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Posts Tagged ‘तानाशाही’

इस रचनात्मक कार्यक्रम में सभी बातों का समावेश नहीं हुआ है।स्वराज की इमारत एक जबरदस्त चीज है,जिसे बनाने में अस्सी करोड़ हाथों को काम करना है।इन बनाने वालों में किसानों की यानी खेती करनेवालों की तादाद सबसे बड़ी है।सच तो यह है कि स्वराज की इमारत बनाने वालों में ज्यादातर ( करीब 80 फीसदी) वही लोग हैं,इसलिए असल में किसान ही कांग्रेस है ऐसी हालत पैदा होनी चाहिए।आज ऐसी बात नहीं है।लेकिन जब किसान को अपनी अहिंसक ताकत का खयाल हो जायगा,तो दुनिया की कोई हुकूमत उनके सामने टिक नहीं सकेगी।

जो किसानों या खेतीहरों को संगठित करने का मेरा तरीका जानना चाहते हैं,उन्हें चंपारन के सत्याग्रह की लड़ाई का अध्ययन करने से लाभ होगा।हिंदुस्तान में सत्याग्रह का पहला प्रयोग चंपारन में हुआ था। उसका नतीजा कितना अच्छा निकला,यह सारा हिंदुस्तान भलीभांति जानता है। चंपारन का आंदोलन आम जनता का आंदोलन बन गया था और वह बिल्कुल शुरु से लेकर अखीर तक पूरी तरह अहिंसक रहा था। उसमें कुल मिलाकर कोई बीस लाख से भी ज्यादा किसानों का संबंध था।सौ साल पुरानी एक खास तकलीफ को मिटाने के लिए यह लड़ाई छेड़ी गई थी।इसी शिकायत को दूर करने के लिए पहले कई खूनी बगावतें हो चुकी थीं।किसान बिल्कुल द्सबास दिए गए थे।मगर अहिंसक उपाय वहां छह महीनों के अंदर पूरी तरह सफल हुआ।किसी तरह का सीधा राजनीतिक आंदोलन या राजनीति के प्रत्यक्ष प्रचार की मेहनत किए बिना ही चंपारन के किसानों में राजनीतिक जागृति पैदा हो गई।

……… इनके सिवा,खेड़ा,बारडोली और बोरसद में किसानों ने जो लड़ाइयां लड़ीं,उनके अध्ययन से भी पाठकों को लाभ होगा।किसान -संगठन की सफलता का रहस्य इस बात में है कि किसानों की अपनी जो तकलीफें हैं,जिन्हें वे समझते और बुरी तरह महसूस करते हैं,उन्हें दूर कराने के सिवा दूसरे किसी भी राजनीतिक हेतु से उनके संगठन का दुरुपयोग न किया जाए।किसी एक निश्चित अन्याय या शिकायत के कारण को दूर करने के लिए संगठित होने की बात वे झट समझ लेते हैं।उनको अहिंसा का उपदेश करना नहीं पडता।अपनी तकलीफों के एक कारगर इलाज के रूप में वे अहिंसा को समझकर उसे आजमा लें और फिर उनसे कहा जाए कि उन्होंने जिसे आजमाया है वही अहिंसक पद्धति,तो वे फौरन ही अहिंसा को पहचान लेते हैं और उसके रहस्य को समझ जाते हैं।

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आज धर्म पूछोगे, कल जात पूछोगे
कितने तरीक़ों से मेरी औक़ात पूछोगे

मैं हर बार कह दूँगा, यही वतन तो मेरा है
घुमा फिरा के तुम भी तो वही बात पूछोगे

सच थोड़े ही बदलेगा पूछने के सलीकों से
थमा के क़ुरान या फिर जमा के लात पूछोगे

मेरी नीयत को तो तुम कपड़ों से समझते हो
लहू का रंग भी क्या अब मेरे हज़रात पूछोगे

मैं यहीं था 84 में, 93 में, 02 में, 13 में
किस किस ने बचाया मुझे उस रात पूछोगे

तुम्हीं थे वो भीड़ जिसने घर मेरा जलाया था
अब तुम्हीं मुझसे क़िस्सा-ए-वारदात पूछोगे

ज़बान जब भी खुलती है ज़हर ही उगलती है
और बिगड़ जाएँगे ग़र तुम मेरे हालात पूछोगे

पुरखों की क़ब्रें, स्कूल की यादें, इश्क़ के वादे
कुछ देखोगे सुनोगे या सिर्फ़ काग़ज़ात पूछोगे

