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समाजवादी जन परिषद

816, रुद्र टॉवर, करमजीतपुर, सुंदरपुर, वाराणसी 221005

प्रेस विज्ञप्ति

पत्रांक 2/ 2020 दिनांक 15-04- 2020

राष्ट्रीय आपदा में राष्ट्रीय सरकार

सन 2020 मे भारत अन्य देशों की तरह एक विनाशकारी खतरे में COVID-19 विषाणु ( VIRUS) की वैश्विक महामारी के कारण गया है। बीसियों देशों के COVID-19 महामारी के आंकड़ों, विश्लेषणों और ज्ञात सुरक्षा उपायों से निष्कर्ष निकला है कि भारत में करोड़ों लोग संक्रमित होंगे और लाखों लोगों की मौत होगी। साथ ही देश की अर्थव्यवस्था, सामाजिक सदभाव, राजनीतिक स्थिरता, कानून व्यवस्था और खाद्य, सीमा तथा स्वास्थ्य सुरक्षा करीब करीब ढेर हो जायेगी। देश का विशिष्ट वर्ग (Elite), प्रशासक, राज्यतंत्र औऱ वैज्ञानिक वर्ग अब तक इन खतरों को नहीं समझ रहे हैं, और वस्तुस्थिति को जनता से छिपा रहे हैं।

संसदीय और राष्ट्रपति प्रणाली की कई लोकतान्त्रिक सरकारें चरम हालातों लम्बा युद्ध, राष्ट्रव्यापी महामारी (Nationwide Epidemic), वैश्विक आर्थिक युद्ध (Global Economic War), जलवायु महाविपत्ति (Climatic Catastrophe) जैसी मुसीबतों में अकुशल, दुविधा ग्रस्त, और निर्भीक निर्णय मे अक्षम हो जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है कि इन सरकारों के पास सम्पूर्ण जनता का समर्थन और उसके प्रतिनिधियों की सहभागिता नहीं होती है।

ऐसे हालातों में राष्ट्रीय सरकार (National Unity Government)” बनाने का विश्व के विभिन्न देशों में कई उदाहरण रहे हैं। इन सरकारोँ ने अपने देश और समाज को भीषण संकट औऱ खतरों से उबारने में सफलता पाई। इन राष्ट्रीय सरकारोँ में संसद की बहुमत वाली पार्टी विपक्षी पार्टियों को भी सरकार में शामिल करती है। सभी पार्टियों के लोग अपने अन्तरविरोधों को कुछ वर्षों के लिये छोड देते हैं। सभी दल मंत्रिमंडल में शामिल होते हैं और तात्कालिक भीषण हालातों से देश को उबारने की कोशिश में लग जाते हैं।

हम नीचे ऐसी राष्ट्रीय एकता सरकारों (National Unity Government)” के कुछ उदाहरण देखेंगे।

1. 1861 में शुरू हुए अमेरिका के गृह युद्ध के समय संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रीय एकता सरकार बनी जिसमें बहुमत वाली रिपब्लिकन पार्टी के अब्राहम लिंकन राष्ट्रपति बने और विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी के ऐंडरू जॉनसन उपराष्ट्रपति बने। दोनों पार्टियों की सम्मिलित सरकार ने गृहयुद्ध में गोरे नस्लवादी राष्ट्रतोड़क विद्रोहियों को हराकर नस्लवाद को हराया और अमेरिकी राष्ट्र को टूटने से बचाया।

2. 1930 की भीषण आर्थिक मंदी (The Great Depression) के समय 1931-35 में बिट्रेन में रैमसे मैकडोनाल्ड के प्रधानमंत्री काल में बहुमत वाली लेबर पार्टी ने विपक्षी लिबरल पार्टी के साथ राष्ट्रीय सरकार बनाई।

इसी राष्ट्रीय एकता के उम्मीदवारों ने 1935 का चुनाव मिलकर लड़ा और आंशिक राष्ट्रीय एकता सरकार ने द्वितीय विश्व युद्ध के अंत 1945 तक ब्रिटेन पर शासन किया।

3. दक्षिण अफ्रीका में 1994 में हुए चुनाव के बाद उन सभी दलों के सांसदो को सरकार में शामिल किया गया जिन्हें 10% से ज्यादा वोट आये थे। यह सरकार 1999 तक चली।

4. नेपाल में 2015 के भीषण भूकंप के बाद सभी बड़ी पार्टियों ने मिलकर सरकार और संसद चलाई। इसी दौरान बरसों से मतभेदों मे फँसे हुए नेपाल के नये संविधान को भी बनाया और अंगीकृत किया गया।

5. इटली में 1946 से 2014 के बीच 7 (सात) बार विभिन्न पार्टियों ने मिलकर राष्ट्रीय एकता सरकार चलाई।

6. इज़रायल में कई बार ऐसी राष्ट्रीय एकता सरकार बनी है। सबसे ताज़ा प्रयोग अभी 27 मार्च 2020 का है।

7. ऐसी सरकारे अफगानिस्तान, कनाडा, क्रोएशिया, एस्टोनिया, ग्रीस, हंगरी, केन्या, लेबनान, फिलिस्तीन, श्रीलंका, सूडान, जिम्बाब्वे वगैरह में भी बनी है।

आज भारत में इतिहास का तकाजा है कि केंद्र में इस प्रकार की राष्ट्रीय एकता सरकार तुरंत बने

अभी की कोरोना महामारी के अभूतपूर्व संकट के समय बहुमत वाले केवल एक गठबंधन की सरकार अशक्त रहेगी और कठोर सही निर्णय लेकर उसका कार्यान्वयन नहीं कर पाएगी। उस दक्षता, निर्भीक निर्णयों और कार्यान्वयन के अभाव मे देश और जनता को बीमारी, भूख, मौतें, बेरोजगारी और आर्थिक संकटों की भयानक कठिनाइयों और पीड़ा से गुजरना होगा।

इसलिए अविलंब ऐसी एक राष्ट्रीय एकता सरकार बनाने लिए मैं एक फार्मूला प्रस्तावित कर रहा हूँ मंत्रिमंडल में 100 (सौ) सदस्यों की जगह मान कर गणना करें। लोक सभा चुनाव (2019) में जिस किसी पार्टी को 1 (एक) प्रतिशत से ज्यादा मत मिले थे; उस हरेक पार्टी के प्राप्त वोट प्रतिशत के अनुपात में मंत्री रखे जाँय। 2019 के चुनाव नतीजे बताते हैं कि 13 (तेरह) दलों को एक प्रतिशत से ज्यादा मत आये थे। इन सभी दलों के सदस्यों को लेकर मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया जाय। एक सरसरी गणना बताती है कि केवल 80 सदस्यों का ही मंत्रिमंडल बन सकेगा। क्योंकि छोटे दलों (1% से कम वोट वाले) और स्वतंत्र उम्मीदवारों द्वारा प्राप्त मतों के आधार पर क़ोई प्रतिनिधि मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होगा।

