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Archive for the ‘kishan patanayak’ Category

मानव समाज में खेती का स्थान तीन कारणों से महत्वपूर्ण रहा है,रहेगा। (1)पहला कारण वह है जो अधिकांशतः चर्चा में आता है ।तमाम औद्योगिकरण और विकास के बावजूद आज भी मानव जाति का अधिकांश हिस्सा गांवों में रहता है और अपनी जीविका के लिए खेती,पशुपालन आदि पर आश्रित है। भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में आज भी रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत खेती व पशुपालन ही है।किंतु खेती का महत्व महज इस सांख्यिकीय कारण से ही नहीं है। दो और ज्यादा महत्वपूर्ण और बुनियादी कारण हैं। (2) दूसरा कारण यह है कि खेती से ही मनुष्य की सबसे बुनियादी जरूरत भोजन की पूर्ति होती है। अभी तक खाद्यानों का कोई औद्योगिक या गैर खेती विकल्प आधुनिक टेक्नोलॉजी नहीं ढूढ पायी है और भविष्य में इसकी संभावना भी नहीं है। इसलिए जब स्वाभिमानी और जागरूक समाज या राष्ट्र खाद्य स्वालंबन की रणनीति बनाते हैं या अंतरष्ट्रीय कूटनीति में खाद्य आपूर्ति को एक औजार बनाया जाता है, तो खेती का महत्व अपने आप स्पष्ट हो जाता है। (3) खेती के साथ एक तीसरी विशेषता यह है कि मनुष्य समाज की आर्थिक गतिविधियों में यहीं ऐसी गतिविधि है, जिसमें वास्तव में उत्पादन और नया सृजन होता है। प्रकृति की मदद से किसान बीज के एक दाने से बीस से तीस दाने तक पैदा कर लेता है।उधोगों, सेवाओं आदि अन्य आर्थिक गतिविधियों में प्रायः कोई नया उत्पादन नहीं होता है,पहले से उत्पादित पदार्थों(जिसे कच्चा माल कहा जाता है)का रूप परिवर्तन होता है।उर्जा या कैलोरी की दृष्टि से भी देखें ,तो जहाँ अन्य आर्थिक गतिविधियों में ऊर्जा की खपत होती है,खेती और पशुपालन में उर्जा(या कैलोरी )का सृजन होता है।खेती में वानिकी और खनन को भी जोड़ा जा सकता है,वे भी प्रकृति से जुड़े हैं, हलाकि एक सीमा से ज्यादा से ज्यादा खनन विनाशकारी हो सकता है। इसमें मार्के की बात प्रकृति का योगदान है।खेती में प्रकृति मानव श्रम के साथ मिलकर वास्तव में सृजन करती है।
इन तीन विशेषताओं के कारण मानव-समाज में खेती आदि का महत्व बना रहेगा।किन्तु आधुनिक सभ्यता और पूँजीवादी समाज में इन तीनों विशेषताओं को नकारने और पलटने की कोशिश हो रही है।ग्लोबीकरण ने इस प्रवृत्ति को और तेज किया है,जिससे नए संकट खड़े हो रहे हैं।खेती की जनई टेक्नोलॉजी इतनी आक्रामक है कि वह प्रकृति से जुड़ी इस गतिविधि को प्रकृति के विरुद्ध खड़ी कर रही,जिससे जल भंडार खाली हो रहें हैं, भूमि का कटाव, बंजरिकरण या दलदलीकरण हो रहा है,अधिकाधिक ऊर्जा की खपत हो रही है, वातावरण में विष घुलते जा रहे हैं और जैविकविविधता का तेजी से ह्रास हो रहा है।खेती में कीटों व रोगों का प्रकोप बढ़ा है,जोखिम बढ़ी है और पैदवार में ठहराव आ गया है। उतनी ही पैदवार के लिए किसान को निरन्तर बढ़ती हुई मात्रा में रसायनिक खाद ,कीटनाशक दवाईयों तथा पानी का इस्तेमाल करना पड़ रहा है।किसान के संकट का एक स्रोत आधुनिक टेक्नोलॉजी है।इसी प्रकार खाद्य आपूर्ति एवं खाद स्वावलम्बन के स्रोतों के बजाय अब खेती को तेजी से पूँजीवादी बाज़ार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की न मिटने वाली भूख की रणनीति का एक पुर्जा बनाया जा रहा है।भारत जैसे तमाम देशों को यह सिखाया जा रहा है कि उन्हें अपनी जरूरत के अनाज,दालें व खाद्य तेल पैदा करने की जरूरत नहीं है, दुनिया मे जहाँ सस्ता मिलत है वहाँ से ले लें।इसी करण पिछले तीन चार सालों में ही यह हालत आ गई है कि जिस भारत के गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं होती थी, उसे इस वर्ष भारी मात्रा में गेहूं आयात करना पड़ रहा है।खाद्य तेल का आयात तो पहले ही कुल खपत के आधे स्तर पर पहुँच गया है।अफ्रीका के लोग भी पहले अपनी जरूरत का अनाज स्वयं पैदा कर लेते थे।लेकिन यूरोप के गुलामी के दौर में वहाँ की खेती को इस प्रकार बदला व नष्ट किया गया कि अब वहां बारंबार भीषण अकाल पड़ते हैं।
भारत में हरित क्रान्ति की खुशहाली कुछ क्षेत्रों, कुछ वर्गों और कुछ फसलों तक सीमित रही।लेकिन इस सीमित खुशहाली के दिन भी अब लद गए।जिस विश्व बैंक ने अपने पहले नई टेक्नोलॉजी के प्रचार प्रसार के लिए सभी आवश्यक उपादान(उन्नत बीज, रसायनिक खाद, कीटनाशक दवाइयां, सिचाई, बिजली, डीजल, आधुनिक कृषि यंत्र) सरकार द्वारा सस्ते व अनुदानयुक्त देने की सिफारिश की थी, उसी ने रंग बदल दिया।वर्ष 1991 के बाद विश्व बैंक और अंतरष्ट्रीय कोष के निर्देश में भारत सरकार ने अनुदानों को कम करते हुए क्रमशः इन सारे उपक्रमों को महंगा करने के रणनीति अपनाई । दूसरी ओर विश्व व्यापार संगठन के स्थापना के साथ ही खुले आयात की नीति के चलते कृषि उपज के सस्ते आयात ने भारतीय किसानों की कमर तोड़ दी।बढ़ती लागत और कृषि उपज के घटते (या पर्याप्त न बढ़ते) दामों के दोमों के दोनों पाटो के बीच भारतीय किसान बुरी तरह पिसने लगे। खेती घाटे का धंधा पहले से था,लेकिन अब यह घाटा तेजी से बढ़ने लगा और किसान कर्ज में डूबने लगे।संकट इतना गहरा हो गया कि किसान देश के कई हिस्से में और कोई चारा न देख बड़ी संख्या में आत्म हत्या करने लगे पिछले छ सात वर्षों से किसानों की आत्म हत्या का दौर लगातार जारी है।यह एक अभूतपूर्व स्थिति है जो जबरदस्त संकट का घोतक है।किन्तु इससे अप्रभावित भारत की सरकारें ग्लोबीकरण प्रणीत सुधारों की राह पर आगे बढ़ती जा रही हैं।भारत के छोटे और मध्यम किसान या तो आत्म हत्या कर लें या उनकी जमीने नीलाम हो जाय या वे स्वंय जमीन बेचने को मजबूर हो जाय, यह सुधारों का एक अघोषित एजेंडा है,क्यों कि जमीन कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हो जाय, जमीन की जोट बढ़ जाय और कम्पनियों के सीधे या अप्रत्यक्ष नियंत्रण में आ जाय-यह कथित सुधरों का एक लक्ष्य है। इन्हीं सुधारों के अंतर्गत जमीन की हदबन्दी के कानून शिथिल किया जा रहा है,नए बीज कानून और पेटेंट कानून बनाए जा रहे हैं,जमीन की खरीद फरोख्त से लेकर बीज आपूर्ति,कंट्रैक्ट खेती, विपणन आदि खेती की सभी गतिविधियों में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुली छूट दी जा रही है और सारी चिंताओ और चेतावनियों को ताख पर रखकर जीन समिश्रन खेती की अनुमति दी जा रही है।इस प्रकार खेती को कम्पनीयों के हाथ में सौपने तथा खेती से जुड़ी आबादी को भी कम करने का एक बर्बर अमानवीय अभियान चल रहा है।किंतु एक अहम सवाल इस अंधी दौड़ में भुला दिया जा रहा है।यूरोप-अमेरिका में जब खेती से आबादी को विस्थापित किया गया तो वह औद्योगिक क्रांति और गोरे लोगों द्वारा दुनिया के विशाल भूभाग पर कब्जे की प्रक्रिया में खप गई।लेकिन भारत जैसे देश में खेती में लगी आबादी कहाँ जायगी ?क्या भारत के उधोगों में और शहरों में उनके खपाने की क्षमता है?क्या देश में बेरोजगारी पहले से चरम सीमा पर पहुँच नहीं गई है?
संक्षेप में,भारतीय खेती के संकट के तीन आयाम हैं: (1) आधुनिक पूंजीवादी विकास में खेती को एक आंतरिक उपनिवेश के रूप में पूँजी निर्माण का स्रोत बनाना (2) हरित क्रांति के भ्रामक नाम से एक अनुपयुक्त,साम्रज्यवादी ,किसान विरोधी व प्रकृतिक-विरोधी टेक्नोलॉजी थोपना और (3) ग्लोबीकरण के तहत किसानों पर हमले तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कब्जे की प्रक्रिया को और तेज करना।कहने की जरूरत नहीं है कि ये तीनों आयाम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक बड़ी प्रक्रिया के हिस्से हैं।
भारतीय खेती पर बढ़ते इस संकट ने पिछले तीन दशकों में अनेक सशक्त किसान आंदोलनों को जन्म दिया। तमिलनाडु, कर्नाटक ,महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों में लाखों की संख्या में किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर निकले।बाद में उड़ीसा,राजस्थान आदि प्रान्तों में भी किसानों के शसक्त आंदोलन उभरे।ये आंदोलन ज्यादातर मुख्य धारा के राजनीति दलों के बाहर, अलग एवं स्वतंत्र रहे।किसान आंदोलन ही नहीं ,इस अवधि के सभी जनांदोलन प्रमुख राजनीतिक दलों के दायरे से बाहर रहे,जिससे जाहिर होता है कि ये दल आम जनता से कटते गए और उनकी समस्याओं के संदर्भ में अप्रसांगिक बन गए। कहने को ज्यादातर मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों के किसान प्रकोष्ठ या मंत्र हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी पार्टी तंत्र से बाहर आकर किसान हित मे आंदोलन नहीं किया।