~ सुमित सप्रा

प्रेम से साझा कीजिए
बजरिए शाहिद अख़्तर
Shahid Akhtar

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‘‘तुम हमें रोक नहीं सकते। मुझे उठा लो, मेरे साथियों को उठा लों! हमें जेल में डाल दो! मार दो! जो भी तुम करना चाहते हो, करो! हम अपना देश वापस ले रहे है। तुम लोगो ने 30 सालों से इस देश को बर्बाद किया है। बस, बहुत हो चुका है। बहुत हो गया! बहुत हो गया!’’

ये शब्द थे मिस्त्र के ताजा जन-विद्रोह के एक युवा नेता वेल घोनिम के, जो उसने उपराष्ट्रपति द्वारा आंदोलन के खिलाफ फौज के इस्तेमाल की धमकी देने पर एक टीवी साक्षात्कार में कहे। गूगल इंटरनेट कंपनी का यह अधिकारी एक दिन पहले ही जेल से बाहर आया था। मिस्त्र में उत्तेजना, जोश, युवाशक्ति और देशभक्ति का यह अभूतपूर्व ज्वार आखिरकार रंग लाया और 30 सालों से मिस्त्र पर एकछत्र राज कर रहे तानाशाह होस्नी मुबारक को गद्दी छोड़कर एक टापू में शरण लेना पड़ा। इसके पहले ट्यूनीशिया के तानाशाह बेन अली को जनशक्ति के आगे देश छोड़कर भागना पड़ा।
हालांकि अभी भी दोनों देशों की सत्ता अमरीका-परस्त फौज के हाथ में है और भविष्य अनिश्चित है, फिर भी वहां की जनशक्ति की यह बड़ी जीत है। यह तय हो गया है कि वहां लोकतंत्र कायम होगा और सरकार कोई भी बने, वह जनभावनाओं की उपेक्षा नहीं कर सकती । सबसे बड़ी बात यह हुई है कि आम जनता निडर बन गई है और उसे अपनी शक्ति का अहसास हो गया है। जनता की इन दो जीतों का पूरे अरब विश्व में बिजली की माफिक जबरदस्त असर हुआ है। वहां भी तानाशाह सरकारों के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे है। अरब देशों की मुस्लिम जनता सिर्फ इस्लामी कट्टरपंथ के आह्वान पर ही कुछ करती है, यह भ्रान्ति भी दूर हुई है।

पूंजीवाद पर संकट की छाया
अखबारों, टीवी और इंटरनेट के इस जमाने में इन घटनाओं का पूरी दुनिया पर असर हुआ है। दुनिया की जनता ध्यान से इन्हें देख रही है। अमरीका की पूरी कोशिश है कि सत्ता परिवर्तन के बाद नई सरकारें उसी के प्रभाव से रहे। किंतु यह तय है कि अमरीका की इजरायल नीति को इन देशों में अब वह समर्थन नहीं मिल सकेगा, जिसकी सौदबाजी वह तानाशाहों से फौजी तथा वित्तीय मदद के बदले कर लेता था। यदि इन देशों में अमरीका विरोध की बयार बहने लगती है तो यह पूरे अमरीकी वर्चस्व और साम्राज्यवाद के लिए बुरा संकेत होगा, क्योंकि तेल और स्वेज नहर ये दोनों उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण है। तेल के अंतरराष्ट्रीय भाव 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर जाने लगे है और दुनिया भर के शेयर बाजार लुड़कने लगे है। अंदाज है कि तेल के भाव में 10 डॉलर की वृद्धि से संयुक्त राज्य अमरीका की राष्ट्रीय आय में 0.25 फीसदी की गिरावट आ जाती है और 2,70,000 रोजगार खतम होते है। तीन साल पहले ही जबरदस्त मंदी और वित्तीय संकट झेलने वाले तथा अभी तक उसके असर से पूरी तरह न उबर पाने वाले पूंजीवाद के लिए यह एक और झटका हो सकता है।
दूसरे शब्दों में, पूंजीवाद के एक और गहरे संकट की शुरूआत हो सकती है। किंतु बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि लोकतांत्रिक क्रांति वाले ये देश अमरीका-यूरोप पर आर्थिक, व्यापारिक, तकनीकी, फौजी व हथियारी निर्भरता से स्वयं को कितना मुक्त कर पाते हैं। नहीं तो उनकी कहानी भी फिलीप्पीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी हो जाएगी जहां जबरदस्त जन-उभार या शानदार रंगभेद विरोधी लंबे संघर्ष से सत्ता परिवर्तन तो हुए, किन्तु एक वैकल्पिक अर्थनीति एवं विकास की वैकल्पिक सोच के अभाव में व्यवस्था नहीं बदली और अमरीका-यूरोप प्रणित पूंजीवाद का वर्चस्व भी कायम रहा। वहां की जनता के कष्टों का भी अंत नहीं हुआ। एक तरह से भारत में भी 1974-77 के जेपी के नेतृत्व वाले जनांदोलन व तानाशाही-विरोधी संघर्ष का यही हश्र हुआ। किसी भी लोकतांत्रिक क्रांति को पूर्णता और स्थायित्व तभी मिलता है जब उसकी अगली कड़ी आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति बनती है, नही तो महान फ्रांसीसी क्रांति की तरह उसकी परिणिति किसी नेपोलियन की तानाशाही में भी हो सकती है।

