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तुलसीदास का छद्म सेक्युलरवाद नामक पोस्ट में मैंने एक चौपाई की पहले की पंक्ति और एक की बाद की पंक्ति के बारे में पूछा था । टिप्पणियाँ आईं , जवाब नहीं आया ।कुछ ने पढ़ समझ कर टिप्पणियाँ दीं और कुछ को पढ़ने-समझने का सहूर होता ही नहीं । हिन्दी पढ़ाने वाले मित्र मसिजीवी ने ‘छद्म’ की अनावश्यकता पर प्रकाश डाला लेकिन चौपाइयों की पद-पूर्ति उन्होंने भी नहीं की ।
किसी भी तथ्य को तोड़ने-मरोड़ने का इतिहास गोबेल्स के भक्त-समूह के साथ जुड़ा है-नालबद्ध । गाँधी-हत्या के कलंक को धोने-पोछने के निष्फल चक्कर में गाँधीजी शाखा के ‘प्रात: स्मरणीय’ हो गए लेकिन ‘शाखा-पुस्तिका’ में अब तक हत्यारों द्वारा ‘गाँधी-वध’ की जो ‘वजह’ बतायी जाती है ,उसका उल्लेख भी रहता है ।
गोलवलकर शताब्दी के अवसर पर प्रकाशित साहित्य में गाँधीजी की तेरही पर ‘गुरुजी’ द्वारा भेजे गए टेलिग्राम इसका विशेष उल्लेख किया गया है – इसी पोछने वाले क्रम में । गाँधीजी की तस्वीर को जूते में रख कर चाँदमारी में निशानेबाजी करने ( हत्या से पहले ) की सूचना तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने गाँधीजी के सचिव प्यारेलाल को दी थी । प्यारेलाल की प्रसिद्ध पुस्तक ‘ पूर्णाहुति ‘ में इसका हवाला है ।
१९९१- ‘९२ के दौर में ‘रामजन्मभूमि’ के पक्ष गाँधीजी के फर्जी पत्र को उछालने की कोशिश हुई थी । गाँधीजी के साहित्य का कॉपीराइट धारण करने वाले नवजीवन ट्रस्ट ने इसके फर्जी होने के बारे में वक्तव्य जारी किया था । संघियों की इस नापाक साजिश के बाद इस लेखक ने गाँधीजी के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ,’हिन्दू-राष्ट्र’ , मस्जिदों में प्रतिमा रखने तथा सांप्रदायिकता से सम्बन्धित विचार ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित एक लेख में प्रस्तुत किए । वह लेख संजाल पर दो हिस्सों में उपलब्ध है ।
बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद लालकृष्ण अडवाणी ने ‘धोओ-पोछो’ तिकड़म के तहत नेता विरोधी दल के पद से इस्तीफा दिया था।
बहरहाल, “इनकी गाथा छोड़ चलें हम ‘मानस’ के मैदानों में ” और दोनो चौपाइयों की सन्दर्भ सहित पद-पूर्ति करें ।
कत विधि सृजी नारी जग माहि
” जब पार्वती का विवाह हो गया , तब उनकी माँ मैना विदाई के मौके पर दुखी हो कर समझाने-बुझाने पर संताप की वह बेजोड़ बात कहती है , जो सारे संसार की नारी हृदय की चीख है ।
” कत विधि सृजी नारी जग माहीं ,
पराधीन सपनेहु सुख नाही । “
” गजब है तुलसी ! क्या ममता , क्या नारी हृदय की चीख , क्या नर-नारी के आदर्श-जीवन की सूचना । आखिर उसने संसार को किस रूप में जाना है,
” सियाराम मय सब जग माहीं । “
– डॉ. राममनोहर लोहिया .
