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कूडनकुलम भविष्य की भोपाल त्रासदी हो सकता है : नॉम चौम्स्की

संयुक्त राज्य अमेरिका के मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलोजी के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त शिक्षाविद् तथा विचारक नोमचोमस्की ने कहा है कि कूडनकुलम भविष्य में होने वाली भोपाल त्रासदी हो सकता है। संघर्ष कर रहे लोगों के समर्थन में लिखे एकजुटता पत्र में नोम चोमस्की ने कहा कि परमाणु ऊर्जा एक खतरनाक पहल है खासकर भारत जैसे देशों जहां औद्योगिक आपदाएं ज्यादा बड़ी तादाद में होती रहती है। भोपाल आपदा सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। कूडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र के शुरू होने के विरोध में साहसी लोगों के आंदोलन के लिए मैं अपनी एकजुटता व्यक्त करना चाहता हूँ।

नोमचोमस्की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध भाषाविद, दार्शनिक, संज्ञानात्मक वैज्ञानिक, तर्कशास्त्री, इतिहासकार, राजनीतिक आलोचक और कार्यकर्ता है, उन्होंने एमआईटी में भाषा विज्ञान तथा दश्रन के विभाग एक प्रोफेसर के रूप में काम किया है, भाषा विज्ञान में अपने काम के अलावा उन्होंने युद्ध, राजनीति, मास मीडिया और कई अन्य क्षेत्रों पर लिखा है। चोमस्की को 1980 से 1992 के बीच किसी भी अन्य जीवित विद्वान से सबसे ज्यादा उद्धृत किया गया था और 2005 के एक सर्वेक्षण में उन्हें ‘दुनिया का शीर्ष जन बुद्धिजीवि’ चुना गया था। आधुनिक भाषा विज्ञान का पिता कहे जाने वाले चोमस्को को उनकी पुस्तक ‘मैनुफैकचरिंग कन्सेंट’ के लिए जाना जाता है। नेशनल फिश वर्करस फोरम के सचिव टी. पीटर ने कहा ‘‘ नॉम चोमस्की का समर्थन, केरल, तामिलनाडु तथा श्रीलंका के मछुआरा समुदाय के लिए सबसे बड़ा वरदान है जो दुर्भाग्यवश कूडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र के पहले पीड़ित हैं। हमें उम्मीद है कि अब अधिक से अधिक सूमहों तथा व्यक्त्यिों का समर्थन इस संघर्ष को मिलेगा।’

आज चोमस्की मौजूदा समय में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के बुद्धिजीवियों में से सबसे अग्रणीय वामपंथी बुद्धिजीवी हैं। यह आश्चर्य की बात है कि जब इस तरह के एक महान व्यक्तित्व ने कूडनकुलम संघर्ष के लिए समर्थन व्यक्त किया है, भारत में वामपंथी अभी भी परमाणु ऊर्जा के खतरों पर अपने रूख के बारे में उलझन में है।- कायकर्ता तथा लेखक ‘सिविक चन्द्रन’ चोमस्की का यह समर्थन कूडानकुलम मुद्दों पर परमाणु विरोधी कार्यकर्ताओं द्वारा इंटरनेट के माध्यम से जानी पहचानी वेबसाइट www.countercurrents.org पर अद्भुत तरीके से चलाये गये अभियान की कोशिशों का हिस्सा है। यह वेबसाइट कूडनकुलम संघर्ष के समर्थन में जाने पहचाने राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय हस्तियों के बयानों को पोस्टर के रूप उनकी फोटो के साथ 11 अक्टूबार के बाद से रोज प्रकाशित कर रही है।

माइरिड मेगुआर , 1976 की नोबल शांति पुरस्कार विजेता तथा आयरिश शांति कार्यकर्ता, ने भी कूडानकुलम संघर्ष के प्रति अपनी एकजुटता व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि यह संघर्ष दुनिया के लिए एक प्रेरणा है उन्होंने कहा कि यह संघर्ष दुनिया के लिए एक प्रेरणा है उन्होंने यह भी कहा मैं कूडनकुलम के साहसी लोगों के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करती हूं क्योंकि वह अपने इलाकों में कुडानकुलम परमाणु ऊर्जा संयत्र का अहिंसक तरीके से प्रतिरोध कर रहे है। गांव के साहसी पुरुष और महिलायें जो अपने बच्चोकं के जीवन की रक्षा के लिए तथा मछुआरों सभी की आजीविका तथा अपने पर्यावरण के लिए अपने जीवन को खतरे में डाल रहे हैं।

हम आप सभी का समर्थन करते हैं, बहादुर बने रहिये, चुप मत रहिये आप इस संकट से बाहर आ जायेंगे.. अपने काम से आप दुनिया भर में हम जैसे लोगो के लिए प्रेरणा बन गये हैं हम सच्चे अर्थों में आपके साथ हैं शांति।

इंटरनेट पर यह अभियान पोस्टरों के द्वारा केरल के मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंदन के साथ शुरू हुआ जिन्होंने कहा ‘हमें इस परमाणु बम की जरूरत नहीं है केन्द्रीय सरकार को इस संयंत्र से संबंधित सारी गतिविधियों तत्काल रोकना चाहिए। केरल सरकार को तुरंत जागना चाहिए और लोगो पर आये इस खतरे पर समझदारी से काम करना चाहिए।

जबकि परमाणु ऊर्जा पर अच्युतानंदन के इस रूख पर बहस की जा रही है, कुछ दूसरे लोगों ने इस अभियान के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त की है: कूडानकुलम की गरीब जनता वही कर रही है जो कोई भी अपनी जिंदगी की तथा अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए करेगा। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सरकार जो परमाणु लॉबी का एक हिस्सा बन गई है, वह इसे समझ नहीं सकती। उन्हंे चेरनोबिल और फुकुशिमा के व्यापक सबकों से सीखना चाहिए- बिनोय विसवार्म, केरल के पूर्व मंत्री और भाकपा नेता। हम पूरी तरह से कूडानकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र के खिलाफ साहसी संघर्ष का समर्थन करते हैं। डेनमार्क में परामणु ऊर्जा के खिलाफ प्रतिरोध मजबूत तथा अच्छी तरह से संगठित था और आज डेनमार्क परमाणु ऊर्जा से मुक्त है। क्रिसटियन जुहल- संसद सदस्य तथा प्रवक्ता, द रेड ग्रीन एलायंस, डेनमार्क।

