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Archive for the ‘kheti kisani’ Category

इस रचनात्मक कार्यक्रम में सभी बातों का समावेश नहीं हुआ है।स्वराज की इमारत एक जबरदस्त चीज है,जिसे बनाने में अस्सी करोड़ हाथों को काम करना है।इन बनाने वालों में किसानों की यानी खेती करनेवालों की तादाद सबसे बड़ी है।सच तो यह है कि स्वराज की इमारत बनाने वालों में ज्यादातर ( करीब 80 फीसदी) वही लोग हैं,इसलिए असल में किसान ही कांग्रेस है ऐसी हालत पैदा होनी चाहिए।आज ऐसी बात नहीं है।लेकिन जब किसान को अपनी अहिंसक ताकत का खयाल हो जायगा,तो दुनिया की कोई हुकूमत उनके सामने टिक नहीं सकेगी।

जो किसानों या खेतीहरों को संगठित करने का मेरा तरीका जानना चाहते हैं,उन्हें चंपारन के सत्याग्रह की लड़ाई का अध्ययन करने से लाभ होगा।हिंदुस्तान में सत्याग्रह का पहला प्रयोग चंपारन में हुआ था। उसका नतीजा कितना अच्छा निकला,यह सारा हिंदुस्तान भलीभांति जानता है। चंपारन का आंदोलन आम जनता का आंदोलन बन गया था और वह बिल्कुल शुरु से लेकर अखीर तक पूरी तरह अहिंसक रहा था। उसमें कुल मिलाकर कोई बीस लाख से भी ज्यादा किसानों का संबंध था।सौ साल पुरानी एक खास तकलीफ को मिटाने के लिए यह लड़ाई छेड़ी गई थी।इसी शिकायत को दूर करने के लिए पहले कई खूनी बगावतें हो चुकी थीं।किसान बिल्कुल द्सबास दिए गए थे।मगर अहिंसक उपाय वहां छह महीनों के अंदर पूरी तरह सफल हुआ।किसी तरह का सीधा राजनीतिक आंदोलन या राजनीति के प्रत्यक्ष प्रचार की मेहनत किए बिना ही चंपारन के किसानों में राजनीतिक जागृति पैदा हो गई।

……… इनके सिवा,खेड़ा,बारडोली और बोरसद में किसानों ने जो लड़ाइयां लड़ीं,उनके अध्ययन से भी पाठकों को लाभ होगा।किसान -संगठन की सफलता का रहस्य इस बात में है कि किसानों की अपनी जो तकलीफें हैं,जिन्हें वे समझते और बुरी तरह महसूस करते हैं,उन्हें दूर कराने के सिवा दूसरे किसी भी राजनीतिक हेतु से उनके संगठन का दुरुपयोग न किया जाए।किसी एक निश्चित अन्याय या शिकायत के कारण को दूर करने के लिए संगठित होने की बात वे झट समझ लेते हैं।उनको अहिंसा का उपदेश करना नहीं पडता।अपनी तकलीफों के एक कारगर इलाज के रूप में वे अहिंसा को समझकर उसे आजमा लें और फिर उनसे कहा जाए कि उन्होंने जिसे आजमाया है वही अहिंसक पद्धति,तो वे फौरन ही अहिंसा को पहचान लेते हैं और उसके रहस्य को समझ जाते हैं।

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मानव समाज में खेती का स्थान तीन कारणों से महत्वपूर्ण रहा है,रहेगा। (1)पहला कारण वह है जो अधिकांशतः चर्चा में आता है ।तमाम औद्योगिकरण और विकास के बावजूद आज भी मानव जाति का अधिकांश हिस्सा गांवों में रहता है और अपनी जीविका के लिए खेती,पशुपालन आदि पर आश्रित है। भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में आज भी रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत खेती व पशुपालन ही है।किंतु खेती का महत्व महज इस सांख्यिकीय कारण से ही नहीं है। दो और ज्यादा महत्वपूर्ण और बुनियादी कारण हैं। (2) दूसरा कारण यह है कि खेती से ही मनुष्य की सबसे बुनियादी जरूरत भोजन की पूर्ति होती है। अभी तक खाद्यानों का कोई औद्योगिक या गैर खेती विकल्प आधुनिक टेक्नोलॉजी नहीं ढूढ पायी है और भविष्य में इसकी संभावना भी नहीं है। इसलिए जब स्वाभिमानी और जागरूक समाज या राष्ट्र खाद्य स्वालंबन की रणनीति बनाते हैं या अंतरष्ट्रीय कूटनीति में खाद्य आपूर्ति को एक औजार बनाया जाता है, तो खेती का महत्व अपने आप स्पष्ट हो जाता है। (3) खेती के साथ एक तीसरी विशेषता यह है कि मनुष्य समाज की आर्थिक गतिविधियों में यहीं ऐसी गतिविधि है, जिसमें वास्तव में उत्पादन और नया सृजन होता है। प्रकृति की मदद से किसान बीज के एक दाने से बीस से तीस दाने तक पैदा कर लेता है।उधोगों, सेवाओं आदि अन्य आर्थिक गतिविधियों में प्रायः कोई नया उत्पादन नहीं होता है,पहले से उत्पादित पदार्थों(जिसे कच्चा माल कहा जाता है)का रूप परिवर्तन होता है।उर्जा या कैलोरी की दृष्टि से भी देखें ,तो जहाँ अन्य आर्थिक गतिविधियों में ऊर्जा की खपत होती है,खेती और पशुपालन में उर्जा(या कैलोरी )का सृजन होता है।खेती में वानिकी और खनन को भी जोड़ा जा सकता है,वे भी प्रकृति से जुड़े हैं, हलाकि एक सीमा से ज्यादा से ज्यादा खनन विनाशकारी हो सकता है। इसमें मार्के की बात प्रकृति का योगदान है।खेती में प्रकृति मानव श्रम के साथ मिलकर वास्तव में सृजन करती है।