भारत: समानताएं व फर्क
ट्यूनीशिया और मिस्त्र की घटनाओं के बाद भारत में भी लोग पूछने लगे है कि इस देश में ऐसी क्रांति क्यों नहीं आ सकती ? भारत के भी हालात तो ऐसे ही है, जिनमें एक बड़ी उथल-पुथल की जरूरत है। बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, दमन तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान के समर्पण की जिन पीड़ाओं ने वहां की जनता को उद्वेलित किया, उनसे भारत के लोग भी कम त्रस्त नहीं है। पिछले दिनों भीषण महंगाई, भयंकर बेकारी, किसानों की निरंतर आत्महत्याओं और घोटालों के एक से एक बढ़चढ़कर उजागर होते कारनामों ने पूरे देश के जनमानस को बुरी तरह बेचैन किया। किंतु क्या करें – ऐसी एक बेबसी व दिशाहीनता लोगों के मन में छाई है।
अरब देशों और भारत की हालातों में काफी समानताएं होते हुए भी एक बड़ा फर्क है। वहां तानाशाही हैं, किंतु भारत में एक लोकतंत्र चल रहा है। चुनाव का पांच साला त्यौहार बीच-बीच में यहां आता रहता है। सरकारें बदलती भी हैं, किंतु हालातें नहीं बदलती है। बेन अली या होस्नी मुबारक के रूप में एक तानाशाह को हटाने का लक्ष्य यहां नहीं है जो आम जनता को एकजुट कर दें। लोकसभा से लेकर पंचायतों तक होने वाले चुनाव एक तरह से सेफ्टी वॉल्व है जो लोगों को बदलाव की झूठी दिलासा देते रहते हैं और उनके बीच के तेज-तर्रार नेतृत्व को लूट के टुकड़ों का भागीदार बनाकर समाहित करते रहते हैं। हालांकि आम लोग इसको भी समझने लगे है, किंतु इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता उन्हें समझ में नहीं आ रहा है।

