भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्वों में सरकार को यह निर्देश दिया गया था कि वह 14 वर्ष तक के सारे बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा देने की व्यवस्था 26 जनवरी 1960 तक करेगी। यदि इस तारीख के लगभग 50 वर्ष बीतने के बाद भी यह काम नहीं हो पाया है, तो उसके कारणों को खोजना होगा। क्या प्रस्तावित विधेयक उन कारणों को दूर करता है ? यही इस विधेयक को जांचने की मुख्य कसौटी होनी चाहिए।
इच्छाशक्ति की कमी –
सरकारों की ओर से अपने दायित्व-निर्वाह में इस चूक के लिए प्रमुख दलील दी जाती रही है कि भारत एक गरीब देश है और सरकार के पास संसाधनों की कमी रही है। किन्तु इस दलील को स्वीकार नहीं किया जा सकता। वे ही सरकारें फौज, हथियारों, हवाई अड्डों एवं हवाई जहाजों, फ्लाई-ओवरों, एशियाड और अब राष्ट्रमंडल खेलों पर विशाल खर्च कर रही है। दरअसल सवाल प्राथमिकता और राजनीतिक इच्छाशक्ति का है। देश के सारे बच्चों को शिक्षित करना कभी भी सरकार की प्राथमिकता में नही रहा है। यह भी माना जा सकता है कि भारत का शासक वर्ग नहीं चाहता था कि देश के सारे बच्चे भलीभांति शि्क्षित हों, क्योंकि वे शि्क्षित होकर बड़े लोगों के बच्चों से प्रतिस्पर्धा करने लगेगें और उनके एकाधिकार एवं विशेषाधिकारों को चुनौती मिलने लगेगी। अंग्रेजों के चले जाने के बाद अंग्रेजी का वर्चस्व भी इसीलिए बरकरार रखा गया।
देश के सारे बच्चों को शि्क्षित करने का काम कभी भी निजी स्कूलों के दम पर नहीं हो सकता। कारण साफ है। देश की जनता के एक हिस्से में निजी स्कूलों की फीस अदा करने की हैसियत नहीं है। भारत की सरकारों को ही इसकी जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को ही व्यापक, सुदृढ़ व सक्षम बनाना होगा। लेकिन पिछले दो दशकों में सरकारें ठीक उल्टी दिशा में चलती दिखाई देती है। यानि अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना, सरकारी शिक्षा व्यवस्था को जानबूझकर बिगाड़ना एवं वंचित करना तथा शिक्षा के निजीकरण एवं व्यवसायीकरण को बढ़ावा देना। इससे भी मालूम होता है कि सरकार की इच्छा इस दिशा में नहीं है।
यों पिछले कुछ वर्षों में देश में स्कूलों की संख्या काफी बढ़ी है। छोटे-छोटे गांवों एवं ढानों में भी स्कूल खुल गए हैं। स्कूल जाने लायक उम्र के बच्चों में 90 से 95 प्रतिशत के नाम स्कूलों में दर्ज हो गए हैं, यह दावा भी किया जा रहा है। किन्तु इस द्र्ज संख्या में एक हिस्सा तो फर्जी या दिखावटी है। फिर जिन बच्चों के नाम पहली कक्षा में लिख जाते हैं, उनमें कई बीच में स्कूल छोड़ देते हैं और आधे भी कक्षा 8 में नहीं पहुंच पाते हैं। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। इस वर्ष मध्यप्रदेश में कक्षा 10वीं में केवल 35 प्रतिशत बच्चों का पास होना इस शिक्षा-व्यवस्था की दुर्गति का एक सूचक है।
सरकारी शिक्षा की बदहाली –
पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने स्वयं कई कदम उठाए हैं, जिनसे सरकारी शिक्षा की हालत बिगड़ी है :-
(1) स्थायी, प्रशिक्षित शिक्षकों का कैडर समाप्त करके उनके स्थान पर पैरा-शिक्षकों (शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, अतिथि शिक्षक, शिक्षा सेवक, शिक्षा मित्र आदि) की नियुक्ति। पैरा-शिक्षक अप्रशिक्षित व अस्थायी होते हैं और उन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है।