इन तीन विशेषताओं के कारण मानव-समाज में खेती आदि का महत्व बना रहेगा।किन्तु आधुनिक सभ्यता और पूँजीवादी समाज में इन तीनों विशेषताओं को नकारने और पलटने की कोशिश हो रही है।ग्लोबीकरण ने इस प्रवृत्ति को और तेज किया है,जिससे नए संकट खड़े हो रहे हैं।खेती की जनई टेक्नोलॉजी इतनी आक्रामक है कि वह प्रकृति से जुड़ी इस गतिविधि को प्रकृति के विरुद्ध खड़ी कर रही,जिससे जल भंडार खाली हो रहें हैं, भूमि का कटाव, बंजरिकरण या दलदलीकरण हो रहा है,अधिकाधिक ऊर्जा की खपत हो रही है, वातावरण में विष घुलते जा रहे हैं और जैविकविविधता का तेजी से ह्रास हो रहा है।खेती में कीटों व रोगों का प्रकोप बढ़ा है,जोखिम बढ़ी है और पैदवार में ठहराव आ गया है। उतनी ही पैदवार के लिए किसान को निरन्तर बढ़ती हुई मात्रा में रसायनिक खाद ,कीटनाशक दवाईयों तथा पानी का इस्तेमाल करना पड़ रहा है।किसान के संकट का एक स्रोत आधुनिक टेक्नोलॉजी है।इसी प्रकार खाद्य आपूर्ति एवं खाद स्वावलम्बन के स्रोतों के बजाय अब खेती को तेजी से पूँजीवादी बाज़ार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की न मिटने वाली भूख की रणनीति का एक पुर्जा बनाया जा रहा है।भारत जैसे तमाम देशों को यह सिखाया जा रहा है कि उन्हें अपनी जरूरत के अनाज,दालें व खाद्य तेल पैदा करने की जरूरत नहीं है, दुनिया मे जहाँ सस्ता मिलत है वहाँ से ले लें।इसी करण पिछले तीन चार सालों में ही यह हालत आ गई है कि जिस भारत के गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं होती थी, उसे इस वर्ष भारी मात्रा में गेहूं आयात करना पड़ रहा है।खाद्य तेल का आयात तो पहले ही कुल खपत के आधे स्तर पर पहुँच गया है।अफ्रीका के लोग भी पहले अपनी जरूरत का अनाज स्वयं पैदा कर लेते थे।लेकिन यूरोप के गुलामी के दौर में वहाँ की खेती को इस प्रकार बदला व नष्ट किया गया कि अब वहां बारंबार भीषण अकाल पड़ते हैं।
भारत में हरित क्रान्ति की खुशहाली कुछ क्षेत्रों, कुछ वर्गों और कुछ फसलों तक सीमित रही।लेकिन इस सीमित खुशहाली के दिन भी अब लद गए।जिस विश्व बैंक ने अपने पहले नई टेक्नोलॉजी के प्रचार प्रसार के लिए सभी आवश्यक उपादान(उन्नत बीज, रसायनिक खाद, कीटनाशक दवाइयां, सिचाई, बिजली, डीजल, आधुनिक कृषि यंत्र) सरकार द्वारा सस्ते व अनुदानयुक्त देने की सिफारिश की थी, उसी ने रंग बदल दिया।वर्ष 1991 के बाद विश्व बैंक और अंतरष्ट्रीय कोष के निर्देश में भारत सरकार ने अनुदानों को कम करते हुए क्रमशः इन सारे उपक्रमों को महंगा करने के रणनीति अपनाई । दूसरी ओर विश्व व्यापार संगठन के स्थापना के साथ ही खुले आयात की नीति के चलते कृषि उपज के सस्ते आयात ने भारतीय किसानों की कमर तोड़ दी।बढ़ती लागत और कृषि उपज के घटते (या पर्याप्त न बढ़ते) दामों के दोमों के दोनों पाटो के बीच भारतीय किसान बुरी तरह पिसने लगे। खेती घाटे का धंधा पहले से था,लेकिन अब यह घाटा तेजी से बढ़ने लगा और किसान कर्ज में डूबने लगे।संकट इतना गहरा हो गया कि किसान देश के कई हिस्से में और कोई चारा न देख बड़ी संख्या में आत्म हत्या करने लगे पिछले छ सात वर्षों से किसानों की आत्म हत्या का दौर लगातार जारी है।यह एक अभूतपूर्व स्थिति है जो जबरदस्त संकट का घोतक है।किन्तु इससे अप्रभावित भारत की सरकारें ग्लोबीकरण प्रणीत सुधारों की राह पर आगे बढ़ती जा रही हैं।भारत के छोटे और मध्यम किसान या तो आत्म हत्या कर लें या उनकी जमीने नीलाम हो जाय या वे स्वंय जमीन बेचने को मजबूर हो जाय, यह सुधारों का एक अघोषित एजेंडा है,क्यों कि जमीन कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हो जाय, जमीन की जोट बढ़ जाय और कम्पनियों के सीधे या अप्रत्यक्ष नियंत्रण में आ जाय-यह कथित सुधरों का एक लक्ष्य है। इन्हीं सुधारों के अंतर्गत जमीन की हदबन्दी के कानून शिथिल किया जा रहा है,नए बीज कानून और पेटेंट कानून बनाए जा रहे हैं,जमीन की खरीद फरोख्त से लेकर बीज आपूर्ति,कंट्रैक्ट खेती, विपणन आदि खेती की सभी गतिविधियों में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुली छूट दी जा रही है और सारी चिंताओ और चेतावनियों को ताख पर रखकर जीन समिश्रन खेती की अनुमति दी जा रही है।इस प्रकार खेती को कम्पनीयों के हाथ में सौपने तथा खेती से जुड़ी आबादी को भी कम करने का एक बर्बर अमानवीय अभियान चल रहा है।किंतु एक अहम सवाल इस अंधी दौड़ में भुला दिया जा रहा है।यूरोप-अमेरिका में जब खेती से आबादी को विस्थापित किया गया तो वह औद्योगिक क्रांति और गोरे लोगों द्वारा दुनिया के विशाल भूभाग पर कब्जे की प्रक्रिया में खप गई।लेकिन भारत जैसे देश में खेती में लगी आबादी कहाँ जायगी ?क्या भारत के उधोगों में और शहरों में उनके खपाने की क्षमता है?क्या देश में बेरोजगारी पहले से चरम सीमा पर पहुँच नहीं गई है?