चेरी छोड़ न होईंहो रानी
‘ कोऊ नृप होंय हमे का हानि ,
चेरी छोड़ न होइहों रानी “
यह गोस्वामीजी मन्थरा के मुँह से कहवाते हैं । मंथरा-वृत्ति आज भी व्याप्त है । इस वृत्ति के लोगों की शातिरी की यह सफलता है कि बाद की पंक्ति चर्चा पहली पंक्ति के साथ नहीं होती । पहली पंक्ति की व्याप्ति अराजनीतिकरण के व्याप्त माहौल में फ़िट बैठ जाती है ।
इष्ट देव सांकृत्यायन ने अपनी दूसरी टिप्पणी में ‘मसीद’ वाले पद का उल्लेख कर स्पष्ट रूप से तथ्य प्रस्तुत कर दिए हैं ।
मेरा दृढ़ मत है कि ब्लॉग पर भी बहुत से लोग मात्र प्रतिक्रियावादी ही हैं।
वे यहाँ कुछ भी गंभीर करने के लिए वे आते ही नहीं। आप की चौपाइयों का पाठ किस प्रकाशन के रामचरित से है।
“मंथरा-वृत्ति आज भी व्याप्त है ।”
आपके इस कथन से पूरी तरह सहमत.
पिछली पोस्ट पर इष्टदेव जी की टिप्पणी देखी. आपके भय का प्रभाव उनकी दूसरी टिप्पणी में साफ दिखता है. आपकी पार्टी का एक सजस्य बढ़ गया. बधाई हो.
न तो मुझमें गूढ़ बातों को समझने की बुद्धि है, न इतना ज्ञान। बस एक बात जानती हूँ कि संसार का कोई धर्म, समाज, देश ,राज्य ,लेखक, कवि यहाँ तक कि यदि कोई भगवान है तो वह भी स्त्री के पक्ष में नहीं है । कारण क्या हो सकता है वह तो पुरुष या धर्मगुरु ही बता सकते हैं । यह भी हो सकता है कि अपने अधूरेपन को छिपाने के लिए ही वे स्वयं को महान सिद्ध करने में लगे रहते हैं । ऐसा भी नहीं है कि स्त्रियों ने ही अपने उत्थान के लिए कोई विशेष यत्न किये
हों ।
तुलसीदास कितने भी महान रहे हों किन्तु उनका नाम आते से ही मुझे तो ‘ढोर, गंवार , शुद्र और नारी’ ही याद आ जाता है और याद आता है स्त्रियों का सुन्दर काँड पढ़ना और समवेत स्वर में इन शब्दों को दोहराना । ऐसा तो शायद दास प्रथा में दासों ने भी नहीं किया होगा कि अपने आपको मारपीट व प्रताड़ना के लिए स्वयं गाकर योग्य पात्र बताया हो । और तब नारी होने पर भी मैं लज्जित हो जाती हूँ ।
पुरुष जो नारी उत्थान में लगे होते हैं या स्त्री को बराबर का दर्जा देने की बात करते हैं, वे भी केवल एक तुलनात्मक रूप में महान होते हैं । कुछ कुछ वैसे ही जैसे कोई सवर्ण कहता है कि मैं तो शूद्रों से बराबरी का व्यवहार करता हूँ । अरे भाई, करते हो तो कौन सी महान बात करते हो ? वह तो करना ही चाहिये ।
घुघूती बासूती
पिछली पोस्ट भी पहली बार पढी़! तुलसीदास के विचारों के बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहूंगा। वे एक महान कवि थे इसमें किसी को शंका नहीं होनी चाहिये। बाकी उनके काव्य की चर्चा करते हुये एक बार स्व.आचार्य विष्णुकान्त शाष्त्रीजी ने बताया था- आदर्श रचनाकार अपने अनुकरणीय आदर्श श्रेष्ठ पात्र से कहलवाता है। अधम पात्र के मुंह से कहलवायी गयी बात रचनाकार का अपना आदर्श नहीं होती। तुलसी साहित्य में तमाम नकारात्मक मानी जाने वाली बातों की विवेचना इस रोशनी में की जानी चाहिये। पिछली पोस्ट में प्रियंकरजी की टिप्पणी मौजूं है। बाकी पंगेबाज की बात को मौजमजे वाले मूड में ही ग्रहण किया जाये तो उनका भी भला है हमारा भी। 🙂