किशन पटनायक इस काल के भारत के प्रमुख समाजवादी चिन्तक और कर्मी रहे हैं। भारतीय राजनीति में जनांदोलनों की बढ़ती भूमिका को उन्होंने बहुत पहले पहचाना ,समझा, उनसे एक रिश्ता बनाया और उन्हें एक वैचारिक दिशा देने की कोशिश की।किसान आंदोलन के वे प्रबल समर्थक रहे।व्यवस्था परिवर्तन की किसी भी प्रक्रिया में वे किसान और किसान आंदोलनों की महत्वपूर्ण भूमिका मानते थे।वे किसान आंदोलन के इस पूरे दौर के भगीदार ,गवाह, नजदीक के पर्वेक्षक तथा हस्तक्षेप करने के इक्छुक रहे।इस प्रक्रिया में उन्होंने समय-समय पर लेख लिखे, भाषण दिए और टिप्पणियां कीं। उनमें प्रमुख लेखों एवं भाषणों का संकलन इस पुस्तक में किया गया है। इनसे हमें भारत के किसान आंदोलन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां, अंतरदृष्टि और समझ मिलती है। पुस्तक के पहले खण्ड में भारत का किसान आंदोलन के क्रम में महत्वपूर्ण घटनाओं की एक झांकी मिलती है।दक्षिण के किसान आंदोलन पर तो हिंदी में जानकारी दुर्लभ है। वोट क्लब की ऐतिहासिक रैली में टिकैत-शरद जोशी का झगड़ा भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था। इस प्रसंग पर भी किशन पटनायक का एक महत्वपूर्ण लेख है, जिसमें किसान आंदोलन की प्रमुख कमजोरियों को भी इंगित किया गया है। दूसरे खण्ड के लिखों से किसान आंदोलन की वैचारिक दृष्टि ,रणनीति और राजनीति के बारे में सम्यक विश्लेषक मिलता है, जो भावी किसान आंदोलन के लिये भी काफी मददगार हो सकता है,वैसे भी, भारत के किसान आंदोलन पर अच्छी पुस्तकें नहीं के बराबर हैं।डॉ ईश्वरी प्रसाद द्वारा संपादित एक पुस्तक ‘भारत के किसान ‘दस वर्ष पहले प्रकाशित हुई थी,वह भी अप्राप्य है।यानी किशन पटनायक की यह शिकायत सही है कि भारत के बौद्धिक वर्ग ने किसान आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया है। इस दृष्टि से भी किशन पटनायक की यह पुस्कट एक महत्वपूर्ण अभाव को पूरा करती है।
अस्सी और नब्बे के दशक में भारत में बड़े-बड़े किसान आंदोलन हुए।किसानों के बड़े-बड़े धरने और रैलियां ह
हुईं, जिनमें लाखों किसानों ने भाग लिया। किसानों का शोषण, कृषि उपज का उचित दाम न मिलना,किसानों पर बढ़ता कर्ज, किसानों पर बढ़ते हुए शुल्क, बिजली के बढ़ते बिल आदि उनके प्रमुख मुद्दे थे।लेकिन इतने सख्त आन्दोलनों के बावजूद आजाद भारत के किसान की क्या स्थिति है?किसान आन्दोलनों की जो प्रमुख मांगे थीं, वे पूरी होना तो दूर हालत उल्टी होती गई,किसान की दुर्गती बढ़ती गई।ग्लोबिकरण कि नीतियों ने उसे बड़ी संख्या में आत्म हत्याओं के कगार पर पहुँचा दिया। किसान आंदोलनों की तीव्रता भी धीरे-धीरे कम होती गई। वे ठंठे हो गये,कमजोर हो गए या बिखरते चले गए।ऐसा क्यों हुआ, इसके तटस्थ मूल्यांकन का समय आ गया है।
आम तौर पर किसी आंदोलन की असफलता के लिए इसके नेतृत्व तथा कुछ व्यक्तियों को दोषी ठहरा दिया जाता है लेकिन यह सरलीकरण और सतही विश्लेषण ही होता है गहराई से देखें तो इसके दो प्रमुख कारण थे। एक तो, किसान आंदोलनों में आम तौर पर व्यापक वैचारिक परिप्रेक्ष्य, दिशा और समझ का अभाव रहा।वे अपनी तत्तकालीन संकीर्ण मांगों में ही उलझे रहे।किसानों की स्थिति और किसानों के शोषण की ऐतिहासिक रूप से पड़ताल करते हुए गहराई से विशलेषण करने की जरूरत उन्होंने नहीं समझी।ऐसा विश्लेषण उन्हें इस अनिवार्य नतीजे पर पहुचाता की पूरी व्यवस्था को बदले वगैर किसानों की मुक्ति सम्भव नहीं है।इससे किसान आंदोलनों का चरित्र ज्यादा क्रांतिकारी बनता, दूसरा किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए सरकारी नीतियों को बदलने और सत्ता को प्रभावित करने की संयुक्त रणनीति तथा योजना उन्होंने नहीं बनाई। यदि वे ऐसा करते, एक तो उन्हें देश के समस्त किसान आन्दोलनों को एकजूट करने की जरूरत का ज्यादा तीव्रता से अहसास होता। दूसरे, देश के अन्य शोषित और वंचित तबकों के आन्दोलनों के साथ एकता बनाने की जरूरत महसूस होती। साथ ही,किसानों की और शोषितों की एक अलग राजनीति खड़ी करने की दिशा में वे कदम बढ़ाते। यदि सरकारें बार-बार किसान विरोधी नीतियां अपना रही हैं, तथा दल परिवर्तन से सरकार की नीतियों में कोई फर्क नहीं आ रहा है,तो वे स्वयं किसान पक्षी राजनीतिक ताकत खड़ी करने के बराबर में गंभीरता से सोचते।किशन पटनायक ने इन दोनों आवश्यकताओं को अपने लेखन एवं भाषणों में बार-बार,अलग-अलग तरीकों से,अलग अलग रूपों में,प्रतिपादित किया है।
इस अर्थ में किसान आंदोलन एवं किसान संगठन राजीनीति से परे या अराजनीतिक नहीं रह सकते वे मौजूदा भ्रष्ट ,अवसरवादी,यथास्थितिवादी, निहित स्वार्थों वाले राजनीतिक दलों से अलग रहें, यह तो ठीक है।लेकिन उन्हें अपनी राजनीति बनानी पड़ेगी,नहीं तो ये ही दल उनका इस्तेमाल चुनाव में तथा अन्ययत्र अपनी ओछी व टुच्ची राजनीति के लिए करते रहेंगे। चुकी किसानों के स्वार्थ इस व्यवस्था के दूसरे समूहों के स्वार्थ से टकराते हैं, इसलिए किसान आंदोलन को अपनी राजनीति व रणनीति गढ़ना होगा।
किसान आंदोलन संकीर्ण भी नहीं हो सकता।वह एक ट्रैड यूनियन की तरह नहीं चलाया जा सकता, इस बात को भी किशन पटनायक ने रेखांकित किया है।।संगठित मजदूरों का आंदोलन संकीर्ण हो सकता है! एक फ़ैक्टरी के मजदूरों का वेतन मौजूदा व्यवस्था के अन्दर बढ़ सकता है ;व्यवस्था परिवर्तन के वगैर वह सम्भव है।लेकिन किसानों की आमदनी मौजूदा व्यवस्था में नहीं बढ़ सकती।इसका कारण न केवल यह है कि किसानों का तादाद बहुत ज्याद है और वे देश के आबादी का खास एवं सबसे बड़ा हिस्सा हैं। बल्कि यह भी है कि किसानों और गांव खेती के शोषण पर यह पूरी व्यवस्था टिकी है।इसलिए किसान आंदोलन को अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए परिवर्तनवादी और क्रांतिकारी बनना ही पड़ेगा।
वैसे तो, मानव इतिहास की सारी नगरी सभ्यताएं व बड़े-बड़े साम्रज्य किसानों के शोषण पर ही आधारित थे बड़े-बड़े मंदिर, राजाओं और सामंतों के महल, उनकी ऐयासी, सेनाएं ,युद्ध सबका बोझा अंततः किसान ही उठाते थे।ज्यादा लगान व अत्याचार जब बर्दाश्त से बाहर हो जाते थे, तो कभी-कभी किसान विद्रोह भी होते, किन्तु ये विद्रोह तत्कालीन और स्थानीय होते थे। वे या तो दबा दिए जाते या कुछ राहत मिलने पर शांत हो जाते थे। औद्योगिक पूंजीवाद के साथ ही किसानों के शोषण ने पहली बार सार्वदेशिक तथा विकराल रूप धारण किया है।
18 वीं शताब्दि से यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ जिस पूंजीवाद का विकास हुआ है,उसमें औपनिवेशिक शोषण अंतर निहित और अनिवार्य पूंजीनिर्माण के लिए अतिरिक्त मूल्य का स्रोत सिर्फ फैक्ट्री मजदूरों का शोषण नहीं है, बल्कि दुनिया के उपनिवेशों के किसानों और मजदूरों का शोषण है, इसे रोजा लग्जमबर्ग और राममनोहर लोहिया ने अच्छी तरह समझाया है।उपनिवेशों के आजाद होने के बाद यह शोषण नव औपनिवेशिक तरीकों से जारी रहा है।देश के बाहर के उपनिवेशों या नव उपनिवेशों के शोषण मौक़ा नहीं मिलने पर पूंजीवाद देश के अंदर उपनिवेश खोजता है। सचिदानंद सिन्हा तथा किशन पटनायक ने इसे ‘आंतरिक उपनिवेश ‘ का नाम दिया है।पिछड़े और आदिवासी इलाके भी आंतरिक उपनिवेश हो सकते हैं लेकिन गांव और खेती भी एक प्रकार के आंतरिक उपनिवेश हैं।गांव और खेती में पैदा होने वाली चीजों के दाम कम रखकर, गांव के उधोग खत्म करके उन्हें कारखनिया माल का बाजार बनाकर गांव में विशाल बेरोजगारी एव कंगाली पैदा करके उधोग के लिये सस्ता श्रम जुटाकर ,तथा गांव और खेती को तमाम तरह की सुविधाओं व विकास से वंचित रखकर ही औद्योगिकरण तथा पूँजीवादी विकास संभव होता है और हुआ है। इसलिए आधुनिक पूँजीवादी औद्योगिक विकास में गांव खेती का शोषण अनिवार्य है।किसान मुक्ति के किसी भी आंदोलन को अंततः इस’ विकास ‘ और इस पर आधारित आधुनिक सभ्यता पर सवाल खड़े करने होंगे तथा इसके खिलाफ बगावत करनी होगी।इस वैचारिक परिप्रेक्ष्य के अभाव में किसान आंदोलन आगे नहीं बढ़ पाएंगे, दिशाहीन होकर ठहराव के शिकार हो जायेगें।
