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Posts Tagged ‘sunil’

मार्क्स हों ,गांधी हों या लोहिया उनके बताये रस्ते पर चलते रहने के बजाए नई पगडंडिया बनाने वाला ही योग्य अनुगामी होता है। वह लकीर का फकीर नहीं होता , नए उसूल बताता है और उन पर चल कर दिखाता है। सुनील ने इन महापुरुषों के विचार ,सिद्धान्त और काम में नया जोड़ा। सुनील की बनाई पगडंडियों की आज चर्चा का दिन है। सुनील इन पगडंडियों पर चला भी इसलिए यह चर्चा आगे भी प्रासंगिक रहेगी।

केसला इलाके में पीने के पानी और सिंचाई के लिए छोटे बन्धों के लिए भौंरा बेतूल पैदल मार्च इलाके को रचनात्मक उर्जा देने वाला कार्यक्रम सिद्ध हुआ। इन बन्धों का प्रस्ताव मोतीलाल वोरा को किसान आदिवासी संगठन ने दिया।

आदिवासी गांव में नियुक्त मास्टर की मौजूदगी के लिए भी इस व्यवस्था में महीनों जेल जाना पड़ता है यह राजनारायण और सुनील ने बताया।

सुनील ने लम्बे चौड़े विधान सभा ,लोक सभा क्षेत्रों के बजाए व्यावाहारिक विकेन्द्रीकरण का मॉडल बताया जिनमें पंचायती व्यवस्था के वित्तीय-आर्थिक अधिकार का प्रावधान होता। पूंजीपतियों के भरोसे चलने वाले मुख्यधारा के दल ही इन बड़े चुनाव क्षेत्रों में सफल होते हैं।

जल,जंगल,जमीन के हक को स्थापित करने के लिए आदिवासी में स्वाभिमान जगाने के बाद और लगातार अस्तित्व के लिए संघर्ष करते करते सहकारिता की मिल्कियत का एक अनूठा मॉडल चला कर दिखाया।

संसदीय लोकतंत्र ,रचनात्मक काम और संघर्ष इनके प्रतीक ‘वोट,फावड़ा ,जेल’ का सूत्र लोहिया ने दिया।’वोट , फावड़ा,जेल’ के इन नये प्रयोगों के साथ-साथ सुनील ने इस सूत्र में दो नये तत्व जोड़े- संगठन और विचार । जीवन के हर क्षेत्र को प्रतिकूल दिशा में ले जाने वाली ‘प्रतिक्रांति’ वैश्वीकरण के षड़्यन्त्र को कदम-कदम पर बेनकाब करने का काम सुनील ने किया। ‘पूंजी के आदिम संचय’ के दौरान होने वाला प्रकृति का दोहन सिर्फ आदिम प्रक्रिया नहीं थी,सतत प्रक्रिया है। १९४३ में लिखे लोहिया के निबन्ध ‘अर्थशास्त्र , मार्क्स से आगे’। मार्क्स की शिष्या रोजा लक्सेमबर्ग की तरह लोहिया ने बताया कि पूंजीवाद को टिकाये रखने के लिए साम्राज्यवादी शोषण जरूरी है। समाजवादी मनीषी सच्चिदानन्द ने आन्तरिक उपनिवेशवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। सुनील ने इस सिद्धान्त को परिमार्जित करते हुए कहा कि  सिर्फ देश के अन्दर के पिछाड़े गये भौगोलिक इलाके ही नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था के खेती,छोटे उद्योग जैसे क्षेत्र भी आन्तरिक उपनिवेश हैं। खेती के शोषण से भी पूंजीवाद को ताकत मिलती है।

्सुनील

सुनील

भ्रष्टाचार और घोटालों से उदारीकरण की नीतियों का संबध है यह सुनील हर्षद मेहता के जमाने से सरल ढंग से समझाते आए थे। इस संबंध को पिछले दिनों चले ‘भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन’ ने पूरी तरह नजरअन्दाज किया था। बल्कि इस आन्दोलन के तमाम प्रणेता इसे सिर्फ नैतिकतावादी मुहिम के रूप में चला कर घोटालों से जुड़े कॉर्पोरेट घरानों और फिक्की जैसे उद्योगपतियों के समूहों को इस बात द्वारा आश्वस्त करते रहे कि आपको लाभ देने वाली नीतियों की चर्चा को हम अपनी मुहिम का हिस्सा नहीं बना रहे हैं ।

सुनील की बताई राह यथास्थितिवाद की राह नहीं है , बुनियादी बदलाव की राह है। सुनील के क्रांति के लिए समर्पित जीवन से हम ताकत और प्रेरणा पाते रहेंगे।

सुनील की स्मृति में कुछ चित्र

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24 जुलाई 2013 को जारी इस नीति के मसविदे में बातें तो बहुत अच्छी है, लेकिन ज्यादातर कोई नई बात नहीं है। इस तरह की बातों के बयान पहले भी सरकारी नीतियों और कानूनों में आए हैं, लेकिन उनका अमल नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि इन बातों और मौजूदा विकास नीति, अर्थनीति, सामाजिक – आर्थिक ढांचे व सत्ता के चरित्र में टकराव है। उस टकराव को दूर करने की कोई ठोस रणनीति नहीं दिखाई देती।
सीलिंग –
इस दस्तावेज में एक नई बात भूमि हदबंदी की सीमा (सीलिंग) को कम करने का प्रस्ताव है। सिंचित भूमि की हद 10 एकड़ (चार हेक्टेयर) और असिंचित भूमि 15 एकड़ (6 हेक्टेयर) तक नीचे लाने का सुझाव है। सीलिंग कम करने का सुझाव अच्छा है। जमीन के दाम तेजी से बढे़ हैं। इस महंगे संसाधन को बांटा जा सकता है। लेकिन इसमें तीन बातें नोट करना जरूरी है।
1. पिछले बरसो में भूमि की जोत (होल्डिंग) का औसत आकार पारिवारिक बंटवारे होते – होते कम हो गया है। अब बडी जोतें बहुत कम रह गई है। इसलिए सीलिंग कम करने में बहुत जमीन बंटवारे के लिए उपलब्ध नहीं हो सकती।
2. हम गांव में कृषि भूमि की सीलिंग तो कम करेंगे, लेकिन शहरी संपत्ति पर कोई सीलिंग ही नहीं है। शहरी भूमि पर सीलिंग भी उदारीकरण के तहत लगभग खतम कर दी गई है। ऐसी हालत में पक्षपात का आरोप लगता है और ऐसे कदम गांव-विरोधी, किसान-विरोधी, कृषि-विरोधी माने जाते है।
3. प्लांटेशन के नाम पर और अन्य कारणों से कंपनियों को सीलिंग से ज्यादा कृषि भूमि रखने का अधिकार है। सबसे पहले इसको खतम करना होगा। यदि बड़े प्लांटेशन के लिए बड़ी भूमि जरूरी है, तो वे सामूहिक, सहकारी या सरकारी स्वामित्व में होना चाहिए।
जमीन किरायेदारी (टेनेन्सी) –
यह मसविदा कहता है कि ‘‘जोतने वाले को जमीन’’ (लैंड टू द टिलर) का नारा अव्यवहारिक है और संभव नहीं है। हो सकता है, किन्तु जमीन बटाई या किराये पर लेने वालो को वैधानिक सुरक्षा और हक तो प्रदान किए जा सकते हैं (पश्चिम बंगाल और केरल की तरह)। इसके बजाय यह मसविदा जमीन के ‘‘लीज मार्केट’’ की बात करता है और कहता है कि सरकार को जमीन मालिकों के खिलाफ और बटाईदारों के पक्ष में दखल नहीं देना चाहिए। सरकार को जमीन किराया भी तय नहीं करना चाहिए और यह बाजार से तय होना चाहिए। क्योंकि इस दखलंदाजी से जमीन मालिकों को जमीन किराये पर देने का आकर्षण (इनसेंटिव) नहंीं होगा।
इस अर्थ में यह मसविदा बाजारवादी विचारधारा से प्रेरित है। बाजार को आगे बढाने का मतलब छोटे व गरीब लोगों के हित प्रभावित होंगे।
अनुपस्थित जमींदारी –
भूमि सुधार में एक महत्वपूर्ण जरूरी और व्यवहारिक कदम हो सकता है, जिसके बारे में यह मसविदा पूरी तरह मौन है। वह यह कि जो गांव में (या पडोस के गांव में) नहीं रहता है, उसे कृषि भूमि रखने के अधिकार से वंचित कर दिया जाये। एक परिवार में भी जो भाई शहर में बस चुका है और गैर-कृषि धंधा करता है, उसे कृषि भूमि रखने का अधिकार नहीं होगा (वह चाहे तो दूसरे भाई को अपना हिस्सा दे सकता है)। कोई गांव में निवास करता है या नहीं, इसका फैसला मतदाता सूची से हो सकता है। शहर में रहने वालों की कृषि भूमि को जब्त न करके उन्हें अपनी जमीन बेचने का मौका दिया जा सकता है। छच् यदि ऐसा कानून बनाया गया, तो गांव में बहुत जमीन उपलब्ध हो जाएगी। जो वास्तव में गांव में रहते हैं और खेती करते हैं, उनके पास भूमि आ जाएगी। शहरी अमीरों द्वारा आयकर बचाने, फार्म हाऊस बनाने या जमीन में सट्टात्मक निवेश (सस्ती खरीदकर उसके बढ़ते मूल्य का फायदा उठाना) पर भी रोक लगेगी। इससे जमीन के दामों में कृत्रिम तेजी (जिसके कारण वास्तव में खेती करने के इच्छुक किसानों के लिए जमीन खरीदना मुश्किल हो जाता है) पर भी रोक लगेगी।
कंपनियों की जमींदारी और भूमि अधिग्रहण –
बदलती परिस्थितियों में देश की भूमि समस्या में एक नया आयाम यह जुड़ा है कि बड़े पैमाने पर भूमि कंपनियों के हाथ में जा रही है। यह भूमि-हस्तांतरण स्वयं सरकार द्वारा या उसकी निगरानी में और उसकी ताकत की मदद से होता है। इस पर रोक लगना चाहिए। इस पहलू का जिक्र मसविदे में है, लेकिन कोई ठोस प्रावधान नहीं है। इस विषय में निम्न फैसले होना चाहिए –
1. खेती के लिए कृषि भूमि के स्वामित्व का अधिकार कंपनियों को न हो।
2. जो एक बार विस्थापित हो चुके हंै, दूसरी बार वहां भूमि अधिग्रहण न किया जाए।
3. जमीन के बदले जमीन दी जाए और यह संभव न हो तो भूमि अधिग्रहण न किया जाए।
4. परियोजना के बारे में अंतिम फैसला करने का अधिकार स्थानीय ग्रामसभा/ग्रामसभाओं को हो या फैसला स्थानीय गांववासियों के जनमत-संग्रह से हो। यह सुनिश्चित किया जाए कि ग्रामसभा या जनमत-संग्रह स्वतंत्र, निष्पक्ष तरीके से हो और बिना लालच या दबाव के लोग अपना मत दे सके।
5. अंत में, उस विकास नीति और औधोगीकरण नीति को बदला जाए, जिसमें इतने बडे पैमाने पर लोगों को जंगल-जमीन से वंचित करना पडता है।
6. आदिवासी (अनुसूचित) इलाकों में और अन्य इलाकों में आदिवासियों की भूमि किसी भी तरह निजी कंपनियों के हाथ में न जाए और सर्वोच्च न्यायालय के ‘‘समता’’ फैसले का सम्मान किया जाए।
बंजर और खाली जमीन –
मसविदे में बार – बार कहा गया है कि देश में 4.1 करोड़ हेक्टेयर (पृ.3) या 6.385 करोड़ हेक्टेयर (पृ.6) बंजर और खाली जमीन (वेस्टलैंड) उपलब्ध है जिसमें काफी जमीन भूमिहीनों में बांटी जा सकती है। इसमें से ज्यादातर भूमि खेती लायक नहीं होगी। लेकिन फलदार वृक्ष और बांस आदि लगाकर इसे आमदनी का जरिया बनाया जा सकता है। सिंचाई या भू-संरक्षण के जरिये भी इसे उपयोगी बनाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए काफी पूंजी निवेश और लंबे समय तक इंतजार की जरूरत होगी, जो गरीबों के लिए संभव नहीं है। इसलिए सरकारी मदद और सस्ते दीर्घकालीन करजों की जरूरत होगी। मसविदे में मनरेगा, वाटरशेड डेवलेपमेंट जैसी योजनाओं का उपयोग इसके लिए करने का जिक्र है। लेकिन कुछ जमीनी सच्चाईयां ध्यान में रखना जरूरी है –
1. इनमें से ज्यादातर जमीन पूरी तरह बेकार नही है, बल्कि किसी न किसी तरह के सामुदायिक उपयोग (जैसे चराई या जलाऊ लकडी का स्त्रोत) में होती है। दूसरे शब्दों में यह उस सामुदायिक संसाधन (ब्च्त्) का हिस्सा होती है, जिसका जिक्र इस मसविदे में भी है। इस जमीन के निजी पट्टे बांटने से बाकी समुदाय को समस्या होगी और नए टकराव पैदा होंगे।
2. इनमें से काफी जमीन वास्तव में खाली नहीं है, बल्कि उस पर अतिक्रमण हो सकता है। यदि यह अतिक्रमण बड़े लोगों का है, तो पहले उनका अतिक्रमण हटाकर यह गरीबों को आवंटित की जानी चाहिए। अन्यथा उनके हाथ में केवल कागज के टुकडे ही आएंगे। इस जमीन पर गरीबों का अतिक्रमण भी हो सकता है। ऐसी हालत में इस जमीन को दूसरों को आवंटित करने से गरीबों के बीच आपस में संघर्ष पैदा होगा। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में ‘‘दलित एजेंडा’’ के तहत भूमि वितरण में यही हुआ। बड़े लोगों ने अपने कब्जे नहीं छोडे। जो छोटे लोग काबिज थे, वे भी सरकार द्वारा निर्धारित ‘‘पात्रता’’ की परिभाषा में नहीं आते थे और उनके कब्जे की जमीन दूसरे छोटे लोगों को आवंटित कर दी गई।
भूमि रिकार्ड –
केवल कंप्यूटरीकरण से समस्याएं हल नहीं होगी। ज्यादातर ये रिकार्ड बहुत पुराने चल रहे हैं। कई जगह समस्या यह है कि लेागों की भूमि का नंबर कहीं और है तथा कब्जा कहीं और है। यानी जिस भूमि पर वे खेती कर रहे है, उस पर रिकार्ड में किसी और का नाम है और जहां उनका नाम है, वहां कोई और खेती कर रहा है। इसके कारण काफी उलझनें, मुकदमेबाजी और संघर्ष होते हैं। इसलिए नया भूमि-सर्वेक्षण होना चाहिए और इसे दुरूस्त किया जाना चाहिए। जो काफी बडा काम है। लेकिन उसके बगैर, गलत रिकार्ड को ही कंप्यूटर में फीड कर देने से, समस्या बनी रहती है।
आवास का अधिकार –
मसविदे में घर बनाने के लिए 10 सेंट जमीन के अधिकार की बात कही गई है। केवल कहने से काम नही चलेगा। देश के हर परिवार को रहने के लिए एक घर का बुनियादी अधिकार है। गांव के हर परिवार को रहने की जमीन और शहर के हर परिवार के पास एक फ्लेट जरूर हो, इसे सिद्धांत रूप में स्वीकार करते हुए कानूनी जामा पहनाया जाना चाहिए। लातीनी अमरीकी देश वेनेजुएला ने यह काम शुरू कर दिया है।
ग्रामीण औद्योगीकरण –
जमीन के सवाल को बाकी आर्थिक ढांचे से काटकर नहीं देखा जा सकता। भारत के गांवों में जमीन का सवाल इसलिए भी जटिल और गंभीर हुआ है, क्योंकि पिछली दो सदियों में धीरे-धीरे गांवों के सारे कुटीर उद्योग खतम हो गए। गांवों में खेती छोड़कर सारे धन्धे खतम हो गए और सब लोग खेती व जमीन पर ही आश्रित हो गए।
इसलिए यह जरूरी है कि गांवों में छोटे और कुटीर उद्योगांे का विकास हो तथा कम से कम आधी आबादी गैर-कृषि रोजगार में लगे। लेकिन यह तभी संभव होगा, जब बड़े उद्योगो पर रोक लगेगी या उनका आगे बढ़ाने की मौजूदा नीति को बदला जाएगा। दूसरे शब्दों में, जमीन समस्या का गहरा संबंध पूंजीवादी औद्योगीकरण की दिशा व चरित्र से भी है। इसे उलटना होगा।
– सुनील –
राष्ट्रीय महामंत्री, समाजवादी जन परिषद