आचार्य विष्णुकांत शाष्त्री की कही बात से संबंधित पोस्ट का लिंक यह है
http://hindini.com/fursatiya/?p=63
संजयजी
पहली तो बात यह कि कतई इस भ्रम में न रहें कि मैं किसी से डर भी सकता हूँ या किसी पार्टी का सदस्य भी हो सकता हूँ . पार्टी और संसद की राजनीति में मेरा कोई विश्वास नहीं है. आप चाहें तो अपने विचारों के अनुसार मुझे अराजकतावादी कह सकते हैं. संसदीय राजनीति मुझे बंजर राजनीति लगती है. यकीन न हो तो आप यूनीकोड पर पार्टी टाइप करके देखें. हिंदी में पहले जो शब्द टाइप होगा वह परती होगा. परती का मतलब आप जानते ही होंगे. दूसरी बात कि जो मैं सही समझता हूँ वह लाख विरोध के बीच भी पूरी दमदारी के साथ कहता हूँ. संसद को वेश्यालय मैं सिर्फ इसलिए नहीं कहता क्योंकि मेरा ख्याल है कि वेश्यालयों में चाहे धंधे की सही पर ईमानदारी शेष होगी.
पुनश्च, घुघुती जी
आप तुलसी की जिस चौपाई का उद्धरण दे रही हैं, पहले उसके संदर्भ को समझें. अगर आपको केवल हो-हो हल्ला मचाना है तो आगे पढ़ने की जरूरत नहीं है. आप आराम से एक तरफ स्त्री विमर्श का हल्ला मचाते हुए दूसरी तरफ मुरारी बापू की नौटंकी देख-सुन सकती हैं. जानना है तो मानस उठा कर देखें. यह चौपाई कहॉ, किस संदर्भ में और कौन कह रहा है. साथ ही यह भी कि तुलसी की बात आप किसकी बात को मानेंगी? गौर करें, यह चौपाई सुन्दरकाण्ड के आख़िरी दौर में आती है. यह समुद्र कह रहा है, जिसका चित्रण तुलसी यहां पहले ही खल के रुप में कर चुके हैं. क्या आपने कहीँ सुना है कि खलनायक के मुँह से लेखक अपनी बात कहवाता हो?
अफ़लातून भाई!
आपकी बात से पूरा-पूरा इत्तिफ़ाक है .
चौपाई पूरी इसलिए नहीं की ताकि संबोधित व्याख्याकार (अरुण-अनुनाद) पूर्ति कर सकें . अर्धाली पूरी करने को तो उन्हें ही कहा गया था . सो हम चुप रहे .
जो ‘मांग के खाइबो, मसीद में सोइबो’ की करुणा नहीं समझ पा रहा है और उसमें व्याख्या का षड़यंत्र खोज रहा है, वह ‘कत विधि सृजी ……..’ की करुणा कैसे समझ सकेगा ? वह ज्ञान (?) के ताप से शुष्क काष्ठवत हुआ परमज्ञानी कुछ नहीं समझ सकेगा .
पिता जब ‘रामचरितमानस’ का पाठ करते-करते अक्सर भावुक हो जाते थे तो बचपन में हम यह नहीं समझ पाते थे कि ‘रामचरितमानस’ पढते समय बहुत से प्रसंगों में उनकी आंखों से जलधारा क्यों बहने लगती है . अब समझ पाता हूं . अब मैं पिता हो गया हूं — वह भी बेटी का पिता .
‘रामचरितमानस’ पढने-गुनने के लिए है, रोली-अक्षत चढाने के लिए नहीं . वरना रोली-अक्षत का कार्य-व्यापार भी चलता रहेगा और मंथरा-वृत्ति भी .
