तान की शासक श्रेणी का सामन्ती चरित्र ज्यादा स्प्ष्ट है , लेकिन भारतीय सेना के अधिकारियों का भी अपने सामान्य सिपाही के प्रति रवैया सामन्ती है । उसके साथ घरेलू नौकर की तरह बरताव किया जाता है और उसकी जरूरतों का कोई ख्याल नहीं रखा जाता है । युद्धक्षेत्र में सेना के अधिकारियों को मिलनेवाला भोजन और आराम की सुविधाओं तथा सिपाहियों को मिलनेवाली सुविधाओं की अगर तुलना की जाएगी तो यह बात ज्यादा स्पष्ट होगी । हो सकता है कि सेना के अधिकारियों का यह सामन्ती चरित्र उनको भ्रष्टाचार के प्रति उन्मुख करता है ।
( जारी )आगे – रा्जनीतिक समूहों में सदाचार के आधार ।
किशन पटनायक के भ्रष्टाचार पर कुछ अन्य लेख :
भ्रष्टाचार की बुनियाद कहां है ?
भ्रष्टाचार/ तहलका से उठे सवाल (१) / किशन पटनायक
Posted in corruption, kishan patanayak, media, tagged किशन पटनायक, तहलका, बड़ा मीडिया, भ्रष्टाचार, big media, corruption, kishan pattanayak, tehalka on मार्च 27, 2011| 4 Comments »
बड़े मीडिया के अधिकांश अंग्रेजी स्तम्भ लेखकों के लेखों में चालाकी का भारी पुट रहता है । चालाकी एक प्रकार की बेईमानी है । आउटलुक (१० अप्रैल , २००१) में प्रेमशंकर झा तहलका से प्रकट हुए भ्रष्टाचार पर अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए जो लिखते हैं उसके पीछे उनका सामाजिक दर्शन भी छुपा हुआ है । सामाजिक दर्शन इस प्रकार है : समाज इसी तरह चलता रहेगा ; व्यक्ति-जीवन में भोग एकमात्र लक्ष्य है ; सामाजिक सन्दर्भ में उसको प्राप्त करने के लिए नैतिकता का पक्ष लेना पड़ेगा और भ्रष्टाचार की निन्दा करनी होगी ; क्योंकि समाज को चलाये रखना है ; अन्यथा नैतिकता कुछ होती नहीं है ।
प्रेमशंकर झा का कहना है कि बंगारु लक्ष्मण , जया जेटली और जार्ज फर्नांडीज चोर हैं । उनके निर्दोष होने की कल्पना करके और जार्ज को राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (राजग) के संयोजक के रूप में बरकरार रखकर प्रधानमन्त्री ने भारी गलती की है । जाँच के पहले इन राजनैतिक नेताओं को निर्दोष समझना और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर कदम नहीं उठाना भ्रष्टाचार से समझौता है ।
ये बातें सही हैं और भाजपा के सारे विरोधी भी यही बात कर रहे हैं । यह बात भी सही है कि जाँच से कुछ निकलता नहीं है और निकले भी तो मुकदमा चलाकर कभी किसी बड़े नौकरशाह या नेता को कठोर दंड देने की मिसाल स्मृति में नहीं आती है । हवाला कांड का क्या हुआ ? शेयर घोटाले का क्या हुआ ?