संक्षेप में,भारतीय खेती के संकट के तीन आयाम हैं: (1) आधुनिक पूंजीवादी विकास में खेती को एक आंतरिक उपनिवेश के रूप में पूँजी निर्माण का स्रोत बनाना (2) हरित क्रांति के भ्रामक नाम से एक अनुपयुक्त,साम्रज्यवादी ,किसान विरोधी व प्रकृतिक-विरोधी टेक्नोलॉजी थोपना और (3) ग्लोबीकरण के तहत किसानों पर हमले तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कब्जे की प्रक्रिया को और तेज करना।कहने की जरूरत नहीं है कि ये तीनों आयाम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक बड़ी प्रक्रिया के हिस्से हैं।
भारतीय खेती पर बढ़ते इस संकट ने पिछले तीन दशकों में अनेक सशक्त किसान आंदोलनों को जन्म दिया। तमिलनाडु, कर्नाटक ,महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों में लाखों की संख्या में किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर निकले।बाद में उड़ीसा,राजस्थान आदि प्रान्तों में भी किसानों के शसक्त आंदोलन उभरे।ये आंदोलन ज्यादातर मुख्य धारा के राजनीति दलों के बाहर, अलग एवं स्वतंत्र रहे।किसान आंदोलन ही नहीं ,इस अवधि के सभी जनांदोलन प्रमुख राजनीतिक दलों के दायरे से बाहर रहे,जिससे जाहिर होता है कि ये दल आम जनता से कटते गए और उनकी समस्याओं के संदर्भ में अप्रसांगिक बन गए। कहने को ज्यादातर मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों के किसान प्रकोष्ठ या मंत्र हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी पार्टी तंत्र से बाहर आकर किसान हित मे आंदोलन नहीं किया।
किशन पटनायक इस काल के भारत के प्रमुख समाजवादी चिन्तक और कर्मी रहे हैं। भारतीय राजनीति में जनांदोलनों की बढ़ती भूमिका को उन्होंने बहुत पहले पहचाना ,समझा, उनसे एक रिश्ता बनाया और उन्हें एक वैचारिक दिशा देने की कोशिश की।किसान आंदोलन के वे प्रबल समर्थक रहे।व्यवस्था परिवर्तन की किसी भी प्रक्रिया में वे किसान और किसान आंदोलनों की महत्वपूर्ण भूमिका मानते थे।वे किसान आंदोलन के इस पूरे दौर के भगीदार ,गवाह, नजदीक के पर्वेक्षक तथा हस्तक्षेप करने के इक्छुक रहे।इस प्रक्रिया में उन्होंने समय-समय पर लेख लिखे, भाषण दिए और टिप्पणियां कीं। उनमें प्रमुख लेखों एवं भाषणों का संकलन इस पुस्तक में किया गया है। इनसे हमें भारत के किसान आंदोलन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां, अंतरदृष्टि और समझ मिलती है। पुस्तक के पहले खण्ड में भारत का किसान आंदोलन के क्रम में महत्वपूर्ण घटनाओं की एक झांकी मिलती है।दक्षिण के किसान आंदोलन पर तो हिंदी में जानकारी दुर्लभ है। वोट क्लब की ऐतिहासिक रैली में टिकैत-शरद जोशी का झगड़ा भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था। इस प्रसंग पर भी किशन पटनायक का एक महत्वपूर्ण लेख है, जिसमें किसान आंदोलन की प्रमुख कमजोरियों को भी इंगित किया गया है। दूसरे खण्ड के लिखों से किसान आंदोलन की वैचारिक दृष्टि ,रणनीति और राजनीति के बारे में सम्यक विश्लेषक मिलता है, जो भावी किसान आंदोलन के लिये भी काफी मददगार हो सकता है,वैसे भी, भारत के किसान आंदोलन पर अच्छी पुस्तकें नहीं के बराबर हैं।डॉ ईश्वरी प्रसाद द्वारा संपादित एक पुस्तक ‘भारत के किसान ‘दस वर्ष पहले प्रकाशित हुई थी,वह भी अप्राप्य है।यानी किशन पटनायक की यह शिकायत सही है कि भारत के बौद्धिक वर्ग ने किसान आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया है। इस दृष्टि से भी किशन पटनायक की यह पुस्कट एक महत्वपूर्ण अभाव को पूरा करती है।
अस्सी और नब्बे के दशक में भारत में बड़े-बड़े किसान आंदोलन हुए।किसानों के बड़े-बड़े धरने और रैलियां ह
हुईं, जिनमें लाखों किसानों ने भाग लिया। किसानों का शोषण, कृषि उपज का उचित दाम न मिलना,किसानों पर बढ़ता कर्ज, किसानों पर बढ़ते हुए शुल्क, बिजली के बढ़ते बिल आदि उनके प्रमुख मुद्दे थे।लेकिन इतने सख्त आन्दोलनों के बावजूद आजाद भारत के किसान की क्या स्थिति है?किसान आन्दोलनों की जो प्रमुख मांगे थीं, वे पूरी होना तो दूर हालत उल्टी होती गई,किसान की दुर्गती बढ़ती गई।ग्लोबिकरण कि नीतियों ने उसे बड़ी संख्या में आत्म हत्याओं के कगार पर पहुँचा दिया। किसान आंदोलनों की तीव्रता भी धीरे-धीरे कम होती गई। वे ठंठे हो गये,कमजोर हो गए या बिखरते चले गए।ऐसा क्यों हुआ, इसके तटस्थ मूल्यांकन का समय आ गया है।
आम तौर पर किसी आंदोलन की असफलता के लिए इसके नेतृत्व तथा कुछ व्यक्तियों को दोषी ठहरा दिया जाता है लेकिन यह सरलीकरण और सतही विश्लेषण ही होता है गहराई से देखें तो इसके दो प्रमुख कारण थे। एक तो, किसान आंदोलनों में आम तौर पर व्यापक वैचारिक परिप्रेक्ष्य, दिशा और समझ का अभाव रहा।वे अपनी तत्तकालीन संकीर्ण मांगों में ही उलझे रहे।किसानों की स्थिति और किसानों के शोषण की ऐतिहासिक रूप से पड़ताल करते हुए गहराई से विशलेषण करने की जरूरत उन्होंने नहीं समझी।ऐसा विश्लेषण उन्हें इस अनिवार्य नतीजे पर पहुचाता की पूरी व्यवस्था को बदले वगैर किसानों की मुक्ति सम्भव नहीं है।इससे किसान आंदोलनों का चरित्र ज्यादा क्रांतिकारी बनता, दूसरा किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए सरकारी नीतियों को बदलने और सत्ता को प्रभावित करने की संयुक्त रणनीति तथा योजना उन्होंने नहीं बनाई। यदि वे ऐसा करते, एक तो उन्हें देश के समस्त किसान आन्दोलनों को एकजूट करने की जरूरत का ज्यादा तीव्रता से अहसास होता। दूसरे, देश के अन्य शोषित और वंचित तबकों के आन्दोलनों के साथ एकता बनाने की जरूरत महसूस होती। साथ ही,किसानों की और शोषितों की एक अलग राजनीति खड़ी करने की दिशा में वे कदम बढ़ाते। यदि सरकारें बार-बार किसान विरोधी नीतियां अपना रही हैं, तथा दल परिवर्तन से सरकार की नीतियों में कोई फर्क नहीं आ रहा है,तो वे स्वयं किसान पक्षी राजनीतिक ताकत खड़ी करने के बराबर में गंभीरता से सोचते।किशन पटनायक ने इन दोनों आवश्यकताओं को अपने लेखन एवं भाषणों में बार-बार,अलग-अलग तरीकों से,अलग अलग रूपों में,प्रतिपादित किया है।
