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Posts Tagged ‘women’

लोक सभा और विधान सभा में औरतों के लिए ३३ फीसदी सीटें  आरक्षित किए जाने का कानून बनाने का विरोध सामाजिक न्याय के तथाकथित पुरोधा मुलायम सिंह , मायावती , शरद यादव करते आये हैं । वे आरक्षण में आरक्षण की माँग कर रहे हैं । यानी इन आरक्षित सीटों में पिछड़ी जाति की औरतों के लिए आरक्षण । शरद यादव काफ़ी पहले इस बाबत अपनी विकृत सोच प्रकट कर चुके हैं – ’आरक्षण में आरक्षण न दिया जाना परकटी औरतों के हक में होगा’!

पिछड़े तबकों में आई जागृति के कारण विधायिकाओं में पिछड़े वर्गों के सांसद -विधायक जनता द्वारा बिना आरक्षण चुन कर आने लगे हैं । आबादी की जातिगत बनावट के कारण यह सहज है। शुरुआती चुनावों में ऐसा नहीं होता था । औरतों के लिए सीटें आरक्षित हो जाने के बाद  पिछड़ी औरतों के सफल होने की कल्पना ये पिछड़े नेता नहीं कर पा रहे हैं ,यह अचरज की बात है अथवा स्त्री-विरोधी? आरक्षित सीटों में स्वाभाविक परिणाम पिछड़ी जाति की  औरतों के पक्ष में होंगे।

डॉ. लोहिया स्त्री-पुरुष गैर-बराबरी को आदि- विषमता का दरजा देते थे । वे ’पिछड़ों’ में सभी जाति की औरतों को जोड़ते थे । दल में शूद्र , अछूत और स्त्रियों का नेतृत्व कैसे उभरे इसकी चिन्ता वे बिना लाग-लपेट के व्यक्त करते थे । वे कहते थे ,’ जाति और योनि के ये दो कटघरे परस्पर सम्बन्धित हैं और एक दूसरे को पालते पोसते हैं ”। उनके द्वारा दिया गया यह उदाहरण सोशलिस्ट पार्टी में ओहदों और कमीटियों में महिला नेतृत्व पैदा करने के प्रति उनकी चिन्ता को दरसाता है :

” एक बार ग़ाजीपुर जिले के एक गाँव में सुखदेव चमार की पत्नी सभा में कुछ देर से आयीं , लेकिन सजधज कर और गाँव के द्विजों की गरदनें उस ओर कुछ मुसकुराहट के साथ मुड़ीं । सुखदेव गाँव के खाते पीते किसान हैं , लेकिन आख़िर चमार , इसलिए उन पर और उनके सम्बन्धियों पर तरह तरह के छोटे छोटे जुल्म हुआ ही करते हैं । बाद में मुझे मालूम हुआ कि उकता कर और कांग्रेस वालों की लालच में आ कर सुखदेव जी का दिमाग पार्टी बदलने के लिए  थोड़ा बहुत डाँवाडोल हो रहा था । लेकिन उनकी पत्नी ने कहा कि जिस पार्टी का हाथ एक बार पकड़ चुके हो ,उसे कभी मत छोड़ना जब तक वह तुमसे साफ़ धोखा न करे । इस घटना को हुए २ – ३ वर्ष तो हो ही गये हैं , लेकिन आज तक मैंने यह नहीं सुना कि सुखदेव जी की पत्नी को गाजीपुर की महिला पंचायत या किसान पंचायत या प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में कोई कार्यकारिणी की जगह मिली है , और उससे भी ज्यादा कि धीरज के साथ उनको नेतृत्व के लायक बनाने की कोई कोशिश की गयी है । …. जब तक शूद्रों , हरिजनों और औरतों की सोयी हुई आत्मा का जगना देख कर उसी तरह खुशी न होगी जिस तरह किसान को बीज का अंकुर फूटते देख कर होती है , और उसी तरह जतन तथा मेहनत से उसे फूलने फलने और बढ़ाने की कोशिश न होगी तब तक हिन्दुस्तान में कोई भी वाद , किसी भी तरह की नई जान , लायी न जा सकेगी । द्विज अपने संस्कार में मुर्दा रहेगा , क्योंकि शूद्र की जान पशु बना दी गई है। द्विज के संस्कार और शूद्रों की जान का मिश्रण तो करना ही होगा । इसमें ख़तरे भी बहुत हैं और असाधारण मेहनत करनी पड़ेगी । लेकिन इसके सिवाय दूसरा कोई चारा नहीं । “