(2) कई प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षक ही नियुक्त करना तथा यह मान लेना कि एक शिक्षक एक समय में दो या तीन कक्षाओं को एक साथ पढ़ा सकता है।
(3) माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक शालाओं में प्रत्येक विषय के शिक्षक न प्रदान करना। शिक्षकों के पद खाली रखना। प्रतिवर्ष पैरा-शिक्षकों की नियुक्ति के चक्कर में भी कई पद खाली रहते हैं।
(4) शिक्षकों को गैर-शिक्षणीय कामों में लगाना तथा ये काम बढ़ाते जाना।
(5) शालाओं के निरीक्षण की व्यवस्था को कमजोर या समाप्त करना।
(6) शालाओं में पर्याप्त भवन, एवं अन्य जरुरी सुविधाएं न प्रदान करना।
शिक्षा का बंटवारा और दुष्चक्र –
सरकारी स्कूलों की हालत बिगड़ने का एक और कारण यह रहा है कि जैसे-जैसे कई तरह के निजी स्कूल खुलते गए, बड़े लोगों, पैसे वालों और प्रभावशाली परिवारों के बच्चे उनमें जाने लगे। सरकारी स्कूलों में सिर्फ गरीब बच्चे रह गए। इससे उनकी तरफ समाज व सरकार का ध्यान भी कम हो गया। यह एक तरह का दुष्चक्र है, जिसमें सरकारी शिक्षा व्यवस्था गहरे फंसती जा रही है। देश में समान स्कूल प्रणाली लाए बगैर इस दुष्चक्र को नहीं तोड़ा जा सकता। शिक्षा में समानता और शिक्षा के सर्वव्यापीकरण का गहरा संबंध है।
अफसोस की बात है कि संसद में पेश ‘बच्चों के मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार
विधेयक’ में इस दुष्चक्र को तोड़ने, सरकारी शिक्षा की दुर्गति को रोकने तथा शिक्षा के निजीकरण एवं बाजारीकरण को रोकने के पर्याप्त उपाय मौजूद नहीं है। वैसे सरसरी तौर पर यह विधेयक प्रगतिशील और भले उद्देश्य वाला दिखाई देता है। इसमें कुछ अच्छी बातें भी है। किन्तु यदि लक्ष्य देश के सारे बच्चों को शिक्षित करने का है, तो यह विधेयक अपर्याप्त व भ्रामक है। यही नहीं, यह भारत में शिक्षा में बढ़ते हुए भेदभाव, गैरबराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण व मुनाफाखोरी पर वैधानिकता का ठप्पा लगाने का काम करता है, जबकि जरुरत उन पर तत्काल रोक लगाने की है।
शिक्षा का बढ़ता हुआ बाजार वास्तव में बहुसंख्यक बच्चों को अच्छी शिक्षा से वंचित करने का काम करता है, क्योंकि वे इस बाजार की कीमतों को चुकाने में समर्थ नहीं होते। उनके लिए जो ‘मुफ्त’ सरकारी शिक्षा रह जाती है, वह लगातार घटिया, उपेक्षित, अभावग्रस्त होती जाती है। बाजार में सबसे खराब, सड़ा और फेंके जाने वाला माल ही मुफ्त मिल सकता है। दरअसल बाजार और अधिकार दोनों एक साथ नहीं चल सकते। यह अचरज की बात है कि शिक्षा के बाजारीकरण एवं व्यवसायीकरण पर रोक नहीं लगाने वाले इस विधेयक को कैसे ‘शिक्षा अधिकार विधेयक’ का नाम दिया गया है ?
विधेयक की प्रमुख कमियां –
इस विधेयक के बारे में निम्न बातें विशेष रुप से गौर करने लायक है –
स्कूलों में भेद
विधेयक के प्रारंभ में ही परिभाषाओं की धारा 2 (एन) में (स्कूल की परिभाषा में) मान लिया गया है कि चार तरह के स्कूल होगें – (1) सरकारी स्कूल (2) अनुदान प्राप्त निजी स्कूल (3) विशेष श्रेणी के स्कूल (केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय आदि) और (4) अनुदान न पाने वाले निजी स्कूल। विधेयक के कई प्रावधान श्रेणी (2), (3) या (4) पर लागू नहीं होती है। शिक्षा के भेदभाव को इस तरह से मान्य एवं पुष्ट किया गया है।
25 प्रतिशत सीटें गरीबों को : बाकी का क्या ?
