Archive for the ‘industralisation’ Category
इस बुरे वक्त में / राजेन्द्र राजन
Posted in bio-terror, chernobyl, environment, globalisation, industralisation, rajendra rajan, tagged कविता, नोवल करोना, बुरा वक्त, राजेन्द्र राजन on अप्रैल 25, 2020| Leave a Comment »
भोपाल-तीन : राजेन्द्र राजन
Posted in bio-terror, industralisation, intellectual imperialism, madhya pradesh, poem, rajendra rajan, tagged bhopal, gas tragedy, hindi poem, poem, rajendra rajan, supreme court judgement on जून 12, 2010| 8 Comments »
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए भोपाल गैस कांड संबंधी फैसले से हर देश प्रेमी आहत हुआ है | पचीस साल पहले राजेन्द्र राजन ने इस मसले पर कवितायें लिखी थीं , इस निर्णय के बाद यह कविता लिखी है |
भोपाल-तीन
हर चीज में घुल गया था जहर
हवा में पानी में
मिट्टी में खून में
यहां तक कि
देश के कानून में
न्याय की जड़ों में
इसीलिए जब फैसला आया
तो वह एक जहरीला फल था।
– राजेन्द्र राजन
हिंसक रणनीति की सीमा
Posted in नक्सलवादी, globalisation, industralisation, jayaprakash narayan, Maoist Ideology, odisha, terrorism, tagged चे ग्वारा, जयप्रकाश नारायण, नक्सलवाद, माओ on अप्रैल 6, 2010| 6 Comments »
* ” जो सरकार किसी भी प्रकार के लोकमत से चुनी गई हो ,चाहे वह फर्जी लोकमत ही क्यों न हो तथा कम से कम संवैधानिक- कानूनी दिखने वाली होगी वहाँ गुरिल्ला विद्रोह को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता,चूँकि शान्तिपूर्ण संघर्ष की संभावनाओं को पूरी तरह आजमाया नहीं जा चुका होता है । ” चे ग्वारा, गुरिल्ला वॉरफ़ेयर ,भाग १ ,पृष्ट १४। नेट पर
** संपूर्ण क्रान्ति के दौर में लोकनायक जयप्रकाश नारायण लाखों की सभा में कहते थे , ’ माओ ने कहा कि राजनैतिक शक्ति का जन्म बन्दूक की नली से होता है । कितने लोगों को बन्दूक दिला सकते हो ? कोई थाना फूँक दोगे , डाकखाना फूँक दोगे,ये छिट-पुट छिट-पुट से काम नहीं चलेगा। हिंसा की बड़ी ताकत सरकार के पास है।बड़ी हिंसा छोटी हिंसा को दबाया दिया करती है। उसका मुकाबला अहिंसा से ही हो सकता है। ’जेल से ही स्वराज्य पैदा हुआ है । जेल से ही तुम्हारे अधिकार प्राप्त होंगे , जनता के अधिकार प्राप्त होंगे और सच्चा स्वराज्य मिलेगा।’ उन्होंने ५ जून ,१९७४ के ऐतिहासिक भाषण में कहा , ’यह संघर्ष अगर जन-संघर्ष है तो यह पुलिस के जवानों का भी है। क्या उनके सामने महँगाई का प्रश्न नहीं है, गरीबी का प्रश्न नहीं है ? उन्हें भी परिवार का पोषण करना है,बेटे की पढ़ाई का खर्च देना है ,बेटी की शादी करनी है ।’
भाकपा (माओवादी) हिंसा का रास्ता छोड़े । हिंसक कार्रवाई के लिए उसे साधन देश के बाहर से ही मिल रहे हैं । वैश्वीकरण और देश की प्राकृतिक सम्पदा की लूट के खिलाफ़ जहाँ जन आन्दोलन चल रहे हैं उन्हें सरकारी हिंसा के बल पर दबाने का अवसर माओवादियों की रणनीति से मिल रहा है ।
खनिज सम्पदा की लूट और कलिंगनगर पर दूसरा हमला
Posted in विस्थापन, corporatisation, criminalisation, displacement, globalisation , privatisation, industralisation, odisha, tribal, tagged ओडिशा, कलिंगनगर, दमनचक्र, kalinganagar on अप्रैल 2, 2010| 13 Comments »
पिछले साल नौ सितम्बर को ’ब्लैक रोज़’ नामक मंगोलियाई पानी का एक बड़ा जहाज ओड़िशा के पारादीप बन्दरगाह के निकट डूब गया । जहाज में हजार २३८४७ टन लौह अयस्क लदा था । जिनका माल लदा था उन्होंने यह कबूल कर लिया कि एक अन्य जहाज ’टोरोस पर्ल’ के दस्तावेजों को जमाकर उन्होंने पारादीप बन्दरगाह में शरण पाई थी । जहाज का मालिक ब्लैक रोज़ नाम से दो जहाज चलाता था । बन्दरगाह से अन्य जहाज बाहर निकल सकें इसके लिए डूबे जहाज को हटाना जरूरी था । यह काम मजबूरन बन्दरगाह प्रशासन करवाना पपड़ रहा है । देश की अमूल्य खनिज सम्पदा की लूट की अवैध कारगुजारी का एक नमूना इस घटना से प्रकट हुआ । आदिवासी , दलित और पिछड़े गरीब किसानों का यह प्रान्त खनिज सम्पदा से समृद्ध है और उदारीकरण के दौर में देशी-विदेशी कम्पनियों में इसे लूटने की होड़ मची है । अनिल अग्रवाल ,मित्तल और टाटा सरीखों द्वारा लूट-खसोट में राज्य की पुलिस और कम्पनियों की ’निजी वाहिनी’ (भाड़े के गुण्डे) ग्रामीणों पर दमन का दौर चला रहे हैं ।
पारादीप बन्दरगाह के निर्माण के दौरान ट्रकों से कुचल कर २५० बच्चे मारे गये थे तब बीजू पटनायक ने कहा था ,’इन बच्चों की मौत विकास के लिए हुई शहादत है ” । ओडिशा मैंगनीज़ , लौह अयस्क तथा बॉक्साईट से समृद्ध है । ओडिशा के तट पर १२ नये बन्दरगाहों के निर्माण की योजना है । इनके द्वारा खनिज अयस्क तथा कोयले का निर्यात होगा । उदारीकरण के दौर में खनिज तथा वन कानूनों को ठेंगा दिखा कर दो सौ से दो सौ चालीस रुपये प्रति टन की लागत से प्राप्त लौह अयस्क चीन जैसे देशों को वैध/अवैध तरीकों से तीन हजार रुपये प्रति टन बेचा जा रहा है ।