कूडनकुलम परमाणु संयंत्र फुकुशिमा बनने के जैसा है। यह तमिलों, सिहली और भारतीयों के नरसंहार होने का इंतजार जैसा है। कूडानकुलम से श्रीलंका की दूरी बस पत्थर फेंकने जैसी दूरी है। हम श्रीलंका के लोग, तमिल, सिंहली, तमिल बोलने वाले मुसलमान कूडानकुलम तथा इंदिताकराई के अपने भाई बहनों के साथ इसका विरोध करते हैं। -सिरीतंगा जयसूर्या राष्ट्रपति के पूर्व उम्मीदवार, महासचिव संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी श्री लंका।

हम सहमत हैं कि विकास के लिए बिजली की जरूरत है। लेकिन मुख्य सवाल यह है कि हमने ऊर्जा के उत्पादन के लिए सभी सुरक्षित विकल्पों का इस्तेमाल किया है, इससे पहले की हम परमाणु ऊर्जा के बारे में सोचे। यह सवाल अपने आप में बहुत संदेहों की तरह ले जाता है। -ऐनी राजा, राष्ट्रीय कार्यकारणी सदस्य, भाकपा।

लालची परमाणु लॉबी की शक्ति को तोड़ने के लिए जनदबाव के जरूरत है। कूडानकुलम महत्वपूर्ण संघर्ष है यूरोप में ट्रेड यूनियन तथा परामणु विरोधी आंदोलन के भीतर आपके संघर्ष का प्रचार प्रसार करेन के लिए मैं अपनी अधिकतम कोशिश करूंगा। -प्रख्यात राजनीतिज्ञ पाल मर्फी, आयरलैंड की सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से यूरोपियन संसद के सदस्य हैं।

सोशलिस्ट अलटरनेटिव (एसएवी) जर्मनी, कूडानकुलम के शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर राज्य के दमन तथा आतंक की निन्दा करती है। हम पुलिस बल की तत्काल वापसी की मांग करते हैं। हम मांग करते हैं कि सरकार परमाणु विरोधी आंदोलन की समझदार आवाज पर ध्यान दे तथा इस हत्यारी परियोजना को जो कि लोगों को वनस्पति और जीवों, कमजोर पर्यावरण अन्य प्रजातियों को खतरे में डाल रही है, पर तुरंत रोक लगाये। -लूसी रेडलर, सोशलिस्ट अलटरनेटिव (एस ए वी) जर्मनी की प्रवक्ता।

प्रदर्शनकारियों पर क्रूर व्यवहार को सरकार तत्काल रोके और बिना किसी देरी के इस संयंत्र को बंद करे। अक्षय ऊर्जा उत्पादन के लिए निवेश को मोड़ा जाना चाहिए। सारे विकास को सिर्फ कुछ लोगों के फायदे के लिए नहीं बल्कि जनकेन्द्रित होना चािहए। तमिल एकजुटता अभियान कूडनकुलम के परमाणु विरोधी संघर्ष का समर्थन जारी रखेगा तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके समर्थन अपना योगदान देता रहेगा। -टीयूसेनन, तमिल एकजुटता अभियान का अन्तर्राष्ट्रीय समन्वयक।

मैं कूडानकुलम के लोगों तथा जहां कही भी परमाणु रियक्टरों के खिलाफ विरोध हो रहा है उनके साथ एकजुटता व्यक्त करती हूं। दुनिया में इसकी जरूरत नहीं है। हम इसके लम्बी अवधि के खतरों को नहीं समझते और सभी नये प्रतिष्ठानों पर प्रतिबंध लगाने चाहिए। -मल्लिका साराभाई, भारतीय शास्त्रीय नृत्यंगाना और सामाजिक कार्यकर्ता।

परमाणु शक्ति मानवता के खिलाफ है। मनुष्य अभी इतना विकसित नहीं हुआ है कि वह परमाणु शक्ति को संभाल सकें। स्रोत के स्तर पर परमाणु ऊर्जा, परमाणु हथियार से अलग नहीं है। प्रत्येक राष्ट्र का परमाणु हथियार तैयार करने का गुप्त एजेंडा है। परमाणु शक्ति को न कहो। – कविनगर थमराई

कूडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र न केवल स्थानीय लोगों के लिए बल्कि पूरे क्षेत्र के लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर परिणाम डालेगा। इसके साथ ही इस पूरे क्षेत्र के मुछआरों समुदायों की आजीविका का बड़े पैमाने पर नुकसान होगा। परमाणु दुर्घटना की लम्बी अवधि के जोखिम अप्रत्याशित हैं। -डॉ. विनायक सेन, सदस्य स्वास्थ्य पर योजना आयोग की संचालन समिति।

आपदा प्रबंधन योजना बिना कूडनकुलम या कोई भी परमाणु रिएक्टर में आपदा के लिए खुला निमंत्रण है यह एक निश्चित जोखिम है। एक परमाणु रिएक्टर संभवतः एक परमाणु बत से भी ज्यादा खतरनाक है क्योंकि 1 हजार मेगावाट रिएक्टर नागासाकी में गिराये गये 200 परमाणु बमों के बराबर विकिरण की क्षमता रखता है। -डॉ. एम.पी. परमेश्वरन, परमाणु इंजीनियर, के एसएसपी

कूडनकुलम में परमाणु पागलपन बंद करो, ग्रह की रक्षा करो। -आनंद पटवर्द्धन

इदिंतकराई के जो गांव वाले कूडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र के विरोध में लड़ रहे हैं उनके साथ मैं अपनी पूरी एकजुटता के साथ खड़ी हूं। मार्च 2011 में जब फुकूशिमा रिएक्टर भूकंप के द्वारा क्षतिग्रस्त हुआ तब में जापान में थी। आपदा के बाद लगभग हर देश जो परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहा है उन्होंने ऐलान किया कि वह अपनी परमाणु नीति बदल देंगे, सिवाय भारत के। -अरूंधति राय, लेखिका