राजनैतिक नेताओं को नरक में ढकेलने के बाद प्रेमशंकर झा एक नौकरशाह को स्वर्ग में स्थापित करने के लिए अंगरेजी के चुने हुए शब्दों का इस्तेमाल करते हैं । वे इस आदमी का वर्णन ” भारत के सार्वजनिक संगठनों का योग्यतम नौकरशाह ” के रूप में करते हैं जिसको कुछ साल पहले ” अनावश्यक ही गर्मी के दिनों में सुविधाविहीन तिहाड़ जेल में रखा गया था , जबकि अदालत में वह निर्दोष पाया गया , क्योंकि पुलिस के पास प्रमाण नाम की चीज नहीं थी । ” वे उस घोटाले का नाम भी नहीं बताते है जिसके यह शख्स यानी बी. कृष्णमूर्ति प्रधान खलनायक थे । यह था उदारीकरण युग का पहला भ्यावह घोटाला , जिसके बारे में एक भारी-भरकम जाँच हुई और रिपोर्ट भी बढ़िया ढंग से तैयार हुई , लेकिन अन्त में किसी भी नामी आदमी को जेल में जीवन नहीं बिताना पड़ा । कारण , पुलिस के पास प्रमाण नहीं थे । एक तरफ जाँच के पहले एक अभियुक्त को प्रधानमन्त्री निर्दोष होने की मान्यता दे रहे हैं , दूसरी तरफ़ अदालत में अभियोग प्रमाणित न होने के कारण झा जीउस अभियुक्त को सर्वश्रेष्ठ नौकरशाह का खिताब दे रहे हैं और मुकदमे के पहले दिए गए दंड को बर्बरता कह रहे हैं । दोनों ही गलत प्रतिमान स्थापित कर रहे हैं । अंगरेजी का स्तंभ लेखक नौकरशाह का बचाव कर रहा है और प्रधान मन्त्री नेता तथा नौकरशाह दोनों का बचाव कर रहे हैं ।
गलत प्रतिमानों के चलते ही पिछले पचास सालों में भ्रष्टाचारी नेता और नौकरशाह दंड से बचे हुए हैं; वे सामाजिक प्रतिष्ठा भी पा रहे हैं । सीवान के शहाबुद्दीन प्रतिष्ठित हो रहे हैं। अगर अंग्रेजी पत्रकार की कसौटी को मान लें, तो यह कसौटी शाह्बुद्दीन के पक्ष में है । पुलिस अभी तक शहाबुद्दीन को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दंडित कराने में असफल रही है । किसी भी भाषा में शब्दों के चालाकी -भरे प्रयोग से तर्क की विसंगतियां छुप जाती हैं ; अंगरेजी में यह ज्यादा होता है ।
हिन्दी का पत्रका ज्यादा ईमानदारी से भारतीय समाज के कुछ प्रश्नों की दीवारों पर सर टकराता है । जनसत्ता के लेखक अरुण कुमार त्रिपाठी लिखते हैं कि मौजूदा राजनीति भ्रष्टाचार द्वारा कलंकित होने से अपने को बचाने में असमर्थ है । कारण , उसके पास बचाव के दो ही उपाय हैं : सबूत का अभाव और साजिश । ( भ्रष्ट कृष्णमूर्ति को बचाने के लिए प्रेमशंकर झा ने दोनों उपायों का इस्तेमाल किया है – साजिश के द्वारा उसको फँसाया गया और अदालत ने उसे दंडित नहीं किया )। अरुण कुमार त्रिपाठी ने लिखा है कि ऐसे कमजोर प्रतिमानों को चलाकर भ्रष्टाचार को रोका नहीं जा सकता , क्योंकि भ्रष्टाचार अपने में एक बीमारी नहीं है बल्कि एक बड़ी बीमारी का लक्षण मात्र है । इसी बड़ी बीमारी को बढ़ाने के लिए हिन्दी लेखक उदारीकरण को उत्तरदायी मानता है ।
उदारीकरण भ्रष्टाचार को शुरु नहीं करता है , लेकिन जब उदारीकरण के द्वारा समाज के सारे स्वास्थ्य-प्रदायक तन्तुओं को कमजोर कर दिया जाता तब भ्रष्टाचार न सिर्फ बढ़ता है बल्कि नियंत्रण के बाहर हो जाता है । भारत में उदारीकरण का यह चरण आ चुका है । जब अधिकांश नागरिकों के जीवन में भविष्य की अनिश्चितता आ जाती है , चन्द लोगों के लिए धनवृद्धि और खर्चवृद्धि की सीमा नहीं रह जाती , वर्गों और समूहों के बीच गैर-बराबरियाँ निरन्तर बढ़ती जाती हैं ,सार्वजनिक सम्पत्तियों को बेचने की छूट मिल जाती है , उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को देश के बाहर से निर्देश लेने होते हैं , जायज तरीकों से मिलनेवाली आय और नाजायज कमाई की मात्रा में आकाश-पाताल का अन्तर होता है , तब भ्रष्टाचार को रोकेगा कौन ?