इन तथ्यों के आधार पर ओडिशा के वरिष्ट पत्रकार एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता रवि दास ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है । ओडिशा-दिवस (पहली अप्रैल) पर वाराणसेय उत्कल समाज के आयोजन में वे बतौर मुख्य अतिथि बनारस आये हुए थे । ओड़िया के प्रसिद्ध अखबार ’प्रगतिवादी’ से बरसों से जुड़े रहने के बाद अब वे ’ आमो राजधानी’ नामक एक मध्याह्न दैनिक निकाल रहे हैं तथा वकीलों,पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों और पत्रकारों द्वारा बनाये गये ’ओडिशा जन सम्मेलनी’ नामक संगठन के अध्यक्ष हैं । रवि दास ३० मार्च को जाजपुर जिले के कलिंगनगर इलाके में हुए बर्बर दमन की तफ़तीश करने गई टीम में शामिल थे । टीम का नेतृत्व उच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त जज चौधरी प्रताप मिश्र ने किया । टीम में एक चिकित्सक तथा चित्त महान्ती (लेखक तथा राजनैतिक कार्यकर्ता),सुधीर पटनायक (पत्रकार) तथा महेन्द्र परीडा (ट्रेड यूनियन कर्मी) शामिल थे । मुख्यधारा की मीडिया द्वारा पुलिस दमन की घटना की खबर गायब किए जाने के कारण इस समिति की रपट के मुख्य अंश यहां दिए जा रहे हैं :
जाँच दल ने गोली चालन के शिकार ग्रामीणों से बालिगूथा ,चाँदिया तथा बरगड़िया में मुलाकात की तथा उनकी झोपड़ियों , पशु धन , खाद्यान्न ,साइकिल आदि के नुकसान का जायजा लिया।
बालिगूथा के सरपंच ने टीम को बताया कि उसके घर से नगद तथा आभूषण भी लिए गये हैं। आन्दोलनकारी आदिवासियों के नेता रवि जरिका पुलिस की गोली से घायल हुए हैं । उन्होंने घटना का पूरा ब्यौरा दिया। समिति गोली से घायल पचीस लोगों से मिली जिनमें नौ महिलाएं थी । जाँच दल के साथ गये चिकित्सक ने घायलों का उपचार किया ।
मुख्य तथ्य :
- करीब ३० से ४० आदिवासी गोली से घायल हैं । गंभीर रूप से घायल ४ लोग अस्पताल में भर्ती किए गये हैं । घायलों के जख़्म देख कर लगता है कि यह रबर की गोलियों के अलावा भी चलाई गई गोलियों से हुए हैं ।
- प्रशासन द्वारा घायलों के उपचार के लिए कुछ भी नहीं किया गया हैं । उत्पीड़न और गिरफ़्तारी के भय से घायल ग्रामीण बाहर नहीं निकलना चाहते ।
- बालिगूथा के करीब स्थित विवादास्पद ’कॉमन गलियारा’ के निर्माण स्थल पर किया पुलिस का गोली चालन बेजा था , किसी भड़कावे के बिना था तथा इसलिए पूर्वनियोजित था ।
- हथिया्रबन्द पुलिस की २९ प्लाटून , एन एस जी के दो प्लाटून , ७० पुलिस अधिकारी तथा ७ मजिस्ट्रेटों की मौजूदगी इलाके में व्याप्त आतंक के माहौल का अन्दाज देने के लिए काफ़ी हैं।
- सत्ताधारी दल से जुड़े जाने-पहचाने चेहरे पुलिस की वर्दी में बालीगूथा में घरों पर हमला करने वालों में थे । उनके पास बन्दूकें नहीं थी लेकिन वे तलवारों तथा वैसे ही घातक शस्त्रों से लैस थे।
- धारा १४४ लागू होने के बावजूद कम्पनी के गुण्डे भारी तादाद में छुट्टा घूम रहे थे ।
- विस्थापन विरोधी मंच के नेताओं के घरों को पहचान कर नुकसान पहुंचाया गया है तथा उन घरों के मूल्यवान सामान और खाद्यान्न नष्ट किए गए।
- आंदोलनकार पीडित आदिवासी बिना सोए रात गुजार रहे हैं क्योंकि उन्हें भय है कि स्थानीय प्रशासन के सहयोग से पुलिस , कम्पनी के गुण्डे,तथा सत्ताधारी दल से जुड़े अपराधी फिर से हमला कर सकते हैं ।
- इतनी भारी मात्रा में पुलिस बल की तैनाती अपने आप में इलाके की शान्ति के लिए खतरा है।
- ऐसा प्रतीत होता है कि प्रशासन आन्दोलनकारी आदिवासियों की समस्या के प्रति असंवेदनशील है तथा उसे सिर्फ़ कलिंगनगर स्थित कम्पनियों की परवाह है ।
संस्तुतियाँ :
- मुख्य मन्त्री तत्काल हस्तक्षेप कर विवादित गलियारा प्रोजेक्ट के काम को रोकें ।
- प्रशासन ने कलिंगनगर में पहले हुए गोली कांड के बाद लोगों से जो वाएदे किए थे उनके प्रति धोखा किया है इसलिए आदिवासियों की माँगों की बाबत सर्वोच्च स्तर पर वार्ता होनी चाहिए। जमीन के बद्ले जमीन देने की बात को नजरअंदाज किया गया है तथा गलियारे की भूमि के मलिकों से भी राय नहीं ली गई है ।
- कम्पनियों के खर्च पर छोटे से इलाके में एक बाद एक थाने खोलते जाने के बजाय मुख्यमन्त्री को सुनिश्चित करना चाहिए कि हर गाँव को शिक्षा ,स्वास्थ्य,पानी,सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ मिले। विधवा पेंशन जैसी योजनाओं को बेतुके रूप से इलाके में स्थगित कर दिया गया है ।