बहस
Kajal Kumar नॉम चोमस्की को पता होना चाहि‍ए कि‍ परमाणु संयंत्र कि‍स प्रकार लगाए जाते हैं, उनका व्‍यवस्‍थापन कैसे होता है और उनमें कि‍स प्रकार की सि‍क्‍योरि‍टी ड्रि‍ल रहती हैं, भारत में कि‍तने परमाणु हादसे हुए हैं, भारत का परमाणु इति‍हास कि‍तना पुराना है, हमारी क्षमताएं क्‍या हैं … तेल लॉबी के प्रवक्‍ता आज तमि‍लनाडु के हर कोने में उगे चले आ रहे हैं. कि‍तना आसान हो गया है कि‍ कोई झंडा उठाए और भारत में आकर परमाणु क्षेत्र को दो चपत लगा कर चलता बने. क्‍या पापड़ नहीं बेले इन लोगों ने भारत को परमाणु उर्जा से बंचि‍त रखने में. इन्‍हें हमारा अथाह थोरि‍यम दि‍खाई दे रहा है. भारत की उर्जा ज़रूरतों का जो जवाब वे देते हैं उसके लि‍ए मुफ़्त में पैसा काहे नहीं जुटा देते ये …. उस वि‍षय पर बात करने से पहले तय कर ले कि‍ क्‍या उसके बारे में कुछ पता भी है उसे. वि‍कसि‍त देशों में पहले बंद कराओ फि‍र भारत की बात करने आना मि‍यां…
Kumar Sundaram काजल कुमार जी,

आपने कई सारे सवाल एक साथ उठाए हैं. परमाणु ऊर्जा, जी.एम. फ़ूड और ‘विकास’ के कई पेचीदा मसलों पर सरकार ऐसा ही गुमराह कॉमन सेन्स बनाने की कोशिश कर रही है, जिसके आप आत्म-मुग्ध शिकार हैं.

शुरुआत आपकी आख़िरी पंक्ति से करते हैं:

“वि‍कसि‍त देशों में पहले बंद कराओ फि‍र भारत की बात करने आना मि‍यां”

आपको मालूम है पूरी दुनिया में पिछले कुछ सालों से परमाणु ऊर्जा से दूर जाने का चलन बढ़ा है, खास तौर पर ‘विकसित’ देशों में? जापान, जर्मनी, स्वीडन, इटली, स्विटज़रलैंड जैसे देशों ने अणु-ऊर्जा से तौबा कर ली है, खुद फ्रांस परमाणु पर निर्भरता कम करने जा रहा है? अमेरिका ने पिछले तीस सालों से, थ्री मेल आइलैंड दुर्घटना के बाद, एक भी नया प्लांट नहीं लगाया. कुल मिलाकर, ये देश जिस तकनीक के चंगुल से खुद आज़ाद हो रहे हैं अपने मुनाफे के लिए भारत जैसे मुल्कों में डंप कर रहे हैं.

“क्या पापड़ नहीं बेले इन लोगों ने भारत को परमाणु उर्जा से बंचि‍त रखने में.”

बिलकुल झूठी बात है. भारत को परमाणु डील की पेशकश अमेरिका की तरफ से आई थी. रूस, फ्रांस इत्यादि देश उससे पहले से भी रिएक्टरों की सप्लाई के लिए तैयार थे. शुरुआती दशकों में भारत का सारा परमाणु कार्यक्रम अमेरिका, कनाडा और रूस की मदद से तैयार हुआ. मोटा-मोटी कहें तो कनाडा से मिले CANDU डिजाइन पर हमारा पूरा परमाणु-उद्योग खडा है. 1974 में कनाडाई तकनीक और शातिपूर्ण कार्यक्रम के नामपर मिली अंतर्राष्ट्रीय तकनीकी ज्ञान का सहारा लेकर भारत ने परमाणु टेस्ट किए, जो साफ़ तौर पर नीति का उल्लंघन था, इसलिए अगले तीन दशकों तक इसपर बाहरी मदद पर प्रतिबन्ध लगा रहा. लेकिन अपनी खतरनाक तकनीक को यहाँ खपाने और भारत को विदेश नीति में अपना पिट्ठू बनाने के लिए अमेरिका ने हमें इस प्रतिबन्ध से तब निकाला जब ईरान पर इसी तकनीक के इस्तेमाल के लिए प्रतिबन्ध लगाए जा रहे हैं और युद्ध की धमकी रोज दी जा रही है. मतलब ये, कि भारत को इस मामले में उदार अंतर्राष्ट्रीय मदद मिली है. कूडनकुलम में रूसी और जैतापुर में फ्रांसीसी रिएक्टर आपको वंचित रखने के लिए नहीं, अपना बाज़ार बढाने के लिए मिल ही रहे हैं.

“इन्‍हें हमारा अथाह थोरि‍यम दि‍खाई दे रहा है. भारत की उर्जा ज़रूरतों का जो जवाब वे देते हैं उसके लि‍ए मुफ़्त में पैसा काहे नहीं जुटा देते ये ..”

यह हमारे परमाणु प्रतिष्ठान का सबसे झूठा और खोखला दावा है!
थोरियम से भारत को ऊर्जा-संपन्न बनाने का डॉ. भाभा का दिवास्वप्न महँगा और खतरनाक था. थोरियम अपने आप में रेडियोधर्मी ईंधन नहीं होता. उसे प्लूटोनियम के साथ मिलाकर ही इस्तेमाल किया जा सकता है. प्लूटोनियम प्रकृति में नहीं मिलता, उसे यूरेनियम-आधारित रिएक्टरों में तैयार किया जाता है. तो थोरियम तक पहुँचाने के लिए सैकड़ों यूरेनियम रिएक्टर और फिर उतने ही फास्ट-ब्रीडर रिएक्टर चाहिये. सैकड़ों परमाणु रिएक्टरों के लिए हमारे देश में न पैसा है, न ज़मीन और ना इतना पानी (अगर आप इसके खतरों और पर्यावरणीय क्षति से पूरी तरह आँख मूँद लें तब भी). फास्ट-ब्रीडर रिएक्टरों का किस्सा ये है कि जापान और फ्रांस जैसे देश उनकी तकनीक को आजमा कर छोड़ चुके हैं, यह इतनी खतरनाक है. इसकी तकनीक अभी भारत के पास भी मुकम्मल नहीं है. थोरियम रिएक्टर इन सबसे कहीं ज़्यादा रिस्की, महंगे और जटिल होते हैं, जिनकी तो अगले कई दशकों तक खुद परमाणु ऊर्जा विभाग वाले भी कल्पना नहीं करते (आप इस पर ज़्यादा जानकारी के लिए वैज्ञानिक एम्.वी. रमना का यह लेख पढ़ सकते हैं: http://www.outlookindia.com/article.aspx?220858)

इस सवाल में आपने देश की ऊर्जा ज़रूरतों का मसला भी जोड़ा है, जिस पर मैं अभी खाना खाकर वापस आता हूँ तो बात करता हूँ…

Kumar Sundaram “भारत की उर्जा ज़रूरतों का जो जवाब वे देते हैं उसके लि‍ए मुफ़्त में पैसा काहे नहीं जुटा देते ये ..”