भारतीय लोकतंत्र की कमियां
यह करीब-करीब साफ हो चला है कि भारतीय लोकतंत्र टिकाऊ तो रहा है किंतु भारतीय जनता की तकलीफों और आकांक्षाओं की कसौटी पर खरा नहीं उतरा है। जनपक्षी बदलावों के बजाय यह यथास्थिति को बनाए रखने का एक जरिया बन गया है। इसके चुनाव धन, बल, जातिवाद, सांप्रदायिकता व मौकापरस्ती के खेल बन गए है। बूथ कब्जा अब पुरानी चीज हो गई है। ज्यादातर पार्टियों व पेशेवर नेताओं ने पांच साल तक जनता की मुसीबतों को नजरअंदाज करके चुनाव के मौके पर धन, प्रलोभन, शराब, गुण्डों, जाति, सांप्रदायिकता, दलबदल, मीडिया जैसी चीजों का सहारा लेकर वोटों को कबाड़ने की जुगाड़ में महारत हासिल कर ली है। भारत में सत्ता के केन्द्रीकरण तथा चुनाव के पैमाने से भी इस में मदद मिलती है। लोकसभा तथा विधानसभा के एक चुनाव क्षेत्र में लाखों मतदाता होते है जिन्हें प्रभावित करने का काम बड़े धनपति और बड़े दलों के संगठित गिरोह ही कर पाते है। इतने बड़े चुनाव क्षेत्र दुनिया के किसी लोकतंत्र में नहीं होते।
फिर लोकतंत्र का मतलब महज चुनाव नहीं होता। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व खबरपालिका – इसके ये चारों पाये आम जनता के सेवक और अनुचर होना चाहिए, किंतु मामला उल्टा है। प्रशासनिक ढांचे का कायापलट, पुलिस-कचहरी के ढांचे में बुनियादी बदलाव, सरकारी हिंसा व दमनकारी कानूनों का खात्मा, लोगों का सशक्तिकरण और इसके लिए घोर गरीबी तथा अशिक्षा का खात्मा, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं में कमी, लोक भाषाओं की स्थापना व प्रतिष्ठा, लोकोन्मुखी व निष्पक्ष मीडिया, सत्याग्रह व सिविल नाफरमानी की गुंजाईश व इज्जत – इन जरूरी बातों को सुनिश्चित करके ही लोकतंत्र को सार्थक बनाया जा सकता है। किंतु यह काम पिछले साठ सालों में नहीं हुआ, क्योंकि उसमें ऊपर बैठे लोगों का नीहित स्वार्थ था। अंग्रेजी राज से विरासत में मिले एवं साम्राज्य की जरूरत के हिसाब से बने घोर केन्द्रीकृत ढ़ांचे को पूरी तरह पलटकर राजनैतिक, प्रशासनिक, आर्थिक विकेन्द्रीकरण का काम भी जरूरी था, किन्तु उल्टे इस अवधि में केन्द्रीकरण बढ़ा है।
यह कहा जा सकता है कि भारत की जनता को सरकारें बदलने का मौका तो मिलता है। फिर भी हालातें नहीं बदलती तो समस्या जनता में जागरूकता की कमी, भारतीय राजनीति की गिरावट या विकल्पहीनता में है। लोकतंत्र के ढ़ांचे का दोष नहीं है। यानी नाच न जानने के लिए आंगन को टेड़ा कहकर दोष नहीं दिया जा सकता। किंतु अभी तक के अनुभव से निकला सच यह है कि चुनाव एवं सत्ता का ढ़ांचा भी ऐसा है कि यह परिवर्तनकामी, ईमानदार व जनपक्षी नेताओं एवं दलों को पनपने और टिकने नहीं देता। जो चुने जाते हैं, उन पर पांच साल तक मतदाताओं का कोई नियंत्रण नहीं होता। सत्ता के केन्द्रों व जनता के बीच दूरी भी काफी है। हमारे लोकतंत्र में ‘लोक’ तो कहीं दबा रहता है, एक विकृत व भ्रष्ट ‘तंत्र’ ही हावी रहता है।
कहने का मतलब यह है कि सिर्फ नाचने वालों का ही दोष देखने से काम नहीं चलेगा। आंगन भी टेड़ा और उबड़-खाबड़ है जो न तो सही नाच होने देता है और न ही नए तरह के नाच की किसी संभावना को सामने आने देता है। छः दशक बाद भारतीय लोकतंत्र की समीक्षा करने और इसके अच्छे तत्वों को संजोते हुए भी इसके ढ़ांचे में बुनियादी बदलाव करने का वक्त आ गया है। यह काम यदाकदा चुनाव सुधारों के नाम पर चलने वाली कवायदों से नहीं होगा। इस ढ़ांचे के बुनियादी बदलाव की कोई पहल ऊपर से नहीं होगी, बल्कि नीहित स्वार्थो का प्रतिरोध भी होगा। इसके लिए भी जनक्रांति की जरूरत होगी।