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विदेशी कंपनियों को खुदरा व्यापार में इजाजत देने के बारे में उठे विवाद पर सफाई में प्रधानमंत्री ने कहा है कि यह फैसला बहुत सोच-समझकर किया गया है। प्रधानमंत्री की इस बात में सचाई है। इसकी तैयारी बहुत दिनों से चल रही थी। कैबिनेट सचिवों की समिति ने दो महीने पहले ही इसकी सिफारिश कर दी थी। महंगाई पर जब हल्ला हो रहा था, तभी मोंटेक सिंह अहलूवालिया, रंगराजन और कौशिक बसु ने कह दिया था कि इसका इलाज खुदरा व्यापार में बड़ी कंपनियों को बढ़ावा देने में ही निहित है। भारत के प्रधानमंत्री और वाणिज्य मंत्री काफी पहले से दावोस, न्यूयॉर्क और वाशिंगटन में वायदा करते आ रहे थे कि वॉलमार्ट के लिए भारत के दरवाजे खोले जाएंगे। जिस दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों की बात वे करते आए हैं, यह उसका एक प्रमुख हिस्सा है।

वैश्वीकरण-उदारीकरण-कंपनीकरण के जिस रास्ते पर हमारी सरकारें चल रही हैं, यह उसका अगला पड़ाव है। इसलिए इस बारे में विपक्ष का विरोध अधूरा एवं खोखला है। जहां और जब वे सत्ता में रहे, उन्होंने भी विदेशी पूंजी को दावत दी। हर मुख्यमंत्री उन्हें न्योता देने विदेश यात्राओं पर गया। नीतीश कुमार जब देश के कृषि मंत्री थे, तो उन्होंने राष्ट्रीय कृषि नीति की घोषणा की, जिसमें खुलकर खेती में विदेशी कंपनियों को आगे बढ़ाने का नुसखा पेश किया गया। इसके खिलाफ हुंकार भरने वाले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने देशी-विदेशी कंपनियों की मिजाजपुर्सी करने के लिए छह-सात ग्लोबल इंवेस्टर्स मीट आयोजित की। जीवन के दूसरे क्षेत्रों में विदेशी कंपनियां प्यारी और खुदरा व्यापार में बुरी, खुदरा व्यापार में भी रिलायंस-भारती-आईटीसी अच्छी और वॉलमार्ट बुरी-ऐसा मानने वालों के अंतर्विरोधों से ही उनका विरोध कमजोर हो जाता है।

भारतीय बाजारों में विदेशी घुसपैठ की शुरुआत तभी हो गई थी, जब भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना और कुछ वर्षों बाद एक झटके में 1,423 वस्तुओं का बाजार विदेशी वस्तुओं के लिए खोला गया। भारत के थोक व्यापार, एक ब्रांड के व्यापार और कृषि व्यापार को विदेशी कंपनियों के लिए खोला गया था, तभी स्पष्ट हो गया था कि अगला नंबर खुदरा व्यापार का है। विडंबना यह है कि इस अवधि में गैर-कांग्रेसी सरकारें भी रहीं।

दृष्टिदोष से ग्रस्त हमारे शासकों एवं विशेषज्ञों को इतना भी दिखाई नहीं देता कि पश्चिमी देशों और भारत की परिस्थितियों में भारी फर्क है। वहां भी वॉलमार्ट ने छोटे दुकानदारों को बेदखल किया, किंतु उनकी संख्या बहुत कम थी और वे खप गए। भारत में तो विशाल श्रमशक्ति है। खेती और उद्योग के बाद व्यापार ही इस देश में सबसे ज्यादा रोजगार प्रदान करता है। एक तरह से घोर बेरोजगारी के इस युग में जब कहीं नौकरी नहीं मिलती, तो एक किराना दुकान, चाय या पान की दुकान ही रोजी-रोटी का जरिया बनती है। अब इसी पर हमला हो रहा है।

अमेरिका का अनुभव है कि वॉलमार्ट का एक मॉल खुलता है, तो उसकी 84 फीसदी आय स्थानीय छोटे व्यापारियों का धंधा हड़पकर ही होती है। यह भी तय है कि बाजार के वॉलमार्टीकरण से स्थानीय छोटे-छोटे उत्पादकों का धंधा मारा जाएगा। सरकार ने महज इतनी ही शर्त लगाई है कि 30 प्रतिशत आपूर्ति छोटे उद्योगों से ली जाएगी, किंतु ये छोटे उद्योग देश या दुनिया में कहीं के भी हो सकते हैं। अब यह भी साफ हो रहा है कि पूरे देश में अतिक्रमण हटाने या नगरों को सुंदर बनाने के नाम पर फुटपाथ विक्रेताओं, गुमटी-हाथठेला विक्रेताओं आदि को हटाने की जो मुहिम चलती रही है, वह शायद मॉलों के लिए ही रास्ता साफ करने की कार्रवाई थी।

प्रधानमंत्री का दूसरा झूठा दावा किसानों को फायदा पहुंचाने का है। खुदरा व्यापार में रिलायंस फ्रेश, चौपालसागर, हरियाली आदि के रूप में बड़ी देशी कंपनियों की शृंखला तो पहले ही काम कर रही है। क्या इससे भारत के किसानों को बेहतर दाम मिले? क्या खेती का संकट दूर हुआ? यदि कुछ बेहतर दाम मिलें भी, तो लागतें भी बढ़ जाती हैं और कांट्रेक्ट खेती के जरिये किसान कंपनियों पर बुरी तरह निर्भर हो जाता है। इस बात की भी पूरी आशंका है कि किसानों की उपज खरीदने के लिए कंपनियां आ चुकी हैं, यह बहाना बनाकर सरकार समर्थन-मूल्य पर कृषि उपज की खरीद बंद कर दे। इसके लिए इन विदेशी कंपनियों का दबाव भी होगा। भारतीय खेती के ताबूत पर यह आखिरी कील होगी।

प्रधानमंत्री का तीसरा झूठ यह है कि इससे व्यापार में बिचौलिये खत्म होंगे और महंगाई कम होगी। यह जरूर है कि छोटे-छोटे लाखों बिचौलियों की जगह चंद बहुराष्ट्रीय बिचौलिये ले लेंगे, जिनकी बाजार को नियंत्रित करने व उस पर कब्जा करने की अपार ताकत होगी। क्या अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को अर्थशास्त्र के इस सामान्य नियम को याद दिलाना होगा कि एकाधिकारी प्रवृत्तियां बढ़ने से कीमतें बढ़ती हैं, कम नहीं होतीं? सच तो यह है कि ये बड़े बहुराष्ट्रीय व्यापारी किसानों, उत्पादकों, उपभोक्ताओं सबका शोषण करेंगे तथा लूट का मुनाफा अपने देश में ले जाएंगे।

यह घोर पतन का युग है। यह ज्यादा खतरनाक भ्रष्टाचार है। इसके खिलाफ कोई जेपी आंदोलन, कोई अरब वसंत या कोई वॉलस्ट्रीट कब्जा आंदोलन चलाने का वक्त आ गया है। किंतु ऐसे किसी भी आंदोलन को नवउदारवाद और विकास के मॉडल पर भी प्रहार करना होगा, तभी उसकी विश्वसनीयता और गहराई बन पाएगी।

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‘महंगाई पर बैठक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची’ (द हिन्दू, इकॉनॉमिक टाईम्स 12 जनवरी 2011), दो दिन तक मैराथन मंथन, नतीजा सिफर’ (पत्रिका, 14 जनवरी 2011)