बम्बई के एक साथी नन्दकिशोर द्वारा लिखे एक पत्र के जवाब में डॉ. लोहिया उन्हें लिखते हैं :

डॉ. लोहिया

” शूद्र और अछूत जब कुछ तरक्की करते हैं तो द्विजों की खराब बातों की नक़ल करने लगते हैं । जहाँ कहीं कोई अहीर अमीर हो जाता है , अपनी अहीरिन को घर के अन्दर बन्द करना शुरु करता है । मैंने हजार बार कहा है कि वे चमारिनें और धोबिनें कहीं अच्छी हैं जो खुले मुँह काम करती हैं , न कि बनियाइनें और ठकुराइनें जो कि घर के अन्दर बन्द रहती हैं । शूद्रों को इस ओर विशेष ध्यान देना होगा । “

चाहे वे अलग – अलग पार्टियों में बंटे हों , और आपसी संघर्ष काफ़ी बड़ा हो , इनका एक तरह का अचेतन संयुक्त मोर्चा चलता रहता है । इस अचेतन संयुक्त मोर्चे से अलग नीतीश कुमार ने महिला आरक्षण बिल का समर्थन कर  साहस और सूझबूझ का परिचय दिया है ।

हम जिस समाज का सपना देखते हैं और उसे हासिल करने के लिए जिस औजार (दल) को गढ़ते हैं उसमें उस समाज का अक्स दीखना चाहिए । सोशलिस्ट पार्टी द्वारा बुनियादी इकाई से ऊपर की समितियों में तथा टिकट के बँटवारे में इन मूल्यों का ख्याल रखा जाता था जिसके फलस्वरूप कर्पूरी , पासवान , लालू , नीतीश , मुलायम,बेनी प्रसाद नेता बन सके । हमारे दल समाजवादी जनपरिषद की हर स्तर की कमीटियों में दस फीसदी महिलाएं यदि चुन कर नहीं आती तब उस संख्या को हासिल करने के लिए अनुमेलन किया जाता है। हमें इस बात का फक्र है कि दल में वैधानिक तौर पर यह प्रावधान किया गया है । इस प्रावधान को हासिल करने में हुई जद्दोजहद भी गौरतलब थी । भाजपा से भाकपा (माले) तक किसी भी दल में वैधानिक तौर पर महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित नहीं है एवं  टिकट के बँटवारे में भी महिलाओं के लिए स्थान निर्धारित नहीं हैं ।

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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी : अन्नपूर्णा महाराणा