पढ़ें , भ्रष्टाचार पर किशन पटनायक के कुछ अन्य लेख :
भ्रष्टाचार / असहाय सत्य (२) / किशन पटनायक
Posted in corruption, kishan patanayak, tagged असहाय सत्य, किशन पटनायक, भ्रष्टाचार, corruption, kishan pattanayak on मार्च 24, 2011| 4 Comments »
ऐसी स्थिति में बुराई का उद्घाटन या भ्रष्टाचार का भंडाफोड सिर्फ कुछ तथ्यों को दर्शाता है , जो सत्य है लेकिन असहाय सत्य है । जिस सत्य के साथ न्याय जुड़ता नहीं , वह कहने के लिए सत्य है । वह सिर्फ घटनाओं और आँकड़ों की सूची है , प्रतिभूति घोटाले पर मिर्धा समिति का प्रतिवेदन बहुत सारे प्रसंगों और आँकड़ों की सूची है । बोफोर्स कुछ नामों और रकमों की सूची है । चीनी घोटाला , सार्वजनिक उद्योगों के अंश(शेयर) बिक्री का घोटाला – सबके सब तथ्यों की फेहरिस्त हैं । इन तथ्यों को न्याय के ढाँचें में बाँधने की शक्ति भारतीय समाज खो चुका है ।
तथ्यों का उद्घाटन तो हर्षद मेहता भी करता है। प्रधानमन्त्री के बारे में उसने रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन किया था । कभी कोई पुलिस अफसर , कभी कोई प्रशासनिक अधिकारी अपने भीतर के सत्य को बाहर निकालने की हिम्मत जुटा लेता है । कुछ सत्य जो अपच हो रहा है , कुछ सत्य जो विवेक को परेशान कर रहा है , बाहर आ जाता है । बाहर आ जाने के बाद वह सत्य नहीं रह जाता है – तथ्यों और आँकड़ों के रूप में ग्रंथागारों के अन्दर छिप जाता है । थोड़े समय के लिए अखबार के पाठकों का मनोरंजन करता है।
अत: तथ्यों का उद्घाटन कोई महान कार्य नहीं है । खैरनार उस अनुपात में प्रशंसा के पात्र हैं जिस अनुपात में उन्होंने व्यक्तिगत जोखिम उठाया है – शरद पवार के विरुद्ध आरोप लगाना खतरनाक काम है । पता चला है कि खैरनार शुरु से ही एक ईमानदार अधिकारी रहे हैं । कभी सचमुच व्यवस्था बदलनी होगी , तो शेषन और खैरनार जैसे अधिकारियों की जरूरत पड़ेगी । लेकिन खैरनार एक महान व्यक्ति हैं या नहीं , इसका निर्णय अभी नहीं हो सकता है । क्या उन्होंने अपने समूचे सत्य को बाहर निकाला है ? तथ्यों को प्रकट करने के लिए सत्य को पहचानना भी पड़ता है । क्या सत्य कुछ बुराइयों के विवरण तक सीमित है ? देश की आज की स्थिति में सत्य नहीं है तो नहीं है , लेकिन कोई अगर उसको पकड़ने की कोशिश करेगा तो सत्य की आकृति इतनी बड़ी हो जाती है कि सत्य को स्थापित करनेवाला खुद सत्य के द्वारा कुचल दिया जाता है ।
टी.एन. चतुर्वेदी को लोग भूल चुके हैं। हालाँकि अभी वे जिस स्थान पर पहुँच गए हैं वहाँ से उनकी गतिविधियाँ ( अगर हों तो ) ज्यादा प्रसारित और प्रभावी होनी चाहिए । अभी वे एक महत्वपूर्ण राजनैतिक दल के सांसद हैं । नौकरशाही की भाषा में यह बहुत बड़ी ’ पदोन्नति ’ है। बोफोर्स से सम्बन्धित कुछ सरकारी तथ्यों को प्रकाशित कर उन्होंने उस घोटाले के बारे में रहस्यमय जानकारियाँ दी थीं । उससे उनको जो सार्वजनिक प्रशंसा और सम्मान मिला था , उसीके बल पर उन्होंने भाजपा से राज्यसभा का टिकट प्राप्त कर लिया । भाजपा के बारे में हमारी राय जो भी हो , क्या चतुर्वेदीजी अपने विवेक को सन्तुष्ट कर पाए हैं कि राज्यसभा और भाजपा के माध्यम से वे सत्य का अनुसन्धान कर रहे हैं ? या उनके अन्दर उतना ही सत्य था जितना उन्होंने महालेखा परीक्षक के रूप में उद्घाटित किया ।
