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Archive for the ‘globalisation’ Category

कांग्रेस और भाजपा को विदेशी चंदा हासिल करने के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था।इस फैसले को इन दलों ने संसद में कानून बदल कर बेअसर कर दिया।माकपा के कार्ड होल्डर प्रबीर पुरकायस्थ को चीन नहीं अपितु अमेरिकी संस्था से धन मिला और न्यूज़क्लिक इसे प्रत्यक्ष पूंजी निवेश कह रही है।चुनाव में प्रत्याशी के खर्च की सीमा है किंतु दलों के खर्च की न तो सीमा है और न ही दलों द्वारा चुनाव में खर्च चुनाव मशीनरी को जमा करना पड़ता है।दलों द्वारा चुनाव में खर्च की सीमा हो अथवा नहीं इस विषय पर चुनाव आयोग ने दलों की बैठक बुलाई थी।इस बैठक में 43 दलों ने भाग लिया था।इनमें से 42 ने चुनावों में दलों के खर्च की सीमा निर्धारित करने की बात कही थी।43वां दल भाजपा था जिसने दलों द्वारा चुनाव में खर्च की सीमा तय करने का विरोध किया था।दलों को चंदे का स्रोत बताने की अनिवार्यता न हो यह सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा है।दलों को अज्ञात स्रोतों से असीमित चंदा मिलने की इजाजत राजनीति में काले धन को वैधता प्रदान करती है।

अफ़लातून,

संगठन सचिव,

समाजवादी जन परिषद (पंजीकृत राजनैतिक दल)

