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Posts Tagged ‘लोहिया’

[ निरुपमा की मौत ने झकझोर दिया है । विवाह,जाति-प्रथा और यौन शुचिता जैसे प्रश्न चर्चा में आये हैं । मैं इन सवालों पर डॉ. राममनोहर लोहिया के विचार यहां देना प्रासंगिक समझता हूं। सामाजिक यथास्थिति की ताकतों की सडाँध को पहचानने में मुझे इन विचारों से मदद मिलती है। – अफ़लातून ]

हिन्दुस्तान आज विकृत हो गया है ; यौन पवित्रता की लम्बी चौड़ी बातों के बावजूद , आमतौर पर विवाह और यौन के सम्बन्ध में लोगों के विचार सड़े हुए हैं ।

… नाई या ब्राह्मण के द्वारा पहले जो शादियाँ तय की जाती थीं उसकी बनिस्बत फोटू देख कर या सकुचाती शरमाती लड़की द्वारा चाय की प्याली लाने के दमघोंटू वातावरण में शादी तय करना हर हालत में बेहुदा है। यह ऐसा ही है जैसे किसी घोड़े को खरीदते समय घोड़ा ग्राहक के सामने तो लाया जाए , पर न उसके खुर छू सकते हैं और न ही उसके दाँत गिन सकते हैं ।

..लड़की की शादी करना माँ बाप की जिम्मेदारी नहीं ; अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा दे देने पर उनकी जिम्मेदारी ख़तम हो जाती है । अगर कोई लड़की इधर उधर घूमती है और किसी के साथ भाग जाती है और दुर्घटना वश उसके अवैध बच्चा , तो यह औरत और मर्द के बीच स्वाभाविक सम्बन्ध हासिल करने के सौदे का एक अंग है , और उसके चरित्र पर किसी तरह का कलंक नहीं ।

लेकिन समाज क्रूर है । और औरतें भी बेहद क्रूर बन सकती हैं । उन औरतों के बारे में , विशेषत: अगर वे अविवाहित हों और अलग अलग आदमियों के साथ घूमती फिरती हैं , तो विवाहित स्त्रियां उनके बारे में जैसा व्यवहार करती हैं और कानाफूसी करती हैं उसे देख कर चिढ़ होती है । इस तरह के क्रूर मन के रहते मर्द का औरत से अलगाव कभी नहीं खतम होगा।

….समय आ गया है कि जवान औरतें और मर्द ऐसे बचकानेपन के विरुद्ध विद्रोह करें । उन्हें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि यौन आचरण में केवल दो ही अक्षम्य अपराध हैं : बलात्कार और झूठ बोलना या वादों को तोड़ना । दूसरे को तकलीफ़ पहुँचाना या मारना एक और तीसरा भे जुर्म है,जिससे जहां तक हो सके बचना चाहिए।

…. धर्म , राजनीति , व्यापार और प्रचार सभी मिल कर उस कीचड़ को संजो कर रखने की साजिश कर रहे हैं जिसे संस्कृति के नाम पुकारा जाता है । यथास्थिति की यह साजिश अपने आप में इतनी अधिक शक्तिशाली है कि उससे बदनामी और मौत होगी । मुझे पूरा यकीन है है कि मैंने जो कुछ लिखा है उसका और भी भयंकर बदला चुकाया जाएगा , चाहे यह लाजमी तौर पर प्रत्यक्ष या तात्कालिक भले ही न हो ।

जब जवान मर्द और औरतें अपनी ईमानदारी के लिए बदनामी झेलते हैं , तो उन्हें याद रखना चाहिए कि पानी फिर से निर्बन्ध बह सके इसलिए कीचड़ साफ़ करने की उन्हें यह कीमत चुकानी पड़ती है ।

आज जाति और योनि के इन वीभत्स कटघरों को तोड़ने से बढ़ कर और कोई पुण्यकार्य नहीं है। वे सिर्फ इतना ही याद रखें कि चोट या तकलीफ़ न पहुँचाएँ और अभद्र न हों,क्योंकि मर्द और औरत के बीच का रिश्ता बड़ा नाजुक होता है । हो सकता है,हमेशा इससे न बच पायें। किन्तु प्रयत्न करना कभी नहीं बंद होना चाहिए । सर्वोपरि , इस भयंकर उदासी को दूर करें,और जोखिम उठा कर खुशी हासिल करें ।

१९५३, जनवरी । (जाति-प्रथा,समता विद्यालय न्यास,हैदराबाद)