भारत का ही उदाहरण ले। जवाहरलाल नेहरु के प्रधानमंत्री रहते अर्थशास्त्री एवं संख्यकीविद प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने दूसरी पंचवर्षीय योजना से देश में भारी उधोगों के विकास की जो योजना बनाई।वह खेती गांवो को शोषित वंचित रखने की रणनीति पर ही आधारित थी। सरकारी और निजी क्षेत्र ,दोनों में औद्योगिकरण को बल देने के लिये सस्ता कच्चा माल और सस्ता श्रम मिले, मजदूरों को अधिक मजदूरी न देनी पड़े इसके लिए खाद्यानों के दाम भी कम रखे जाये–यह महालनोबिस मॉडल में अंतरनिहित था।नतीजा यह हुआ की भारत के जिन किसानों ने आजादी के आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया तथा जो इस आंदोलन के मुख्य आधार थे,वे शोषित वंचित बने रहे तथा कंगाली और बदहाली से आजाद नहीं हो पाए।ऐसे ही धोखा सोवियत क्रांति के बाद वहाँ के किसानों के साथ हुआ।जब स्तालिन के नेतृत्व में सामूहिक फार्म बनाने के लिए किसानों से जबर्दस्ती जमीन छीन ली गई और विरोध करने वाले असंख्य किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया।गांव और किसान को वंचित रखके ही भारी औधोगीकरण, सेना एवं शस्त्र निर्माण तथा अन्तरीक्ष अभियान का कार्यक्रम सोवियत संघ में चलता रहा। चीनी क्रांति तो मुख्यतः किसानों की ही क्रांति थी। इसने चीन में साम्यवाद को एक नया और खाटी देशी रूप दिया।लेकिन औद्योगिक विकास का वही पूँजीवादी विचार ही हावी होने के कारण अंततः चीन भी तेजी से पूँजीवादी ग्लोबीकरण की राह पर जा रहा है।वहाँ भी बहुत तेजी से एवं बहुत बड़े पैमाने पर किसानों और गांवों को कंगाली, बेरोजगारी, बदहाली और विस्थापन का शिकार होना पड़ रहा है।
कुल मिलाकर,किसानों की मुक्ति के लिए आधुनिक औद्योगिक सभ्यता से मुक्ति होगा और एक गांव केंद्रित, विकेन्द्रित, नई सभ्यता की तलाश करना होगा।किशन पटनायक की विशेषता यह है कि वे सिर्फ किसान संगठन के विविध आयामों की ही पड़ताल नहीं करते और मौजूदा व्यवस्था की महज आलोचना ही नहीं करते, विकल्प व समाधान भी खोजते चलते हैं। किसान विद्रोह का घोषणा पत्र और किसान राजनीति के सूत्र नामक लेखों में वे किसानों की दृष्टि से भावी समाज की रचना के कुछ सूत्र भी पेश करते हैं।तारतम्य में वे पूंजीवाद के एक गैर मार्क्सवादी विकल्प की तलाश का आह्वान करते हैं ,क्योंकि मार्क्सवाद उस उत्पादन प्रणाली से बहुत ज्यादा जुड़ा है, जिसमें कृषि व किसानों का शोषण निहित है।
विचारों के स्तर पर पुरानी मान्यताओं व पुराने ढांचे को खंडित करने और नए विकल्पों की तलाश करने का काम किसान आंदोलन के नेतृत्व को करना होगा और जागरूक बुद्धजीवियों को करना होगा।इस मामले में भारत के बुद्धिजीवियों और शास्त्रों की कमियां तथा असफलता किशन पटनायक को काफी कचोटती हैं।उनकी विसंगतियों और अपनी पीड़ा को किशन पटनायक ने ‘कृषक क्रांति’ और शास्त्रों का अधूरापन नामक लेख में व्यक्त किया है।
जब हम ‘किसान’ की बात करते हैं, तो उससे क्या आशय है?किसान की परिभाषा में खेत में काम करने वाला मजदूर शामिल है या नहीं है ? भूमि के मालिक किसान और भूमिहीन मजदूर के हित भिन्न एवं परस्पर विरोधी हैं या उनमें कोई एकता हो सकती है? ये प्रश्न किसान आंदोलन के संदर्भ में बार-बार सामने आते हैं।किशन पटनायक का मानना है कि किसान और खेतिहर मजदूर द्वन्द तो है,लेकिन यह बुनियादी द्वंद नहीं है।जो किसान आंदोलन नव औपनिवेशिक शोषण और आंतरिक उपनिवेश के वैचारिक परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखेगा, वह उससे संघर्ष के लिए खेतिहर मजदूरों को अपने साथ लेने का प्रयास करेगा।यदि किसान और खेतिहर मजदूर एक हो गए ,तो बड़ी ताकत पैदा होगी,जो पूंजीवाद, साम्रज्यवाद, ग्लोबीकरण और साम्प्रदायिकता का मुकाबला कर सकेगी।पुस्तक के अंतिम दो लेखों में किशन पटनायक ने इस प्रश्न को सुंदर तरीके से संबोधित किया है।
अस्सी के दशक के अंत में भारत में किसान आंदोलन अपने शिखर पर था।कर्नाटक में प्रो. एम. डी. नंजुदास्वामी के नेतृत्व में, महाराष्ट्र के शरद जोशी के नेतृत्व में और पश्चिमी उत्तर प्रदेश ,हरियाणा, पंजाब में महेंद्र सिंह टिकैट के नेतृत्व में किसान आंदोलन की एक जबरदस्त लहर चल रही थी।इन आंदोलनों की एकता और समन्वित कार्यवाही देश इतिहास को एक नया मोड़ दे सकती थी।लेकिन यह ऐतिहासिक मौका हाथ से चला गया। 2 अक्टूबर 1989 को दिल्ली की वोट क्लब की विशाल रैली में मंच पर हुए विवाद की घटना मानो एक संकेत थी। इसके बाद से किसान आंदोलनों का ज्वार उतरने लगा।ऐसा क्यों हुआ ,इसको जानने के लिए जिज्ञासु अध्येताओं को इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि ,उनके सामाजिक आधार ,नेतृत्व, विचारधारा ,घटनाओं और परिस्थितियों का विस्तार से अध्ययन करना पड़ेगा। उन्हें किशन पटनायक के इस पुस्तक से मद्दद और महत्वपूर्ण संकेत मिलेंगे।
इस संदर्भ में एक प्रसंग का जिक्र करना मौजू होगा।संभवत वोट क्लब रैली के पिछले वर्ष की बात होगी,जब किसान संगठनों की अंतरराज्यीय समन्वय समिति का गठन हो गया था।इस समिति की बैठक नागपुर में हुई, जिसमें महाराष्ट्र, कर्नाटक ,गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा, मध्यप्रदेश आदि के प्रतिधिनि मौजूद थे, किन्तु बैठक नागपुर में होने के कारण महाराष्ट्र के प्रतिनिधि ज्यादा थे।इस बैठकर में कुछ प्रतिनिधियों के द्वारा शेतकरी संघटना द्वारा अनाज व कपास की खेती छोड़कर किसानों को यूकेलिप्टस की खेती करने का आह्वान पर सवाल उठाए गए।किशन पटनायक भी इस बैठक में मौजूद थे। उन्होंने कहा कि किसान चुकी देश का सबसे बड़ा तबका है, उसका स्वार्थ देश से अलग नहीं हो सकता।उसे देश के स्वार्थ के बारे में भी सोचना पड़ेगा।किशन पटनायक ने यह भी कहा कि किसानों के बेहतरी के लिए सिर्फ कृषि उपज के ज्यादा दाम मांगने से बात नहीं बनेगी।औधोगिक दामों पर नियंत्रण की मांग करनी पड़ेगी।इसका मतलब है कि पूरी व्यवस्था को बदलने की बात सोचनी पड़ेगी। एक समग्र नीति बनानी पड़ेगी। किसानों के नजरीय से विकास नीति कैसी हो ,उधोग नीति कैसी हो, शिक्षा नीति कैसी हो, प्रशासन व्यवस्था कैसी हो-सबकी रूप रेखा बनानी पड़ेगी और सबके बारे में सोचना पड़ेगा।किन्तु शरद जोशी और उनके जिंसधारी सिपहसलारों ने किशन पटनायक की बात बिलकुल नहीं चलनी दी।उनका कहना था कि कृषि उपज का दाम ही सब कुछ है।किसानों का सही दाम मिलने लगे, तो सब ठीक हो जाएगा। किशन पटनायक के विचारों पर आगे चर्चा व बहस भी बैठक में नहीं होने दी गई।काश ! यदि किशन पटनायक की बात पर किसान आंदोलनों के नेताओं ने गौर किया होता और अपने आन्दोलनों को उस दिशा में ढाला होता तो, न केवल किसान आंदोलनों का,बल्कि देश का इतिहास भी कुछ दूसरा हो सकता था। किन्तु आगे की प्रवृत्तियों के लक्षण यहीं दिखने लगे थे।शरद जोशी के बाद ग्लोबीकरण, उदारीकरण और बाजारवाद के पक्के समर्थक साबित हुए।इसलिए शायद वे उस बैठक में बहस से बचना चाहते थे।शरद जोशी ने किसानों को सब्जबाग दिखाए की मुक्त व्यापार नीतियों से उनके उपज का निर्यात बढ़ेगा और उन्हें आकर्षक दाम मिलेंगे।लेकिन हुआ ठीक उल्टा।कृषि उपज का आयात बढ़ा तथा घरेलू मंडियों में भी दाम गिर गए। शरद जोशी तो उन्नति करते हुए राज्य सभा सदस्य बन गए और ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ के अध्यक्ष बन गए, किन्तु महाराष्ट्र के किसान आत्महत्याओं की कगार पर पहुँच गए। अंतरराष्ट्रीय बाजार आखिरकार शरद जोशी की सदिच्छाओं से काम नहीं करता, ताकतवर पश्चिमी देशों, उनके विशाल अनुदानों और उनकी विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के स्वार्थो के मुताबिक काम करता है।किसान आन्दोलनों के लिए यह एक महत्वपूर्ण सबक है।
किशन पटनायक आज हमारे बीच में नहीं हैं। किन्तु उनके विचारों और विश्लेषण से किसान आंदोलन को एक नई दिशा मिल सकेगी, साथ ही परिवर्तन चाहने वाले सभी व्यक्तियों व समूहों की समझ भी समृद्ध होगी, इसी आशा और विश्वास के साथ यह छोटी-सी पुस्तक पाठकों की सेवा में पेश है।