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मानव समाज में खेती का स्थान तीन कारणों से महत्वपूर्ण रहा है,रहेगा। (1)पहला कारण वह है जो अधिकांशतः चर्चा में आता है ।तमाम औद्योगिकरण और विकास के बावजूद आज भी मानव जाति का अधिकांश हिस्सा गांवों में रहता है और अपनी जीविका के लिए खेती,पशुपालन आदि पर आश्रित है। भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में आज भी रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत खेती व पशुपालन ही है।किंतु खेती का महत्व महज इस सांख्यिकीय कारण से ही नहीं है। दो और ज्यादा महत्वपूर्ण और बुनियादी कारण हैं। (2) दूसरा कारण यह है कि खेती से ही मनुष्य की सबसे बुनियादी जरूरत भोजन की पूर्ति होती है। अभी तक खाद्यानों का कोई औद्योगिक या गैर खेती विकल्प आधुनिक टेक्नोलॉजी नहीं ढूढ पायी है और भविष्य में इसकी संभावना भी नहीं है। इसलिए जब स्वाभिमानी और जागरूक समाज या राष्ट्र खाद्य स्वालंबन की रणनीति बनाते हैं या अंतरष्ट्रीय कूटनीति में खाद्य आपूर्ति को एक औजार बनाया जाता है, तो खेती का महत्व अपने आप स्पष्ट हो जाता है। (3) खेती के साथ एक तीसरी विशेषता यह है कि मनुष्य समाज की आर्थिक गतिविधियों में यहीं ऐसी गतिविधि है, जिसमें वास्तव में उत्पादन और नया सृजन होता है। प्रकृति की मदद से किसान बीज के एक दाने से बीस से तीस दाने तक पैदा कर लेता है।उधोगों, सेवाओं आदि अन्य आर्थिक गतिविधियों में प्रायः कोई नया उत्पादन नहीं होता है,पहले से उत्पादित पदार्थों(जिसे कच्चा माल कहा जाता है)का रूप परिवर्तन होता है।उर्जा या कैलोरी की दृष्टि से भी देखें ,तो जहाँ अन्य आर्थिक गतिविधियों में ऊर्जा की खपत होती है,खेती और पशुपालन में उर्जा(या कैलोरी )का सृजन होता है।खेती में वानिकी और खनन को भी जोड़ा जा सकता है,वे भी प्रकृति से जुड़े हैं, हलाकि एक सीमा से ज्यादा से ज्यादा खनन विनाशकारी हो सकता है। इसमें मार्के की बात प्रकृति का योगदान है।खेती में प्रकृति मानव श्रम के साथ मिलकर वास्तव में सृजन करती है।
इन तीन विशेषताओं के कारण मानव-समाज में खेती आदि का महत्व बना रहेगा।किन्तु आधुनिक सभ्यता और पूँजीवादी समाज में इन तीनों विशेषताओं को नकारने और पलटने की कोशिश हो रही है।ग्लोबीकरण ने इस प्रवृत्ति को और तेज किया है,जिससे नए संकट खड़े हो रहे हैं।खेती की जनई टेक्नोलॉजी इतनी आक्रामक है कि वह प्रकृति से जुड़ी इस गतिविधि को प्रकृति के विरुद्ध खड़ी कर रही,जिससे जल भंडार खाली हो रहें हैं, भूमि का कटाव, बंजरिकरण या दलदलीकरण हो रहा है,अधिकाधिक ऊर्जा की खपत हो रही है, वातावरण में विष घुलते जा रहे हैं और जैविकविविधता का तेजी से ह्रास हो रहा है।खेती में कीटों व रोगों का प्रकोप बढ़ा है,जोखिम बढ़ी है और पैदवार में ठहराव आ गया है। उतनी ही पैदवार के लिए किसान को निरन्तर बढ़ती हुई मात्रा में रसायनिक खाद ,कीटनाशक दवाईयों तथा पानी का इस्तेमाल करना पड़ रहा है।किसान के संकट का एक स्रोत आधुनिक टेक्नोलॉजी है।इसी प्रकार खाद्य आपूर्ति एवं खाद स्वावलम्बन के स्रोतों के बजाय अब खेती को तेजी से पूँजीवादी बाज़ार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की न मिटने वाली भूख की रणनीति का एक पुर्जा बनाया जा रहा है।भारत जैसे तमाम देशों को यह सिखाया जा रहा है कि उन्हें अपनी जरूरत के अनाज,दालें व खाद्य तेल पैदा करने की जरूरत नहीं है, दुनिया मे जहाँ सस्ता मिलत है वहाँ से ले लें।इसी करण पिछले तीन चार सालों में ही यह हालत आ गई है कि जिस भारत के गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं होती थी, उसे इस वर्ष भारी मात्रा में गेहूं आयात करना पड़ रहा है।खाद्य तेल का आयात तो पहले ही कुल खपत के आधे स्तर पर पहुँच गया है।अफ्रीका के लोग भी पहले अपनी जरूरत का अनाज स्वयं पैदा कर लेते थे।लेकिन यूरोप के गुलामी के दौर में वहाँ की खेती को इस प्रकार बदला व नष्ट किया गया कि अब वहां बारंबार भीषण अकाल पड़ते हैं।
भारत में हरित क्रान्ति की खुशहाली कुछ क्षेत्रों, कुछ वर्गों और कुछ फसलों तक सीमित रही।लेकिन इस सीमित खुशहाली के दिन भी अब लद गए।जिस विश्व बैंक ने अपने पहले नई टेक्नोलॉजी के प्रचार प्रसार के लिए सभी आवश्यक उपादान(उन्नत बीज, रसायनिक खाद, कीटनाशक दवाइयां, सिचाई, बिजली, डीजल, आधुनिक कृषि यंत्र) सरकार द्वारा सस्ते व अनुदानयुक्त देने की सिफारिश की थी, उसी ने रंग बदल दिया।वर्ष 1991 के बाद विश्व बैंक और अंतरष्ट्रीय कोष के निर्देश में भारत सरकार ने अनुदानों को कम करते हुए क्रमशः इन सारे उपक्रमों को महंगा करने के रणनीति अपनाई । दूसरी ओर विश्व व्यापार संगठन के स्थापना के साथ ही खुले आयात की नीति के चलते कृषि उपज के सस्ते आयात ने भारतीय किसानों की कमर तोड़ दी।बढ़ती लागत और कृषि उपज के घटते (या पर्याप्त न बढ़ते) दामों के दोमों के दोनों पाटो के बीच भारतीय किसान बुरी तरह पिसने लगे। खेती घाटे का धंधा पहले से था,लेकिन अब यह घाटा तेजी से बढ़ने लगा और किसान कर्ज में डूबने लगे।संकट इतना गहरा हो गया कि किसान देश के कई हिस्से में और कोई चारा न देख बड़ी संख्या में आत्म हत्या करने लगे पिछले छ सात वर्षों से किसानों की आत्म हत्या का दौर लगातार जारी है।यह एक अभूतपूर्व स्थिति है जो जबरदस्त संकट का घोतक है।किन्तु इससे अप्रभावित भारत की सरकारें ग्लोबीकरण प्रणीत सुधारों की राह पर आगे बढ़ती जा रही हैं।भारत के छोटे और मध्यम किसान या तो आत्म हत्या कर लें या उनकी जमीने नीलाम हो जाय या वे स्वंय जमीन बेचने को मजबूर हो जाय, यह सुधारों का एक अघोषित एजेंडा है,क्यों कि जमीन कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हो जाय, जमीन की जोट बढ़ जाय और कम्पनियों के सीधे या अप्रत्यक्ष नियंत्रण में आ जाय-यह कथित सुधरों का एक लक्ष्य है। इन्हीं सुधारों के अंतर्गत जमीन की हदबन्दी के कानून शिथिल किया जा रहा है,नए बीज कानून और पेटेंट कानून बनाए जा रहे हैं,जमीन की खरीद फरोख्त से लेकर बीज आपूर्ति,कंट्रैक्ट खेती, विपणन आदि खेती की सभी गतिविधियों में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुली छूट दी जा रही है और सारी चिंताओ और चेतावनियों को ताख पर रखकर जीन समिश्रन खेती की अनुमति दी जा रही है।इस प्रकार खेती को कम्पनीयों के हाथ में सौपने तथा खेती से जुड़ी आबादी को भी कम करने का एक बर्बर अमानवीय अभियान चल रहा है।किंतु एक अहम सवाल इस अंधी दौड़ में भुला दिया जा रहा है।यूरोप-अमेरिका में जब खेती से आबादी को विस्थापित किया गया तो वह औद्योगिक क्रांति और गोरे लोगों द्वारा दुनिया के विशाल भूभाग पर कब्जे की प्रक्रिया में खप गई।लेकिन भारत जैसे देश में खेती में लगी आबादी कहाँ जायगी ?क्या भारत के उधोगों में और शहरों में उनके खपाने की क्षमता है?क्या देश में बेरोजगारी पहले से चरम सीमा पर पहुँच नहीं गई है?
संक्षेप में,भारतीय खेती के संकट के तीन आयाम हैं: (1) आधुनिक पूंजीवादी विकास में खेती को एक आंतरिक उपनिवेश के रूप में पूँजी निर्माण का स्रोत बनाना (2) हरित क्रांति के भ्रामक नाम से एक अनुपयुक्त,साम्रज्यवादी ,किसान विरोधी व प्रकृतिक-विरोधी टेक्नोलॉजी थोपना और (3) ग्लोबीकरण के तहत किसानों पर हमले तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कब्जे की प्रक्रिया को और तेज करना।कहने की जरूरत नहीं है कि ये तीनों आयाम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक बड़ी प्रक्रिया के हिस्से हैं।
भारतीय खेती पर बढ़ते इस संकट ने पिछले तीन दशकों में अनेक सशक्त किसान आंदोलनों को जन्म दिया। तमिलनाडु, कर्नाटक ,महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों में लाखों की संख्या में किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर निकले।बाद में उड़ीसा,राजस्थान आदि प्रान्तों में भी किसानों के शसक्त आंदोलन उभरे।ये आंदोलन ज्यादातर मुख्य धारा के राजनीति दलों के बाहर, अलग एवं स्वतंत्र रहे।किसान आंदोलन ही नहीं ,इस अवधि के सभी जनांदोलन प्रमुख राजनीतिक दलों के दायरे से बाहर रहे,जिससे जाहिर होता है कि ये दल आम जनता से कटते गए और उनकी समस्याओं के संदर्भ में अप्रसांगिक बन गए। कहने को ज्यादातर मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों के किसान प्रकोष्ठ या मंत्र हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी पार्टी तंत्र से बाहर आकर किसान हित मे आंदोलन नहीं किया।
किशन पटनायक इस काल के भारत के प्रमुख समाजवादी चिन्तक और कर्मी रहे हैं। भारतीय राजनीति में जनांदोलनों की बढ़ती भूमिका को उन्होंने बहुत पहले पहचाना ,समझा, उनसे एक रिश्ता बनाया और उन्हें एक वैचारिक दिशा देने की कोशिश की।किसान आंदोलन के वे प्रबल समर्थक रहे।व्यवस्था परिवर्तन की किसी भी प्रक्रिया में वे किसान और किसान आंदोलनों की महत्वपूर्ण भूमिका मानते थे।वे किसान आंदोलन के इस पूरे दौर के भगीदार ,गवाह, नजदीक के पर्वेक्षक तथा हस्तक्षेप करने के इक्छुक रहे।इस प्रक्रिया में उन्होंने समय-समय पर लेख लिखे, भाषण दिए और टिप्पणियां कीं। उनमें प्रमुख लेखों एवं भाषणों का संकलन इस पुस्तक में किया गया है। इनसे हमें भारत के किसान आंदोलन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां, अंतरदृष्टि और समझ मिलती है। पुस्तक के पहले खण्ड में भारत का किसान आंदोलन के क्रम में महत्वपूर्ण घटनाओं की एक झांकी मिलती है।दक्षिण के किसान आंदोलन पर तो हिंदी में जानकारी दुर्लभ है। वोट क्लब की ऐतिहासिक रैली में टिकैत-शरद जोशी का झगड़ा भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था। इस प्रसंग पर भी किशन पटनायक का एक महत्वपूर्ण लेख है, जिसमें किसान आंदोलन की प्रमुख कमजोरियों को भी इंगित किया गया है। दूसरे खण्ड के लिखों से किसान आंदोलन की वैचारिक दृष्टि ,रणनीति और राजनीति के बारे में सम्यक विश्लेषक मिलता है, जो भावी किसान आंदोलन के लिये भी काफी मददगार हो सकता है,वैसे भी, भारत के किसान आंदोलन पर अच्छी पुस्तकें नहीं के बराबर हैं।डॉ ईश्वरी प्रसाद द्वारा संपादित एक पुस्तक ‘भारत के किसान ‘दस वर्ष पहले प्रकाशित हुई थी,वह भी अप्राप्य है।यानी किशन पटनायक की यह शिकायत सही है कि भारत के बौद्धिक वर्ग ने किसान आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया है। इस दृष्टि से भी किशन पटनायक की यह पुस्कट एक महत्वपूर्ण अभाव को पूरा करती है।
अस्सी और नब्बे के दशक में भारत में बड़े-बड़े किसान आंदोलन हुए।किसानों के बड़े-बड़े धरने और रैलियां ह
हुईं, जिनमें लाखों किसानों ने भाग लिया। किसानों का शोषण, कृषि उपज का उचित दाम न मिलना,किसानों पर बढ़ता कर्ज, किसानों पर बढ़ते हुए शुल्क, बिजली के बढ़ते बिल आदि उनके प्रमुख मुद्दे थे।लेकिन इतने सख्त आन्दोलनों के बावजूद आजाद भारत के किसान की क्या स्थिति है?किसान आन्दोलनों की जो प्रमुख मांगे थीं, वे पूरी होना तो दूर हालत उल्टी होती गई,किसान की दुर्गती बढ़ती गई।ग्लोबिकरण कि नीतियों ने उसे बड़ी संख्या में आत्म हत्याओं के कगार पर पहुँचा दिया। किसान आंदोलनों की तीव्रता भी धीरे-धीरे कम होती गई। वे ठंठे हो गये,कमजोर हो गए या बिखरते चले गए।ऐसा क्यों हुआ, इसके तटस्थ मूल्यांकन का समय आ गया है।
आम तौर पर किसी आंदोलन की असफलता के लिए इसके नेतृत्व तथा कुछ व्यक्तियों को दोषी ठहरा दिया जाता है लेकिन यह सरलीकरण और सतही विश्लेषण ही होता है गहराई से देखें तो इसके दो प्रमुख कारण थे। एक तो, किसान आंदोलनों में आम तौर पर व्यापक वैचारिक परिप्रेक्ष्य, दिशा और समझ का अभाव रहा।वे अपनी तत्तकालीन संकीर्ण मांगों में ही उलझे रहे।किसानों की स्थिति और किसानों के शोषण की ऐतिहासिक रूप से पड़ताल करते हुए गहराई से विशलेषण करने की जरूरत उन्होंने नहीं समझी।ऐसा विश्लेषण उन्हें इस अनिवार्य नतीजे पर पहुचाता की पूरी व्यवस्था को बदले वगैर किसानों की मुक्ति सम्भव नहीं है।इससे किसान आंदोलनों का चरित्र ज्यादा क्रांतिकारी बनता, दूसरा किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए सरकारी नीतियों को बदलने और सत्ता को प्रभावित करने की संयुक्त रणनीति तथा योजना उन्होंने नहीं बनाई। यदि वे ऐसा करते, एक तो उन्हें देश के समस्त किसान आन्दोलनों को एकजूट करने की जरूरत का ज्यादा तीव्रता से अहसास होता। दूसरे, देश के अन्य शोषित और वंचित तबकों के आन्दोलनों के साथ एकता बनाने की जरूरत महसूस होती। साथ ही,किसानों की और शोषितों की एक अलग राजनीति खड़ी करने की दिशा में वे कदम बढ़ाते। यदि सरकारें बार-बार किसान विरोधी नीतियां अपना रही हैं, तथा दल परिवर्तन से सरकार की नीतियों में कोई फर्क नहीं आ रहा है,तो वे स्वयं किसान पक्षी राजनीतिक ताकत खड़ी करने के बराबर में गंभीरता से सोचते।किशन पटनायक ने इन दोनों आवश्यकताओं को अपने लेखन एवं भाषणों में बार-बार,अलग-अलग तरीकों से,अलग अलग रूपों में,प्रतिपादित किया है।