भारत की 130 करोड़ जनता को मौत, बीमारी और आर्थिक बरबादी से बचाने के लिए और एक समावेशी सक्षम राजनीतिक नेतृत्व तैयार करने के लिए यह संभव प्रकिया है। संसद मे बहुमत प्राप्त दल इस चुनौती को तुरंत स्वीकार करें और भारत तथा विश्व इतिहास मे एक ऊंची जगह पाएं।

सचि

Samajwadi Jan Parishad

816, Rudra Tower, Karamjeetpur, Sunderpur, Varanasi- 22`005

Press Release

Letter  2/ 2020                                                                                                                                                                           Date 15-04- 2020

Proposal for National Unity Government in Pandemic Crisis

In the year 2020, like many other countries India is on the verge of a historic calamity due to Covid-19 virus pandemic. Assessing the data , analyses and different types of known safety strategies for covid-19 virus pandemic in many other countries    leads to a conclusion that in India about tens of millions citizens  would get infected and hundreds of thousands would die . Moreover the economy , social fabric, political stability, law & order and food, health & defence security will almost collapse. The elite class, bureaucracy,  political class and scientists do not seem to be able to understand this danger till now. They are hiding the facts and future projections from people at large.

Many democratic governments- both Presidential and  Parliamentary fail to meet the challenges like prolonged war, nationwide epidemics, pandemics, global economic war and climatic catastrophe.  Governments elected through both the above mentioned patterns  turn out to be inefficient, indecisive & lack courageous decision making ability.

The governments fail because they do not have the mandate of total population & their representative participation.

In such situations in world history, there have been many successful experiments of formation of “National Unity Governments”  in several  countries.  Such National Governments  were successful in rescuing their countries & societies from dire difficulties  and dangers. In these national unity governments , the ruling majority party or coalition includes  the opposition parties or coalitions in the government.  All parties put off their differences for a short time and come together to form the government and  work collaboratively to get the country out of exigencies.

We will see some real world examples  of such National Unity Governments below.

1.  During the civil war which began in 1861 in USA, a national unity government was formed in which Abraham Lincoln of majority Republican Party became the president and Andrew Johnson of minority Democratic Party  was taken as the vice president. The coalition government of both the parties defeated white racist rebels in the civil war and saved United States of America from  disintegration .

2.   In the times of The Great Depression of 1930 in Britain, in Ramsay McDonald’s prime ministerial term,  the majority labour party collaborated with opponent Liberal Party and formed national unity government.

The candidates of this  national unity coalition together fought the UK parliamentary elections in 1935.  This  new semi national unity government ruled Britain till the end of Second World War  in 1945 .

3. After the elections held in 1994 in South Africa, MPs of all those parties  which  had got more than ten percent of total votes were included in the government. This government ruled till 1999.

4.  After the severe earthquake of Nepal in 2015, all major political parties together formed the government and conducted the parliament in cooperation. During this very period the country’s constitution which was hanging due to differences for several years,  was finalised and implemented.

5.   In Italy, from 1946 to 2014 different parties collaboratively formed the national unity governments seven times.

6.   In Israel,  this kind of national unity government has been formed several times in past. The latest such National Government has been formed very  recently  on 27th of March 2020 .

7.  Such governments have been formed in many other countries like Afghanistan , Canada,  Croatia, Estonia ,Greece,  Hungary , Kenya , Lebanon , Philippines , Sri Lanka , Sudan and Zimbabwe .

 As a historic need  of the hour, India immediately needs a  National Unity Government at the centre. In this time of unprecedented exigencies of Corona  pandemic , the conventional single party or alliance  governments would be weak, inefficient and incapable of taking and implementing hard difficult decisions. In the absence of right bold decisions & their implementation, the country and its people will suffer enormous hardships and pain of disease, hunger, deaths, unemployment and economic disaster.

To form a National Unity Government  without any delay,  I propose a formula . Let us calculate for a target of one hundred seats in the council of ministers.  In Lok Sabha elections 2019 , all parties that  garnered a minimum one percent or more  votes would be allocated the number of seats in the cabinet in proportion to  percentage of their gained votes. The results of LS elections 2019 show that there are thirteen political parties which had more than one percent of total votes . All these political parties should be included in the council of ministers . Data of elections tell that as per the formula,  there might be eighty members in such council of ministers because the parties which have gained less than one percent of votes and independent candidates would not be included in cabinet.

It is a possible initiative to develop an inclusive and capable political leadership to save our one thousand and three hundred million people of India from  disease, death and destruction of economy. The party with majority in parliament  will do well to accept it and earn a place in history of India and world.

Secretary 

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[youtube https://www.youtube.com/watch?v=wf3JskuoiNg ] यह २००५ में निर्देशक रॉबर्ट ग्रीनवाल्ड द्वारा बनाया गया वृत्त-चित्र है । इस फिल्म में वॉल मार्ट के व्यावसायिक चरित्र को सामने लाने के लिए पूर्व कर्मचारियों , फुटकर-व्यवसाय करने वाले लोगों से बातचीत है तथा वॉल मार्ट के अधिकारियों के फुटेज भी हैं । जिन समुदायों ने सफलतापूर्वक इस कम्पनी के खिलाफ आन्दोलन चलाए उनके नेताओं से भी बातचीत दिखाई गई है। मजदूरों के हक मारने ,छोटे व्यवसायों को खत्म करने की दुर्नीति तथा पर्यावरण नष्ट करने में इस दानवाकार कम्पनी की भूमिका को भी दिखाया गया है। भारत का सत्ता-प्रतिष्ठान इस कम्पनी को न्योतने जा रहा है। रोजगार के तमाम अवसरों के संकुचित होने के दौर में फुटकर-व्यवसाय या छोटी दुकानदारी के बारे में यह आश्वस्ति रहती थी कि मध्य वर्ग अपनी संचित निधि से ऐसे काम शुरु कर सकता है। दानवाकार कम्पनियों को फुटकर व्यवसाय करने की छूट देकर करोडों छोटे दुकानदारों को खत्म कर देने का मार्ग कल के कैबिनेट-फैसले से प्रशस्त हो गया है। दुनिया के १० सर्वाधिक पैसे वाले व्यक्तियों में ५ ‘वॉल्टन’ हैं । वॉल्टन यानि वॉल मार्ट कम्पनी का स्वामित्व और नियन्त्रण रखने वाला परिवार । समूचा वॉल्टन परिवार वॉल मार्ट के ३९ फीसदी शेयरों पर नियन्त्रण रखता है । इस परिवार की आर्थिक हैसियत ९० बिलियन है यानि बिल गेट्स तथा वॉरन बफेट की सम्मिलित हैसियत से ज्यादा और सिंगापुर की राष्ट्रीय आय के बराबर। समाजवादी जनपरिषद इस देश विरोधी फैसले के खिलाफ तीव्र प्रतिकार आह्वान करती है तथा संकल्प लेती है कि भारत-भूमि पर इन्हें न टिकने देने के लिए सभी प्रयास करेगी।

