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Posts Tagged ‘environment’

[ २८ , २९ , ३० अक्टूबर २००९ को धनबाद में समाजवादी जनपरिषद का द्विवार्षिक सम्मेलन सम्पन्न हुआ । सम्मेलन का उद्घाटन दल से जुड़े चिन्तक सच्चिदानन्द सिन्हा ने किया । प्रस्तुत है उनका उद्घाटन भाषण ]

सच्चिदानन्द सिन्हासच्चिदानन्द सिन्हा

सच्चिदानन्द सिन्हा

झारखण्ड , जहाँ हम सम्मेलन में बैठे हैं , एक अर्थ में मानव इतिहास की समेकित प्रतिछाया प्रस्तुत करता है । अपनी बात को मैं थोड़ा स्पष्ट करना चाहता हूँ । मानव समाज के अनुभवों के परिपेक्ष्य में पिछली दो शताब्दी का इतिहास यह बतलाता है कि सारी आदिम समाज से कारपोरेटीकरण की तरफ़ संक्रमण और इस क्रम में आम आदमी के दरिद्रीकरण की रही है । दरिद्रीकरण , आधुनिक अर्थ में धन के अभाव से ही नहीं , बल्कि आदमी की स्वायत्तता , आत्म सम्मान एवं सामाजिक दायित्व बोध के लोप के अर्थ में भी । मार्क्स समेत ज्यादातर चिंतकों के विचार इस प्रक्रिया से बाहर कोष्ठकों में बन्द विवरण भर हैं ।

आम आदमी के जीवन में यह संक्रमण तीन चरणों में आया है – पहला , जब आदमी कबीले के सम्मानित सदस्य के रूप में स्थित था , दूसरा , जब वह किसान बना और अपने उत्पादन के अधिशेष से व्यवस्था एवं इसके शीर्ष पर उपस्थित विभिन्न तरह के शोषक समूहों का पोषण करता रहा , और तीसरा जब वह आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था में सर्वहारा या श्रमिक बन अपने काम और आय दोनों के लिए पराश्रित बना । वर्तमान पूंजीवादी समाज में वह कौन सा काम करेगा और किन उपक्रमों में किन स्थितियों में करेगा , दूसरों द्वारा निर्धारित होता है । दरअसल इतिहास बतलाता है मनुष्य पूर्ण स्वायत्तता की स्थिति में सिर्फ प्रथम चरण में ही था जब वह सामूहिक शिकार या वनोपजों के संग्रह से जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करता था । उस काल में सभी लोग वास्तविक या कल्पित लहू के संबंध से सगे और सहयोगी थे । हाल के अनेक अध्ययनों से यह बात सिद्ध होती है कि उनके कठोर जीवन और आपसी खूनी संघर्षों की कहानी प्राय: विद्वानों द्वारा वर्तमान समाज में फैले द्वेष – राग का प्रचीन स्थितियों पर प्रक्षेपण का परिणाम है ।

झारखण्ड में हम एक विकृत रूप में विकास के इन तीनों खण्डों का सह – अस्तित्व पाते हैं । (१) यहाँ आज भी अनेक कबीलायी समूह हैं जो मूल्त: आखेट और वनोपजों के संग्रह से जीविका पाते हैं – हाँलाकि आधुनिक खदानों , उद्योगों और शहरीकरण ने उन्हें अति छोटे दायरों में सीमित कर दिया है । वे आज विलुप्त होने की कगार पर हैं । (२) वर्तमान भूमि व्यवस्था के तहत खेतीबारी करने वाले किसान और (३) खदानों , कारखानों , निर्माण कार्यों एवं परिवहन में कार्यरत मजदूर जो स्थायी या दिहाड़ी मजदूरी पर काम करते हैं ।

झारखण्ड की त्रासदी यह है कि यहाँ वनोपजों की भरमार है ( या थी )और खनिजों का विपुल भंडार है – शायद भारत के तमाम खनिजों के तीस से चालीस प्रतिशत तक । इसलिए जब से भारत में आधुनिक औद्योगीकरण ने अपना पांव पसारना शुरु किया तब से कोयला , लौह – अयस्क , और दूसरे खनिजों के लिए यहाँ के उर्वर वनों से हरे भरे प्रदेश की खदानों के लिए खुदाई शुरु हुई । और यह हरा भरा प्रदेश उबड़ खाबड़ खड्डों और खंडहरों का बियाबान बनने लगा । पारंपरिक जीवन के आधार से विस्थापित यहाँ के स्वस्थ और सुन्दर पुरुष और स्त्रियों को बिचौलियों के माध्यम से दूर दराज स्थानों पर उत्तर बंग से लेकर असम तक के चाय बगानों में काम करने के लिए ले जाया गया । वहाँ वे अपनी पूरी सांस्कृतिक विरासत से कट गये , और आज जहाँ हैं और जिस जमीन को उन्होंने अपने खून पसीने से सींचा और बनाया है ,उस पर भी उनके सत्व की स्वीकृति नहीं है । पारंपरिक जीवन के आधार के नष्ट होने से आजीविका के साधन से हीन यहाँ के लोगों को आज भी बड़ी संख्या में ठेकेदारों द्वारा कठोर अस्थायी निर्माण कार्यों के लिए बाहर ले जाया रहा है ।