इस अर्थ में किसान आंदोलन एवं किसान संगठन राजीनीति से परे या अराजनीतिक नहीं रह सकते वे मौजूदा भ्रष्ट ,अवसरवादी,यथास्थितिवादी, निहित स्वार्थों वाले राजनीतिक दलों से अलग रहें, यह तो ठीक है।लेकिन उन्हें अपनी राजनीति बनानी पड़ेगी,नहीं तो ये ही दल उनका इस्तेमाल चुनाव में तथा अन्ययत्र अपनी ओछी व टुच्ची राजनीति के लिए करते रहेंगे। चुकी किसानों के स्वार्थ इस व्यवस्था के दूसरे समूहों के स्वार्थ से टकराते हैं, इसलिए किसान आंदोलन को अपनी राजनीति व रणनीति गढ़ना होगा।
किसान आंदोलन संकीर्ण भी नहीं हो सकता।वह एक ट्रैड यूनियन की तरह नहीं चलाया जा सकता, इस बात को भी किशन पटनायक ने रेखांकित किया है।।संगठित मजदूरों का आंदोलन संकीर्ण हो सकता है! एक फ़ैक्टरी के मजदूरों का वेतन मौजूदा व्यवस्था के अन्दर बढ़ सकता है ;व्यवस्था परिवर्तन के वगैर वह सम्भव है।लेकिन किसानों की आमदनी मौजूदा व्यवस्था में नहीं बढ़ सकती।इसका कारण न केवल यह है कि किसानों का तादाद बहुत ज्याद है और वे देश के आबादी का खास एवं सबसे बड़ा हिस्सा हैं। बल्कि यह भी है कि किसानों और गांव खेती के शोषण पर यह पूरी व्यवस्था टिकी है।इसलिए किसान आंदोलन को अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए परिवर्तनवादी और क्रांतिकारी बनना ही पड़ेगा।
वैसे तो, मानव इतिहास की सारी नगरी सभ्यताएं व बड़े-बड़े साम्रज्य किसानों के शोषण पर ही आधारित थे बड़े-बड़े मंदिर, राजाओं और सामंतों के महल, उनकी ऐयासी, सेनाएं ,युद्ध सबका बोझा अंततः किसान ही उठाते थे।ज्यादा लगान व अत्याचार जब बर्दाश्त से बाहर हो जाते थे, तो कभी-कभी किसान विद्रोह भी होते, किन्तु ये विद्रोह तत्कालीन और स्थानीय होते थे। वे या तो दबा दिए जाते या कुछ राहत मिलने पर शांत हो जाते थे। औद्योगिक पूंजीवाद के साथ ही किसानों के शोषण ने पहली बार सार्वदेशिक तथा विकराल रूप धारण किया है।
18 वीं शताब्दि से यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ जिस पूंजीवाद का विकास हुआ है,उसमें औपनिवेशिक शोषण अंतर निहित और अनिवार्य पूंजीनिर्माण के लिए अतिरिक्त मूल्य का स्रोत सिर्फ फैक्ट्री मजदूरों का शोषण नहीं है, बल्कि दुनिया के उपनिवेशों के किसानों और मजदूरों का शोषण है, इसे रोजा लग्जमबर्ग और राममनोहर लोहिया ने अच्छी तरह समझाया है।उपनिवेशों के आजाद होने के बाद यह शोषण नव औपनिवेशिक तरीकों से जारी रहा है।देश के बाहर के उपनिवेशों या नव उपनिवेशों के शोषण मौक़ा नहीं मिलने पर पूंजीवाद देश के अंदर उपनिवेश खोजता है। सचिदानंद सिन्हा तथा किशन पटनायक ने इसे ‘आंतरिक उपनिवेश ‘ का नाम दिया है।पिछड़े और आदिवासी इलाके भी आंतरिक उपनिवेश हो सकते हैं लेकिन गांव और खेती भी एक प्रकार के आंतरिक उपनिवेश हैं।गांव और खेती में पैदा होने वाली चीजों के दाम कम रखकर, गांव के उधोग खत्म करके उन्हें कारखनिया माल का बाजार बनाकर गांव में विशाल बेरोजगारी एव कंगाली पैदा करके उधोग के लिये सस्ता श्रम जुटाकर ,तथा गांव और खेती को तमाम तरह की सुविधाओं व विकास से वंचित रखकर ही औद्योगिकरण तथा पूँजीवादी विकास संभव होता है और हुआ है। इसलिए आधुनिक पूँजीवादी औद्योगिक विकास में गांव खेती का शोषण अनिवार्य है।किसान मुक्ति के किसी भी आंदोलन को अंततः इस’ विकास ‘ और इस पर आधारित आधुनिक सभ्यता पर सवाल खड़े करने होंगे तथा इसके खिलाफ बगावत करनी होगी।इस वैचारिक परिप्रेक्ष्य के अभाव में किसान आंदोलन आगे नहीं बढ़ पाएंगे, दिशाहीन होकर ठहराव के शिकार हो जायेगें।
भारत का ही उदाहरण ले। जवाहरलाल नेहरु के प्रधानमंत्री रहते अर्थशास्त्री एवं संख्यकीविद प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने दूसरी पंचवर्षीय योजना से देश में भारी उधोगों के विकास की जो योजना बनाई।वह खेती गांवो को शोषित वंचित रखने की रणनीति पर ही आधारित थी। सरकारी और निजी क्षेत्र ,दोनों में औद्योगिकरण को बल देने के लिये सस्ता कच्चा माल और सस्ता श्रम मिले, मजदूरों को अधिक मजदूरी न देनी पड़े इसके लिए खाद्यानों के दाम भी कम रखे जाये–यह महालनोबिस मॉडल में अंतरनिहित था।नतीजा यह हुआ की भारत के जिन किसानों ने आजादी के आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया तथा जो इस आंदोलन के मुख्य आधार थे,वे शोषित वंचित बने रहे तथा कंगाली और बदहाली से आजाद नहीं हो पाए।ऐसे ही धोखा सोवियत क्रांति के बाद वहाँ के किसानों के साथ हुआ।जब स्तालिन के नेतृत्व में सामूहिक फार्म बनाने के लिए किसानों से जबर्दस्ती जमीन छीन ली गई और विरोध करने वाले असंख्य किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया।गांव और किसान को वंचित रखके ही भारी औधोगीकरण, सेना एवं शस्त्र निर्माण तथा अन्तरीक्ष अभियान का कार्यक्रम सोवियत संघ में चलता रहा। चीनी क्रांति तो मुख्यतः किसानों की ही क्रांति थी। इसने चीन में साम्यवाद को एक नया और खाटी देशी रूप दिया।लेकिन औद्योगिक विकास का वही पूँजीवादी विचार ही हावी होने के कारण अंततः चीन भी तेजी से पूँजीवादी ग्लोबीकरण की राह पर जा रहा है।वहाँ भी बहुत तेजी से एवं बहुत बड़े पैमाने पर किसानों और गांवों को कंगाली, बेरोजगारी, बदहाली और विस्थापन का शिकार होना पड़ रहा है।
कुल मिलाकर,किसानों की मुक्ति के लिए आधुनिक औद्योगिक सभ्यता से मुक्ति होगा और एक गांव केंद्रित, विकेन्द्रित, नई सभ्यता की तलाश करना होगा।किशन पटनायक की विशेषता यह है कि वे सिर्फ किसान संगठन के विविध आयामों की ही पड़ताल नहीं करते और मौजूदा व्यवस्था की महज आलोचना ही नहीं करते, विकल्प व समाधान भी खोजते चलते हैं। किसान विद्रोह का घोषणा पत्र और किसान राजनीति के सूत्र नामक लेखों में वे किसानों की दृष्टि से भावी समाज की रचना के कुछ सूत्र भी पेश करते हैं।तारतम्य में वे पूंजीवाद के एक गैर मार्क्सवादी विकल्प की तलाश का आह्वान करते हैं ,क्योंकि मार्क्सवाद उस उत्पादन प्रणाली से बहुत ज्यादा जुड़ा है, जिसमें कृषि व किसानों का शोषण निहित है।
विचारों के स्तर पर पुरानी मान्यताओं व पुराने ढांचे को खंडित करने और नए विकल्पों की तलाश करने का काम किसान आंदोलन के नेतृत्व को करना होगा और जागरूक बुद्धजीवियों को करना होगा।इस मामले में भारत के बुद्धिजीवियों और शास्त्रों की कमियां तथा असफलता किशन पटनायक को काफी कचोटती हैं।उनकी विसंगतियों और अपनी पीड़ा को किशन पटनायक ने ‘कृषक क्रांति’ और शास्त्रों का अधूरापन नामक लेख में व्यक्त किया है।
जब हम ‘किसान’ की बात करते हैं, तो उससे क्या आशय है?किसान की परिभाषा में खेत में काम करने वाला मजदूर शामिल है या नहीं है ? भूमि के मालिक किसान और भूमिहीन मजदूर के हित भिन्न एवं परस्पर विरोधी हैं या उनमें कोई एकता हो सकती है? ये प्रश्न किसान आंदोलन के संदर्भ में बार-बार सामने आते हैं।किशन पटनायक का मानना है कि किसान और खेतिहर मजदूर द्वन्द तो है,लेकिन यह बुनियादी द्वंद नहीं है।जो किसान आंदोलन नव औपनिवेशिक शोषण और आंतरिक उपनिवेश के वैचारिक परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखेगा, वह उससे संघर्ष के लिए खेतिहर मजदूरों को अपने साथ लेने का प्रयास करेगा।यदि किसान और खेतिहर मजदूर एक हो गए ,तो बड़ी ताकत पैदा होगी,जो पूंजीवाद, साम्रज्यवाद, ग्लोबीकरण और साम्प्रदायिकता का मुकाबला कर सकेगी।पुस्तक के अंतिम दो लेखों में किशन पटनायक ने इस प्रश्न को सुंदर तरीके से संबोधित किया है।
अस्सी के दशक के अंत में भारत में किसान आंदोलन अपने शिखर पर था।कर्नाटक में प्रो. एम. डी. नंजुदास्वामी के नेतृत्व में, महाराष्ट्र के शरद जोशी के नेतृत्व में और पश्चिमी उत्तर प्रदेश ,हरियाणा, पंजाब में महेंद्र सिंह टिकैट के नेतृत्व में किसान आंदोलन की एक जबरदस्त लहर चल रही थी।इन आंदोलनों की एकता और समन्वित कार्यवाही देश इतिहास को एक नया मोड़ दे सकती थी।लेकिन यह ऐतिहासिक मौका हाथ से चला गया। 2 अक्टूबर 1989 को दिल्ली की वोट क्लब की विशाल रैली में मंच पर हुए विवाद की घटना मानो एक संकेत थी। इसके बाद से किसान आंदोलनों का ज्वार उतरने लगा।ऐसा क्यों हुआ ,इसको जानने के लिए जिज्ञासु अध्येताओं को इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि ,उनके सामाजिक आधार ,नेतृत्व, विचारधारा ,घटनाओं और परिस्थितियों का विस्तार से अध्ययन करना पड़ेगा। उन्हें किशन पटनायक के इस पुस्तक से मद्दद और महत्वपूर्ण संकेत मिलेंगे।
इस संदर्भ में एक प्रसंग का जिक्र करना मौजू होगा।संभवत वोट क्लब रैली के पिछले वर्ष की बात होगी,जब किसान संगठनों की अंतरराज्यीय समन्वय समिति का गठन हो गया था।इस समिति की बैठक नागपुर में हुई, जिसमें महाराष्ट्र, कर्नाटक ,गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा, मध्यप्रदेश आदि के प्रतिधिनि मौजूद थे, किन्तु बैठक नागपुर में होने के कारण महाराष्ट्र के प्रतिनिधि ज्यादा थे।इस बैठकर में कुछ प्रतिनिधियों के द्वारा शेतकरी संघटना द्वारा अनाज व कपास की खेती छोड़कर किसानों को यूकेलिप्टस की खेती करने का आह्वान पर सवाल उठाए गए।किशन पटनायक भी इस बैठक में मौजूद थे। उन्होंने कहा कि किसान चुकी देश का सबसे बड़ा तबका है, उसका स्वार्थ देश से अलग नहीं हो सकता।उसे देश के स्वार्थ के बारे में भी सोचना पड़ेगा।किशन पटनायक ने यह भी कहा कि किसानों के बेहतरी के लिए सिर्फ कृषि उपज के ज्यादा दाम मांगने से बात नहीं बनेगी।औधोगिक दामों पर नियंत्रण की मांग करनी पड़ेगी।इसका मतलब है कि पूरी व्यवस्था को बदलने की बात सोचनी पड़ेगी। एक समग्र नीति बनानी पड़ेगी। किसानों के नजरीय से विकास नीति कैसी हो ,उधोग नीति कैसी हो, शिक्षा नीति कैसी हो, प्रशासन व्यवस्था कैसी हो-सबकी रूप रेखा बनानी पड़ेगी और सबके बारे में सोचना पड़ेगा।किन्तु शरद जोशी और उनके जिंसधारी सिपहसलारों ने किशन पटनायक की बात बिलकुल नहीं चलनी दी।उनका कहना था कि कृषि उपज का दाम ही सब कुछ है।किसानों का सही दाम मिलने लगे, तो सब ठीक हो जाएगा। किशन पटनायक के विचारों पर आगे चर्चा व बहस भी बैठक में नहीं होने दी गई।काश ! यदि किशन पटनायक की बात पर किसान आंदोलनों के नेताओं ने गौर किया होता और अपने आन्दोलनों को उस दिशा में ढाला होता तो, न केवल किसान आंदोलनों का,बल्कि देश का इतिहास भी कुछ दूसरा हो सकता था। किन्तु आगे की प्रवृत्तियों के लक्षण यहीं दिखने लगे थे।शरद जोशी के बाद ग्लोबीकरण, उदारीकरण और बाजारवाद के पक्के समर्थक साबित हुए।इसलिए शायद वे उस बैठक में बहस से बचना चाहते थे।शरद जोशी ने किसानों को सब्जबाग दिखाए की मुक्त व्यापार नीतियों से उनके उपज का निर्यात बढ़ेगा और उन्हें आकर्षक दाम मिलेंगे।लेकिन हुआ ठीक उल्टा।कृषि उपज का आयात बढ़ा तथा घरेलू मंडियों में भी दाम गिर गए। शरद जोशी तो उन्नति करते हुए राज्य सभा सदस्य बन गए और ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ के अध्यक्ष बन गए, किन्तु महाराष्ट्र के किसान आत्महत्याओं की कगार पर पहुँच गए। अंतरराष्ट्रीय बाजार आखिरकार शरद जोशी की सदिच्छाओं से काम नहीं करता, ताकतवर पश्चिमी देशों, उनके विशाल अनुदानों और उनकी विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के स्वार्थो के मुताबिक काम करता है।किसान आन्दोलनों के लिए यह एक महत्वपूर्ण सबक है।
किशन पटनायक आज हमारे बीच में नहीं हैं। किन्तु उनके विचारों और विश्लेषण से किसान आंदोलन को एक नई दिशा मिल सकेगी, साथ ही परिवर्तन चाहने वाले सभी व्यक्तियों व समूहों की समझ भी समृद्ध होगी, इसी आशा और विश्वास के साथ यह छोटी-सी पुस्तक पाठकों की सेवा में पेश है।