इस अर्थ में किसान आंदोलन एवं किसान संगठन राजीनीति से परे या अराजनीतिक नहीं रह सकते वे मौजूदा भ्रष्ट ,अवसरवादी,यथास्थितिवादी, निहित स्वार्थों वाले राजनीतिक दलों से अलग रहें, यह तो ठीक है।लेकिन उन्हें अपनी राजनीति बनानी पड़ेगी,नहीं तो ये ही दल उनका इस्तेमाल चुनाव में तथा अन्ययत्र अपनी ओछी व टुच्ची राजनीति के लिए करते रहेंगे। चुकी किसानों के स्वार्थ इस व्यवस्था के दूसरे समूहों के स्वार्थ से टकराते हैं, इसलिए किसान आंदोलन को अपनी राजनीति व रणनीति गढ़ना होगा।
किसान आंदोलन संकीर्ण भी नहीं हो सकता।वह एक ट्रैड यूनियन की तरह नहीं चलाया जा सकता, इस बात को भी किशन पटनायक ने रेखांकित किया है।।संगठित मजदूरों का आंदोलन संकीर्ण हो सकता है! एक फ़ैक्टरी के मजदूरों का वेतन मौजूदा व्यवस्था के अन्दर बढ़ सकता है ;व्यवस्था परिवर्तन के वगैर वह सम्भव है।लेकिन किसानों की आमदनी मौजूदा व्यवस्था में नहीं बढ़ सकती।इसका कारण न केवल यह है कि किसानों का तादाद बहुत ज्याद है और वे देश के आबादी का खास एवं सबसे बड़ा हिस्सा हैं। बल्कि यह भी है कि किसानों और गांव खेती के शोषण पर यह पूरी व्यवस्था टिकी है।इसलिए किसान आंदोलन को अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए परिवर्तनवादी और क्रांतिकारी बनना ही पड़ेगा।
वैसे तो, मानव इतिहास की सारी नगरी सभ्यताएं व बड़े-बड़े साम्रज्य किसानों के शोषण पर ही आधारित थे बड़े-बड़े मंदिर, राजाओं और सामंतों के महल, उनकी ऐयासी, सेनाएं ,युद्ध सबका बोझा अंततः किसान ही उठाते थे।ज्यादा लगान व अत्याचार जब बर्दाश्त से बाहर हो जाते थे, तो कभी-कभी किसान विद्रोह भी होते, किन्तु ये विद्रोह तत्कालीन और स्थानीय होते थे। वे या तो दबा दिए जाते या कुछ राहत मिलने पर शांत हो जाते थे। औद्योगिक पूंजीवाद के साथ ही किसानों के शोषण ने पहली बार सार्वदेशिक तथा विकराल रूप धारण किया है।
18 वीं शताब्दि से यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ जिस पूंजीवाद का विकास हुआ है,उसमें औपनिवेशिक शोषण अंतर निहित और अनिवार्य पूंजीनिर्माण के लिए अतिरिक्त मूल्य का स्रोत सिर्फ फैक्ट्री मजदूरों का शोषण नहीं है, बल्कि दुनिया के उपनिवेशों के किसानों और मजदूरों का शोषण है, इसे रोजा लग्जमबर्ग और राममनोहर लोहिया ने अच्छी तरह समझाया है।उपनिवेशों के आजाद होने के बाद यह शोषण नव औपनिवेशिक तरीकों से जारी रहा है।देश के बाहर के उपनिवेशों या नव उपनिवेशों के शोषण मौक़ा नहीं मिलने पर पूंजीवाद देश के अंदर उपनिवेश खोजता है। सचिदानंद सिन्हा तथा किशन पटनायक ने इसे ‘आंतरिक उपनिवेश ‘ का नाम दिया है।पिछड़े और आदिवासी इलाके भी आंतरिक उपनिवेश हो सकते हैं लेकिन गांव और खेती भी एक प्रकार के आंतरिक उपनिवेश हैं।गांव और खेती में पैदा होने वाली चीजों के दाम कम रखकर, गांव के उधोग खत्म करके उन्हें कारखनिया माल का बाजार बनाकर गांव में विशाल बेरोजगारी एव कंगाली पैदा करके उधोग के लिये सस्ता श्रम जुटाकर ,तथा गांव और खेती को तमाम तरह की सुविधाओं व विकास से वंचित रखकर ही औद्योगिकरण तथा पूँजीवादी विकास संभव होता है और हुआ है। इसलिए आधुनिक पूँजीवादी औद्योगिक विकास में गांव खेती का शोषण अनिवार्य है।किसान मुक्ति के किसी भी आंदोलन को अंततः इस’ विकास ‘ और इस पर आधारित आधुनिक सभ्यता पर सवाल खड़े करने होंगे तथा इसके खिलाफ बगावत करनी होगी।इस वैचारिक परिप्रेक्ष्य के अभाव में किसान आंदोलन आगे नहीं बढ़ पाएंगे, दिशाहीन होकर ठहराव के शिकार हो जायेगें।
भारत का ही उदाहरण ले। जवाहरलाल नेहरु के प्रधानमंत्री रहते अर्थशास्त्री एवं संख्यकीविद प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने दूसरी पंचवर्षीय योजना से देश में भारी उधोगों के विकास की जो योजना बनाई।वह खेती गांवो को शोषित वंचित रखने की रणनीति पर ही आधारित थी। सरकारी और निजी क्षेत्र ,दोनों में औद्योगिकरण को बल देने के लिये सस्ता कच्चा माल और सस्ता श्रम मिले, मजदूरों को अधिक मजदूरी न देनी पड़े इसके लिए खाद्यानों के दाम भी कम रखे जाये–यह महालनोबिस मॉडल में अंतरनिहित था।नतीजा यह हुआ की भारत के जिन किसानों ने आजादी के आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया तथा जो इस आंदोलन के मुख्य आधार थे,वे शोषित वंचित बने रहे तथा कंगाली और बदहाली से आजाद नहीं हो पाए।ऐसे ही धोखा सोवियत क्रांति के बाद वहाँ के किसानों के साथ हुआ।जब स्तालिन के नेतृत्व में सामूहिक फार्म बनाने के लिए किसानों से जबर्दस्ती जमीन छीन ली गई और विरोध करने वाले असंख्य किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया।गांव और किसान को वंचित रखके ही भारी औधोगीकरण, सेना एवं शस्त्र निर्माण तथा अन्तरीक्ष अभियान का कार्यक्रम सोवियत संघ में चलता रहा। चीनी क्रांति तो मुख्यतः किसानों की ही क्रांति थी। इसने चीन में साम्यवाद को एक नया और खाटी देशी रूप दिया।लेकिन औद्योगिक विकास का वही पूँजीवादी विचार ही हावी होने के कारण अंततः चीन भी तेजी से पूँजीवादी ग्लोबीकरण की राह पर जा रहा है।वहाँ भी बहुत तेजी से एवं बहुत बड़े पैमाने पर किसानों और गांवों को कंगाली, बेरोजगारी, बदहाली और विस्थापन का शिकार होना पड़ रहा है।