विकास की वैकल्पिक राह
समीक्षा तो वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की उन नीतियों की भी करनी होगी, जिनको भारत में लागू किए हुए 20 वर्ष हो चले है। इनकी चकाचैंध अब फीकी पड़ चुकी है और घोर गैरबराबरी, बेकारी, बढ़ते शोषण, किसान-आत्महत्याओं, विस्थापन, पर्यावरण नाश व संप्रभुता नाश की तबाही का धुंआ चारों ओर छा चुका है। घोटालों व लूट के जो नए आयाम भारत, पाकिस्तान, ट्यूनीशिया या मिस्त्र जैसे देशों में सामने आए हैं, उनका भी गहरा रिश्ता विश्व बैंक-मुद्रा कोष प्रवर्तित इन नीतियों से है। लोकतंत्र हो या तानाशाही, इन नीतियों के जाल में दुनिया के कई देश फंसे है।
किंतु इसके साथ पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता की नकल वाले अधकचरे विकास की उस राह पर भी पुनर्विचार करना होगा, जिसे हमारे हुक्मरानों ने आजादी मिलने के बाद चुना था। दरअसल 1991 की बाट कोई नई नहीं थी। यह उसी राह का एक नया मोड़ था और शायद उसकी एक तार्किक परिणिति भी थी।
लातीनी अमरीका में जब बदलावों का दौर शुरू हुआ था तो भारतीय समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने टिप्पणी की थी कि इन बदलावों का भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि वे विकास की कोई वैकल्पिक राह खोज पाते है या नहीं। शावेज, लूला, मोरालेस या किर्खनर को इसमें अभी तक आंशिक सफलता ही मिली है। यही चुनौती नेपाल की राजशाही को खत्म करने वाली जनक्रांति के सामने है और यदि भारत में कोई जनक्रांति होती है तो उसके सामने भी होगी।
यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत जैसे तमाम देशों में आम जनता का मतलब करोड़ो की तादाद में किसान, मजदूर, पशुपालक, मछुआरे, कारीगर, घरेलू नौकर, फेरी-खोमचे-पटरी वाले, बेरोजगार नौजवान, विद्यार्थी, पैरा-शिक्षक, दलित व आदिवासी है जिनकी समस्याओं का कोई समाधान औद्योगिक-वित्तीय पूंजीवाद के मौजूदा ढ़ांचे में संभव ही नहीं है। पर्यावरण के बढ़ते संकट और जल-जंगल- जमीन पर बढ़ते हमलों से उपजे भारतीय जनता के संघर्षों का समाधान भी इस विकास पद्धति के अंदर नहीं है। अरब दुनिया की इस हलचल की शुरूआत ट्यूनीशिया के छोटे से कस्बे में एक शिक्षित बेरोजगार के आत्मदाह से हुई, जिसकी सब्जी-फल की दुकान को पुलिस ने उजाड़ दिया था। भारत में आज करोडों लोग इस तरह के हमलों को झेल रहे है। यहां भी जरूरत एक चिनगारी की है, बारूद का ढ़ेर तो तैयार है। किंतु इस चिनगारी को लोगो की गंभीर समस्याओं के हल का एक विश्वसनीय विकल्प भी दिखाना होगा।

विविधता व न्याय पर आधारित समाज
काहिरा के तहरीर चैक पर, सिकन्दरिया में या ट्यूनिस में तानाशाही को शिकस्त देने के लिए लोग धर्म, संप्रदाय, लिंग या वर्ग का भेद भूलकर जमा हुए थे। मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठित इस्लामी दलों को भी अपने आग्रह छोड़कर बाकी लोगों के साथ आंदोलन में शामिल होना पड़ा। भारत जैसे विशाल देश में यह और बड़ी चुनौती है। यहां धर्म, संप्रदाय, जाति, कबीले, भाषा, प्रांतीयता के हजारों विभाजन हैं, जिनका बखूबी इस्तेमाल पहले गोरे अंग्रेजों ने और अब काले अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ के लिए किया है। किंतु इसका इलाज सबको एक सांचे में ढ़ालने या बहुसंख्यकों की तानाशाही थोपने में नहीं है। इसके लिए तो विविधता की इज्जत व रक्षा करने वाले एक ऐसे बहुलतावादी भारत की कल्पना करनी होगी, जिसमें छोटे से छोटा समूह अपनी पहचान और अस्तित्व के प्रति आश्वस्त होकर बराबरी के साथ भाग ले सके तथा जिसमें जाति, भाषा, धर्म, लिंग, क्षेत्र या गांव-शहर के आधार पर भेद न हो। भारतीय आजादी आंदोलन के नेताओं की एक हद तक यही कल्पना थी। कई मायनों में आजादी के आंदोलन के अधूरे काम को पूरा करना नई जनक्रांति का काम होगा।
इसलिए मिस्त्र या ट्यूनीशिया (या नेपाल, वेनेजुएला, बोलीविया) को भारत में दुहराना है तो यह एक ज्यादा कठिन, ज्यादा बड़ा और ज्यादा चुनौतीपूर्ण काम है। किसी एक तानाशाह के बजाय यहां पूरी व्यवस्था को हटाने-बदलने का लक्ष्य लेकर चलना होगा और इसके लिए नया लोकतांत्रिक ढ़ांचा, वैकल्पिक विकास तथा विविधतापूर्ण-न्यायपूर्ण समाजरचना, इन तीन सूत्रों को सामने रखना होगा। इसमें टकराव सिर्फ राजा, तानाशाही या सेना से नहीं होगा, आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता, साम्राज्यवाद व कट्टरपंथ से होगा। इसमें पश्चिमी उदारवादी किस्म के लोकतंत्र की स्थापना से आगे बढ़कर गांधी के स्वराज, लोहिया की सप्तक्रांति और जेपी की संपूर्ण क्रांति के लक्ष्य को सामने रखना होगा। उसमें अंबेडकर, फूले, कबीर, गिजुभाई आदि का भी मेल करना होगा।