सुनील

7 जून 2006

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इस बुरे वक्त में
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राजेन्द्र राजन की कविता
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दुनिया-भर की दूरबीनों
खुफिया-कैमरों और रडारों
पाताल तक खंगाल डालनेवाली पनडुब्बियों
आसमान को कंपा देनेवाले लड़ाकू विमानों
अंतरिक्ष तक मार कर सकने वाली मिसाइलों
सुरक्षा के और भी तमाम इंतजामों
को मुंह चिढ़ाता हुआ
समंदरों और पहाड़ों को लांघता हुआ
सरहदों और संप्रभुताओं पर हंसता हुआ
आ गया है
सबका नया शत्रु
क्या यह अहसास कराने के लिए
कि हमारी सारी तैयारी किसी और मोर्चे पर है
जबकि सबसे ज्यादा खतरा कहीं और है?
नया शत्रु कितना ताकतवर है
कि देखते-देखते दुख के पहाड़ खड़े कर देता है
तरक्कियों को तबाह कर देता है
पल-भर में जगमग शहरों को वीरान कर देता है
वह इतना ताकतवर है फिर भी कितना छोटा
कि नजर नहीं आता
जैसे कोई अदृश्य बर्बरता हो जो सब जगह टूट पड़ी है
एक विषाणु विचार की तरह सूक्ष्म
फैल जाता है दुनिया के इस कोने से उस कोने तक
क्या कुछ विचार भी विषाणुओं की तरह नहीं होते
जो संक्रमण की तरह फैल जाते हैं
जो अपने शिकार को बीमार बना देते हैं
और उसे खौफ के वाहक में बदल देते हैं
क्या तुम ऐसे विचारों की शिनाख्त कर सकते हो?
यह नई लड़ाई बाकी लड़ाइयों से कितनी अलग है
सारी लड़ाइयां हम भीड़ के बूते लड़ने के आदी हैं
पर इस लड़ाई में भीड़ का कोई काम नहीं
उलटे भीड़ खतरा है
इसलिए भीड़ हरगिज न बनें
बिना भीड़ के भी एकजुटता हो सकती है
थोड़ी दूरी के साथ भी निकटता हो सकती है।
इस बुरे वक्त में
जब हम घरों में बंद हैं
तो यह लाचारी एक अवसर भी है
भीड़ से अलग रहकर कुछ गुनने-बुनने का
यह महसूस करने का कि हम भीड़ नहीं हैं
अपने-आप से यह पूछने का
कि क्यों हमारा जानना-सोचना-समझना
सब भीड़ पर आश्रित है
क्यों हमारे धर्म दर्शन अध्यात्म
संस्कृति सभ्यता आचार विचार
राजनीति जनतंत्र नियम कानून
सब भीड़ से बुरी तरह संक्रमित हैं?
हम भीड़ को खुश देखकर खुश होते हैं
भीड़ को क्रोधित देखकर क्रुद्ध
भीड़ ताली बजाती है तो ताली बजाते हैं
गाली देती है तो गाली देते हैं
भीड़ जिधर चलती है उधर चल देते हैं
जिधर मुड़ती है उधर मुड़ जाते हैं
भीड़ भाग खड़ी होती है तो भाग खड़े होते हैं
जैसे भीड़ से अलग हम कुछ न हों
ऐसे भीड़मय समय में
कुछ दिन थोड़ा निस्संग रहना एक अवसर है
स्वयं को खोजने का स्वयं को जांचने का
और यह सोचने का
कि क्या हम ऐसा समाज बना सकते हैं
जहां मिलना-जुलना हो और मानवीय एकजुटता हो
मगर जो भीड़तंत्र न हो?
यह बुरा वक्त इस बात का भी मौका है
कि हम प्रतिरोध-क्षमता के महत्त्व को पहचानें
बुरे दौर आएंगे
उनसे हम पार भी पाएंगे
बशर्ते प्रतिरोध की ताकत हो
शरीर में भी
मन में भी
समाज में भी।
______________________
@ राजेन्द्र राजन की कविता
Aflatoon Afloo
**********************

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बेतूल से सजप उम्मीदवार फागराम

बेतूल से सजप उम्मीदवार फागराम


क्योंकि

भ्रष्ट नेता और अफसरों कि आँख कि किरकिरी बना- कई बार जेल गया; कई झूठे केसो का सामना किया!
· आदिवासी होकर नई राजनीति की बात करता है; भाजप, कांग्रेस, यहाँ तक आम-आदमी और जैसी स्थापित पार्टी से नहीं जुड़ा है!
· आदिवासी, दलित, मुस्लिमों और गरीबों को स्थापित पार्टी के बड़े नेताओं का पिठ्ठू बने बिना राजनीति में आने का हक़ नहीं है!
· असली आम-आदमी है: मजदूर; सातवी पास; कच्चे मकान में रहता है; दो एकड़ जमीन पर पेट पलने वाला!
· १९९५ में समय समाजवादी जन परिषद के साथ आम-आदमी कि बदलाव की राजनीति का सपना देखा; जिसे, कल-तक जनसंगठनो के अधिकांश कार्यकर्ता अछूत मानते थे!
· बिना किसी बड़े नेता के पिठ्ठू बने: १९९४ में २२ साल में अपने गाँव का पंच बना; उसके बाद जनपद सदस्य (ब्लाक) फिर अगले पांच साल में जनपद उपाध्यक्ष, और वर्तमान में होशंगाबाद जिला पंचायत सदस्य और जिला योजना समीति सदस्य बना !
· चार-बार सामान्य सीट से विधानसभा-सभा चुनाव लड़ १० हजार तक मत पा चुका है!

जिन्हें लगता है- फागराम का साथ देना है: वो प्रचार में आ सकते है; उसके और पार्टी के बारे में लिख सकते है; चंदा भेज सकते है, सजप रजिस्टर्ड पार्टी है, इसलिए चंदे में आयकर पर झूठ मिलेगी. बैतूल, म. प्र. में २४ अप्रैल को चुनाव है. सम्पर्क: फागराम- 7869717160 राजेन्द्र गढ़वाल- 9424471101, सुनील 9425040452, अनुराग 9425041624 Visit us at https://samatavadi.wordpress.com

समाजवादी जन परिषद, श्रमिक आदिवासी जनसंगठन, किसान आदिवासी जनसंगठन

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‘‘हमने ‘गार’ के भूत का दफना दिया है। अब पूंजी निवेशकों को डरने की जरुरत नहीं है। हमने खुदरा व्यापार मंे विदेशी पूंजी को इजाजत देने और ईंधन कीमतों मंे बढ़ोत्तरी के फैसले लिए हैं, जिनसे हमारी रेटिंग घटने का खतरा नहीं रहा। इन कदमों से अब निवेशक भारत में फिर से दिलचस्पी ले रहे हैं।’’
– वित्तमंत्री पी. चिदंबरम, 22 जनवरी 2013, हांगकांग