- पुलिस या नागरिक कानून को अपने हाथों में न ले । ३० मार्च को हुए गोली चालन तथा उसके पहले आदिवासियों में भय फैलाने वाली अपराधिक कारगुजारियों में लिप्त समस्त अधिकारियों को तत्काल निलम्बित किया जाए तथा उन पर मुकदमे चलाये जाँए ।
- गोली चालन से घायल पीडित हर व्यक्ति को एक लाख रुपये का जुर्माना दिया जाए ।
ओडिशा में नागरिक अधिकार आन्दोलन तथा किसान आन्दोलन पर रवि दास तथा किसान नेता बालगोपाल मिश्र से बातचीत आगे दी जाएगी ।
भोपाल गैस काण्ड : पच्चीस वर्ष : कवितायेँ : राजेन्द्र राजन
Posted in bio-terror, environment, industralisation, poem, rajendra rajan, samajwadi janparishad, tagged कवितायेँ, गैस काण्ड, भोपाल, राजेन्द्र राजन, bhopal, gas, poems, rajan, rajendra, tragedy on दिसम्बर 1, 2009| 11 Comments »
भोपाल गैस काण्ड के २५ वर्ष पूरे होने जा रहे हैं | दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी से जुड़े सवाल ज्यों के त्यों खड़े हैं | हाल ही में इस बाबत मनमोहन सिंह से जब प्रश्न किए गए तो उन्होंने इन सवालों को भूल जाने की हिदायत दी | राजेन्द्र राजन की ये कविताएं भी पिछले २५ वर्षों से आस्तीन के इन साँपों को बेनकाब करने की कोशिश में हैं |
१
मुनाफ़ा उनका है
श्मशान अपना है
जहर उनका है
जहरीला आसमान अपना है
अन्धे यमदूत उनके हैं
यमदूतों को नेत्रदान अपना है
हमारी आँखों में जिस विकास का अँधेरा है
उनकी आँखों में उसी विकास का सपना है
२
जितना जहर है मिथाइल आइसो साइनेट में
हाइड्रोजन साइनाइड में
फास्जीन में
उससे ज्यादा जहर है
सरकार की आस्तीन में
जिसमें हजार- हजार देशी
हजार – हजार विदेशी सांप पलते हैं ।
३
यह कैसा विकास है जहरीला आकाश है
सांप की फुफकार सी चल रही बतास है
आदमी की बात क्या पेड़ तक उदास है
आह सुन , कराह सुन , राह उनकी छोड़ तू
विकास की मत भीख ले
भोपाल से तू सीख ले
भोपाल एक सवाल है
सवाल का जवाब दो .
४
आलाकमान का ऐलान है
कि हमें पूरे देश को नए सिरे से बनाना है
और इसके लिए हमने जो योजनायें
विदेशों से मँगवाकर मैदानों में लागू की हैं
उन्हें हमें पहाड़ों पर भी लागू करना है
क्योंकि हमें मैदानों की तरह
पहाड़ों को भी ऊँचा उठाना है
५
अब मुल्क की हर दीवार पर लिखो
कोई बाजार नहीं है हमारा देश
कोई कारागार नहीं है हमारा देश
हमारे जवान दिलों की पुकार है हमारा देश
मुक्ति का ऊँचा गान है हमारा देश
जो गूँजता है जमीन से आसमान तक
सारे बन्धन तोड़ .
– राजेन्द्र राजन
क्या माओवादियों ने चीन के विकास पर ध्यान दिया ? -सच्चिदानन्द सिन्हा
Posted in capitalism, consumerism, corporatisation, displacement, gandhi, globalisation, industralisation, jharkhand, Maoist Ideology, samajwadi janparishad, tribal, tagged 'limitation of maoist ideology', capitalism, gandhi, mao on नवम्बर 1, 2009| 7 Comments »
पिछले भाग से आगे :
वैसे तो यह औद्योगिक व्यवस्था पूंजीवाद द्वारा पैदा की गयी है जिसमें निजी स्वामित्व की प्रधानता है , लेकिन धीरे धीरे उद्योगों का यह ढांचा , जो वृहद कॉर्पोरेशनों के रूप में विकसित हुआ है , पूंजीपतियों के व्यक्तिगत नियन्त्रण से मुक्त हो एक स्वतंत्र स्वरूप धारण करने लगा है और इसका मूल रुझान पूर्ववत श्रम और संसाधनों के शोषण से प्रतिष्ठानों के लिए ज्यादा मुनाफा कमाना होता है । विख्यात अमेरिकी अर्थशास्त्री गालब्रेथ ने विकसित हो रहे स्वायत्त पूंजी के व्यवस्थापकों के इस समूह को ’टेक्नोस्ट्रक्चर’ का नाम दिया था । निजी या सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्रों में इनकी व्यवस्था को चलाने के लिए व्यवस्थापकों और नौकरशाहों का ऐसा ही संवेदनहीन ढांचा तैयार हुआ है जिसका एक मात्र लक्ष्य अपना विस्तार करना और कॉर्पोरेशन के मुनाफे को बढ़ाना भर है । सार्वजनिक क्षेत्र के कॉर्पोरेशन एक अर्थ में जरूर भिन्न होते हैं। इनके मुनाफे पर एक हद तक – जहाँ लोकतंत्र है, जन प्रतिनिधियों का नियन्त्रण होता है । लेकिन इनकी मूल प्रवृत्तियाँ निजी पूंजीवादी प्रतिष्ठानों से भिन्न नहीं होतीं । और इसी कारण यह भी पूंजीवादी व्यवस्था के फैलाव और संकोच के व्यापार चक्र से बिल्कुल मुक्त नहीं होते । चूँकि बुनियादी तौर से यह निजी प्रतिष्ठानों से भिन्न नहीं होते सरकारें जब चाहें तो विनिवेश द्वारा इनकी पूँजी को निजी क्षेत्र में स्थानान्तरित कर सकती है – जैसा हाल में मनमोहन सिंह सरकार ने एन.टी.पी.सी में किया है ।