“पिता जब ‘रामचरितमानस’ का पाठ करते-करते अक्सर भावुक हो जाते थे तो बचपन में हम यह नहीं समझ पाते थे कि ‘रामचरितमानस’ पढते समय बहुत से प्रसंगों में उनकी आंखों से जलधारा क्यों बहने लगती है . अब समझ पाता हूं . अब मैं पिता हो गया हूं — वह भी बेटी का पिता.”
प्रियंकर की यह टिप्पणी अद्भुद है. अनुभवजन्य बोध सब शास्त्रों पर भारी. रामचरित मानस पढ़ते-पढ़ते जब आंसू बहने लगते हैं तब लगता है आज पाठ सफल हुआ. मुझे समझ में भी ठीक से नहीं आता कि क्या लिखा है. लेकिन आंसू बहते हैं, मन हल्का होता है, मौन अंदर उतरता है. कोई तर्क नहीं, कोई दावा नहीं, कोई बहस नहीं.
वाह संजय भाई! आ गए लाइन पर. प्रियाँकर को धन्यवाद विमर्श को सही दिशा देने के लिए.
मै आप सबकी बात मान सकती हूँ किन्तु यह नहीं समझ सकती कि कोई स्त्री स्वयं को ताडन की अधिकारी कैसे कह सकती है ।यह एक बहुत ही बीमार मानसिकता दर्शाती है । और यही मान्सिकता मुझे सह्य नहीं है ।
घुघूती बासूती
मानसिकता*
@ इष्टदेव जी, अनूप जी,
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में यदि सज्जन और श्रेष्ठ पात्रों के मुख से ही अपने आदर्शों का निरूपण किया है, तो फिर बालकांड में भगवान शिव के मुख से ये कवित्वमय कटु अपशब्दों की झड़ी किसके लिए लगाई है –
कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच।। 114 ।।
अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई विषय मुकर मन लागी।।
लंपट कपटी कुटिल विसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी।।
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानि।।
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। रामरूप देखहिं किमि दीना।।
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका।।
हरिमाया बस जगत भुमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं।।
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे।।
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन कर कहा करिअ नहिं काना।।
उक्त पद में निर्गुण भक्ति के मार्ग पर चलने वाले संतों को तुलसी ने खरी-खोटी सुनाई है। चूंकि इस पद की रचना के समय यह संदर्भ मुख्य रूप से कबीर से जुड़ता है, इसलिए कबीर के कई अध्येताओं का मानना है कि तुलसीदासजी द्वारा रामचरितमानस में व्यक्त किए गए उपर्युक्त विचार ‘राम’ यानी ब्रह्म के संबंध में कबीर की अवधारणा की भर्त्सना करने के उद्देश्य से ही शिव-पार्वती संवाद के रूप में प्रस्थापित किए गए हैं।
सच्चाई तो यह है कि रामचरितमानस की रचना करते समय तुलसीदास का मुख्य उद्देश्य मनु द्वारा प्रवर्तित और पुराण-प्रतिपादित वर्णाश्रम व्यवस्था को प्रतिष्ठित करना था। वह समाज में समरसता और समत्व की स्थापना के बजाय पदानुक्रम और जाति-व्यवस्था को मजबूत करते हैं। काव्य की दृष्टि से ‘रामचरितमानस’ चाहे जितना उत्कृष्ट महाकाव्य हो, लेकिन उनमें प्रतिपादित आदर्श प्रगतिशील मानव समुदाय के लिए वरेण्य नहीं हैं।
मैंने इस विमर्श को विस्तार से अपने लेख कबीर के राम में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
लोहिया के रामायण संबंधी विचारों पर केन्द्रित लेखों की यह श्रृंखला अत्यंत महत्वपूर्ण है। साधुवाद! 🙂
भइये सृजन ,
खरी-खोटी पर इतना शोध करने के साथ-साथ एक नज़र ‘मानस’ की इस चौपाई पर भी डाल लेते :
अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा
उभय हरहिं भव संभव खेदा ॥
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