धारा 8(ए) और धारा 12 से स्पष्ट है कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा सिर्फ सरकारी स्कूलों में ही मिल सकेगी। श्रेणी (2),(3) एवं (4) के स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें कमजोर तबके के बच्चों को मिलेगीं, जिसके लिए सरकार श्रेणी (4) के स्कूलों को खर्च का भुगतान करेगी। सवाल है कि ऐसा क्यों ? कुछ बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ने का मौका मिले, कुछ को विशेष श्रेणी के स्कूलों में और कुछ को उपेक्षित घटिया सरकारी स्कूलों में ? क्या इससे सारे बच्चों को सही व उम्दा शिक्षा मिल सकेगी ?वर्तमान में देश में स्कूल जाने वाली उम्र के 19 करोड़ बच्चे हैं। उनमें से 4 करोड़ बच्चे मान्यताप्राप्त निजी स्कूलों में जाते हैं। यदि उनमें 25 प्रतिशत या 1 करोड़ अतिरिक्त गरीब बच्चों की भरती भी हो गई तो बाकी 14 करोड़ बच्चों की शिक्षा का क्या होगा ?
फीस पर कोई नियंत्रण नहीं
विधेयक की धारा 13 में केपिटेशन फीस और बच्चों की छंटाई का निषेध किया गया है। धारा 2(बी) की परिभाषा के मुताबिक केपिटेशन फीस वह भुगतान है, जो स्कूल द्वारा अधिसूचित फीस के अतिरिक्त हो। इसका मतलब है कि अधिसूचित करके चाहे जितनी फीस लेने का अधिकार निजी स्कूलों को होगा तथा उस पर कोई रोक या नियंत्रण इस विधेयक में नहीं है। निजी स्कूलों की मनमानी एवं लूट बढ़ती जाएगी। बिना रसीद के या अन्य छुपे तरीकों से केपिटेशन फीस लेना भी जारी रहेगा, जिसको साबित करना मुश्किल होगा। इसके लिए सजा भी बहुत कम (केपिटेशन फीस का 10गुना जुर्माना) रखी गई है।
पैरा शिक्षक की व्यवस्था जारी रहेगी
इस विधेयक में शिक्षकों की न्यूनतम योग्यता और वेतन-भत्ते तय करने की बात तो है
(धारा 23), किन्तु वह कितना होगा, यह सरकार पर छोड़ दिया है। इस बात की आशंका है कि पैरा-शिक्षकों के मौजूदा कम वेतन को ही निर्धारित किया जा सकता है। शिक्षकों का स्थायी कैडर बनाने को भी अनिवार्य नहीं किया गया है। ठेके पर या दैनिक मजदूरी पर भी शिक्षक लगाए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, इस विधेयक में पैरा-शिक्षक वाली बीमारी का इलाज नहीं किया गया है और उसे जारी रखने की गुंजाइश छोड़ी गई है।
अपर्याप्त मानदण्ड : एक शिक्षक, कई कक्षाएं
विधेयक की धारा 8 एवं 9 में अनिवार्य शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि सरकार गांव-मुहल्ले में स्कूल खोलेगी जिसमें अनुसूची में दिए गए मानदण्डों के मुताबिक संरचना व सुविधाएं प्रदान करेगी। धारा 19 एवं 25 में भी सारे स्कूलों के लिए अनुसूची के मुताबिक शिक्षक-छात्र अनुपात तथा अन्य सुविधाएं प्रदान करना जरुरी बनाया गया है। तभी स्कूलों को मान्यता मिलेगी।किन्तु इस अनुसूची में शिक्षकों और भवन के जो मानदण्ड दिए गए हैं, वे काफी कम एवं अपर्याप्त है। प्राथमिक शालाओं में बच्चों तक 30 बच्चों पर एक शिक्षक तथा 200 से ऊपर होने पर 40 बच्चों पर एक शिक्षक का अनुपात रखा गया है। प्रधान अध्यापक तभी जरुरी होगा, जब 150 से ऊपर बच्चे हों। इसका मतलब है कि बहुत सारी छोटी प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षक ही होंगे। वे पांच कक्षाओं को कैसे पढांएगे ? शाला भवन के मामले में भी प्रति शिक्षक एक कमरे का मानदण्ड रखा गया है।
देश के सारे बच्चों को शिक्षा देने के लिए जरुरी है कि छोटे-छोटे गांवो और ढ़ानों में भी स्कूल खोले जाएं और वहां कम से कम एक कक्षा के लिए एक शिक्षक हो। इन मानदण्डों से देश में 37 फीसदी प्राथमिक शालाएं दो शिक्षक-दो कमरे वाली, 17 फीसदी तीन शिक्षक-तीन कमरे वाली और 12 फीसदी शालाएं चार शिक्षक-चार कमरे वाली रह जाएगी। एक शिक्षक एक साथ दो या तीन कक्षाएं पढ़ाता रहेगा। यह शिक्षा के नाम पर देश के गरीब बच्चों के साथ मजाक होगा।
चाहे अधिक शिक्षक देने पड़े, चाहे बहुत छोटे गांवों में कक्षा 3 तक ही स्कूल रखा जाए, यह जरुरी है कि कम से कम 1 कक्षा पर 1 शिक्षक हो। क्या देश के गरीब बच्चों को इतना भी हक नहीं है कि उनकी एक कक्षा पर एक शिक्षक और एक कमरा उनको मिले ? यह कैसा शिक्षा अधिकार विधेयक है ? यह अधिकार देता है या छीनता है ?