समग्र रूप से यह पूंजीवादी कॉर्पोरेटी दुनिया आम आदमियों , विशेष कर आदिवासियों और किसानों के जीवन पर कहर बरसाती है | जिस औपनिवेशिक शोषण के बल पूंजीवाद का विकास हुआ है वह शोषण और भी भयावह होता जा रहा है क्योंकि इस व्यवस्था की संसाधनों की भूख असीम है । इसका सरल सूत्र है – अधिक मुनाफे के लिए अधिक उत्पादन चाहिए और अधिक उत्पादन के लिए अधिक संसाधान यानी अधिक जंगल की कटाई , अधिक खनिजों का खनन , अधिक अन्न और दूसरे कृषिजन्य कच्चे माल । इनके संयन्त्रों के लिए भूमि और सबसे ऊपर व्यापार के लिए परिवहन का तानाबाना चाहिए , ताकि सभी दूरदराज स्थानों को यह ऑक्टोपस (अष्टपाद) की तरह अपनी गिरफ़्त में ले सकें । पिछले दिनों ’स्पेशल इकॉनॉमिक ज़ोन ’के नाम पर और सड़कों के चौड़ीकरण के नाम पर एक्सप्रेस वे एवं हाईवे के लिए देश भर में भूमि अधिग्रहण का सिलसिला चलाया जा रहा है । इन्हीं के खिलाफ़ प्रतिरोध से सिंगूर और नन्दीग्राम की त्रासदीपूर्ण घटनाएं हुई हैं । इसके पहले उड़ीसा , छत्तीसगढ़ और स्वयं झारखण्ड में देशी , विदेशी बड़ी कंपनियों द्वारा आदिवासियों और किसानों की जमीन पर सरकारी बल के सहारे अधिग्रहण के ऐसे प्रयास लगातार होते रहे हैं और जगह जगह इनके खिलाफ़ आन्दोलन होते रहे हैं जिन्हें दबाने की कोशिश भी होती रही है । जहाँ तहाँ माओवादी गतिविधियों में उभार में भी यह जन प्रतिरोध प्रतिबिंबित होता है । जब भारत के प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह “नक्सली हिंसा” को देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती बताते हैं तो उनकी चिंता व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिए संसाधनों की उपलब्धि की ही है । विश्व बैंक की आर्थिक नीति को देश में लागू करने में अग्रिम भूमिका निभाने वाले हमारे प्रधान मन्त्री का यह रुख स्वाभाविक है ।
लेकिन हमारे माओवादी मित्र भी लगभग वैसे ही दृष्टिकोण के शिकार हैं । अगर उन्होंने माओ के देश चीन पर ध्यान दिया होता तो वे माओवाद की जगह समाज परिवर्तन की किसी वैकल्पिक नीति की तलाश करते । माओ के चीन में आज क्या हो रहा है ? माओ के नेतृत्व में चालीस वर्ष से अधिक तक चलने वाले आन्दोलन – जिसमें अनगिनत लोगों ने अपनी आहुति – का अन्तिम परिणाम क्या हुआ? आज चीन पूंजीवादी विकास और कॉर्पोरेटी व्यवस्था का सबसे सशक्त और निर्मम नमूना है । वहाँ की सालाना विकास दर भारत से भी कहीं ज्यादा है , जो कभी १२ प्रतिशत पार कर गयी थी । लेकिन इसका फायदा वहाँ के नवोदित पूंजीपति वर्ग और व्यवस्थापक वर्ग को मिल रहा है , जिनकी सुविधायें पश्चिमी दुनिया के संपन्नों की बराबरी कर रही हैं । लेकिन आम किसानों और मजदूरों की स्थिति दर्दनाक बनी हुई है । सरकार को उनकी सुरक्षा की चिंता इतनी कम है कि हजारों लोग कोयला खदानों की दुर्घतनाओं में मरते रहते हैं । माओवादी मित्रों को इस पर विचार करना चाहिए कि वे माओ की तर्ज पर खूनी क्रांति में स्वयं अपनी और हजारों दूसरे प्रतिबद्ध लोगों की शहादत से फिर चीन जैसा ही पूंजीवादी ढांचा तैयार करना चाहते हैं क्या ? वैसे ढाचे में तो आदिवासी और किसान वैसे ही विस्थापित होंगे और कुचले जायेंगे जैसे भारत और दुनिया के दूसरे देशों में पूंजीवादी विकास के क्रम में हो रहा है । देंग या कुछ दूसरे व्यक्तियों पर इस “भटकाव” की जवाबदेही डाल हम गंभीर सामाजिक विश्लेषण से बच नहीं सकते ।
समाजवादी जन परिषद बुनियादी तौर से ऐसे विकास को ( भले ही वह समाजवाद के नाम पर हो रहा हो ) नकारती रही है और आगे भी नकारती रहेगी । हमें एक ऐसे वैकल्पिक ढांचे की तलाश जारी रखनी होगी जिसमें मेहनतकशों की स्वायत्तता और व्यवस्था की मानवीयता बनी रहे । हमें स्पष्ट रूप से यह घोषित करना है कि किसानों और आदिवासियों के जीवन पर आघात करने वाली किसी विकास की व्यवस्था को हम स्वीकार नहीं करेंगे । हमें ऐसी छोटी राजकीय और आर्थिक इकाइयाँ विकसित करने की दिशा में पहल करना होगा जिसमें आदमी पूरे अर्थ में स्वतंत्र हो और अपनी व्यवस्था बनाने के लिए उसे पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त हो । खनिजों की खुदाई के लिए किसानों और आदिवासियों के विस्थापन का हम शुरु से विरोध करते रहे हैं। बाल्को के गंधमार्दन में बॉक्साईट खनन का अहिंसक विरोध समता संगठन ( जिसके प्रयासों से बाद में समाजवादी जनपरिषद का निर्माण हुआ ) ने कुछ दूसरे सहयोगी संगठनों के साथ किया था और उसमें एक हद की सफलता भी मिली थी। हमारा यह संकल्प होना चाहिए कि आगे भी हम सदा ऐसा अहिंसक प्रतिरोध जारी रखेंगे ।
ऐसे अहिंसक संघर्षों की श्रृंखला से ही भविष्य में वह वातावरण तैयार होगा जिसमें एक वैकल्पिक समाज व्यवस्था – जो केन्द्रीकृत राज्य व्यवस्था और विशाल पूंजीवादी और नौकरशाही शोषण से समाज को मुक्त कर सके – अस्तित्व में आये । समाजवादी जनपरिषद को अपने इस प्रयास में देश के तमाम शोषित लोगों , आदिवासियों , किसानों , मजदूरों एवं बुद्धिजीवियों को शामिल करने की कोशिश करनी चाहिए । हमें लोगों को सचेत करना चाहिए कि प्राकृतिक संपदा के अन्धाधुंध दोहन की मुहिम को वर्तमान औद्योगिक विकास और उपभोक्तावादी संस्कृति से अलग कर नहीं देखें । जो लोग आज की विकास प्रक्रिया को तो कबूल करते हैं पर जल , जंगल , और जमीन के कॉर्पोरेटी अधिग्रहण का विरोध करते हैं , वे स्वयं अपने को और तमाम जनता को भ्रम में डालते हैं । दोनों का अनिवार्य संबंध है इस सत्य को हमें उजागर करते रहना है ।