कुल मिलाकर,किसानों की मुक्ति के लिए आधुनिक औद्योगिक सभ्यता से मुक्ति होगा और एक गांव केंद्रित, विकेन्द्रित, नई सभ्यता की तलाश करना होगा।किशन पटनायक की विशेषता यह है कि वे सिर्फ किसान संगठन के विविध आयामों की ही पड़ताल नहीं करते और मौजूदा व्यवस्था की महज आलोचना ही नहीं करते, विकल्प व समाधान भी खोजते चलते हैं। किसान विद्रोह का घोषणा पत्र और किसान राजनीति के सूत्र नामक लेखों में वे किसानों की दृष्टि से भावी समाज की रचना के कुछ सूत्र भी पेश करते हैं।तारतम्य में वे पूंजीवाद के एक गैर मार्क्सवादी विकल्प की तलाश का आह्वान करते हैं ,क्योंकि मार्क्सवाद उस उत्पादन प्रणाली से बहुत ज्यादा जुड़ा है, जिसमें कृषि व किसानों का शोषण निहित है।
विचारों के स्तर पर पुरानी मान्यताओं व पुराने ढांचे को खंडित करने और नए विकल्पों की तलाश करने का काम किसान आंदोलन के नेतृत्व को करना होगा और जागरूक बुद्धजीवियों को करना होगा।इस मामले में भारत के बुद्धिजीवियों और शास्त्रों की कमियां तथा असफलता किशन पटनायक को काफी कचोटती हैं।उनकी विसंगतियों और अपनी पीड़ा को किशन पटनायक ने ‘कृषक क्रांति’ और शास्त्रों का अधूरापन नामक लेख में व्यक्त किया है।
जब हम ‘किसान’ की बात करते हैं, तो उससे क्या आशय है?किसान की परिभाषा में खेत में काम करने वाला मजदूर शामिल है या नहीं है ? भूमि के मालिक किसान और भूमिहीन मजदूर के हित भिन्न एवं परस्पर विरोधी हैं या उनमें कोई एकता हो सकती है? ये प्रश्न किसान आंदोलन के संदर्भ में बार-बार सामने आते हैं।किशन पटनायक का मानना है कि किसान और खेतिहर मजदूर द्वन्द तो है,लेकिन यह बुनियादी द्वंद नहीं है।जो किसान आंदोलन नव औपनिवेशिक शोषण और आंतरिक उपनिवेश के वैचारिक परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखेगा, वह उससे संघर्ष के लिए खेतिहर मजदूरों को अपने साथ लेने का प्रयास करेगा।यदि किसान और खेतिहर मजदूर एक हो गए ,तो बड़ी ताकत पैदा होगी,जो पूंजीवाद, साम्रज्यवाद, ग्लोबीकरण और साम्प्रदायिकता का मुकाबला कर सकेगी।पुस्तक के अंतिम दो लेखों में किशन पटनायक ने इस प्रश्न को सुंदर तरीके से संबोधित किया है।
अस्सी के दशक के अंत में भारत में किसान आंदोलन अपने शिखर पर था।कर्नाटक में प्रो. एम. डी. नंजुदास्वामी के नेतृत्व में, महाराष्ट्र के शरद जोशी के नेतृत्व में और पश्चिमी उत्तर प्रदेश ,हरियाणा, पंजाब में महेंद्र सिंह टिकैट के नेतृत्व में किसान आंदोलन की एक जबरदस्त लहर चल रही थी।इन आंदोलनों की एकता और समन्वित कार्यवाही देश इतिहास को एक नया मोड़ दे सकती थी।लेकिन यह ऐतिहासिक मौका हाथ से चला गया। 2 अक्टूबर 1989 को दिल्ली की वोट क्लब की विशाल रैली में मंच पर हुए विवाद की घटना मानो एक संकेत थी। इसके बाद से किसान आंदोलनों का ज्वार उतरने लगा।ऐसा क्यों हुआ ,इसको जानने के लिए जिज्ञासु अध्येताओं को इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि ,उनके सामाजिक आधार ,नेतृत्व, विचारधारा ,घटनाओं और परिस्थितियों का विस्तार से अध्ययन करना पड़ेगा। उन्हें किशन पटनायक के इस पुस्तक से मद्दद और महत्वपूर्ण संकेत मिलेंगे।
इस संदर्भ में एक प्रसंग का जिक्र करना मौजू होगा।संभवत वोट क्लब रैली के पिछले वर्ष की बात होगी,जब किसान संगठनों की अंतरराज्यीय समन्वय समिति का गठन हो गया था।इस समिति की बैठक नागपुर में हुई, जिसमें महाराष्ट्र, कर्नाटक ,गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा, मध्यप्रदेश आदि के प्रतिधिनि मौजूद थे, किन्तु बैठक नागपुर में होने के कारण महाराष्ट्र के प्रतिनिधि ज्यादा थे।इस बैठकर में कुछ प्रतिनिधियों के द्वारा शेतकरी संघटना द्वारा अनाज व कपास की खेती छोड़कर किसानों को यूकेलिप्टस की खेती करने का आह्वान पर सवाल उठाए गए।किशन पटनायक भी इस बैठक में मौजूद थे। उन्होंने कहा कि किसान चुकी देश का सबसे बड़ा तबका है, उसका स्वार्थ देश से अलग नहीं हो सकता।उसे देश के स्वार्थ के बारे में भी सोचना पड़ेगा।किशन पटनायक ने यह भी कहा कि किसानों के बेहतरी के लिए सिर्फ कृषि उपज के ज्यादा दाम मांगने से बात नहीं बनेगी।औधोगिक दामों पर नियंत्रण की मांग करनी पड़ेगी।इसका मतलब है कि पूरी व्यवस्था को बदलने की बात सोचनी पड़ेगी। एक समग्र नीति बनानी पड़ेगी। किसानों के नजरीय से विकास नीति कैसी हो ,उधोग नीति कैसी हो, शिक्षा नीति कैसी हो, प्रशासन व्यवस्था कैसी हो-सबकी रूप रेखा बनानी पड़ेगी और सबके बारे में सोचना पड़ेगा।किन्तु शरद जोशी और उनके जिंसधारी सिपहसलारों ने किशन पटनायक की बात बिलकुल नहीं चलनी दी।उनका कहना था कि कृषि उपज का दाम ही सब कुछ है।किसानों का सही दाम मिलने लगे, तो सब ठीक हो जाएगा। किशन पटनायक के विचारों पर आगे चर्चा व बहस भी बैठक में नहीं होने दी गई।