हिन्दुस्तानकी स्त्रियाँ जिस अँधेरेमें डूबी हुई थीं , उसमें से सत्याग्रहके तरीकेने उन्हें अपने-आप बाहर निकाल लिया है ; और यह भी सच है कि दूसरे किसी तरीकेसे वे इतने कम समयमें , जिस पर विश्वास नहीं हो सकता , आगे न आ पातीं । फिर भी स्त्री-जातिकी सेवाके कामको मैंने रचनात्मक कार्यक्रममें जगह दी है , क्योंकि स्त्रियोंको पुरुषोंके साथ बराबरीके दरजेसे और अधिकारसे स्वराज्यकी लड़ाईमें शामिल करनेके लिए जो कुछ करना चाहिए , वह सब करनेकी बात अभी कांग्रेसवालोंके दिलमें बसी नहीं है । कांग्रेसवाले अभी तक यह नहीं समझ पाये हैं कि सेवाके धार्मिक काममें स्त्री ही पुरुषकी सच्ची सहायक और साथिन है । जिस रूढ़ि और कानूनके बनानेमें स्त्रीका कोई हाथ नहीं था और जिसके लिए सिर्फ़ पुरुष ही जिम्मेदार है , उस कानून और रूढ़िके जुल्मोंने स्त्रीको लगातार कुचला है । अहिंसाकी नींव पर रचे गये जीवनकी योजनामें जितना और जैसा अधिकार पुरुषको अपने भविष्यकी रचनाका है उतना और वैसा ही अधिकार स्त्रीको भी अपना भविष्य तय करनेका है । लेकिन अहिंसक समाजकी व्यवस्थामें जो अधिकार मिलते हैं ,  वे किसी न किसी कर्तव्य या धर्म के पालनसे प्राप्त होते हैं । इसलिए यह भी मानना चाहिएकि सामाजिक आचार-व्यवहारके नियम स्त्री और पुरुष दोनों आपसमें मिलकर और राजी-खुशी से तय करें । इन नियमों का पालन करनेके लिए बाहरकी किसी सत्ता या हुकूमतकी जबरदस्ती काम न देगी । स्त्रियोंके साथ अपने व्यवहार और बरतावमें पुरुषोंने इस सत्यको  पूरी तरह पहचाना नहीं है । स्त्रीको अपना मित्र या साथी मानने के बदले पुरुषने अपनेको उसका स्वामी माना है । कांग्रेसवालोंका यह खास हक है कि वे हिन्दुस्तानकी स्त्रियोंको उनकी इस गिरी हुई हालतसे हाथ पकड़कर ऊपर उठावें । पुराने जमानेका गुलाम यह नहीं जानता था कि उसे आजाद होना है , या कि वह आजाद हो सकता है । औरतों की हालत भी आज कुछ ऐसी ही है । जब उस गुलामको आजादी मिली , तो कुछ समय तक उसे ऐसा मालूम हुआ , मानो उसका सहारा ही जाता रहा । औरतोंको यह सिखाया गया है कि वे अपनेको पुरुषोंकी दासी समझें । इसलिए कांग्रेसवालोंका यह फर्ज है कि वे स्त्रियोंको उनकी मौलिक स्थितिका पूरा बोध करावें और उन्हें इस तरहकी तालीम दें,जिससे वे जीवनमें पुरुषके साथ बराबरीके दरजेके हाथ बँटाने लायक बनेण ।

एक बार मनका निश्चय हो जानेके बाद इस क्रान्तिका काम आसान है । इसलिए कांग्रेसवाले इसकी शुरुआत अपने घरसे करें । वे अपनी पत्नियोंको मन बहलानेकी गुड़िया या भोग-विलासका साधन माननेके बदले उनको सेवाके समान कार्यमें अपना सम्मान्य साथी समझें । इसके लिए जिन स्त्रियोंको स्कूल या कॉलेजकी शिक्षा नहीं मिली है , वे अपने पतियोंसे , जितना बन पड़े ,सीखें । जो बात पत्नियोंके लिए कही है, वही जरूरी हेरफेरके साथ माताओं और बेटियोंके लिए भी समझनी चाहिए।

यह कहनेकी जरूरत नहीं कि हिन्दुस्तानकी स्त्रियोंकी लाचारीका यह एकतरफ़ा चित्र ही मैंने यहाँ दिया है । मैं भली-भाँति जानता हूँ कि गाँवोंमें औरतें अपने मर्दोंके साथ बराबरीसे टक्कर लेती हैं ; कुछ मामलों में वे उनसे बढ़ी-चढ़ी हैं और उन पर हुकूमत भी चलाती हैं । लेकिन हमें बाहरसे देखनेवाला कोई भी तटस्थ आदमी यह कहेगा कि हमारे समूचे समाजमें कानून और रूढ़िकी रूसे औरतोंको जो दरजा मिला है ,उसमें कई खामियाँ हैं और उन्हें जड़मूलसे सुधारनेकी जरूरत है ।

– गांधीजी

[ रचनात्मक कार्यक्रम: उसका रहस्य और स्थान ,ले. गांधीजी,अनुवादक- काशिनाथ त्रिवेदी,पहली आवृत्ति १९४६ ]