हमारा पिछला राष्ट्रीय सम्मेलन सत्याग्रह आन्दोलन के शताब्दी वर्ष में हुआ था । आज का सम्मेलन “हिन्द स्वराज” के शताब्दी वर्ष में हो रहा है । आज की व्यवस्था के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष के क्रम में विकेन्द्रित ग्राम गणतंत्र की दिशा में समाज को ले जाने के प्रयास में “हिन्द स्वराज” की मूल कल्पना से प्रेरणा मिलेगी यह आशा है ।
– सच्चिदानन्द सिन्हा , धनबाद ,२८ अक्टूबर , २००९ .
डाक से प्राप्त दो महत्वपूर्ण टिप्पणियों को सलाम
Posted in blogging, environment, gandhi, industralisation, khadi, tagged ambani, अंबानी, कृपलानी, खादी, गांधीजी, नारायण देसाई, नीला हार्डीकर, बुनकर, रंगरेज, वस्त्र नीति, सिंथेटिक वस्त्र, स्वावलंबन, gandhi, khadi, narayan desai, neela hardikar, self reliance, synthetic cloth, textile policy on अक्टूबर 4, 2009| 8 Comments »
ब्लॉगिंग का एक मूल स्वरूप रोजनामचा लिखने का रहा है । वेब + लॉग में ’लॉग’ के लिए हिन्दी शब्द फादर कामिल बुल्के के अनुसार – रोजनामचा , यात्रा – दैनिकी , कार्य- पंजी भी है । इस हिन्दी सेवी ऋषि की जन्म-शताब्दी वर्ष पर उनके कोश का उपयोग करते हुए ,पुण्य स्मरण के साथ यह पोस्ट ।
तो, पिछले सत्तर से ज्यादा वर्षों से रोजनामचा या दैनिन्दनी लिखने वाले ब्लॉगिंग विरोधी एक सज्जन यह मानते रहे हैं कि इन्टरनेट पर लेखन और प्रकाशन फौरी-तुष्टीकरण ( instant gratification) मात्र का जरिया है । – ’फौरी तुष्टीकरण’ को ’तात्कालिक सन्तुष्टि’ कह देने पर मैं उनके आरोप को कबूलने के लिए तैयार था । उनका आगे कहना था कि ’कागज पर छपे का भविष्य के लिए महत्व है ’ (इन्टरनेट पर छपा हुआ मानो लम्बी अवधि तक नहीं देखा जाएगा) ।
सामाजिक जीवन-यात्रा में गुजराती , हिन्दी और अंग्रेजी में चार दर्जन से अधिक छोटी – बड़ी पुस्तकें लिख चुके इन महाशय को खादी पर लिखी मेरी पोस्ट का प्रिन्ट आउट मेरी भान्जी चारुस्मिता (दुआ) ने दिया । उन्होंने उसी दिन एक पोस्ट कार्ड उसकी बाबत मुझे लिख भेजा ।
यह कहने में मुझे लेशमात्र दुविधा नहीं है कि दिसम्बर , २००३ से अब तक हुई मेरी चिट्ठेकारी (शुरुआत अंग्रेजी से हुई थी । तब ब्लॉगर को गूगल ने नहीं खरीदा था।) पर की गई यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण टिप्पणियों में एक है ।
टिप्पणी प्रस्तुत करने के पहले टिप्पणीकार की बाबत कुछ जरूरी बातें । वे सेवाग्राम में गांधीजी द्वारा स्थापित ’खादी विद्यालय’ के शुरुआती विद्यार्थियों में थे । (चिट्ठेकार संजीत त्रिपाठी के पिता भी उस वक्त उनके सहपाठी थे ।)
४ – ५ साल की उम्र से चरखा चलाना सीखा तथा ११-१२ वर्ष की उम्र में इन्होंने टाइपिंग सीखी । महात्मा गांधी द्वारा हिटलर को भेजा गया एक ऐतिहासिक पत्र उन्होंने टाइप किया था, यह उन्हें स्मरण है । चरखा चलाने के पराक्रम में दो कातने वालों द्वारा दिन-रात लगातार चरखा चलाना उल्लेखनीय है। अपनी पुस्तक ’बापू की गोद में’ (ब्लॉग-किताब के रूप में उपलब्ध) में टिप्पणीकार अपने शैशव में चरखे और कातने के महत्व पर गौर कराने वाली यह बातें लिखते हैं :
…लेकिन इस तरह के धार्मिक और सामाजिक त्योहारों को भी पीछे छोड़ने वाली याद चरखा – जयन्ती ( रेटियो बारस ) की है । बापू के आश्रम में बापू का ही जन्मदिन? यह कैसा शिष्टाचार ? लेकिन इस जन्मदिन को बापू ने अपना जन्मदिन माना ही नहीं था ।यह तो चरखे का जन्मदिन था । इसलिए स्वयं बापू भी हमारे साथ उसी उत्साह से उसमें शरीक हो जाते थे । लोगों से बचने के लिए उस रोज उनको कहीं भाग जाना नहीं पड़ता था और न उस दिन के नाटक का उनको प्रमुख पात्र बनना पड़ता । उस दिन बापूजी एक सामान्य आश्रमवासी की तरह ही रहते थे । कभी हमारी दौड़ की स्पर्धा में समय नोट करने का काम करते , तो कभी – कभी हमसे बड़े लड़कों के कबड्डी के खेल में हिस्सा लेते । कभी – कभी हम लोगों के साथ साबरमती नदी में ( बाढ़ न हो तब ) तैरते भी थे । शाम को हमें भोजन परोसते और रात को अन्य आश्रमवासियों की तरह नाटक देखने के लिए प्रेक्षक के रूप में बैठ जाते । उस दिन का प्रमुख पात्र होता था चरखा । चरखा – द्वादशी का दिन गांधी – जयन्ती का भी दिन है , यह तो दो – चार चरखा – द्वादशियों को मनाने के बाद मालूम हुआ .