परमाणु ऊर्जा भारत की ऊर्जा ज़रूरत का जवाब दूर-दूर तक नहीं है.

भारत में कुल बिजली का मात्र 2.3 प्रतिशत आज अणु-ऊर्जा से आता है, जबकि तकनीकी शोध के राष्ट्रीय बजट का बड़ा हिस्सा, ढेर सारी सब्सिडी और बिना लेखा-जोखा का पैसा इस क्षेत्र में पचास साल से लगा है. अगले दो दशकों में ये लोंग अनुऊर्जा को बढ़ाकर 7-8 प्रतिशत करना चाहते हैं, जिसकी भारी कीमत देश को चुकानी होगी – आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक अर्थों में. आज भी, नवीकरणीय ऊर्जा अनुऊर्जा का चार-गुना, कुल बिजली का लगभग दस प्रतिशत उत्पादित करती है. आज जब हरित ऊर्जा तकनीक दुनिया भर में उन्नत और सस्ती हो रही है, भारत में परमाणु ऊर्जा विभाग के अध्यक्ष रहे सज्जन को पिछले साल सौर-ऊर्जा मिशनों की जिम्मेवारी दे दी गई और अपनी पहली प्रेस वार्ता में उन्होंने कहा कि सौर ऊर्जा का कोई ज़्यादा भविष्य नहीं है.

मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि ऊर्जा के सवाल को थोड़े बड़े फलक पर सोचें. बिजली का सवाल सिर्फ बड़े स्तर पर उत्पादन से हल नहीं होने वाला है. पिछले दो दशकों में बिजली का उत्पादन लगभग दुगुना हुआ है जबकि बिजलीहीन गांवों (देश के 40 प्रतिशत गाँव!) की संख्या में कोई अधिक फर्क नहीं पड़ा है. मतलब ये कि बड़े पैमाने पर केंद्रीकृत ढाँचे में बिजली-उत्पादन की बजाय छोटे स्तर पर विकेन्द्रीकृत बिजली-निर्माण की ज़रूरत है, लेकिन मॉल और हाइवे को विकास का मानक मानने से हमारी प्राथमिकता बदरूप हो जाती है और हमारे नेता लाखों लोगों को बिजली पहुंचाने का भावनात्मक नारा देकर असल में ऐसे रास्ते पर धकेलते हैं जहां सचमुच लोगों को बिजली तो नहीं ही मिलती है, उन्हें ही विस्थापित भी होना पडता है और फिर परमाणु विकिरण का शिकार भी.

आपसे अनुरोध है ऊर्जा के इस मसले पर मेरा जनसत्ता में छापा यह लेख पढ़ाने की जहमत उठाएं: http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/25668-2012-08-04-05-49-58

Kumar Sundaram और फिर,

“नॉम चोमस्की को पता होना चाहि‍ए कि‍ परमाणु संयंत्र कि‍स प्रकार लगाए जाते हैं, उनका व्‍यवस्‍थापन कैसे होता है और उनमें कि‍स प्रकार की सि‍क्‍योरि‍टी ड्रि‍ल रहती हैं, भारत में कि‍तने परमाणु हादसे हुए हैं, भारत का परमाणु इति‍हास कि‍तना पुराना है, हमारी क्षमताएं क्‍या हैं ..”

आपको भारत में हुई परमाणु दुर्घटनाओं और यहाँ परमाणु सुरक्षा की भारी खामी के बारे में जानकारी का अभाव है.

भारत में दर्जनों बड़ी दुर्घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें 1993 में यूपी के नरोरा और 1994 में गुजरात के काकड़ापार में गंभीर दुर्घटनाएं हो चुकी हैं. 2004 की सुनामी के समय कलपक्कम रिएक्टर तक पानी घुस आया था और कैगा में तो निर्माण के दौरान पूरा गुम्बज ही गिर गया था.

भारत उन गिने चुने मुल्कों में है जहां परमाणु सुरक्षा के लिए जिम्मेवार नियामक एजेंसी – परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड (AERB) – खुद परमाणु ऊर्जा विभाग को ही रिपोर्ट करती है, उसी के पैसे से चलती है और रिएक्टरों की जांच के लिए विशेषज्ञों तक के लिए परमाणु उद्योग पर ही निर्भर है. इस वोर्ड के अध्यक्ष रहे डॉ. ए. गोपालकृष्णन के कई इंटरव्यू है जो मैं आपसे साझा कर सकता हूँ. 1993-95 में परमाणु रिएक्टरों की सुरक्षा पर देश-स्तरीय जांच रिपोर्ट इन्होने तैयार करवाई थी, जिसमें गंभीर खतरों का खुलासा किया था. भारत सरकार ने सुरक्षा के लिए बस इतना एहतियात बरता की उस रिपोर्ट को top secret करार देकर जब्त कर दिया.

फिलहाल आप कूडनकुलम बिजलीघर क्यों नहीं खुलना चाहिए, इस पर इन्हीं डॉ. गोपालाकृष्णन का यह लेख पढ़िए: http://www.dianuke.org/stop-kudankulam-fuelling-lives-are-stake-gopalakrishnan/