घोटालों में से प्रत्येक हमारे राष्ट्र और समाज के विरुद्ध एक साजिश है । साजिश की घटनाओं का विवरण आ जाता है ; दोषी कौन है दिखाई पड़ जाता है , लेकिन इन साजिशों का दमन भारतीय व्यवस्था नहीं कर सकती है । संसद के अगस्त अधिवेशन में प्रतिभूति घोटाले को लेकर जो हुआ वह इस बात को पुष्ट करता है कि विपक्ष के नेता एक सीमा तक ही सत्य का पीछा कर सकते हैं उससे आगे नहीं । अब यह माना जा सकता है कि जो इस घोटाले के मुख्य अपराधी थे , जिन्होंने लगभग दस हजार करोड़ रुपये की लू्ट की और देश की वित्तीय व्यवस्था का मजाक उड़ाया , कभी भी दंडित नहीं होंगे । उनको दंडित करना मुख्य बात नहीं है, उनको दंडित न करने से हमारी अर्थव्यवस्था असुरक्षित हो गई है । अब कभी भी (जब तक माहौल यही है ) यह अर्थव्यवस्था सुधरनेवाली नहीं है ।
इसलिए तथ्यों का उद्घाटन कोई पवित्र कार्य नहीं है । राजनेता-प्रशासक-न्यायाधीश ऐसे-ऐसे कुकर्म कर रहे हैं जिनके उद्घाटन की जरूरत नहीं है – सबकी नजर के सामने कर रहे हैं और खुद अपना ’भंडाफोड’ कर रहे हैं । हत्याओं और बहुत सारी डकैतियों के अपराधी दुलारचन्द को बिहार के मुख्यमन्त्री ने सरकारी गाड़ी , बंगला और टेलीफोन देकर सामाजिक कार्यकर्ता घोषित किया है और एक ’जन अदालत’ चलाने की सलाह दी है । यही नहीं अपराधी स्वयं अपने अपराध को महिमामंडित कर उसे ” पुण्यकार्य ” बता रहे हैं । किसे यह बात याद आती है कि बीजू पटनायक ने यह दावा किया था कि अतीत में जब वे मुख्य मन्त्री थे , पारादीप बन्दरगाह के काम में तेजी लाने के लिए उन्होंने देहाती सड़कों पर सैंकड़ों ट्रक चलाने की अनुमति दी थी। फलस्वरूप दो सौ बच्चों की दुर्घटना जनित मृत्यु हुई थी । बीजू पटनायक ने गर्व से यह कहा था कि इन दुर्घटनाओं की प्राथमिक ( एफ.आई. आर.) दर्ज न करने के लिए पुलिस विभाग को निर्देश दिया गया था ।
यह एक असलियत बन रही है कि अपराधी खुद अपना भंडाफोड कर रहा है , बहादुरी बताने के लिए। राजनीतिशास्त्र से पूछा जा सकता है कि इस अवस्था में या इससे भी बदतर स्थिति होने पर लोकतंत्र कितना टिकाऊ होगा ?
हम अपने से इसी सवाल को दूसरे ढंग से पूछ सकते हैं : भारतीय समाज में न्यायशक्ति को पुन:स्थापित करने के लिए या मौजूदा राजनीति को बदलने के लिए क्या उपाय है ? सिर्फ राजनेताओं की निन्दा और विभिन्न तबकों की अपनी – अपनी मा~म्गों के आन्दोलनों तक सीमित रहने से क्या न्याशक्ति स्थापित की जा सकती है या राजनीति को बदला जा सकता है ? इसके लिए क्या उपाय है ?