शिक्षकों के गैर-शिक्षण काम
धारा 27 में शिक्षकों को गैर-शिक्षण कामों में न लगाने की बात करते हुए भी जनगणना, आपदा राहत और सभी प्रकार के चुनावों में उनको लगाने की छूट दे दी गई है। चूंकि सिर्फ सरकारी शिक्षकों को ही इन कामों में लगाया जाता है, इससे सरकारी बच्चों की शिक्षा ही प्रभावित होती है। यह गरीब बच्चों के साथ एक और भेदभाव व अन्याय होता है।
कक्षा 8 के बाद क्या ?
विधेयक की धारा 2(सी), 2(एफ) और 3(1) के मुताबिक 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को कक्षा 1 से 8 तक की मुफ्त एवं अनि्वार्य शिक्षा देने की बात कही गई है। सवाल यह है कि कक्षा 8 के बाद क्या होगा ? कक्षा 12 तक का अधिकार क्यों नहीं दिया जा रहा है ? आज कक्षा 12 की शिक्षा पूरी किए बगैर किसी भी प्रकार का रोजगार या उच्च शिक्षा हासिल नहीं की जा सकती है। इसी तरह पूर्व प्राथमिक शिक्षा को भी अधिकार के दायरे से बाहर कर दिया है। धारा 11 में इसे सरकारों की इच्छा व क्षमता पर छोड़ दिया गया है।
फेल नहीं, किन्तु पढ़ाई का क्या ?
विधेयक की धारा 16 में प्रावधान है कि किसी बच्चे को किसी कक्षा में फेल नहीं किया जाएगा और स्कूल से निकाला नहीं जाएगा। धारा 30(1) में कहा गया है कि कक्षा 8 से पहले कोई बोर्ड परीक्षा नहीं होगी। इसके पीछे सिद्धांत तो अच्छा है कि कमजोर बच्चों को नालायक घोषित करके तिरस्कृत करने के बजाय स्कूल उन पर विशेष ध्यान दे तथा उनकी प्रगति की जिम्मेदारी ले। यह भी कि बच्चों को अपनी-अपनी गति से पढ़ाई करने का मौका दिया जाए। किन्तु इस सिद्धांत को लागू करने के लिए यह जरुरी है कि सरकारी स्कूलों की बदहाली को दूर किया जाए, वहां बच्चों पर ध्यान देने के लिए पूरे व पर्याप्त शिक्षक हों तथा पढ़ाई ठीक से हो। नहीं तो विधेयक के इस प्रावधान के चलते सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की हालत और बिगड़ती चली जाएगी। इस सिद्धांत को लागू करने के लिए यह भी जरुरी है कि उच्च शिक्षा और रोजगार के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा का माहौल बदला जाए। विधेयक इस दिशा में भी कुछ नहीं करता है।
अंग्रेजी माध्यम की गुंजाईश
धारा 29(2)-(एफ) में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा बनाने के प्रावधान में ‘जहां तक व्यावहारिक हो’ वाक्यांश जोड़ दिया गया है। इससे देश में महंगे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की गुंजाईश छोड़ दी गई है। यह देश में भेदभाव का बड़ा जरिया बना रहेगा।
ट्यूशन पर रोक कैसे ?