आजकल चरखा – द्वादशी के दिन बापू की झोपड़ी या बापू के मन्दिर खड़े किये जाते हैं । उनके फोटो की तरह – तरह से पूजाएँ की जाती हैं और सूत की की अपेक्षा टूटन का ही अधिक प्रदर्शन दिखाई देता है । लेकिन उन दिनों का जो दृश्य मेरी आँखों के सामने आता है , उसमें बापू का फोटो कहीं भी नहीं देखता हूँ । अखण्ड सूत्रयज्ञ उस समय भी चलते थे । विविध प्रकार के विक्रम ( रेकार्ड ) तोड़ने में हम बच्चों को अपूर्व आनन्द और उत्साह रहता था। कोई सतत आठ घण्टे कात रहा है तो दो साथी एक के बाद एक करके २४ घण्टे अखण्ड चरखा चालू रखते हैं । दिनभर काते हुए सूत के तारों की संख्या नोट कराने में एक – दूसरे की स्पर्धा चलती ।
अपने पिता महादेव देसाई की जीवनी ’अग्नि कुंडमा खिलेलू गुलाब’ के लिए उन्हें केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था तथा महात्मा गांधी की वृहत जीवनी ’मारू जीवन ए ज मारी वाणी’ के लिए ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी पुरस्कार । लाजमी तौर पर ’गांधी और खादी’ जीने के प्रयास के अलावा उनके ग्रन्थों के लिए किए गए शोध के भी विषय रहे हैं ।
(चित्र : संजय पटेल,इंदौर के सौजन्य से। सभी चित्रों को बड़े आकार में देखने के लिए उन पर खटका मारें)
हांलाकि इनकी लिखावट पाठकों के लिए ’हिंसक’ नहीं है फिर भी पत्र का मजमून टाइप कर दे रहा हूँ :
१५.१०.२००९(त्रृटि) (१८.९. की मुहर)
संपूर्ण क्रांति विद्यालय
प्यारे आफ़लू ,
आज खादी संबंधी तुम्हारे लेख (?) का प्रिन्ट आउट दुआने दिया। सुना कि तुमने सूत की गुण्डी के नाप संबंधी हिसाबमें तो तुमने दुरुस्ती कर ली है : (एक) गुण्डी = १००० मीटर ।
need – greed वाला उद्धरण गांधी का नहीं है । हालाँकि प्यारेलालजी ने लास्टफेजमें पार्ट II पृ. ५५२ पर इसका उपयोग गांधीजी के नाम से किया है । जान पड़ता है यह चमात्कारिक उद्धरण गांधीजी ने भी किया होगा । Oxford Dictionary of Quotations (ने) इसके लेखक का नाम Frank Buchman बताया जो उनकी Legacy of Frank Buchman में Legacy Chapter 15 में छपा है ।
यह जानकारी तुम कहाँ से लाये कि “जब आचार्यजी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव थे तब जवाहरलाल नेहरू चवन्निया सदस्य भी नहीं थे?” आचार्य कई वर्षों तक कांग्रेस महासचिव जरूर थे । उसमें से कुछ वर्ष जवाहरलालजी अध्यक्ष थे ।
खादी का बुनियादी नियम यह था कि खादी के दाम पर व्यवस्था खर्च अमुक प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ना चाहिए । इसलिए खादी कमीशन की वर्तमान नीति पर तुम्हारी आलोचना सटीक है ।
प्यार,
बाबूभाई.
सूत की गुण्डी सम्बन्धी सूचना में किसी अन्य पाठक द्वारा मेरी भूल को सुधार दिया जाएगा , मैं इस खुशफ़हमी में था । अतएव, साल भर के लिए जरूरी कपड़े के लिए एक व्यक्ति द्वारा १००० किलोमीटर सूत कातने की आवश्यकता होती है ।
आचार्यजी का कथन मैंने गांधी विद्या संस्थान,वाराणसी के अतिथि भवन में जेपी आन्दोलन के दौर में उनके मुख से सुना था तथा स्मृति के आधार पर उद्धृत किया था । अब लगता है कि मुमकिन है यह बात उन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी के बारे में कही हो। इस बाबत और जानकारी जुटाने की जरूरत है ।
टिप्पणी के अंतिम वाक्य द्वारा इन्टरनेट सम्बन्धी टिप्पणीकर्ता की धारणा (’हृदय’ नहीं कह रहा) में कोई तब्दीली आई होगी , क्या यह माना जा सकता है ?
