इस चिट्ठे पर मेरी पिछली पोस्ट पर जो टिप्पणियां आई हैं उनके अलावा फ़ेसबुक के जरिए भी कुछ मित्रों ने उस पर चर्चा की है । इस बहस में मेरे लेख की आलोचना में जो प्रमुख बाते कही गयी हैं उन्हें सब से पहले यहाँ एक साथ रख रहा हूँ :
* इस आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान क्यों न हो ?
* ये बड़े लोगों की चाल है छोटे लोगों को सत्ता से दूर रखने की.आखिर इनमें से कितनी महिलाएं खुद के बूते यहाँ पहुची हैं…कोई पति देव की वजह से तो कोई अपने फ़िल्मी दुकान से उठकर आया है…और कोई किसी राजघराने की पताका लहरा रही है…….* ये औरतें (सवर्ण) भी तो वैसे ही ही अपना मुकाम पा सकती हैं जैसा की आप कल्पना कर रहे हैं
* जो आज महिला आरक्षण का समर्थन कर रहीं हैं ज्यादातर वही महिलाएं हैं जिन्होंने दलित आरक्षण का विरोध किया था। इसी से समझा जा सकता है कि ये आरक्षण में आरक्षण का विरोध क्यों कर रही हैं।
* ये महिलायें अब क्यों नहीं कह रही कि आरक्षण के ज़रिए स्त्री-पुरुषों को आपस में लड़ाया जा रहा है , समाज को बाँटा जा रहा है ।
* गुस्सा आता है जब कोई किसी चीज को खुद के लिये तो मांगता है परन्तु दूसरों को देने पर तमाम तमाम तर्क पेश करता है ।
* आभा राठोर किस की वकालत करेंगी राठोर की या रुचिका की ?मालकिनें क्या दरियादिल हो कर अपनी कामवालियों को दुख सुनायेंगी ? मैनपुरी की ठकुराइनें क्या फूलन की मौत या बलात्कार पर आँसू बहायेंगी ? महिलाओं को एक वर्ग कहकर हम किसे ठग रहे हैं ?
इन आरोपों , आक्षेपों और आशंकाओं की बाबत बात करने के पहले आरक्षण से जुड़ी कुछ बुनियादी बातों पर गौर करें:
समाज में व्याप्त जाति और लिंग जैसे गैर बराबरी के आधारों पर व्याप्त एकाधिकार को विशेष अवसर (समान अवसर से गैर बराबरी बरकरार रहती है) की मदद से तोड़ने का एक साधन आरक्षण है।
जातिविहीन – लिंगभेदविहीन समाज की दिशा में यह एक साधन होता है । यह साध्य नहीं साधन है। इस साधन का उद्देश्य इन शोषित वर्गों को महत्वपूर्ण ओहदों पर नुमाइन्दगी देना है , उनकी गरीबी दूर करना या बेरोजगारी दूर करना नहीं (भले ही दूरगामी परिणाम के तौर पर इसका प्रतिफल यह हो)।
व्यक्ति या समूह जीवन के किसीआयाम में शोषक और किसी अन्य में शोषक हो सकता है। आम तौर पर खुद के या अपने समूह के समूह को शोषण को हम देख पाते हैं किन्तु जिस आयाम में हम शोषक की भूमिका में होते हैं वह नहीं देखना चाहते । मसलन उत्तर प्रदेश और बिहार में सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य अंग्रेजी – हटाओ , अलाभकारी जोत पर टैक्स न देने , जाति- तोड़ो और जातिगत आरक्षण के हक में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे किन्तु नर – नारी समता के कार्यक्रम तथा उसके लिए संगठन बनाने में फिसड्डी रहते थे । बहुत बाद में समता संगठन जैसे राजनैतिक समूहों ने अपने सक्रिय सदस्यों की आचार संहिता में पुरुष साथियों द्वारा १. घरेलू श्रम-साध्य काम में हिस्सा बँटाना,२.पत्नी को न पीटना जैसी शर्तें जोड़ीं ।
इसी प्रकार मंडल संस्तुतियों के खिलाफ़ फूटे आक्रोश में सवर्ण महिलाओं का एक बड़ा तबका आरक्षण विरोधी भावना से प्रभावित था । ये महिलायें जतिगत पिछड़ेपन का शिकार नहीं थीं।
बिहार के पीरो के पूर्व विधायक तथा लोहिया के अत्यन निकट सहयोगी रामइकबाल बरसी के शब्दों में ’ हमारे समाज में हर जाति की औरत कहारिन है’ । राम इकबालजी इसी लिए किसी भी घर में भोजन के बाद खुद थाली धोते हैं । काशी विश्वविद्यालय परिसर में नरेन्द्रनाथ तिवारी नामक एक चिकित्सक ने अपनी पत्नी वीणा तिवारी की जलाकर हत्या कर दी थी । हरिशंकर तिवारी जैसे जाति के बाहुबली मठाधीशों ने सिर्फ़ हत्यारे पुरुष की जाति देखकर गवाहों को धमकाने , पसन्दीदा जज की अदालत में मामले को डालने में अहम भूमिका अदा की। सामाजिक चेतना के सामूहिक प्रयास से ही दोषी को सजा मिल पायी ।