सुनील

7 जून 2006

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एक लंबे समय तक बाबरी मस्जिद ने प्रकृति के खेलों और तूफ़ानों को बरदाश्त किया , लेकिन मनुष्यों की हिमाकतों और वहशतों को सहना उससे भी कठिन था । फिलहाल , एक ऐसी प्रक्रिया को तरजीह मिली है और एक शुरुआत हुई है जिससे , ’ तीन नहीं अब तीस हजार , बचे न एक कब्र मजार’ इस नारे में छुपी बुनियादी विकृति को बल मिलता है । ’ ताजमहल मंदिर भवन है’ तथा ’ कुतुब मीनार हिन्दू स्थापत्य की विरासत है ’ माननेवाले इतिहासकारों का एक छोटा-सा समूह देश में मौजूद है । बाबरी मस्जिद को तोड़ने के फौजदारी मामले के आरोपी गिरोह को सिर्फ़ ऐसे इतिहासकारों से ही बल मिलता है । इस मामले के दीवानी प्रकरण में भी वे एक पक्ष हैं । इनके दर्शन के तर्क को मान लेने पर अधिकांश ऐतिहासिक इमारतों को तोड़कर उनकी भूमि विभिन्न समुदायों को सौंप देनी होगी । समाजवादी विचारक किशन पटनायक ने १९९० में इस सन्दर्भ में इतिहास का एक सिद्धान्त बतौर सबक पेश किया था । इस सबक के मुताबिक तीन सौ साल पुरानी घटना के साथ आप सीधी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सकते । उन दिनों के योद्धाओं से प्रेरणा ले सकते हैं लेकिन उनकी वीरता की वाहवाही आप नही ले सकते । उन दिनों की ग़लतियों को आप सुधार नहीं सकते , सिर्फ़ आगे के लिए सतर्क हो सकते हैं । ’ इसी तरह उस युग के अपमानों का आप बदला नहीं ले सकते । होठों पर मुस्कान लिए आप थोड़ी देर मनन कर सकते हैं । बीते युग के असंख्य युद्धों और संधियों , जय – पराजय और मान – अपमान की घटनाओं को इतिहास के खेल के रूप में देखकर आपको अनुभव होगा कि आपकी छाती चौड़ी हो रही है , धमनियों में रक्त का प्रवाह तीव्र हो रहा है । हर युद्ध के बाद रक्त का मिश्रण होता है और हमारी कौम तो दुनिया की सबसे अधिक हारी हुई कौम है । ’ किशन पटनायक इस सबक को समझाते हुए कहते हैं , ’ तीन सौ साल बाद किसी की कोई संतान भी नहीं रह जाती , सिर्फ़ वंशधर रह जाते हैं । किसी भी भाषा में परदादा और प्रपौत्र के आगे का संबंध जोड़ने वाला शब्द नहीं है । नाती ,पोते , प्रपौत्र के आगे की स्मृति नष्ट हो जाती है । इसीलिए कबीलाई संस्कृति में भी बदला लेने का अधिकार नाती – पोते तक रहता है । युग बदलने से कर्म विचार और भावनाओं का संदर्भ भी बदल जाता है । हमारे युग में मस्जिद के स्थान पर मंदिर बनाने का लक्ष्य हो नहीं सकता क्योंकि हमारे युग का संदर्भ भिन्न है । ’ इतिहास और बदले के इस सिद्धांत को पाठ्य – पुस्तकों में नहीं लिखा गया है नतीजतन पढ़े – लिखे लोग भी भ्रमित हो जाते हैं । इस सिद्धांत को मौजूदा न्याय व्यवस्था द्वारा नजरअंदाज किया जाना भी सांघातिक होगा । सामान्य दीवानी मामले से ऊपर उठकर इस प्रकरण को संवैधानिक मूल्यों की कसौटी पर कसना वक्त का तकाजा है । बाबरी मस्जिद का निर्माण यदि १५२८ ईसवी में हुआ था तब वह भारत में मुगलों के आने के बाद की पहली इमारतों में रही होगी । इसके पहले तुर्क – अफ़गान काल के स्थापत्य के नमूने उपलब्ध हैं और फिर बाद के मुगल काल के भी । इस खास तरह की वास्तुकला के विकास को समझने में यह मस्जिद एक महत्वपूर्ण कड़ी जिसे तालिबानी मानसिकता ने नष्ट कर दिया । यहाँ कुस्तुन्तुनिया की ’ आया सूफ़िया ’ मस्जिद का उल्लेख प्रासंगिक है । ७ अगस्त , १९३५ को जवाहरलाल नेहरू ने एक संदर लेख में इस विशिष्ट मस्जिद का इतिहास लिखा है । इस इमारत ने नौ सौ वर्ष तक ग्रीक धार्मिक गाने सुने । फिर चार सौ अस्सी वर्ष तक अरबी अजान की आवाज उसके कानों में आई और नमाज पढ़ने वालों की कतारें उसके पत्थरों पर खड़ी हुईं । १९३५ में गाजी मुस्तफ़ा कमालपाशा ने अपने हुक्म सेयह मस्जिद बाइजेन्टाइन कलाओं का संग्रहालय बना दी। बाइज्न्टाइन जमाना तुर्कों के आने के पहले का ईसाई जमाना था और यह समझा जाता था कि बाइजेन्टाइन कला खत्म हो गई है । जवाहरलाल नेहरू ने इस लेख के अंत में लिखा है – ’ फाटक पर संग्रहालय की तख़्ती लटकती है और दरबान बैठा है । उसको आप अपना छाता – छड़ी दीजिए , उनका टिकट लीजिए और अंदर जाकर इस प्रसिद्ध पुरानी कला के नमूने देखिए और देखते – देखते इस संसार के विचित्र इतिहास पर विचार कीजिए , अपने दिमाग को हजारों वर्ष आगे – पीछे दौड़ाइए । क्य – क्या तस्वीरें , क्या – क्या तमाशे . क्या – क्या जुल्म,क्या – क्या अत्याचार आपके सामने आते हैं । उन दीवारों से कहिए कि आपको कहानी सुनावें , अपने तजुरबे आपको दे दें । शायद कल और परसों जो गुजर गए , उन पर गौर करने से हम आज को समझें , शायद भविष्य के परदे को भी हटाकर हम झाँक सकें । ’ लेकिन वे पत्थर और दीवारें खामोश हैं । जिन्होंने इतवार की ईसाई पूजा बहुत देखी और बहुत देखीं जुमे की नमाजें । अब हर दिन की नुमाइश है उनके साए में । दुनिया बदलती रही,लेकिन वे कायम हैं । उनके घिसे हुए चेहरे पर कुछ हल्की मुस्कराहट-सी मालूम होती है और धीमी आवाज-सी कानों में आती है – ’ इंसान भी कितना बेवकूफ़ और जाहिल है कि वह हजारों वर्ष के तजुरबे से नहीं सीखता और बार – बार वही हिमाकतें करता है । ’

