पिछले भाग से आगे :
सूर्य हमारा मित्र है तथा हमारा अत्यंत उपकार करता है , इसमें कोई शक नहीं है । जो सूर्य न होता तो माटी न तपती , बरसात न होती , अन्न न उगता , प्राण न रहते , क्योंकि शरीर में ऊष्मा न होती । इस प्रकार सूर्य द्वारा उपकार की कोई सीमा नहीं है । चारों दिशाओं में अनन्त सृष्टि फैली हुई है तथा उस अनन्त के बीच हम एक तुच्छ शरीर धारण कर बैठे हैं । तब सूर्यनारायण सुबह आते हैं तथा अपनी सहस्र किरणों से हमें आलिंगन देते हैं । रोज वही सूर्य उगता है , परन्तु प्रात: काल की उसकी लालिमा और प्रभा रोज नई लगती है । उसका दर्शन कभी अरुचि नहीं पैदा करता । उसका सौन्दर्य रोज नया नया ही लगता है । वह नित्यनूतन है ।वह कितना प्राचीन है , बावजूद इसके आज का सूर्य तो नया ही है ।
सूर्य का तेज ईश्वरीय तेज से प्रदीप्त है । सूर्य की छवि में भगवत् -छटा का आभास होता है । सूर्य पर ध्यान – धारण – समाधि करने से खगोलशास्त्र का ज्ञान मिलता है। बाह्य विभू्ति के दर्शन से आनंद होता हो , तो उसका कारण यह है कि आत्मा का कोई गुण उसके द्वारा प्रकट होता है । सूर्य को देख हमे आत्मा की तेजस्विता का अनुभव होता है । जैसे आत्मा शक्तिवान नहीं है , स्वयं शक्ति ही है वैसे सूर्य भी प्रकाशवान नहीं , स्वयं प्रकाश ही है ।
सूर्य हमे देता ही रहता है , लेता कुछ नहीं । वह प्रत्येक कार्य में भाग लेता है , परंतु कोई फल नहीं मांगता । कर्मफल के त्याग का इससे उत्कृष्ट उदाहरण अन्य कहीं नहीं मिलेगा । वह कुछ लेता नहीं , देता ही रहता है । सृष्टि और सभी जीवों से प्रेम ही प्रेम करता है । उसमें ईश्वर का रूप प्रगट होता है । कठोपनिषद में कहा है , ‘ सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षु , नलिप्यते चाक्षुषैर बाह्यदोषै: ‘ – सूर्य सबकी आंख है । सूर्य के कारण ही हमारी आंखों में देखने की शक्ति आती है । सबकी आंख होने के बावजूद वह सभी आंखों के बाह्य दोषों से प्रभावित नहीं होता । कोई सूर्य के प्रकाश में सद्ग्रन्थ अथवा असद्ग्रन्थ पढ़े, सूर्य इससे अलिप्त रहता है । जैसे सर्व भूतों की अंतरात्मा में वास करने वाला परमेश्वर उन सभी लोगों के सुख – दु:ख से लिप्त नहीं है , उससे अलिप्त रहता है । सब की अंतरात्मा में वास करने के बावजूद वह सब से भिन्न है , वह सब के बाहर है ।
[ जारी ]
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