फैसला करो कि कैसा संसार रचाना है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि सबसे अच्छी बात होगी , नर-नारी के सम्बन्ध में,एकव्रत रहें, यानी एक तरफ़ पतिव्रत और दूसरी तरफ़ पत्नीव्रत । यह सबसे अच्छी चीज है ,लेकिन अगर वह नहीं रहता है तो फिर क्या अच्छी चीज है । आधुनिक दिमाग के सामने एक संकट आ गया है कि जब तक संसार रहेगा, तब तक मनुष्य रहेगा और तब तक यह आफ़त रहेगी कि बलात्कार और व्यभिचार,दो में से कोई एक प्राय: निश्चित ही रहेगा । अब किसको चाहते हो ? बलात्कार को या व्यभिचार को चाहते हो ? जिस समाज में व्यभिचार को इतना ज्यादा बुरा कह दिया जाता है कि उसको पाप सिर्फ़ नहीं नरक(मिलेगा) और उसके लिए यातना सजा ऐसी कि बहुत बुरी बुरी , उस समाज में बलात्कार हो करके रहता है और बहुत अधिक होता है। आधुनिक दिमाग पसंद करेगा वही एकव्रत वाली अवस्था को । कहीं गलत मत समझ लेना कि मैं व्यभिचार पसंद कर रहा हूँ। लेकिन फिर दूसरे नम्बर की चीज में कहेगा कि मनुष्य है ही ऐसा,तो फिर किया क्या जाए ? बलात्कारी से व्यभिचारी अच्छा। यह आगे देखू दृष्टि है ।

१९६२ ,सितम्बर

(समाजवादी आन्दोलन का इतिहास,समता विद्यालय न्यास,हैदराबाद)


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[ लेखक समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा अर्थशास्त्री हैं | डा. राममनोहर लोहिया की प्रसिद्ध पुस्तक Marx , Gandhi and Socialism का एक अध्याय है-Economics after Marx |प्रस्तुत आलेख उसके आगे का कथन है | ]

मानव इतिहास के हर दौर में दुनिया को बदलने और बेहतर बनाने की कोशिशें हुई हैं। ऐसी हर कोशिश के पीछे दुनिया की मौजूदा व्यवस्था और विकास की एक समझ रहती है। मार्क्स और गांधी आधुनिक युग के दो प्रमुख विचारक रहे हैं जिनकी सोच व समझ परिवर्तनकर्मियों के लिए प्रेरणा और शक्ति का स्रोत रही है । डॉ. राममनोहर लोहिया जिनकी जन्म शताब्दी इस वर्ष मनायी जाने वाली है , को मार्क्स और गांधी के बीच एक वैचारिक पुल बनाने वाला माना ज सकता है ।

कार्ल मार्क्स ने हमे बताया कि किस प्रकार पूंजीवाद का पूरा ढाँचा मजदूरों के शोषण पर टिका है । मजदूर की मेहनत से जो पैदा होता है , उसका एक हिस्सा ही उसको मजदूरी के रूप में दिया जाता है । शेष हिस्सा ‘अतिरिक्त मूल्य’ होता है , जो पूँजीपति के मुनाफे का आधार होता है । यही मुनाफा पूँजीवादी विकास का आधार होता है । मार्क्स ने कल्पना की थी कि औद्योगीकरण के साथ बड़े बड़े कारखानों में बहुत सारे मजदूर एक साथ काम करेंगे । वर्ग चेतना के विकास के साथ वे संगठित होंगे , ज्यादा मजदूरी पाने के लिए आन्दोलन करेंगे । लेकिन मुनाफा और मजदूरी एक साथ नहीं बढ़ सकते । यही वर्ग संघर्ष बढ़ते बढ़ते क्रांति का रूप ले लेगा और तब समाजवाद आएगा । मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी कि पश्चिम यूरोप जहाँ पूँजीवादी औद्योगीकरण सबसे पहले व ज्यादा हुआ है , वहीं क्रांति सबसे पहले होगी ।

किन्तु मार्क्स की भविष्यवाणी सही साबित नहीं हुई । क्रांति हुई भी तो रूस में , जो अपेक्षाकृत पिछड़ा , सामंती और कम औद्योगीकृत देश था । इसके बाद चीन में क्रांति हुई , वहाँ तो औद्योगीकरण नहीं के बराबर हुआ था । चीन की क्रांति तो पूरी की पूरी किसानों की क्रांति थी , जबकि मार्क्स की कल्पना थी कि सर्वहारा मजदूर वर्ग क्रांति का अगुआ होगा । पश्चिमी यूरोप में पूँजीवादी औद्योगीकरण के दो सौ वर्ष बाद भी क्रांति नहीं हुई । पूँजीवाद भी इस दौर में नष्ट होने के बजाए , संकटों को पार करते हुए , फलता फूलता गया ।