धारा 28 में शिक्षकों द्वारा प्राईवेट ट्यूशन करने पर पाबंदी लगाकर अच्छा काम किया गया है। लेकिन इसे कैसे रोका जाएगा, कौन कार्यवाही करेगा और क्या सजा होगी, इसका कोई जिक्र नहीं है। ट्यूशन की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए शिक्षकों को पर्याप्त वेतन दिया जाना तथा उनका शोषण रोकना जरुरी है, किन्तु विधेयक ने यह सुनिश्चित करने की जरुरत नहीं समझी है। देश में तेजी से बढ़ते कोचिंग उद्योग को रोकने के कोई उपाय भी विधेयक में नहीं है।
निजी स्कूलों की निरंकुशता
अनुदान न लेने वाले निजी स्कूलों को ‘स्कूल प्रबंध समिति’ के प्रावधान (धारा 21 एवं 22) से बाहर रखा गया है। उनके प्रबंधन में अभिभावकों, जनप्रतिनिधियों, स्थानीय शासन संस्थाओं, कमजोर तबकों आदि का कोई दखल या प्रतिनिधित्व नहीं होगा। वे पूरी मनमानी करेगें और निरंकुश रहेंगे।
बुनियादी बदलाव की जगह कानून का झुनझुना
इस विधेयक से यह दिखाई देता है कि देश के साधारण बच्चों को अच्छी एवं साधनयुक्त शिक्षा उपलब्ध कराने का कार्यक्रम युद्धस्तर पर चलाने और वैसी नीति बनाने के बजाय सरकार एक अधूरा कानून बनाकर अपनी जिम्मेदारी टालना चाहती है। पिछले कुछ समय में सरकार ने कई ऐसे कानून (रोजगार गारंटी कानून, वन अधिकार कानून, असंगठित क्षेत्र कानून, घरेलू हिंसा कानून, सूचना का अधिकार कानून, प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून) बनाए हैं या बना रही है, जिनमें मौजूदा व्यवस्था में बुनियादी बदलाव करने के बजाय कानूनों का झुनझुना आम जनता, एनजीओ आदि को पकड़ा दिया जाता है। क्या एक साधारण गरीब आदमी (जिसे शिक्षा के अधिकार की सबसे ज्यादा जरुरत है) अपने अधिकार को हासिल करने के लिए कचहरी-अदालत के चक्कर लगा सकता है ? इस कानून में तो उसे प्रांतीय स्तर पर राजधानियों में स्थित ‘बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ के पास जाना पडेगा। क्या यह उसके बूते की बात होगी ?
शिक्षा का मुक्त बाजार : महमोहन सिंह के नक्शे कदम पर
यह साफ है कि इस विधेयक से देश के साधारण बच्चों को उम्दा, साधनसंपन्न, संपूर्ण शिक्षा मिलने की कोई उम्मीद नहीं बनती है। सरकारी शिक्षा व्यवस्था का सुधार इससे नहीं होगा। देश में शिक्षा के बढ़ते निजीकरण, व्यवसायीकरण और बाजारीकरण पर रोक इससे नहीं लगेगी। नतीजतन शिक्षा में भेदभाव की जड़ें और मजबूत होगी। यदि हम पिछले दो दशकों में शिक्षा के बढ़ते बाजार को देखें तथा नए केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल की घोषणाओं को देखें (शिक्षा में निजी भागीदारी एवं पूंजी निवेश को बढ़ावा देना, निजी-सरकारी सहयोग, विदेशी शिक्षण संस्थाओं को प्रवेश देना, कॉलेज में प्रवेश के लिए अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा लेना आदि) तो मामला साफ हो जाता है। सरकार शिक्षा अधिकार कानून बनाने की रस्म-अदायगी करके देश में शिक्षा का मुक्त बाजार बनाना चाहती है। स्वयं श्री सिब्बल ने एक साक्षात्कार में कहा –
‘‘ डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 में अर्थव्यवस्था के लिए जो किया, मैं वह शिक्षा व्यवस्था के लिए करना चाहता हूं।’’ (द सण्डे इंडियन, 6-12 जुलाइZ 2009)
यह एक खतरनाक सोच व खतरनाक दिशा है। भारत के जनजीवन पर एक और हमला है। शिक्षा व स्वास्थ्य का बाजार एक विकृति है, मानव सभ्यता के नाम पर एक कलंक है। हमें समय रहते इसके प्रति सचेत होना पड़ेगा और इसका पूरी ताकत से विरोध करना होगा।
विकल्प क्या हो ?