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‘महंगाई पर बैठक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची’ (द हिन्दू, इकॉनॉमिक टाईम्स 12 जनवरी 2011), दो दिन तक मैराथन मंथन, नतीजा सिफर’ (पत्रिका, 14 जनवरी 2011)

जनवरी 2011 के दूसरे सप्ताह में अखबारों में इस तरह की खबरें थी। पहले 11 जनवरी को प्रधानमंत्री की वरिष्ठ मंत्रियों के साथ महंगाई पर काबू पाने के लिए बैठक हुई। डेढ घंटे चली इस बैठक में प्रधानमंत्री के अलावा कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, गृहमंत्री पी.चिदंबरम, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया, सरकार के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु आदि मौजूद थे। किंतु यह बैठक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाई। इसके बाद अगले दो दिनों तक प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री की कई मंत्रियों, विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों के साथ चर्चा चली। अंत में एक कार्य-योजना घोषित की गई, किंतु उसमें भी कुछ विशेष नहीं था। मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु की अध्यक्षता में महंगाई की समीक्षा के लिए एक मंत्रिमंडलीय समूह और बना दिया गया।
आखिर बात क्या है ? देश की जनता जिस महंगाई की मार से त्राहि-त्राहि कर रही है, उस पर सरकार इतनी लाचार, निष्क्रिय और दिशाहीन क्यों दिखाई दे रही है? जबकि यह महंगाई कोई नयी तात्कालिक मुसीबत नहीं है। पिछले दो-तीन सालों से इसकी मार पड़ रही है। प्रधान मंत्री, वित्तमंत्री, कृषि एवं खाद्य मंत्री और सरकार में बैठे विशेषज्ञ बार-बार दिलासा देते रहे कि यह कुछ महीनों में काबू में आ जाएगी। (देखे ब~क्स में उनके बयान) लेकिन ये सारी दिलासाएं झूठी निकली। जिस सरकार का प्रधानमंत्री एक चोटी का अर्थशास्त्री हो, वित्तमंत्री बहुत अनुभवी और पुराना मंत्री हो, जिसको लगातार कई अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों की उच्च कोटि की सलाहें मिल रही हो, वैश्विक वित्ती संकट के दौरान अर्थव्यवस्था के कुशल प्रबंधन तथा ऊंची वृद्धि दर हासिल करने के कारण जिस सरकार की पूरी दुनिया में सराहना हो रही हो, वह महंगाई के मुद्दे पर अंधे की तरह रास्ता टटोलती, ‘धूल में लठ मारती’ या साफ बात करने से मुंह चुराती क्यों नजर आ रही है ?
जब से मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने है, कई भोले लोगों को भरोसा हो गया था कि अब देश की कमान एक काबिल, ईमानदार और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ व्यक्ति के हाथ में पहुंच गई है। (कुछ लोग अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में ऐसा ही भ्रम पाले थे)। लेकिन फिर भी देश की जनता की मुश्किलें क्यों बढ़ती जा रही है ? एक लातीनी अमरीकी देश के बारे में पिछली सदी के पचास के दशक में जो टिप्पणी की गई थी, वह आज के भारत पर सटीक बैठती है – ‘देश की अर्थव्यवस्था तो बहुत अच्छी है, किंतु जनता की हालत अच्छी नहीं है।’ आखिर क्यों ? आइए, इन सवालों का जवाब महंगाई के संदर्भ में खोजने की कुछ कोशिश करते हैं।
सरकारी सफाई और अर्ध सत्य
पिछले साल तक महंगाई की समस्या को तात्कालिक बताने और समस्या ही मानने से इंकार करने के बाद, अब सरकारी प्रवक्ताओं ने महंगाई के जो कारण गिनाने शुरू किए है, वे इस प्रकार है –
1. विकास के कारण लोगों की आमदनी और क्रयशक्ति बढी है, जिससे मांग व महंगाई बढ़ रही है। जब अर्थव्यवस्था में विकास होगा, तो कुछ महंगाई स्वाभाविक है।
2. मौसम की मार से व प्राकृतिक प्रकोप से फसलों का नुकसान हुआ है और अभाव पैदा हुआ है। इस पर सरकार का कोई बस नहीं है।
3. किसानों को बेहतर समर्थन-मूल्य देने के कारण महंगाई बढ़ी है।
4. जमाखोरों और बिचैलियों के कारण कीमतें बढ़ी है। राज्य सरकारें उन पर समुचित कार्यवाही नहीं कर रही है।
5. पूरी दुनिया में कीमते बढ़ रही है। उसका असर भारत पर भी पड़ना लाजमी और स्वाभाविक है।
इन सारी बातों में कुछ सत्य का अंश हो सकता है। किंतु वह आंशिक सत्य या अर्ध सत्य है, जिसका उपयोग चालाकी से लोगो को गुमराह करने के लिए किया जा रहा है। जिस तरह के द्वन्द्व बताए जा रहे है जैसे ‘विकास बनाम कीमत-नियंत्रण’ या ‘किसान बनाम उपभोक्ता’, वे नकली द्वन्द्व है। यह कहा जा सकता है कि जिस विकास के साथ इतनी भीषण महंगाई आए और आम लोगो का जीना मुश्किल कर दे, वह सही मायने में विकास ही नही है। लोगो की वास्तविक आमदनी व क्रयशक्ति बढने की बात भी विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि अभी पांच साल पहले तो अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता वाले एक सरकारी आयोग ने बताया था कि देश के 77 प्रतिशत लोग 20 रू. रोज से नीचे गुजारा कर रहे है। दूसरी सरकारी (तेंदूलकर) कमेटी ने माना है कि देश के 42 प्रतिशत लोग घोर गरीबी में जीवन यापन कर रहे है। फिर भी यदि मान लिया जाए कि आम जनता की क्रयशक्ति व मांग कुछ बढी है तो उस मांग को पूरा करने की तैयारी एवं व्यवस्था क्यों नही है ? यह बढ़ी हुई मांग पूरी होने के बजाय कीमतों में बढ़ोत्तरी को क्यों जन्म दे रही है ?
असली झगडा
दसअसल क्रयशक्ति बढ़ी है, किंतु ऊपर के लोगों की। देश में गैरबराबरी तेजी से बढ़ रही है और ऊपर के थो्ड़े से भारतीयों की आमदनी में तेजी से इजाफा हुआ है। यदि ‘भारत बनाम इंडिया’ की भाषा में बात करें तो ‘इंडिया’ की बढ़ती हुई क्रयशक्ति ने देश के संसाधनों को अपनी ओर खींचा है, जिससे ‘भारत’ की बुनियादी जरूरत की वस्तुओं का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में नहीं बढ़ रहा है। इसीलिए देश में दालों, अनाज, खाद्य तेल, सब्जियों, दूध आदि का उत्पादन जरूरत के मुताबिक नहीं बढ़ रहा है किंतु दूसरी ओर विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन तेजी से छलांगें लगा रहा है। वर्ष 2010 में कारों की बिक्री 25 से 30 फीसदी बढी है और कारों के नित नए मॉडल निकल रहे है। किंतु देश में साईकिलों का उत्पादन कम हो रहा है। पूरी दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत की ओर लपक रही है और अच्छे मुनाफे कमा रही है। मिसाल के लिए जनवरी में सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री की दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी ‘लॉरियल’ का फ्रांसीसी मालिक भारत आया तो उसने एक साक्षात्कार में बताया कि भारत में उनकी बिक्री 1000 करोड़ रू. तक पहुंच चुकी है और सालाना 30 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। भारत उनकी प्राथमिकताओं में है। बहुत जल्दी भारत उनके दस बडे बाजारों में होगा तथा 10-15 सालों में पांच सर्वोच्च बिक्री क्षेत्रों में एक हो जाएगा। (टाईम्स ऑफ इंडिया 17 जनवरी 2011) यह है ‘इंडिया’ की बढती हुई ताकत जो ‘भारत’ के मुंह का निवाला भी छीन रही है। आखिर किसी भी देश के संसाधन तो सीमित होते हैं। उन्हें चाहें विलासिता सामग्री के उत्पादन में झोंक दे, चाहें आम जरूरत की वस्तुओं के उत्पादन में लगा दें। यह है असली द्वन्द्व, जिसकी चर्चा प्रणब मुखर्जी, मनमोहन सिंह या मोंटेक सिंह नही करते है। महंगाई एक तरह के पुनर्वितरण का काम भी करती है। इससे साधारण लोग ज्यादा प्रभावित होते है। यदि उनकी मौद्रिक आय बढती भी है, तो उसे दूसरी जेब से निकालने का काम महंगाई करती है। यह शायद मनमोहन-मोंटेक छाप विकास के लिए जरूरी है।
भारतीय खेती का संकट
इसी तरह जब महंगाई का दोष प्राकृतिक प्रकोप या मौसम की मार पर मढ़ा जाता है, तो क्या यह आजादी के बाद हुए पूरे कृषि विकास पर सवाल नहीं खड़ा करता है ? यह कैसा विकास है कि आज भी खेती किसान और देश के लिए ‘मानसून का जुआ’ बनी हुई है या चाहे जब कीटों के प्रकोप का शिकार बन जाती हैं महंगाई के मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ी है और इसका सीधा संबंध भारतीय खेती के मौजूदा संकट से है। यह संकट पिछले पंद्रह वर्षो से किसानों की निरंतर आत्महत्याओं और अन्य रूपों में प्रकट हो रहा है। सरकार ने न केवल इस संकट के बुनियादी कारणों को दूर करने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि अपनी नीतियों और अपने कामों से इस संकट को और घना किया है। इस संदर्भ में निम्न तथ्य और प्रवृतियां नोट की जानी चाहिए –
1. पिछले 20 वर्षो में देश में कृषि भूमि में काफी कमी आई है, जिसका मुख्य कारण बांधों, कारखानों, एसईजेड, टाउनशिप, शहरी विस्तार, राजमार्गों आदि में बडे पैमाने पर खेती की जमीन का हस्तांतरण है। वर्ष 1990-91 और 2007-08 के बीच खेती के रकबे में 21.4 लाख हेक्टेयर की कमी हुई है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भूमि एक ऐसी चीज है, जिसकी आपूर्ति नहीं बढाई जा सकती। जंगलों व चरागाहों को साफ करके खेत बनाने की प्रक्रिया पिछली दो शताब्दियों से चल रही थी, उसकी भी सीमा आ चुकी है।
2. जमीन को सिंचित करके और उस पर साल में एक की जगह दो या तीन फसलें लेकर भी कृषि उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। किंतु उसकी भी सीमाएं व समस्याएं दिखाई दे रही है। सरकार सिंचाई क्षमता निर्माण (इरिगेशन पोटेन्शियल) की प्रगति के आंकडे देती है किंतु वास्तविक सिंचाई उससे काफी कम होती है। उदाहरण के लिए, यह बताया गया कि कुल सिंचाई क्षमता दसवीं पंचवर्षीय योजना के अंत में मार्च 2007 तक 10.28 करोड हेक्टेयर हो गई, किंतु वास्तव में केवल 8.72 करोड हेक्टेयर की ही सिंचाई हो रही थी। सिंचाई में वृद्धि की दर भी कम हो गई है। दरअसल बडे व माध्यम बांधो की परियोजनाओं पर काफी खर्च के बावजूद नहरों से सिंचित क्षेत्र में कमी आ रही है। कुंओं-ट्यूबवेलों से सिंचाई बढ रही है किंतु इनके अति-दोहन के कारण भू-जल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। इससे भी सिंचाई महंगी और अनिश्चित हो रही है।
3. भारत की विभिन्न फसलों की उत्पादकता, यानी प्रति एकड उपज में हरित क्रांति के दौर में जो वृद्धि हो रही थी, पिछले डेढ- दो दशकों से वह रूक गई है और उसमें ठहराव आ गया है। आर्थिक समीक्षा 2007-08 के मुताबिक धान, गेहूं, सरसों-रायडा, मूंगफली और मक्का की नयी किस्मों से प्रति एकड पैदावार में 1995-96 के पहले तो हर साल वृद्धि हो रही थी, किंतु उसके बाद यह शून्य रह गई है। कई मायनों में हरित क्रांति की हवा निकल गई है और उसके दुष्परिणाम नजर आ रहे हैं। जमीन की उर्वरकता कम हो रही है तथा उतनी ही पैदावार लेने के लिए किसानों को ज्यादा रासायनिक खाद का इस्तेमाल करना पड रहा है। कीट-प्रकोप भी बढ रहा है तथा कीटनाशकों का इस्तेमाल व खर्च बढता जा रहा है। सरकार की उदारीकरण-विनियंत्रण की नीति के कारण बिजली, डीजल, खाद, पानी की लागतों में भी बढोत्तरी हो रही है।
4. भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न (अनाज-दालें) उपलब्धता 1991 तक तो बढ रही थी किंतु उसके बाद में लगातार कम हो रही है। दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता तो 1959 से ही कम होना शुरू हो गई थी, क्योंकि दालों की जगह दूसरी फसलों ने लेना शुरू कर दिया था। उसके बाद 1991 से प्रति व्यक्ति अनाज उपलब्धता भी गिरना शुरू हो गई। 1991 में देश में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 468.5 ग्राम अनाज उपलब्ध था जो 2008 में 374.6 ग्राम रह गया।
मुक्त व्यापार की मार
5. दरअसल वैश्वीकरण के ताजे दौर में सरकार ने खाद्य-स्वावलंबन का लक्ष्य छोड दिया है। कृषि के विविधीकरण के नाम पर खाद्यान्न फसलों की जगह व्यापारिक फसलों की खेती पर जोर दिया गया। इनमें भी जिनका निर्यात हो सकता था, उनको ज्यादा बढावा दिया गया। सरकार का कहना था कि खाद्यान्न की कमी होगी तो बाहर से सस्ती दरों पर आयात कर लेंगे, क्योंकि तब अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी कीमतें कम चल रही थी। किंतु पिछले चार-पांच सालों से दुनिया के बाजार में कीमतें बढ़ जाने से पासा उलट पड गया। इतना ही नही, हमारे ‘विद्वान-विशेषज्ञ’ नीति निर्धारक एक सीधी सी बात भूल गए कि भारत एक विशाल देश है और आयातों द्वारा इसकी जरूरतें पूरा करना आसान नहीं है। अक्सर हमारे आयातों की मांग से ही दुनिया के बाजार में कीमतें चढ जाती है। तीन साल पहले गेंहूं के मामले में ऐसा ही हुआ। स्वावलंबन के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है, किंतु सरकारें उल्टी राह पर चल रही है। भारत 1993 के करीब खाद्य तेलों में