जगजीवन राम केन्द्र की हर सरकार में मन्त्री रहे और लम्बे समय तक देश के सबसे बड़े दलित नेता थे । इसके बावजूद उनके हाथों सम्पूर्णानन्द की प्रतिमा का अनावरण करने के बाद काशी के कट्टर पंडितों ने उसे गंगा जल से धोया था। जाति और लिंग के भेद मात्र आर्थिक उन्नति से समाप्त नहीं हो जाते हैं । उन्हें समाप्त करने के लिए विशेष प्रयास करने होते हैं ।
कोई पति देव की वजह से तो कोई अपने फ़िल्मी दुकान से उठकर आया है…और कोई किसी राजघराने की पताका लहरा रही है……. बिना आरक्षण के किन आधारों से महिलायें सत्ता में भागीदारी कर पाती थी यह निश्चित गौरतलब बात है ।
सच , गृहणियों और कामवालियों के बीच भी बहनापा होता है । मुम्बई में हुए
एक शोध पर गौर करें।
समाज के तमाम शोषित तबकों को एक वर्ग के रूप में संगठित करना आसान नहीं होता। उनमें आपसी द्वन्द्व पैदा करना ,बढ़ावा देना सरल होता है । नक्सलवादी छोटे किसान को भूमिहीन खेत मजदूर का वर्ग शत्रु बता कर लड़ा देता है । इन्हें लड़ा देना आसान है । पूरी खेती घाटे का धन्धा है,यह समझा कर िन दोनों तबकों को एकजुट कर व्यवस्था परिवर्तन के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना उतना सरल नहीं है, किन्तु वही जरूरी है ।
डॉ. लोहिया सामाजिक नीति पर सच्चे आन्दोलन की बाबत जो कल्पना रख गये उसके दो बिन्दुओं पर गौर करें :
” समाज के दबे हुए समुदायों में सभी औरतों को , द्विज औरतों समेत जो कि उचित ही है , शामिल कर लेने पर पूरी आबादी में इनका (पिछड़ों का) अनुपात ९० प्रतिशत हो जाता है। दबी हुई मानवता का इतना बड़ा समुद्र , हिन्दुस्तान के हर १० में ९ मर्द और औरतें , चुप्पी में ऊँघ रही हैं या , बहुत हुआ तो , जीवन्त प्रतीत होने वाली चिहुँक सुनाई पड़ जाती है । उनके दुबले पतले अंगों पर आर्थिक और राजनीतिक उन्नति से अपने आप कुछ चरबी चढ़ सकती है। “
…… ” इस बात पर बार बार ज़ोर डालना चाहिए कि नीची जातियों के सैंकड़ों लोग , जिन पर अन्यथा ध्यान नहीं जा पाता , उन पर पूर्व नियोजित नीति के द्वारा देना चाहिए , बन्सिबत उन दो वृहत्काया वालों के जो किसी न किसी तरह ध्यान आकर्षित कर ही लेते हैं । “
इन ”दो वृहत्कायों ’ के बारे में जून १९५८ में दिए अपने भाषण में (जाति प्रथा,राममनोहर लोहिया समता विद्यालय न्यास , पृष्ट ७६ ) में डॉ. लोहिया ने बताया है । आज लोहिया की नर्सरी से निकले तीन नेताओं तथा बसपा ने राज्य सभा में जो भूमिका अदा की उसे समझने में शायद इस अनुच्छेद से मदद मिलेगी :
” सारे देश के पैमाने पर अहीर , जिन्हें ग्वाला , गोप भी कहा जाता है , और चमार , जिन्हें महार भी कहा जाता है , सबसे ज्यादा संख्या की छोटी जातियाँ हैं । अहीर तो हैं शूद्र , और चमार हैं हरिजन । हिन्दुस्तान की जाति प्रथा के ये वृहत्काय हैं , जैसे द्विजों में ब्राह्मण और क्षत्रिय ।अहीर, चमार , ब्राह्मण और क्षत्रिय , हर एक २ से ३ करोड़हैं । सब मिलाकर ये हिन्दुस्तान की आबादी का ये के करीब १० से १२ करोड़ हैं । फिर भी इनकी सीमा से हिन्दुस्तान की कुल आबादी के तीन चौथाई से कुछ कम बाहर ही रह जाते हैं । कोई भी आन्दोलन जो उनकी हैसियत और हालत को बदलता नहीं , उसे थोथा ही मानना चाहिए । इन चार वृहत्कायों की हैसियत और हालत के परिवर्तन में उन्हें ही बहुत दिलचस्पी हो सकती है पर पूरे समाज के लिए उनका कोई खास महत्व नहीं है । “
फूलन पर किए गए अत्याचार और उसके द्वारा की गई हत्याएं सभ्य समाज के अनुरूप नहीं थी। अपने क्षेत्र से काफ़ी दूर भदोही आकर जब फूलन ने संसदीय चुनाव में हिस्सा लिया तब उनके प्रतिद्वन्द्वी वीरेन्द्र पहलवान ने मैंनपुरी की विधवाओं को चुनाव में घुमाया था । चुनाव परिणाम फूलन के हक में था। हालांकि पिछड़ी महिला के लिए आरक्षण की उन्हें जरूरत नहीं पड़ी थी।
* गुस्सा आता है जब कोई किसी चीज को खुद के लिये तो मांगता है परन्तु दूसरों को देने पर तमाम तमाम तर्क पेश करता है । – हर अन्याय के खिलाफ़ गुस्सा आना जरूरी है ।
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