जनवरी 2011 के दूसरे सप्ताह में अखबारों में इस तरह की खबरें थी। पहले 11 जनवरी को प्रधानमंत्री की वरिष्ठ मंत्रियों के साथ महंगाई पर काबू पाने के लिए बैठक हुई। डेढ घंटे चली इस बैठक में प्रधानमंत्री के अलावा कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, गृहमंत्री पी.चिदंबरम, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया, सरकार के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु आदि मौजूद थे। किंतु यह बैठक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाई। इसके बाद अगले दो दिनों तक प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री की कई मंत्रियों, विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों के साथ चर्चा चली। अंत में एक कार्य-योजना घोषित की गई, किंतु उसमें भी कुछ विशेष नहीं था। मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु की अध्यक्षता में महंगाई की समीक्षा के लिए एक मंत्रिमंडलीय समूह और बना दिया गया।
आखिर बात क्या है ? देश की जनता जिस महंगाई की मार से त्राहि-त्राहि कर रही है, उस पर सरकार इतनी लाचार, निष्क्रिय और दिशाहीन क्यों दिखाई दे रही है? जबकि यह महंगाई कोई नयी तात्कालिक मुसीबत नहीं है। पिछले दो-तीन सालों से इसकी मार पड़ रही है। प्रधान मंत्री, वित्तमंत्री, कृषि एवं खाद्य मंत्री और सरकार में बैठे विशेषज्ञ बार-बार दिलासा देते रहे कि यह कुछ महीनों में काबू में आ जाएगी। (देखे ब~क्स में उनके बयान) लेकिन ये सारी दिलासाएं झूठी निकली। जिस सरकार का प्रधानमंत्री एक चोटी का अर्थशास्त्री हो, वित्तमंत्री बहुत अनुभवी और पुराना मंत्री हो, जिसको लगातार कई अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों की उच्च कोटि की सलाहें मिल रही हो, वैश्विक वित्ती संकट के दौरान अर्थव्यवस्था के कुशल प्रबंधन तथा ऊंची वृद्धि दर हासिल करने के कारण जिस सरकार की पूरी दुनिया में सराहना हो रही हो, वह महंगाई के मुद्दे पर अंधे की तरह रास्ता टटोलती, ‘धूल में लठ मारती’ या साफ बात करने से मुंह चुराती क्यों नजर आ रही है ?
जब से मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने है, कई भोले लोगों को भरोसा हो गया था कि अब देश की कमान एक काबिल, ईमानदार और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ व्यक्ति के हाथ में पहुंच गई है। (कुछ लोग अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में ऐसा ही भ्रम पाले थे)। लेकिन फिर भी देश की जनता की मुश्किलें क्यों बढ़ती जा रही है ? एक लातीनी अमरीकी देश के बारे में पिछली सदी के पचास के दशक में जो टिप्पणी की गई थी, वह आज के भारत पर सटीक बैठती है – ‘देश की अर्थव्यवस्था तो बहुत अच्छी है, किंतु जनता की हालत अच्छी नहीं है।’ आखिर क्यों ? आइए, इन सवालों का जवाब महंगाई के संदर्भ में खोजने की कुछ कोशिश करते हैं।
सरकारी सफाई और अर्ध सत्य
पिछले साल तक महंगाई की समस्या को तात्कालिक बताने और समस्या ही मानने से इंकार करने के बाद, अब सरकारी प्रवक्ताओं ने महंगाई के जो कारण गिनाने शुरू किए है, वे इस प्रकार है –
1. विकास के कारण लोगों की आमदनी और क्रयशक्ति बढी है, जिससे मांग व महंगाई बढ़ रही है। जब अर्थव्यवस्था में विकास होगा, तो कुछ महंगाई स्वाभाविक है।
2. मौसम की मार से व प्राकृतिक प्रकोप से फसलों का नुकसान हुआ है और अभाव पैदा हुआ है। इस पर सरकार का कोई बस नहीं है।
3. किसानों को बेहतर समर्थन-मूल्य देने के कारण महंगाई बढ़ी है।
4. जमाखोरों और बिचैलियों के कारण कीमतें बढ़ी है। राज्य सरकारें उन पर समुचित कार्यवाही नहीं कर रही है।
5. पूरी दुनिया में कीमते बढ़ रही है। उसका असर भारत पर भी पड़ना लाजमी और स्वाभाविक है।
इन सारी बातों में कुछ सत्य का अंश हो सकता है। किंतु वह आंशिक सत्य या अर्ध सत्य है, जिसका उपयोग चालाकी से लोगो को गुमराह करने के लिए किया जा रहा है। जिस तरह के द्वन्द्व बताए जा रहे है जैसे ‘विकास बनाम कीमत-नियंत्रण’ या ‘किसान बनाम उपभोक्ता’, वे नकली द्वन्द्व है। यह कहा जा सकता है कि जिस विकास के साथ इतनी भीषण महंगाई आए और आम लोगो का जीना मुश्किल कर दे, वह सही मायने में विकास ही नही है। लोगो की वास्तविक आमदनी व क्रयशक्ति बढने की बात भी विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि अभी पांच साल पहले तो अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता वाले एक सरकारी आयोग ने बताया था कि देश के 77 प्रतिशत लोग 20 रू. रोज से नीचे गुजारा कर रहे है। दूसरी सरकारी (तेंदूलकर) कमेटी ने माना है कि देश के 42 प्रतिशत लोग घोर गरीबी में जीवन यापन कर रहे है। फिर भी यदि मान लिया जाए कि आम जनता की क्रयशक्ति व मांग कुछ बढी है तो उस मांग को पूरा करने की तैयारी एवं व्यवस्था क्यों नही है ? यह बढ़ी हुई मांग पूरी होने के बजाय कीमतों में बढ़ोत्तरी को क्यों जन्म दे रही है ?
असली झगडा
दसअसल क्रयशक्ति बढ़ी है, किंतु ऊपर के लोगों की। देश में गैरबराबरी तेजी से बढ़ रही है और ऊपर के थो्ड़े से भारतीयों की आमदनी में तेजी से इजाफा हुआ है। यदि ‘भारत बनाम इंडिया’ की भाषा में बात करें तो ‘इंडिया’ की बढ़ती हुई क्रयशक्ति ने देश के संसाधनों को अपनी ओर खींचा है, जिससे ‘भारत’ की बुनियादी जरूरत की वस्तुओं का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में नहीं बढ़ रहा है। इसीलिए देश में दालों, अनाज, खाद्य तेल, सब्जियों, दूध आदि का उत्पादन जरूरत के मुताबिक नहीं बढ़ रहा है किंतु दूसरी ओर विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन तेजी से छलांगें लगा रहा है। वर्ष 2010 में कारों की बिक्री 25 से 30 फीसदी बढी है और कारों के नित नए मॉडल निकल रहे है। किंतु देश में साईकिलों का उत्पादन कम हो रहा है। पूरी दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत की ओर लपक रही है और अच्छे मुनाफे कमा रही है। मिसाल के लिए जनवरी में सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री की दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी ‘लॉरियल’ का फ्रांसीसी मालिक भारत आया तो उसने एक साक्षात्कार में बताया कि भारत में उनकी बिक्री 1000 करोड़ रू. तक पहुंच चुकी है और सालाना 30 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। भारत उनकी प्राथमिकताओं में है। बहुत जल्दी भारत उनके दस बडे बाजारों में होगा तथा 10-15 सालों में पांच सर्वोच्च बिक्री क्षेत्रों में एक हो जाएगा। (टाईम्स ऑफ इंडिया 17 जनवरी 2011) यह है ‘इंडिया’ की बढती हुई ताकत जो ‘भारत’ के मुंह का निवाला भी छीन रही है। आखिर किसी भी देश के संसाधन तो सीमित होते हैं। उन्हें चाहें विलासिता सामग्री के उत्पादन में झोंक दे, चाहें आम जरूरत की वस्तुओं के उत्पादन में लगा दें। यह है असली द्वन्द्व, जिसकी चर्चा प्रणब मुखर्जी, मनमोहन सिंह या मोंटेक सिंह नही करते है। महंगाई एक तरह के पुनर्वितरण का काम भी करती है। इससे साधारण लोग ज्यादा प्रभावित होते है। यदि उनकी मौद्रिक आय बढती भी है, तो उसे दूसरी जेब से निकालने का काम महंगाई करती है। यह शायद मनमोहन-मोंटेक छाप विकास के लिए जरूरी है।
भारतीय खेती का संकट
इसी तरह जब महंगाई का दोष प्राकृतिक प्रकोप या मौसम की मार पर मढ़ा जाता है, तो क्या यह आजादी के बाद हुए पूरे कृषि विकास पर सवाल नहीं खड़ा करता है ? यह कैसा विकास है कि आज भी खेती किसान और देश के लिए ‘मानसून का जुआ’ बनी हुई है या चाहे जब कीटों के प्रकोप का शिकार बन जाती हैं महंगाई के मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ी है और इसका सीधा संबंध भारतीय खेती के मौजूदा संकट से है। यह संकट पिछले पंद्रह वर्षो से किसानों की निरंतर आत्महत्याओं और अन्य रूपों में प्रकट हो रहा है। सरकार ने न केवल इस संकट के बुनियादी कारणों को दूर करने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि अपनी नीतियों और अपने कामों से इस संकट को और घना किया है। इस संदर्भ में निम्न तथ्य और प्रवृतियां नोट की जानी चाहिए –
1. पिछले 20 वर्षो में देश में कृषि भूमि में काफी कमी आई है, जिसका मुख्य कारण बांधों, कारखानों, एसईजेड, टाउनशिप, शहरी विस्तार, राजमार्गों आदि में बडे पैमाने पर खेती की जमीन का हस्तांतरण है। वर्ष 1990-91 और 2007-08 के बीच खेती के रकबे में 21.4 लाख हेक्टेयर की कमी हुई है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भूमि एक ऐसी चीज है, जिसकी आपूर्ति नहीं बढाई जा सकती। जंगलों व चरागाहों को साफ करके खेत बनाने की प्रक्रिया पिछली दो शताब्दियों से चल रही थी, उसकी भी सीमा आ चुकी है।
2. जमीन को सिंचित करके और उस पर साल में एक की जगह दो या तीन फसलें लेकर भी कृषि उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। किंतु उसकी भी सीमाएं व समस्याएं दिखाई दे रही है। सरकार सिंचाई क्षमता निर्माण (इरिगेशन पोटेन्शियल) की प्रगति के आंकडे देती है किंतु वास्तविक सिंचाई उससे काफी कम होती है। उदाहरण के लिए, यह बताया गया कि कुल सिंचाई क्षमता दसवीं पंचवर्षीय योजना के अंत में मार्च 2007 तक 10.28 करोड हेक्टेयर हो गई, किंतु वास्तव में केवल 8.72 करोड हेक्टेयर की ही सिंचाई हो रही थी। सिंचाई में वृद्धि की दर भी कम हो गई है। दरअसल बडे व माध्यम बांधो की परियोजनाओं पर काफी खर्च के बावजूद नहरों से सिंचित क्षेत्र में कमी आ रही है। कुंओं-ट्यूबवेलों से सिंचाई बढ रही है किंतु इनके अति-दोहन के कारण भू-जल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। इससे भी सिंचाई महंगी और अनिश्चित हो रही है।
3. भारत की विभिन्न फसलों की उत्पादकता, यानी प्रति एकड उपज में हरित क्रांति के दौर में जो वृद्धि हो रही थी, पिछले डेढ- दो दशकों से वह रूक गई है और उसमें ठहराव आ गया है। आर्थिक समीक्षा 2007-08 के मुताबिक धान, गेहूं, सरसों-रायडा, मूंगफली और मक्का की नयी किस्मों से प्रति एकड पैदावार में 1995-96 के पहले तो हर साल वृद्धि हो रही थी, किंतु उसके बाद यह शून्य रह गई है। कई मायनों में हरित क्रांति की हवा निकल गई है और उसके दुष्परिणाम नजर आ रहे हैं। जमीन की उर्वरकता कम हो रही है तथा उतनी ही पैदावार लेने के लिए किसानों को ज्यादा रासायनिक खाद का इस्तेमाल करना पड रहा है। कीट-प्रकोप भी बढ रहा है तथा कीटनाशकों का इस्तेमाल व खर्च बढता जा रहा है। सरकार की उदारीकरण-विनियंत्रण की नीति के कारण बिजली, डीजल, खाद, पानी की लागतों में भी बढोत्तरी हो रही है।
4. भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न (अनाज-दालें) उपलब्धता 1991 तक तो बढ रही थी किंतु उसके बाद में लगातार कम हो रही है। दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता तो 1959 से ही कम होना शुरू हो गई थी, क्योंकि दालों की जगह दूसरी फसलों ने लेना शुरू कर दिया था। उसके बाद 1991 से प्रति व्यक्ति अनाज उपलब्धता भी गिरना शुरू हो गई। 1991 में देश में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 468.5 ग्राम अनाज उपलब्ध था जो 2008 में 374.6 ग्राम रह गया।
मुक्त व्यापार की मार
5. दरअसल वैश्वीकरण के ताजे दौर में सरकार ने खाद्य-स्वावलंबन का लक्ष्य छोड दिया है। कृषि के विविधीकरण के नाम पर खाद्यान्न फसलों की जगह व्यापारिक फसलों की खेती पर जोर दिया गया। इनमें भी जिनका निर्यात हो सकता था, उनको ज्यादा बढावा दिया गया। सरकार का कहना था कि खाद्यान्न की कमी होगी तो बाहर से सस्ती दरों पर आयात कर लेंगे, क्योंकि तब अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी कीमतें कम चल रही थी। किंतु पिछले चार-पांच सालों से दुनिया के बाजार में कीमतें बढ़ जाने से पासा उलट पड गया। इतना ही नही, हमारे ‘विद्वान-विशेषज्ञ’ नीति निर्धारक एक सीधी सी बात भूल गए कि भारत एक विशाल देश है और आयातों द्वारा इसकी जरूरतें पूरा करना आसान नहीं है। अक्सर हमारे आयातों की मांग से ही दुनिया के बाजार में कीमतें चढ जाती है। तीन साल पहले गेंहूं के मामले में ऐसा ही हुआ। स्वावलंबन के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है, किंतु सरकारें उल्टी राह पर चल रही है। भारत 1993 के करीब खाद्य तेलों में करीब-करीब आत्मनिर्भर हो गया था और अपनी जरूरत का केवल 3 प्रतिशत आयात कर रहा था। किंतु इसी नीति के कारण आज वह आधे के करीब खाद्य तेल आयात करता है। दूसरी ओर, पिछले सालों में भारत से कृषि उपज का निर्यात भी काफी बढा है (देखे तालिका 1)। बासमती चावल, चीनी, काजू, तंबाकू, मांस, मछली, फल, सब्जियों आदि कई वस्तुओं के निर्यात में भारी बढोत्तरी हुई है। इससे भी देश के अंदर अभाव की स्थिति पैदा हुई है। अमीर विदेशियों की क्रयशक्ति ज्यादा होने के कारण वे भारत की वस्तुओं और भारत के संसाधनों को गरीब भारतवासियों से छीन लेते है। ‘मुक्त व्यापार’ का यही मतलब है। पिछले दिनों प्याज संकट के पीछे प्रमुख कारण फसल खराब होने के बावजूद प्याज का भारी निर्यात करने की प्रवृत्ति रही है। (देखे तालिका 2) ऐसा ही पहले चीनी के मामले में भी हुआ था। कई बार तो पहले सस्ता निर्यात करके बाद में महंगा आयात किया गया है। यह एक आत्मघाती नीति है। किंतु विश्व व्यापार संगठन के चक्कर में, मुक्त व्यापार तथा ‘निर्यातोन्मुखी विकास’ की विचारधारा के तहत, एक ओर देश का खाद्य-स्वावलंबन नष्ट किया जा रहा है, दूसरी तरफ सीमित भूमि व देश के संसाधनों को देश की जनता की जरूरतों को पूरा करने के बजाय विदेशियों की विलासिता पूर्ति में लगाया जा रहा है।
कुल मिलाकर, महंगाई महज मौसम की गडबडी का नतीजा नहीं है। महंगाई के ताजा दौर का सीधा रिश्ता भारतीय खेती के गंभीर संकट से है जो सरकार द्वारा खेती की उपेक्षा कृषि विरोधी व किसान-विरोधी नीतियों दोषपूर्ण टेक्नोलॉजी, वैश्वीकरण की नीतियों आदि का नतीजा है। इस नजरियें से, भारत के किसान की बेहतरी और उपभोक्ताओं को सस्ती चीजे मिलने में कोई विरोध नहीं है। बल्कि खेती के संकट को बुनियादी रूप से हल करने पर ही महंगाई का संकट स्थायी रूप से दूर हो सकेगा।
इस बुनियादी संकट और अपनी नीतियों के गुनाह को छिपाने के लिए ही सरकार महंगाई का दोष जमाखोरों, बिचैलियों और सटोरियों पर मढ देती है। कीमतें बढ़ने में उनकी भूमिका निश्चित ही रहती है किंतु वे भी अपना खेल तभी ज्यादा कर पाते है जब अभाव की हालातें बनती है। इसलिए अभाव पैदा होने के दीर्घकालीन कारणों को दूर किए बगैर महज उनको दोष देना असली अपराधियों को बचाने जैसा ही है।
फिर स्वयं केन्द्र सरकार की नीतियां जमाखोरी, सट्टा और बिचैलियों को बढाने की रही है। उदारीकरण के दौर में सरकार ने लगातार उनके उपर नियंत्रण के नियमों व कानूनों (जैसे स्टॉक की सीमा, अनिवार्य वस्तु कानून, चीनी पर नियंत्रण आदि) को शिथिल करने का प्रयास किया है और अभी भी कर रही है। जब महंगाई को लेकर ज्यादा हाय-तौबा मचती है तो स्टाक सीमा कम करके व कुछ छापे मारकर रस्म-अदायगी कर ली जाती है। बाद में वही ढर्रा शुरू हो जाता है।
कृषि उपज का कानूनी सट्टा
इतना ही नही सरकार तमाम कृषि उपजों के ‘वायदा बाजार’ को बहुत तेजी से बढावा दे रही है। सोने-चांदी का वायदा कारोबार तो ठीक है लेकिन गेहूं, चना, दालों, सोया-तेल, चीनी, मसालों, आलू आदि अनेक खाद्य-वस्तुओं को वायदा बाजार के दायरे में लाया जा चुका है। कृषि उपज के वायदे सौदों का कुल मूल्य 2008 के मुकाबले 48 प्रतिशत बढकर 2009 में 10.88 लाख करोड रू. हो चुका था। वायदा बाजार मुंबई व अहमदाबाद में स्थित वे इलेक्ट्रानिक विनिमय केन्द्र हैं जहां रोज करोड़ों-अरबों के सौदे कीमतों में उतार-चढाव से फायदा उठाने के मकसद से होते हैं। यह एक तरह का कानूनी सट्टा है और इसमें बडे-बडे सट्टेबाज बिना कुछ किए करोडो का वारा-न्यारा कर लेते है। इन्हीं के कारण कीमते एकाएक बढ जाती है। सरकार में बैठे इनके समर्थक दलील देते है कि वायदा बाजार से कीमतें नहीं बढ़ती, बल्कि उनमें स्थिरता आती है। यदि ऐसा है तो जब गेहूं, चना, चीनी, आलू आदि की कीमतें बहुत बढने लगती है तो सरकार इनके वायदा कारोबार को क्यों रोक देती है ? सवाल यह भी है कि वायदा कारोबार में कमाए जा रहे अरबों-खरबों रूपए आखिर कहां से आ रहे है ? क्या यह राशि किसानों और उपभोक्ताओं के बीच का मार्जिन नहीं बढ़ाएगी और  सुपर-बिचैलियों के इस धंधे को बढावा देने वाली सरकार किस मुंह से दूसरे छोटे बिचैलियों पर अंकुश लगाएगी ?
छोटे नहीं, बडे बहुराष्ट्रीय बिचैलिये चाहिए
इसी तरह, पिछले काफी समय से सरकार कृषि मंडियों को और कृषि उपज मंडी कानून को समाप्त करने पर तुली है। महंगाई के संदर्भ में भी फिर से उसी चर्चा को आगे बढाया जा रहा है। दलील यह दी जा रही है कि भारत में किसान से लेकर उपभोक्ता तक के बीच कीमतों में काफी फर्क है। भारत की कृषि मंडिया भी स्थानीय व्यापारियों के एकाधिकार का अड्डा बन गई है। सब्जियां, फल, मछली, मांस आदि के बीच में सड़ने व खराब होने से काफी, नुकसान भी होता है। उनके पर्याप्त भंडारण, प्रशीतन और प्रसंस्करण की समुचित व्यवस्था नहीं है। इसलिए इस क्षेत्र में बडी-बडी निजी कंपनियों के पूंजी निवेश को बढावा देना चाहिए और कृषि उपज मंडी कानून जैसे कानून उसमें बाधक है, क्योंकि इस कानून में मण्डी के बाहर किसानों से खरीदी करने पर रोक है। इसी दलील को आगे बढाते हुए अचानक भारत में खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को छूट देने की बात फिर से चल पडी है। कहा जा रहा है कि इससे बिचैलियों की संख्या में कमी आएगी। एक ब्रान्ड की खुदरा दुकानें खोलन, थोक व्यापार और कोल्ड स्टोर्स खोलने की इजाजत विदेशी कंपनियों को पहले ही दी जा चुकी है। अब अपने ब्रान्ड के अलावा हर तरह की वस्तुओं के खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने की मुहिम शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले वर्ष ही इस की चर्चा चलाई थी। हाल ही में फिर से महंगाई का हवाला देते हुए इसके लिए एक कैबिनेट नोट तैयार किया जा रहा है। मजे की बात तो यह है कि विश्व बैंक, कंपनियां, योजना आयोग, केन्द्रीय मंत्री सभी ने एक ही भाषा और एक ही स्वर में एक ही राग अलापना शुरू कर दिया है। विश्व बैंक के अध्यक्ष इस बीच भारत दौरे पर आए तो उन्होने भी खुदरा क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और वायदा बाजार के पक्ष में दलीलें दी। (द टाईम्स ऑफ इंडिया, द क्रेस्ट एडिशन, 22 जनवरी 2011)। भारतीय पूंजीपतियों के संगठनों – फिक्की और सीआईआई – ने भी इसी तरह के बयान जारी किए है। योजना आयोग के एक सदस्य सौमित्र चैधरी ने मंडी कानून पर हमला करते हुए एक अंग्रेजी अखबार में लेख लिखा कि महंगाई का एक ही ईलाज है कि खुदरा व्यापार में कंपनियों को आगे लाया जाए। (इकानॉमिक टाईम्स, 20 जनवरी 2011)। कैसे वैश्वीकरण की नवउदारवादी नीतियों से उपजे संकटों को भी उन्हीं नीतियों के एजेण्डे को और आगे बढाने के लिए चालाकी से इस्तेमाल किया जाता है, उसका यह बढिया उदाहरण है।
इसमें शक नही है कि भारत में मौजूदा हालत में किसानों और उपभोक्ताओं के बीच में कीमतों में भारी खाई है, बिचैलियों की काफी कमाई है तथा कृषि उपज मंडियों में किसानों का शोषण होता है। किंतु सवाल यह है कि सुझाए जा रहे कदमों से यह हालत सुधरेगी या बिगडेगी ? कुल मिलाकर, इन कदमों से इतना ही होगा कि भारत के कृषि उपज व्यापार, खाद्य- व्यापार और खुदरा व्यापार में चंद बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों का वर्चस्व कायम होगा। यानी सरकार लाखों छोटे बिचैलियों की जगह चंद बड़े देशी कार्पोरेट एवं बहुराष्ट्रीय बिचैलियों को स्थापित करना चाहती है। खेत से लेकर गोदाम, प्रसंस्करण, थोक और खुदरा व्यापार तक चंद ताकतवर कंपनियों का वर्चस्व क्या ज्यादा नुकसानदेह व खतरनाक नहीं होगा ? किसानों और उपभोक्ताओं दोनो का शोषण करने की ताकत क्या उनकी ज्यादा नहीं होगी ? ज्यादा प्रशीतन, प्रसंस्करण, पैकेजिंग, वातानुकूलन, महंगे ‘माॅल’ और उससे जुडे विज्ञापन आदि पर खर्च बढेगा, तो उससे वस्तुएं सस्ती होगी या और महंगी होगी ? इस बात का भी जवाब देना होगा कि पहले से देश में ‘माल’ संस्कृति आने और सब्जियों-फलों-अनाज आदि में रिलायन्स, आईटीसी, भारती मित्तल जैसी बडी कंपनियों के कूदने से महंगाई या बीच के मार्जिन पर नियंत्रण में क्या मदद मिली ?
दसअसल बिचैलियों की समाप्ति या नियंत्रण के लिए उल्टी दिशा में जाना होगा। एक तरफ विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था बनाकर, स्थानीय जरूरत के लिए आसपास के इलाके में उत्पादन को बढ़ावा देकर, किसान व उपभोक्ता के बीच की दूरी कम करना होगा। दूसरी तरफ, किसानों व उपभोक्ताओं की सहकारिता को बढावा देना होगा। साथ ही समाजवादी नेता डा.राममनोहर लोहिया की ‘दाम बांधो’ नीति के अनुरूप खेत या कारखाने से लेकर अंतिम उपभोक्ता तक के बीच के मार्जिन की सीमा तय करनी होगी। इसे पूरी तरह बाजार के हवाले छोड़ना खतरनाक है।
सरकार की यह दलील भी विचित्र है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें बढ़ने से उनका असर भारत पर पड रहा है। यदि ऐसा है तो फिर भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेश व्यापार एवं विदेशी पूंजी के लिए खोलने, अंतरराष्ट्रीय बाजार के साथ एकाकार करने और स्वावलंबन को समाप्त करने की हड़बड़ी क्यों की गई ? और इस बारे में पहले से दी जा रही चेतावनियों को नजर अंदाज क्यों किया गया ? क्या कम से कम अब इससे सबक लेंगे ?
इलाज-पढाई की महंगाई
आमतौर पर महंगाई की चर्चा वस्तुओं के दामों के संदर्भ में ही होती है। किंतु इधर सेवाओं की महंगाई भी तेजी से बढी है। खासतौर पर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी व्यवस्थाओं को जानबूझकर बिगाडने तथा निजी स्कूलों – अस्पतालों के बाजार को बढ़ावा देने का काम बाजारवादी सोच के तहत सुनियोजित तरीके से हो रहा है। इससे शिक्षा और इलाज दोनो काफी महंगे हुए है। यदि इनमें महंगाई की दर निकाली जाएगी तो वह सालाना 30 – 40 फीसदी से कम नही होगी। दवाओं की कीमतें भी तेजी से बढी है जिसका प्रमुख कारण दवाओं की कीमतों पर नियंत्रण कम करना और विश्व व्यापार संगठन के तहत नए पेटेन्ट कानून को लागू करना है।
सरकार का नवउदारवादी एजेण्डा पेट्रोल की कीमतो में भी दिखाई देता है। पेट्रोल के विनियंत्रण के 9 महीने में सात बार इसकी कीमतें बढाई गई है। हर बार इससे पूरी अर्थव्यवस्था में  कीमतों में बढोत्तरी का नया चक्र शुरू होता है। यह सही है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में खनिज तेल की कीमते काफी बढी है किंतु क्या तेल के अंतरराष्ट्रीय सट्टे बाजार में हर उतार-चढाव का असर भारत के करोडो उत्पादकों, उपभोक्ताओं व सेवा-प्रदाताओं को भोगना पडेगा ? तब उनकी रोजी-रोटी, उनकी जिन्दगियों और भारतीय अर्थव्यवस्था को कितने झटके बार-बार झेलने पडेंगे ? इन झटकों से बचाने की व्यवस्था क्यों नही हो सकती है ? दरअसल सवाल इंडियन आईल, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम या ‘तेल व प्राकृतिक गैस आयोग’ जैसी सरकारी कंपनियों के घाटे या मुनाफे का नही है। असली बात तो यह है कि सरकार ने इन कंपनियों के शेयर बेचने और उससे कमाई करने का लक्ष्य पिछले बजट में रखा था। कंपनियो को घाटा दिखाई देने पर उनके शेयर ठीक से नहीं बिकेंगे। यह सरकार की असली चिंता है।
इसीसे महंगाई के इस संकट और भारतीय जनजीवन के अन्य संकटों को समझने का सूत्र मिलता है। भारत सरकार और उससे जुडे लोगो की चिंता और ध्यान शेयर बाजार के सूचकांक पर केन्द्रित है, खुदरा कीमतों के सूचकांक में वृद्धि की परवाह उन्हें नहीं है। वैसे भी अनाज, दाल, प्याज या तेल की कीमते चाहे 100 – 200 प्रतिशत बढ जाए, उनको कोई फर्क नहीं पडता। उनका पूरा प्रयास राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर को ऊंचा बनाए रखने पर भी है जिसके लिए देशी-विदेशी पूंजी व अमीरों की मिजाजपुर्सी एवं हितचिंता आम जनता से ज्यादा महत्वपूर्ण है। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने पिछले वर्ष यह कहकर इस बात को उजागर भी कर दिया था कि वे ‘विकास’ की कीमत पर महंगाई रोकने के पक्ष में नहीं हैं। इस विकास के साथ मंहगाई, बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण, भ्रष्टाचार और आम जनता के कष्टों का बढना शायद एक ही सिक्कें के दो पहलू है। यह भी कह सकते है कि यह पुराने बंटवारें का ही एक नया निर्दयी दौर है, जिसमें इंडिया के हिस्से में विकास आता है और भारत के हिस्से में महंगाई, वंचना, अभाव और कष्ट आ रहा है और इसी सच में महंगाई समस्या के प्रति भारत सरकार की निष्क्रियता उदासीनता, लाचारी और किंकर्तव्यविमूढता का राज छिपा है।
(ई-मेल:  sjpsunil@gmail.com

लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और आर्थिक-राजनैतिक विषयों पर टिप्पणीकार है।

सुनील, ग्राम/पो. केसला, वाया इटारसी, जिला होशंगाबाद, (म.प्र.) पिन 461111
फोन: 09425040452
बाॅक्स
मंहगाई पर सरकारी बयान

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह

जुलाई 2009: भारत की महंगाई दर दिसंबर 2009 तक नीचे 6 प्रतिशत तक आ जाएगी, क्योंकि सामान्य मानसून से खाद्य कीमतें कम हो जाएगी।
फरवरी 2010: मैं समझता हूं कि खाद्य-महंगाई में बुरे दिन अब बीत चले है। हाले के सप्राहों में खाद्य कीमतें नरम पड गई है और उम्मीद करता हूं कि यह प्रक्रिया जारी रहेगी। (महंगाई पर विचार करने के लिए बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में)
जुलाई 2010:    महंगाई की वर्तमान ऊंची दर मुख्य रूप से खाद्य कीमतों में वृद्धि के कारण है। सरकार ने महंगाई को काबू करने के लिए कई कदम उठाए है। हम उम्मीद करते हैं कि दिसंबर तक थोक कीमतों में महंगाई की दर 6 प्रतिशत तक नीचे आ जाएगी।
20 जनवरी 2011: मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूं। लेकिन मुझे भरोसा है कि कीमतों की स्थिति काबू में आ जाएगी। ………मार्च तक हम कीमतों में स्थिरता ला पाएंगे।

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी

सितंबर 2009: हमें खाद्यान्नों की उपलब्धता के बारे में ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नही है।
मई 2010: महंगाई के बारे में हम जागरूक है, किंतु मैं इस विषय में भगदड या डर नहीं पैदा करना चाहता (आई एम नाॅट प्रेसिंग द पेनिक बटन)।
अगस्त 2010: यदि ब्याज दरों को बहुत बढा दिया तो कोई पूंजी निवेश नहीं होगा कोई विकास नही होगा। ………. यदि मैं मेरे आर्थिक विकास में समझौता कर लूं, तब तो मैं निश्चित ही महंगाई पर काबू पा सकूंगा।
13 जनवरी 2011: महंगाई को लेकर घबराने की जरूरत नही है। सरकार के लिए खासी परेशानी पैदा कर रही खाद्य पदार्थो की महंगाई दर नीचे आ गई है।

योजना आयोग उपाध्यक्ष, मोंटेक सिंह अहलूवालिया

अप्रैल 2010: भारत की महंगाई दर दो या तीन महीनों में गिर सकती है।
जुलाई 2010: वर्ष के अंत तक भारत की महंगाई दर ‘आरामदेह स्तर’ पर लौट सकती है।
अगस्त 2010: महंगाई की दर में कमी हो रही है और दिसंबर तक यह आरामदेह हो जाएगी। ……… हम जो कह रहे थे वैसा ही हो रहा है।

भारतीय रिजर्व बैंक डिप्टी गवर्नर, सुबीर गोकर्ण

जून 2010: जो खाद्य महंगाई दर पिछले नवंबर से 15 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है, वह इस साल की सामान्य वर्षा से कम हो जाएगी।
अगस्त 2010: हमारा ख्याल है कि हमने महंगाई का प्रबंध करने के लिए काफी कुछ किया है और हम इस वर्ष के दूसरे हिस्से में इसका असर देखेंगे, क्योंकि किसी भी कार्रवाई का असर होने में कुछ समय लगता है।