करीब-करीब आत्मनिर्भर हो गया था और अपनी जरूरत का केवल 3 प्रतिशत आयात कर रहा था। किंतु इसी नीति के कारण आज वह आधे के करीब खाद्य तेल आयात करता है। दूसरी ओर, पिछले सालों में भारत से कृषि उपज का निर्यात भी काफी बढा है (देखे तालिका 1)। बासमती चावल, चीनी, काजू, तंबाकू, मांस, मछली, फल, सब्जियों आदि कई वस्तुओं के निर्यात में भारी बढोत्तरी हुई है। इससे भी देश के अंदर अभाव की स्थिति पैदा हुई है। अमीर विदेशियों की क्रयशक्ति ज्यादा होने के कारण वे भारत की वस्तुओं और भारत के संसाधनों को गरीब भारतवासियों से छीन लेते है। ‘मुक्त व्यापार’ का यही मतलब है। पिछले दिनों प्याज संकट के पीछे प्रमुख कारण फसल खराब होने के बावजूद प्याज का भारी निर्यात करने की प्रवृत्ति रही है। (देखे तालिका 2) ऐसा ही पहले चीनी के मामले में भी हुआ था। कई बार तो पहले सस्ता निर्यात करके बाद में महंगा आयात किया गया है। यह एक आत्मघाती नीति है। किंतु विश्व व्यापार संगठन के चक्कर में, मुक्त व्यापार तथा ‘निर्यातोन्मुखी विकास’ की विचारधारा के तहत, एक ओर देश का खाद्य-स्वावलंबन नष्ट किया जा रहा है, दूसरी तरफ सीमित भूमि व देश के संसाधनों को देश की जनता की जरूरतों को पूरा करने के बजाय विदेशियों की विलासिता पूर्ति में लगाया जा रहा है।
कुल मिलाकर, महंगाई महज मौसम की गडबडी का नतीजा नहीं है। महंगाई के ताजा दौर का सीधा रिश्ता भारतीय खेती के गंभीर संकट से है जो सरकार द्वारा खेती की उपेक्षा कृषि विरोधी व किसान-विरोधी नीतियों दोषपूर्ण टेक्नोलॉजी, वैश्वीकरण की नीतियों आदि का नतीजा है। इस नजरियें से, भारत के किसान की बेहतरी और उपभोक्ताओं को सस्ती चीजे मिलने में कोई विरोध नहीं है। बल्कि खेती के संकट को बुनियादी रूप से हल करने पर ही महंगाई का संकट स्थायी रूप से दूर हो सकेगा।
इस बुनियादी संकट और अपनी नीतियों के गुनाह को छिपाने के लिए ही सरकार महंगाई का दोष जमाखोरों, बिचैलियों और सटोरियों पर मढ देती है। कीमतें बढ़ने में उनकी भूमिका निश्चित ही रहती है किंतु वे भी अपना खेल तभी ज्यादा कर पाते है जब अभाव की हालातें बनती है। इसलिए अभाव पैदा होने के दीर्घकालीन कारणों को दूर किए बगैर महज उनको दोष देना असली अपराधियों को बचाने जैसा ही है।
फिर स्वयं केन्द्र सरकार की नीतियां जमाखोरी, सट्टा और बिचैलियों को बढाने की रही है। उदारीकरण के दौर में सरकार ने लगातार उनके उपर नियंत्रण के नियमों व कानूनों (जैसे स्टॉक की सीमा, अनिवार्य वस्तु कानून, चीनी पर नियंत्रण आदि) को शिथिल करने का प्रयास किया है और अभी भी कर रही है। जब महंगाई को लेकर ज्यादा हाय-तौबा मचती है तो स्टाक सीमा कम करके व कुछ छापे मारकर रस्म-अदायगी कर ली जाती है। बाद में वही ढर्रा शुरू हो जाता है।
कृषि उपज का कानूनी सट्टा
इतना ही नही सरकार तमाम कृषि उपजों के ‘वायदा बाजार’ को बहुत तेजी से बढावा दे रही है। सोने-चांदी का वायदा कारोबार तो ठीक है लेकिन गेहूं, चना, दालों, सोया-तेल, चीनी, मसालों, आलू आदि अनेक खाद्य-वस्तुओं को वायदा बाजार के दायरे में लाया जा चुका है। कृषि उपज के वायदे सौदों का कुल मूल्य 2008 के मुकाबले 48 प्रतिशत बढकर 2009 में 10.88 लाख करोड रू. हो चुका था। वायदा बाजार मुंबई व अहमदाबाद में स्थित वे इलेक्ट्रानिक विनिमय केन्द्र हैं जहां रोज करोड़ों-अरबों के सौदे कीमतों में उतार-चढाव से फायदा उठाने के मकसद से होते हैं। यह एक तरह का कानूनी सट्टा है और इसमें बडे-बडे सट्टेबाज बिना कुछ किए करोडो का वारा-न्यारा कर लेते है। इन्हीं के कारण कीमते एकाएक बढ जाती है। सरकार में बैठे इनके समर्थक दलील देते है कि वायदा बाजार से कीमतें नहीं बढ़ती, बल्कि उनमें स्थिरता आती है। यदि ऐसा है तो जब गेहूं, चना, चीनी, आलू आदि की कीमतें बहुत बढने लगती है तो सरकार इनके वायदा कारोबार को क्यों रोक देती है ? सवाल यह भी है कि वायदा कारोबार में कमाए जा रहे अरबों-खरबों रूपए आखिर कहां से आ रहे है ? क्या यह राशि किसानों और उपभोक्ताओं के बीच का मार्जिन नहीं बढ़ाएगी और  सुपर-बिचैलियों के इस धंधे को बढावा देने वाली सरकार किस मुंह से दूसरे छोटे बिचैलियों पर अंकुश लगाएगी ?
छोटे नहीं, बडे बहुराष्ट्रीय बिचैलिये चाहिए
इसी तरह, पिछले काफी समय से सरकार कृषि मंडियों को और कृषि उपज मंडी कानून को समाप्त करने पर तुली है। महंगाई के संदर्भ में भी फिर से उसी चर्चा को आगे बढाया जा रहा है। दलील यह दी जा रही है कि भारत में किसान से लेकर उपभोक्ता तक के बीच कीमतों में काफी फर्क है। भारत की कृषि मंडिया भी स्थानीय व्यापारियों के एकाधिकार का अड्डा बन गई है। सब्जियां, फल, मछली, मांस आदि के बीच में सड़ने व खराब होने से काफी, नुकसान भी होता है। उनके पर्याप्त भंडारण, प्रशीतन और प्रसंस्करण की समुचित व्यवस्था नहीं है। इसलिए इस क्षेत्र में बडी-बडी निजी कंपनियों के पूंजी निवेश को बढावा देना चाहिए और कृषि उपज मंडी कानून जैसे कानून उसमें बाधक है, क्योंकि इस कानून में मण्डी के बाहर किसानों से खरीदी करने पर रोक है। इसी दलील को आगे बढाते हुए अचानक भारत में खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को छूट देने की बात फिर से चल पडी है। कहा जा रहा है कि इससे बिचैलियों की संख्या में कमी आएगी। एक ब्रान्ड की खुदरा दुकानें खोलन, थोक व्यापार और कोल्ड स्टोर्स खोलने की इजाजत विदेशी कंपनियों को पहले ही दी जा चुकी है। अब अपने ब्रान्ड के अलावा हर तरह की वस्तुओं के खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने की मुहिम शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले वर्ष ही इस की चर्चा चलाई थी। हाल ही में फिर से महंगाई का हवाला देते हुए इसके लिए एक कैबिनेट नोट तैयार किया जा रहा है। मजे की बात तो यह है कि विश्व बैंक, कंपनियां, योजना आयोग, केन्द्रीय मंत्री सभी ने एक ही भाषा और एक ही स्वर में एक ही राग अलापना शुरू कर दिया है। विश्व बैंक के अध्यक्ष इस बीच भारत दौरे पर आए तो उन्होने भी खुदरा क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और वायदा बाजार के पक्ष में दलीलें दी। (द टाईम्स ऑफ इंडिया, द क्रेस्ट एडिशन, 22 जनवरी 2011)। भारतीय पूंजीपतियों के संगठनों – फिक्की और सीआईआई – ने भी इसी तरह के बयान जारी किए है। योजना आयोग के एक सदस्य सौमित्र चैधरी ने मंडी कानून पर हमला करते हुए एक अंग्रेजी अखबार में लेख लिखा कि महंगाई का एक ही ईलाज है कि खुदरा व्यापार में कंपनियों को आगे लाया जाए। (इकानॉमिक टाईम्स, 20 जनवरी 2011)। कैसे वैश्वीकरण की नवउदारवादी नीतियों से उपजे संकटों को भी उन्हीं नीतियों के एजेण्डे को और आगे बढाने के लिए चालाकी से इस्तेमाल किया जाता है, उसका यह बढिया उदाहरण है।