दूसरी तरफ़ झाखण्ड के खदानों और कारखानों में काम करने के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी भाषी क्षेत्रों से बड़ी तादाद में श्रमिक यहाँ आये । वे भी अंग्रेजी हुकूमत द्वारा पैदा की गयी दरिद्रता और विस्थापन की एक कहानी के साथ आये थे । अंग्रेजी शासन ने वहाँ भी दरिद्रता और अकाल की एक व्यवस्था पैदा की थी । अत्यधिक शोषण और शासकीय लापरवाही से कृषि व्यवस्था नष्ट हो गयी थी और अकालों का एक सिलसिला शुरु हुआ । दूसरी ओर औद्योगिक क्रांति के बाद के बर्तानी उद्योगों की प्रतिस्पर्धा और शासकीय पक्षपात के कारण वहां के पारंपरिक घरेलू उद्योग नष्ट हो गये और इनमें लगे शिल्पी बेरोजगार हो गये । इसी पृष्टभूमि में वहाँ से बड़ी संख्या में लोगों को बंधुआ मजदूरों के रूप में मॉरिशस , सुरीनाम , गायना, फिजी आदि में ले जाया गया । जो बाकी बचे उनमें बड़ी संख्या में लोग रोजगार की तलाश में कोलकाता , जैसे महानगरों या फिर झारखण्ड की खदानों में काम करने आये । कुछ ऐसे ही कारणों से छत्तीसगढ़ और बिलासपुर से भी बड़ी संख्या में लोग झारखंड की खदानों में काम करने आये । इससे इस इलाके में विभिन्न स्थानों से आये मजदूरों में भी एक दूसरे के प्रति तनाव पैदा होता रहा है । कोयला या दूसरे अयस्कों की ढुलाई के खर्च से बचने के लिए कुछ बड़े औद्योगिक संयन्त्र टाटा , बोकारो , हटिया , सिंदरी आदि में लगे । पर इनमें दक्षता और बड़ी आय वाले स्थानों पर प्राय: वैसे लोगों को लगाया गया जो विकसित औद्योगिक क्षेत्रों से आते थे और दक्षता वाले कामों में प्रशिक्षित थे । नये तरह के उद्योगों में रोजगार देने की क्षमता घटती जा रही है और इससे रोजगार के लिए प्रतिस्पर्धा और श्रमिकों के विभिन्न समूहों में आपसी तनाव बढ़ता गया है । लोग इस बात को नजरअंदाज करते रहे हैं कि समस्या के मूल में आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था ही है जो लगातार उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों की संख्या ऑटोमेशन और कम्प्यूटरीकरण के जरिये घटाती चलती है । चूँकि उद्योग धन्धे मूलत: वहीं विकसित होते हैं जहाँ संरचनात्मक सुविधाओं का विकास हुआ होता है । उद्योग प्राय: वहीं फैलते हैं जहाँ इनका आधार एक बार निर्मित हो चुका होता है । देश के हर हिस्से से लोग ऐसे औद्योगिक नगरों की ओर रुख करते हैं और काम नहीं मिलने पर उनकी झुग्गियों और झोपड़ पट्टी को आबाद करते हैं । इन स्थानों पर लोगों में प्राय: मूल , भाषा आदि के सवाल पर तनाव पैदा होता है । यूरोप के देशों में इस तरह का विरोध बाहर से काम की तलाश में आने वाले अप्रवासियों के खिलाफ़ होता है । झारखंड में भी यदा कदा इस तरह का तनाव विभिन्न मूल के लोगों के बीच देखा जा सकता है । इसके मूल में वर्तमान पूंजीवादी उद्योगों का चरित्र है जिस में स्थायी और अस्थायी बेरोजगारी निहित है । इससे सीमित रोजगार के लिए मजदूरों में छीना झपटी होती रहती है ।

( जारी )