मौका युग बदलने का
परिस्थितियां यहां भी परिपक्व है। जनता के सब्र का घड़ा यहां भी भर चुका है। मिस्त्र के उस युवा संग्रामी की तरह ‘बहुत हो गया, बहुत हो गया’ यहां भी सबके मन में है। उसकी तरह यहां भी हमें अपना खोया हुआ, छीना हुआ, देश वापस चाहिए, जिसे 30 नहीं, 60 सालों से बर्बाद किया गया है। भारत में आज 65 करोड़ आबादी 35 बरस से नीचे की उम्र की है, जिसकी आंखो में सपने हैं किंतु मन में कुंठाएं है। यह जरूर है कि यहां महज इंटरनेट, फेसबुक या ट्विटर से काम नहीं चलेगा। उनका सहारा लेते हुए भी भारत के गांवों, कस्बों और महानगरी झोपड़पट्टियों में रहने वाले करोड़ों स्त्री-पुरूषों को जगाने के लिए तथा उनके मन में उम्मीद का संचार करने के लिए उनके बीच में जाना होगा। मध्यम वर्ग की भूमिका होगी, किंतु असली परिवर्तनकारी ताकत नीचे होगी। देश के कई हिस्सों में चल रहे छोटे-छोटे आंदोलन यदि अपने संकीर्ण दायरे से बाहर निकलकर देश बदलने के लक्ष्य से जुड़ते है तो एक ताकत मिलेगी, फिर भी नाकाफी होगी। वैचारिक स्पष्टता और संकल्प के साथ कोई समूह आज आगे आता है और अगले दो बरस में भारत के कोने-कोने में पदयात्राओं, साईकिल यात्राओं आदि के जरिये कोई हलचल पैदा करता है तो शायद भारत का इतिहास बदल सकता है।
भारत, चीन और मिस्त्र दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। दुनिया की आबादी का करीब 40 फीसदी हिस्सा इन देशों में रहता है। पूंजीवाद के संकट के इस दौर में यदि इन की जनशक्ति ने अंगड़ाई ली, तो दुनिया में एक नए युग का पदार्पण हो सकता है। क्या आप इसकी आहट सुन पा रहे है ?



(ई-मेल: sjpsunil@gmail.com )

( लेख ,साभार : जनसत्ता :19फरवरी,2011)

लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और आर्थिक-राजनैतिक विषयों पर टिप्पणीकार है।

सुनील,
समाजवादी जन परिषद
ग्राम/पो. केसला, वाया इटारसी, जिला होशंगाबाद, (म.प्र.) पिन 461111
फोन: 09425040452

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‘ जब कटत रहे कामदेव , तब कहाँ रहे रामदेव ?
अब वोट माँगे रामदेव तब पेड़ में ‘उनका’ बाँध देव’