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जापान के सेन्दाइ प्रांत में आई सुनामी से हुई तबाही को हम ठीक से स्वीकार भी नहीं कर पाए थे कि परमाणु बिजली-केन्द्रों के धराशायी होने की अकल्पनीय खबर आनी शुरु हो गई है. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उत्तर-पूर्वी जापान के तीन अणु ऊर्जा केन्द्रों – फ़ुकुशिमा, ओनागावा और तोकाई में कुल छह अणु-भट्ठियों में गम्भीर हादसों की खबर आ चुकी है. इनमें सबसे ज़्यादा तबाही फ़ुकुशिमा में हुई है जहाँ कुल दस रिएक्टर स्थित हैं. इनमें से कम-से-कम दो रिएक्टरों (दाई-इचि, युनिट १ और ३), में विस्फ़ोट हो चुका है परमाणु ईंधन को क्षति पहुंची है जिससे भारी मात्रा में रेडियोधर्मी तत्व सीज़ियम-१३७ और आयोडीन-१३१ का रिसाव हुआ है. युनिट एक और दो के साथ साथ युनिट तीन में भी अत्यधिक तापमान बना हुआ है. इन तीनों रिएक्टरों में उपयोग किये जाने वाले आपातकालीन शीतक-यन्त्र शुरु में ही सुनामी द्वारा नाकाम कर दिये गए और बैटरी-चालित शीतन ने भी जल्दी ही साथ छोड़ दिया. फिर रिएक्टर की चिमनी से रेडियोधर्मिता-मिश्रित भाप बाहर निकाली गई लेकिन अणु-भट्ठी का ताप इससे कम नहीं हुआ. ऐसी स्थिति की कभी कल्पना नहीं की गई थी और तब टोक्यो बिजली उत्पादन कम्पनी (TEPCO) ने इन अणु-भट्ठियों में समुद्र का पानी भरने की बात सोची, जो बिल्कुल ही लाचार कदम था. समुद्र का पानी भारी मात्रा में और तेज गति से रिएक्टर के केन्द्रक (core) में डाला जाना था जो अफ़रातफ़री के माहौल में ठीक से नहीं हो पाया. अपेक्षाकृत कम मात्रा में रिएक्टर के अन्दर गये पानी ने भाप बनकर अणु-भट्ठी के बाहरी कंक्रीट-आवरण को उड़ा दिया है. इस विस्फ़ोट में अणु-भट्ठी के अन्दर ईंधन पिघलने की और रेडियोधर्मिता फैलने की खबर तो आ ही रही है साथ ही अमेरिकी डिजाइन से बने इन रिएक्टरों में बचा ईंधन भी, जो ऊपरी हिस्से में रखा जाता है और अत्यधिक रेडियोधर्मी होता है, के भी बाहरी वातावरण के सम्पर्क में आने की गंभीर आशंका व्यक्त की जा रही है.

फ़ुकुशिमा दाइ-इचि युनिट-दो की अणु-भट्ठी प्लूटोनियम-मिश्रित ईंधन पर चलती है और वहाँ हुए विस्फोट से और भी बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी जहर फैलने वाला है. इन विस्फोटों से कम-से-कम आठ कामगारों की मौके पर ही मृत्यु हो गई है. ओनागावा और तोकाई स्थित परमाणु-केंद्रों में भी तापमान विनाशकारी स्थिति तक बढ़ गया है और इस पर काबू पाने की कोशिश की जा रही है. अमेरिकी चैनल सीबीएस ने तो जापानी अधिकारियों के हाअले से खबर दी है कि जापान के सात रिएक्टर पिघलने की आशंका से जूझ रहे हैं.

जापान के प्रधानमंत्री नाओतो कान ने इसे राष्ट्र के समक्ष दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ी चुनौती करार दिया है और परमाणु आपातकाल की स्थिति की घोषणा कर दी है. दो लाख से अधिक लोगों को इन परमाणु-दुर्घटना त्रस्त इलाकों से निकाला जा रहा है लेकिन सुनामी से तबाह यातायात और राहत व्यवस्था से इसमें मुश्किल आ रही है. पूरे इलाके में सामान्य स्थिति की तुलना में हज़ारों गुना ज़्यादा रेडियेशन पाया जा रहा है. तीन दिनों के अंदर ही जापान के नागरिक समूहों और पर्यावरणविदों ने मापा है कि रेडियेशन छह सौ किलोमीटर दूर तक फैल चुका है जबकि सरकार इससे अभी तक इनकार कर रही है. जापानी सरकार और एजेंसियाँ इस पूरे घटनाक्रम की नियंत्रित खबरें ही दे रही हैं. वैसे परमाणु दुर्घटनाओं के मामले में बाकी सरकारों की तरह जापान भी अपनी जनता से झूठ बोलता रहा है. लीपापोती के ऐसे ही एक मामले में २००२ में TEPCO  के अध्यक्ष को इस्तीफ़ा देना पड़ा था. रविवार शाम को जापानी नागरिकों के एक समूह CNIC की प्रेसवार्ता में फ़ुकुशिमा के इंजीनियर रह चुके मसाशी गोतो ने बताया कि रिएक्टर में मौजूद गैस के दबाव की मात्रा की निर्माण के वक्त कल्पना भी नहीं की गई थी.

अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी द्वारा आयोडीन की गोलियाँ बँटवाने और आबादी खाली करने के क्षेत्र को तीन से दस फिए बीस किलोमीटर तक बढा़ने से ही पता चलता है कि रेडियेशन का खतरा बहुत गम्भीर है. इन रेडियोधर्मी किरणो की चपेट में आने से कैंसर के अलावा ल्यूकीमिया और थायरायड जैसे घातक रोग बड़े पैमाने पर होते हैं और जन्मजात अपंगता, बांझपन इत्यादि पीढियों तक दिखने वाले दुष्प्रभाव होते हैं. रेडियेशन का असर प्रभावित इलाकों में सैकडों हज़ारों साल तक रहता है. जापान में तो सुनामी से पैदा हुई बाढ ने स्थिति और बिगाड़ दी है, साथ ही विशेषग्यों की आशंका है कि आने वाले दिनों में हवाओं के रुख और प्रशान्त महासागर की लहरों के हिसाब से रेडियेशन चीन, कोरिया, हवाई, फिलीपीन्स, और आस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक दूर-दूर के देशों में पहुंच सकता है.