भारत के वित्तमंत्री का यह बयान कई मायनों मंे महत्वपूर्ण हैे और बहुत कुछ कहता है। हांगकांग में सिटी बैंक और बीएनपी नामक दो बहुराष्ट्रीय बैंकों द्वारा ‘निवेश के लिए भारत सम्मेलन’ का आयोजन किया गया था जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के 200 प्रतिनिधि शामिल हुए। इस मौके पर चिदंबरम के मुंह से यह उद्गार निकले। अगले दिन वे सिंगापुर मंे इसी मिशन पर गए। उसके बाद यूरोप में इसी तरह अंतरराष्ट्रीय पूंजीपतियों की चिरौरी करने गए। इसी समय 23 से 27 जनवरी तक स्विट्जरलैण्ड के दावोस नगर मंे विश्व आर्थिक मंच की सालाना बैठक मंे भारत के वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा और शहरी विकास मंत्री कमलनाथ निवेशकों को लुभाने गए। उसके बाद विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने यूरोप के दो देशों की यात्रा की तो उनके एजेण्डे मंे भी भारत-यूरोप आर्थिक सहयोग प्रमुख रुप से शामिल था।
यह साफ है कि इसके पहले भारत सरकार ने जो कई बड़े-बड़े फैसले लिए, उनका मकसद विदेशी निवेशकों को खुश करना था। ये अंतरराष्ट्रीय पूंजीपति निवेश का फैसला करने के लिए अंतरराष्ट्रीय साख निर्धारण (रेटिंग) एजेंसियों की तरफ देखते हैं। स्टेण्डर्ड एण्ड पुअर, मूडीज, फिच जैसी ये एजेंसियां पूरी तरह नवउदारवादी-पूंजीवादी सोच पर चलती है और उनका एकमात्र मकसद बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को बढ़ावा देना है। जिस फार्मूले से वे रेटिंग तय करती हैं, वह ब्याज दरों, शेयर बाजार, भुगतान संतुलन के ंचालू खाते के घाटे, सरकारी खर्च, विदेशी निवेशकों को रियायतों आदि पर आधारित होता है। अर्थव्यवस्थाओं के बारे मंे इनके अनुमान कई बार गलत निकले हैं। लेकिन भारत सरकार के लिए वही रेटिंग, शेयर सूचकांक, राष्ट्रीय आय वृद्धि दर जैसे ही मानक सर्वोपरि हो गए हैं।
यह ‘गार’ का भूत क्या है ? भारत सरकार की आमदनी और घाटे से चिंतित पिछले वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने पिछले साल के बजट मंे ‘गार’ का प्रावधान किया था। यह अंगरेजी के ‘जनरल एन्टी अवाॅयडेन्स रुल्स’ का संक्षेप है जिसका मतलब है कर-वंचन रोकने के सामान्य नियम। आय कर कानून के तहत बनाए जा रहे इन नियमों का मकसद देशी-विदेशी कंपनियों द्वारा करों की चोरी या कर से बचने की कोशिशों पर लगाम लगाना था। यह भी प्रावधान किया जा रहा था कि यदि कोई कंपनी कोई भी कर नहीं दे रही है तो उस पर एक न्यूनतम कर लगेगा। इसी बीच नीदरलैण्ड की वोडाफोन कंपनी ने भारत में टेलीफोन व्यवसाय के अधिग्रहण का देश के बाहर सौदा करके टैक्स से बचने की कोशिश की थी। उसको रोकने के लिए प्रणव मुखर्जी ने ऐसे सौदों को भी कर-जाल के दायरे मंे लाने और उसे पिछली अवधि से लागू करने की घोषण की थी। वोडाफोन कंपनी पर करीब 11,218 करोड़ रु. के टैक्स का दावा बनता था।
लेकिन प्रणव मुखर्जी का इन मंशाओं के जाहिर होते ही विदेशी कंपनियों मंेे खलबली मच गई। उन्होंने हल्ला मचाना शुरु कर दिया और भारत से अपनी पूंजी वापस ले जाने की धमकियां देनी शुरु कर दी। मनमोहन सिंह दुविधा मंे फंस गए। इस बीच भारत के राष्ट्रपति के चुनाव का एक अच्छा मौका मनमोहन सिंह के हाथ मंे आया। प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति बनाकर राह का रोड़ा हटाया गया। वित्तमंत्री का प्रभार लेते ही मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि ‘गार’ की समीक्षा की जाएगी। फिर मंत्रालय में चिदंबरम को लाया गया जिसकी कंपनी-भक्ति में कोई संदेह नहीं था। रंगराजन, कौशिक बसु, रघुराम राजन जैसे आर्थिक सलाहकार भी एक स्वर में अनुदानों को कम करने के साथ-साथ निवेशकों की आशंकाएं दूर करने का राग अलापने लगे। ऐसे ही एक अर्थशास्त्री पार्थसारथी शोम की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई। उसने फटाफट अपनी रपट पेश कर दी। 14 जनवरी को सरकार ने घोषणा कर दी कि गार नियमों को तीन साल के लिए स्थगित किया जाता है और 1 अप्रैल 2016 से उन्हें लागू किया जाएगा। इस बीच वित्तमंत्री यह भी घोषणा कर चुके थे कि किसी भी कंपनी को पिछली तारीख से कर के दायरे मंे नहीं लाया जाएगा। इससे वोडाफोन कंपनी को एक खरब रुपए से ज्यादा का फायदा हो गया।
गार स्थगन की घोषणा के साथ ही विदेशी पंूजीपतियों मंे खुशी की लहर दौड़ गई और दो दिन मंे ही सेन्सेक्स 20,000 के ऊपर पहुंच गया, जो कि दो साल का सबसे ऊंचा स्तर था। इसी समय भारत सरकार ने डीजल की कीमतें क्रमिक रुप से बढ़ाने, बड़े उपभोक्ताओं को बाजार दर पर डीजल देने, धीरे-धीरे डीजल कीमतों को पूरी तरह नियंत्रणमुक्त करने और डीजल पर अनुदान समाप्त करने का फैसला कर दिया। इससे भारतीय जनता पर चाहे बोझ पड़ा हो और महंगाई का नया दौर शुरु होने की संभावना बनी हो, लेकिन रिलायन्स तथा एस्सार कंपनियों को काफी फायदा पहुंचने वाला है। इन कंपनियों के पास तेलशोधन की क्षमता है, लेकिन डीजल-पेट्रोल सस्ता होने के कारण वे अपने पेट्रोल पम्प नहीं चला पा रही थी। अब बाजार दरें लागू होने पर उनका धंधा चल निकलेगा। इसी तरह दुनिया की सबसे बड़ी और बदनाम तेल कंपनी शेल ने भी भारत मंे पेट्रोल पम्पों के लाइसेन्स ले रखे हैं। उसकी भी कमाई के दरवाजे खुल जाएंगे। खुदरा व्यापार के दरवाजे भी प्रबल विरोध के बावजूद वालमार्ट जैसी विशाल कंपनियों के लिए खोले गए हैं। पिछले कुछ सालों मंे दरअसल सरकार के ज्यादातर फैसले कंपनियों को खुश करने और फायदा पहुंचाने के लिए ही किए गए हैं।
यह एक विचित्र बात है कि जो सरकार बजट घाटे का रोना रोती रहती है और खर्च कम करने के लिए आम जनता को मिलने वाले अनुदानों व मदद को कम करने पर तुली हुई है, वही सरकार दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों से करों को वसूलने और कर-चोरी रोकने के उपायों को आसानी से छोड़ देती है। मारीशस मार्ग जैसी कर-चोरी को उसने पूरी तरह इजाजत दे रखी है। कंपनियों को दी जाने वाली कर-रियायतें तथा उनको अनुदान हर बजट मंे विशाल मात्रा में बढ़ते जा रहे हैं। कारण यही है कि सरकार मंे बैठे लोग किसी भी किसी भी कीमत पर विदेशी पूंजी को रिझाने, लुभाने, खुश करने और बुलाने के लिए बैचेन है। इसके लिए वे देशहित, जनहित, सरकारहित, नैतिकता, संप्रभुता सबको तिलांजलि देने के लिए तैयार है। विदेशी पंूजी की यह गुलामी अभूतपूर्व है। आधुनिक भारत के इतिहास का यह एक शर्मनाक अध्याय है।
दरअसल भूत ‘गार’ का नहीं है, विदेशी पूंजी का महाभूत है जो भारत सरकार पर पूरी तरह सवार हो गया है। सरकार होश खो बैठी है और यह भूत उसको चाहे जैसा नचा रहा है। लातों के भूत बातों से नहीं मानते। इस भूत को उतारने के लिए एक बड़ा जन-विद्रोह करने करने का वक्त आ गया है।

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ईसा मसीह स्वयं  पैदाइशी तौर पर यहूदी थे । वैसे ही नया दल बनाने की घोषणा करने वाले  केजरीवाल का कार्यक्रम लाजमी तौर पर  ‘इन्डिया अगेंस्ट करप्शन’ द्वारा बुलाया गया था – नए दल द्वारा नहीं  । नए दल का नाम ,संविधान और शायद पदाधिकारियों की सूची नवम्बर 26 को घोषित  किए जाएंगे – यह उस मंच से  परसों घोषित किया गया । कल के ‘दी हिन्दू ‘ मे  यह पहले पेज की मुख्य खबर में था  । खबर के अनुसार दल के नाम ,संविधान और पदाधिकारियों केके नाम आदि की घोषणा ”नवम्बर 26 ,अम्बेडकर जयन्ती ” के दिन होंगी । क्या यह सामान्य सी चूक थी ? दल का नाम आदि कब घोषित होगा यह भली प्रकार सोचा गया होगा । उसकी तिथि भी अच्छी तरह सोच-विचार कर तय की गई होगी । राजनीति में कदम रख रहे रहे हैं तो ‘राजनैतिक रूप से सही’ कदम के तौर पर बाबासाहब से जोड़ना भी लगा होगा। तब ? क्या पता ‘दी हिन्दू’ वालों ने यह गलती की हो?

केजरीवाल की अब तक की एक-सूत्री मांग लोकपाल  के  42 साल पहले जब जयप्रकाश लोकपाल की मांग करते थे तब भी वे योरप में कुछ स्थानों पर लागू ओमबड्समन की चर्चा करते थे। प्रशासन के अलावा संस्थाएं भी ओमबड्समन रखती हैं। भारतीय मीडिया जगत में ‘दी हिन्दू’ एक मात्र संस्था है-जहां लोकपाल,लोकायुक्त,ओमबड्समन से मिलता जुलता एक निष्पक्ष अधिकारी बतौर ‘रीडर्स एडिटर ‘ नियुक्त है । अभी तीन दिन पहले ही श्री पनीरसेल्वन इस पद पर नियुक्त हुए हैं । तो हमने उनसे तत्काल पूछा की कल अक्टूबर 3 ,2012 के अखबार में पहले पन्ने के मुख्य समाचार में यह जो कहा गया है – कि ”अम्बेडकर जयन्ती नवम्बर 26” को है यह यह उस जलसे वालों की गलती है या अखबार की ? हमने यह भी गुजारिश की मेहरबानी कर इस मसले  की हकीकत का  सार्वजनिक तौर पर ऐलान करें चूंकि की यह देश के एक बड़े  नेता के प्रति कथित ‘नई  राजनीति’ के दावेदारों की अक्षम्य उपेक्षा को दरसाता है । हमने यह इ-पत्र  लिखा :

To,
Readers’ Editor,
The Hindu.
Dear Sir ,
I want to draw your attention to the main news on page 1, Delhi edition,dated October 3,2012 with the heading ‘Kejriwal launches party,vo
ws to defeat ‘VIP system’. The news declares November 26 as ‘Ambedkar Jayanti’ which is factually wrong and shows ignorance about one of our national leaders . It should be made clear by you to the readers in general and the public in general whether this mistake is committed by the proposed new party or by The Hindu.
With regards,
Sincerely yours,
Aflatoon,
Member,National Executive,
Samajwadi Janaparishad.

आज अक्टूबर 4 ,2012 के अखबार (छपे संस्करण में) मेरे ख़त का जवाब आ गया है। ‘नवम्बर 26 को को अम्बेडकर जयन्ती बताने का का सन्दर्भ गलत है।विशेष संवाददाता का की सफाई  : यह (नवम्बर 26 को अम्बेडकर जयन्ती बताना ‘इंडिया  अगेंस्ट करप्शन ‘ के जलसे  के मंच से हुआ था।

>> In “Kejriwal launches party , vows to defeat ‘VIP system’ (page1,Oct 3,2012), the reference to November 26 as Ambedkar Jayanti is incorrect. The Special Correspondent’s clarification : It (November 26 as Ambedkar Jayanti remark ) was made from the dais during the India Against Corruption function.

 

तो भाई ‘द हिन्दू ‘ के लोकपाल जिन्हें  रीडर्स एडिटर कहा जाता है, ने यह साफ़ कर दिया कि अम्बेडकर जयन्ती की बाबत गलत सूचना इस नए दल वालों की थी।  अरविंद केजरीवाल एक समूह का प्रमुख विचारक माना जाता रहा है, उसके द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में उस समूह के मकसद के अनुरूप भाषण करता रहा है । यह समूह है – आरक्षण का विरोध करने के लिए बना समूह – यूथ फॉर इक्वालिटी  – मकसद है गैर-बराबरी कायम रखना और और नाम धरा है ‘बराबरी’ ! अन्ना के साथ जब पहली बार जंतर-मंतर पर जब केजरीवाल पहली बार धरना दे रहे थे तब इसी समूह से जुडे लड़के ‘ आरक्षण संवैधानिक भ्रष्टाचार है’ के नारे पहने हुए थे । नए दल के नजरिए में आरक्षण के समर्थन में वचन हैं । दूसरे के नजरिए को पचाने में वक्त लग सकता है? उस बीच के वक्त में ऐसी चूक हो सकती है? अगर महात्मा फुले की पुण्य तिथि  नवम्बर 28 से कन्फ्यूजिया रहे हों ? वह भी 26 नहीं 28 है।

परसों शाम मुझे योगेन्द्र यादव का इमेल मिला।केजरीवाल की प्रस्तावित पार्टी का दस्तावेज उसके साथ संलग्न था। सुनते  हैं  कि यह ड्राफ्ट भी योगेन्द्र का लिखा  । ऐसा होने पर  वे इस नई  प्रक्रिया के मात्र  प्रेक्षक नहीं रह जायेंगे ।   योगेन्द्र यादव ने केजरीवाल के मंच से बताया की वे समाजवादी जनपरिषद के सदस्य हैं । समाजवादी जनपरिषद के सक्रीय सदस्यों की भी एक आचार संहिता है। कथित नए दल की प्रस्तावित हल्की-फुल्की और त्रुटि -पूर्ण आचार संहिता की भांति  नहीं है समाजवादी जनपरिषद की आचार-संहिता। बिहार आन्दोलन के वरिष्ट साथी बिपेंद्र कुमार ने बताया की’वी आई पी संस्कृति’ के निषेध के लिए इस नए समूह की घोषणा कितनी हास्यास्पद है।दरअसल जड़ से कटा होने के कारण ऐसा होता है- ”हमारे विधायक और सांसद लाल बत्ती नहीं लगायेंगे” जोश में कह दिया । कहीं भी विधायक-सांसद यदि उन पर मंत्री जैसी जिम्मेदारी न हो तो बत्ती नहीं लगाते। शेषन , खैरनार,अनादी  साहू जैसे नौकराशाहों से इस पूर्व नौकरशाह और एन जी ओ संचालक की स्थिति मिलती जुलती हो यह बहुत मुमकिन है। स्वयंसेवी सन्स्थाओं  की पृष्टभूमि वाले राजनैतिक कर्मियों और उनसे अलग सच्चे अर्थों में राजनैतिक कर्मियों के बारे में किशन पटनायक ने हमें साफ़ समझ दी है :