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विश्व फुटबाल कप की धूमधाम खतम होने बाद दक्षिण अफ्रीका में गर्व और संतोष के बजाय मायूसी और चिंता छाई है तथा कई सवाल खड़े हो रहे हैं। मायूसी महज इस बात की नहीं है कि अफ्रीका की कोई टीम सेमी-फाईनल तक भी नहीं पहुंच पाई। चिंता यह भी है कि इस आयोजन के लिए बने विशाल महंगे स्टेडियमों का अब क्या होगा और उनका रखरखाव कैसे होगा ? खबरों से लगता है कि ये स्टेडियम सफेद हाथी साबित होने वाले हैं, जिन्हें पालना और खिलाना इस गरीब देश की मुसीबत बन जाएगा।
इस आयोजन के लिए दक्षिण अफ्रीका ने नौ शहरों में दस ‘विश्व स्तरीय’ स्टेडियम बनाने पर करीब 150 करोड़ डॉलर (7,000 करोड़ रु) खर्च किए। किन्तु अब विश्वकप की प्रतियोगिता खतम होने पर उनका कोई उपयोग नहीं बचा। इन स्टेडियमों की क्षमता 40 हजार से लेकर 95 हजार दर्शकों तक हैं। आने वाले कई बरसों तक वहां इतने बड़े मैच इक्का-दुक्का ही होंगे, जिनमें इन स्टेडियमों का आधा या चैथाई उपयोग भी हो सके। पोलोकवान नामक शहर में 16.8 करोड़ डॉलर (756 करोड़ रु.) से बना 40 हजार दर्शकों का विशाल स्टेडियम है, किन्तु उस पूरे इलाके में फुटबाल या रगबी की एक भी पेशेवर टीम नहीं है। इस स्टेडियम की देखभाल पर प्रतिवर्ष 2.16 करोड़ डॉलर (100 करोड़ रु.) खर्च होंगे। यह सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ाएगा।
बड़े शहरों के स्टेडियमों को फुटबाल या रगबी मैचों या सांस्कृतिक आयोजनों के लिए देने का विचार किया जा रहा है, किन्तु उससे समस्या हल नहीं होगी। जाहिर है कि विश्वकप के जोश में दक्षिण अफ्रीका सरकार ने पहले इस समस्या पर गौर नहीं किया। पूरे आयोजन पर करीब 420 करोड़ डॉलर (20,000 करोड़ रु.) खर्च हो चुका है। इस मौके पर आए पर्यटकों या टिकिट बिक्री से इसकी आधी कमाई भी नहीं हो पाई होगी।
थोड़ी पड़ताल करने पर पता चलता है कि लगभग खेलों के हर महा-आयोजन के बाद यही समस्या पैदा होती है। बीजिंग के 2008 ओलंपिक के बाद चीन भी इसी समस्या से जूझ रहा है। 50 करोड़ डॉलर (2250 करोड़ रु.) की लागत से बने मशहूर  विशाल ‘बर्ड्स नेस्ट’ नामक स्टेडियम के रखरखाव और कर्ज-किश्त भुगतान के लिए 2 करोड़ डॉलर (90 करोड़ रु.) जुटाने में पसीना आ रहा है। चीन ने कुल मिलाकर 31 स्टेडियम बनाए थे। इनके अलावा ओलंपिक के लिए चीन ने 680 हेक्टेयर में फैला एक विशाल वन पार्क भी 112 करोड़ डॉलर (5000 करोड़ रु.) की लागत से बनाया था। उसके रखरखाव के लिए डेढ़ करोड़ डॉलर (67 करोड़ रु.) की सालाना जरुरत है। चीन सरकार इन स्टेडियमों को मनोरंजन, संगीत कार्यक्रमों, प्रदर्शनियों आदि के लिए किराए पर देने की कोशिश कर रही है और अमरीकी कंपनियों को ठेका दे रही है। यह साफ है कि इन स्टेडियमों का उपयोग खेलों में बिरले तौर पर ही होगा,जिनके लिए इनका निर्माण हुआ है।
बीजिंग ओलंपिक दुनिया का अभी तक का सबसे महंगा खेल आयोजन था, जिस पर 4400 करोड़ रु. (करीब 2,00,000 करोड़ रु.) खर्च हुआ। किन्तु इसके पहले के ओलंपिक भी आयोजक देशों के लिए मुसीबत बने थे। यूनान के मौजूदा आर्थिक संकट की शुरुआत एक तरह से 2004 के एथेन्स ओलंपिक से ही मानी जा सकती है, जिसे बाद में वैश्विक मंदी ने गंभीर रुप दे दिया। इसके स्टेडियमों के रखरखाव पर 7 करोड़ डॉलर (200 करोड़ रु.) प्रतिवर्ष का खर्च आ रहा है और वे बेकार पड़े हैं। 2004 के सिडनी ओलंपिक के बाद उस शहर के नागरिकों पर सालाना 3.2 करोड़ डॉलर (144 करोड़ रु.) का कर बोझ बढ़ गया। 1992 के बार्सीलोना ओलंपिक के बाद स्पेन पर 2 करोड़ डॉलर (90 करोड़ रु.) का कर्ज चढ़ा था। इन आयोजनों के पहले इनसे स्थानीय अर्थव्यवस्था में तेजी आने की दलील दी जाती है, किन्तु होता ठीक उल्टा है।
दिल्ली के राष्ट्रमंडल खेलों के लिए भी भारत को आर्थिक महाशक्ति बनने की दलील दी जा रही है। किन्तु 4100 करोड़ रु. की विशाल राशि से जिन 11 स्टेडियमों व स्पर्धा-स्थलों और 1038 करोड़ रु. से जिस आलीशान खेलगांव को तैयार किया जा रहा है, क्या वे भी इस 12 दिवसीय आयोजन के बाद बेकार व बोझ नहीं हो जाएंगे ? फिर दिल्ली में तो इस आयोजन के बहाने कई चीजों पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है, जिनका खेलों से कोई लेना-देना नहीं है। इंदिरा  गांधी हवाई अड्डे का 9,000 करोड़ रु. का नया टर्मिनल, हजारों करोड़ों के नए फ्लाईओवर-पुल-पार्किंग स्थल-एक्सप्रेसवे, मेट्रो रेल का ताबड़तोड़ विस्तार, एक-एक करोड़ रु. की हजारों नयी आधुनिक बसें, दिल्ली का सौन्दर्यीकरण, आदि की लंबी सूची है। क्या पूरे भारत में दिल्ली ही सरकार को नजर आती है ? पूरा हिसाब लगाएं तो इस गरीब देश का एक से डेढ़ लाख करोड़ रुपया इस महायज्ञ में स्वाहा हो रहा है। जो सरकार खाद्य-अनुदानों की वृद्धि पर चिन्तित है, शिक्षा और शिक्षकों पर कंजूसी कर रही है, पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस में जनता को कोई राहत नहीं देना चाहती है, उसने राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर अपना खजाना खोल दिया है और उसकी दरियादिली का कोई हिसाब नहीं है।
हमारा 1982 के एशियाई खेलों के आयोजन का क्या अनुभव है ? उस वक्त भी विशाल पैसा खर्च करके बनाए गए स्टेडियम और खेलगांव बाद में बेकार पड़े रहे।  हमें फिर से भारी पैसा फूंक कर नए स्टेडियम व नया खेलगांव  बनाना पड़ रहे हैं। इससे भी खेलों को बढ़ावा मिलने का दावा था, किन्तु एशियाड के बाद न तो अंतरराष्ट्रीय पदक तालिकाओं में 100 करोड़ आबादी के इस देश की दयनीय हालत में कोई सुधार हुआ और न देश के अंदर खेलों की कोई स्वस्थ संस्कृति व परंपरा बनी। यह भी सवाल है कि जिस बेतहाशा तेजी से ये खेल खर्चीले व महंगे होते जा रहे हैं, उनमें गरीब देशों के साधारण लोगों की कोई जगह और भागीदारी कभी बन सकेगी या नहीं ? वे दर्शक और उपभोक्ता जरुर बनते जा रहे हैं। आखिर इस विश्वकप में यूरोप के दबदबे, लातीनी अमरीका के पिछड़ने और अफ्रीका के बाहर होने का एक कारण पैसा भी है। कोच, प्रशिक्षण, विशेष सुविधाएं सबके लिए पैसा चाहिए। कुल मिलाकर आधुनिक खेल व उनके आयोजन अब तेजी से पैसे के खेल बनते जा रहे हैं। उन पर झूठी शान और सतही राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का मुलम्मा जरुर चढ़ा दिया जाता है। ऐसा ही एक पैसे का बड़ा खेल दिल्ली में इस वर्ष होने वाला है। इस महाखर्चीले आयोजन से देश खेलों व खिलाड़ियों का भला हो या न हो,आयोजको की पीढ़ियां जरुर तर जाएंगी। उनके व्यक्तिगत हितों के साथ ठेकेदारों, व्यापारियों, विज्ञापनदाताओं और मीडिया कंपनियों के हित भी जुड़ गए हैं, जिन्हें मोटी कमाई नजर आ रही है।
यदि भारत या दक्षिण अफ्रीका की सरकारों को वास्तव में खेलों को बढ़ावा देना तथा विश्व स्तरीय खिलाड़ी तैयार करना होता तो वे ऐसे महाखर्चीले यज्ञों और सफेद हाथियों पर पैसा फूंकने के बजाय गांवो-कस्बों में खेल मैदान, स्टेडियम,प्रशिक्षण और स्थानीय खेल स्पर्धाओं पर खर्च करती। किन्तु उनका इरादा तो कुछ और ही दिखाई देता है। विश्वकप फाईनल के पहले ही दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति जेकब जुमा ने पूंजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की एक बैठक ली। उन्होंने कहा – ‘हमने दिखा दिया है कि हम सफल आयोजन और आतिथ्य कर सकते हैं, अब आप आइए, हमारे देश में पूंजी लगाइए और कमाइए।’
इसी तरह की भाषा में दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल आयोजन का एक मकसद बताया गया है कि इससे दिल्ली व भारत को ‘दुनिया की मंजिल’ (ग्लोबल डेस्टिनेशन) बनाने में मदद मिलेगी। यानी विदेशी पूंजी को लुभाने के लिए यह पूरा तमाशा है। यही असली एजेण्डा है, चाहे इसके लिए गरीब देश का खजाना ही क्यों न लुटाना पड़े। बारह दिन के आयोजन व तामझाम से जो वाहवाही व मदहोशी पैदा होगी, उसमें आम जनता थोड़े समय के लिए अपने कष्ट भूल जाएगी। महंगाई, बेकारी, आतंकवाद-माओवाद आदि पर सरकार की घोर असफलता के मुद्दे भी नैपथ्य में चले जाएंगे। यह दूसरा एजेण्डा है। सफेद हाथी, फिजूलखर्च, कर्ज व दिवालियापन की जहां  तक बात है, उन्हें बाद में देखा जाएगा।   
(ईमेल –  sjpsunil@gmail.com )

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लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।
– सुनील
ग्राम – केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.)
पिन कोड: 461 111
मोबाईल 09425040452 

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[ स्कूल के दौरान ही सुनील को गाँधीजी की आत्मकथा मिली थी और वे उससे प्रभावित हुए थे। मध्य प्रदेश बोर्ड की परीक्षा में मेरिट सूची में स्थान पाने के बाद एक छोटे कस्बे से ही उन्होंने स्नातक की उपाधि ली। देश के अभिजात विश्वविद्यालय माने जाने वाले – जनेवि में दाखिला पाया । विद्यार्थी जीवन में ही लोकतांत्रिक समाजवाद में निष्ठा रखने वाले युवजनों की जमात से जुड़ गये । जलते असम और पंजाब के प्रति देश में चेतना जागृत करने के लिए साइकिल यात्रा और पदयात्रा आयोजित कीं । समता एरा और सामयिक वार्ता के सम्पादन से जुड़े रहे तथा दर्जनों पुस्तकें लिखीं और सम्पादित की। जनेवि में हरित क्रांति के प्रभावों पर पीएच.डी का काम छोड़ मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के केसला प्रखण्ड के किसान-आदिवासियों को संगठित करने में जुट गये ।गत पचीस वर्षों से उस क्षेत्र को वैकल्पिक राजनीति का सघन क्षेत्र बनाया है। दर्जनों बार जेल यात्राएं हुईं -सरकार द्वारा थोपे गये फर्जी मुकदमों के तहत । प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय आबादी के हक को लेकर सफल नये प्रयोग किए । देश में नई राजनैतिक ताकत की स्थापना के लिए समाजवादी जनपरिषद नामक दल की स्थापना करने वालों में प्रमुख रहे। माओवादी राजनीति की बाबत गंभीर अंतर्दृष्टि के साथ लिखा गया यह लम्बा लेख एक नई दिशा देगा। आज के ’जनसत्ता’ से साभार ।- अफ़लातून ]

सुनील

दंतेवाड़ा ने देश को दहला दिया है। यह साफ है कि दंतेवाड़ा,लालगढ़, मलकानगिरि जैसे कुछ आदिवासी इलाकों में माओवादियों ने अपने आजाद क्षेत्र बना लिये हैं, आदिवासियों का ठोस समर्थन और आदिवासी युवा उनके साथ हैं तथा वे पूरी तैयारी और सुविचारित रणनीति के साथ अपना युद्ध लड़ रहे हैं।

6 अप्रैल को दंतेवाड़ा में अभी तक की पुलिस व अर्धफौजी बलों की सबसे बड़ी क्षति हुई है। इस घटना की प्रतिक्रिया में रस्मी तौर पर बयान आ रहे हैं और तलाशी अभियान चल रहे हैं। कई बेगुनाहों को इस चक्कर में पकड़ा, मारा या सताया जाएगा। हिंसा और अत्याचारों का दौर दोनों तरफ चलता रहेगा। लेकिन इससे कुछ नहीं निकलेगा। हालात और बिगडे़गी। वक्त आ गया है कि जब देश गंभीरता से विचार करे कि ये हालातें क्यों पैदा हुई, माओवादियों का इतना जनाधार कैसे बढ़ा, सरल और शांतिप्रिय आदिवासी मरने व मारने पर क्यों उतारु हुए ? इस हिंसा की जड़ में क्या है ?

माओवाद या नक्सलवाद के बारे में देश आम तौर पर तभी सोचता है, जब ऐसी कोई बड़ी घटना होती है। मीडिया के जरिये कभी-कभी जो अन्य कहानियां या खबरें मिलती हैं, वे सतही और पूर्वाग्रहग्रस्त रहती हैं। ऐसी हालत में देश की एक बड़ी अंग्रेजी लेखिका अरुंधती राय ने करीब एक सप्ताह दंतेवाड़ा के जंगलों में सशस्त्र माओवादियों के साथ बिता कर उसका वृत्तांत ‘आउटलुक’ (29 मार्च, 2010) पत्रिका में देकर हमारा एक उपकार किया है। ऐसा नहीं है कि वे पूरी तरह निष्पक्ष है। माओवादियों के प्रति उनकी सराहना, सहानुभूति और उनका रोमांच साफ है। किन्तु इससे दूसरी तरफ की, अंदर की, बहुत सारी बातें जानने एवं समझने को मिलती है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि पिछले काफी समय से सरकार ने इन इलाकों को सील कर रखा है और बाहर से किसी को जाने नहीं दे रही है। मेधा पाटेकर, संदीप पांडे या महिला दल की जनसुनवाई या पदयात्रा को भी सरकार और सरकारी गुर्गों ने होने नहीं दिया। उनकी घेरेबंदी को भेदकर, भारी जोखिम लेकर, काफी कष्ट सहकर, अरुंधती ने बड़ा काम किया है। भारत के बुद्धिजीवी जिस तरह से वातानुकूलित घेरों के अंदर बुद्धि-विलास तक सीमित होते जा रहे हैं, उसे देखते हुए भी यह काबिले तारीफ है।

तीन संकट:

इस वृतांत से एक बात तो यह पता चलती है कि वहां के आदिवासियों का एक प्रमुख मुद्दा जमीन और जंगल (तेदूंपत्ता या बांस कटाई) की मजदूरी का रहा है। बड़े स्तर पर वनभूमि पर आदिवासियों का कब्जा करवाकर और वन विभाग के उत्पीड़न से मुक्ति दिलाकर माओवादियों ने अपना ठोस जनाधार बनाया है। वास्तव में, देश के सारे जंगल वाले आदिवासी इलाकों में  तनाव, टकराव और जन-असंतोष का यह एक बड़ा कारण है। अब तो देश को यह अहसास होना चाहिए कि आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक रुप से अन्याय हुआ है, भारत के वन कानून जन-विरोधी और आदिवासी – विरोधी हैं, आजादी के बाद हालातें नहीं बदली हैं, बल्कि राष्ट्रीय उद्यानों, अभ्यारण्यों एवं टाईगर रिजर्वों के रुप में उनकी जिंदगियों पर नए हमले हुए हैं। संसद में पारित आधे-अधूरे वन अधिकार कानून से यह समस्या हल नहीं हुई है। जैसे नरेगा से रोजगार की समस्या हल नहीं हो सकती, सूचना के अधिकार से प्रशासनिक सुधार का काम पूरा नहीं हो जाता, प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून से देश में भूख एवं कुपोषण खतम नहीं होने वाला हैं, उसी तरह वन-अधिकार कानून भी ज्यादातर एक दिखावा ही साबित हुआ है। भारत के जंगलों पर पहला अधिकार वहां रहने वाले लोगों का है, उनकी बुनियादी जरुरतें सुनिश्चित होनी चाहिए, तथा अंग्रेजों द्वारा कायम वन विभाग की नौकरशाही को तुरंत भंग करके स्थानीय भागीदारी से वनों की देखरेख का एक वैकल्पिक तंत्र बनाना चाहिए। भारत के जंगल क्षेत्रों में खदबदा रहे असंतोष का दूसरा कोई इलाज नहीं हैं। और यही जंगलों एवं वन्य प्राणियों के भी हित में होगा।

वैश्वीकरण के दौर में, निर्यातोन्मुखी विकास और राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर के चक्कर में, देशी विदेशी कंपनियों और सरकार के सहयोग से इन इलाकों के जल-जंगल-जमीन पर हमले का एक नया दौर शुरु हुआ है। खदानों व कारखानों के बेतहाशा करारनामे और समझौते हो रहे हैं। यदि सबका क्रियान्वयन हो गया, तो भारत के बड़े इलाकों से जंगल और आदिवासी दोनों साफ हो जाएंगे। सलवा जुडुम और ऑपरेशन ग्रीन हंट के पीछे सरकार के जोर लगाने का एक बड़ा कारण यही है कि इन इलाकों में खनिज के भंडार भरे हुए हैं। सलवा जुडुम के लिए टाटा और एस्सार कंपनी ने भी पैसा दिया है, इस तरह के तथ्य सामने लाने का भी काम अरुंधती राय ने किया है। भारत के मौजूदा गृहमंत्री चिदंबरम साहब भी वेदांत एवं अन्य कंपनियों से जुडे़ रहे हैं। यह हमला व यह सांठगांठ देश में लगभग हर जगह चल रहा है। कई जगह लोग गैर-हथियारबंद तरीकों से लड़ रहे हैं। यदि देश को बचाना है, तो इस कंपनी साम्राज्यवाद को तत्काल रोकना होगा। यह दूसरा निष्कर्ष सिर्फ अरुंधती राय के लेख से नहीं, देश के कोने-कोने से आने वाली सैकड़ों रपटों व खबरों से निकलता है।