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म.प्र. का बैतूल जिला पुलिस द्वारा महिलाओं पर अत्याचार के लिए प्रसिद्ध होता जा रहा है। बीते दिनों बैतूल जिले में एक सप्ताह के अंदर दो घटनाएं घटी। पहले 27 मई को सारणी में निजी सुरक्षा गार्डों द्वारा महिलाओं के साथ छेड़खानी का विरोध होने पर गोली चलाकर एक आदिवासी युवक की जान ले ली गई तथा छ: युवकों को घायल कर दिया गया।
पुलिस ने महिलाओं एवं गरीब बस्ती के पक्ष में खड़े होने के बजाय मामूली धाराओं का प्रकरण बनाकर हत्यारों को बचा लिया। दूसरी घटना में पुलिस ने 2 जून की रात्रि को आमला थाने में एक दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया।
आमला की घटना इस प्रकार है। पास के गांव जंबाड़ा की 48 वर्षीय दलित महिला जानकीबाई को उनके पति व बेटे के साथ आमला पुलिस ने दहेज प्रताड़ना के केस में 2 जून को गिरफ्तार किया। मुलताई न्यायालय द्वारा जानकीबाई को इस केस में जमानत नहीं दी गई व उन्हें बैतूल जेल ले जाने का आदेश दिया गया। आमला पुलिस उन्हें बैतूल जेल न ले जाकर आमला थाने ले कर गई। जहां रात में शराब के नशे में थाना प्रभारी सहित चार पुलिस वालों ने उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया। अगले दिन दोपहर में जानकीबाई को बैतूल जेल ले जाया गया। जहां शाम को जानकीबाई ने कम्पाउंडर व महिला प्रहरी के माध्यम से जेलर को बलात्कार की घटना के बारे में बताया। जेलर ने तुरंत बैतूल पुलिस अधीक्षक को फोन किया व अगले दिन 4 जून को लिखित आवेदन महिला के बयान के साथ एस.पी., कलेक्टर आदि को भेजा। इसी दिन पीड़ित महिला का मेडिकल परीक्षण व अजाक (अनुसूचित जाति, जनजाति एवं महिला कल्याण) थाना में प्रथम सूचना रपट दर्ज की गयी। अगले दिन 5 जून को महिला को जमानत मिली और 6 जून को वो जेल से बाहर आई ।
सारणी की घटना इस प्रकार है। यहां पर म०प्र० के बड़ा ताप विद्युतगृह है। मध्यप्रदेश बिजली बोर्ड के प्राइवेट सुरक्षा गा्र्ड यहां कि शक्तिपुरा बस्ती की आदिवासी व दलित महिलाओं के साथ छेड़खानी करते रहते थे। 27 मई को जब सावित्री बाई व कुछ अन्य महिलाएं बस्ती के पास नाले में कपड़े धोने गई और वहां से गुजरते हुए म.प्र. बिजली बोर्ड के निजी सुरक्षा गा्र्ड छेड़खानी करने लगे। तो कुछ महिलाएं बस्ती से कुछ लड़कों को बुला लाई । जब इन लड़को ने इन सुरक्षा गार्डों का प्रतिरोध किया तो निजी सुरक्षा गार्डों ने इन लड़कों पर गोलियां चला दी।
पुलिस ने इन घायल व मरने वाले लड़को पर कोयला चोरी व पत्थर मारने का झूठा आरोप दर्ज किया है। साथ ही निजी सुरक्षा गार्डों पर आत्मरक्षा में गोली चलाने का केस बनाकर मामले को हल्का बना दिया। सभी गार्डों की जमानत हो चुकी है व वे खुल्ले घूम रहे हैं ।
समाजवादी जन परिषद् ने इन दोनों घटनाओं में पुलिस की मनमानी व अत्याचार के खिलाफ 11 जून को बैतूल में धरना प्रदर्शन व आमसभा का आयोजन किया। बाद में भोपाल से म०प्र० महिला मंच का एक जांच दल, जिसमें स.ज.प. से भी दो महिला साथी शामिल थी, इन दोनों जगह पर गया। जो जांच पड़ताल उन्होनें की, उसके आधार पर एक रिपोर्ट उन्होनें तैयार की हैं। इस रिपो्र्ट में निम्न तथ्य सामने आए।
आमला की घटना में :-
(1)    पुलिस ने जानबूझकर पीड़ित महिला का बयान दर्ज करने व मेडिकल परीक्षण करवाने में देरी की।
(2)    सामान्यत: बलात्कार के मामले में महिला के बयान व मेडिकल परीक्षण के बाद आरोपियों को तत्काल गिरफ्तार किया जाता है। किन्तु इस घटना के 25 दिन बाद तक आरोपी पुलिसक्र्मियों को गिरफ्तार नहीं किया गया है। ये कहकर बात टाली जा रही है कि इस मामले की जांच चल रही है। हालांकि आम लोगों पर जब बलात्कार का आरोप लगता है, उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाता है।
(3)    पीड़ित महिला के साड़ी ब्लाउज तो साक्ष्य के रुप में जब्त कर लिए गए हैं। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य वो गमछा था जिससे बलात्कारियों ने महिला के हाथ बलात्कार के समय बांधा था। इसी गमछे से जानकी्बाई ने बलात्कार के बाद अपने शरीर को पोंछा था। पीड़ित महिला के हर बयान में उस गमछे का जिक्र है फिर भी इस गमछे को जब्त क्यों नहीं किया गया?
(4)    अभी तक कोई पहचान परेड नहीं कराई गई। इस घटना की जांच शुरु होने से पहले आरोपियों के पास 2 से 3 दिन का समय था जिसमें वो आराम से घटनास्थल से सारे साक्ष्य गायब कर सकते थे।
(5)    दो पुलिसकर्मियों का स्थानांतरण दूसरे जिलों में किया गया है जबकि बाकी दो अभी भी उसी थाने में कार्यरत हैं। इतना गंभीर अपराध पुलिस द्वारा पुलिस हिरासत में जानकीबाई के साथ हुआ है, लेकिन न तो पुलिस वालों की गिरफ्तारी हुई, न ही उनका निलंबन हुआ।
(6)    जिला कलेक्टर ने इस मामले की न्यायिक जांच जिला जज को सौंपी है, जिन्होनें इस मामले को आमला के अतिरिक्त जज को सौंप दिया है। वे स्थानीय व्यक्ति हैं व आसानी से प्रभावित किए जा सकते हैं।
(7)    म०प्र० महिला आयोग की टीम 05 जून को पीड़ित महिला से मिली थी। उस टीम मे एक महिला डॉक्टर भी थीं और उन्होनें महिला का परीक्षण करने पर स्पष्ट कहा कि बलात्कार होने के संकेत हैं। दूसरी ओर महिला चिकित्सक डॉ. वंदना घोघरे जिन्होंने प्रशासन की ओर से जानकीबाई का मेडिकल परीक्षण किया है उन्होंने अपनी रिपोर्ट में – हाल में संभोग के बारे में कोई स्पष्ट राय नहीं- कहकर मामले को कमजोर बनाने की कोशिश की हैं।