(सामयिक वार्ता , जुलाई , १९९४)
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भ्रष्टाचार की बुनियाद कहाँ है ? (४) किशन पटनायक / राष्ट्रीय चरित्र,व्यक्ति आचरण,सांस्कृतिक आन्दोलन
Posted in corruption, kishan patanayak, tagged किशन पटनायक, भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय चरित्र, व्यक्ति चरित्र, borruption, cultural movement, kishan pattanayak, national character on मार्च 19, 2011| 4 Comments »
सार्वजनिक आचरण तथा निजी आचरण का एक राष्ट्रीय पैमाना होता है ( यहाँ राष्ट्र का अर्थ देश है – स्वाभाविक रूप से प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय का एक भौगोलिक-सांस्कृति-राजनीतिक अंचल होता है , वही देश है )। व्यक्ति आचरण का इस राष्ट्रीय चरित्र से दोतरफ़ा सम्बन्ध और संवाद होता है । आचरण की एक खास परिधि के भीतर व्यक्ति और राष्ट्र एक-दूसरे को प्रभावित तथा निर्मित करते रहते हैं । कुछ समाजों में यह राष्ट्रीय चरित्र बहुत ही कमजोर और पतनोन्मुख रहता है । प्रशासन , राजनीति तथा सामाजिक जीवन में बढ़ने वाला भ्रष्टाचार इसी का अंग है ।
सवाल उठता है कि राष्ट्रीय चरित्र को कैसे बदला जा सकता है ? क्या हम भारत के राष्ट्रीय चरित्र को बदलने की कोशिश कर सकते हैं , ताकि हमारा समाज स्वस्थ हो ?
शायद राष्ट्रीय चरित्र के पतन का कारण और उसके पुनरुत्थान का उपाय एक है । जिस समय समाज को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, खासकर बाहर से आई हुई चुनौतियों का । उस समय अगर समाज का नेतृत्व करनेवाला राजनीतिक-बौद्धिक समूह उनका सही मुकाबला नहीं कर पाता , तब राष्ट्रीय चरित्र में भारी गिरावट आती है । पुनुरुत्थान की कुंजी भी इसीमें है । लम्बे अरसे के पतन के बाद अगर किसी काल बिन्दु पर उस समाज ने चुनौतियों का , खासकर बाह्य चुनौतियों का , मुकाबला करना स्वीकार कर लिया , तब राष्ट्रीय चरित्र का पुनरुत्थान शुरु हो सकता है । बीसवीं सदी की शुरुआत में भारत में ऐसी प्रक्रिया शुरु हुई थी ।
अगर आज पुन: हम उस प्रक्रिया को जीवित और पुष्ट करना चाहें , तो कर सकते हैं । इसके लिए देश में एक नए बौद्धिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक समूह को पैदा होना होगा । राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक महत्वपूर्ण क्षेत्र में हस्तक्षेप करना पड़ेगा । राजनीति , अर्थनीति और धर्म के क्षेत्र में प्रभावी हस्तक्षेप के साथ साथ ही एक नया सांस्कृतिक आन्दोलन विश्वसनीय होगा । लेकिन सांस्कृतिक आन्दोलन का अपना एक मौलिक क्षेत्र है। सम्भवत: सांस्कृतिक मूल्यों को स्पष्ट और गतिशील किए बिना राजनीति और अर्थनीति में भी सार्थक हस्तक्षेप करना सम्भव नहीं होगा,क्योंकि प्रचलित राजनीति, अर्थनीति और धर्म प्रचलित सभ्यता के अंग बन चुके हैं । इस सभ्यता को चुनौती देना नए सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए अनिवार्य है । मनुष्य की संस्कृति मनुष्य के कुछ बुनियादी सम्बन्धों पर आधारित होती है – मनुष्य का प्रकृति से सम्बन्ध , मनुष्य का मनुष्य से सम्बन्ध और मनुष्य का समुदायों से सम्बन्ध । प्रचलित सभ्यता में ये सम्बन्ध विकृत या असन्तुलित हो चुके हैं । इस सभ्यता को आगे बढ़ाकर मनुष्य के सुख , शान्ति या स्वास्थ्य को बनाए रखना सम्भव नहीं रह गया है । इन सम्बन्धों को बदलने से ही नए मूल्यों की स्थापना होगी । नई संस्कृति इसी का परिणाम होगी।
इन सारे गहरे और व्यापक पहलुओं को छुए बगैर भ्रष्टाचार विरोधी अभियान बेमानी हो जाता है। भ्रष्टाचार का मुद्दा इसलिए उठाना चाहिए कि लोग इस मुद्दे को समझते हैं और इसके प्रति संवेदनशील होते हैं । लेकिन इस मुद्दे को निर्णायक बनाने के लिए भ्रष्टाचार की बुनियाद में जाना पड़ेगा ।