काश ! यदि किशन पटनायक की बात पर किसान आंदोलनों के नेताओं ने गौर किया होता और अपने आन्दोलनों को उस दिशा में ढाला होता तो, न केवल किसान आंदोलनों का,बल्कि देश का इतिहास भी कुछ दूसरा हो सकता था। किन्तु आगे की प्रवृत्तियों के लक्षण यहीं दिखने लगे थे।शरद जोशी के बाद ग्लोबीकरण, उदारीकरण और बाजारवाद के पक्के समर्थक साबित हुए।इसलिए शायद वे उस बैठक में बहस से बचना चाहते थे।शरद जोशी ने किसानों को सब्जबाग दिखाए की मुक्त व्यापार नीतियों से उनके उपज का निर्यात बढ़ेगा और उन्हें आकर्षक दाम मिलेंगे।लेकिन हुआ ठीक उल्टा।कृषि उपज का आयात बढ़ा तथा घरेलू मंडियों में भी दाम गिर गए। शरद जोशी तो उन्नति करते हुए राज्य सभा सदस्य बन गए और ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ के अध्यक्ष बन गए, किन्तु महाराष्ट्र के किसान आत्महत्याओं की कगार पर पहुँच गए। अंतरराष्ट्रीय बाजार आखिरकार शरद जोशी की सदिच्छाओं से काम नहीं करता, ताकतवर पश्चिमी देशों, उनके विशाल अनुदानों और उनकी विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के स्वार्थो के मुताबिक काम करता है।किसान आन्दोलनों के लिए यह एक महत्वपूर्ण सबक है।
किशन पटनायक आज हमारे बीच में नहीं हैं। किन्तु उनके विचारों और विश्लेषण से किसान आंदोलन को एक नई दिशा मिल सकेगी, साथ ही परिवर्तन चाहने वाले सभी व्यक्तियों व समूहों की समझ भी समृद्ध होगी, इसी आशा और विश्वास के साथ यह छोटी-सी पुस्तक पाठकों की सेवा में पेश है।

सुनील

7 जून 2006

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हाल ही में केंद्र सरकार ने किसानों की समस्याओं का हल खोजते हुए समर्थन मूल्य बढ़ाने की घोषणा की है। यदि समर्थन मूल्य बढ़ाने भर से किसानों की समस्याओं का हल संभव है तो फिर इतनी हाय-तौबा कृषि क्षेत्र की खराब हालत को लेकर क्यों हो रही है ? इस बढ़े हुए समर्थन मूल्य का कितने किसानों को लाभ प्राप्त होगा ? कृषि की पूरी व्यवस्था किसान को लूटने और उसे गुलाम बनाये रखने के लिये बनाई गई है। उनके लिये किसान एक गुलाम है जिसे वह उतना ही देना चाहते हैं जिससे वह पेट भर सके और मजबूर होकर खेती करता रहे। किसानों के आर्थिक हितों की पैरवी करता प्रस्तुत आलेख। – का.सं.

देश का किसान समाज गरीब क्यों? किसान परिवार में आत्महत्याएं क्यों? इस सरल प्रश्न का सच्चा जवाब हम देना नहीं चाहते। इन प्रश्नों का जवाब दशकों से ढूंढा जा रहा है। बड़े-बड़े रिपोर्ट तैयार किये गये। कई लागू किये गये। लेकिन आज तक किसानों की समस्याओं के समाधान के लिये जो उपाय किये गये उससे समाधान नहीं हुआ बल्कि संकट गहराता जा रहा है। किसानों की आर्थिक हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। क्या हम किसानों की समस्याओं का सही कारण नहीं खोज पाये या खोजना ही नहीं चाहते?
किसान विरोधी लोग तो मानते ही नहीं कि किसानों की कोई समस्या है। वह मानते हैं कि किसान का कर्ज निकालकर बच्चों के शादी ब्याह पर खर्च करना उनकी बदहाली का कारण है। तो कुछ कहते हैं कि किसान शराब पीने के कारण आत्महत्या करते हैं। कुछ यह भी कहते हंै कि किसानों का मानसिक इलाज करना चाहिये। जो लोग किसान की समस्याओं को स्वीकार करते हैं उनमें से कुछ कहते हंै कि खेती की पद्धति में बदलाव करना चाहिये। रासायनिक खेती के बदले जैविक खेती करनी चाहिये। सिंचाई का क्षेत्र बढ़ाना चाहिये। यांत्रिक खेती करनी चाहिये। जीएम बीज का इस्तेमाल करना चाहिये। कुछ कहते हैं कि उत्पादन बढ़ाना चाहिये, निर्यातोन्मुखी फसलों का उत्पादन करना चाहिये। कुछ कहते हंै कि फसल बीमा योजना में सुधार करना चाहिये। कर्ज योजना का विस्तार करना चाहिये। 20171102_170650
यह उपाय किसानों की समस्याओं को दूर करने के लिये नहीं बल्कि उसकी समस्याओं का लाभ उठाने के लिये किये जाते रहे है। आज तक का अनुभव यही है कि इन योजनाओं का लाभ बैंकांे, बीज, बीमा व यंत्र निर्माता कंपनियों, निर्यात कंपनियों, बांध बनाने वाली कंपनियों और ठेकेदारों को मिला है। पहले किसानों के आत्महत्या के कारणों की खोज के नाम पर रिपोर्ट बनाये जाते है और सरकार में लॉबिंग कर उसे लागू करवाया जाता है। यह रिपोर्ट बनाने में सीएसआर फंड प्राप्त एन.जी.ओ. बड़ी भूमिका निभाते हैं और हम भी किसान के बेटे हैं। कहने वाले नौकरशाह और राजनेता अपने ही बाप से बेईमानी करते हैं। उत्पादन वृद्धि के इन उपायों से किसानों का उत्पादन खर्च बढ़ा है। साथ ही उत्पादन बढ़ने और मांग से आपूर्ति ज्यादा होने से फसलों के दाम घटे हैं। इससे किसान का लाभ नहीं नुकसान बढ़ा है। इन उपायों के बावजूद किसानों की लगातार बिगड़ती स्थिति इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।
सरकारी आंकडों के अनुसार देश में किसानों की औसत मासिक आय 6426 रुपये है। जिसमें केवल खेती से प्राप्त होने वाली आय केवल 3081 रुपये प्रतिमाह है। यह 17 राज्यों में केवल 1700 रुपये मात्र है। हर किसान पर औसतन 47000 रुपयों का कर्ज है। लगभग 90 प्रतिशत किसान और खेत मजदूर गरीबी का जीवन जी रहे हैं। जो किसान केवल खेती पर निर्भर है उनके लिये दो वक्त की रोटी पाना भी संभव नहीं है।