सारणी की घटना में :-
(1)    सावित्री बाई (जिनके साथ छेड़खानी हुई) छेड़खानी की घटना की रिपोर्ट कराने 27 मई से दो-तीन बार पहले भी सारणी थाने गई थी। पर थानेदार ने उनकी रिपोर्ट दर्ज करें बगैर ही उन्हें वापस लौटा दिया।
(2)    निजी सुरक्षा गार्डों की तरफ से जो एफ.आई.आर. बस्ती के युवकों पर दर्ज किए गए हैं वे काफी मनमाने हैं। उसमें कोयला चोरी की बात कही गई है पर इस बाबत पुलिस के पास कोई साक्ष्य नहीं हैं। पुलिस ने कोयला चोरी का कोई अलग प्रकरण भी नहीं बनाया है।
(3)    सावित्री बाई के साथ छेड़खानी का रिपोर्ट में कहीं कोई उल्लेख भी नहीं है और न ही उसका कोई प्रकरण पुलिस ने बनाया है।
(4)    गार्डों ने जो गोलियां चलाईं, यदि वे आत्मरक्षा में चलाई हैं तो गोली के सारे छर्रे युवकों को कमर के ऊपर क्यों लगे हैं ? घायल लोगों में से किसी किसी को 27-30 छर्रे लगे हैं क्या इतनी गोलियां चलाना आत्मरक्षा में वाजिब माना जा सकता है ?
(5)    घटना का स्थल भी विवादास्पद हैं। पुलिस ने जिस स्थान को अपराध स्थल बतायाहै वो म०प्र० बिजली बोर्ड के परिसर के पास और बस्ती से दूर हैं। बस्ती के लोग जिस स्थान को अपराध स्थल बता रहे हैं वो बस्ती के पास और म०प्र० बिजली बो्र्ड के परिसर से 2-3 किमी दूर है।
(6)    पीड़ित महिला व बस्ती के अन्य लोग जब अ.जा.क. थाने, बैतूल में रिपोर्ट दर्ज कराने गए तो इनकी रिपो्र्ट ही नहीं दर्ज की गई।
इन दोनों घटनाओं से यह स्पष्ट हैं कि पुलिस का जो ढांचा हमारे देश में हैं वो बहुत ही भ्रष्ट है। पुलिस को अपने अधिकारों का मनमाना उपयोग करने की बहुत ज्यादा आजादी है। पुलिस चाहे तो कोई रिपोर्ट दर्ज करे, चाहे तो रिपो्र्ट ही न दर्ज करे, जो मन मे आए वो प्रकरण बनाए, चाहे तो किसी पर भी झूठा केस बना दे और चाहे तो पैसा लेकर केस रफा-दफा कर दे।
आमला वाले मामले में यह विडंबना भी दिखाई देती है कि महिलाओं के हित में दहेज के खिलाफ जो कानून बना है उसे पुलिस ने एक महिला को ही प्रताड़ित करने के लिए इस्तेमाल किया। अत: जब तक  इस भ्रष्ट पुलिस और प्रशासन का ढांचा नहीं बदला जाता तब तक सिर्फ़ महिलाओं की रक्षा के कानून बना देने से कुछ नहीं होने वाला।
म०प्र० में जहां एक ओर मुख्यमंत्री प्रदेश में सुशासन, महिलाओं का सम्मान व भारतीय संस्कृति के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर महिलाओं पर खुलेआम अत्याचार हो रहे हैं और अत्याचारियों को बचाया जा रहा है।
पिछले दिनों म०प्र० में और भी कई महिलाओं पर पुलिस द्वारा अत्याचार की घटनाएं हुई हैं। उनमें से कुछ का विवरण इस प्रकार है –
(1)    पन्ना जिले के सिमरिया पुलिस थाना में एक नाबालिग लड़की बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज करने आई थी। ये 2 मार्च 2009 की घटना है। उसकी रि्पोर्ट दर्ज करने के बजाय सब इंस्पेक्टर नरेन्द्र सिंह ठाकुर व अन्य दो पुलिसवालों ने उस लड़की के साथ थाने में ही सामूहिक बलात्कार किया।
(2)    30 अप्रैल को रायसेन जिले में गूगलवाड़ा ग्राम की नौ साल की बालिका के साथ बलात्कार हुआ। मगर पुलिस ने मामूली छेड़छाड़ का मामला दजZ किया और केस को हल्का बना दिया।