माओवाद के नाम पर इन तमाम गैर-हथियारबंद आंदोलनों को भी कुचला जा रहा है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि भारतीय राजसत्ता और माओवादी दोनों के लिए यह स्थिति सुविधाजनक है और दोनों इसे बनाए रखना चाहते हैं। माओवाद प्रभावित इलाकों के आसपास के जिलों में भी अब कोई भी भ्रष्टाचार या पुलिस ज्यादतियों का मामला भी नहीं उठा सकता। उसे माओवादी कहकर जेल में सड़ा दिया जाएगा या फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाएगा। लोकतांत्रिक विरोध की गुंजाईश और जगह खतम होने से लोग मजबूर होकर माओवाद की शरण में जाएंगे, इसलिए यह माओवादियों के  हित में भी है। लालगढ़ में ‘‘पुलिस संत्रास बिरोधी जनसाधारणेर कमिटी’’, कलिंग नगर में टाटा कारखाने के विरोध में आंदोलन, नारायणपटना में अपनी जमीन वापसी की लड़ाई लड़ रहे आदिवासी — ये सब गैर-हथियारबंद लोकतांत्रिक आंदोलन थे। इनके नेताओं को जेल में डालकर, इन पर लाठी – गोली चलाकर सरकार इनको माओवादियों की झोली में डाल रही है।

अतएव हमें तीसरा अहसास भारतीय लोकतंत्र पर छाए गंभीर संकट का होना चाहिए। भारतीय राजसत्ता जहां चाहे, जब चाहे, लोकतांत्रिक नियमों और मान-मर्यादाओं को ताक में रख देती है। विशेषकर जो इलाके और समुदाय भारत की मुख्य धारा के हिस्से नहीं है, जैसे पूर्वोत्तर और कश्मीर, दलित, आदिवासी और मुसलमान, उनके साथ वह बर्बरता और क्रूरता की सारी सीमाएं लांघ जाती है। उसका बरताव वैसा ही होता है, जैसा एक तानाशाह का होता है। सशस्त्र संघर्ष तो अलग बात है, लोकतांत्रिक एवं अहिंसक तरीकों से होने वाले जनप्रतिरोध को भी उपेक्षित करने व कुचलने में उसे कोई संकोच नहीं होता। आखिर दस वर्षों से चल रहा इरोम शर्मिला का अनशन तो एक गांधीवादी प्रतिरोध ही है, जो इस राजसत्ता की संवेदनशून्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है। अपने दमन और अत्याचारों से यह राजसत्ता लोगों को उल्टे हिंसा की और धकेलती एवं मजबूर करती है।

भारत में बढ़ता हुआ उग्रवाद, आतंकवाद और माओवाद कहीं न कहीं भारतीय लोकतंत्र की गहरी विफलता की ओर इशारा करता है, जिसमें लोगों को अपनी समस्याओं और अपने असंतोष को अभिव्यक्त करने तथा उनके निराकरण के जरिये नहीं मिल पा रहे हैं। भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की इस विफलता को देश के मुख्य इलाकों के आम लोग भी महसूस कर रहे हैं। उनकी हताशा कम मतदान, आम बातचीत में नेताओं को गाली देने, तुरंत कानून अपने हाथ में लेने या हिंसा व आगजनी की घटनाओं में प्रकट होती है। देश की आजादी के बाद लोकतंत्र का जो ढांचा हमारे संविधान निर्माताओं ने अपनाया, वह शायद बहुत ज्यादा उपयुक्त नहीं था। अब पिछले छः दशकों के अनुभव के आधार पर इसकी समीक्षा करने का समय आ गया है। माओवादियों की तो इसमें कोई रुचि नहीं होगी कि इस ‘बुर्जुआ’ लोकतंत्र को बचाया जाए। लेकिन बाकी देशप्रेमी लोगों को इस लोकतंत्र की अच्छी बातों जैसे वयस्क मताधिकार, मौलिक अधिकार, कमजोर तबकों के लिए आरक्षण, आदि को संजोते हुए इसके ज्यादा विक्रेन्द्रित, जनता के ज्यादा नजदीक, नए वैकल्पिक ढांचे के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।

इस लेख में अरुंधती राय ने विरोध के गांधीवादी, अहिंसक एवं लोकतांत्रिक तरीकों का कुछ हद तक मजाक उड़ाया है और बताया है कि वे सब असफल हो गए है। यह भी पूछा है कि आखिर नर्मदा बचाओ आंदोलन ने कौन-कौन सा दरवाजा नहीं खटखटाया ? वे बताना चाहती हैं कि हथियार उठाने, युद्ध लड़ने, सत्ता के मुखबिरों को मारने-काटने का जो रास्ता माओवादियों ने चुना है, उसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। किन्तु क्या सचमुच ऐसा है ? पता नहीं, अरुंधती राय को मालूम है या नहीं, देश के कई हिस्सों में इस वक्त सैकड़ों की संख्या में छोटे-छोटे आंदोलन चल रहे हैं जो सब लोकतांत्रिक और गैर-हथियारबंद है। वास्तव में माओवादियों के मुकाबले उनका दायरा काफी बड़ा है। सफलता-असफलता की उनकी स्थिति भी मिश्रित है, एकतरफा नहीं। बल्कि सूची बनाएं, तो ऐसे कई छोटे-छोटे जनांदोलन पिछले दो-ढाई दशक में हुए हैं जो विनाशकारी परियोजनाओं को रोकने के अपने सीमिति मकसद में सफल रहे हैं। झारखंड में कोयलकारो, उड़ीसा में गंधमार्दन, चिलिका, गोपालपुर, बलियापाल एवं कलिंगनगर, गोआ में डूपों और सेज विरोधी आंदोलन, महाराष्ट्र में नवी मुंबई और गोराई के सेज -विरोधी आंदोलन  आदि। बंगाल में सिंगुर और नन्दीग्राम में भी हिंसा जरुर हुई, लेकिन वे मूलतः लोकतांत्रिक ढांचे के अंदर के आंदोलन थे। नर्मदा बचाओ आंदोलन भले ही नर्मदा के बड़े बांधों को रोक नहीं पाया, लेकिन उसने बड़े बांधों और उससे जुड़े विकास के मॉडल पर एक बहस देश में खड़े करने में जरुर सफलता पाई। विस्थापितों की दुर्दशा के सवाल को भी वह एक बड़ा सवाल बना सका, नहीं तो पहले इसकी कोई चर्चा ही नहीं होती थी। लेकिन यह भी सही है कि नवउदारवादी दौर में राजसत्ता का जो दमनकारी चरित्र बनता जा रहा है, उसमें आंदोलन एवं प्रतिरोध करना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। गांधी के देश में गांधी के रास्ते पर चलना कठिनतर होता जा रहा है। (जारी)

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शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल के तत्वाधान में 24 जनवरी 2010 को मॉडल शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय परिसर में ’’राष्ट्रमंडल खेल-2010 बनाम शिक्षा का अधिकार’’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में प्रख्यात समाजवादी नेता श्री सुनील द्वारा लिखित एवं समाजवादी जनपरिषद और विद्यार्थी युवजन सभा द्वारा प्रकाशित पुस्तक ’’ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेल-2010; गुलामी और बरबादी का तमाशा’’ पुस्तक का लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता ’अनुसूया’ की सम्पादक श्रीमती ज्योत्सना मिलन ने की इसके पूर्व संगोष्ठी को संबोधित करते हुए ’’अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच’’ के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य एवं प्रख्यात शिक्षाविद् डॉ. अनिल सद्गोपाल ने कहा कि यह शर्मनाक बात है कि शिक्षा, स्वास्थ, पेयजल, कृषि आदि प्राथमिक विषयों की उपेक्षा करते हुए राष्ट्रमंडल खेलों की आड़ में राजधानी क्षेत्र नई दिल्ली एवं आसपास के क्षेत्रों में विकास के नाम पर अरबों रुपये खर्च किए जा रहे है। उन्होने बताया की सरकार की ऐसी जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध आगामी 24 फरवरी 2010 को ’’अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच’’ संसद मार्च करेंगा जिसमें देश के विभिन्न संगठन हिस्सा लेंगे। इस रैली का मुख्य उद्देश्य देश की जनता को देश में हो रहे नवउदारवादी एजेण्डे के तहत नई तरह की गुलामी को थोपने वाली नीतियों से अवगत कराना होगा। जिसका एक हिस्सा ’शिक्षा अधिकार कानून 2009’ भी है। इस रैली के जरिए आम जनमानस का आह्वान किया जाएगा कि वह संगठित होकर इस दलाल चरित्र वाली सरकार को देश के हित में कार्य करने को मजबूर करें।
पुस्तक के लेखक एवं विचारक श्री सुनील ने कहा कि देश बाजारवाद एवं नई खेल संस्कृति विकसित करने की आड़ में गुलामी की ओर बढ़ रहा है, दिल्ली में 200 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का प्राथमिक आकलन किया गया था, जिसे बढाकर 1.5 लाख करोड़ कर दिया गया है। दिल्ली में कई ऐसे स्थानों पर निर्माण कार्य किए जा रहे हैं।
संगोष्ठी में सर्व श्री दामोदर जैन, गोविंद सिंह आसिवाल, प्रो. एस. जेड. हैदर, प्रिंस अभिशेख अज्ञानी, अरुण पांडे और राजू ने अपने विचार व्यक्त करते हुए ’समान स्कूल प्रणाली’ विषयक संगठन के उद्देश्य के प्रति सहमति व्यक्त की। अंत में मंच की ओर से श्री कैलाश श्रीवास्तव ने आभार व्यक्त किया।

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भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्वों में सरकार को यह निर्देश दिया गया था कि वह 14 वर्ष तक के सारे बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा देने की व्यवस्था 26 जनवरी 1960 तक करेगी। यदि इस तारीख के लगभग 50 वर्ष बीतने के बाद भी यह काम नहीं हो पाया है, तो उसके कारणों को खोजना होगा। क्या प्रस्तावित विधेयक उन कारणों को दूर करता है ? यही इस विधेयक को जांचने की मुख्य कसौटी होनी चाहिए।

इच्छाशक्ति की कमी –

सरकारों की ओर से अपने दायित्व-निर्वाह में इस चूक के लिए प्रमुख दलील दी जाती रही है कि भारत एक गरीब देश है और सरकार के पास संसाधनों की कमी रही है। किन्तु इस दलील को स्वीकार नहीं किया जा सकता। वे ही सरकारें फौज, हथियारों, हवाई अड्डों एवं हवाई जहाजों, फ्लाई-ओवरों, एशियाड और अब राष्ट्रमंडल खेलों पर विशाल खर्च कर रही है। दरअसल सवाल प्राथमिकता और राजनीतिक इच्छाशक्ति का है। देश के सारे बच्चों को शिक्षित करना कभी भी सरकार की प्राथमिकता में नही रहा है। यह भी माना जा सकता है कि भारत का शासक वर्ग नहीं चाहता था कि देश के सारे बच्चे भलीभांति शि्क्षित हों, क्योंकि वे शि्क्षित होकर बड़े लोगों के बच्चों से प्रतिस्पर्धा करने लगेगें और उनके एकाधिकार एवं विशेषाधिकारों को चुनौती मिलने लगेगी। अंग्रेजों के चले जाने के बाद अंग्रेजी का वर्चस्व भी इसीलिए बरकरार रखा गया।
देश के सारे बच्चों को शि्क्षित करने का काम कभी भी निजी स्कूलों के दम पर नहीं हो सकता। कारण साफ है। देश की जनता के एक हिस्से में निजी स्कूलों की फीस अदा करने की हैसियत नहीं है। भारत की सरकारों को ही इसकी जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को ही व्यापक, सुदृढ़ व सक्षम बनाना होगा। लेकिन पिछले दो दशकों में सरकारें ठीक उल्टी दिशा में चलती दिखाई देती है। यानि अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना, सरकारी शिक्षा व्यवस्था को जानबूझकर बिगाड़ना एवं वंचित करना तथा शिक्षा के निजीकरण एवं व्यवसायीकरण को बढ़ावा देना। इससे भी मालूम होता है कि सरकार की इच्छा इस दिशा में नहीं है।
यों पिछले कुछ वर्षों में देश में स्कूलों की संख्या काफी बढ़ी है। छोटे-छोटे गांवों एवं ढानों में भी स्कूल खुल गए हैं। स्कूल जाने लायक उम्र के बच्चों में 90 से 95 प्रतिशत के नाम स्कूलों में दर्ज  हो गए हैं, यह दावा भी किया जा रहा है। किन्तु इस द्र्ज संख्या में एक हिस्सा तो फर्जी या दिखावटी है। फिर जिन बच्चों के नाम पहली कक्षा में लिख जाते हैं, उनमें कई बीच में स्कूल छोड़ देते हैं और आधे भी कक्षा 8 में नहीं पहुंच पाते हैं। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। इस वर्ष मध्यप्रदेश में कक्षा 10वीं में केवल 35 प्रतिशत बच्चों का पास होना इस शिक्षा-व्यवस्था की दुर्गति का एक सूचक है।

सरकारी शिक्षा की बदहाली –

पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने स्वयं कई कदम उठाए हैं, जिनसे सरकारी शिक्षा की हालत बिगड़ी है :-
(1)    स्थायी, प्रशिक्षित शिक्षकों का कैडर समाप्त करके उनके स्थान पर पैरा-शिक्षकों (शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, अतिथि शिक्षक, शिक्षा सेवक, शिक्षा मित्र आदि) की नियुक्ति। पैरा-शिक्षक अप्रशिक्षित व अस्थायी होते हैं और उन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है।
(2)    कई प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षक ही नियुक्त करना तथा यह मान लेना कि एक शिक्षक एक समय में दो या तीन कक्षाओं को एक साथ पढ़ा सकता है।
(3)    माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक शालाओं में प्रत्येक विषय के शिक्षक न प्रदान करना। शिक्षकों के पद खाली रखना। प्रतिवर्ष पैरा-शिक्षकों की नियुक्ति के चक्कर में भी कई पद खाली रहते हैं।
(4)    शिक्षकों को गैर-शिक्षणीय कामों में लगाना तथा ये काम बढ़ाते जाना।
(5)    शालाओं के निरीक्षण की व्यवस्था को कमजोर या समाप्त करना।
(6)    शालाओं में पर्याप्त भवन, एवं अन्य जरुरी सुविधाएं न प्रदान करना।
शिक्षा का बंटवारा और दुष्चक्र –
सरकारी स्कूलों की हालत बिगड़ने का एक और कारण यह रहा है कि जैसे-जैसे कई तरह के निजी स्कूल खुलते गए, बड़े लोगों, पैसे वालों और प्रभावशाली परिवारों के बच्चे उनमें जाने लगे। सरकारी स्कूलों में सिर्फ गरीब बच्चे रह गए। इससे उनकी तरफ समाज व सरकार का ध्यान भी कम हो गया। यह एक तरह का दुष्चक्र है, जिसमें सरकारी शिक्षा व्यवस्था गहरे फंसती जा रही है। देश में समान स्कूल प्रणाली लाए बगैर इस दुष्चक्र को नहीं तोड़ा जा सकता। शिक्षा में समानता और शिक्षा के सर्वव्यापीकरण का गहरा संबंध है।
अफसोस की बात है कि संसद में पेश ‘बच्चों के मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार
विधेयक’ में इस दुष्चक्र को तोड़ने, सरकारी शिक्षा की दुर्गति को रोकने तथा शिक्षा के निजीकरण एवं बाजारीकरण को रोकने के पर्याप्त उपाय मौजूद नहीं है। वैसे सरसरी तौर पर यह विधेयक प्रगतिशील और भले उद्देश्य वाला दिखाई देता है। इसमें कुछ अच्छी बातें भी है। किन्तु यदि लक्ष्य देश के सारे बच्चों को शिक्षित करने का है, तो यह विधेयक अपर्याप्त व भ्रामक है। यही नहीं, यह भारत में शिक्षा में बढ़ते हुए भेदभाव, गैरबराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण व मुनाफाखोरी पर वैधानिकता का ठप्पा लगाने का काम करता है, जबकि जरुरत उन पर तत्काल रोक लगाने की है।
शिक्षा का बढ़ता हुआ बाजार वास्तव में बहुसंख्यक बच्चों को अच्छी शिक्षा से वंचित करने का काम करता है, क्योंकि वे इस बाजार की कीमतों को चुकाने में समर्थ नहीं होते। उनके लिए जो ‘मुफ्त’ सरकारी शिक्षा रह जाती है, वह लगातार घटिया, उपेक्षित, अभावग्रस्त होती जाती है। बाजार में सबसे खराब, सड़ा और फेंके जाने वाला माल ही मुफ्त मिल सकता है। दरअसल बाजार और अधिकार दोनों एक साथ नहीं चल सकते। यह अचरज की बात है कि शिक्षा के बाजारीकरण एवं व्यवसायीकरण पर रोक नहीं लगाने वाले इस विधेयक को कैसे ‘शिक्षा अधिकार विधेयक’ का नाम दिया गया है ?