( सामयिक वार्ता , अक्टूबर ,१९९४)
आगे : भ्रष्टाचार – असहाय सत्य , लेखक किशन पटनायक
भ्रष्टाचार की बुनियाद कहाँ है ? (२)पेंशन , पटवारी, जवाबदेही / किशन पटनायक
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पिछला भाग – (प्रथम)
यह बात सभी को मालूम है ( जिसे मालूम नहीं है , वह सचेत नागरिक नहीं ) कि सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों को महीनों तक , सालों तक , कभी – कभी मरने तक पेंशन नहीं मिलती । ऐसी कोई प्रक्रिया या नियम अभी नहीं बना है कि सेवानिवृत्त होने एक महीने बाद से ही मासिक पेंशन मिलने लगे। साल-दो साल के अन्दर पेंशन मिल सके इसके लिए हजारों कर्मचारी प्रतिवर्ष घूस देते हैं । सेवानिवृत्त होने के एक महीने बाद अगर पेंशन मिलने लगेगी , तो बहुतों को लगेगा कि रामराज्य आ गया है । हमारे सामान्य नागरिक इस तरह की स्थितियों में जीते हैं कि कुछ मामूली परिवर्तनों से ही रामराज्य का एहसास दिलाया जा सकता है । कुछ प्रक्रियाओं में परिवर्तन कर न सिर्फ प्रति दिन होने वाली करोड़ों की घूसखोरी को रोका जा सकता है , बल्कि देश के किसानों को रामराज्य के दर्शन कराये जा सकते हैं । जमीन के हस्तांतरण तथा खरीद – बिक्री के नियमों का सरलीकरण इसके लिए जरूरी है । दूसरी जरूरत यह है कि सरकारी प्रशासन से किसानों का कृषि सम्बन्धी जितना काम पड़ता है , उसके लिए ’एक खिड़की’ की व्यवस्था कर दी जाए और यह खिड़की किसी भी गाँव से दस कि.मी. से ज्यादा दूर न हो । क्या ऐसा नियम नहीं हो सकता कि किसी जायज काम के लिए एक किसान को दो बार से ज्यादा सम्बन्धित दफ़्तर में न जाना पड़े ?
किताबों के अनुसार कचहरी (अदालत) लोकतंत्र में नागरिकों की आजादी का प्रतीक है । लेकिन गाँववालों के लिए कचहरी और पुलिस में कोई फर्क नहीं होता ।कचहरी वह है ,जिसके द्वारा पुलिस या पटवारी किसानों को सताता है । क्या यह समाजशास्त्रियों और राजनीतिशास्त्रियों के खोज का विषय नहीं है कि भारत के आम नागरिकों के लिए न्याय विभाग सुरक्षा का एक प्रतीक है या नहीं ? झूठे मामले में फँसना उतनी बड़ी यातना नहीं है जितनी सैंकड़ों बार कचहरी और वकील के यहाँ जाना और बार-बार कचहरी में घूस और वकील की फीस अदा करना ।किसानों से करोदओं रुपयों की लूट प्रति दिन इसी तरीके से होती है । अगर अधिकांश मामलों के निपटारे के लिए समय की सीमा बँध जाए और झूठे मामलों की छानबीन की कोई प्रक्रिया तय हो जाए , तो यह घूसखोरी और जलालत पचास फीसदी घट जाएगी ।
ये सब हैं जनता के स्तर पर होनेवाली घूसखोरी और भ्रष्टाचार । इस तरफ़ पालकीवाला या तारकुंडे जैसे महानुभावों का ध्यान नहीं जाता ।भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों में ज्यादातर शहरी लोग दिलचस्पी लेते हैं । इसीलिए उनमें भ्रष्टाचार की इस बुनियाद की समझ दिखाई नहीं पड़ती ।
यह सवाल उठ सकता है कि अगर इन प्रशासनिक व्यवस्थाओं तथा प्रक्रियाओं को बदलना इतना आसान है तो यह क्यों नहीं कर लिया जाता ? इसका उत्तर यह है कि इससे करोड़ों लोगों की आजादी बढ़ जाएगी । किसानों को अगर पुलिस और पटवारी के सामने झुकना नहीं पदएगा , शहर के वकीलों के मुकाबले अगर उनमें हीनभावना नहीं रहेगी , तो यह औपनिवेशिक व्यवस्था चलेगी कैसे ? अगर लोगों का जायज काम समय पर सही ढंग से होने लगेगा , तो उन्हें आजादी का जो बोध होगा , वह क्या उन बहुत सारे अन्यायों अत्याचारों के लिए बाधक नहीं हो जाएगा , जिन अन्यायों-अत्याचारों के सहारे भारत का शिक्षित समाज इतना आत्मसन्तुष्ट रहता है ?