इसमें शक नही है कि भारत में मौजूदा हालत में किसानों और उपभोक्ताओं के बीच में कीमतों में भारी खाई है, बिचैलियों की काफी कमाई है तथा कृषि उपज मंडियों में किसानों का शोषण होता है। किंतु सवाल यह है कि सुझाए जा रहे कदमों से यह हालत सुधरेगी या बिगडेगी ? कुल मिलाकर, इन कदमों से इतना ही होगा कि भारत के कृषि उपज व्यापार, खाद्य- व्यापार और खुदरा व्यापार में चंद बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों का वर्चस्व कायम होगा। यानी सरकार लाखों छोटे बिचैलियों की जगह चंद बड़े देशी कार्पोरेट एवं बहुराष्ट्रीय बिचैलियों को स्थापित करना चाहती है। खेत से लेकर गोदाम, प्रसंस्करण, थोक और खुदरा व्यापार तक चंद ताकतवर कंपनियों का वर्चस्व क्या ज्यादा नुकसानदेह व खतरनाक नहीं होगा ? किसानों और उपभोक्ताओं दोनो का शोषण करने की ताकत क्या उनकी ज्यादा नहीं होगी ? ज्यादा प्रशीतन, प्रसंस्करण, पैकेजिंग, वातानुकूलन, महंगे ‘माॅल’ और उससे जुडे विज्ञापन आदि पर खर्च बढेगा, तो उससे वस्तुएं सस्ती होगी या और महंगी होगी ? इस बात का भी जवाब देना होगा कि पहले से देश में ‘माल’ संस्कृति आने और सब्जियों-फलों-अनाज आदि में रिलायन्स, आईटीसी, भारती मित्तल जैसी बडी कंपनियों के कूदने से महंगाई या बीच के मार्जिन पर नियंत्रण में क्या मदद मिली ?
दसअसल बिचैलियों की समाप्ति या नियंत्रण के लिए उल्टी दिशा में जाना होगा। एक तरफ विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था बनाकर, स्थानीय जरूरत के लिए आसपास के इलाके में उत्पादन को बढ़ावा देकर, किसान व उपभोक्ता के बीच की दूरी कम करना होगा। दूसरी तरफ, किसानों व उपभोक्ताओं की सहकारिता को बढावा देना होगा। साथ ही समाजवादी नेता डा.राममनोहर लोहिया की ‘दाम बांधो’ नीति के अनुरूप खेत या कारखाने से लेकर अंतिम उपभोक्ता तक के बीच के मार्जिन की सीमा तय करनी होगी। इसे पूरी तरह बाजार के हवाले छोड़ना खतरनाक है।
सरकार की यह दलील भी विचित्र है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें बढ़ने से उनका असर भारत पर पड रहा है। यदि ऐसा है तो फिर भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेश व्यापार एवं विदेशी पूंजी के लिए खोलने, अंतरराष्ट्रीय बाजार के साथ एकाकार करने और स्वावलंबन को समाप्त करने की हड़बड़ी क्यों की गई ? और इस बारे में पहले से दी जा रही चेतावनियों को नजर अंदाज क्यों किया गया ? क्या कम से कम अब इससे सबक लेंगे ?
इलाज-पढाई की महंगाई
आमतौर पर महंगाई की चर्चा वस्तुओं के दामों के संदर्भ में ही होती है। किंतु इधर सेवाओं की महंगाई भी तेजी से बढी है। खासतौर पर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी व्यवस्थाओं को जानबूझकर बिगाडने तथा निजी स्कूलों – अस्पतालों के बाजार को बढ़ावा देने का काम बाजारवादी सोच के तहत सुनियोजित तरीके से हो रहा है। इससे शिक्षा और इलाज दोनो काफी महंगे हुए है। यदि इनमें महंगाई की दर निकाली जाएगी तो वह सालाना 30 – 40 फीसदी से कम नही होगी। दवाओं की कीमतें भी तेजी से बढी है जिसका प्रमुख कारण दवाओं की कीमतों पर नियंत्रण कम करना और विश्व व्यापार संगठन के तहत नए पेटेन्ट कानून को लागू करना है।
सरकार का नवउदारवादी एजेण्डा पेट्रोल की कीमतो में भी दिखाई देता है। पेट्रोल के विनियंत्रण के 9 महीने में सात बार इसकी कीमतें बढाई गई है। हर बार इससे पूरी अर्थव्यवस्था में  कीमतों में बढोत्तरी का नया चक्र शुरू होता है। यह सही है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में खनिज तेल की कीमते काफी बढी है किंतु क्या तेल के अंतरराष्ट्रीय सट्टे बाजार में हर उतार-चढाव का असर भारत के करोडो उत्पादकों, उपभोक्ताओं व सेवा-प्रदाताओं को भोगना पडेगा ? तब उनकी रोजी-रोटी, उनकी जिन्दगियों और भारतीय अर्थव्यवस्था को कितने झटके बार-बार झेलने पडेंगे ? इन झटकों से बचाने की व्यवस्था क्यों नही हो सकती है ? दरअसल सवाल इंडियन आईल, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम या ‘तेल व प्राकृतिक गैस आयोग’ जैसी सरकारी कंपनियों के घाटे या मुनाफे का नही है। असली बात तो यह है कि सरकार ने इन कंपनियों के शेयर बेचने और उससे कमाई करने का लक्ष्य पिछले बजट में रखा था। कंपनियो को घाटा दिखाई देने पर उनके शेयर ठीक से नहीं बिकेंगे। यह सरकार की असली चिंता है।
इसीसे महंगाई के इस संकट और भारतीय जनजीवन के अन्य संकटों को समझने का सूत्र मिलता है। भारत सरकार और उससे जुडे लोगो की चिंता और ध्यान शेयर बाजार के सूचकांक पर केन्द्रित है, खुदरा कीमतों के सूचकांक में वृद्धि की परवाह उन्हें नहीं है। वैसे भी अनाज, दाल, प्याज या तेल की कीमते चाहे 100 – 200 प्रतिशत बढ जाए, उनको कोई फर्क नहीं पडता। उनका पूरा प्रयास राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर को ऊंचा बनाए रखने पर भी है जिसके लिए देशी-विदेशी पूंजी व अमीरों की मिजाजपुर्सी एवं हितचिंता आम जनता से ज्यादा महत्वपूर्ण है। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने पिछले वर्ष यह कहकर इस बात को उजागर भी कर दिया था कि वे ‘विकास’ की कीमत पर महंगाई रोकने के पक्ष में नहीं हैं। इस विकास के साथ मंहगाई, बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण, भ्रष्टाचार और आम जनता के कष्टों का बढना शायद एक ही सिक्कें के दो पहलू है। यह भी कह सकते है कि यह पुराने बंटवारें का ही एक नया निर्दयी दौर है, जिसमें इंडिया के हिस्से में विकास आता है और भारत के हिस्से में महंगाई, वंचना, अभाव और कष्ट आ रहा है और इसी सच में महंगाई समस्या के प्रति भारत सरकार की निष्क्रियता उदासीनता, लाचारी और किंकर्तव्यविमूढता का राज छिपा है।
(ई-मेल:  sjpsunil@gmail.com

लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और आर्थिक-राजनैतिक विषयों पर टिप्पणीकार है।

सुनील, ग्राम/पो. केसला, वाया इटारसी, जिला होशंगाबाद, (म.प्र.) पिन 461111
फोन: 09425040452
बाॅक्स
मंहगाई पर सरकारी बयान

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह

जुलाई 2009: भारत की महंगाई दर दिसंबर 2009 तक नीचे 6 प्रतिशत तक आ जाएगी, क्योंकि सामान्य मानसून से खाद्य कीमतें कम हो जाएगी।
फरवरी 2010: मैं समझता हूं कि खाद्य-महंगाई में बुरे दिन अब बीत चले है। हाले के सप्राहों में खाद्य कीमतें नरम पड गई है और उम्मीद करता हूं कि यह प्रक्रिया जारी रहेगी। (महंगाई पर विचार करने के लिए बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में)
जुलाई 2010:    महंगाई की वर्तमान ऊंची दर मुख्य रूप से खाद्य कीमतों में वृद्धि के कारण है। सरकार ने महंगाई को काबू करने के लिए कई कदम उठाए है। हम उम्मीद करते हैं कि दिसंबर तक थोक कीमतों में महंगाई की दर 6 प्रतिशत तक नीचे आ जाएगी।
20 जनवरी 2011: मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूं। लेकिन मुझे भरोसा है कि कीमतों की स्थिति काबू में आ जाएगी। ………मार्च तक हम कीमतों में स्थिरता ला पाएंगे।