हर तरफ़ इस दुर्घटना से हड़कम्प मचा हुआ है और चेर्नोबिल तथा थ्री-माइल आइलैंड सरीखी तबाहियों की याद सबको आ रही है. जर्मनी में रविवार को स्वतःस्फ़ूर्त हज़ारों लोगों ने परमाणु-विरोधी प्रदर्शन किया और दुनिया भर के जनांदोलनों, पर्यावरणविदों और विशेषग्यों ने परमाणु ऊर्जा पर पुनर्विचार करने की मांग की है. लेकिन मुनाफ़े के लालच में अंधी कम्पनियां एवं केन्द्रीकृत ऊर्जा-उत्पादन के मायाजाल से ग्रस्त सरकारें शायद ही इससे कुछ सीखें. इस दुर्घटना के बाद भारत के परमाणु-अधिष्ठान भरोसा दिलाया है कि हमारे देश के रिएक्टर में ऐसे हादसे नहीं होंगे. परमाणु ऊर्जा उद्योग से जुड़ा अन्तर्राष्ट्रीय प्रचार तंत्र  भी यही समझाने में जुटा है कि जापान सुनामी अप्रत्याशित रूप से भयावह थी वहाँ के रिएक्टर पुराने डिजाइन के थे, जबकि हाल तक जापानी अणु-ऊर्जा उद्योग को पूरी तरह सुरक्षित और उच्च तकनीक से लैस बताया जाता था. सोमवार सुबह जब जापान में दूसरे विस्फोट की खबर आई तब भारतीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोडकर महाराष्ट्र की विधानसभा में जैतापुर अणु-ऊर्जा प्रकल्प को ज़रूरी ठहरा रहे थे. इस योजना के खिलाफ़ रत्नागिरि जिले के किसान, मछुआरे और आमजन पिछ्ले चार साल से आंदोलन कर रहे हैं और सरकार ने भारी दमन इस्तेमाल किया है. दर्जनों लोगों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं. जिले से बाहर के आन्दोलनकारियों को बाहरी, देशविरोधी-विकासविरोधी और भड़काऊ बताकर घुसने नहीं दिया जा रहा जबकि उस इलाके के आन्दोलनकारियों को जिलाबदर कर दिया गया है – सरकार के लिए एकमात्र देशभक्त फ्रान्सीसी परमाणु कम्पनी अरेवा है जो लोगों को विस्थापित कर रही है और पूरे इलाके के पर्यावरण और जानमाल को खतरे में डाल रही है. जैतापुर का प्रकल्प फ़ुकुशिमा से कई गुना बड़ा होगा और यह भी दुर्घटना-सम्भावित समुद्र तट पर बनाया जा रहा है. देश में पहले ही कलपक्कम, कूडन्कुलम, तारापुर और नरोरा जैसे अणु-ऊर्जा केंद्र हैं जो भूकम्प और दुर्घटना सम्भावित इलाकों में बने हैं और कभी भी भयाअह हादसों को जन्म दे सकते हैं.

परमाणु ऊर्जा बिजली का सबसे महंगा और खतरनाक स्रोत है. बिना भारी सरकारी मदद और सब्सिडी के यह उद्योग दुनिया में कहीं भी नहीं चल पा रहा है. आतंकवादी हमले, प्राकृतिक दुर्घटनाएँ, तकनीकी लापरवाही इस परमाणु-भट्ठियों को पल भर में जलजला बना सकते हैं. आजकल परमाणु ऊर्जा के समर्थन में जलवायु परिवर्तन का तर्क दिया जाता है और अणु-ऊर्जा को कार्बन मुक्त बताया जाता है. एक तो अणु-ऊर्जा के उत्पादन में युरेनियम खनन, उसके परिवहन से लेकर रिएक्टर के निर्माण तक काफी कार्बन खर्च होता है जिसकी गिनती नहीं की जाती, साथ ही फ़ुकुशिमा ने यह भी साबित कर दिया है कि जलवायु परिवर्तन का समाधान होने की बजाय अणु-ऊर्जा केन्द्र दरअसल बदलते जलवायु और भौगोलिक स्थितियों को झेल नहीं पाएंगे क्योंकि इन्हें बनाते समय वे सारी स्थितियां सोच पाना मुमकिन नहीं जो जलावायु-परिवर्तन भविष्य में अपने साथ लेकर आ सकता है. चालीस साल पहले फ़ुकुशिमा के निर्माण के समय जापान में इतनी तेज सुनामी की दूर-दूर तक सम्भावना नहीं थी, वैसे ही जैसे भारत में कलपक्कम अणु-ऊर्जा केंद्र को बनाते समय सुनामी के बारे में नहीं सोचा गया था. अधिकतम साठ साल तक काम करने वाले इन अणु-बिजलीघरों में उसके बाद भी हज़ारों सालों तक रेडियोधर्मिता और परमाणु-कचरा रहता है. ऐसे में, इतने लम्बे भविष्य की सभी भावी मुसीबतों का ध्यान रिएक्टर-डिजाइन में रखा गया है, यह दावा आधुनिकता और तकनीक के अंध-व्यामोह के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है.

अमेरिका से परमाणु सौदे के बाद सरकार देश में दर्जनों अणु-ऊर्जा केन्द्र बनाने की तैयारी कर रही है जिनमें से ज़्यादातर समुद्र तटों पर स्थित होंगे – पश्चिम बंगाल में हरिपुर, आंध्र में कोवाडा, गुजरात में मीठीविर्डी और महाराष्ट्र में जैतापुर. इन बिजलीघरों से बनने वाली बिजली काफ़ी कम, बहुत महंगी होगी और ज़्यादातर बड़े शहरों और औद्योगिक केंद्रों को बिजली दी जाएगी. ऊर्जा के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता और प्रचुरता हासिल करने के कई विकेंद्रीकृत उपाय जानकारों ने सुझाए हैं लेकिन इसके लिये ज़रूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति, ऊर्जा-कार्पोरेटों के खिलाफ़ जाने की हिम्मत और विकास की वैकल्पिक समझ हमारे सत्ता-तंत्र में नहीं है.

जापान की इस भयावह त्रासदी में जापानी नागरिकों के लिये दुआ और उनकी यथासम्भव मदद करने के साथ ही यह भी ज़रूरी है कि इस हादसे से हम सबक लें. हिरोशिमा में अणु बम की विभीषिका झेल चुके इस देश ने परमाणु के ’शांतिप्रिय’ उपयोगों से मुक्ति नहीं पाई. एक बडे़ अर्थ में सोचें तो द्वितीय विश्व-युद्ध, जो मूलतः पूंजीवादी लालच और होड़ का नतीजा था, में बर्बाद होकर भी इस देश ने केंद्रीकृत पूंजीवादी विकास को ही अपनाया, वस्तुतः बाकी दुनिया को इस रास्ते पर रिझाने को ही अपनी सफ़लता माना और परमाणु के शांतिपूर्ण अवतार को इस सबके केंद्र में रखा. पिछले कुछ सालों में पूंजीवाद की अनिवार्य बीमारी आर्थिक मंदी झेलता हुआ जापान आज जिस विनाश के मुहाने पर खड़ा है, इससे दरासल हिंसक आधुनिक सभ्यता के हर हिस्से पर गम्भीर सवाल खडे़ होते हैं – लगभग वही सवाल जो पिछली सदी की शुरुआत में गांधीजी ने हिंद स्वराज में हमारे सामने रखे थे.