प्रशासन के सुधार को हम इसलिए आसान मानते हैं कि इसके लिए संविधान या देश की आर्थिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन जरूरी नहीं होगा । सिर्फ औपनिवेशिक नियमों को बदलकर लोकतांत्रिक नियम प्रचलित करने होंगे । लेकिन अनुभव बतलाता है कि देश के उदारवादी नेता और बुद्धिजीवी इस सम्बन्ध में बिलकुल संवेदनशील नहीं हैं । इसीलिए यह मामूली परिवर्तन अब कठिन लगता है । इस कठिनाई को समझना चाहिए । ब्रिटिश राज में जो औपनिवेशिक प्रशासन था , नेहरू जी ने अगरुसी को बरकरार रखा , तो लोग मौके – मौके पर क्यों कहते हैं कि इससे तो अंग्रेजी राज बेहतर था ? एक अन्तर यह आ गया है ब्रिटिश राज में जवाबदेही तथा नियंत्रण का एक मजबूत केन्द्र था । कोई भी भारतीय कर्मचारी , अफसर या मजिस्ट्रेट अंग्रेज साहब से डरता था । इस डर के स्थान पर जवाबदेही का एक लोकतांत्रिक ढांचा बनाना जरूरी था , जो कभी नहीं बना । किसी भी प्रशासन के लिए जवाबदेही केन्द्रीय महत्व की चीज है , जो भारतीय प्रशासन में नदारद है । किसी गांव में पुल बना और चार महीने बाद टूट गया, तो इंजीनियर को दंडित किया जाएगा या नहीं ? कोई सेना बिना लड़े भागती जाएगी तोतो सेनापति को दंड मिलना चाहिए या नहीं ? कोई कंपनी लगातार घाटे में चलती है,तो मैनेजर से जवाबतलबी होनी चाहिए या नहीं ? अगर दिल्ली के बैंक में पतना का चेक जमा होता है और छह महीने बाद भी भुगतान नहीं होता है,तो किसी के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए या नहीं ? आजादी के बाद से इस जवाबदेही की तरफ राजनेता , प्रशासक , समाजशास्त्री किसी ने गम्भीरतापूर्वक ध्यान नहीं दिया है । फलस्वरूप लापरवाही और अराजकता की ऐसी आदतें बन गई हैं कि कोई भी इसे बदलना चाहेगा तो उसे बहुत सारे कठोर कदम काम करने होंगे । अगर कोई सरकार ये कठोर काम करने लगेगी,तो आई.ए.एस अफसर और वामपंथी ट्रेड यूनियन सबसे ज्यादा बाधा डालेंगे । फिर भी संकल्प के बल पर सुधार का काम शुरु हो सकता है, हमने देखा है कि कभी – कभी एक बदआ और ईमानदार अधिकारी अपने विभाग में व्यक्तिगत संकल्प के बल पर भ्रष्टाचार को रोकने में सफल भी होता है । लेकिन यह कोई कारगर उपाय नहीं ।
(जारी)
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गांधी , अम्बेडकर और मिट्टी की पट्टियाँ(६) : क्या ‘हरिजन’ शब्द शाश्वत रहे?