‘वही एन जी ओ कार्यकर्ताओं को पाल पोस सकते हैं जो विदेशी दाता सम्स्थाओँ से पैसा प्राप्त करते हैं ।धनी देशों के एनजीओ के बारे हम कम जानते हैं। अधिकाँश दाताओं का उद्देश्य रहता है की उनके पैसे से जो सार्वजनिक कार्य होता है वह नवउदारवाद  और पूंजीवाद का समर्थक हो ।जो सचमुच लोकतंत्र  का कार्यकर्ता है उसके राजनैतिक खर्च के लिए या न्यूनतम पारिवारिक खर्च के लिए इन देशों में पैसे का कोई स्थायी या सुरक्षित बंदोबस्त नहीं होता है। देश में हजारों ऐसे कार्यकर्ता हैं जो पूंजीवाद विरोधी राजनीति में जहां एक ओर  पूंजीवाद और राज्य-शक्ति के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर अपने मामूली खर्च के लिए इमानदारी से स्खलित न होने का संघर्ष  जीवन भर कर रहे हैं ।उनमें से एक-एक का जीवन एक संवेदनापूर्ण किस्सा है , गाथा है , जो अभी तक न विद्वानों के शास्त्र का विषय बना है , न साहित्यिकों की कहानियों का विषय।हमारे लिए हैं वे हैं लोकतंत्र के आलोक-स्तम्भ ।”

इस बुनियादी समझ के साथ समाजवादी जनपरिषद ने सक्रीय सदस्यों  के लिए बनी अपनी आचार-संहिता में :

दल के संविधान की 3.1.(2) के अनुसार सक्रिय सदस्य दल द्वारा स्वीकृत आचरण संहिता का पालन करेगा। दल की आचरण संहिता पर हमे फक्र है तथा नई राजनैतिक संस्कृति की स्थापना के लिए इसे हम अनिवार्य मानते हैं। इसे यहाँ पूरा दे रहा हूँ :

समाजवादी जनपरिषद के प्रत्येक सक्रिय सदस्य के लिए यह अनिवार्य होगा कि वह-

1.1 जनेऊ जैसे जातिश्रेष्ठता के चिह्न धारण नहीं करेगा।

1.2 छुआछूत का किसी भी रूप में पालन नहीं करेगा।

1.3 जाति आधारित गालियों का प्रयोग नहीं करेगा ।

1.4 दबी हुई जातियों को छोड़कर किसी भी अन्य जाति विशेष संगठन की सदस्यता स्वीकार नहीं करेगा।

2.1 दहेज नहीं लेगा ।

2.2 औरत की पिटाई नहीं करेगा और औरत(नारी) विरोधी गालियों का व्यवहार नहीं करेगा।

2.3 एक पत्नी या पति के रहते दूसरी शादी नहीम करेगा और न ही उस स्थिति में बिना शादी के किसी अन्य महिला/पुरुष के साथ घर बसाएगा ।

3 धार्मिक या सांप्रदायिक द्वेष फैलाने वाली किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होगा ।

4 समाजवादी जनपरिषद के प्रत्येक सदस्य के लिए यह अनिवार्य होगा कि वह ऐसे किसी गैरसरकारी स्वैच्छिक संस्था (  NGO ), जो मुख्यत: विदेशी धन पर निर्भर हो,

(क) का संचालन नहीं करेगा ।

(ख) की सर्वोच्च निर्णय लेने वाली समिति का सदस्य नहीं होगा।

(ग) से आजीविका नहीं कमाएगा ।

5.1 सदस्यता-ग्रहण/नवीनीकरण के समय अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति व आय की घोषणा करेगा ।

5.2 अपनी व्यक्तिगत आय का कम से कम एक प्रतिशत नियमित रूप से समाजवादी जनपरिषद को देगा।

5.3 विधायक या सांसद  चुने जाने पर अपनी सुविधाओं का उतना अंश दल को देगा जो राष्ट्रीय  कार्यकारिणी द्वारा तय किया जायेगा।

बहरहाल योगेन्द्र यादव पर समाजवादी जनपरिषद के सक्रीय सदस्यों के लिए बनी ऊपर दी गयी आचार संहिता लागू नहीं है । इसकी धारा 4 से भी मुक्त हैं ,वे। सिर्फ सक्रीय सदस्य ही दल की जिम्मेदारियां लेता है ।किसी प्रस्तावित दल  के दस्तावेज का ड्राफ्ट बना कर  प्रेक्षक की सीमा का उल्लंघन किया अथवा नहीं यह दिल्ली की इकाई तय करेगी । दल का सदस्य जिस स्तर  का होता है उस स्तर  की समिति उससे जुड़े अनुशासन को देखती है ।

 

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आजादी बचाओ आन्दोलन के संस्थापक प्रोफेसर बनवारीलाल शर्मा का आज सुबह चंडीगढ़ में देहान्त हो गया । वैश्वीकरण की गुलाम बनाने वाली नीतियों के विरुद्ध जन आन्दोलनों के वे प्रमुख नेता थे। विनोबा भावे से प्रेरित अध्यापकों के आन्दोलन ‘आचार्यकुल’ के वे प्रमुख स्तम्भ थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय अध्यापक संघ के वे तीन बार निर्विरोध अध्यक्ष चुने गये थे। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मकड़जाल से देश को सावधान करने के लिए आपने ‘साथियों के नाम’ बुलेटिन,नई आजादी का उद्घोष नामक पत्रिका शुरु की,सतत चलाते रहे तथा कई पुस्तकें लिखीं और अनुवाद भी किया। गणित का विद्यार्थी होने के कारण आपने फ्रेंच भाषा पर भी अधिकार कायम किया था। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उनकी निष्ठा,तड़प और सक्रियता कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत रहेगी।

प्रो. बनवारीलाल शर्मा , संस्थापक 'आजादी बचाओ आन्दोलन'

प्रो. बनवारीलाल शर्मा , संस्थापक ‘आजादी बचाओ आन्दोलन’

समाजवादी जनपरिषद अपने वरिष्ट सहमना साथी की स्मृति को प्रणाम करती है तथा उनके जीवन से प्रेरणा लेती रहेगी। ‘साथी तेरे सपनों को,मंजिल तक पहुंचायेंगे।’