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इस सैद्धान्तिक अन्तर्विरोध का हल खोजने की कोशिश में हम एक नये सत्य पर पहुचते हैं । दरअसल पूंजीवाद का तीन – चार सौ सालों का पूरा इतिहास देखें, तो वह लगातार प्राकृतिक संसाधनों पर बलात कब्जा करने और उससे लोगों को बेदखल करने का इतिहास है । एशिया व अफ्रीका के देशों को उपनिवेश बनाने के पीछे वहाँ के श्रम के साथ साथ वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों की लूट का आकर्षण प्रमुख रहा है । दोनों अमरीकी महाद्वीपों और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के मूल निवासियों को नष्ट करके वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की लालसा ही यूरोपीय गोरे लोगों को वहाँ खींच लाई । जिसे मार्क्स ने ‘पूंजी का आदिम संचय’ कहा है वह दरअसल पूंजीवाद की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है । इसके बगैर भी पूंजीवाद चल नहीं सकता । मजदूरों के शोषण की तरह प्राकृतिक संसाधनों की लूट भी पूंजी के संचय का अनिवार्य हिस्सा है ।
पूंजीवादी औद्योगीकरण एवं विकास के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीके से कितने बड़े पैमाने पर जंगल नष्ट किया गया , कितने बड़े पैमाने पर जमीन की जरूरत है , कितने बड़े पैमाने पर पानी की जरूरत है , कितने बड़े पैमाने पर खनिज निकालना होगा , कितने बड़े पैमाने पर उर्जा चाहिए – ये बातें अब धीरे धीरे साफ़ हो रही हैं और उनका अहसास बढ़ रहा है । यदि यह पूंजीवाद की अनिवार्यता है तो पूंजीवाद के विश्लेषण में इन्हें शामिल करना होगा । जो मूल्य का श्रम सिद्धान्त मार्क्स ने अपनाया वह इसमें बाधक होता है । श्रम के शोशण को समझने और उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम के महत्व को बताने के लिए तो यह सिद्धान्त ठीक है , किन्तु प्राकृतिक संसाधनों का इसमें कोई स्थान नहीं है । ऐसा शायद इसलिए भी है कि प्राकृतिक संसाधनों को प्रकृति का मुफ्त उपहार मान लिया जाता है । लेकिन सच्चाई यह है कि प्रकृति को बड़े पैमाने पर लूटे बगैर तथा उस पर निर्भर समुदायों को उजाड़े-मिटाये बगैर पूंजीवादी व्यवस्था के मूल्य का सृजन हो ही नहीं सकता । ‘अतिरिक्त मूल्य’ का एक स्रोत श्रम के शोषण में है, तो एक प्रकृति की लूट में भी । जिसे पूंजीवादी मुनाफा कहा जाता है उसमें प्राकृतिक संसाधनों पर बलात कब्जे , एकाधिकार और लूट से उत्पन्न ‘लगान’ का भी बड़ा हिस्सा छिपा है ।
प्राकृतिक संसाधनों की यह लूट को नवौपनिवेशिक शोषण या आन्तरिक उपनिवेश की लूट से स्वतंत्र नहीं है , बल्कि उसीका हिसा है । शोषण व लूट के इस आयाम को पूंजीवाद के विश्लेषण के अंदर शामिल करना जरूरी हो गया है। मार्क्स और लोहिया के समय यह उभर कर नहीं आया था । इसलिए अब पूंजीवाद के समझने के अर्थशास्त्र को मार्क्स और लोहिया से आगे ले जाना होगा । गांधीजी जो शायद ज्यादा दूरदर्शी व युगदृश्टा थे इसमें हमारे मददगार हो सकते हैं ।
पूंजीवाद एक बार फिर गहरे संकट में है । वित्तीय संकट , विश्वव्यापी मन्दी और बेरोजगारी आदि इसका एक आयाम है । यह भी गरीब दुनिया के मेहनतकश लोगों के फल को हड़पने के लिए शेयर बाजार , सट्टा , बीमा , कर्ज का व्यापार जैसी चालों का नतीजा है जिसमें कृत्रिम समृद्धि का एक गुब्बारा फुलाया गया था । वह गुब्बारा फूट चुका है । लेकिन इस संकट का दूसरा महत्वपूर्ण आयाम पर्यावरण का संकट , भोजन का संकत और प्राकृतिक संसाधनों का संघर्ष है । दुनिया के अनेक संघर्ष जल, जंगल , जमीन , तेल और खनिजों को ले कर हो रहे हैं । इन संकटों से पूंजीवादी विकास की सीमाओं का पता चलता है । इन सीमाओं को समझकर , पूंजीवाद की प्रक्रियाओं का सम्यक विश्लेषण करके , उस पर निर्णायक प्रहार करने का यह सही मौका है । यदि हम ऐसा कर सकें तो जिसे ‘इतिहास का अंत’ बताया जा रहा है , वह एक नये इतिहास को गढ़ने की शुरुआत हो सकता है ।
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कृपया आलेख प्रकाशित होने पर कतरन एवं पारिश्रमिक निम्न पते पर भेजें –
सुनील ,समाजवादी जनपरिषद ,ग्रा?पो. केसला,वाया इटारसी,जि होशंगाबाद,(म.प्र.) ४६११११
सुनील का ई-पता sjpsunilATgmailDOTcom

इस लेख का प्रथम भाग , दूसरा भाग

सुनील की अन्य लेखमाला : औद्योगीकरण का अन्धविश्वास : ले. सुनील

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