पिछला भाग । महादेव देसाई का एक सुन्दर वर्णन ‘ हसीदे एदीब ‘ की ‘ इनसाइड इण्डिया’ ( भारत में ) नामक पुस्तक में ‘ रघुवर तुमको मेरी लाज ‘ नाम के चौथे अध्याय में मिलता है । जब वे महात्माजी से बातें कर रहीं थीं , महादेव देसाई नोट ले रहे थे । उन्हीं के शब्दों में – ” वे निरंतर नोट लेते रहते हैं । मेरी महात्माजी से जो बातें हुईं , वे तो मैं आगे दूँगी ही । मगर यह उनका सेक्रेटरी ऐसा है कि वह किसी का भी ध्यान आकर्षित किए बिना नहीं रह सकता । यद्यपि वह अत्यन्त नम्र और अपने -आपको कुछ नहीं माननेवाला है । महादेव का गांधीजी के आंदोलन से अपर कोई अस्तित्व नहीं है । महादेव देसाई ऊँचे , इकहरे तीस – पैंतीस बरस के हैं । उनके चेहरे के नक्श दुरुस्त हैं , और होठ पतले हैं ; आँखें ऐसी हैं कि वे किसी रहस्यमयी दीप्ति से चमकती रहती हैं । यह रहस्यभरी झलक ( जो कि बहुत गहरी है ) होते हुए भी , वह अत्यन्त व्यवस्थित काम करनेवाले व्यक्ति हैं । अगर वे व्यवस्थित न हों तो इतना सब काम कर ही नहीं सकते । यद्यपि उनका स्वभाव तेज , भावकतापूर्ण है ; फिर भी उनका अपनी वासनाओं पर संयम है । महात्माजी के प्रति जो श्रद्धा -भक्ति उन्हें है , वह धार्मिक है ; सोलह वर्षों से वे गांधी के साथ रहे हैं , उनसे एकात्म होकर । बचपन से बहुत तंग गलियों से गुजरता हुआ यह जवान आदमी आज वैराग्य की कठिनतम सीढ़ी पर चढ़ आया है । वह ‘ हरिजन ‘ का संपादन करता है । साथ ही सेक्रेटरी का सब काम करता है , जिसमें सफाई , बर्तन- धोना वगैरह सब आ जाता है । निरंतर योरोप , सुदूरपूर्व , अमरीका सभी ओर से गांधीजी प्रश्नों की झड़ी लग रही है , और उसमें भी अपने मन की समतोलता को बनाये रखना असाधारण बुद्धिमत्ता का काम है । इसमें अक्ल्पनीय आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है। ” आगे चलकर इसी पुस्तक में एदीब ने महादेव भाई गांधीजी के आस-पास तकिये कैसे लगाते हैं , वे विदेशियों को आश्रमवासियों से कैसे परिचित करा देते हैं आदि वर्णन दिया है । ‘ अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान ‘ पर महादेव भाई की लिखी हुई पुस्तक का अवतरण भी दिया है । प्रार्थना का अर्थ विदेशियों को अंग्रेजी तर्जुमा कर समझाना महादेव भाई का खास काम था । एक बार लुई फिशर (गांधी के प्रसिद्ध जीवनीकार – अफ़लातून) जब आश्रम में थे , ‘बच्चू’ बापू की लकड़ी लेकर इधर-उधर घूम रहा था । फिशर ने समझा , यह भी प्रार्थना का कोई भाग है । इसलिए गंभीरता-पूर्वक इस क्रिया का अर्थ उन्होंने महादेव भाई से पूछा । उन्होंने जब बताया कि यह सहज खेल है , दोनों ही खूब हँसे । विदेशी वार्त्ताहर , जो सेवाग्राम में आते थे वे , महादेव भाई की सादगी देखकर चकरा जाते थे । वे समझते थे कि महात्मा गांधी का सेक्रेटरी कोई बहुत शानवाला आदमी होगा । एक बार तो एक विदेशी संवाददाता को जब मैंने – ” महादेव भाई ये हैं ” कहकर बताया , उसे विश्वास नहीं हुआ । उसने दुबारा पूछा – ” क्या ये ही हैं ? ”
महादेव भाई के घर में ताजी-से-ताजी विदेशी किताबें, समाचारपत्र और एक ‘एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ‘ देखकर मुझे बहुत सुख होता था । मैंने अक्सर देखा है कि ‘हरिजन’ सम्बन्धी किसी लेख को वे बापू को सुना रहे हैं ; बापू दोपहर की झपकी में कुछ सो-से गये हैं । महादेव चुप हो गये हैं ; परंतु पंखा झलते जा रहे हैं । उन्होंने गांधीजी के प्रति सेवक-भक्ति को अपने-आप में रमा लिया था ।
एक बार महादेव भाई ग्वालियर-राज्य सार्वजनिक सभा के अध्यक्ष बनकर ‘मुरार’ गये। रियासतों में जाने की उनकी इच्छा नहीं थी । परंतु बापू का आग्रह था , टाल नहीं सके । मगर जब एक बार जाने का निश्चय किया , ग्वालियर-राज्य की पूरी-की-पूरी जानकारी उन्होंने विजयवर्गीय (जो उन्होंने बुलाने आये थे) और मुझसे और अन्य स्रोतों से ग्रहण की । इस प्रकार महादेव भाई जब कभी कोई काम हाथ में लेते , उसमें अपना प्राण-पन लगा देते । तत्त्व तक पहुंचने की उनकी यह वृत्ति , काश , आज के नौजवानों में होती ! आगाखाँ महल से उनका शरीर बाहर नहीं आ पाया ; परंतु उनकी आत्मा की सुगंध आज भी हमारे बीच में महक रही है । आज ‘सेवाग्राम’ में उनकी सूनी कुटी देखकर ‘जुहु’ में गांधीजी की रुग्ण आँखों में जो एक अथाह सूनापन छाया था , वह मुझे रह-रहकर याद आ जाता है और मैं सोचता हूँ कि महादेव को खोकर गांधी जी ने , हरिजन ने , सेवाग्राम ने , हमने , सभी ने क्या-कुछ खोया है – एक ऐसी क्षति जो कभी पूरी नहीं हो सकती ! !