साभार : जनसत्ता , १५ मार्च , २०११

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पिछले भाग : एक , दोअब जब भारत सरकार और उससे ज्यादा परमाणु बिजली उद्योग जोर – शोर से कह रहे हैं कि सन २०५२ तक भारत की परमाणु बिजली क्षमता २७५००० MW होगी तब उन्हें यह भी पता है कि भारत के पास यूरेनियम नहीं है । तारापुर-१ और २ की ईंधन की समस्या तथा १९७४ ( पहला परीक्षण )  के बाद अमेरिका ने जो तंग किया उसे ध्यान में रखते हुए १,२,३ समझौता पिछले दो साल की बातचीत के बाद हुआ है । पिछले दो वर्षों में यूरेनियम की कीमत ७ डॉलर प्रत पाउन्ड से बढ़कर आज १५० डॉलर प्रति पाउन्ड हो गयी है । परमाणु बिजली का एक फायदा यह गिनाया जाता है कि ईंधन पर खर्चा नहीं होता मगर यूरेनियम  ऐसी ऊँची कीमत पर खरीद कर भारत सरकार संग्रह करेगी तो गरीबों का मुँह का निवाला छीन कर ही परमाणु बिजली पैदा करेगी।

    परमाणु कचरे का एक उलझा हुआ मामला तो है ही । इसे कहाँ रखा जाएगा ? कैसे रखा जाएगा ताकि पानी , खाद्य आदि को प्रभावित न करे ? परमाणुविदों को एक तरकीब सूझी है । इस्तेमाल किए हुए ईंधन को का पुनर्प्रसंस्करण । इस प्रक्रिया से रिएक्टर में इस्तेमाल किए गए ईंधन से प्लुटोनियम तथा यूरेनियम अलग किया जाता है । यह एक मंहगी तथा परमाणु शस्त्रों को बढ़ावा देने वाली पद्धति है । इस प्रक्रिया में बहुत सारे अम्ल इस्तेमाल किए जाते हैं जिसके कारण रेडियोधर्मी कचरे की मात्रा बढ़ जाती है । अमेरिका में एक हिसाब लगाया गया है जो दिखाता है कि इस्तेमाल किए गए ईंधन पर अगर पुन: प्रसंस्करण किया जाए तो बिजली प्रति इकाई ४० पैसे मंहगी पड़ेगी ।

    परमाणु बिजली घरों में एक बड़ा खर्च और होता है जिसके बारे में अनुभव न होने के कारण कुछ भी नहीं कहा जा सकता । यह खर्च है परमाणु बिजलीघर की आयु समाप्त हो होने पर उसकी ‘कब्र’ बना कर दफ़नाने का । अभी तक अमेरिका में एक प्रोटो टाइप ( नमूने का ) छोता रिएक्टर ही डीकमीशन किया गया है । इसलिए बड़े रिएक्टर में ‘कब्र’ बनाने का कितना खर्च आयेगा यह कहना बड़ा मुश्किल है ।

    जिस बिजली को इतना सस्ता माना गया था कि उसे मीटर से नापना भी नहीं पड़ेगा वही बिजली अगर सब खर्च गिने जांए तो सब से महंगी साबित हुई है । दुनिया के बड़े–बड़े देश बिजली की समस्या को हल करने के लिए बचत , अक्षय स्रोत तथा नवीकृत होने लायक उर्जा स्रोत तथा जीवन शैली में परिवर्तन करने की सोच रहे हैं तब हमारे देश में वही पुरानी नीति अपनाने की सोची जा रही है , यह दुर्भाग्यपूर्ण है ।

[ चेर्नोबिल पर विशेष सामग्री अतिशीघ्र दी जाएगी ]

 

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पिछला हिस्सा । परमाणु बिजली की कारखाने बनाने में आज कोयले से लगभग दुगुना तथा गैस से ढाई गुना खर्च होता है । परमाणु बिजली बनाने में प्रति मेगावाट आठ करोड़ खर्च आता है जबकि कोयले में ३.७५ करोड़ तथा गैस में ३ करोड़ । परमाणु बिजली घरों को बनाने में अन्य बिजली घर बनाने से ज्यादा समय लगता है – लगभग दुगुने से तीन गुना , कभी कभी ज्यादा भी । भारतीय बिजली घरों की एक विशेषता है । जब वे बनना शुरु होते हैं या जब उनके लिए पैसे की मंजूरी ली जाती है तब उनकी क्षमता ज्यादा बतायी जाती है ताकि प्रति मेगावाट खर्च कम दिखे । फिर बन जाने के बाद उन्हें कम क्षमता का घोषित कर दिया जाता है । जब मद्रास -१ और मद्रास-२ बने थे तब उन्हें २३५ मेगावाट क्षमता का बताया गया था । फिर जब नरोरा , काकरापार , कैगा तथा रावतभाटा ३ और ४ शुरु हुए थे तब उन्हें भी २३५ मेगावाट क्षमता का ही बताया गया था। मगर जब १९९१ में नरोरा की दूसरी इकाई शुरु हुई (critical) तब अखबारों को डॉ. पी.के. आयंगार ने कहा कि नरोरा २२० मे्गा वाट का रिएक्टर है । नरोरा – १ जो पनी पुरानी क्षमता २३५ मेगा वाट पर पहले चालू हो चुका था , उसको भी २२० मेगा वाट का बता दिया गया । जैसे इतना काफ़ी न हो , काकरापार , कैगा , रावतभाटा के जो बिजली घर निर्माणाधीन थे उनको भी अचानक २२० मेगा वाट का कर दिया गया । जनता को कीमत के बारे में बेवकूफ़ बनाने के सिवाय इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? हालाँकि राजस्थान-अ१ तथा मद्रास-१ की क्षमता तो तकनीकी कारणों से घटा दी गयी है ।