यदि वास्तव में देश के सारे बच्चों को अच्छी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना है, तो सरकार को ऐसे कानून और ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिसमें निम्न बातें सुनिश्चित हों –
(1) देश में समान स्कूल प्रणाली लागू हो, जिसमें एक जगह के सारे बच्चे अनिवार्य रुप से एक ही स्कूल में पढ़ेंगे।
(2) शिक्षा के व्यवसायीकरण और शिक्षा में मुनाफाखोरी पर प्रतिबंध हो। जो निजी स्कूल फीस नहीं लेते हैं, परोपकार (न कि मुनाफे) के उद्देश्य से संचालित होते हैं, और समान स्कूल प्रणाली का हिस्सा बनने को तैयार हैं, उन्हें इजाजत दी जा सकती है।
(3) देश में विदेशी शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश पर रोक लगे। हम विदेशों से ज्ञान, शोध, शिक्षण पद्धतियों और शिक्षकों-विद्यार्थियों का आदान-प्रदान एवं परस्पर सहयोग कर सकते हैं,किन्तु अपनी जमीन पर खड़े होकर।
(4) शिक्षा में समस्त प्रकार के भेदभाव और गैरबराबरी समाप्त की जाए।
(5) पूर्व प्राथमिक से लेकर कक्षा 12 तक की शिक्षा का पूरा ख्रर्च सरकार उठाए। स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक, भवन, शौचालय, पेयजल, खेल मैदान, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शिक्षण सामग्री, खेल सामग्री, उपकरण, छात्रावास, छात्रवृत्तियों आदि की पूरी व्यवस्था के लिए सरकार जरुरी संसाधन उपलब्ध कराए।
(6) शिक्षकों को स्थायी नौकरी, पर्याप्त वेतन और प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाए। शिक्षकों से गैर-शिक्षणीय काम लेना बंद किया जाए। मध्यान्ह भोजन की जिम्मेदारी शिक्षकों को न देकर दूसरों को दी जाए। कर्तव्य-निर्वाह न करने वाले शिक्षकों पर कार्यवाही की जाए।¦
(7) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का वर्चस्व खतम किया जाए।
(8) स्कूलों का प्रबंध स्थानीय स्वशासन संस्थाओं द्वारा और जनभागीदारी से किया जाए।
(9) प्रतिस्पर्धा का गलाकाट एवं दमघोटूं माहौल समाप्त किया जाए। निजी कोचिंग संस्थाओं पर पाबंदी हो। प्रतिस्पर्धाओं के द्वारा विद्यार्थियों को छांटने के बजाय विभिन्न प्रकार की उच्च शिक्षा, प्रशिक्षण एवं रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराये जाएं।
(10) शिक्षा को मानवीय, आनंददायक, संपूर्ण, सर्वांगीण, बहुमुखी, समानतापूर्ण, एवं संवेदनशील बनाने के लिए शिक्षण पद्धति और पाठ्यचर्या में आवश्यक बदलाव किए जाएं। बस्ते का बोझ कम किया जाए। किताबी एवं तोतारटन्त शिक्षा को बदलकर उसे ज्यादा व्यवहारिक, श्रम एवं कौशल प्रधान, जीवन से जुड़ा बनाया जाए। बच्चों के भीतर जिज्ञासा, तर्कशक्ति, विश्लेषणशक्ति और ज्ञानपिपासा जगाने का काम शिक्षा करे। बच्चों के अंदर छुपी विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं व क्षमताओं को पहचानकर उनके विकास का काम शिक्षा का हो। शिक्षा की जड़ें स्थानीय समाज, संस्कृति, देशज परंपराओं और स्थानीय परिस्थितियों में हो। शिक्षा को हानिकारक विदेशी प्रभावों एवं सांप्रदायिक आग्रहों से मुक्त किया जाए। संविधान के लक्ष्यों के मुताबिक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रकि भारत के प्रबुद्ध एवं जागरुक नागरिक तथा एक अच्छे इंसान का निर्माण का काम शिक्षा से हो।
(लेखक सुनील राष्ट्रीय अध्यक्ष, समाजवादी जन परिषद् हैं)
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