१९७७ के आम चुनाव में रायबरेली या अमेठी के किसी विधान सभा क्षेत्र से कांग्रेसी विधायक रहे ‘रामदेव’ (बाबा नहीं ) के खिलाफ़ जनता ने यह नारा बनाया और लगाया था । सब को पता है कि अमेठी से संजय गाँधी को रवीन्द्र प्रताप सिंह ने और रायबरेली से इन्दिरा गांधी को लोकबन्धु राजनारायण ने शिकस्त दी थी ।
अविभाजित उत्तर प्रदेश – सिफ़र , अविभाजित बिहार – सिफ़र , मध्य प्रदेश – एक ( समर्थित निर्दल – माधवराव सिंधिया) यह था मौलिक अधिकारों को १९ महीने निलम्बित रखने , प्रेस सेंसरशिप लगाने , जबरिया नसबन्दी अभियान चलाने वाली , आजादी के बाद से तब तक दिल्ली की कुर्सी पर काबिज रही कांग्रेस का १९७७ का चुनाव परिणाम ।
कल जब पीलीभीत से भारतीय जनता पार्टी के युवा उम्मीदवार वरुण ने बिना पार्टी के झण्डों के ( अलबत्ता विहिप के झण्डे रखने का ‘निर्देश’ था ) , वरिष्ट भाजपा नेता कालराज मिश्र की देखरेख में गिरफ़्तारी दी तब नारा लगा- ‘वरुण नहीं यह आंधी है,दूसरा संजय गांधी’ है’ । जबरिया नसबन्दी अभियान के पीछे की तानाशाही संविधानेतर सत्ता (मनमोहन सिंह या राजनाथ सिंह की तरह राज्य सभा सदस्य भी न था ) का नमूना था – संजय गांधी । उस अवधि को इन्दिराजी के प्रति नरम हुए विनोबा ने यदि ‘अनुशासन पर्व’ कहा तो सर्वोदयी मनीषी दादा धर्माधिकारी ने ‘दु:शासन पर्व’ कहा था । संजय गांधी जिसके बारे में किस्सा मशहूर हुआ था-‘गन्ना क्यों बोते हो,गुड़ बोओ’, मंच पर जिनकी चप्पलें नारायण दत्त तिवारी जैसा वरिष्ट नेता उठाता था और जिसे विलायत में पोलिटेकनिक की पढ़ाई के दौरान पुर्जों की चोरी में पकड़े जाने के कारण निकाल दिया गया था ।
उस दु:शासन पर्व के खिलाफ़ संघ के कार्यकर्ता भी सत्याग्रह कर जेल जाते थे जब तक जेल से बालासाहब देवरस ने ‘इन्दिराजी के बीस सूत्री कार्यक्रम’ (बेटे की पांच अलग) के समर्थन में चिट्ठी नहीं लिखी । क्या उसी समय से संजय गांधी को ‘अपने जी’ मान लिया गया था ? राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की ‘रंग में भंग’ की पंक्ति –‘योग्य से ही योग्य का सम्बन्ध होना योग्य था’ अब चरितार्थ हो रही है ।
उस परिवार से ‘गांधी’ जुड़ने का कारण जो व्यक्ति रहा , उसकी चर्चा न राहुल के लोग करते हैं और न ही संजय वाले । एक ‘फरहर’ सांसद के रूप में इस व्यक्ति के प्रति सम्मान का भाव उठता है । फिरोज गांधी सत्ताधारी दल के लोक सभा सदस्य होने के बावजूद ‘प्रेस की आजादी’ जैसे सवालों पर संसद को गरम रखते थे ।
वरुण की योग्य माता मानेका ने जरूर कांग्रेस की सिख विरोधी साम्प्रदायिकता की गंभीर चर्चा शुरु की थी लेकिन वह भी इसलिए थम गयी कि ‘संघ’ ने भी उस चुनाव में ‘हिन्दू-हित’ की पार्टी कांग्रेस को माना था और भाजपा लोक सभा के आम चुनाव में देश भर में सिर्फ़ दो सीटें जीत पाई थी । वरुण बाबा की उमर के लिहाज से भवानीप्रसाद मिश्र की यह ‘बाल-कविता’ शायद उन दिनों के बारे में उसे और राहुल को कुछ समझ दे :

चार कौए उर्फ़ चार हौए ,भवानी प्रसाद मिश्र

बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले ,
उन्होंने यह तय किया कि सारे उडने वाले
उनके ढंग से उडे,रुकें , खायें और गायें
वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं

कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बडे सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरुड और बाज हो गये.

हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में
हाथ बांध कर खडे हो गये सब विनती में
हुक्म हुआ , चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ – पिऊ को छोडें कौए – कौए गायें

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना – पीना मौज उडाना छुट्भैयों को
कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बडे – बडे मनसूबे आए उनके जी में

उडने  तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उडने वाले सिर्फ़ रह गए बैठे ठाले
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं , चार कौओं का दिन है

उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोडे में किस तरह सुनाना ?
भवानीप्रसाद मिश्र .

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