    भारतीय परमाणु उर्जा कार्यक्रम में एक और अजीब व्यवस्था देखी जा सकती है । हाल के परमाणु घर PHWR  भारी पानी इस्तेमाल करते हैं । भारी पानी के संयंत्र में जितनी लागत लगती है एन.पी.सी.एल उतना पैसा नहीं देता क्योंकि वे भारी पानी उधार या लीज पर लेते हैं इसलिए परमाणु बिजली में भारी पानी की असली कीमत न गिनकर भाड़ा गिना जाता है । यह एक तरह की सरकारी सब्सिडी है जो परमाणु बिजली को सस्ता रखने के लिए दी जाती है । यूरेनियम की कीमत तथा हैदराबाद के न्यूक्लियर फ़ुएल कॉ्म्पलेक्स में पूरी लागत से कीमत नहीं लगाई जाती और सरकारी सब्सिडी मिल जाती है । इस प्रकार परमाणु बिजली पर होने वाले खर्च को सरकारी सब्सिडी से नीचे रखा जाता है । अगर दुर्घटना हो तब कितना खर्च होगा , उसका तो अन्दाज भी नहीं लगाया जा सकता है। उस सम्भावित खर्च को भी कीमत में नहीं जोड़ा जाता । दुर्घटना के लिए बीमा भी नहीं है  तथा उसका भी खर्च नहीं जोड़ा जाता । च्रेनोबिल की तरह अगर हजारों लोगों को हटाना पड़े तब क्या होगा ? परमाणु उर्जा केन्द्रों के आस पास रहने वाले लोगों , परमाणु उर्जा केन्द्रों में कार्यरत अस्थायी मजदूरों पर विकिरण का जो बुरा असर पड़ता है उसके इलाज का खर्च क्या बिजली के खर्च में गिना जाता है ?

    [ जारी ]

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  1. परमाणु बिजली कत्तई सस्ती नहीं है । पूँजी का फँसे रहना , परमाणु – ईंधन प्रसंस्करण , परमाणु – कचरे का निपटारा , समग्र बिजली घर की ‘उमर बीत जाने’ पर उसकी कब्र का खर्चा इत्यादि प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तथा आनुषंगिक सभी खर्चों का हिसाब करने पर परमाणु बिजली अत्यन्त मंहगी पड़ती है। आज कुल बिजली का ३% परमाणु उर्जा से मिलता है । पिछले दो तीन सालों में बाजार में यूरेनियम की कीमत सात डॉलर प्रति पाउन्ड से बढ़कर १३५ डॉलर प्रति पाउन्ड हो गयी है । इस करार से अगर यूरेनियम खरीदने को मिलता है और भारतीय परमाणुविदों को जैसे संयंत्रों की आदत है (CANDU) वैसे नए संयंत्र बनते तब भी यह बिजली मंहगी पड़ती । मगर अमेरिका अपनी मृतप्राय तकनीक के साथ बिजली घर तथा ईंधन बेचना चाहता । यह गौरतलब है कि १९७८ के बाद अमरीका में एक भी नया परमाणु बिजली घर नहीं बना । परमाणु बिजली केन्द्रों पर एक लाख करोड़ रुपये लगने का अन्दाज है। दुर्घटना आदि के खर्च अलग रखें तब भी परमाणु बिजली मंहगी है तथा और मंहगी हो जायेगी। चेर्नोबिल जैसी दुर्घटना हो जाये तब तो खर्च का अन्दाज लगाना भी मुश्किल है ।
  2. परमाणु बिजली घरों की प्रत्येक प्रक्रिया में रेडियोधर्मी विकिरण होता है । सुरक्षा के समस्त उपाय अपनाने के बावजूद दीर्घ कालीन घातक असर होते हैं । इनके साथ साथ बिलकुल अकल्पनीय – अचिन्तनीय दुर्घटनाएं भी होती है । जदुगुड़ा(झारखण्ड स्थित यूरेनियम खदान) और रावतभाटा में तो जन्मजात विकलांगता की मात्रा बढ़ी है ,प्रजनाशक्ति पर प्रभाव पड़ा है , लोगों का बुढ़ापा जल्दी आता है(यह वैज्ञानिक शोध से ज्ञात हुए नतीजे हैं ।)
  3. रेडियोधर्मी परमाणु कचरे के निपटारे के उपाय आज किसी की भी समझ के बाहर है। कई विशेषज्ञों का कहना है कि इसका समाधान होना नामुमकिन है । यह परमाणु कचरा पांच लाख साल तक सक्रिय रह कर वातावरण में जहरीला असर फैलाता रहेगा। मृत्यु का यह भभूत हजारों बरस तक कई पीढ़ियों का जीवन विषमय तथा नरक बना देता है । जहाँ – जहाँ परमाणु बिजली घर बने हैं वहाँ – वहाँ छोटी-बड़ी दुर्घटनाएं हुई हैं । ब्रिटेन में विन्डस्केल की आग , सोवियत यूनियन में यूराल विस्फोट तथा चेर्नोबिल , अमेरिका में थ्री माइल आइलैण्ड तथा जापान में मिहामा-रोकशो का भूंकम्प आदि । दुर्घटनाएं भारत में भी हुई हैं नरोरा की १९९३ की आग , काकरापार की १९९४ की बाढ़ , कैगा के डैम का गिरना तथा २००४ में काकरापार में अचानक power surge यह तो छोटे-मोटे उदाहरण मात्र हैं ।यह सभी घटनाएं भयानक ताण्डव का रूप ले सकती थीं ।
  4.  परमाणु बिजली सम्बन्धी अनुमान गलत साबित हुए हैं । तजुर्बा बताता है कि यह एक अत्यन्त गम्भीर , मंहगी और विनाशक भूल थी । अमेरिका अलावा इंग्लैण्ड ,स्वीडन आदि कई अमीर देशों ने परमाणु बिजली के नये केन्द्र लगाना बन्द कर दिया है एवं वैकल्पिक उर्जा स्रोतों के विकास पर विचार किया जा रह्जा है ।

  २१ वीं शताब्दी में ऐसी जहरीली , जोखिमभरी तथा पर्यावरण का सर्वनाश न्योतने वाली तकनीकी का कोई स्थान नहीं होना चाहिए । परमाणु बिजली के पीछे अब भी दौड़ते रहना अद्यतन जागतिक धाराओं का समग्र अज्ञान दिखाता है ।

   हजारों करोड़ का होम करने के बाद भी दस फीसदी से कम बिजली पैदा होगी। इससे अत्यन्त कम खर्च में अन्य स्रोतों से बिजली बनाई जा सकती है । यह अधकचरा विज्ञान है , विज्ञान की विकृति है ।

[ डॉ. संघमित्रा देसाई गाड़ेकर और कांति शाह के आलेखों के आधार पर। प्रस्तुति अफ़लातून ]

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