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जनसत्ता के समांतर स्तंभ में मेरे ब्लॉग से ली गई इसी प्रविष्टी को पढ़कर सुश्री नीला हार्डीकर ने मुझे एक पत्र लिखा है। मेरे साथियों से फोन नम्बर मालूम कर उन्होंने यह बताया कि वे नेट पर हिन्दी टाइपिंग नहीं जानती इसलिए हाथ से लिखा ख़त भेज रही हैं । नीला हार्डीकर अवकाशप्राप्त शिक्षिका हैं तथा मध्य प्रदेश के जन आन्दोलनों से कई दशकों से जुड़ी रही हैं । उन्होंने ’सिंथेटिक वस्त्र’ पर अपनी स्वतंत्र टिप्पणी भी भेजी है जिसे अलग से प्रकाशित किया जाएगा । फिलहाल , ’खादी की राखी’ पर उनकी मूल्यवान टिप्पणी का चित्र तथा टाइप किया हुआ पाठ :
मुरेना (म.प्र.)
२८ सितम्बर,२००९
प्रिय अफलातून ,
२४.९.०९ के जनसत्ता में ’खादी की राखी’ पढ़ा । मुद्दे महत्वपूर्ण उठाए हैं आपने , जैसे वस्त्र का बाजार धीरूभाई को उपलब्ध कराना । मैं इतने साल से सोच रही हूँ – राजीव गांधी को क्या रिश्वत मिली होगी इसके लिए । अब अगली स्टेप है ए डी बी की मदद से खादी बेचना ।
मुझे लगता (है) सरकार के उस छोटे फैसले के जो बड़े नतीजे निकले उनका अच्छी तरह अध्ययन होना चाहिए । एक ग्रूप हो जो यह काम करे । कई आयामों पर एक साथ तथ्य संकलन , विश्लेषण करना होगा । उदाहरण के लिए
१. सिन्थेटिक कपड़ों के लाभ नुकसान.
२. गांव , कस्बों के बाजार से और गरीब घरों से सूती वस्त्र गायब होना.
३. बुनकरों की दुर्गति .
४. रंगों की फैक्टरियां खत्म , रंगरेजों का भट्टा बैठना .
५. डिटर्जण्ट्स आदि का जमीन तथा जलस्रोतों पर प्रभाव .
६. सिन्थेटिक धागा non bio-degradable होना.
७. ——-
छानबीन इस सवाल की भी होनी चाहिए कि ADB के लिए महौल बना कैसे ? शायद इस तरह :
अ) कि , खादी अब गरीब का वस्त्र बचा नहीं .
ब) कि , खादी = सादगी से शुरु करके खादी = सत्ता के रास्ते हम खादी = पाखण्ड तक पहुंच चुके हैं .
स) कि, गांधी के चरखे से अब बी.टी. कॉटन का सूत कतता है ।
जब स्वालंबन का बीज ’ मोन्सेण्टो’ के हाथों गिरवी है , तब स्वाव्लंबन के सूत्र संभालना काफी है ? संभव है ?
ये सारे ( और भी कई ) पहलुओं का एकसाथ अध्ययन करके , स्थिति का qualitative के साथ quantitative आकलन करके क्या हम विकल्प का रास्ता ढूंढ़ सकते हैं ?
मैं उपरोक्त बिन्दुओं में से कुछेक पर अपने निरीक्षण लिख रही हूँ । इनमें बहुतों को बहुत कुछ जोड़ना होगा । किसी सामूहिक अध्ययन की कोशिश संभव हो तो बताएं ।
मेरा परिचय स्वाति थोड़ा बहुत देंगी । रिटायर्ड शिक्षिका हूँ । सुनील , स्मिता से मिलती रहती हूँ ।
शुभेच्छाओं सहित,
नीला
९४२५१ २८८३६ , hneelaATyahooDOTcom
नीलाजी ने विषय को जरूरी एवं गंभीर विस्तार दिया है । मुझे उम्मीद है कि उनका ख़त और ’सिंथेटिक वस्त्र ’ विषयक टिप्पणी ( अगली पोस्ट में प्रकाश्य ) एक पहल की शुरुआत होंगे। दोनों टिप्पणीकर्ताओं का अत्यंत आभारी हूँ । नीलाजी को नेट पर हिन्दी टाइप करने , मेल करने आदि की बाबत लिख रहा हूँ ।
अर्थशास्त्र – मार्क्स , लोहिया से आगे (२): आंतरिक उपनिवेश,ले. सुनील
Posted in capitalism, environment, gandhi, globalisation , privatisation, industralisation, lohia, tagged अर्थशास्त्र, आंतरिक उपनिवेश, मार्क्स, लोहिया से आगे, सच्चिदानन्द सिन्हा, सुनील, economics after marx, internal colony, lohia, marx, sachchidanand sinha, sunil on मार्च 9, 2009| 7 Comments »
पिछले भाग से आगे : जाहिर है लोहिया का यह निष्कर्ष गलत साबित हुआ । पूंजीवाद ज्यादा दीर्घायु और ज्यादा स्थायी साबित हुआ तथा कई संकटों को पार कर गया । मार्क्स की ही तरह लोहिया की भविष्यवाणी भी गलत साबित हुई । दरअसल , इस निबन्ध को वे पचीस तीस साल बाद लिखते तो आसानी से देख लेते कि उपनिवेशों के आजाद होने के साथ औपनिवेशिक शोषण तथा साम्राज्यवाद खतम नहीं हुआ , बल्कि उसने नव-औपनिवेशिक रूप धारण कर लिया । अंतरराष्ट्रीय व्यापार , अंतरराष्ट्रीय कर्ज , विदेशी निवेश और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विस्तार के जरिए यह शोषण चलता ही नहीं रहा बल्कि बढ़ता गया । सुदूर क्षेत्रों तक घुसपैठ व कमाई के जरिए पूंजीवाद को मिले । नतीजतन पूंजीवाद फलता फूलता गया । भूमंडलीकरण का नया दौर इसी नव औपनिवेशिक शोषण को और ज्यादा बढ़ाने के लिए लाया गया है ।