मार्क्सवाद की इस उलझन को सुलझाने का एक सूत्र तब मिला जब १९४३ में डॉ. राममनोहर लोहिया का निबन्ध ‘अर्थशास्त्र मार्क्स के आगे’ प्रकाशित हुआ । इसे दुनिया के गरीब पिछड़े मुल्कों के नजरिए से मार्क्सवाद की मीमांसा भी कहा जा सकता है । लोहिया ने बताया की पूंजीवाद का मूल आधार पूंजीवादी देशों में पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का शोषण नहीं बल्कि उपनिवेशों के किसानों ,कारीगरों और मजदूरों का शोषण है । यही ‘अतिरिक्त मूल्य’ का मुख्य स्रोत है । इसीके कारण पूंजीवादी देशों में मुनाफा मजदूरी का द्वन्द्व टलता गया , क्योंकि दुनिया के विशाल औपनिवेशिक देशों की लूट का एक हिस्सा पूंजीवादी देशों के मजदूरों को भी मिल गया । यह संभव हुआ कि मजदूरी और मुनाफा दोनों साथ साथ बढ़ें। इसीलिए पश्चिमी यूरोप में क्रांति नहीं हुई । इसी के साथ लोहिया ने लेनिन की इस बात को भी काटा कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद की अन्तिम अवस्था है । लोहिया ने कहा कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का प्रारंभ और विकास एक साथ हुआ । बिना साम्राज्यवाद के पूंजीवाद का विकास हो ही नहीं सकता । मार्क्स की ही एक शिष्या रोजा लक्समबर्ग की तरह लोहिया ने बताया कि पूंजीवाद के विकास के लिए एक बाहरी उपनिवेश जरूरी है , जहाँ के बाजारों में माल बेचा जा सके और जहाँ से सस्ता कच्चा माल और सस्ता श्रम मिल सके । इसी विश्लेषण के आधार पर लोहिया ने कहा कि असली सर्वहारा तो तीसरी दुनिया के किसान मजदूर हैं । वे ही पूंजीवाद की कब्र खोदेंगे ।

जब लोहिया ने यह निबंध लिख तब दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था और उसके पहले जबरदस्त मंदी का दौर आ चुका था । पूंजीवाद के संकटों को समझने के लिए भी लोहिया ने एक नई दृष्टि दी । कीन्स और मार्क्सवादी अर्थशास्त्रियों के मुताबिक पूंजीवादी देशों की उत्पादन क्षमता और मांग या क्रय शक्ति के अंतर से ये संकट आते हैं । लोहिया के मुताबिक सिर्फ इतना कहना अर्ध सत्य है । इन संकटों का असली स्रोत साम्राज्यवादी प्रक्रिया में है । लोहिया के शब्दों में , ‘ उत्पादन के पुराने तरीके से किसी साम्राज्यवादी क्षेत्र की शोषण – सीमा के समाप्त होने पर आर्थिक संकट उत्पन्न होता है , जो किसी नये क्षेत्र की खोज के उपरान्त समाप्त होता है , जहाँ नये आविष्कारों का उपयोग किया जा सके ।’

इसी विश्लेषण के आधार पर लोहिया ने उस निबंध में कहा कि चूंकि पूरी दुनिया को उपनिवेश बनाया जा चुका है , अब कोई नया भूभाग उपनिवेश बनाने के लिए बचा नहीं है, पूंजीवाद स्थाई संकट की अवस्था में पहुंच गया है । इसकी वृद्धि का मार्ग बन्द हो चुका है , इसकी सीमा आ चुकी है । या तो यह टूट जायेगा या धन के निम्न स्तर पर स्थायित्व प्राप्त कर लेगा । पूंजीवाद के सिरमौर के रूप में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के उदय और पश्चिमी यूरोप की जगह लेने को लोहिया नो्ट करते हैं लेकिन उसके नेतृत्व में पूंजीवाद के संकट का हल हो सकेगा ,इसमें वे गहरी शंका जाहिर करते हैं ।

[ जारी ]

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लेखक समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा अर्थशास्त्री हैं |डा. राममनोहर लोहिया की प्रसिद्ध पुस्तक Marx , Gandhi and Socialism का एक अध्याय है-Economics after Marx |प्रस्तुत आलेख उसके आगे का कथन है | ]

अर्थशास्त्र :मार्क्स और लोहिया से आगे : ले. सुनील

पृष्ट २ , लोहिया से आगे

पृष्ट ३ लोहिया से आगे
[ शेष अगली किश्त में ] चित्र पत्र खटका मार कर सेव कर लें , तब पढ़ें ।

मुद्रित रूप में यह लेख उपलब्ध है :  १.

अर्थशास्त्र : मार्क्स और लोहिया से आगे. लेखक सुनील

२.

अर्थशास्त्र – मार्क्स , लोहिया से आगे (२): आंतरिक उपनिवेश,ले. सुनील

३.

जारी है पूंजी का ‘आदिम संचय’ प्राकृतिक दोहन द्वारा:ले. सुनील (३)

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नीचे प्रस्तुत पुस्तिकाएँ मैंने अपने चिट्ठों समाजवादी जनपरिषद , तथा  यही है वह जगह पर समय-समय पर धारावाहिक तौर पर पेश की थीं। यहाँ इनमें से नौ पुस्तिकाओं को पी.डी.एफ़ फाइल के तौर पर प्रस्तुत करते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है । पुस्तिकाओं और प्रस्तुति पर सुझाव और प्रतिक्रिया का स्वागत है ।

विदेशी पूँजी से विकास का अन्धविश्वास : सुनील  ,

 भारत भूमि पर विदेशी टापू  ,

क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? – सुनील

औद्योगीकरण से विकास का अन्धविश्वास : सुनील

बातचीत के मुद्दे : किशन पटनायक

हिन्दू बनाम हिन्दू

राम , कृष्ण , शिव : राममनोहर लोहिया

कृष्ण : डॉ. राममनोहर लोहिया

उपभोक्तावादी संस्कृति : गुलाम मानसिकता की अफ़ीम

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