पिछली प्रविष्टी से आगे :
Technorati tags: consumerist culture, sachchidanand sinha
इस उपभोक्तावादी दबाव ने मानव भविष्य की समाजवादी कल्पना की जड़ ही खतम कर दी है। मार्क्स तथा अन्य समाजवादियों की यह अवधारणा थी कि भविष्य में समाज में उत्पादन का स्तर इतना ऊँचा उठ जायेगा कि मानव आवश्यकता की वस्तुएँ उसी तरह उपलब्ध हो सकेंगी जैसे आज हवा या पानी उपलब्ध है । इससे आवश्यक वस्तुओं के अभाव से होनेवाली छीना-झपटी खतम हो जायेगी , और नया आदमी अपना अधिकांश समय मानवीय-बोध के विशिष्ट क्षेत्रों , जैसे कला तथा दर्शन के विकास में लगायेगा । कई लोगों ने यह कल्पना की थी कि जैसे प्राचीन युनान के कुछ नगर-राज्यों में गुलाम सारे शारीरिक श्रम का काम करते थे और नागरिक राजनीति , कला , दर्शन आदि विषयों में अपना समय लगाते थे उसी तरह भविष्य में मशीनें वैसे सारे काम जो आदमी को अरुचिकर लगते हैं , करने लगेंगी और आदमी का सारा समय बौद्धिक विकास में लगेगा । यह बहुत ही मोहक कल्पना थी । लेकिन इस कल्पना के पीछे यह मान्यता जरूर थी कि आदमी की जरूरतें सीमित हैं और एक समतामूलक समाज में मशीनों की मदद से थोड़े श्रम से इन जरूरतों की पूर्ति सब लोगों के लिए हो सकेगी । लेकिन उपभोक्तावाद ने आदमी की जरूरतों को एक ऐसा मोड़ दिया है कि वे उत्तरोत्तर बढ़ती हुई असीमित होती जा रही है और बौद्धिक चिन्तन के बजाय मनुष्य की सारी चिन्ता , सारा श्रम और सारे साधन इन नयी जरूरतों की पूर्ति के लिए अनन्तकाल तक लगे रहेंगे , हालांकि प्राकृतिक साधनों के क्षय , प्रदूषण आदि से अपनी वर्तमान गति से आदमी की यह यात्रा अल्पकाल में ही समाप्त हो जायेगी ।
इस विकास एक प्रभाव यह पड़ा है कि विकसित पश्चिमी देशों में धीरे-धीरे यह अवधारणा बढ़ रही है कि मानव-बोध के वे सारे क्षेत्र जिनमें कल्पना का सम्बन्ध किसी प्रयोग से नहीं बन पाता, कला का सम्बन्ध किसी निजी या सामूहिक सजावट या उत्तेजना से नहीं बन पाता वे सब अप्रासंगिक हैं । एक उपभोक्तावादी समाज हर वस्तु को उपभोग की कसौटी पर कसता है । ऐसा चिन्तन जो प्रयोग के दायरे में नहीं आता कभी उपभोग के दायरे में भी नहीं आ सकता भले ही सम्प्रेषित होकर वह दूसरे मानव मस्तिष्क में नया बोध या सपनों का एक सिलसिला उत्प्रेरित करे । लेकिन उपभोक्तावादी समाज सपनों या कल्पना से बचना चाहता है , उसके लिए कल्पना की सीमा वे ठोस वस्तुएं हैं जिन्हे वह छू सकता है , खरीद सकता है और जिनसे अपने घरों को सजा सकता है । इस तरह उपभोक्तावादी संस्कृति धीरे – धीरे मानव – बोध की उस विशिष्टता को नष्ट कर देती है जो मनुष्यों को अन्य जीवों से अलग करती है – यानी ठोस वस्तुओं से ऊपर उठ कर कल्पना , अनुमान , प्रतीक आदि के स्तरों पर जीने की विशिष्टता । इस तरह यह उपभोक्तावादी संस्कृति एक तरफ थोक मशीनी उत्पादन के जरिये वस्तुओं से सृजन का तत्त्व निकाल देती है तो दूसरी ओर मानव – बोध से कल्पना की सम्भावना को ।
लेकिन कोई भी मानव – भविष्य की समाजवादी या गैरसमाजवादी युटोपिया ( कल्पना-आदर्श) का उद्देश्य मनुष्य को उस स्थिति से मुक्त करने का रहा है जिसमें उसके व्यक्तित्व का चतुर्दिक विकास अवरुद्ध होता है । यही कारण है कि समाजवादी आन्दोलन के पीछे वही मानवता काम करती है जो किसी बड़े धार्मिक उत्थान के पीछे होती है । इसीसे हजारों लोगों को अपने उद्देश्यों के लिए अपने आप को बलि कर देने की प्रेरणा मिलती रही है । इसी कारण अपने शुद्ध अर्थ में समाजवाद की राजनीति अन्य तरह की राजनीति से अलग रही है । मोटे तौर से राजनीति का केन्द्र बिन्दु सम्पत्ति का एक या दूसरी तरह से बँटवारा रहा है । राजनीति के मुद्दे होते हैं – कौन सम्पत्ति का हकदार होगा , किस व्यक्ति या समूह को किस भूमि या भू-भाग पर अधिकार मिलेगा , किसकी क्या आमदनी होगी ? और इन्हीं से जुड़ा यह सवाल कि किस व्यक्ति या समूह की क्या सामाजिक राजनीतिक हैसियत होगी । जब मार्क्स ने यही बात कही थी तो उस समय यह कुछ चौंकानेवाली बात लगी थी । लेकिन आज सभी लोग इस सच्चाई को मानने लगे हैं । इस कारण उन लोगों के सामने जिन्होंने नये तरह के समाज के निर्माण की कल्पना की थी , नक्शा ऐसे ‘आर्थिक मनुष्यों’ का समाज बनाने का नहीं था । इस निरन्तर चलने वाली सम्पत्ति के बँटवारे की ऊहापोह को लेकर कोई मनीषी क्यों अपना पूरा जीवन लगाता ? समाजवाद की कल्पना के पीछे असली भावना आदमी के जीवन को सम्पत्ति और उसके उन प्रतीकों से मुक्त करना था जो उसे गुलाम बनाते हैं तथा उसके समुदायभाव को नष्ट करते हैं । इससे एक पूर्ण उन्मुक्त मानव की कल्पना जुड़ी थी । उपभोक्तावाद असंख्य नयी कड़ियाँ जोड़ कर मनुष्य पर सम्पत्ति की जकड़न को मजबूत करता है और इसलिए हमारे युग में समाजवाद के सीधे प्रतिरोधी के रूप में उभरता है ।
टिप्पणी करे