औपनिवेशिक प्रक्रिया का एक और रूप सामने आया है । वह है आंतरिक उपनिवेशों का निर्माण । सच्चिदानन्द सिन्हा जैसे समाजवादी विचारकों ने हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया है । दुनिया के गरीब देशों में जो सीमित औद्योगीकरण हुआ है , वह इसी प्रक्रिया के साथ हुआ है । जब बाहरी उपनिवेश बनाना संभव नहीं होता , तो पूंजीवादी विकास देश के अंदर ही उपनिवेश बनाता है । जैसे भारत के पिछड़े एवं आदिवासी इलाके एक तरह के आंतरिक उपनिवेश हैं । पूर्व सोवियत संघ के एशियाई हिस्से भी आंतरिक उपनिवेश ही थे । आंतरिक उपनिवेश सिर्फ भौगोलिक रूप में होना जरूरी नहीं है । अर्थव्यवस्था एवं समाज के विभिन्न हिस्से भी आंतरिक उपनिवेश की भूमिका अदा कर सकते हैं । जैसे गांवों और खेती को पूंजीवादी व्यवस्था में एक प्रकार का आंतरिक उपनिवेश बना कर रखा गया है , जिन्हें वंचित ,शोषित और कंगाल रख कर हे उद्योगों और शहरो का विकास होता है । भारत जैसे देशों का विशाल असंगठित क्षेत्र भी एक प्रकार का आंतरिक उपनिवेश है जिसके बारे में सेनगुप्ता आयोग ने हाल ही में बताया कि वह २० रुपये रोज से कम पर गुजारा करता है । लेकिन यह भी नोट करना चाहिए कि पूंजीवादी विकास की औपनिवेशिक शोषण की जरूरत इतनी ज्यादा है कि सिर्फ आंतरिक उपनिवेशों से एक सीमा तक , अधकचरा औद्योगीकरण ही हो सकता है । भारत इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है , जहाँ औद्योगीकरण की एक सदी के बावजूद देश का बहुत बड़ा हिस्सा बहिष्कृत और हाशिए पर है तथा देश की श्रम शक्ति का ८ फीसदी भी संगठित क्षेत्र में नहीं लग पाया है ।
इस प्रकार नव औपनिवेशिक शोषण एवं आतंरिक उपनिवेश की इन प्रक्रियाओं से पूंजीवाद ने न केवल अपने को जिन्दा रखा है , बलिक बढ़ाया व फैलाया है । लेकिन इससे लोहिया की मूल स्थापना खारिज नहीं होती हैं , बल्कि और पुष्ट होती हैं । वह यह कि पूंजीवाद के लिए देश के अंदर कारखानों खदानों के मजदूरों का शोषण पर्याप्त नहीं है । इसके लिए शोषण के बाहरी स्रोत जरूरी हैं । उपनिवेश हों , नव उपनिवेश हों या आंतरिक उपनिवेश हों उनके शोषण पर ही पूंजीवाद टिका है । साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद पूंजीवाद के अनन्य सखा सहोदर हैं । इसीसे यह निष्कर्ष भी निकलता है आधुनिक औद्योगिक पूंजीवादी विकास कभी भी सब के लिए खुशहाली नहीं ला सकता है । बड़े हिस्से की कीमत पर कुछ लोगों का ही विकास हो सकता है । यदि दुनिया के सारे इलाकों और सारे लोगों को विकास चाहिए तो पूंजीवाद का विकल्प खोजना होगा ।
पूंजीवाद का एक और आयाम है ,जो तेजी से उभर कर आ रहा है । धरती का गरम होना , बढ़ता प्रदूषण , नष्ट होती प्रजातियां , पर्यावरण का बढ़ता संकट, प्राकृतिक संसाधनों के बढ़ते संघर्ष आदि इस बात की ओर इंगित कर रहे हैं कि पूंजीवादी विकास में प्रकृति भी एक महत्वपूर्ण कारक है । जैसे श्रम का अप्रत्यक्ष (औपनिवेशिक) शोषण पूंजीवाद में अनिवार्य रूप से निहित है , वैसे ही प्रकृति के लगातार बढ़ते दोहन और शोषण के बिना पूंजीवादी विकास नहीं हो सकता । जैसे जैसे पूंजीवाद का विकास और विस्तार हो रहा है प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और एक तरह का अघोषित युद्ध बढ़ता जा रहा है । जिन पारंपरिक समाजों और समुदायों की जिन्दगियां प्रकृति के साथ ज्यादा जुड़ी हैं जैसे आदिवासी , पशुपालक , मछुआरे , किसान आदि उनके ऊपर भी हमला बढ़ता जा रहा है । पूंजीवाद के महल का निर्माण उनकी बलि देकर किया जा रहा है ।
पिछले दिनों भारत में नन्दीग्राम , सिंगूर , कलिंगनगर आदि के संघर्षों ने औद्योगीकरण की प्रकृति व जरूरत पर एक बहस खड़ी की , तो कई लोगों को इंग्लैंड में पूंजीवाद की शुरुआती घटनाओं की याद आईं जिसे कार्ल मार्क्स ने ‘पूंजी का आदिम संचय’ नाम दिया था । दोनों में काफ़ी समानतायें दिखाई दे रही थीं । इंग्लैंड में तब बड़े पैमाने पर किसानों को अपनी जमीन पर से बेदखल किया गया था , ताकि ऊनी वस्त्र उद्योग हेतु भेड़पालन हेतु चारागाह बनाये जा सकें और बेदखल किसानों से बेरोजगारों की सस्ती श्रम – फौज , नये उभर रहे कारखानों को मिल सके । कई लोगों ने कहा कि भारत में वही हो रहा है। लेकिन मार्क्स के मुताबिक तो वह पूंजीवाद की प्रारंभिक अवस्था थी । क्या यह माना जाए कि भारत में पूंजीवाद अभी भी प्रारंभिक अवस्था में है । यह कब परिपक्व होगा ?
[ जारी ]