Posted in ambedkar, brahminism, gandhi, kishan patanayak, tagged ambedkar, dalit, gandhi, harijan, kishan pattanayak on अप्रैल 22, 2008| 12 Comments »
‘हरिजन’ शब्द शाश्वत रहे , यह गांधी जी नहीं चाहते थे । ‘अछूत’ शब्द के प्रति उनका विरोध था , इसीलिए वे यहाँ तक मानते थे कि ‘ स्वराज्य में दफ़ा १२४ राजद्रोह के लिए नहीं होगी , परन्तु हरिजनों को अछूत कहने वाले के विरुद्ध होगी।’ ( महादेवभाई की डायरी , खण्ड दो , पृ. १९४ )
हरिजन शब्द के प्रति अपने लगाव के बावजूद दलितों की इस शब्द के प्रति आपत्ति को वे तरजीह देते थे । मद्रास के शंकर नामक एक कार्यकर्ता ने वहाँ के दलितों के लिए हरिजन शब्द के बारे में आपत्ति की बाबत गांधी जी को लिखा कि वे हरिजन कैसे कहलाए ? हम तो हरजन हैं हरिजन नहीं । शंकर ने लिखा था ,इन लोगों को यदि हिन्दू कहें , तो इन्हें अच्छा लगेगा । आप इजाजत दीजिए ।’ उसे गांधी जी ने लिखा ,’ हरिजन नाम पर आपत्ति होने पर के लिए मुझ अफ़सोस होता है । तुम्हारे मित्रों को जो नाम पसन्द हो , वह इस्तेमाल कर सकते हो । मगर उन्हें यह समझाना कि मेरे मन में विष्णु य शिव का जरा भी ख्याल न था । मेरे लिए तो इसका अर्थ ‘भगवान का आदमी’ ही होता है । विष्णु , शिव या ब्रह्मा में मैं कोई भेद नहीं मानता । सभी ईश्वर के नाम हैं ।मगर इस मामले में उनके निर्णय पर अमल करना चाहिए ।’ ( वही , पृ. १३७ )
२९ अक्टूबर , १९३२ को एक बंगाली सज्जन का पत्र गांधी जी को मिला, ‘आप ‘हरिजन’ नाम देकर अछूतों का दूसरा नाम कायम करना चाहते हैं । इन्हें नाम देने की बात ही क्यों न छोड़ दी जाए ? उसके जवाब में गांधी जी ने लिखा- ‘हरिजन’ शब्द अछूत भाइयों को ध्यान में रखकर हमेशा के लिए इस्तेमाल करना हो , तो आपका ऐतराज ठीक है ।मगर अभी तो उन्हें अलग करके दिखलाए बिना काम नहीं चल सकता ।साथ ही मुझे यह लगता है कि ‘अछूत’ या उससे मिलते-जुलते देशी भाषाओं में काम में लिए जाने वाले दूसरे शब्द उनके लिए इस्तेमाल करना अब उचित नहीं है।’ ( वही, पृ. १५५ )
गांधी जी ने सवर्णों के लिए भी एक नाम दिया था । अहमदाबाद में सवर्णों की एक सभा में उनके भाषण में यह नाम आया है । ‘ मेरे लिए अछूत , यदि हम अपने से (सवर्णों से ) तुलना करें , तो हरिजन है – भगवान का आदमी और हम दुर्जन हैं ।अछूतों ने सारे श्रम करके , शोणित सुखाकर तथा अपने हाथ गंदे करके हमें आराम और सफाई से रहने की सुविधा दी है । —– यदि हम चाहें तो अब से भी खुद हरिजन बन सकते हैं , लेकिन इसके लिए हमें उनके प्रति किये गये पापों का प्रायश्चित करना पड़ेगा ।’ (महात्मा गांधी ,अहमदाबाद के सवर्णों को , यंग इण्डिया ,६ अगस्त ,१९३१,पृ. २०३ )
समतावादी नेता किशन पटनायक का ‘हरिजन बनाम दलित’ , नाम की इस बहस के सन्दर्भ में ठोश सुझाव है कि ‘हरिजन’ शब्द अछूतों के लिए था । जिस हद तक अछूत नहीं रह गये हैं उस हद तक हरिजन शब्द भी हटाना चाहिए और अगर प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से सवर्ण जातियाँ अस्पृश्यता को चलाए रखना चाहती हैं तो गांधी के द्वारा प्रयुक्त दूसरे शब्द का इतेमाल व्यापक होना चाहिए और सभी उच्च जातियों को दुर्जन जातियाँ कह कर पुकारना चाहिए ।—-‘दलित’ शब्द की विशेषता यह है कि स्वत: स्फूर्त ढंग से शिक्षित , सचेत हरिजन समूह इस शब्द के साथ जुड़ रहे हैं ।’ ( हरिजन बनाम दलित,सं राजकिशोर ) यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि इस वर्ग के बड़ी संख्या में साधारण ग्रामीण आज भी अपनी जाति का नाम न बता कर खुद को हरिजन कहते हैं । क्या इसका यह कारण है कि ग्रामीण समाज में अस्पृश्यता समाप्त नहीं हुई है और इस कारण गांधी जी द्वारा दिया गया नाम सवर्णों से बताने में एक तरह की सुरक्षा का भाव छिपा होता है ?