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी

सितंबर 2009: हमें खाद्यान्नों की उपलब्धता के बारे में ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नही है।
मई 2010: महंगाई के बारे में हम जागरूक है, किंतु मैं इस विषय में भगदड या डर नहीं पैदा करना चाहता (आई एम नाॅट प्रेसिंग द पेनिक बटन)।
अगस्त 2010: यदि ब्याज दरों को बहुत बढा दिया तो कोई पूंजी निवेश नहीं होगा कोई विकास नही होगा। ………. यदि मैं मेरे आर्थिक विकास में समझौता कर लूं, तब तो मैं निश्चित ही महंगाई पर काबू पा सकूंगा।
13 जनवरी 2011: महंगाई को लेकर घबराने की जरूरत नही है। सरकार के लिए खासी परेशानी पैदा कर रही खाद्य पदार्थो की महंगाई दर नीचे आ गई है।

योजना आयोग उपाध्यक्ष, मोंटेक सिंह अहलूवालिया

अप्रैल 2010: भारत की महंगाई दर दो या तीन महीनों में गिर सकती है।
जुलाई 2010: वर्ष के अंत तक भारत की महंगाई दर ‘आरामदेह स्तर’ पर लौट सकती है।
अगस्त 2010: महंगाई की दर में कमी हो रही है और दिसंबर तक यह आरामदेह हो जाएगी। ……… हम जो कह रहे थे वैसा ही हो रहा है।

भारतीय रिजर्व बैंक डिप्टी गवर्नर, सुबीर गोकर्ण

जून 2010: जो खाद्य महंगाई दर पिछले नवंबर से 15 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है, वह इस साल की सामान्य वर्षा से कम हो जाएगी।
अगस्त 2010: हमारा ख्याल है कि हमने महंगाई का प्रबंध करने के लिए काफी कुछ किया है और हम इस वर्ष के दूसरे हिस्से में इसका असर देखेंगे, क्योंकि किसी भी कार्रवाई का असर होने में कुछ समय लगता है।

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पिछला हिस्सा । परमाणु बिजली की कारखाने बनाने में आज कोयले से लगभग दुगुना तथा गैस से ढाई गुना खर्च होता है । परमाणु बिजली बनाने में प्रति मेगावाट आठ करोड़ खर्च आता है जबकि कोयले में ३.७५ करोड़ तथा गैस में ३ करोड़ । परमाणु बिजली घरों को बनाने में अन्य बिजली घर बनाने से ज्यादा समय लगता है – लगभग दुगुने से तीन गुना , कभी कभी ज्यादा भी । भारतीय बिजली घरों की एक विशेषता है । जब वे बनना शुरु होते हैं या जब उनके लिए पैसे की मंजूरी ली जाती है तब उनकी क्षमता ज्यादा बतायी जाती है ताकि प्रति मेगावाट खर्च कम दिखे । फिर बन जाने के बाद उन्हें कम क्षमता का घोषित कर दिया जाता है । जब मद्रास -१ और मद्रास-२ बने थे तब उन्हें २३५ मेगावाट क्षमता का बताया गया था । फिर जब नरोरा , काकरापार , कैगा तथा रावतभाटा ३ और ४ शुरु हुए थे तब उन्हें भी २३५ मेगावाट क्षमता का ही बताया गया था। मगर जब १९९१ में नरोरा की दूसरी इकाई शुरु हुई (critical) तब अखबारों को डॉ. पी.के. आयंगार ने कहा कि नरोरा २२० मे्गा वाट का रिएक्टर है । नरोरा – १ जो पनी पुरानी क्षमता २३५ मेगा वाट पर पहले चालू हो चुका था , उसको भी २२० मेगा वाट का बता दिया गया । जैसे इतना काफ़ी न हो , काकरापार , कैगा , रावतभाटा के जो बिजली घर निर्माणाधीन थे उनको भी अचानक २२० मेगा वाट का कर दिया गया । जनता को कीमत के बारे में बेवकूफ़ बनाने के सिवाय इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? हालाँकि राजस्थान-अ१ तथा मद्रास-१ की क्षमता तो तकनीकी कारणों से घटा दी गयी है ।

    भारतीय परमाणु उर्जा कार्यक्रम में एक और अजीब व्यवस्था देखी जा सकती है । हाल के परमाणु घर PHWR  भारी पानी इस्तेमाल करते हैं । भारी पानी के संयंत्र में जितनी लागत लगती है एन.पी.सी.एल उतना पैसा नहीं देता क्योंकि वे भारी पानी उधार या लीज पर लेते हैं इसलिए परमाणु बिजली में भारी पानी की असली कीमत न गिनकर भाड़ा गिना जाता है । यह एक तरह की सरकारी सब्सिडी है जो परमाणु बिजली को सस्ता रखने के लिए दी जाती है । यूरेनियम की कीमत तथा हैदराबाद के न्यूक्लियर फ़ुएल कॉ्म्पलेक्स में पूरी लागत से कीमत नहीं लगाई जाती और सरकारी सब्सिडी मिल जाती है । इस प्रकार परमाणु बिजली पर होने वाले खर्च को सरकारी सब्सिडी से नीचे रखा जाता है । अगर दुर्घटना हो तब कितना खर्च होगा , उसका तो अन्दाज भी नहीं लगाया जा सकता है। उस सम्भावित खर्च को भी कीमत में नहीं जोड़ा जाता । दुर्घटना के लिए बीमा भी नहीं है  तथा उसका भी खर्च नहीं जोड़ा जाता । च्रेनोबिल की तरह अगर हजारों लोगों को हटाना पड़े तब क्या होगा ? परमाणु उर्जा केन्द्रों के आस पास रहने वाले लोगों , परमाणु उर्जा केन्द्रों में कार्यरत अस्थायी मजदूरों पर विकिरण का जो बुरा असर पड़ता है उसके इलाज का खर्च क्या बिजली के खर्च में गिना जाता है ?

    [ जारी ]

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