राजनेता और नौकरशाह अपना वेतन तो आवश्यकता और योग्यता से कई गुना अधिक बढ़ा लेते हैं लेकिन किसान के लिये उसकेे कठोर परिश्रम के बाद भी मेहनत का उचित मूल्य न मिले ऐसी व्यवस्था बनाये रखना चाहते हैं। पूरे देश के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर आकलन करे तो खेती में काम के दिन के लिये केवल औसत 92 रुपये मजदूरी मिलती है। यह मजदूरी 365 दिनों के लिये प्रतिदिन 60 रुपये के लगभग होती है। किसान की कुल मजदूरी से किराये की मजदूरी कम करने पर दिन की मजदूरी 30 रुपये से कम होती है। मालिक की हैसियत से तो किसान को कुछ मिलता ही नहीं, खेती में काम के लिये न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आंकडे भी इसी की पुष्टि करते हंै।
बाजार व्यवस्था खुद एक लूट की व्यवस्था है। जो स्पर्धा के नाम पर बलवान को दुर्बल की लूट करने की स्वीकृति के सिद्धांत पर खड़ी है। बाजार व्यवस्था में बलवान लूटता है और कमजोर लूटा जाता है। बाजार में विकृति पैदा न होने देने का अर्थ किसान को लूटने की व्यवस्था बनाये रखना है। जब तक किसान बाजार नामक लूट की व्यवस्था में खड़ा है उसे कभी न्याय नहीं मिल सकता। बाजार में किसान हमेशा कमजोर ही रहता है। एक साथ कृषि उत्पादन बाजार में आना, मांग से अधिक उत्पादन की उपलब्धता,स्टोरेज का अभाव, कर्ज वापसी का दबाव,जीविका के लिये धन की आवश्यकता आदि सभी कारणों से किसान बाजार में कमजोर के हैसियत में ही खड़ा होता है।
यह शोषणकारी व्यवस्था उद्योगपति,व्यापारी और दलालों को लाभ पहुंचाने के लिये बनाई गई है। कल तक यह लूट विदेशी लोगों के द्वारा होती थी। अब उसमें देशी-विदेशी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी शामिल किया गया है। यह बहुराष्ट्रीय कंपनियां खेती पूरक उद्योग और उसके व्यापार पर पहले ही कब्जा कर चुकी है। अब वे पूरी दुनिया के खेती पर कब्जा करना चाहती है। इसलिये विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन के दबाव में सरकारें लगातार किसान विरोधी नीतियां बनाते जा रही हैं।
किसान का मुख्य संकट आर्थिक है। उसका समाधान किसान परिवार की सभी बुनियादी आवश्यकताएं प्राप्त करने के लिये एक सम्मानजनक आय की प्राप्ति है। किसानों की समस्याओं का समाधान केवल उपज का थोड़ा मूल्य बढ़ाकर नहीं होगा बल्कि किसान के श्रम का शोषण, लागत वस्तु के खरीद में हो रही लूट,कृषि उत्पाद बेचते समय व्यापारी,दलालों व्दारा खरीद में या सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद में की जा रही लूट, बैंकांे, बीमा कंपनियों व्दारा की जा रही लूट इन सबको बंद करना होगा।
किसान, कृषि और गांव को स्वावलंबी और समृद्ध बनाने की दिशा में कृषि आधारित कुटीर एवं लघु उद्योगों को पुनर्जीवित करना होगा। जब खेती में काम नहीं होता है तब किसान को पूरक रोजगार की आवश्यकता होती है। भारत सरकार ने 1977 में बड़े उद्योगों को उत्पादित न करने देने की स्पष्ट नीति के तहत 807 वस्तुओं को लघु और कुटीर उद्योगों के लिये संरक्षित किया था। जिसे नई आर्थिक नीतियां लागू करने के बाद धीरे-धीरे पूरी तरह से हटाया गया। उसे फिर संरक्षित कर असमानों के बीच स्पर्धा से बचने के लिये देशी, विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादन पर पाबंदी लगानी होगी। कृषि उत्पादकों के लिये उत्पादन, प्रसंस्करण व विपणन के लिये सरकारी और कारपोरेटी हस्तक्षेप से मुक्त एक सरल गांव केंद्रित रोजगारोन्मुख नई सहकारी व्यवस्था बनानी होगी।
संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार घोषणापत्र 1948 में पारिश्रमिक की परिकल्पना की गई है जो ‘कर्मी और उसके परिवार’ को गरिमा के साथ जीवन प्रदान करने के लिये आश्वासन देती है। संस्थापक सदस्य के रुप में भारत ने इस पर हस्ताक्षर किये हंै। भारत में संगठित क्षेत्र के लिये वेतन आयोग द्वारा ‘परिवारिक सिद्धांत’ अपनाया गया है। राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन 1975 में भी सामान्य रुप से न्यूनतम मजदूरी के लिये इस सिद्धान्त को अपनाने की सिफारिश की है। लेकिन कृषि में अधिकारों का निर्धारण करने में परिवारिक सिद्धांत की अनदेखी की गई है।
काम के बदले आजीविका मूल्य प्राप्त करना हर व्यक्ति का मौलिक और संवैधानिक अधिकार है। किसान को भी काम के बदले न्याय संगत श्रममूल्य मिलना चाहिये। आजीविका मूल्य बौद्धिक श्रम के लिये 2400 किलो कैलरी और शारीरिक श्रम के लिये 2700 कैलरी के आधार पर तय किया जाता है। इसके लिये देश में संगठित और असंगठित में भेद किये बिना ‘समान काम के लिये समान श्रममूल्य’ के सिद्धांत के अनुसार परिवार की अन्न, वस्त्र, आवास, स्वास्थ, शिक्षा आदि बुनियादी आवश्यकताएं पूरी करने के लिये आजीविका मूल्य निर्धारित करना होगा। श्रममूल्य निर्धारण में संगठित क्षेत्र की तुलना में अधिकतम और न्यूनतम का अंतर 1ः10 से अधिक नहीं होना चाहिये। इस प्रकार से निर्धारित श्रममूल्य किसान को देने की व्यवस्था करनी होगी।
सरकार को महंगाई का नियंत्रण करने के लिये किसान का शोषण करने का कोई अधिकार नहीं है। यह किसानों पर किया गया अन्याय है। अगर वह सरकारी खरीद या बाजार में फसलों की उचित कीमतें देने की व्यवस्था नहीं कर सकती तो ऐसे स्थिति में सस्ते कृषि उत्पाद का लाभ जिन जिन को मिलता है उनसे वसूलकर किसान को नुकसान की भरपाई करना होगी। एक वर्ग को आर्थिक लाभ पहुंचाने के लिये किसान से जीने का अधिकार नहीं छीना जा सकता। (सप्रेस)