विधेयक की प्रमुख कमियां –

इस विधेयक के बारे में निम्न बातें विशेष रुप से गौर करने लायक है –

स्कूलों में भेद

विधेयक के प्रारंभ में ही परिभाषाओं की धारा 2 (एन) में (स्कूल की परिभाषा में) मान लिया गया है कि चार तरह के स्कूल होगें – (1)    सरकारी स्कूल    (2)    अनुदान प्राप्त निजी स्कूल (3)    विशेष श्रेणी के स्कूल (केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय आदि) और (4)    अनुदान न पाने वाले निजी स्कूल। विधेयक के कई प्रावधान श्रेणी (2), (3) या (4) पर लागू नहीं होती है। शिक्षा के भेदभाव को इस तरह से मान्य एवं पुष्ट किया गया है।

25 प्रतिशत सीटें गरीबों को : बाकी का क्या ?

धारा 8(ए) और धारा 12 से स्पष्ट है कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा सिर्फ सरकारी स्कूलों में ही मिल सकेगी। श्रेणी (2),(3) एवं (4) के स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें कमजोर तबके के बच्चों को मिलेगीं, जिसके लिए सरकार श्रेणी (4) के स्कूलों को खर्च का भुगतान करेगी। सवाल है कि ऐसा क्यों ? कुछ बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ने का मौका मिले, कुछ को विशेष श्रेणी के स्कूलों में और कुछ को उपेक्षित घटिया सरकारी स्कूलों में ? क्या इससे सारे बच्चों को सही व उम्दा शिक्षा मिल सकेगी ?वर्तमान में देश में स्कूल जाने वाली उम्र के 19 करोड़ बच्चे हैं। उनमें से 4 करोड़ बच्चे मान्यताप्राप्त निजी स्कूलों में जाते हैं। यदि उनमें 25 प्रतिशत या 1 करोड़ अतिरिक्त गरीब बच्चों की भरती भी हो गई तो बाकी 14 करोड़ बच्चों की शिक्षा का क्या होगा ?

फीस पर कोई नियंत्रण नहीं

विधेयक की धारा 13 में केपिटेशन फीस और बच्चों की छंटाई का निषेध किया गया है। धारा 2(बी) की परिभाषा के मुताबिक केपिटेशन फीस वह भुगतान है, जो स्कूल द्वारा अधिसूचित फीस के अतिरिक्त हो। इसका मतलब है कि अधिसूचित करके चाहे जितनी फीस लेने का अधिकार निजी स्कूलों को होगा तथा उस पर कोई रोक या नियंत्रण इस विधेयक में नहीं है। निजी स्कूलों की मनमानी एवं लूट बढ़ती जाएगी। बिना रसीद के या अन्य छुपे तरीकों से केपिटेशन फीस लेना भी जारी रहेगा, जिसको साबित करना मुश्किल होगा। इसके लिए सजा भी बहुत कम (केपिटेशन फीस का 10गुना जुर्माना) रखी गई है।

पैरा शिक्षक की व्यवस्था जारी रहेगी

इस विधेयक में शिक्षकों की न्यूनतम योग्यता और वेतन-भत्ते तय करने की बात तो है
(धारा 23), किन्तु वह कितना होगा, यह सरकार पर छोड़ दिया है। इस बात की आशंका है कि पैरा-शिक्षकों के मौजूदा कम वेतन को ही निर्धारित किया जा सकता है। शिक्षकों का स्थायी कैडर बनाने को भी अनिवार्य नहीं किया गया है। ठेके पर या दैनिक मजदूरी पर भी शिक्षक लगाए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, इस विधेयक में पैरा-शिक्षक वाली बीमारी का इलाज नहीं किया गया है और उसे जारी रखने की गुंजाइश छोड़ी गई है।

अपर्याप्त मानदण्ड : एक शिक्षक, कई कक्षाएं

विधेयक की धारा 8 एवं 9 में अनिवार्य शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि सरकार गांव-मुहल्ले में स्कूल खोलेगी जिसमें अनुसूची में दिए गए मानदण्डों के मुताबिक संरचना व सुविधाएं प्रदान करेगी। धारा 19 एवं 25 में भी सारे स्कूलों के लिए अनुसूची के मुताबिक शिक्षक-छात्र अनुपात तथा अन्य सुविधाएं प्रदान करना जरुरी बनाया गया है। तभी स्कूलों को मान्यता मिलेगी।किन्तु इस अनुसूची में शिक्षकों और भवन के जो मानदण्ड दिए गए हैं, वे काफी कम एवं अपर्याप्त है। प्राथमिक शालाओं में बच्चों तक 30 बच्चों पर एक शिक्षक तथा 200 से ऊपर होने पर 40 बच्चों पर एक शिक्षक का अनुपात रखा गया है। प्रधान अध्यापक तभी जरुरी होगा, जब 150 से ऊपर बच्चे हों। इसका मतलब है कि बहुत सारी छोटी प्राथमिक शालाओं में दो या तीन शिक्षक ही होंगे। वे पांच कक्षाओं को कैसे पढांएगे ? शाला भवन के मामले में भी प्रति शिक्षक एक कमरे का मानदण्ड रखा गया है।
देश के सारे बच्चों को शिक्षा देने के लिए जरुरी है कि छोटे-छोटे गांवो और ढ़ानों में भी स्कूल खोले जाएं और वहां कम से कम एक कक्षा के लिए एक शिक्षक हो। इन मानदण्डों से देश में 37 फीसदी प्राथमिक शालाएं दो शिक्षक-दो कमरे वाली, 17 फीसदी तीन शिक्षक-तीन कमरे वाली और 12 फीसदी शालाएं चार शिक्षक-चार कमरे वाली रह जाएगी। एक शिक्षक एक साथ दो या तीन कक्षाएं पढ़ाता रहेगा। यह शिक्षा के नाम पर देश के गरीब बच्चों के साथ मजाक होगा।
चाहे अधिक शिक्षक देने पड़े, चाहे बहुत छोटे गांवों में कक्षा 3 तक ही स्कूल रखा जाए, यह जरुरी है कि कम से कम 1 कक्षा पर 1 शिक्षक हो। क्या देश के गरीब बच्चों को इतना भी हक नहीं है कि उनकी एक कक्षा पर एक शिक्षक और एक कमरा उनको मिले ? यह कैसा शिक्षा अधिकार विधेयक है ? यह अधिकार देता है या छीनता है ?

शिक्षकों के गैर-शिक्षण काम

धारा 27 में शिक्षकों को गैर-शिक्षण कामों में न लगाने की बात करते हुए भी जनगणना, आपदा राहत और सभी प्रकार के चुनावों में उनको लगाने की छूट दे दी गई है। चूंकि सिर्फ सरकारी शिक्षकों को ही इन कामों में लगाया जाता है, इससे सरकारी बच्चों की शिक्षा ही प्रभावित होती है। यह गरीब बच्चों के साथ एक और भेदभाव व अन्याय होता है।

कक्षा 8 के बाद क्या ?

विधेयक की धारा 2(सी), 2(एफ) और 3(1) के मुताबिक 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को कक्षा 1 से 8 तक की मुफ्त एवं अनि्वार्य शिक्षा देने की बात कही गई है। सवाल यह है कि कक्षा 8 के बाद क्या होगा ? कक्षा 12 तक का अधिकार क्यों नहीं दिया जा रहा है ? आज कक्षा 12 की शिक्षा पूरी किए बगैर किसी भी प्रकार का रोजगार या उच्च शिक्षा हासिल नहीं की जा सकती है। इसी तरह पूर्व प्राथमिक शिक्षा को भी अधिकार के दायरे से बाहर कर दिया है। धारा 11 में इसे सरकारों की इच्छा व क्षमता पर छोड़ दिया गया है।

फेल नहीं, किन्तु पढ़ाई का क्या ?

विधेयक की धारा 16 में प्रावधान है कि किसी बच्चे को किसी कक्षा में फेल नहीं किया जाएगा और स्कूल से निकाला नहीं जाएगा। धारा 30(1) में कहा गया है कि कक्षा 8 से पहले कोई बोर्ड परीक्षा नहीं होगी। इसके पीछे सिद्धांत तो अच्छा है कि कमजोर बच्चों को नालायक घोषित करके तिरस्कृत करने के बजाय स्कूल उन पर विशेष ध्यान दे तथा उनकी प्रगति की जिम्मेदारी ले। यह भी कि बच्चों को अपनी-अपनी गति से पढ़ाई करने का मौका दिया जाए। किन्तु इस सिद्धांत को लागू करने के लिए यह जरुरी है कि सरकारी स्कूलों की बदहाली को दूर किया जाए, वहां बच्चों पर ध्यान देने के लिए पूरे व पर्याप्त शिक्षक हों तथा पढ़ाई ठीक से हो। नहीं तो विधेयक के इस प्रावधान के चलते सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की हालत और बिगड़ती चली जाएगी। इस सिद्धांत को लागू करने के लिए यह भी जरुरी है कि उच्च शिक्षा और रोजगार के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा का माहौल बदला जाए। विधेयक इस दिशा में भी कुछ नहीं करता है।

अंग्रेजी माध्यम की गुंजाईश

धारा 29(2)-(एफ) में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा बनाने के प्रावधान में ‘जहां तक व्यावहारिक हो’ वाक्यांश जोड़ दिया गया है। इससे देश में महंगे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की गुंजाईश छोड़ दी गई है। यह देश में भेदभाव का बड़ा जरिया बना रहेगा।

ट्यूशन पर रोक कैसे ?

धारा 28 में शिक्षकों द्वारा प्राईवेट ट्यूशन करने पर पाबंदी लगाकर अच्छा काम किया गया है। लेकिन इसे कैसे रोका जाएगा, कौन कार्यवाही करेगा और क्या सजा होगी, इसका कोई जिक्र नहीं है। ट्यूशन की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए शिक्षकों को पर्याप्त वेतन दिया जाना तथा उनका शोषण रोकना जरुरी है, किन्तु विधेयक ने यह सुनिश्चित करने की जरुरत नहीं समझी है। देश में तेजी से बढ़ते कोचिंग उद्योग को रोकने के कोई उपाय भी विधेयक में नहीं है।

निजी स्कूलों की निरंकुशता

अनुदान न लेने वाले निजी स्कूलों को ‘स्कूल प्रबंध समिति’ के प्रावधान (धारा 21 एवं 22) से बाहर रखा गया है। उनके प्रबंधन में अभिभावकों, जनप्रतिनिधियों, स्थानीय शासन संस्थाओं, कमजोर तबकों आदि का कोई दखल या प्रतिनिधित्व नहीं होगा। वे पूरी मनमानी करेगें और निरंकुश रहेंगे।

बुनियादी बदलाव की जगह कानून का झुनझुना

इस विधेयक से यह दिखाई देता है कि देश के साधारण बच्चों को अच्छी एवं साधनयुक्त शिक्षा उपलब्ध कराने का कार्यक्रम युद्धस्तर पर चलाने और वैसी नीति बनाने के बजाय सरकार एक अधूरा कानून बनाकर अपनी जिम्मेदारी टालना चाहती है। पिछले कुछ समय में सरकार ने कई ऐसे कानून (रोजगार गारंटी कानून, वन अधिकार कानून, असंगठित क्षेत्र कानून, घरेलू हिंसा कानून, सूचना का अधिकार कानून, प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून) बनाए हैं या बना रही है, जिनमें मौजूदा व्यवस्था  में बुनियादी बदलाव करने के बजाय कानूनों का झुनझुना आम जनता, एनजीओ आदि को पकड़ा दिया जाता है। क्या एक साधारण गरीब आदमी (जिसे शिक्षा के अधिकार की सबसे ज्यादा जरुरत है) अपने अधिकार को हासिल करने के लिए कचहरी-अदालत के चक्कर लगा सकता है ? इस कानून में तो उसे प्रांतीय स्तर पर राजधानियों में स्थित ‘बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ के पास जाना पडेगा। क्या यह उसके बूते की बात होगी ?

शिक्षा का मुक्त बाजार : महमोहन सिंह के नक्शे कदम पर

यह साफ है कि इस विधेयक से देश के साधारण बच्चों को उम्दा, साधनसंपन्न, संपूर्ण शिक्षा मिलने की कोई उम्मीद नहीं बनती है। सरकारी शिक्षा व्यवस्था का सुधार इससे नहीं होगा। देश में शिक्षा के बढ़ते निजीकरण, व्यवसायीकरण और बाजारीकरण पर रोक इससे नहीं लगेगी। नतीजतन शिक्षा में भेदभाव की जड़ें और मजबूत होगी। यदि हम पिछले दो दशकों में शिक्षा के बढ़ते बाजार को देखें तथा नए केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल की घोषणाओं को देखें (शिक्षा में निजी भागीदारी एवं पूंजी निवेश को बढ़ावा देना, निजी-सरकारी सहयोग, विदेशी शिक्षण संस्थाओं को प्रवेश देना, कॉलेज में प्रवेश के लिए अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा लेना आदि) तो मामला साफ हो जाता है। सरकार शिक्षा अधिकार कानून बनाने की रस्म-अदायगी करके देश में शिक्षा का मुक्त बाजार बनाना चाहती है। स्वयं श्री सिब्बल ने एक साक्षात्कार में कहा –
‘‘ डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 में अर्थव्यवस्था के लिए जो किया, मैं वह शिक्षा व्यवस्था के लिए करना चाहता हूं।’’ (द सण्डे इंडियन, 6-12 जुलाइZ 2009)
यह एक खतरनाक सोच व खतरनाक दिशा है। भारत के जनजीवन पर एक और हमला है। शिक्षा व स्वास्थ्य का बाजार एक विकृति है, मानव सभ्यता के नाम पर एक कलंक है। हमें समय रहते इसके प्रति सचेत होना पड़ेगा और इसका पूरी ताकत से विरोध करना होगा।

विकल्प क्या हो ?