(साभार – सर्वोदय प्रेस सर्विस , आलेख : ८१ , २०१० – ११)

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पी. लंकेश कन्नड़ के लेखक ,पत्रकार और आंदोलनकारी।एक ऐसी जमात के प्रमुख स्तंभ जो लोहिया के मुरीद होने के कारण अम्बेडकर की समाज नीति और गांधी की अर्थ नीति के हामी थे।देवनूर महादेव,यू आर अनंतमूर्ति और किशन पटनायक के मित्र और साथी।
उनकी लोकप्रिय पत्रिका थी ‘लंकेश पत्रिके’।लंकेश के गुजर जाने के बाद उनकी इंकलाबी बेटी गौरी इस पत्रिका को निकालती थी।आज से ठीक साल भर पहले गौरी लंकेश की ‘सनातन संस्था’ से जुड़े कायरों ने हत्या की।समाजवादी युवजन सभा से अपना सामाजिक जीवन शुरू करने वाले महाराष्ट्र के अंध श्रद्धा निर्मूलन कार्यकर्ता डॉ नरेंद्र दाभोलकर की हत्या भी सनातन संस्था से जुड़े दरिंदों ने की थी यह सी बी आई जांचकर्ता कह रहे हैं।सनातन संस्था के लोगों के पास से भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद हुए तथा आतंक फैलाने की व्यापक साजिश का पर्दाफ़ाश हुआ है।यह पर्दाफाश भी राज्य की एजेंसी ने किया है।
महाराष्ट्र में व्यापक दलित आंदोलन को हिंसक मोड़ देने में RSS के पूर्व प्रचारक की भूमिका प्रमाणित है।ऐसे व्यक्ति के गैर नामजद FIR के आधार पर देश भर में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं की निराधार गिरफ्तारियों से स्पष्ट है कि आरएसएस और सनातन संस्था की राष्ट्रविरोधी कार्रवाइयों के उजागर हो जाने के कारण राजनाथ सिंह-मोदी का यह मूर्खतापूर्ण ‘बचाव’ है।
रिजर्व बैंक की अधिकृत रपट में नोटबंदी की विफलता मान ली गई है।प्रधान मंत्री ने 50 दिनों की जो मोहलत मांगी थी उसकी मियाद पूरी हुए साल भर हो गई है। ’50 दिन बाद चौराहे पर न्याय देना’ यह स्वयं प्रधान मंत्री ने कहा था इसलिए उनके असुरक्षित होने की वजह वे खुद घोषित कर चुके हैं।
एक मात्र सत्ताधारी पार्टी चुनाव में पार्टियों द्वारा चुनाव खर्च पर सीमा की विरोधी है।इस पार्टी ने अज्ञात दानदाताओं द्वारा असीमित चंदा लेने को वैधानिकता प्रदान कर राजनीति में काले धन को औपचारिकता प्रदान की है।
समाजवादी जन परिषद इस अलोकतांत्रिक सरकार को चुनाव के माध्यम से उखाड़ फेंकने का आवाहन करती हैं।
अफ़लातून,
महामंत्री,
समाजवादी जन परिषद।

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श्री नवीन पटनायक,

मुख्यमंत्री, ओडिशा,

भुवनेश्वर, ओडिशा

 

प्रिय मुख्यमंत्री श्री नवीन पटनायक जी,

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बहरहाल, नियमगिरी में अनिल अग्रवाल की इंग्लैण्ड की कम्पनी वेदान्त द्वारा खनन कराने अथवा न कराने के सन्दर्भ में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश से तथा न्यायपालिका की देखरेख में जनमत-संग्रह हुआ था जिसमें एक भी वोट वेदान्त द्वारा बॉक्साइट खनन के पक्ष में नहीं पड़ा था। आपकी सरकार से जुड़े माइनिंग कॉर्पोरेशन के अदालत में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बदलवाने के प्रयास को न्यायपालिका ने अस्वीकार कर दिया है। आपके गृह विभाग को यह भलीभांति पता है कि प्रतिबन्धित भाकपा (माओवादी) ने जनमत संग्रह के बहिष्कार की अपील की थी। जनता ने जैसे वेदान्त द्वारा खनन को पूरी तरह से नकार दिया था, उसी प्रकार माओवादियों द्वारा जनमत-संग्रह बहिष्कार की अपील को भी पूरी तरह नकार दिया था।

इस परिस्थिति में ओडिशा पुलिस द्वारा नियमगिरी सुरक्षा समिति से जुडे कार्यकर्ताओं पर फर्जी मामले लादने और उन्हें ‘आत्मसमर्पणकारी माओवादी’ बताने की कार्रवाई नाटकीय, घृणित और जनमत की अनदेखी करते हुए वेदान्त कम्पनी के निहित स्वार्थ में है।

पुलिस द्वारा कुनी सिकाका की गिरफ्तारी, उसके ससुर तथा नियमगिरी सुरक्षा समिति के नेता श्री दधि पुसिका, दधि के पुत्र श्री जागिली तथा उसके कुछ पड़ोसियों को मीडिया के समक्ष ‘आत्मसमर्पणकारी माओवादी’ बताना ड्रामेबाजी है तथा इसे रोकने के लिए तत्काल आपके हस्तक्षेप की मैं मांग कर रहा हूं। कुनी, उसके ससुर और पड़ोसियों पर से तत्काल सभी मुकदमे हटा लीजिए जो आपकी पुलिस ने फर्जी तरीके से बेशर्मी से लगाए हैं।

इस पत्र के साथ मैं कुनी सिकाका के दो चित्र संलग्न कर रहा हूं। पहला चित्र सितम्बर 2014 में हमारे दल द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में का है जिसमें सर्वोदय नेता स्व. नारायण देसाई द्वारा कुनी को शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया जा रहा है। दूसरे चित्र में कुनी इस संगोष्ठी को माइक पर संबोधित कर रही है और हमारे दल समाजवादी जन परिषद का बिल्ला लगाये हुए है।