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देश का किसान जब अत्यंत कठिन परिस्थिति से गुजर रहा है। गरीबी और कर्ज के बोझ में दबा है। अपनी मेहनत का मोल और उपज के उचित दाम के लिये संघर्ष करने के लिये रास्तेपर उतर रहा है तब किसान को कुछ देने के बजाय केंद्र सरकार ने ऐसी फसल बीमा योजनाएं चला रखी है जिसमें खरीप 2016 और रबी 2016-17 के लिये सरकारी तिजोरी और किसानों की जेब से लूट कर 10 बीमा कंपनियों को 12395 करोड रुपये का लाभ पहुंचाया गया है। जिसके लिये देश में 5.65 करोड किसानों से जबरदस्ती बीमा करवाया गया लेकिन 82.43 प्रतिशत किसानों को किसी प्रकार की मदत नही मिली। जिन 17.57 प्रतिशत किसानों को नुकसान भरपाई मिल पाई है उनमें कई किसान ऐसे है की जिन्हे उनसे वसूले गये बीमा हप्ते से कम राशि मिली है।
केंद्र सरकार से प्राप्त जानकारी के अनुसार सभी फसल बीमा योजना के खरीप 2016 और रबी 2016-17 में देश भर से किसानों से जबरदस्ती उनके अनुमति के बिना 4231.16 करोड रुपये हप्ता वसूल कर फसल बीमा करवाया गया और किसान बजट से राज्य सरकार के 9137.02 करोड रुपये और केंद्र सरकार के 8949.35 करोड रुपये हप्ता मिलाकर कुल 22318.15 करोड रुपये राशी बीमा कम्पनियों को दी गयी। नुकसान भरपाई के रुप में केवल 9922.78 करोड रुपये नुकसान भरपाई दी गई है। कंपनियों को प्राप्त हुये कुल बीमा राशी के आधा भी किसानों को नही लौटाया गया। किसानों से 12395.37 करोड रुपये रुपये सरकार और बीमा कम्पनियों के मिली भगत से बीमा कम्पनियों ने लूटे है। प्रति किसान लगभग 2200 रुपये कंपनी ने लूट लिये है।
खरीप 2016 में देश भर के किसानों से 2980.10 करोड रुपये हप्ता वसूल कर फसल बीमा करवाया गया और किसान बजट से राज्य सरकार के 6932.38 करोड रुपये और केंद्र सरकार के 6759.72 करोड रुपये हप्ता मिलाकर कुल 16672.20 करोड रुपये बीमा कम्पनियों को दिये गये। नुकसान भरपाई के रुप में किसानों को केवल 8021.68 करोड रुपये नुकसान भरपाई दी गई है।
रबी 2016-17 में देश भर के किसानों से 1251.06 करोड रुपये हप्ता वसूल कर फसल बीमा करवाया गया और किसान बजट से राज्य सरकार के 2204.65 करोड रुपये और केंद्र सरकार के 2189.63 करोड रुपये हप्ता मिलाकर कुल 5645.95 करोड रुपये बीमा कंपनियों को दिये गये। नुकसान भरपाई के रुप में किसानों को केवल 3744.85 करोड रुपये नुकसान भरपाई दी गई है।
महाराष्ट्र में बीमा कंपनियों को सबसे अधिक 4621.05 करोड रुपये बीमा हप्ता प्राप्त हुआ। उसमें से किसानों को केवल 2216.66 करोड रुपये नुकसान भरपाई दी गयी। बाकी सारी रकम 2404.39 करोड रुपये कर्ज के बोझ में दबे किसानों की जेब से सरकार से मिली भगत कर बीमा कम्पनियों ने लूट लिये है।

प्रधानमंत्री फसल बिमा योजना सहीत सभी बीमा योजनाओं में हुयी यह पिछले बीमा योजनाओं से कई गुना अधिक है। नई योजना में निजी बीमा कंपनियों को बीमा क्षेत्र में प्रवेश देना, बैंक से कर्ज लेनेवाले ऋणी किसानों के लिये योजना अनिवार्य कर जबरदस्ती हप्ता वसूलना आदी कई सारे प्रावधान बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिये कानून में किये गये है। इस योजना से स्पष्ट है की कंपनियां और सरकार ने मिलकर योजनापूर्वक किसानों को लूटने का काम किया है। यह साजिसपूर्वक किया गया भ्रष्टाचार है। इसे उजागर करने के लिये बीमा कंपनियों ने किन किन पार्टियों को कितना कितना फंड दिया है इसकी जांच होनी आवश्यक है। यह उल्लेखनीय है कि यह योजना किसानों की आमदनी दोगुणी करने के लिये घोषित योजनाओं में से एक है। किसानों की आय दोगुणी करने के नामपर बनी दूसरी योजनाओं का स्वरुप भी इसी प्रकार का है।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की शुरुआत करते समय माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी ने कहा था की उनकी सरकार गरीबों को समर्पित सरकार हैं। किसान के कल्याण के लिये, किसान का जीवन बदलने के लिये, गांव की आर्थिक स्थिति बदलने के लिये प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लायी गयी है। यह सरकार की ओर से किसानों के लिये तौफा है। यह योजना किसानों के जीवन में बहुत बडा परिवर्तन लायेगी।
लेकिन प्रत्यक्ष में केंद्र सरकार ने उल्टा किया है। देश के किसानों को लूट कर बीमा कंपनीयों को बडा लाभ पहुंचाया है। यह योजना किसानों को लूट कर बीमा कंपनीयों को लाभ पहूंचाने के लिये ही बनाई गई है। किसानों की यह लूट क्रियान्वयन के दोष के कारण नही बल्कि यह योजना तत्वत: किसानों के लूट की व्यवस्था है। जिन राज्य सरकारों ने यह योजना अपने राज्य में लागू नही की उन्हे किसानों को लूट से बचाने के लिये धन्यवाद देने चाहीये। दूसरे राज्यों को भी आगे से किसानों के हित में इस किसान विरोधी योजना का बहिष्कार करना चाहीये।
राष्ट्रीय किसान समन्वय समिति ने की मांग है कि देश के किसानों को लूट कर उनसे वसूला गया बीमा हप्ता किसानों को वापस लौटाया जाए। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना बंद की जाए और उसके बदले में प्राकृतिक आपदाओं में किसानों को सरकार की तरफ से सिधे नुकसान भरपाई दी जाने की व्यवस्था की जाए।
विवेकानंद माथने,
विवेकानंद माथने
संयोजक
राष्ट्रीय किसान समन्वय समिति
vivekanand.amt@gmail.com
9822994821 / 9422194996

2 Kharif 20163 Rabi 2016-17

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