यदि वास्तव में देश के सारे बच्चों को अच्छी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना है, तो सरकार को ऐसे कानून और ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिसमें निम्न बातें सुनिश्चित हों –
(1)    देश में समान स्कूल प्रणाली लागू हो, जिसमें एक जगह के सारे बच्चे अनिवार्य रुप से एक ही स्कूल में पढ़ेंगे।
(2)    शिक्षा के व्यवसायीकरण और शिक्षा में मुनाफाखोरी पर प्रतिबंध हो। जो निजी स्कूल फीस नहीं लेते हैं, परोपकार (न कि मुनाफे) के उद्देश्य से संचालित होते हैं, और समान स्कूल प्रणाली का हिस्सा बनने को तैयार हैं, उन्हें इजाजत दी जा सकती है।
(3)    देश में विदेशी शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश पर रोक लगे। हम विदेशों से ज्ञान, शोध, शिक्षण पद्धतियों और शिक्षकों-विद्यार्थियों का आदान-प्रदान एवं परस्पर सहयोग कर सकते हैं,किन्तु अपनी जमीन पर खड़े होकर।
(4)    शिक्षा में समस्त प्रकार के भेदभाव और गैरबराबरी समाप्त की जाए।
(5)    पूर्व प्राथमिक से लेकर कक्षा 12 तक की शिक्षा का पूरा ख्रर्च सरकार उठाए। स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक, भवन, शौचालय, पेयजल, खेल मैदान, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शिक्षण सामग्री, खेल सामग्री, उपकरण, छात्रावास, छात्रवृत्तियों आदि की पूरी व्यवस्था के लिए सरकार जरुरी संसाधन उपलब्ध कराए।
(6)    शिक्षकों को स्थायी नौकरी, पर्याप्त वेतन और प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाए। शिक्षकों से गैर-शिक्षणीय काम लेना बंद किया जाए। मध्यान्ह भोजन की जिम्मेदारी शिक्षकों को न देकर दूसरों को दी जाए। कर्तव्य-निर्वाह न करने वाले शिक्षकों पर कार्यवाही की जाए।¦
(7)    शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का वर्चस्व खतम किया जाए।
(8)    स्कूलों का प्रबंध स्थानीय स्वशासन संस्थाओं द्वारा और जनभागीदारी से किया जाए।
(9)    प्रतिस्पर्धा का गलाकाट एवं दमघोटूं माहौल समाप्त किया जाए। निजी कोचिंग संस्थाओं पर पाबंदी हो। प्रतिस्पर्धाओं के द्वारा विद्यार्थियों को छांटने के बजाय विभिन्न प्रकार की उच्च शिक्षा, प्रशिक्षण एवं रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराये जाएं।
(10)    शिक्षा को मानवीय, आनंददायक, संपूर्ण, सर्वांगीण, बहुमुखी, समानतापूर्ण, एवं संवेदनशील बनाने के लिए शिक्षण पद्धति और पाठ्यचर्या में आवश्यक बदलाव किए जाएं। बस्ते का बोझ कम किया जाए। किताबी एवं तोतारटन्त शिक्षा को बदलकर उसे ज्यादा व्यवहारिक, श्रम एवं कौशल प्रधान, जीवन से जुड़ा बनाया जाए। बच्चों के भीतर जिज्ञासा, तर्कशक्ति, विश्लेषणशक्ति और ज्ञानपिपासा जगाने का काम शिक्षा करे। बच्चों के अंदर छुपी विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं व क्षमताओं को पहचानकर उनके विकास का काम शिक्षा का हो। शिक्षा की जड़ें स्थानीय समाज, संस्कृति, देशज परंपराओं और स्थानीय परिस्थितियों में हो। शिक्षा को हानिकारक विदेशी प्रभावों एवं सांप्रदायिक आग्रहों से मुक्त किया जाए। संविधान के लक्ष्यों के मुताबिक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रकि भारत के प्रबुद्ध एवं जागरुक नागरिक तथा एक अच्छे इंसान का निर्माण का काम शिक्षा से हो।

(लेखक सुनील राष्ट्रीय अध्यक्ष, समाजवादी जन परिषद् हैं)
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इस सैद्धान्तिक अन्तर्विरोध का हल खोजने की कोशिश में हम एक नये सत्य पर पहुचते हैं । दरअसल पूंजीवाद का तीन – चार सौ सालों का पूरा इतिहास देखें, तो वह लगातार प्राकृतिक संसाधनों पर बलात कब्जा करने और उससे लोगों को बेदखल करने का इतिहास है । एशिया व अफ्रीका के देशों को उपनिवेश बनाने के पीछे वहाँ के श्रम के साथ साथ वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों की लूट का आकर्षण प्रमुख रहा है । दोनों अमरीकी महाद्वीपों और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के मूल निवासियों को नष्ट करके वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की लालसा ही यूरोपीय गोरे लोगों को वहाँ खींच लाई । जिसे मार्क्स ने ‘पूंजी का आदिम संचय’ कहा है वह दरअसल पूंजीवाद की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है । इसके बगैर भी पूंजीवाद चल नहीं सकता । मजदूरों के शोषण की तरह प्राकृतिक संसाधनों की लूट भी पूंजी के संचय का अनिवार्य हिस्सा है ।
पूंजीवादी औद्योगीकरण एवं विकास के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीके से कितने बड़े पैमाने पर जंगल नष्ट किया गया , कितने बड़े पैमाने पर जमीन की जरूरत है , कितने बड़े पैमाने पर पानी की जरूरत है , कितने बड़े पैमाने पर खनिज निकालना होगा , कितने बड़े पैमाने पर उर्जा चाहिए – ये बातें अब धीरे धीरे साफ़ हो रही हैं और उनका अहसास बढ़ रहा है । यदि यह पूंजीवाद की अनिवार्यता है तो पूंजीवाद के विश्लेषण में इन्हें शामिल करना होगा । जो मूल्य का श्रम सिद्धान्त मार्क्स ने अपनाया वह इसमें बाधक होता है । श्रम के शोशण को समझने और उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम के महत्व को बताने के लिए तो यह सिद्धान्त ठीक है , किन्तु प्राकृतिक संसाधनों का इसमें कोई स्थान नहीं है । ऐसा शायद इसलिए भी है कि प्राकृतिक संसाधनों को प्रकृति का मुफ्त उपहार मान लिया जाता है । लेकिन सच्चाई यह है कि प्रकृति को बड़े पैमाने पर लूटे बगैर तथा उस पर निर्भर समुदायों को उजाड़े-मिटाये बगैर पूंजीवादी व्यवस्था के मूल्य का सृजन हो ही नहीं सकता । ‘अतिरिक्त मूल्य’ का एक स्रोत श्रम के शोषण में है, तो एक प्रकृति की लूट में भी । जिसे पूंजीवादी मुनाफा कहा जाता है उसमें प्राकृतिक संसाधनों पर बलात कब्जे , एकाधिकार और लूट से उत्पन्न ‘लगान’ का भी बड़ा हिस्सा छिपा है ।
प्राकृतिक संसाधनों की यह लूट को नवौपनिवेशिक शोषण या आन्तरिक उपनिवेश की लूट से स्वतंत्र नहीं है , बल्कि उसीका हिसा है । शोषण व लूट के इस आयाम को पूंजीवाद के विश्लेषण के अंदर शामिल करना जरूरी हो गया है। मार्क्स और लोहिया के समय यह उभर कर नहीं आया था । इसलिए अब पूंजीवाद के समझने के अर्थशास्त्र को मार्क्स और लोहिया से आगे ले जाना होगा । गांधीजी जो शायद ज्यादा दूरदर्शी व युगदृश्टा थे इसमें हमारे मददगार हो सकते हैं ।
पूंजीवाद एक बार फिर गहरे संकट में है । वित्तीय संकट , विश्वव्यापी मन्दी और बेरोजगारी आदि इसका एक आयाम है । यह भी गरीब दुनिया के मेहनतकश लोगों के फल को हड़पने के लिए शेयर बाजार , सट्टा , बीमा , कर्ज का व्यापार जैसी चालों का नतीजा है जिसमें कृत्रिम समृद्धि का एक गुब्बारा फुलाया गया था । वह गुब्बारा फूट चुका है । लेकिन इस संकट का दूसरा महत्वपूर्ण आयाम पर्यावरण का संकट , भोजन का संकत और प्राकृतिक संसाधनों का संघर्ष है । दुनिया के अनेक संघर्ष जल, जंगल , जमीन , तेल और खनिजों को ले कर हो रहे हैं । इन संकटों से पूंजीवादी विकास की सीमाओं का पता चलता है । इन सीमाओं को समझकर , पूंजीवाद की प्रक्रियाओं का सम्यक विश्लेषण करके , उस पर निर्णायक प्रहार करने का यह सही मौका है । यदि हम ऐसा कर सकें तो जिसे ‘इतिहास का अंत’ बताया जा रहा है , वह एक नये इतिहास को गढ़ने की शुरुआत हो सकता है ।
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कृपया आलेख प्रकाशित होने पर कतरन एवं पारिश्रमिक निम्न पते पर भेजें –
सुनील ,समाजवादी जनपरिषद ,ग्रा?पो. केसला,वाया इटारसी,जि होशंगाबाद,(म.प्र.) ४६११११
सुनील का ई-पता sjpsunilATgmailDOTcom

इस लेख का प्रथम भाग , दूसरा भाग

सुनील की अन्य लेखमाला : औद्योगीकरण का अन्धविश्वास : ले. सुनील

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पिछले भाग से आगे : जाहिर है लोहिया का यह निष्कर्ष गलत साबित हुआ । पूंजीवाद ज्यादा दीर्घायु और ज्यादा स्थायी साबित हुआ तथा कई संकटों को पार कर गया । मार्क्स की ही तरह लोहिया की भविष्यवाणी भी गलत साबित हुई । दरअसल , इस निबन्ध को वे पचीस तीस साल बाद लिखते तो आसानी से देख लेते कि उपनिवेशों के आजाद होने के साथ औपनिवेशिक शोषण तथा साम्राज्यवाद खतम नहीं हुआ , बल्कि उसने नव-औपनिवेशिक रूप धारण कर लिया । अंतरराष्ट्रीय व्यापार , अंतरराष्ट्रीय कर्ज , विदेशी निवेश और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विस्तार के जरिए यह शोषण चलता ही नहीं रहा बल्कि बढ़ता गया । सुदूर क्षेत्रों तक घुसपैठ व कमाई के जरिए पूंजीवाद को मिले । नतीजतन पूंजीवाद फलता फूलता गया । भूमंडलीकरण का नया दौर इसी नव औपनिवेशिक शोषण को और ज्यादा बढ़ाने के लिए लाया गया है ।
औपनिवेशिक प्रक्रिया का एक और रूप सामने आया है । वह है आंतरिक उपनिवेशों का निर्माण । सच्चिदानन्द सिन्हा जैसे समाजवादी विचारकों ने हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया है । दुनिया के गरीब देशों में जो सीमित औद्योगीकरण हुआ है , वह इसी प्रक्रिया के साथ हुआ है । जब बाहरी उपनिवेश बनाना संभव नहीं होता , तो पूंजीवादी विकास देश के अंदर ही उपनिवेश बनाता है । जैसे भारत के पिछड़े एवं आदिवासी इलाके एक तरह के आंतरिक उपनिवेश हैं । पूर्व सोवियत संघ के एशियाई हिस्से भी आंतरिक उपनिवेश ही थे । आंतरिक उपनिवेश सिर्फ भौगोलिक रूप में होना जरूरी नहीं है । अर्थव्यवस्था एवं समाज के विभिन्न हिस्से भी आंतरिक उपनिवेश की भूमिका अदा कर सकते हैं । जैसे गांवों और खेती को पूंजीवादी व्यवस्था में एक प्रकार का आंतरिक उपनिवेश बना कर रखा गया है , जिन्हें वंचित ,शोषित और कंगाल रख कर हे उद्योगों और शहरो का विकास होता है । भारत जैसे देशों का विशाल असंगठित क्षेत्र भी एक प्रकार का आंतरिक उपनिवेश है जिसके बारे में सेनगुप्ता आयोग ने हाल ही में बताया कि वह २० रुपये रोज से कम पर गुजारा करता है । लेकिन यह भी नोट करना चाहिए कि पूंजीवादी विकास की औपनिवेशिक शोषण की जरूरत इतनी ज्यादा है कि सिर्फ आंतरिक उपनिवेशों से एक सीमा तक , अधकचरा औद्योगीकरण ही हो सकता है । भारत इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है , जहाँ औद्योगीकरण की एक सदी के बावजूद देश का बहुत बड़ा हिस्सा बहिष्कृत और हाशिए पर है तथा देश की श्रम शक्ति का ८ फीसदी भी संगठित क्षेत्र में नहीं लग पाया है ।
इस प्रकार नव औपनिवेशिक शोषण एवं आतंरिक उपनिवेश की इन प्रक्रियाओं से पूंजीवाद ने न केवल अपने को जिन्दा रखा है , बलिक बढ़ाया व फैलाया है । लेकिन इससे लोहिया की मूल स्थापना खारिज नहीं होती हैं , बल्कि और पुष्ट होती हैं । वह यह कि पूंजीवाद के लिए देश के अंदर कारखानों खदानों के मजदूरों का शोषण पर्याप्त नहीं है । इसके लिए शोषण के बाहरी स्रोत जरूरी हैं । उपनिवेश हों , नव उपनिवेश हों या आंतरिक उपनिवेश हों उनके शोषण पर ही पूंजीवाद टिका है । साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद पूंजीवाद के अनन्य सखा सहोदर हैं । इसीसे यह निष्कर्ष भी निकलता है आधुनिक औद्योगिक पूंजीवादी विकास कभी भी सब के लिए खुशहाली नहीं ला सकता है । बड़े हिस्से की कीमत पर कुछ लोगों का ही विकास हो सकता है । यदि दुनिया के सारे इलाकों और सारे लोगों को विकास चाहिए तो पूंजीवाद का विकल्प खोजना होगा ।
पूंजीवाद का एक और आयाम है ,जो तेजी से उभर कर आ रहा है । धरती का गरम होना , बढ़ता प्रदूषण , नष्ट होती प्रजातियां , पर्यावरण का बढ़ता संकट, प्राकृतिक संसाधनों के बढ़ते संघर्ष आदि इस बात की ओर इंगित कर रहे हैं कि पूंजीवादी विकास में प्रकृति भी एक महत्वपूर्ण कारक है । जैसे श्रम का अप्रत्यक्ष (औपनिवेशिक) शोषण पूंजीवाद में अनिवार्य रूप से निहित है , वैसे ही प्रकृति के लगातार बढ़ते दोहन और शोषण के बिना पूंजीवादी विकास नहीं हो सकता । जैसे जैसे पूंजीवाद का विकास और विस्तार हो रहा है प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और एक तरह का अघोषित युद्ध बढ़ता जा रहा है । जिन पारंपरिक समाजों और समुदायों की जिन्दगियां प्रकृति के साथ ज्यादा जुड़ी हैं जैसे आदिवासी , पशुपालक , मछुआरे , किसान आदि उनके ऊपर भी हमला बढ़ता जा रहा है । पूंजीवाद के महल का निर्माण उनकी बलि देकर किया जा रहा है ।
पिछले दिनों भारत में नन्दीग्राम , सिंगूर , कलिंगनगर आदि के संघर्षों ने औद्योगीकरण की प्रकृति व जरूरत पर एक बहस खड़ी की , तो कई लोगों को इंग्लैंड में पूंजीवाद की शुरुआती घटनाओं की याद आईं जिसे कार्ल मार्क्स ने ‘पूंजी का आदिम संचय’ नाम दिया था । दोनों में काफ़ी समानतायें दिखाई दे रही थीं । इंग्लैंड में तब बड़े पैमाने पर किसानों को अपनी जमीन पर से बेदखल किया गया था , ताकि ऊनी वस्त्र उद्योग हेतु भेड़पालन हेतु चारागाह बनाये जा सकें और बेदखल किसानों से बेरोजगारों की सस्ती श्रम – फौज , नये उभर रहे कारखानों को मिल सके । कई लोगों ने कहा कि भारत में वही हो रहा है। लेकिन मार्क्स के मुताबिक तो वह पूंजीवाद की प्रारंभिक अवस्था थी । क्या यह माना जाए कि भारत में पूंजीवाद अभी भी प्रारंभिक अवस्था में है । यह कब परिपक्व होगा ?
[ जारी ]

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