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1991 से भारत में जिस आर्थिक नीति को घोषित रूप से लागू किया गया है उसे द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामों से लेकर 1990 आते-आते सोवियत यूनियन के ध्वस्त होने जैसी घटनाओं के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादी शोषण के पुराने रूप पर एक हद का विराम लग गया। भारत समेत दुनिया के अनेक देश साम्राज्यवादी नियंत्रण से आजाद हो गये जिन पर पुराने तरह तक आर्थिक नियंत्रण असंभव हो गया। सोवियत यूनियन एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा और स्वयं यूरोप के बड़े भू-भाग पर इसका नियंत्रण काफी दिनों तक बना रहा। इसी पृष्ठभूमि में ब्रेटनवुड्स संस्थाएं – विश्व बैंक, अंर्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन – 2 जुलाई 1944 में अस्तित्व में आयीं, जिनका मूल उद्देश्य युद्ध से ध्वस्त हो चुकी पश्चिमी यूरोप और जापान की अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर लाकर एक हद तक संसार पर इनके वर्चस्व को फिर से स्थापित करना था।
पश्चिमी वर्चस्व को कायम रखने का यह प्रयास चल ही रहा था कि रूस और चीन में भारी आर्थिक बदलाव आये जिसने पश्चिमी ढ़ंग के औद्योगिक विकास के लिए एक संजीवनी का काम किया। चीन में कई उथल-पुथल, जैसे ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’, ‘बड़ा उछाल’ (ग्रेट लीप) आदि के बाद देंग द्वारा कम्युनिश्ट राजनीतिक सत्ता के तहत ही पूंजीवाद की ओर संक्रमण शुरू हुआ और रूस में, 1990 आते आते थोड़े ही समय में पूरी कम्युनिश्ट व्यवस्था धराशायी हो गयी।
सोवियत व्यवस्था के अंतर्विरोध
रूस के ऐसे अप्रत्याशित बदलाव के निहितार्थ को समझना जरूरी है। रूस ने अपने सामने वैसे ही औद्योगिक समाज के विकास का लक्ष्य रखा जैसा औद्योगिक क्रान्ति के बाद पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में विकसित हुआ था। दरअसल रूस ने तेजी से इस दिशा में अमेरिका से आगे निकलने का लक्ष्य अपने सामने रखा था। लेकिन आधुनिक उद्योगों के लिए पूंजी संचय की प्रक्रिया का समतामूलक समाज के लक्ष्य से इतना विरोध था कि इस व्यवस्था पर असह्य दबाव बना रहा। मजदूरों पर काम का बोझ बढ़ाने के लिए ‘पीस रेट’1 की असह्य (तथाकथित स्टैखनोवाइट) व्यवस्था लागू की जाने लगी। किसानों की जमीन को जबर्दस्ती सामूहिक फार्मों के लिए ले लिया गया और उन्हें एक नौकरशाही के तहत श्रमिक की तरह कठिन शर्तों पर काम करने को मजबूर किया गया। कृषि के अधिशेष (surplus) को उद्योगों के विकास के लिए लगाया जाने लगा। इससे उद्योगों के लिए तो पूंजी संचय तेज हुआ लेकिन चारों  ओर पार्टी और इससे जुड़ी नौकरशाही के खिलाफ इतना आक्रोश हुआ कि अंततः व्यवस्था धराशायी हो गयी। जो नतीजे हुए वे जग जाहिर है। इससे जो पूंजीवाद पैदा हुआ वह बहुत ही अस्वस्थ ढ़ंग का है। एक खास तरह की उद्यमिता और मितव्ययिता जो पूंजीपतियों के साथ पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में जुड़ी थीं उसका वहां अभाव था और सामूहिक संपत्ति की लूट और विशाल मात्रा में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन (जैसे प्राकृतिक गैस एवं दूसरे खनिजों) की खरीद फरोख्त से धनाढ्य बनने की होड़ लग गयी। इस क्रम में सोवियत काल की जो सामाजिक सुरक्षा आम लोगों को उपलब्ध थी वह छिन्न-भिन्न हो गयी। थोड़े से लोग अल्पकाल में ही धनाढ्य हो गये। फिर भी अपने प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर रूस एक बड़ी पूंजीवादी व्यवस्था के रूप में प्रभावी बना हुआ है। लेकिन आम लोगों का जीवन स्तर देश की विशाल संपदा के हिसाब से काफी नीचा है।
चीन के अंतर्विरोध
चीन में जो बदलाव आये हैं वे कुछ अचरज में डालने वाले लगते हैं। लेकिन गहराई से विचार करने पर साफ दिखाई देता है कि यह भी समतामूलक समाज के लक्ष्यों से आधुनिक ढंग के औद्योगीकरण के अंतरविरोध का ही नतीजा है। माओ ने शुरू में ऐसा सोचा था कि एक साम्यवादी समाज की स्थापना के लिए औद्योगिक विकास के अति उच्च स्तर पर पहुँचना जरूरी नहीं, जैसी कि मार्क्सवादियों की प्रारंभिक मान्यता थी। उसका ऐसा मानना था कि लोगों की चेतना और जीवन शैली में बदलाव से, ऊंचे औद्योगिक विकास के बिना भी, समतामूलक, साम्यवादी समाज बनाया जा सकता है। इसी सोच से सांस्कृतिक क्रांति के प्रयास हुए जिसमें लोगों की सोच को बदलने के लिए शहरी लोगों को ग्रामीण अंचलों में कृषि से जुड़े कामों को करने को बाध्य किया गया। सामूहिक जीवन के लिए सभी स्तर पर कम्युनों की स्थापना की जाने लगी। पर माओ के इस सपने के बिखरने के दो कारण थे। एक तो जिस कम्युन पद्धति को वह लागू करना चाहता था, वह स्वतः स्फूर्त रूप से नीचे से विकसित नहीं हो रही थी बल्कि ऊपर से एक केन्द्रीय सत्ता के द्वारा लागू की जा रही थी, जिसके पीछे वहां की सैन्य शक्ति थी। इस तरह यह एक सहयोगी व्यवस्था को केन्द्रीकृत पार्टी नौकरशाही के दबाव में विकसित करने का प्रयास था। इससे पैदा संस्थागत अवरोध के खिलाफ छात्रों और युवाजनों की शक्ति को उभारने का प्रयास किया गया, जिससे जगह-जगह संघर्ष होने लगे और सैन्य शक्ति से ही स्थिति को नियंत्रित किया गया। दूसरा, माओ नेे ‘बैकयार्ड स्टील मिल’ की बात जरूर की लेकिन यह छोटे और घरेलू उद्योगों के आदर्श को लागू करने के लिए नहीं हुआ। इसे तत्कालिक मजबूरी से ज्यादा नहीं माना गया। भारी सैन्यबल के विकास और इसके लिए जरूरी अत्याधुनिक उद्योगों के विकास का लक्ष्य कभी भी नहीं छोडा गया। अंततः अति विकसित उद्योगों की महत्वाकंाक्षा ने छोटे उद्योगों और स्वशासी कम्युनों की कल्पना को रौंद दिया और माओ के जाते-जाते अत्याधुनिक उद्योगों पर आश्रित सैन्यबल की महत्वाकांक्षा हावी हो गई। आधुनिक ढ़ंग की औद्योगिक व्यवस्था के विकास के लिए पूंजी संचय के वे सारे रास्ते अपनाना अपरिहार्य हो गया जिन्हें अन्यत्र अपनाया गया था। चीन में ‘‘मंडारिनों’’ (केन्द्रीकृत नौकरशाही) के तहत राज्य के उद्देश्यों के लिए आम लोगों की कई पीढि़यों की बलि देने की परंपरा दो हजार वर्षों से अधिक पुरानी है, जिसका गवाह चीन की दीवार है। इसलिए जब एक बार आधुनिक ढंग के औद्योगिक विकास का लक्ष्य अपनाया गया तो आम लोगों, विशेषकर ग्रामीण लोगों के हितों को नजरअंदाज किया जाने लगा। इसके लिए चीन के प्राकृतिक और मानव संसाधनों का अबाध शोषण शुरू हुआ और संसार भर के अत्याधुनिक पूंजीवादी प्रतिष्ठानों को आमंत्रित कर इस विकास में लगाया गया। विशेष सुविधाओं से युक्त ‘‘स्पेशल इकाॅनोमिक जोन’’ SEZ का जाल बिछ गया। पूंजीवाद के विकास से जुड़ा औपनिवेशक शोषण का यह आंतरिक और आत्यांतिक रूप बन गया है।
प्राथमिक पूंजी संचय प्राथमिक नहीं, निरंतर
मार्क्स ने औद्योगिक क्रान्ति के लिए आवश्यक ‘प्राथमिक पूंजी संचय’ 2 को किसानों के क्रूर विस्थापन और श्रमिकों के घोर शोषण से जोड़ा था। उसने यह मान लिया था कि इसके बाद स्थापित उद्योगों में मजदूरों के शोषण से प्राप्त अधिशेष के आधार पर पूंजी का विस्तार होता रहेगा। श्रमिकों और पंूजीपतियों का संघर्ष श्रम के अधिशेष के अनुपात को लेकर होगा जो पूंजीपतियों के मुनाफे का आधार है। लेकिन समग्रता में परिणाम सुखदायी होगा क्योंकि अंततः इससे एक नयी सभ्यता का विस्तार होता रहेगा। इनमें रूकावट श्रम से जुडे अधिशेष को हासिल करने और इससे जुड़े समय-समय पर आने वाले व्यापार के संकटों (ट्रेड साइकिल) से आएगी। रोजा लक्जमबर्ग जैसी मार्क्सवादी चिन्तकों ने भी इस व्यवस्था का मूल संकट अधिशेष जनित पण्यों के बाजार से ही जोड़ा था। स्वयं धरती के संसाधनों के सिकुड़न के संकट पर किसी का ध्यान नहीं गया था।
अब तस्वीर ज्यादा जटिल और भयावह है। औद्योगिक विकास शून्य में नहीं होता और सकल उत्पाद में श्रम निर्गुण या अदेह रूप में संचित नहीं होता बल्कि अन्न, जल और अनगिनत जैविक पदार्थो के परिवर्तन और परिवर्धन से उपयोग की वस्तुओं के अंसख्य रूपों में संचित होता है। यह प्रक्रिया पूरी धरती को संसाधन के रूप में जज्ब कर असंख्य उपयोग की वस्तुओं के रूप में बदलने की प्रक्रिया होती है।

प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों का असीमित दोहन
इस क्रम में धरती के सारे तत्व जैविक प्रक्रिया से बाहर हो जीवन के लिए अनुपलब्ध बनते जाते हैं – जैसे ईंट, सीमेंट, लोहा या प्लास्टिक, जिन्हें मनुष्य से लेकर जीवाणु तक कोई भी जज्ब नहीं कर सकता। इस सारी प्रक्रिया केा धरती पर जीवन या स्वयं धरती की मौत के रूप में देखा जा सकता है। क्योंकि यह किसी भी जैविक प्रक्रिया के लिए अनुपयोगी बन जायेगी। ध्यान देने की बात है कि पूंजी संचय और इस पर आधारित औद्योगिक विकास की प्रक्रिया सिर्फ प्राथमिक स्तर पर हीं नहीं बल्कि सतत् चलने वाली होती है और इसमें प्राकृतिक और मानव संसाधनों का दोहन हर स्तर पर चलता रहता है। यह संभव इसलिए होता है क्योंकि समाज में एक ऐसा वर्ग भी बना रहता है जो इस से लाभान्वित होता है – सिर्फ पूंजीपति ही नहीं बल्कि विस्तृत नौकरशाही, व्यवस्थापक और विनिमय करने वाला वर्ग भी जिसका जीवन स्तर इस विकास के साथ ऊंचा होता रहता है। यह समूह विकास का वाहक और पेरोकार बना रहता है क्योंकि इससे इसकी समृद्धि और उपभोग के दायरे का विस्तार होता रहता है। दूसरे इसका अनुकरण करते है। इससे अपनी पारी आने का भ्रम बना रहता है।
वैसे समूह जिनके आवास और पारंपरिक रूप से जीवन के आधार वैसे प्रदेश हैं जहां वन हैं, खनिज पदार्थ हैं और ऐसी जल धाराएं जिन्हें बिजली पैदा करने के लिए बांधों से नियंत्रित किया जा रहा है – विस्थापित हो इस उत्पादन पद्धति के पायदान पर डाल दिये जाते हैं। किसानों की उपज को सस्ते दाम पर लेने का प्रयास होता है ताकि इन पर आधारित औद्योगिक उत्पादों की कीमतें कम कर ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके। विशाल पैमाने पर होने वाले विस्थापन से श्रम बाजार में काम तलाशने वालों की भीड़ बनी रहती है जिससे श्रमिकों को कम से कम मजदूरी देना होता है। इस तरह देश के मजदूर और किसान लगातार गरीबी रेखा पर बने रहते हैं। अगर उपभोग की वस्तुओं की कीमतें बढ़ती है तो ये भूखमरी और कंगाली झेलते हैं। जो बड़ी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं हैं वे लगातार इस प्रयास में लगी रहती हैं कि सस्ते श्रम और संसाधनों के क्षेत्र में पंूजी का प्रवेश निर्बाध बना रहे। जैसे पानी बहकर एक स्तर पर फैल जाता है वैसे ही निर्धनता भी अपना स्तर ढूंढ़ते हुए व्यापक बनती जाती है। श्रमिकों के पलायन से संपन्न क्षेत्रों पर जनसंख्या का दबाव बढ़ना और फिर इससे वहां के मजदूरों के जीवन पर विपरीत प्रभाव और बाहरी श्रमिकों के खिलाफ आक्रोश इसका परिणाम होता है।
महंगाई का मूल कारण
ऊपर के संदर्भ में आज की महंगाई पर भी विचार करने की जरूरत है। महंगाई को आम तौर से आपूर्ति और मंाग से जोड़ा जाता है। यह बाजार के दैनन्दिन के अनुभवों पर आधारित है। लेकिन अब हम एक ऐसे मुकाम पर पहुंच चुके हैं कि आपूर्ति का संकट स्थायी और वैश्विक बन गया है। इसमें तत्कालिक रूप से कहीं मंदी और कीमतों में गिरावट भले ही दिखे, स्थायी रूप से महंगाई का दबाव वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बना रहेगा। इसका मूल कारण है हमारी सभ्यता और खासकर पूंजीवादी सभ्यता, जिसका मूल उद्देश्य अविरल मुनाफे के लिए ‘‘उपभोग’’ की वस्तुओं की विविधता और मात्रा का विस्तार करते जाना है। इनके पैमानों के उत्तरोत्तर विस्तार के साथ प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता पर उन्नीसवीं शताब्दी से ही दबाव बढ़ने लगा है, जबसे औद्योगिक क्रान्ति का असर दुनिया पर पड़ने लगा। इनसे अनेक आवश्यक खनिज जिनमें ऊर्जा के मूल स्त्रोत कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस एवं उत्पादन के ढांचे के लिए आधार तांबा, लोहा एवं अल्युमिनियम आदि के अयस्क इतनी तेजी से खतम होते जा रहे हैं कि इनकी उपलब्धता घटने लगी है और ये दिनों दिन महंगे होते जा रहे हैं। इससे पूरी अर्थव्यवस्था पर महंगाई का दबाव बनता है। बाहर की किन्हीं तात्कालिक स्थितियों या अचानक ऊर्जा के किसी स्त्रोत के सुलभ होने से कभी-कभी महंगाई से राहत भले ही मिल जाये, ऊपर वर्णित संसाधनों की आपूर्ति का मूल संकट सदा बना रहता है। इससे भी बढ़कर जीवन के लिए अपरिहार्य पेयजल, जो वनस्पति जगत से लेकर सभी जीव और मानव जीवन के लिए अपरिहार्य है, अपर्याप्त होता जा रहा है। इसके खत्म होने का कारण इसका बड़ी मात्रा में उपयोग ही नहीं बल्कि आधुनिक उद्योगों और औद्योगिक आबादियों के कचड़े एवं कृषि में विशाल मात्रा में इस्तेमाल किये जा रहे रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का जलश्रोतों और भूजल में घुलने से हो रहा प्रदूषण भी है। इनका प्रयोग अब जटिल रासायनिक प्रक्रिया से सफाई के बाद ही संभव होता है जिससे यह ये महंगे पण्य की श्रेणी में आ जाते हैं। इसका बोझ गरीब वर्गो के लिए असह्य हो जाता है जो न महंगे बोतलबन्द पानी खरीद सकते हैं न नगरों के भारी पानी के टैक्स का बोझ उठा सकते हैं। अन्न महंगा करने में ये सभी कारक शामिल हो जाते है।
मूल बीमारी औद्योगिक सभ्यता
संसार की बड़ी वित्तीय संस्थाएं इस कोशिश में रहती हैं कि पूंजी का प्रवाह बिना अवरोध के बना रहे और इससे औद्योगिक सभ्यता की मूल बीमारी धीरे-धीरे उन देशों और भू-भागों को भी ग्रसित करती है जो पहले इस औद्योगिक सभ्यता की चपेट में नहीं आये थे। जैसे-जैसे प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता घटती है दुनिया के तमाम लोगों पर अपने जल और जमीन को पूंजीवादी प्रतिष्ठानों के लिए खोलने का दबाव बढ़ता है। वैश्विक वित्तीय संस्थाओं के प्रावधानों का मूल उद्देश्य इसी प्रक्रिया की औपचारक मान्यता का उद्घोष है। इसलिए इस समस्या का निदान एक ऐसी विकेन्द्रित व्यवस्था ही हो सकता है जिसमें लोग स्थानीय संसाधनों के आधार पर सरल जीवन पद्धति अपनायें। यह व्यवस्था समतामूलक ही हो सकती है।