तीसरा चित्र गत वर्ष 5 जून पृथ्‍वी दिवस के अवसर पर नियमगिरी सुरक्षा समिति द्वारा आयोजित खुले अधिवेशन का है। इस कार्यक्रम के मंच पर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ पर्यावरण-अधिवक्ता के सामने कुनी बैठी है, मंच पर सुश्री मेधा पाटकर व प्रफुल्ल सामंतराय भी बैठे हैं। मैं भी इस कार्यक्रम में नियमगिरी सुरक्षा समिति द्वारा आमंत्रित था तथा वह चित्र मैंने खींचा है। कार्यक्रम में पूरा पुलिस बन्दोबस्त था तथा आपके खुफिया विभाग के कर्मी भी मौजूद थे।

संसदीय लोकतंत्र, न्यायपालिका और संविधान सम्मत अहिंसक प्रतिकार करने वाली नियमगिरी सुरक्षा समिति को माओवादी करार देने की कुचेष्टा से आपकी सरकार को बचना चाहिए। राज्य की जनता,सर्वोच्च न्यायपालिका और पर्यावरण के हित का सम्मान कीजिए तथा एक अहिंसक आन्दोलन को माओवादी करार देने की आपकी पुलिस की कार्रवाई से बाज आइए।

चूंकि हमारी साथी कुनी सिकाका को गैर कानूनी तरीके से घर से ले जाने में अर्धसैनिक बल भी शामिल था इसलिए इस पत्र की प्रतिलिपि केन्द्रीय गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह को भी भेज रहा हूं। इस पत्र को सार्वजनिक भी कर रहा हूं।

 

विनीत,

अफलातून

महामंत्री, समाजवादी जन परिषद

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प्रिय सुनील,
आने की इच्छा थी लेकिन संभव नहीं हुआ। कारण देना व्यर्थ है।अबकी बार आप लोगों से ही नहीं जन-आंदोलन समन्वय समिति के सदस्यों से भी भेंट हो जाती।लिखने की जरूरत नहीं है कि किशनजी से मिलना एक बड़े संतोष का विषय है।समाजवादी आंदोलन से जुड़े जो जाने पहिचाने चेहरे हैं उनमें से शायद किशन पटनायक ही ऐसे हस्ताक्षर हैं जो नई पीढ़ी को प्रेरणा देने की योग्यता रखते हैं। लोहिया का नाम लेने वाले केवल मठ बना सकते हैं,यद्यपि वे इसे भी भी नहीं बना पाये हैं लेकिन जो लोग लोहिया को वर्त्तमान सन्दर्भों में परिभाषित कर रहे हैं या लोहिया के सोच के तरीके से वर्त्तमान को समझ रहे हैं वे ही समाजवादी विचारधारा को ज़िंदा रख रहे हैं।जाने पहिचाने लोगों में मेरी दृष्टि में ऐसे एक ही व्यक्ति हैं और वह हैं ,- किशन पटनायक।
आप लोग उनके सानिध्य में काम कर रहे हैं यह बड़ी अच्छी बात है।अलग अलग ग्रुपों को जोड़ने की आपकी कोशिश सफल हो ऐसी मेरी शुभ कामना है।
  आप यदि मेरी बात को उपदेश के रूप में न लें जोकि या तो बिना सोचे स्वीकार की जाती है या नजरअंदाज कर दी जाती है, तो मैं यह कहना चाहूंगा कि वर्तमान राजनैतिक दलों की निरर्थकता के कारण छोटे छोटे दायरों में काम करने वाले समूहों का महत्व और भी बढ़ गया है।केंद्रीकृत व्यवस्था का विकल्प देने के काम को ये समूह ही करेंगे।दलों का केंद्रीकृत ढांचा केंद्रीकृत व्यवस्था को कैसे तोड़ सकता है? हांलाकि लोकशक्ति तो खड़ी करनी होगी।विकेंद्रीकृत ढांचों में किस तरह लोकशक्ति प्रगट हो सके यह आज की बड़ी समस्या है।
  मेरे मन में उन लोगों के प्रति अपार श्रद्धा है जो सम्पूर्ण आदर्श लेकर काम कर रहे हैं चाहे उनका दायरा छोटा ही रह जाए लेकिन शक्ति के फैलाने की जरूरत है।देश बहुत बड़ा है। लोगों के अलग अलग अनुभव होते हैं और इस कारण लिखित या मौखिक शब्द अपर्याप्त हैं।शक्ति बनाना है तो सम्पूर्ण विचारधारा पर जोर कम और सामान कार्यक्रमों में अधिक से अधिक समूहों के साथ मिलकर काम करना श्रेयस्कर है- ऐसा मेरा विचार है।
   शुभ कामनाओं के साथ
ओमप्रकाश रावल
सितम्बर 15,’92
प्रति,श्री सुनील, c/o श्री किशन बल्दुआ, अध्यक्ष समता संगठन,अजंता टेलर्स,सीमेंट रोड,पिपरिया,
जि होशंगाबाद

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बेतूल से सजप उम्मीदवार फागराम

बेतूल से सजप उम्मीदवार फागराम


क्योंकि

भ्रष्ट नेता और अफसरों कि आँख कि किरकिरी बना- कई बार जेल गया; कई झूठे केसो का सामना किया!
· आदिवासी होकर नई राजनीति की बात करता है; भाजप, कांग्रेस, यहाँ तक आम-आदमी और जैसी स्थापित पार्टी से नहीं जुड़ा है!
· आदिवासी, दलित, मुस्लिमों और गरीबों को स्थापित पार्टी के बड़े नेताओं का पिठ्ठू बने बिना राजनीति में आने का हक़ नहीं है!
· असली आम-आदमी है: मजदूर; सातवी पास; कच्चे मकान में रहता है; दो एकड़ जमीन पर पेट पलने वाला!
· १९९५ में समय समाजवादी जन परिषद के साथ आम-आदमी कि बदलाव की राजनीति का सपना देखा; जिसे, कल-तक जनसंगठनो के अधिकांश कार्यकर्ता अछूत मानते थे!
· बिना किसी बड़े नेता के पिठ्ठू बने: १९९४ में २२ साल में अपने गाँव का पंच बना; उसके बाद जनपद सदस्य (ब्लाक) फिर अगले पांच साल में जनपद उपाध्यक्ष, और वर्तमान में होशंगाबाद जिला पंचायत सदस्य और जिला योजना समीति सदस्य बना !
· चार-बार सामान्य सीट से विधानसभा-सभा चुनाव लड़ १० हजार तक मत पा चुका है!

जिन्हें लगता है- फागराम का साथ देना है: वो प्रचार में आ सकते है; उसके और पार्टी के बारे में लिख सकते है; चंदा भेज सकते है, सजप रजिस्टर्ड पार्टी है, इसलिए चंदे में आयकर पर झूठ मिलेगी. बैतूल, म. प्र. में २४ अप्रैल को चुनाव है. सम्पर्क: फागराम- 7869717160 राजेन्द्र गढ़वाल- 9424471101, सुनील 9425040452, अनुराग 9425041624 Visit us at https://samatavadi.wordpress.com