लेखिका :शिउली वनजा
केसला, जिला – होशंगाबाद
(म०प्र०)

[ शिउली वनजा नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की अर्थशास्त्र की छात्रा है तथा विद्यार्थी युवजन सभा की सदस्य है । उपर्युक्त जांच दल में वह शामिल थी । ]

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[ वरिष्ट अधिवक्ता एवं लोकप्रिय चिट्ठेकार दिनेशराय द्विवेदी ने कल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक नि:संतान हिन्दू विधवा द्वारा अर्जित सम्पत्ति पर विवाह के तीन माह बाद गुजर गये पति के वारिसों का हक मुकर्रर करने के फैसले का विवरण अपने चिट्ठे पर दिया था । दिनेशजी ने उक्त पोस्ट में फैसले की बारीकियों को अत्यन्त सरल ढंग से हिन्दी ब्लॉगजगत के पाठकों के समक्ष रखा , जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं । हमारे देश में प्रचलित विभिन्न धर्मों के निजी कानूनों में स्त्री को अशक्त बनाये रखने के लिए नाना प्रकार के प्रावधान किए गए हैं । देश के संविधान निर्माताओं की मंशा के अनुरूप समान नागरिक संहिता लागू करने की हर ईमानदार कोशिश को निजी कानूनों के स्त्री विरोधी स्वरूप को बदल कर सफल बनाया जा सकता है । समाजवादी जनपरिषद द्वारा १६ नवम्बर १९९६ को दिल्ली में इस विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई थी । दल की तत्कालीन राष्ट्रीय सचिव तथा उक्त संगोष्ठी की संयोजक डॉ. स्वाति ने उक्त विषय पर यह परचा प्रस्तुत किया था । विषय के विभिन्न पहलुओं पर गहराई से विचार करने में यह लेख सहायक होगा। – अफ़लातून ]