टिप्पणियां
1. ‘पीस रेट’ (Piece Rate) का मतलब है कि एक निश्चित मात्रा में काम करने पर ही निर्धारित मजदूरी दी जाएगी। मजदूरी देने के दो तरीके हो सकते हैं – एक, दिन के हिसाब से मजदूरी दी जाए (डेली वेज रेट) और दो, काम की मात्रा के हिसाब से मजदूरी दी जाए (पीस रेट)। दूसरे तरीके में मजदूरों का शोषण बढ़ जाता है। जो हट्टे-कट्टे जवान होते है, वे पैसे के लालच में अपने स्वास्थ्य की परवाह न करके एक दिन में ज्यादा काम करते है। जो थोड़ा कमजोर होते है, वे निर्धारित मात्रा में काम नहीं कर पाने के कारण एक दिन की मजदूरी भी नहीं पाते हैं। भारत में मनरेगा की बहुचर्चित योजना में पीस रेट का उपयोग करने के कारण मजदूरों का काफी शोषण हो रहा है। कई बार मजदूरो को एक दिन की मजदूरी 50-60 रू. ही मिल पाती है।
2. कार्ल मार्क्स ने ‘प्राथमिक पूंजी संचय’ (Primitive Accumulation of Capital)पूंजीवाद के प्रारंभ की उस प्रक्रिया को कहा था, जिसमें 16 वीं से 18 वीं सदी तक बड़े पैमाने पर इंग्लैण्ड के खेतों से किसानों को विस्थापित करके उन्हें ऊनी वस्त्र उद्योग की ऊन की जरूरत के लिए भेड़ों को पालने के लिए चरागाहों में बदला गया। इससे औद्योगीकरण में दो तरह से मदद मिली। एक, उद्योगांे को सस्ता कच्चा माल मिला। दो, विस्थापित किसानों से बेरोजगार मजदूरों की सुरक्षित फौज तैयार हुई और उद्योगों को सस्ते मजदूर मिले। सच्चिदानंद सिन्हा कहना चाहते हैं कि यह प्रक्रिया मार्क्स के बताए मुताबिक पूंजीवाद की महज प्राथमिक या प्रारंभिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि लगातार चलने वाली पूंजीवाद की अनिवार्य प्रक्रिया है।
3. ‘पण्य’ मार्क्स द्वारा इस्तेमाल की गई अवधारणा Commodity का अनुवाद है। इसका मतलब वे वस्तुएं है जिनकी बाजार में खरीद-फरोख्त होती है। जैसे पानी यदि मुफ्त में उपलब्ध है तो वह पण्य नहीं है। किंतु वह बोतलों में बंद होकर बिकने लगा है तो पण्य बन गया है।

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भारत के खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत देने का भारत सरकार का फैसला भारत राष्ट्र और भारत की जनता के प्रति एक विश्वासघात है । संविधान के तहत भारत देश की रक्षा करने की शपथ लेकर हमारे नेताओं एवं जनप्रतिधियों ने भारतीय जनजीवन पर एक और हमला किया है।
1991 में जब से वैश्वीकरण ,निजीकरण और उदारीकरण की नीतियां शुरु हुई हैं तब से भारत की जनता के ऊपर कई मुसीबतें आई हैं । मंहगाई , गरीबी , कुपोषण , बेरोजगारी , भ्रष्टाचार और घोटाले चरम सीमा पर पहुंच गये हैं । देश के किसान व बुनकर आत्महत्या कर रहे हैं । कई कारखाने एवं छोटे उद्योग बन्द हो गए हैं । खेती और उद्योग के बाद खुदरा व्यापार में इस देश में सबसे ज्यादा रोजगार मिलता है । रोजगार का यह आखिरी सहारा भी सरकार छीन लेना चाहती है । करोडो की संख्या में छोटे दुकानदारों का धंधा खतरे में आ गया है ।
सरकार यह झूठ बोल रही है कि विदेशी कंपनियां आने से रोजगार पैदा होंगे। जब 50 और 100 छोटी – छोटी दुकानों की जगह वालमार्ट जैसा एक विशाल मॉल ले लेगा जहां पर सारा काम मशीन और कम्प्यूटर से होगा तो रोजगार बढ़ेगा या घटेगा ?
अब यह साफ हो गया है कि पिछ्ले कुछ सालों से सरकारें अतिक्रमण हटाने के नाम पर पटरी – फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों , ठेलों तथा गुमटियों वालों को हटाने का जो काम कर रही थी , वह दरअसल देशी- विदेशी कंपनियों के लिए रास्ता साफ कर रही थी । सरकारों ने उनकी रोजी रोटी छीन कर भुखमरी के कगार पर पहुचा दिया है । कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए देश की गरीब जनता पर अत्याचार करना पिछले 20 सालों में सरकारों का नियम बन गया है ।
सरकारों का दूसरा झूठ है कि इससे किसानों का फायदा होगा । खुदरा व्यापार में रिलायंस (रिलायंस फ्रेश ) ,आई.टी.सी ( चौपाल सागर ) , भारती , एन मार्ट , हरियाली जैसी बड़ी – बड़ी देशी कंपनियां तो पहले से घुस चुकी हैं । इससे भारत के किसानों को क्या फायदा हुआ ? क्या उन्हें बेहतर दाम मिले ? क्या खेती का संकट दूर हुआ ?
उल्टे सरकार के इस कदम से भारत की खेती पर दुनिया की बड़ी – बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा हो जाएगा । भारत का किसान इन दैत्याकार कंपनियों के चंगुल में फंसा छटपटाता रहेगा ।इस बात की पूरी संभावना है कि किसानों की उपज खरीदने के लिए कंपनियां आ चुकी हैं , यह बहाना लेकर इसके बाद सरकार समर्थन मूल्य पर कृ्षि उपज की खरीदी बंद कर दे । इसके लिए इन विदेशी कंपनियों का दबाव भी होगा , ताकि वे दाम गिराकर किसानों का माल सस्ता खरीद सकें।
सरकार का तीसरा झूठ है कि इससे व्यापार में बिचौलिए खत्म होंगे । यह ठीक है कि बिचौलिए व छोटे उत्पादकों का शोषण करते हैं । किन्तु सरकार के इस कदम से बिचौलिए खत्म कहां होंगे ? छोटे – छोटे लाखों बिचौलियों की जगह चंद बहुराष्ट्रीय बिचौलिए ले लेंगे । जिनकी बाजार को प्रभावित व नियंत्रित करने तथा शोषण करने की अपार ताकत होगी । वे किसानों , उत्पादकों और उपभोक्ताओं – सबको लूटकर मुनाफा अपने देश में ले जाएंगी ।
पिछले 20 सालों में हमारी सरकारें इस देश के जन-जीवन के हर क्षेत्र को विदेशी मुनाफाखोर कंपनियों के हवाले करती गई हैं । यह आखिरी क्षेत्र बचा था , जिसी भी सरकार उन्हें तश्तरी में परोसकर उपहारस्वरूप देना चाहती है । अमरीकी आकाओं का हुकुम बजाने तथा उन्हें खुश करने के लिए हमारी सरकार ने यह काम किया है । हजारों ईस्ट इंडिया कंपनियों को वापस बुलाया है । यह भारत की आजादी की लडाई में लाखों स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान का अपमान और विश्वासघात है ।
आइए , हम सब पूरी ताकत से इस जन विरोधी और राष्ट्र विरोधी कदम का विरोध करें ।किंतु यह ध्यान रखें कि हमें वैश्वीकरण , उदारीकरण , निजीकरण की पूरी नीतियों का विरोध करना होगा जिसके तहत ये हमले हो रहे हैं । जीवन के हर क्षेत्र में देशी-विदेशी कंपनियों की घुसपैठ का भी विरोध करना होगा। देश की विपक्षी पार्टियां भी इस मामले में गुनहगार हैं ।
समाजवादी जनपरिषद इस मसले पर 1 दिसम्बर को आयोजित भारत बन्द का समर्थन करती है तथा समाज के सभी तबकों से बंद का समर्थन करने की अपील करती है। जनपरिषद से जुडा पटरी-व्यवसाई संगठन भी प्रस्तावित बंद का समर्थन करता है।
(रामजनम, प्रान्तीय महामन्त्री,सजप ) (अफलातून ,सदस्य , राष्ट्रीय कार्यकारिणी,सजप )( डॉ. सोमनाथ त्रिपाठी ,राष्ट्रीय महामन्त्री,सजप) (काशीनाथ , अध्यक्ष , पटरी व्यवसाई संगठन )(मो. भुट्टो ,मन्त्री,पटरी व्यवसाई संगठन )

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