समाजवादी जन परिषद, श्रमिक आदिवासी जनसंगठन, किसान आदिवासी जनसंगठन

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Kishanji aur Lohia यह पत्र मुझसे बड़ी उम्र के व्यक्तियों को सम्बोधित नहीं है । हांलाकि जानकारी के तौर पर वे इस पत्र को पढ़ सकते हैं । विगत ३० जून २००० को मेरी आयु जन्म तारीख के हिसाब से सत्तर साल की हो गई । यह मेरे लिए एक विशेष बात थी। बचपन में मैं कई तरह की व्याधियों से ग्रस्त था। कुछ बीमारियां हमेशा के लिए रह गई हैं । अपनी किशोरावस्था में कभी सोचा नहीं कि साठ साल से अधिक उम्र तक जीवित रहूंगा । उस औपनिवेशिक काल में एक भारतीय की औसत आयु भी बहुत कम हुआ करती थी । अतः सत्तर साल की आयु तक जीवन में सक्रीय रहना मेरे लिए विशेष बात थी । शायद राजनीति में सक्रीय जीवन अपेक्षाकृत अधिक आयु तक होता है । जो भी हो , पिछले दस साल से निश्चय ही मेरी कार्यक्षमता घटती जा रही है । अस्वस्थता की वजह से नहीं , बल्कि शारीरिक क्षमता के शिथिल हो जाने के कारण। मांसपेशियों की कमजोरी हमेशा थी,लेकिन कुछ साल पहले एक सत्याग्रह स्थल पर एक पुलिस वाले ने धक्का दिया तो मैं बिल्कुल गिर जाता , पास बैठे एक साथी ने मुझे पकड़ लिया । मेरी स्मरण शक्ति का कुछ अंश कमजोर हो चुका है और सुनने की क्षमता भी घटी है। कुल उर्जा का परिमाण इतना कम हुआ है कि एक दिन का काम एक हफ्ते में करता हूं । अधिकांश चिट्ठियों का जवाब नहीं देता हूं । १९९० में ही मैंने बरगढ़ – सम्बलपुर जिले के अपने क्षेत्र के देहातों में जाना बंद कर दिया । अब केवल रेलगाड़ियों की लम्बी यात्रा करके सभाओं में योगदान करता हूं । महीने में एक-दो लेख लिखता हूं। मेरा सार्वजनिक – राजनैतिक काम इतने में सीमित हो गया है । आगे दस साल से अधिक जीवित रहने की मेरी इच्छा नहीं है। क्योंकि तब शारीरिक तौर पर मैं एक दयनीय अवस्थामें पहुंच जाऊंगा। । मृत्यु के बारे में मैं बार बार सचेत होता हूं, लेकिन उसके इंतजार में नहीं रहना चाहता हूं। मृत्यु का साक्षात्कार चाहता हूं । इस वाक्य का क्या अर्थ है,कोई पूछे तो मैं स्पष्ट नहीं बता पाऊंगा, क्योंकि मैं खुद इस वक्त इसे नहीं जानता हूं। शायद सारे बंधनों से मुक्त होने पर कोई मृत्यु से से साक्षात्कार कर पाएगा। सारे बंधनों से मुक्त होना भी अपरिभाषित है। १९५१-५२ से अब तक मैं निरंतर समाजवादी राजनीतिमें सांगठनिक दायित्व लेकर काम कर रहा हूं । पचास साल का समय अत्यधिक होता है। इसके बाद मैं सांगठनिक दायित्व लेकर , सांगठनिक अनुशासन के प्रति जवाबदेह रहकर काम नहीं कर सकूंगा। राजनीति से या संगठनों से हटने की बात मैं अभी नहीं सोच पाता हूं । वैसे तो मेरे बहुत सारे परिचित लोग भी नहीं जानते हैं कि मैं राजनीति कर रहा हूं । सिर्फ संगठन के लोग जानते हैं कि हम राजनीति कर रहे हैं । हमारी राजनीतिमें तीव्रता नहीं है । कुछ लोग कर्तव्य पालन के लिए राजनीति कर रहे हैं। एक राजनीति होती है तामझाम की , वह हमारा उद्देश्य नहीं है। दूसरी राजनीति होती है तीव्रता की ।मैं आशा करता हूं कि मेरे वर्तमान और भविष्य के सहयोगी हमारी राजनीति में तीव्रता लाएंगे । इस आशा के साथ मै समाजवादी जनपरिषद और जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय जैसे संगठनों की राजनीति से जुड़ा रहूंगा । राजनीति से जुड़ा रहने का प्रधान कारण यह है कि आज की हालत में राजनैतिक चुप्पी का मतलब है मानव समाज के पतन और तबाही के प्रति उदासीनता । ग्लोबीकरण की व्यवस्था से राष्ट्र की और मानव समाज की जो तबाही होने जा रही है उसके विरुद्ध एक राजनीति बनाने का काम बहुत धीमा चल रहा है। उसको तेज,विश्वसनीय और संघर्षमय करना , उसके विचारों और दिशा को स्पष्ट करना आज की असली राजनीति होगी । इस कार्य में मेरा योगदान कितना भी आंशिक और सीमित हो, उसको जारी रखने की मेरी प्रबल इच्छा है।क्योंकि यह राजनीति मानव समाज के भविष्य के सोच से संबंधित है,इसके वैचारिक विस्तार में मनुष्य जी वन के कुछ मौलिक सत्यों के संपर्क में आना पड़ेगा। मृत्यु से साक्षात्कार की एक संभावना उसीमें है – जीवन संबंधी गहरे सत्यों के संपर्क में आने में । ऊपर जो भी लिखा गया है वह सूचना के तौर पर है; चर्चा का विषय नहीं है । आपसे अनुरोध है कि मेरे किसी मित्र या साथी को अगर यह पत्र नहीं मिला है तो एक प्रति बनाकर आप उसे दे दें ।आप जिसको भी मेरा साथी या मित्र समझते हैं वे मेरे साथी और मित्र हैं । शुभकामनाओं सहित किशन पटनायक 15.3.2001/15.5.2001

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पिछले भाग से आगे :

भारत जैसे देश में जनतंत्र को चलाने के लिए हजारों ( शायद लाखों ) राजनैतिक कार्यकर्ता चाहिए । संसद , विधान सभा , जिला परिषद , ग्राम पंचायत आदि को मिला कर हजारों राजनैतिक पद हैं । प्रत्येक पद के लिए अगर दो या तीन उम्मीदवार होंगे , तब भी बहुत बड़ी संख्या हो जायेगी । इनमें से बहुत सारे कार्यकर्ता होंगे , जिन्हें पूर्णकालिक तौर पर सार्वजनिक काम में रहना होगा तो उनके परिवारों का खर्च कहाँ से आएगा ? भ्रष्टाचार की बात करनेवालों को इस प्रश्न का भी गंभीरतापूर्वक उत्तर ढूँढना पड़ेगा ।

    पिछले ५० साल की राजनीति पर हम संवेदनशील हो कर गौर करें , तो इस बात से हम चमत्कृत हो सकते हैं कि हजारों आदर्शवादी नौजवान देश के भविष्य को संदर बनाने के लिए परिवर्तनवादी राजनीति में कूद पड़े थे । आज अगर उनके जीवन इतिहासों का विश्लेषण करेंगे , तो मालूम होगा कि उनमें से अधिकांश बाद के दिनों में , जब उनको परिवार का भी दायित्व वहन करना पड़ा , या तो राजनीति से हट गये या अपने आदर्शों के साथ समझौता करने लगे ।  निजी तथा सार्वजनिक जीवन की जरूरतों को पूरी करने के लिए शुरु में छोटे-छोटे ठेकेदारों से , भ्रष्ट प्रशासकों से या काले व्यापारियों से चंदा लेना पड़ा । बाद में जब लगातार खर्च बढ़ता गया और प्रतिष्ठा भी बढ़ती गई , तब बड़े व्यापारियों और पूँजीपतियों के साथ साँठगाँठ करनी पड़ी । अगर वे आज भी राजनीति में हैं , तो अब तक इतना समझौता कर चुके हैं कि भ्रष्टाचार या शोषण के विरुद्ध खड़े होने का नैतिक साहस नहीं है । पिछले ५० साल आदर्शवादी कार्यकर्ताओं के सार्वजनिक जीवन में पतन और निजी जीवन में हताशा का इतिहास है ।

    अगर शुरु से ही समाज का कोई प्रावधान होता कि राजनीति में प्रवेश करनेवाले नौजवानों का प्रशिक्षण-प्रतिपालन हो सके , उनके लिए एक न्यूनतम आय की व्यवस्था हो सके , तो शायद वे टूटते नहीं , हटते नहीं , भ्रष्ट नहीं होते । कम से कम ५० फीसदी कार्यकर्ता और नेता स्वाधीन मिजाज के होकर रहते । अगर किसी जनतंत्र में १० फीसदी राजनेता बेईमान होंगे तो देश का कुछ बिगड़ेगा नहीं । अगर ५० फीसदी बेईमान हो जायें, तब भी देश चल सकता है । अब तो इस पर भी संदेह होता है कि सर्वोच्च नेताओं के ५ फीसदी भे देशभक्त और इमानदार हैं या नहीं ।

From Andolan_Tumkur_Hampi

    समाज के अभिभावकों का , देशभक्त कार्यकर्ताओं का संरक्षण समाज के द्वारा ही होना चाहिए । सारे राजनेताओं को हम पूँजीपतियों पर आश्रित होने के लिए छोड़ नहीं सकते । समाज खुद उनके प्रशिक्षण और प्रतिपालन का दायित्व ले । इस दायित्व को निभाने के लिए यदि बनी बनाई संस्थाएँ नहीं हैं , तो सांविधानिक तौर पर राज्य के अनुदान से संस्थायें खड़ी की जाएं । जिस प्रकार न्यायपालिका राज्य के अनुदान पर आधारित है , लेकिन स्वतंत्र है , उसी तरह राजनेताओं का प्रशिक्षण और प्रतिपालन करनेवाली संस्थायें भी स्वतंत्र होंगी। केवल चरित्र , निष्ठा और त्याग के आधार पर राजनैतिक संरक्षण मिलना चाहिए । जो आजीवन सामाजिक दायित्व वहन करने के लिए संकल्प करेगा . जो कभी धन संचय नहीं करेगा , जो संतान पैदा नहीं करेगा , उसीको सामाजिक संरक्षण मिलेगा । जो धन संचय करता है , तो संतान पैदा करता है , उसको भी राजनीति करने , चुनाव लड़ने का अधिकार होगा , लेकिन उसे सामाजिक संरक्षण नहें मिलेगा । जिसे सामाजिक संरक्षण मिलेगा उसके विचारों पर अनुदान देनेवालों का कोई नियंत्रण नहीं रहेगा । सिर्फ आचरण पर निगरानी होगी । निगरानी की पद्धति पूर्वनिर्धारित रहेगी।