किसी भी देश के कानून उसके समाज के नियमों का सार या निचोड़ होते हैं । कानून परंपरा व सांस्कृतिक धारावाहिकता का व्यावहारिक रूप धर लेते हैं । इसीलिए आज बाल – विवाह व सती प्रथा के खिलाफ कानून है । यह जरूर गौरतलब है कि बाल विवाह ग्रामीण समाजों में अबाध रूप से होते रहे हैं , हो रहे हैं । दहेज विरोधी कानून होने के बावजूद धन , उपभोक्ता सामान , उपयोगी – अनुपयोगी वस्तुओं से वधु को लैस कर ससुराल भेजा जाता है ताकि उसे सहज स्वीकारा जाए । दहेज प्रथा को सामाजिक कलंक की जगह सामाजिक प्रतिष्ठा का मनदण्ड बना लिया गया है । राजाओं से उपजा यह विवाह का विधान हिंदू ही नहीं , मुसलमान व ईसाई समाज को प्रभावित कर रहा है । मुस्लिम समाज में भी दहेज के कारण बहुएँ जलाई तक जाने लगी हैं । कुप्रथाओं को जड़ जमाने में देर नहीं लगती ।

अँग्रेजों ने अपने राज के समय विभिन्न धर्मों के कानूनों को न छेड़ना ही लाभप्रद समझा था ताकि इनको हटाने से उपजे विद्रोह को झेलना न पड़े । अपराधों के खिलाफ़ तो एक सर्वमान्य भारतीय दंड संहिता थी और आज भी है । परंतु व्यक्तिगत मामलों में विभिन्न धर्मों के भिन्न निजी कानून (पर्सनल कोड ) थे । आज भी भिन्न भिन्न निजी कनून हैं । जीवन के जिन क्षेत्रों को वे प्रभावित करते हैं , वे हैं :

  1. संपत्ति का उत्तराधिकार , विरासत का हक़
  2. विवाह तथा विवाह-विच्छेद (तलाक )
  3. गोद लेने का हक़
  4. पुत्र व पुत्री के अभिवावकत्व (गार्जियनशिप ) का अधिकार
  5. परित्यक्ता व तलाकशुदा को गुजारा मिलने का हक़

कुछ हिंदूवादी लोगों व संस्थाओं के लगातार प्रचार से भारतीय समाज में यह धारणा आम है कि सिर्फ इस्लाम से जुड़े निजी कानून औरत के हक़ के खिलाफ़ हैं । इस धारणा को बल देने के लिए वे मुसलमानों में बहुपत्नी प्रथा ( पुरुष को चार शादियाँ करने का हक़ ) व जबानी तलाक़ या तलाके बिद्दत को उदाहरणार्थ पेश करते हैं । यह प्रचार भी होता है कि स्वाधीनता के बाद सभी धर्मों ने अपने – अपने धार्मिक कानून छोड़ दिए , विशेषत: हिंदुओं ने ने , जो उदारवादी हैं परंतु मुसलमान अपने कठमुल्लापन के कारण अपने निजी कानून को नहीं बदलने देते ।

वस्तुस्थिति कुछ और है

भारत के तीन प्रमुख धर्मों के निजी कानून हैं । इनके अलावा पारसी व पुर्तगाली सिविल कोड है । सिख , जैन , बौद्ध व आदिवासी अपने विवाह , विवाह-विच्छेद (छुटकारा) अपनी अपनी सामाजिक रीतियों के अनुसार करते हैं – मगर कानून इन्हें हिंदू ही माना गया है ।

सर्वप्रथम हिंदू धार्मिक कानूनों के बारे में चर्चा करें । संपत्ति के उत्तराधिकार के नियम हिंदू कोड में पुरुष सत्तात्मक समाज की प्रथा से बँधे हुए हैं । कहने को तो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में पुत्र – पुत्रियों को समान अधिकार प्राप्त है परंतु जिस प्रवर समिति ने यह अधिनियम बनाया था उसने पुराने कानून “मिताक्षर” को समाप्त करने की राय दी थी । परंतु तत्कालीन भारत सरकार भी शायद अँग्रेजों की तरह झंझटों से बचना चाहती थी इसलिए मिताक्षर सह-उत्तराधिकार प्रणाली को नहीं हटाया और अभी भी वह कानून में है । हिंदु संयुक्त परिवार प्रणाली की व्यवस्था है कि उत्तराधिकार का हक़ प्रत्यावर्तन द्वारा हो न कि महज संतान होने के हक़ से । और संयुक्त परिवार के सदस्य केवल पुरुष ही होंगे । इस प्रणाली में पुत्र जन्म से ही पिता की संपत्ति का वारिस बनता है व पुत्री पिता की मृत्यु के बाद ही । पुत्र-पुत्री में सही माने में बराबरी का हिस्सा नहीं बनता ।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ( 1956 ) की धारा 4(2) के मुताबिक जोत की जमीन का विभाजन रोकने के लिए अथवा जमीन की अधिकतम सीमा निर्धारण के लिए , पुत्री को जमीन की विरासत का अधिकार नहीं दिया गया । महिलाओं को काश्तकारी से वंचित किया गया । वे खेत में काम कर सकती हैं मगर उसकी मालिक नहीं बन सकती ।

विवाहोपरान्त पति की व्यक्तिगत संपत्ति का आधा हिस्सा अधिकारस्वरूप माँगने पर तर्क दिया जाता है कि पैतृक व पति की , दोनों संपत्ति का हक़ औरत को क्यों मिले ? सच्चाई यह है कि विशेष विवाह अधिनियम ( स्पेशल मैरेज एक्ट 1954 ) के अंतर्गत विवाह करने के बाद भी पुरुष उत्तराधिकार संबंधी नियमों में पुरानी धार्मिक प्रथाओंद्वारा बनी प्रणाली से उत्तराधिकार तय कर सकता है । उत्तराधिकार अधिनियम की धारा – 30 के अंतर्गत वह वसीयत द्वारा अपनी संपत्ति किसी के भी नाम लिख सकता है ।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा – 23 के अधीन यदि किसी स्त्री को एक मकान विरासत में मिला है और उसमें उसके पैतृक परिवार के सदस्य रह रहे हैं तो उसे उस मकान का बँटवारा करने का कोई अधिकार नहीं है । और कि वह स्वयं उसमें तब ही रह सकती है जब वह अविवाहित हो या तलाकशुदा । अगर कोई निस्संतान विधवा हिंदू स्त्री वसीयत किए बिना मरती है तो उसकी संपत्ति उसके पति के वारिसों को सौंप दी जाएगी । अपवाद स्वरूप अगर उसे कोई संपत्ति माता – पिता से मिली हो तो उपर्युक्त परिस्थिति में वह उसके पिता के वारिसों को मिलेगी । यह यदि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का न्याय नहीं है तो और क्या है ? हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956 ) के अलावा हिंदू विवाह अधिनियम (1955 ) , हिंदू दत्तक व भरण पोषण अधिनियम (1956) जैसे कानून महिलाओं के प्रति विषम दृष्टिकोण के ज्वलंत उदाहरणों से भरे हैं ।

( जारी )

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इस अहिंसक युद्ध में स्त्रियों का योगदान पुरुषों से कहीं अधिक होगा । स्त्री को अबला कहना अपराध है ; यह पुरुष का स्त्री के प्रति अन्याय है । यदि शक्ति का अर्थ बर्बर शक्ति है तो अवश्य ही स्त्री पुरुष की अपेक्षा कम बर्बर है । यदि शक्ति का अर्थ नैतिक शक्ति है तो स्त्री पुरुष से असंख्यगुनी श्रेष्ठ है । … यदि हमारे अस्तित्व का नियम अहिंसा है तो भविष्य स्त्री के हाथ है । (यंग इण्डिया,१०-४-१९३० )

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दहेज प्रथा को समाप्त करना ही होगा । विवाह अभिवावकों द्वारा पैसे के लेन-देन की व्यवस्था नहीं होना चाहिए । यह प्रथा जाति से गहराई से जुड़ी है । जब तक पसन्दगी जाति विशेष के कुछ सैंकड़े लड़के और लड़कियों तक सीमित रहेगी , यह प्रथा चलती रहेगी ,भले ही उसके खिलाफ कुछ भी बोला जाए । इस बुराई को खत्म करना है तो लड़कों ,लड़कियों और उनके अभिवावकों को जाति बन्धन को तोड़ना होगा । ( हरिजन ,२३-५-‘३६ )

 

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स्कूलों ,कॉलेजों तथा लड़कियों के अभिवावकों के बीच काम करने की आवश्यकता है । अभिवावक लड़कियों को यह सिखाये कि विवाह के लिए पैसे माँगने वाले युवक से शादी करने से वे इन्कार करें । इन अपमानजनक शर्तों पर विवाह से बेहतर है कि वे अविवाहित रह जाएं । विवाह में एक मात्र स्म्मानजक आधार परस्पर प्रेम और परस्पर स्वीकृति होती है । (यंग इण्डिया,२७-६-‘२८)

 

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