  यह कोई विचित्र या अभूतपूर्व प्रस्ताव नहीं है । कोई भी राज्य व्यवस्था हो , सार्वजनिक जीवन में चरित्र की जरूरत होगी । किसी भी समाज में समर्पित कार्यकर्ताओं का एक समूह चाहिए । आधुनिक युग के पहले संगठित धर्म ने कई देशों में सार्वजनिक जीवन का मार्गदर्शन किया । धार्मिक संस्थाओं ने भिक्षुओं, ब्राह्मणों ,बिशपों को प्रशिक्षण और संरक्षण दिया , ताकि वे सार्वजनिक जीवन का मानदंड बनाये रखें । ग्रीस में और चीन में प्लेटो और कन्फ्यूशियस ने राजनैतिक कार्य के लिए प्रशिक्षित और समर्पित समूहों के निर्माण पर जोर दिया । सिर्फ आधुनिक काल में सार्वजनिक जीवन के मानदंडों को ऊँचा रखने की कोई संस्थागत प्रक्रिया नहीं तय की गयी है । इसलिए सारी दुनिया का सार्वजनिक जीवन अस्त-व्यस्त है । सार्वजनिक जीवन का दायरा बढ़ गया है , लेकिन मूल्यों और आदर्शों को बनाये रखने की संस्थायें नहीं हैं ।

    संविधान के तहत या राजकोष से राजनीति का खर्च वहन करना भी कोई नयी बात नहीं है । विपक्षी सांसदों और विधायकों का खर्च राजकोष से ही आता है । यह एक पुरानी मांग है कि चुनाव का खर्च भी क्यों नहीं ? राजनीति का खर्च भी क्यों नहीं ? कुछ प्रकार के राजनेताओं का जीवन बचाने के लिए केन्द्रीय बजट का प्रतिमाह ५१ करोड़ रुपये खर्च होता है । करोड़पति सांसदों को भी पेंशन भत्ता आदि मिलता है । इनमें से कई अनावश्यक खर्चों को काट कर देशभक्त राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक सामाजिक कोष का निर्माण शुरु हो सकता है ।

    अगर विवेकशील लोग राजनीति में दखल नहीं देंगे तो भारत की राजनीति कुछ ही अरसे  के अंदर अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के हाथों में चली जायेगी । जो लोग इसके बारे में चिंतित हो रहे हैं ,उन्हें एक मूल्य आधारित राजनैतिक खेमा खड़ा करना होगा ।इस खेमे के लिए एक बड़े पैमाने का कोष निर्माण करना होगा ।  आज की संसद या विधान सभा इसके लिए अनुदान नहीं देगी । सामाजिक और स्वैच्छिक ढंग से ही इस काम को शुरु करना होगा ।

    अन्ना हजारे इस काम को शुरु करेंगे , तो अच्छा असर होगा । यह राजनैतिक काम नहीं है , जनतांत्रिक राजनीति को बचा कर रखने के लिए यह एक सामाजिक काम है । धर्मविहीन राज्य में चरित्र का मानदंड बना कर रखने का यह एक संस्थागत उपाय है । अंततोगत्वा इसे ( ऐसी संस्थाओं को ) समाज का स्थायी अंग बना देना होगा या सांविधानिक बनाना होगा ।

    धर्म-नियंत्रित समाजों के पतन के बाद नैतिक मूल्यों पर आधारित एक मानव समाज के पुनर्निर्माण के बारे में कोई व्यापक बहस नहीं हो पायी है , यह बहस अनेक बिंदुओं से शुरु करनी होगी । यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है ।

(स्रोत : दूसरा शनिवार , सितंबर १९९७ )

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इस लेख के पिछले भाग : एक , दो

अंगरेजी पत्रकारिता और राजनैतिक चर्चा सदाचार को एक व्यक्तिगत गुण के रूप में समझती है । व्यक्ति का स्वभाव और संकल्प सार्वजनिक जीवन में सदाचार का एक स्रोत जरूर है , लेकिन राजनीतिक व्यक्तियों को सदाचार का प्रशिक्षण देकर या अच्छे स्वभाव के ’सज्जनों’  को राजनीति में लाकर सार्वजनिक जीवन में सदाचार की गारंटी नहीं दी जा सकती है । भारत की ही राजनीति में ऐसे सैकड़ों उदाहरण होंगे कि जो व्यक्ति सत्ता-राजनीति में प्रवेश के पहले बिलकुल सज्जन था , सत्ता प्राप्ति के बाद बेईमान या भ्रष्ट हो गया । सदाचार की एक संस्कृति और संरचना होती है । सदाचार का क्षेत्र समाज हो सकता है , राजनैतिक समुदाय हो सकता है ,या एक निर्दिष्ट राजनैतिक समूह यानी दल हो सकता है । प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार कितना होगा,किस प्रकार का होगा, यह उस क्षेत्र की भौतिक संरचना और संस्कृति के द्वारा निरूपित होता है ।

क्या इस वक्त भारत के राजनैतिक दलों में कोई दल ऐसा है जो अन्य दलों की तुलना में गुणात्मक रूप में कम भ्रष्ट है। और, यह अन्तर एक गुणात्मक अन्तर है । भारतीय कम्युनिस्टों को वैचारिक दिशाहीनता और संघर्ष न करने की निष्क्रियता तेजी से ग्रस रही है और वे पतनशील अवस्था में हैं । पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी नेताओं के भ्रष्टाचार के बारे में अभियोग बढ़ता जा रहा है । इसके बावजूद भ्रष्टाचार के मामले में उनमें और बाकी दलों में अभी गुणात्मक अन्तर है ।

राजनीतिक समूहों में सदाचार के तीन आधार होते हैं : १. आदर्शवादी लक्ष्यों से प्रेरित होकर समाज को बदलने – सुधारने के विचारों का सामूहिक रूप में अनुवर्ती होना ; २. समाज के शोषित-पीड़ित वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति की भावनाओं को वाणी और कर्म के स्तर पर एक संस्कृति के रूप में विकसित करना ; ३. समूह या दल के अन्दर समानता , भाईचारा और अनुशासन का होना । राजनीति में धन और सत्ता की प्रबलता होती है । इसीलिए संस्कृति-विहीन राजनीति में भ्रष्टाचार का तुरन्त प्रवेश हो जाता है । इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है , न इस कारण से राजनीति का तिरस्कार होना चाहिए । यह एक चुनौती है कि राजनीति को संस्कृतिनिष्ठ बनाकर सशक्त करें और धन तथा सत्ता का केन्द्रीकरण न होने दें । राजनीति अवश्यंभावी है ; उसको मानव-हित में लगाने के लिए आदर्शवादी विचारों , क्रांतिकारी भावनाओं और कठिन श्रम की संस्कृति के द्वारा उसे एक महान कर्म का दरजा प्रदान करें ।

अगर अंग्रेजी पत्रकार चाहता है कि राजनीति से क्रान्तिकारी विचारों की विदाई हो जाए , आदर्शवाद की खिल्ली उड़ाई जाए, धन का केन्द्रीकरण और भोग का प्रदर्शन बढ़ता जाए, राजनीति शोषितों के हित में नहीं बाजार के हित में संचालित हो और फिर भी वह उम्मीद करता है कि भ्रष्टाचार हटे तो उसकी सोच गम्भीर नहीं है ।

राजनैतिक दल तत्काल दो काम कर सकते हैं । मीडिया और जनमत का दबाव इस दिशा में बनना चाहिए ।आपराधिक रेकार्ड वाले व्यक्तियों को पार्टी का टिकट या पद देना सारे राजनैतिक दल बन्द कर दें । कम से कम विपक्षी दल अवश्य कर दें । जो तीसरा मंच बन रहा है वह इसके लिए तैयार हो जाए तब भी एक आचरण संहिता की शुरुआत हो सकती है ; एक राजनैतिक संस्कृति की शुरआत हो सकती है । उसी तरह से राजनेताओं और उनके दलोम के द्वारा जो धनसंग्रह होता है उसमें पारदर्शिता के नियम बनाये जा सकते हैं । यह काम विपक्षी राजनैतिक दल खुद अपने स्तर पर कर सकते हैं । अगर इतना भी करने के लिए वे तैयार नहीं हैं तो संसद कार्यवाही को ठपकर देने से क्या फायदा ? संसद को ठप करना एक उग्र कदम है और उसकी जरूरत होती है जब शासक दल जरूरी बहस को नहीं होने देता है । अगर उपर्युक्त आचरण संहिता पर बहस की माँग करते हुए विपक्षी दल संसद संसद में हल्ला करते तो शासक दल की नैतिक पराजय होती । अन्यथा एक दिन शासक दल ( भाजपा ) के नेता को घूस लेते हुए विडियो टेप में दिखाया जाएगा तो दूसरे दिन विपक्षी दल (कांग्रेसी ) के नेता को घूस लेते हुए दिखाया जाएगा । इस कुचक्र से देश की राजनीति का उद्धार करने का उपाय यह है कि एक राजनैतिक संस्कृति को विकसित करने की पहल कुछ प्रभावी लोग करें ।

केवल राजनीति को नहीं , समाज को भी सदाचार की जरूरत है । यह भावुकता का मुद्दा नहीं है ; यह मनुष्य के अस्तित्व का मुद्दा बनने जा रहा है ।

( सामयिक वार्ता , अप्रैल,२००१)

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